मैथिलीशरण गुप्त : खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि

भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' के प्रणेता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं। वह कबीर दास के भक्त थे। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को झांसी में हुआ। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से संबोधित किया जाता था।

'भारत-भारती', मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है। भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' निश्चित रूप से किसी शोध से कम नहीं आंकी जा सकती। 

मैथिलीशरण गुप्त स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। 

लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। 

बाद में महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 

सन् 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य-मान ग्रंथ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का संबोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य-कला में निखार आया और उनकी रचनाएं 'सरस्वती' में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला खंडकाव्य 'जयद्रथ-वध' आया। इसकी लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनुदत सब मिलाकर, हिंदी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान की हैं, जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।

काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्रधारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देशभर में प्रवाहित किया था राष्ट्रकवि गुप्त ने।

उनकी पंक्ति है "जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। 

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"

पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। 

धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत है। 

वह भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परंतु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं था। वह भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।

मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार 'भारत-भारती' है। यही उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। 

'साकेत' और 'जयभारत' इनके दोनों महाकाव्य हैं। 'साकेत' रामकथा पर आधारित है, लेकिन इसके केंद्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्‍जवल पक्ष प्रस्तुत किया है। 

इसी तरह 'यशोधरा' में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केंद्र में है। यशोधरा की मन:स्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है तो 'विष्णुप्रिया' में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केंद्र में है। 

खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त जी का अन्यतम योगदान रहा। आजादी के बाद उन्हें मानद राज्यसभा सदस्य का पद प्रदान किया गया। उनका निधन 12 दिसंबर, 1964 को झांसी में हुआ।

कई ऐसे रहस्य जो आज तक नहीं सुलझ पाए!

यदि रहस्य उजागर हो जाए तो वह रहस्य नहीं रहते। हमारी हमेशा रहस्यों को जानने की बड़ी तीव्र इच्छा रहती है। कई ऐसे रहस्य हैं जिनको आज भी हम नहीं जान पाए हैं और शायद न ही जान पाएंगे। मौत का रहस्य और जीवन की उत्पत्ति का रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया। जबकि मौत और जीवन के बारे में कहने को कई कथाएं हैं। फिलहाल हमारे पूरे जीवन में हमें रोजाना कई चीजें देखने को मिलती हैं, उनमें से कई चीजें सामान्य होती हैं जब कि कुछ अजीब होती हैं। आप यदि इनका वैज्ञानिक कारण जानना चाहें तो हम पाएंगे कि विज्ञान भी इसका जवाब नहीं दे पाता है। ये ऐसी चीजें हैं जिनका विज्ञान के पास भी कोई जवाब नहीं है। ये चीजें आपको आश्र्चयचकित तो करेंगी और विज्ञान भी इनके बारे में ज्यादा नहीं बता पाएगा। बरमूडा त्रिकोण से पक्षियों का प्रवास होना सहित कई ऐसी पेचीदा बातें हैं जिनकी गुत्थी कोई नहीं सुलझा पाया है।

क्या हैं इनका रहस्य :-

पक्षियों का प्रवास : पक्षी किसी विशेष मौसम में एक स्थान से दूसरे स्थान पर क्यों जाते हैं यह समझ नहीं आता। उनके पास कोई नेविगेशन टूल नहीं हैं फिर भी वे उस जगह कैसे पहुंचते हैं। यह कैसे संभव है?

जीव कैसे बिना ऑक्सीजन के रह जाते हैं : क्या आप जानते हैं कि कुछ ऐसे बैक्टीरिया और प्रजातियां हैं जो कि बिना ऑक्सीजन के जिंदा रहते हैं। ये जीव ऐसे स्थितियों में रहते हैं जहां ऑक्सीजन नहीं है, ऐसा कैसे हो पता है, वैज्ञानिक इसका पता लगा रहे हैं।

आंतरिक ज्ञान : क्या आप जानते हैं कि आपके अंतर्मन की बातें हमेशा सही है? यह मनोवैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य है कि व्यक्ति की अंतर्दृष्टि कैसे काम करती है?

भूत : यह बहस बरसों से चलती आ रही है कि भूत होते हैं या नहीं। आज तक कोई पुख्ता सबूत नहीं है। विज्ञान कहता है कि भूत होते ही नहीं है यह केवल मानिसक भ्रम है जबकि कुछ लोग कहते हैं कि उनका भूत से सामना हो चुका है।

क्या वास्तव में एलियंस हैं : कई लोग कहते हैं कि उन्होंने उड़नतश्तरियां और एलियंस देखें हैं लेकिन उनका अस्तित्व भी एक अनसुलझा रहस्य है। विज्ञान के पास भी इसका कोई जवाब नहीं है।

चुम्बक के ध्रुव : यह भी विज्ञान का एक अनसुलझा रहस्य है। आप चुम्बक को चाहे कितने ही टुकड़ों में बांट दें लेकिन फिर भी उसके उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव होते हैं।उबासी लेना : बोर होने या थकान होने पर हम उबासी लेते हैं। लेकिन इसका कोई तयपरक जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि लोग कहते हैं कि शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने पर ऐसा होता है, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है।

बरमूडा त्रिकोण का रहस्य : डैथ ट्रैप ट्राइंगल में विमान और जहाज लापता कैसे हो जाते हैं, यह एक रहस्य है! जो वैज्ञानिक इसकी खोज के लिए निकले थे उनका भी कोई पता आज तक नहीं चला है। यह पृवी की सबसे रहस्यमयी जगह है।

भगवान शिव क्यों कहलाते हैं त्रिपुरारी, जानिए क्या है रहस्य

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी।

शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं। आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|

भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| आपको पता होगा कि भगवान शिव के तीन नेत्रों वाले हैं| इसलिए त्रिदेव कहा गया है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता माने गए हैं और विष्णु को पालनहार माना गया है| वहीँ, भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है। इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है। वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।


तो आइये जाने आखिर क्यों कहलाते हैं भगवान शिव त्रिपुरारी!

भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपश्या के लिए उच्चे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपश्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो। तब तारकासुर के तीनो पुत्रो ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीनो पुरियों (नगर) का निर्माण करवाइये तथा इन नगरो के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहे है। जब एक हजार साल बाद यह पूरिया एक जगह आये तो मिलकर सब एक पूर हो जाए। 

तब जो कोई देवता इस पूर को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पूरी का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था। जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।

तपश्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तिया आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया। इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया। देवताओ आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरो को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने। हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।

उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अश्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहाँ तीनो दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरो में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया। देखते ही देखते उन त्रिपुरो के साथ वे दैत्य भी जलकर भष्म हो गए और सभी देवता आकश मार्ग से भगवान शिव पर फूलो की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरो के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी नाम से जाने जाते है।

मुमताज को था शम्मी से प्यार


गुजरे जमाने की मशहूर अदाकारा मुमताज बॉलीवुड की बेहतरीन अभिनेत्रियों में से एक हैं। उन्होंने साठ से सत्तर के दशक में अपने खूबसूरत अंदाज से दर्शकों को अपना दीवाना बनाया, उस दौर में बच्चों-बच्चों की जुबां पर उनका नाम था। मुमताज का जन्म 31 जुलाई, 1947 को मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। महज 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा। अपनी छोटी बहन मलिका के साथ वह रोजाना स्टूडियो-दर-स्टूडियो भटकती और जैसा चाहे वैसा छोटा-मोटा रोल मांगती थी।

मुमताज की मां नाज और चाची नीलोफर पहले से फिल्मों में मौजूद थीं। लेकिन दोनों जूनियर आर्टिस्ट होने के नाते अपनी बेटियों की सिफारिश करने योग्य नहीं थीं। मुमताज ने जूनियर आर्टिस्ट से स्टार बनने का सपना अपने मन में संजोया था, जिसे उन्होंने सच कर दिखाया। सत्तर के दशक में उन्होंने स्टार की हैसियत प्राप्त कर ली। उस दौर के नामी सितारे जो कभी मुमताज का नाम सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते थे, वे उनके साथ काम करने को लालायित रहने लगे थे। ऐसे सितारों में शम्मी कपूर, देवानंद, संजीव कुमार, जीतेंद्र और शशि कपूर आदि शामिल हैं। मुमताज ने दारा सिंह से लेकर दिलीप कुमार जैसे महान कलाकारों के साथ अभिनय कर सफलता हासिल की और अभिनय के क्षेत्र में नाम कमाया।

उन्होंने कई स्टंट फिल्मों में काम किया, जिनमें उनके नायक की भूमिका दारासिंह ने निभाई थी। इन फिल्मों में 'हरक्यूलिस', 'फौलाद', 'वीर भीम सेन', 'सैमसन', 'टार्जन कम टू दिल्ली', 'आंधी और तूफान', 'सिकंदरे आजम', 'टार्जन एंड किंगकांग', 'रुस्तमे हिंद', 'राका', 'बॉक्सर', 'जवान मर्द', 'डाकू मंगल सिंह' और 'खाकान' शामिल हैं। दारासिंह के बाद मुमताज की जोड़ी राजेश खन्ना के साथ जमी। उन दिनों राजेश भी सफलता की राह पर आगे बढ़ रहे थे। फिल्मों में दोनों को साथ देखने वालों की होड़ लग गई। फिल्म 'दो रास्ते' की सफलता के साथ दोनों के वारे-न्यारे हो गए। 1969 से 74 तक इन दो कलाकारों ने 'सच्चा झूठ', 'अपना देश', 'दुश्मन', 'बंधन और रोटी' जैसी शानदार फिल्में दीं।

यह ऐसा समय था, जब प्रत्येक अभिनेता मुमताज के साथ काम करना चाहता था। हद तो तब हुई जब शशि कपूर ने फिल्म 'चोर मचाए शोर' (1974) के स्टारकास्ट में मुमताज का नाम न देखकर फिल्म ही छोड़ दी। मुमताज को नायिका बनाए जाने पर ही शशि ने इस फिल्म में काम करना स्वीकार किया। यही हाल दिलीप कुमार का था। उन्होंने 'राम और श्याम (1967') फिल्म में अनेक नायिकाओं में से एक का चयन मुमताज को लेकर किया। मुमताज ने दस साल तक बॉलीवुड पर राज किया। वह शर्मिला टैगोर के समकक्ष मानी गईं और पैसा भी उन्हें के बराबर दिया गया। देव आनंद की फिल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' मुमताज के करियर को सुनहरा कर देने वाली फिल्म थी।

सत्तर के दशक में अचानक नई हीरोइनों की बाढ़ आ गई। तब तक मुमताज का भी स्टार बनने का सपना सच हो गया था। वह अब घर बसाना चाहती थीं। उन्होंने गुजराती मूल के लंदनवासी मयूर वाधवानी नामक व्यवसायी से 1974 में शादी की और ब्रिटेन में जा बसीं। शादी के पहले उनका नाम संजय खान, फिरोज खान, देव आनंद जैसे कुछ सितारों के साथ जोड़ा गया था, लेकिन अंत में मयूर पर उनका दिल आ गया। मुमताज जब 18 साल की थीं, तभी शम्मी कपूर ने उन्हें शादी के लिए प्रपोज कर दिया था। उस समय मुमताज भी शम्मी से प्यार करती थीं। शम्मी चाहते थे कि मुमताज अपना फिल्मी करियर छोड़कर उनसे शादी कर लें। लेकिन मुमताज के इनकार के बाद शम्मी के साथ उनका अफेयर खत्म हो गया।

शादी के बाद भी उनकी तीन फिल्में रिलीज हुईं, जिनकी शूटिंग उन्होंने शादी से पहले ही पूरी कर ली थी। वहीं फिल्मों के ऑफर उन्हें शादी के बाद भी मिलते रहे। मुमताज को 53 वर्ष की उम्र में कैंसर हो गया था। इस बीमारी से अब उन्होंने निजात पा ली है, लेकिन अब उन्हें थायराइड संबंधी समस्याएं परेशान कर रही हैं। उनकी दो बेटियां हैं। खबर आई थी कि मुमताज की अपने पति से अनबन चल रही है और दोनों अलग होने वाले हैं। लेकिन मुमताज ने अपने पति का साथ नहीं छोड़ा है। मुमताज ने 1967 की फिल्म 'राम और श्याम' व 1969 की फिल्म 'आदमी और इंसान' के लिए फिल्मफेयर बेस्ट सपोर्टिग एक्ट्रेस अवार्ड जीता।

उन्होंने 1969 की फिल्म 'ब्रह्मचारी' के लिए बेस्ट सपोर्टिग एक्ट्रेस का पुरस्कार जीता, 1970 की फिल्म 'खिलौना' के लिए फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार, 1996 में प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फिल्म अकादमी (आईफा) में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड और 2008 में आईफा उत्कृष्ट योगदान मानद पुरस्कार से नवाजा गया। मुमताज आज भी बॉलीवुड का चमकता सितारा हैं और नए कलाकारों के लिए किसी प्रेरणास्रोत से कम नहीं हैं।

जीवन की कठिनाइयों ने 'धनपत राय' को बनाया प्रेमचंद

प्रेमचंद उपनाम से लिखने वाले धनपत राय हिंदी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय और उपन्यास सम्राट के नाम से भी जाना जाता है। इस नाम से उन्हें सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था। साहित्य की यथार्थवादी परंपरा की नींव रखकर उन्होंने हिंदी कहानी और उपन्यास की एक ऐसी परंपरा का विकास किया, जिसने पूरी शती के साहित्य का मार्गदर्शन किया। 

प्रेमचंद का लेखन हिंदी साहित्य की एक ऐसी विरासत है, जिसके बिना हिंदी के विकास का अध्ययन अधूरा होगा। वे एक संवेदनशील लेखक, सचेत नागरिक, कुशल वक्ता तथा सुधी संपादक थे। बीसवीं शती के पूर्वार्ध में जब हिंदी में तकनीकी सुविधाओं का अभाव था, उनका योगदान अतुलनीय है। 

प्रेमचंद के बाद कई साहित्यकारों ने साहित्य को सामाजिक सरोकारों और प्रगतिशील मूल्यों के साथ आगे बढ़ाने का काम किया। 

हिंदी साहित्य में प्रेमचंद का नम अमर है। उन्होंने हिंदी कहानी को एक नई पहचान व नया जीवन दिया। आधुनिक कथा साहित्य के जन्मदाता कहलाए। उन्हें 'कथासम्राट' की उपाधि प्रदान की गई। उन्होंने 300 से अधिक कहानियां लिखी हैं। इन कहानियों में उन्होंने मनुष्य के जीवन का सच्चा चित्र खींचा है। 

आम आदमी की घुटन, चुभन व कसक को अपनी कहानियों में उन्होंने प्रतिबिम्बित किया। इन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शो को भी वर्णित किया है। 

इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढ़ियों, अंधविश्वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है, वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। 'ईदगाह', 'पूस की रात', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'नमक का दारोगा', 'दो बैलों की कथा' जैसी कहानियां कालजयी हैं। उन्हें कलम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि कई नामों से पुकारा जाता है।

मुंशी प्रेमचंद का जन्म एक गरीब घराने में काशी से चार मील दूर बनारास के पास लमही नामक गांव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। उनका असली नाम धनपतराय। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था। आठ वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें मातृस्नेह से वंचित होना पड़ा। दुख ने यहीं उनका पीछा नहीं छोड़ा। चौदह वर्ष की आयु में पिता का निधन हो गया। उनके पिता मुंशी अजायबलाल डाकखाने में मुंशी थे।

सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। विद्यार्थियों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह उन्होंने न सिर्फ अपनी रोजी-रोटी चलाई।

उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने 'तिलिस्मे होशरूबा' समूचा पढ़ लिया। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ उन्होंने पढ़ाई भी जारी रखी। 

सन् 19910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और 1919 में बीए पास करने के बाद स्कूलों के डिप्टी सब-इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। 

उनका पहला विवाह उन दिनों की परंपरा के अनुसार पंद्रह साल की उम्र में हुआ जो सफल नहीं रहा। उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन किया और 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। उनकी तीन संतानें हुईं- श्रीपत राय, अमृतराय और कमला देवी श्रीवास्तव। 

वर्ष 1910 में उनकी रचना सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) के लिए हमीरपुर के जिला कलेक्टर ने तलब किया और उन पर जनता को भड़काने का आरोप लगाया। सोजे-वतन की सभी प्रतियां जब्त कर नष्ट कर दी गईं। कलेक्टर ने नवाबराय को हिदायत दी कि अब वे कुछ भी नहीं लिखेंगे, यदि लिखा तो जेल भेज दिया जाएगा। इस समय तक प्रेमचंद, धनपत राय नाम से लिखते थे। 

उर्दू में प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'जमाना' के सम्पादक और उनके अजीज दोस्त मुंशी दयानारायण निगम ने उन्हें प्रेमचंद नाम से लिखने की सलाह दी। इसके बाद वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे। उन्होंने आरंभिक लेखन जमाना पत्रिका में ही किया। 

जीवन के अंतिम दिनों में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े। उनका उपन्यास 'मंगलसूत्र' पूरा नहीं हो सका और लंबी बीमारी के बाद 8 अक्टूबर, 1936 को उनका निधन हो गया।

प्रेमचंद का रचना संसार :

उपन्यास : वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन (1916), प्रेमाश्रम (1922), निर्मला (1923), रंगभूमि (1924), कायाकल्प (1926), गबन (1931), कर्मभूमि (1931), गोदान (1932), मनोरमा, मंगल-सूत्र (1936-अपूर्ण)।

कहानी-संग्रह : प्रेमचंद के 21 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे, जिनमें 300 के लगभग कहानियां हैं। ये 'शोजे वतन', 'सप्त सरोज', 'नमक का दारोगा', 'प्रेम पचीसी', 'प्रेम प्रसून', 'प्रेम द्वादशी', 'प्रेम प्रतिमा', 'प्रेम तिथि', 'पंच फूल', 'प्रेम चतुर्थी', 'प्रेम प्रतिज्ञा', 'सप्त सुमन', 'प्रेम पंचमी', 'प्रेरणा', 'समर यात्रा', 'पंच प्रसून', 'नवजीवन' जैसे शीर्षकों से प्रकाशित हुई थीं।

प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियों का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।

नाटक : संग्राम (1923), कर्बला (1924) प्रेम की वेदी (1933)।

जीवनियां : महात्मा शेख सादी, दुगार्दास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार (आत्मकथा)

बाल रचनाएं : मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियां, राम चर्चा।

इनके अलावा प्रेमचंद ने अनेक विख्यात लेखकों यथा- जॉर्ज इलियट, टॉलस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियों का अनुवाद भी किया।

जब इच्छाधारी नाग ने इस लड़की की मांग में भर दिया सिंदूर!

रायपुर: भारतीय जनमानस में इच्छाधारी नाग अथवा नागिन की अनगिनत कथाएं मौजूद हैं। किवदंतियों के अनुसार ये इच्छाधारी नाग अथवा नागिन कोई भी रूप धर सकते हैं। कहीं भी जा सकते हैं। हिन्दी फिल्मकारों ने समाज में व्याप्त सर्प सम्बंधी अंधविश्वास की धारणाओं का जमकर दोहन किया है। उन्होंने न सिर्फ इस विषय फिल्में बनाकर मोटा मुनाफा कमाया है, वरन समाज में अंधविश्वास की धारणा को और ज्यादा गहरा करने का काम भी किया है। जानकारों की माने तो ये सारी बातें कोरी बकवास हैं। इनका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है| फिलहाल इच्छाधारी नाग नागिन का एक मामला छत्तीसगढ़ में देखने को मिला है।

छत्तीसगढ़ के सूरजपुर गांव में 10वीं में पढ़ने वाली एक नाबालिग स्टूडेंट इच्छाधारी सांप से शादी करने का दावा करने का मामला सामने आया है। हालांकि उसकी बात पर यकीन करना काफी मुश्किल है। लड़की का कहना है कि एक इच्छाधारी सांप उसे अपने साथ नागलोक ले गया अौर उससे शादी रचाई। लड़की खुद को उस नाग की पत्नी मानते हुए किसी और से शादी करने से इंकार कर रही है। तकरीबन दो हफ्ते पहले एक इच्छाधारी नाग ने सूरजपुर जिले के कसकेला गांव के जुनापारा में रहने वाली एक नाबालिग स्टूडेंट अनिता को अपने लोक में ले जाकर उससे शादी कर लिया।

दरअसल, नाबालिग स्टूडेंट का दावा है कि दो सप्ताह पहले शाम के वक्त जब वह अपने कमरे में सो रही थी। उसी वक्त एक नाग वहां आया और उसने इंसानी रूप धारण कर लिया। इसके बाद स्टूडेंट बेहोश हो गई और इच्छाधारी नाग उसे अपने लोक में ले गया. जहां उसने उसकी मांग में सिंदूर भरकर लड़की से शादी कर लिया और फिर उसे वापस उसके घर भेज दिया। जब वह जागी तो उसकी मांग में सिंदूर भरा हुआ था। स्टूडेंट का दावा है कि पिछले दो सप्ताह से वह सिंदूर उसकी मांग से मिट नहीं रहा है। वहीं अपनी बेटी के भविष्य को लेकर परेशान उसकी मां करमातो ने बताया कि कुछ दिनों से उसकी बेटी की तबियत खराब चल रही थी, जिसका झाड़-फूंक से इलाज भी जारी था। 

वहीं सांप से शादी के दावे के बाद मां भी अपनी बेटी के शादी को लेकर परेशान हैं। लड़की अपने आप को इच्छाधारी नागिन बताती है साथ ही घर के पीछे अक्सर दिखाई देने वाले एक नाग से सात जन्मों का रिश्ता भी बताती है। अपने आपको नागिन बताकर घर के अक्सर देखे जाने वाले नाग के साथ जिंदगी बिताने की बात कह रही है, और अपने मांग में सिंदूर भी डाल चुकी है। गौर करने वाली बात यह है कि युवती के मांग की सिंदूर पानी से भी नहीं निकल रहा है, वहीं युवती किसी और से शादी कराने की बात सुनकर तमतमा उठती है। युवती ने यह भी दावा किया है कि दोनों पिछले कई जन्मों से पति –पत्नी हैं अनीता उस इच्छाधारी नाग से पिछले 7 जन्मों का रिश्ता बताती है। और इस जन्म में भी हमें एक होने से काई नहीं रोक सकता। इस घटना के बाद से युवती पूरे इलाके में चर्चा में है और घर पर भी देखने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी है।

आपको बता दें कि यह इच्छाधारी नाग का यह पहला मामला नहीं है इससे पहले भी कई मामले देखे गए| अभी हाल ही में एक ऐसा मामला औरंगाबाद में देखने को मिला था| बिहार के औरंगाबाद में देखने को मिला है| यहां एक किशोरी की शादी इच्छाधारी नाग से होने की अफवाह फैली। अफवाह पर ही यह शादी देखने के लिए 50 हजार से अधिक लोगों की भीड़ जुट गई। हद तो यह हो गई कि किशोरी को सजाकर खड़ा कर दिया गया, लेकिन नाग को न आना था, ना आया। 

यहां यह अफवाह फैलाई गई थी कि गांव के अखिलेश भुइयां की बेटी रेणु कुमारी की शादी इच्छाधारी नाग से होगी। वर नाग रूप में आएगा और इंसान से शादी करेगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। चर्चा ये उड़ाई गई कि गांव की एक किशोरी जब एक दिन अपने घर आ रही थी तो उसे एक नाग ने रोक लिया। बाद में आदमी का रूप धर कर उसने लड़की से शादी करने का प्रस्ताव रखा और शादी के लिए दिन तय किया। फिर क्या था यह अनोखी शादी देखने के लिए हर तरफ से लोगों का रेला आना शुरू हो गया| सुबह आठ बजे तक सारा इलाका लोगों से पट गया। सभी सड़कें जाम हो गईं। खेतों से लेकर सड़कों तक, पेड़ों से लेकर मकानों तक लोग भरे पड़े थे। कुछ महिलाएं तो बाकायदा शादी के गीत गाते हुए टोलियों में पहुंचीं। लेकिन जब कोई इच्छाधारी नाग लड़की को ब्याहने नहीं पहुंचा तो हर कोई किशोरी के मां-बाप को कोसता हुआ अपने घर चला गया| 

एक ऐसा ही मामला वाराणसी जिले में भी देखने को मिला था| वाराणसी के पिंडरा विकास खंड के राजपुर ग्रामसभा के राजस्व गांव बड़वापुर के रहने वाले संदीप नाम के व्यक्ति ने इच्छाधारी नागिन से शादी करने का दवा किया था| अपने आप को पूर्वजन्म में नाग और इस जन्म में नागिन से शादी का दावा करने वाले संदीप ने बताया कि गांव के ही शिव मंदिर के बगल में इच्छाधारी नागिन से उसकी मुलाकात हुई थी। नागिन ने उसे बताया था कि 20 साल पूरा होने पर वह उससे शादी करने के लिए आएगी। बड़वापुर के रहने वाले दयाशंकर वर्मा के दो लड़कों में छोटा लड़का संदीप कुमार दावा कर रहा था कि उसके ऊपर नाग देवता की सवारी है। उसकी शादी इच्छाधारी नागिन से चार अप्रैल को शिव मंदिर में होगी। हालाँकि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ| 

इससे पहले इच्छाधारी नाग' की शादी का मामला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में अगस्त 2014 को देखने को मिला था| बांदा जिले के बबेरू थाने के पवैया गांव निवासी दलित युवक अरुण कुमार ने भी दावा किया था कि वह इच्छाधारी नाग है, नाग पंचमी को नागिन से शादी करेगा| अरुण ने ग्रामीणों को बताया था कि एक इच्छाधारी नागिन सपने में उसे बताती है कि वह उसका पूर्व पति है और उसके चाचा ने उसकी हत्या कर दी थी, अब वह हत्यारे के घर में जन्म लिया है| बकौल अरुण, 'मैं इच्छाधारी नाग हूं और नाग पंचमी को नागिन से शादी करूंगा' उसके इस ऐलान से आस-पास के गांवों के हजारों लोगों का हुजूम इकट्ठा हो गया| 

इसी दौरान बबेरू पुलिस को सूचना मिली और वह मौके पर पहुंच कर कथित इच्छाधारी नाग को हिरासत में ले लॉकअप में बंद कर दिया| उधर, गांव में मौजूद प्रत्यक्षदर्शी सहदेव रैदास ने बताया कि पुलिस जैसे ही अरुण को हिरासत में लेकर चली गई तो एक नागिन 'बांबी' से निकलकर आई और गुस्से में उसने कई लोगों को खदेड़ा| उसका कहना था कि नागिन के इस तरह खदेड़ने से साबित होता है कि इन दोनों में जरूर कोई पुराना रिश्ता है|

गुरु पूर्णिमा कल, जानिए क्या है महत्व


गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर: ।
गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम: ।।

आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरू पूर्णिमा कहते हैं। हिंदू धर्म में इस पूर्णिमा का विशेष महत्व है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु के अवतार वेद व्यासजी का जन्म हुआ था। इन्होंने महाभारत आदि कई महान ग्रंथों की रचना की। कौरव, पाण्डव आदि सभी इन्हें गुरु मानते थे इसलिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा व व्यास पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा या व्यास पूर्णिमा 19 जुलाई को मनाई जायेगी|

आपको बता दें कि गुरू पूर्णिमा वर्षा ऋतु के आरंभ में आती है। इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-संत एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। ये चार महीने मौसम की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ होते हैं। न अधिक गर्मी और न अधिक सर्दी। इसलिए अध्ययन के लिए उपयुक्त माने गए हैं। जैसे सूर्य के ताप से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता एवं फसल पैदा करने की शक्ति मिलती है, ऐसे ही गुरुचरण में उपस्थित साधकों को ज्ञान, शांति, भक्ति और योग शक्ति प्राप्त करने की शक्ति मिलती है।

गुरु पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह उच्चवल और प्रकाशमान होते हैं उनके तेज के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक हुए बिना नहीं रह पाते| गुरू पूर्णिमा का स्वरुप बनकर आषाढ़ रुपी शिष्य के अंधकार को दूर करने का प्रयास करता है| शिष्य अंधेरे रुपी बादलों से घिरा होता है जिसमें पूर्णिमा रूपी गुरू प्रकाश का विस्तार करता है| जिस प्रकार आषाढ़ का मौसम बादलों से घिरा होता है उसमें गुरु अपने ज्ञान रुपी पुंज की चमक से सार्थकता से पूर्ण ज्ञान का का आगमन होता है|

गुरु पूर्णिमा महत्व-

गुरु को ब्रह्मा कहा गया है| क्योंकि गुरु ही अपने शिष्य को नया जन्म देता है| गुरु ही साक्षात महादेव है, क्योकि वह अपने शिष्यों के सभी दोषों को माफ करता है| इसलिए इस दिन प्रातः काल स्नानादि करके शुद्ध वस्त्र धारण कर गुरु के पास जाना चाहिए। उन्हें ऊंचे सुसज्जित आसन पर बैठाकर पुष्पमाला पहनानी चाहिए। इसके बाद वस्त्र, फल, फूल व माला अर्पण कर तथा धन भेंट करना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धापूर्वक पूजन करने से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त होता है। गुरु के आशीर्वाद से ही विद्यार्थी को विद्या आती है। उसके हृदय का अज्ञानता का अन्धकार दूर होता है। गुरु का आशीर्वाद ही प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी, ज्ञानवर्धक और मंगल करने वाला होता है। संसार की संपूर्ण विद्याएं गुरु की कृपा से ही प्राप्त होती हैं और गुरु के आशीर्वाद से ही दी हुई विद्या सिद्ध और सफल होती है। 

Flipkart की धोखाधड़ी, लैपटॉप की जगह निकला पत्थर

कोलकाता: आजकल हर लोगो को ऑनलाइन शॉपिंग करना पसंद है। अपने घर के ‌समान से लेकर, किताबों, फोन, कपड़े तक ऑनलाइन शॉपिंग के जरिए मंगाना लोगों की पहली पसंद बन चुका है। अगर आप ऑनलाइन शॉपिंग के शौकीन हैं तो यह खबर आपको चौंकाने वाली है। सोचिए, आपने ऑनलाइन शॉपिंग से एक शानदार लैपटॉप ऑर्डर किया हो और जब उस प्रोडक्ट की डिलीवरी हो और उसमें पत्थर निकले। आप उस समय क्या सोचेंगे?

दरअसल, पश्चिम बंगाल के मालदा के रहने वाले आदित्य कुमार वर्मा के साथ ऐसा ही हुआ। इन्होंने ऑनलाइन शॉपिंग पोर्टल फ्लिपकार्ट से 25 जून 2016 को एक लैपटॉप ऑर्डर किया था। जब शुक्रवार को इनका प्रोडक्ट डिलीवर हुआ। इसके बाद जब उन्होंने पैकेट खोला तो उनके होश उड़ गए। पैकेट के अंदर लैपटॉप के बजाए पत्थर का एक टुकड़ा रखा था।

इसके बाद इन्होंने तुरंत कंपनी के फेसबुक पेज पर इसकी शिकायत की। फिलहाल धोखाधड़ी का शिकार हुए बैंक ऑफिसर आदित्य कुमार का कहना है कि इस मामले को लेकर वह उपभोक्ता फोरम में शिकायत करेंगे।

अमरीश पुरी: दमदार अभिनय के बल पर खलनायकी को दी एक नयी पहचान

बॉलीवुड में अमरीश पुरी को एक ऐसे अभिनेता के तौर पर याद किया जाता है जिन्होंने अपनी कड़क आवाज .रौबदार भाव..भंगिमाओं और दमदार अभिनय के बल पर खलनायकी को एक नयी पहचान दी। रंगमंच से फिल्मों के रूपहले पर्दे तक पहुंचे अमरीश पुरी ने करीब तीन दशक में लगभग 250 फिल्मों में अभिनय का जौहर दिखाया। आज के दौर में कई कलाकार किसी अभिनय प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लेकर अभिनय जीवन की शुआत करते हैं जबकि अमरीश पुरी खुद अपने आप में चलते फिरते अभिनय प्रशिक्षण संस्था थे ।

पंजाब के नौशेरां गांव में 22 जून 1932 में जन्में अमरीश पुरी ने अपने करियर की शुरूआत श्रम मंत्रालय में नौकरी से की और उसके साथ साथ सत्यदेव दुबे के नाटकों में अपने अभिनय का जौहर दिखाया। बाद में वह पृथ्वी राज कपूर के ..पृथ्वी थियेटर ..में बतौर कलाकार अपनी पहचान बनाने में सफल हुये । पचास के दशक में अमरीश पुरी ने हिमाचल प्रदेश के शिमला से बीए पास करने के बाद मुंबई का रूख किया ।
उस समय उनके बड़े भाई मदनपुरी हिन्दी फिल्म मे बतौर खलनायक अपनी पहचान बना चुके थे।

वर्ष 1954 में अपने पहले फिल्मी स्क्रीन टेस्ट मे अमरीशपुरी सफल नही हुये । अमरीश पुरी ने अपने जीवन के 40 वें वसंत से अपने फिल्मी जीवन की शुरूआत की थी । वर्ष 1971 मे बतौर खलनायक उन्होंने फिल्म रेशमा और शेरा से अपने कैरियर की शुरूआत की लेकिन इस फिल्म से दर्शको के बीच वह अपनी पहचान नहीं बना सके। लेकिन उनके उस जमाने के मशहूर बैनर बाम्बे टाकिज में कदम रखने बाद उन्हें बडें बड़े बैनर की फिल्में मिलनी शुरू हो गयी।

अमरीश पुरी ने खलनायकी को ही अपने कैरियर का आधार बनाया । इन फिल्मों में निंशात. मंथन. भूमिका. कलयुग और मंडी जैसी सुपरहिट फिल्में भी शामिल है । इस दौरान यदि अमरीश पुरी की पसंद के किरदार की बात करें तो उन्होनें सबसे पहले अपना मनपसंद और न कभी नहीं भुलाया जा सकने वाला किरदार गोविन्द निहलानी की वर्ष 1983 मे प्रदर्शित कलात्मक फिल्म अर्द्धसत्य में निभाया । इस फिल्म मे उनके सामने कला फिल्मों के अजेय योद्धा ओमपुरी थे ।

इसी बीच हरमेश मल्होत्रा की वर्ष 1986 मे प्रर्दशित सुपरहिट फिल्म.नगीना.में उन्होंने एक सपेरे की भूमिका निभाया जो लोगो को बहुत भाया । इच्छाधारी नाग को केन्द्र में रख कर बनी इस फिल्म में श्रीदेवी और उनका टकराव देखने लायक था। वर्ष 1987 मे अमरीश पूरी कैरियर मे अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ। वर्ष 1987 में अपनी पिछली फिल्म. मासूम. की सफलता से उत्साहित शेखर कपूर बच्चों पर केन्द्रित एक और फिल्म बनाना चाहते थे जो ‘इनविजबल मैन’ के उपर आधारित थी ।

इस फिल्म मे नायक के रूप में अनिल कपूर का चयन हो चुका था जबकि कहानी की मांग को देखते हुये खलनायक के रूप मे ऐसे कलाकार की मांग थी जो फिल्मी पर्दे पर बहुत ही बुरा लगे । इस किरदार के लिये निर्देशक ने अमरीश पुरी का चुनाव किया जो फिल्म की सफलता के बाद सही साबित हुआ। इस फिल्म मे अमरीश पुरी द्वारा निभाये गये किरदार का नाम था .मौगेम्बो. और यही नाम इस फिल्म के बाद उनकी पहचान बन गया ।

जहां भारतीय मूल के कलाकार को विदेशी फिल्मों में काम करने की जगह नही मिल पाती है वही अमरीश पुरी ने स्टीफन स्पीलबर्ग की मशहूर फिल्म ..इंडिना जोंस एंड द टेंपल आफ डूम.. में खलनायक के रूप में काली के भक्त का किरदार निभाया । इसके लिये उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति भी प्राप्त हुयी । इस फिल्म के पश्चात उन्हें हालीवुड से कई प्रस्ताव मिले जिन्हे उन्होनें स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि हालीवुड में भारतीय मूल के कलाकारों को नीचा दिखाया जाता है। लगभग चार दशक तक अपने दमदार अभिनय से दर्शको के दिल में अपनी खास पहचान बनाने वाले अमरीश पुरी 12 जनवरी 2005 को इस दुनिया से अलविदा कह गये ।


खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी


नई दिल्ली: भारत को अंग्रेजों से आज़ादी दिलाने के लिए 1857 में हुई आजादी की पहली क्रांति में बढ चढकर हिस्सा लेने वाली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्म आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था| लक्ष्मी बाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन प्यार से उन्हें 'मनु' कहा जाता था| देश में जब भी महिला सशक्तिकरण की बात होती है तो शायद सबसे पहला नाम इस वीरांगना का ही लिया जाता है| रानी लक्ष्मीबाई ना सिर्फ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक आदर्श हैं जो महिलाएं सोचती है कि वह कुछ नहीं कर सकती|

रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही बेहद साहसी थीं, और उन्होंने बचपन में न सिर्फ शास्त्रों की शिक्षा ली बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| समय पड़ने पर उन्होंने अपने अप्रतिम शौर्य से सबको परिचित भी करवाया| अपनी वीरता के किस्सों को लेकर वह किंवदंती बन चुकी हैं| हर किताब हर जुबान उनकी महान गाथा से ओत-प्रोत होती है| अँगरेज़ भी खुद को उनके शौर्य की प्रशंसा से नहीं रोक सके थे|

बचपन में ली शस्त्रों की शिक्षा

बचपन की मनु, शुरुआत से ही खुद को देश की आज़ादी के लिए तैयार कर रही थी| उन्होंने सिर्फ शास्त्रों की ही नहीं बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| छोटी सी उम्र में ही वह देशभावना के प्रति जागरुक हो गई थी, उनमें अपने देश को आजाद रखने की ललक थी| उन्हें गुड्डे गुड़ियों से ज्यादा तलवार से प्यार था| उन्होंने हर वो गुर सिखा जो किसी शासक के लिए जरूरी होता है| चाहे वो घुड़सवारी हो या तलवारबाजी, मनु का कोई जवाब नहीं था|

गंगाधर राव से विवाह बाद बनी झांसी की रानी

मात्र 12 साल की उम्र में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया| उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ, जिसके बाद बचपन की मनु, लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हो गई| घुड़सवारी और शस्त्र-संधान में निपुण महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं करती थीं| इससे उन्होंने महिलाओं के अंदर की शक्ति को उजागर किया और एक मजबूत महिला-सेना का निर्माण किया| लक्ष्मीबाई ने न सिर्फ खुशियों का स्वागत किया बल्कि दुखों को भी सहर्ष स्वीकार किया| पहले पुत्र की मृत्यु फिर पती ने भी प्राण त्याग दिए|

अंग्रेजों से लड़ते हुए मिली वीरगति

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी| रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करते हुए एक स्वयंसेवक सेना का गठन शुरू किया| इस सेना में महिलाओं को भी शामिल किया गया और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया| 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया| रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया|

1858 के जनवरी माह में अंग्रेजों ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया| दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी और कालपी पंहुचकर तात्या टोपे से मिली| तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया|

17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गयीं| लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज़ ने टिप्पणी करते हुए लिखा रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं|

महिलाओं के लिए मिसाल

रानी लक्ष्मीबाई ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए न सिर्फ आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया बल्कि महिलाओं के सशक्त रूप को सबके सामने रखा| वहीँ, लक्ष्मीबाई महिलाओं के लिए एक मिसाल बनकर उभरीं| उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए देश उन्हें हमेशा याद करेगा|

दो दशक पहले से कैराना के सच से वाकिफ थे नौकरशाह!


लखनऊ: शामली के कैराना और कांधला कस्बे से एक विशेष समुदाय के लोगों के पलायन करने की खबरों ने प्रदेश की सियासत को गर्मा दिया है। कैराना में हिन्दुओं के पलायन पर सियासत सुर्ख हुई तो प्रशासन की पेशानी पर बल पड़ गए हैं। जांच में जुटी प्रशासनिक टीम के अपने दावे हैं। तर्क हैं। यह और बात है कि वह विश्वसनीय नहीं लगते। क्योंकि उनका आधार ठोस नहीं लगता। प्रशासन का कहना है कि पलायन के पीछे अर्थ का शास्त्र है। लोग व्यवसाय के चक्कर में पलायित हुए, या फिर भवन स्वामियों की मौत हो गई तो परिवारीजन व्यवसाय के लिए पड़ोसी राज्य हरियाणा अथवा दिल्ली कूच कर गए। जबकि सूत्र बता रहे हैं कि सच्चाई इसके विपरीत है। रंगदारी और हत्या की घटनाओं ने ही लोगों को अपना घर-बार छोड़ने को मजबूर किया। गुंडों-बदमाशों ने पहले जुबान पर फिर मकान पर ताला लगाने को मजबूर कर दिया। पलायन पर सियासत के दावे कुछ भी हों, लेकिन सूबे की ब्यूरोक्रेसी दो दशक पहले से कैराना के सच से वाकिफ रही है। तत्कालीन डीएम विनोद शंकर चौबे ने बाकायदा शासन को गोपनीय रिपोर्ट भेजी थी, जिसमें एक जाति और धर्म विशेष के अफसरों की जिले में तैनाती नहीं करने तक के लिए कह दिया था। खौफ के संदर्भ में ऐसा ही इशारा पूर्व डीएम एसपी सिंह भी कर चुके हैं। 

कैराना का लावा भले ही अब फूटा हो, मगर जमीनी हकीकत से अफसर पहले भी अनभिज्ञ नहीं रहे हैं। शामली जब पृथक जिला नहीं था। मुख्यालय से कैराना की दूरी 50 किलोमीटर से ज्यादा रही। यही वजह है कि तहसील होने के बावजूद भी डीएम और एसएसपी के लिए कैराना के लॉ एंड ऑर्डर को बनाए रखना चुनौती बना रहा।  नकली नोट, हथियारों की तस्करी से लेकर रंगदारी, हत्या, दुष्कर्म, अवैध कब्जे और अन्य संगीन अपराधों ने यहां के जनजीवन को तबाह कर दिया। यहां अपराधियों को सियासत की पनाह मिलती रही। कृषि आधारित इस इलाके में अपराध के बाद जरायम के कारिंदे हरियाणा के पानीपत, करनाल, सोनीपत और कुरुक्षेत्र में छिपते रहे हैं। कुख्यात मुकीम काला के गुर्गों की इन्हीं शहरों से हुई गिरफ्तारी बात को पुख्ता करती है। पुलिस प्रशासन ने कैराना की हकीकत पर परदा डालते हुए सियासतदाओं की चाकरी में ही नौकरी गुजार दी। शासन तक कभी कैराना का सच पहुंच नहीं पाया। तत्कालीन डीएम विनोद शंकर चौबे ने हिम्मत की तो सूबे में बवाल खड़ा हो गया। फरवरी 1999 में चौबे ने शासन को एक गोपनीय रिपोर्ट भेजी, जिसमें जिले की कानून व्यवस्था के लिए एक जाति और विशेष धर्म के अफसरों एवं पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं करने के लिए कहा।  

यह मामला उठने के बाद सियासी दल अपना गुणा भाग लगाने में जुट गए हैं। मुद्दा भाजपा ने उठाया, तो सियासी हलकों में हलचल मच गई। हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से पलायन की परिभाषा तय कर रहा है। भाजपा इसे भुनाने में जुट गई है, तो सपा, बसपा और रालोद इसे चुनावी स्टंट बता रहे हैं। पलायन प्रकरण से आखिर किसका फायदा होगा और किसका होगा नुकसान। राजनीतिक दल भी इसकी गुणा भाग करने में लगे हुए हैं। खास बात यह है कि मुद्दा भले ही कैराना से शुरू हुआ, मगर अब कांधला भी पहुंच गया। भाजपा सांसद ने कांधला की सूची जारी कर नई बहस छेड़ दी, जिसके बाद सपा नेता इसकी खिलाफत में उतर आए और कहने लगे कि भाजपा सांसद वोटों की राजनीति में क्षेत्र का माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। क्या वास्तव में पलायन प्रकरण आगामी विधानसभा चुनाव में वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होगा। क्योंकि शामली जिले की व्यवस्था पर गौर करें, तो यहां चुनावी समीकरण एकदम अलग रहा है। जिले की कैराना, शामली और थानाभवन विधानसभा सीटों पर अलग ही समीकरण बनता है।

ऐसे में हर राजनीतिक दल अपने जनाधार को बनाए रखने के प्रयास में है, तो भाजपा हिंदुओं को लामबंद कर सकती है। सीटवार अलग समीकरण हैं, जिसमें सपा गुर्जर और मुसलिम गठजोड़ को बनाकर रखना चाहती है। लब्बो लुआब यही है कि पलायन प्रकरण पर हर राजनीतिक दल की नजर लगी हुई है। उधर, विधायक सुरेश राण नें प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को साम्प्रदायिकता का आरोपी बताया। उन्होंने कहा कि वो गोल टोपी लगाकर आते हैं वो इस बात से आखिर क्या जताना चाहते हैं। विधायक सुरेश राणा ने कहा कि सपा सरकार ने पिछले साढ़े चार साल में 450 दंगे कराये हैं और दंगे कराने में गोल्ड मेडलिस्ट हो गई है सपा सरकार।
अब सवाल यह आखिर शामली प्रशासन ने अपने स्तर पर कोई जांच करने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या बंद घरों-दुकानों के ताले भी सवालों का जवाब देने में सक्षम हैं? क्या ताले ही यह बता रहे हैं कि हमारे मालिक इस-इस कारण अन्य कहीं जा बसे हैं? सवाल और भी हैं। क्या शामली प्रशासन ने कैराना से अन्यत्र जा बसे लोगों से बात की? क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि जो लोग कैराना में रहकर ही ठीक-ठाक कमाई कर रहे थे उन्हें दूसरे शहर जाकर कारोबार करने की जरूरत क्यों पड़ी? 

बेहतर आय और जीवन की लालसा में गांव से कस्बे और फिर वहां से पड़ोस के बड़े शहर जाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। ऐसा हर कहीं होता है, लेकिन इस क्रम में मोहल्ले वीरान नहीं होते। लगता है कि कैराना में कुछ अस्वाभाविक हुआ है। चूंकि यह अस्वाभाविक घटनाक्रम कथित सेक्युलर दलों और उनके जैसी प्रवृत्ति वालों के एजेंडे के अनुरूप नहीं इसलिए उनके पास सबसे मजबूत तर्क यही है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए भाजपा यही सब तो करेगी ही। इसमें दोराय नहीं कि भाजपा कैराना सरीखे मसलों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन क्या ऐसे मसलों पर अन्य किसी राजनीतिक दल को ध्यान नहीं देना चाहिए? नि:संदेह कैराना कश्मीर नहीं है, लेकिन इन दिनों कश्मीरी पंडितों की वापसी के सवाल को लेकर भाजपा पर खूब कटाक्ष हो रहे हैं?

आपको बता दें कि कैराना, भारत के ऐतिहासिक जगहों में से एक है और बेहद ही खूबसूरत है। कैराना के फिजाओं में जहां एक तरफ संगीत की मधुर लहरें तरंगित होती हैं, वहीं उसकी मिट्टी में नृत्य कला की छाप है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का यह क्षेत्र भारतीय शास्त्रीय संगीत के मशहूर किराना घराना के लिए जाना जाता था। जिसकी स्थापना महान शास्त्रीय गायक अब्दुल करीम खां ने की थी। ये भी मान्यता है कि अपने समय के महान संगीतकार मन्ना डे भी इस कैराना की मिट्टी का सम्मान अपने दिल में रखते थे। क्योंकि जब एक बार उन्हें वहां जाना हुआ तो वो कैराना की मिट्टी में पांव रखने से पहले उन्होनें अपना जूता उतार कर हाथ में रख लिया था।

वहीं दूसरी ओर भारत रत्न पंडित भीमसेन जोशी भी कैराना घराने के गायक हैं। वहीं अगर धर्म की दृष्टि से देखा जाए तो भी कैराना एक संगम से कम नहीं है। क्योंकि यहां मसहूर ईदगाह, ऐतिहासिक देवी मंदिर, जैन बाग, बारादरी नवाब तालाब आज भी मौजूद है। ऐसा इतिहास होने के बावजूद भी ये जमीन आज बंजर हो गई है। क्योंकि इस जमीन को छोड़ कर लोग जा रहे है। अब मुद्दा ये है कि ये लोग यहां से कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं?


भूरी: कहानी एक अस्तित्व की


नई दिल्ली: बॉलीवुड में पिछले काफी वक्त से सिर्फ अभिषेक चौबे के निर्देशन में बनी फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ ही छाई हुई है। सेंसर बोर्ड द्वारा फिल्म के कुछ सीन काटे जाने से लेकर बंबई हाई कोर्ट के इसे हरी झंड़ी दिखाने तक फिल्म ने काफी सुर्खियां बटोरी है। फिल्म में करीना कपूर और शाहिद कपूर के साथ काम करने को लेकर भी खूब चर्चा हुई थी। अब फिल्म 17 जून को सिनेमाघरों में रिलीज की जाएगी। लेकिन इन सबके बीच सभी इस बात को भूल चुके हैं कि इसी दिन ‘उड़ता पंजाब’ के साथ एक और फिल्म रिलीज की जा रही है। यहां हम बात कर रहे हैं फिल्म ‘भूरी’ की।

जसबीर भट्टी के निर्देशन में बनी इस फिल्म में एक महिला भूरी की कहानी को बयां किया गया है। इस फिल्म में दिखाया गया है कि भूरी एक बेहद खूबसूरत महिला है, जिसकी शादी गांव के एक सीधे-साधे किसान के साथ कर दी जाती है। शादी के बाद जब भूरी अपने पति के साथ ससुराल पहुंचती हो तो गांव के हर मर्द की नजर उस पर पड़ती है और वह उसे पाने की इच्छा में लग जाता है। पूरा गांव जैसे उसके पीछे हाथ धोकर पड़ा होता है। इसी वजह से भूरी के पति को गूंड़ों से मार भी खानी पड़ती है।

इसके बाद तो गांव के सभी आदमी भूरी के पति को परेशान करने लगते हैं, ताकि वह किसी भी तरह से भूरी को उन्हें सौंप दे। भूरी किस तरह से ऐसे ही टॉर्चर और गांव वालों की गंदी नजरों को सामना करती है वह इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। फिल्म में माशा पौर, भूरी का किरदार निभाती हुई नजर आ रही हैं। माशा स्कॉटलैंड की हैं और इस फिल्म से अपने बॉलीवुड करियर की शुरुआत करने जा रही हैं। फिल्म में उनके अलावा आदित्या पंचोली, रघुवीर यादव, शक्ति कपूर, मोहन जोशी और मुकेश तिवारी जैसे सितारे मुख्य किरदार निभाते हुए नजर आ रहे हैं।

“भूरी” फिल्म के निर्माता चंद्रपाल सिंह ने बताया कि वह आजमगढ़ के रहने वाले हैं। 1997 में वह माया नगरी मुंबई चले गए थे। तब उनकी उम्र महज 17 साल थी। माया नगरी में वह कई साल तक संघर्ष करते रहे और वर्ष 2009 में उनकी पहली फिल्म ‘लकीर का फकीर’ रिलीज हुई। उन्होंने बताया कि फिल्म में भूरी का किरदार स्कॉटलैंड की रहने वाली एनआरआई माशा पौर ने निभाया है। माशा इस फिल्म में गांव की एक सुंदर महिला के किरदार में है। फिल्म की पूरी शूटिंग गोरखपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में की गई है। चंद्रपाल सिंह ने बताया कि वह आजमगढ़ के रहने वाले हैं इस वजह से माया नगरी में रहते हुए भी उन्हें काफी परेशानी का सामना करना पड़ा। जब उन्होंने शूटिंग के सिलसिले में विदेश दौरे के पहले पासपोर्ट के लिए अप्लाई किया, तो उनका पासपोर्ट आवेदन केवल इसलिए रोक दिया गया, क्योंकि वह आजमगढ़ के रहने वाले थे। वह बताते हैं कि देश और विदेशों में जिस तरह से आजमगढ़ शहर को लेकर लोगों के दिलों में गलतफहमी है, वह उसे दूर करना चाहते हैं।

कैफी आजमी, शबाना आजमी सरीखी कई बड़ी हस्तियां भी आजमगढ़ से ही हैं। ऐसे में उनके दिमाग में विचार आया कि क्यों न आजमगढ़ नाम से ही फिल्म बनाई जाये और वह इस पर एक स्टोरी लिखने का काम भी लगभग पूरा कर चुके हैं। भूरी फिल्म से उन्हें काफी उम्मीद है। उनका कहना है कि सभी अभिनेताओं ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय करने की कोशिश की है। रिलीज के पहले ही पूरी फिल्म कैटरीना की काफी चर्चा हो चर्चा है। यु टुब पर इसके ट्रेलर को प्रशंसकों ने काफी पसंद किया है और उससे कई हिट्स भी मिल चुके हैं । 3 मई को इस फिल्म का मुंबई में म्यूजिक लॉन्च किया गया था। लॉन्चिंग में मुख्य अतिथि के रूप में राजनेता अमर सिंह सहित बॉलीवुड की कई बड़ी हस्तियां भी पहुंची थी। देखना यह है कि 17 जून को रिलीज हो रही फिल्म “भूरी” और “उड़ता पंजाब” की टक्कर में बाजी किसके हाथ जाती है। हालांकि दोनों ही फिल्म के ट्रेलर की काफी चर्चा हो रही है।

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कैराना के बाद अब कांधला से हिन्दुओं का पलायन, क्या है सच?

शामली। उत्तर प्रदेश के कैराना में 346 हिंदू परिवारों के पलायन करने की सूची जारी कर सूबे की राजनीति में भूचाल लाने वाले भारतीय जनता पार्टी के सांसद हुकुम सिंह ने अब कांधला कस्बे के 63 परिवारों के पलायन की सूची जारी की है। हुकुम सिंह ने यहां पत्रकारों से कहा कि कैराना की तरह कांधला में भी रंगदारी और हत्या की घटनाओं से दहशत के चलते 63 परिवारों को घर बार छोड़ कर दूसरी जगहों पर जाना पड़ा है। भाजपा सांसद ने इसके लिए उत्तर प्रदेश में बदहाल कानून व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग की। इससे पहले उन्होंने कैराना कस्बे में बदमाशों द्वारा व्यापारियों से मांगी जा रही रंगदारी व न देने पर हत्या करने, वर्ग विशेष के लोगों द्वारा हिंदू परिवारों को धमकी देने के चलते 346 परिवारों के पलायन की सूची जारी की थी। हुकुम सिंह का कहना है कि यहां से पलायन करने वाले अब दूसरे शहरों में अपना रोजगार चला रहे हैं।

सांसद ने कहा कि इस बारे में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह को भी बताया गया है। उन्होंने कहा कि राजनाथ सिंह जून के अंतिम सप्ताह में कैराना आएंगे। उन्होंने कहा कि वर्ष 2013 में हुए सांप्रदायिक दंगों में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के नेता का नाम सामने आया था। इस नेता को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने बराबर में बैठाकर उनसे सलाह लेते हैं, आज तक उस नेता पर सरकार ने कार्रवाई क्यों नहीं की। इस संबंध में मुख्यमंत्री से कई बार मांग की गई लेकिन आज तक भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। आबादी के अनुपात में लगातार घट रही हिंदुओं की संख्या इस तथ्य को साबित कर रही है। यहां के लोगं का कहना है कि कांधला और कैराना को बचाना है तो यहां पैरामिलेट्री फोर्स का बेस कैंप स्थापित करना होगा। सूत्रों की माने तो उनका कहना है कि सरावज्ञान, कानूनगोयान, शेखजादगान व शांतिनगर जैसे मुहल्लों से हिंदुओं का अपनी संपत्ति बेचने का सिलसिला जारी है। सुभाष जैन, राजू कंसल, दीपक चौहान, तरस चंद जैन, विकास सैनी, राजबीर मलिक और योगेंद्र सेठी जैसे लोग अपनी जन्म और कर्म भूमि को अलविदा कह चुके हैं। सतेंद्र जैन, रविंद्र कुमार और विजेंद्र मलिक जैसे अनेक लोग महफूज ठिकानों की तलाश में है। घरों व दुकानों पर लटकी बिकाऊ है जैसी सूचनाएं प्रशासन को मुंह चिढ़ा रही हैं। असंतुलित होती आबादी के आकड़े भी पलायन की टीस उजागर करते हैं।

कैराना से महज 12 किलोमीटर दूर बसे कांधला में कैराना की ही तरह असुरक्षा सबसे बड़ी समस्या है जो दिनों दिन बड़ा आकार लेती जा रही है। मेन बाजार में बीज विक्रेता तरुण सैनी यहां व्याप्त आतंक का शिकार हो चुके हैं। वर्ग विशेष की बढ़ती दबंगई के आगे पुलिस-प्रशासन के नतमस्तक होने का आरोप लगाते हुए तरुण के भाई आदेश का कहना है कि करीब दो साल पहले उनकी दुकान पर आए आधा दर्जन हथियारबंद बदमाशों ने उनसे पांच लाख रुपये रंगदारी मांगी और शहर छोड़कर चले जाने की धमकी दी। पुलिस को सीसी टीवी कैमरे की फुटेज उपलब्ध करा दी गयी परंतु कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। तब से हम सैनी समाज की सुरक्षा की चिंता में जी रहे हैं। प्रशासन से पिस्टल का लाइसेंस मांगा परंतु फाइल अटकी है, कोई सुनवाई नहीं होती। कभी देश भर को गुड़ की जरूरतें पूरा करने वाली मंडी में आज सन्नाटा है। कभी यहां गुड के लदान के लिए रेलवे ने विशेष ट्रैक तक की व्यवस्था की थी। व्यापारी विष्णु गोयल का कहना है कि अनाज मंडी भी उजड़ चुकी है। सब्जी मंडी को छोड़ दें तो बाकी बड़ा कारोबार अब ठप है। इस गन्ना बेल्ट की चार खांडसारी इकाइयां बंद हो चुकी हैं। अब तो हालात उलट हैं, आतंक और रंगदारी की वजह से यहां कोई कारोबार नहीं करना चाहता। पांच साल में सराफा कारोबार साठ प्रतिशत कम होने का दावा करते हुए सराफा एसोसिएशन के महामंत्री सतवीर वर्मा का कहना है कि हालात ऐसे ही बने रहें तो हम भी परिवार पालने के लिए मजबूरन कस्बा छोड़ जाएंगे।

स्कूली बच्चों के लिए अच्छे स्कूलों का संकट भी कम नहीं है। करीब दो दर्जन बसें स्कूली बच्चों को लेकर सुरक्षाकर्मी के साथ 14 किलोमीटर दूर शामली आना-जाना करती हैं। लोगों का कहना है कि बच्चों को पढ़ाने की मजबूरी के चलते हम ये बड़ा जोखिम उठाने को मजबूर हैं। सैनी समाज के संयोजक नरेश सैनी का कहना है कि छेड़छाड़ की घटनाओं ने कई वर्षों में ऐसा माहौल बना दिया है कि बहन-बेटियों का देर शाम घरों से निकलना बंद है। दिव्यप्रकाश का कहना है कि कांधला के बिगड़े वातावरण से रोजगार के बचे-खुचे अवसर ही खत्म नहीं हो रहे वरन शादी में भी दिक्कतें आ रही हैं। कोई भी परिवार अपनी बेटी कांधला में ब्याहने के लिए आसानी से राजी नहीं होता। आतंक के चलते औने-पौने दाम में अपनी संपत्ति बेचने की मजबूरी जता रहे सुभाष बंसल का कहना है कि कभी कस्बे की शान रही रहतू मल की हवेली मात्र 15 लाख रुपये में बिक गयी, जबकि उसकी कीमत लोग एक करोड़ रुपये आंकी गई थी। जाट कालोनी में मकान व दुकान तेजी से बिकने का दावा करते सतीश पंवार का कहना है कि भू-माफिया सक्रिय हो चुके हैं और आतंक फैलाने में उनका योगदान भी कम नहीं। पुलिस भी इनकी मदद में खड़ी दिखती है। पलायन करने वालों की सूची में अभी इजाफा होगा, क्योंकि बहुत से लोगों को अपनी संपत्ति बेचने के लिए सही दाम नहीं मिल पा रहे हैं। एडवोकेट बीरसेन का कहना है कि कुछ व्यापारी अपना कारोबार समेटने से पहले उधार में गए धन को बटोरने में जुटे हैं। कई पीढ़ी से लोहे के व्यापारी 71 वर्षीय सतेंद्र जैन बुझे मन से कहते हैं कि अपने पौत्रों का एडमिशन इस बार देहरादून करा दिया है, उधारी सिमटते ही कांधला छोड़कर चले जाएंगे।

यह मामला उठने के बाद सियासी दल अपना गुणा भाग लगाने में जुट गए हैं। मुद्दा भाजपा ने उठाया, तो सियासी हलकों में हलचल मच गई। हर राजनीतिक दल अपने हिसाब से पलायन की परिभाषा तय कर रहा है। भाजपा इसे भुनाने में जुट गई है, तो सपा, बसपा और रालोद इसे चुनावी स्टंट बता रहे हैं। पलायन प्रकरण से आखिर किसका फायदा होगा और किसका होगा नुकसान। राजनीतिक दल भी इसकी गुणा भाग करने में लगे हुए हैं। खास बात यह है कि मुद्दा भले ही कैराना से शुरू हुआ, मगर अब कांधला भी पहुंच गया। भाजपा सांसद ने कांधला की सूची जारी कर नई बहस छेड़ दी, जिसके बाद सपा नेता इसकी खिलाफत में उतर आए और कहने लगे कि भाजपा सांसद वोटों की राजनीति में क्षेत्र का माहौल बिगाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। क्या वास्तव में पलायन प्रकरण आगामी विधानसभा चुनाव में वोटों का ध्रुवीकरण करने में कामयाब होगा। क्योंकि शामली जिले की व्यवस्था पर गौर करें, तो यहां चुनावी समीकरण एकदम अलग रहा है। जिले की कैराना, शामली और थानाभवन विधानसभा सीटों पर अलग ही समीकरण बनता है।

ऐसे में हर राजनीतिक दल अपने जनाधार को बनाए रखने के प्रयास में है, तो भाजपा हिंदुओं को लामबंद कर सकती है। सीटवार अलग समीकरण हैं, जिसमें सपा गुर्जर और मुसलिम गठजोड़ को बनाकर रखना चाहती है। लब्बो लुआब यही है कि पलायन प्रकरण पर हर राजनीतिक दल की नजर लगी हुई है। उधर, विधायक सुरेश राण नें प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को साम्प्रदायिकता का आरोपी बताया। उन्होंने कहा कि वो गोल टोपी लगाकर आते हैं वो इस बात से आखिर क्या जताना चाहते हैं। विधायक सुरेश राणा ने कहा कि सपा सरकार ने पिछले साढ़े चार साल में 450 दंगे कराये हैं और दंगे कराने में गोल्ड मेडलिस्ट हो गई है सपा सरकार।

अब सवाल यह आखिर शामली प्रशासन ने अपने स्तर पर कोई जांच करने की जहमत क्यों नहीं उठाई? क्या बंद घरों-दुकानों के ताले भी सवालों का जवाब देने में सक्षम हैं? क्या ताले ही यह बता रहे हैं कि हमारे मालिक इस-इस कारण अन्य कहीं जा बसे हैं? सवाल और भी हैं। क्या शामली प्रशासन ने कैराना से अन्यत्र जा बसे लोगों से बात की? क्या किसी ने यह जानने की कोशिश की कि जो लोग कैराना में रहकर ही ठीक-ठाक कमाई कर रहे थे उन्हें दूसरे शहर जाकर कारोबार करने की जरूरत क्यों पड़ी? बेहतर आय और जीवन की लालसा में गांव से कस्बे और फिर वहां से पड़ोस के बड़े शहर जाने की प्रवृत्ति नई नहीं है। ऐसा हर कहीं होता है, लेकिन इस क्रम में मोहल्ले वीरान नहीं होते। लगता है कि कैराना में कुछ अस्वाभाविक हुआ है। चूंकि यह अस्वाभाविक घटनाक्रम कथित सेक्युलर दलों और उनके जैसी प्रवृत्ति वालों के एजेंडे के अनुरूप नहीं इसलिए उनके पास सबसे मजबूत तर्क यही है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब आ रहे हैं इसलिए भाजपा यही सब तो करेगी ही। इसमें दोराय नहीं कि भाजपा कैराना सरीखे मसलों पर विशेष ध्यान देती है, लेकिन क्या ऐसे मसलों पर अन्य किसी राजनीतिक दल को ध्यान नहीं देना चाहिए? नि:संदेह कैराना कश्मीर नहीं है, लेकिन इन दिनों कश्मीरी पंडितों की वापसी के सवाल को लेकर भाजपा पर खूब कटाक्ष हो रहे हैं?



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