मुंशी प्रेमचंद्र की जयंती पर विशेष...

हिंदी कथा साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनिया में विख्यात हुए और कथा सम्राट कहलाए। वह आमजन की पीड़ा को शब्दों में पिरोया, यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है। प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था। उनका जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही नामक गांव में हुआ था। अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने धनपत राय की बजाय प्रेमचंद उपनाम रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।

प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया। वह जब बहुत ही छोटे थे, बीमारी के कारण इनकी मां का देहांत हो गया। उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला। बहन के विवाह के बाद वह अकेले हो गए। सुने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया। आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।

धनपत राय का विवाह 15-16 बरस में ही कर दिया गया, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद उन्होंने बनारस के बाद चुनार के स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी। बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी थी। शिक्षक की नौकरी के दौरान प्रेमचंद के कई जगह तबादले हुए। उन्होंने जन जीवन को बहुत गहराई से देखा और अपना जीवन साहित्य को समर्पित कर दिया। प्रेमचंद की चर्चित कहानियां हैं-मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, पूस की रात, आत्माराम, बूढ़ी काकी, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, कफन, उधार की घड़ी, नमक का दरोगा, पंच फूल, प्रेम पूर्णिमा, जुर्माना आदि।

उनके उपन्यास हैं- गबन, बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), सेवा सदन, गोदान, कर्मभूमि, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा और मंगल-सूत्र (अपूर्ण)। प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे। सन् 1935 में मुंशी जी बहुत बीमार पड़ गए और 8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में हो चुका है, विदेशी भाषाओं में भी। हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया। प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट के नाम से सर्वप्रथम बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने संबोधित किया था।

सत्यजित राय ने उनकी दो कहानियों पर यादगार फिल्में बनाईं। 1977 में 'शतरंज के खिलाड़ी' और 1981 में 'सद्गति'। के. सुब्रमण्यम ने 1938 में 'सेवासदन' उपन्यास पर फिल्म बनाई जिसमें सुब्बालक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी 'कफन' पर आधारित 'ओका ऊरी कथा' नाम से एक तेलुगू फिल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। 1963 में 'गोदान' और 1966 में 'गबन' उपन्यास पर लोकप्रिय फिल्में बनीं। 1980 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक 'निर्मला' भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

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पति की लंबी उम्र के लिए महिलाएं रखें हरियाली तीज का व्रत

तीज का त्यौहार भारत के भारत भागों में बहुत जोश और उल्लास के साथ मनाया जाता है| यह त्यौहार खासतौर पर महिलाओं का त्यौहार है| तीज का आगमन वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही आरंभ हो जाता है| सावन के महीने के आते ही आसमान काले मेघों से आच्छ्दित हो जाता है और वर्षा की बौछर पड़ते ही हर वस्तु नवरूप को प्राप्त करती है| ऎसे में भारतीय लोक जीवन में हरियाली तीज या कजली तीज महोत्सव मनाया जाता है|

श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन श्रावणी तीज, हरियाली तीज मनायी जाती है इसे मधुस्रवा तृतीय या छोटी तीज भी कहा जाता है| इस बार हरियाली तीज 31 जुलाई दिन गुरूवार को पड़ रही है| हरियाली तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं|

हरियाली तीज पूजा एवं व्रत-

अपने सुखी दांपत्य जीवन की कामना के लिये स्त्रियां यह व्रत किया करती हैं| इस दिन व्रत रखकर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर षोडशोपचार पूजन किया जाता है जो रात्रि भर चलता है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है|

हरियाली तीज कथा-

हरियाली तीज पर एक धार्मिक किवदंती प्रचलित है जिसके अनुसार पौराणिक काल में देवी पार्वती भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए व्रत रखती हैं| जिस कारण उन्हें भगवान शिव का मिलन प्राप्त हुआ था| इसके अतिरिक्त कहा जात है कि श्रावण शुक्ल तृतीया के दिन देवी पार्वती ने सौ वर्षों की तपस्या साधना पश्चात भगवान शिव को प्राप्त कर पातीं हैं| इसी कारण से विवाहित महिलाएं इस व्रत को अपने सुखी विवाहित जीवन की कामना के लिए करती हैं| इस दिन स्त्रियां माँ पार्वती का पूजन करती हैं अविवाहित और विवाहित स्त्री दोनों ही इस व्रत को कर सकती हैं| समस्त उत्तर भारत में तीज पर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है|

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समय के संग बदलती गई कौमार्य के प्रति धारणा

स्त्रियों के लिए शुचिता का पैमाना माने जाने वाले कौमार्य के प्रति धारणा समय के साथ बदल गई है। वास्तविकता यह है कि आज की युवतियां 'कौमार्य खोने का गम नहीं पालतीं, बल्कि इसका आनंद लेती हैं।' एक अनुसंधान के मुताबिक, आज के समय में कौमार्य खोना आज से 20 वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आनंद का विषय बन चुका है।

टाइम पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, युवतियां प्रथम यौन संसर्ग के दौरान अत्यंत आनंदित होती हैं और इसके लिए उन्हें कोई पश्चाताप नहीं होता, जबकि पुरुषों में यौन-उत्सुकता समय के संग घटती चली जाती है।

अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि कौमार्य के बारे में महिलाओं और पुरुषों, दोनों के ही नजरिए में बदलाव आया है। लेकिन यह महत्वपूर्ण बदलाव सन् 1980 के बाद से देखा जा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के मुताबिक, युवतियों की यौनेच्छा में बदलाव सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में बदलाव के कारण आया है। 

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अमर शहीद राम प्रसाद 'बिस्मिल' की जयंती पर विशेष.....

अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल सिर्फ भारत के महान क्रान्तिकारी व अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं थे बल्कि वह उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक और साहित्यकार भी थे| बिस्मिल ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी| 

बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर में हुआ था| बिस्मिल मूलमती और पं. मुरलीधर की दूसरी संतान थे| बिस्मिल जब छोटे थे तब उनके हाथ की दसों उंगलियों में चक्र और जन्म-कुण्डली देखकर ज्योतिषी ने कहा था कि यदि ये बालक जीवित रहता है तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती| बिस्मिल के माता-पिता भगवान श्री राम की पूजा करते थे इसीलिए उन्होंने अपने बेटे का नाम रामप्रसाद रखा| 'बिस्मिल' उनका उर्दू उपनाम था, जिसका हिन्दी में अर्थ होता है 'आत्मिक रूप से आहत'| बिस्मिल से पहले उनके माता-पिता ने एक संतान खो दिया था इसलिए उनके जन्म के समय जादू-टोने का भी सहारा लिया गया|

हजार पर एक खरगोश लाया गया और बिस्मिल के ऊपर से उतार कर आंगन में छोड़ दिया गया| खरगोश ने आंगन के दो-चार चक्कर लगाये और थोड़ी देर बाद उसकी मौत हो गई| हालांकि, ये जानकर आपको आश्चर्य होगा लेकिन यह एक सच्ची घटना है| इस बात का उल्लेख बिस्मिल ने अपने पुस्तक में किया था| बिस्मिल के अतिरिक्त वह 'राम' और 'अज्ञात' के नाम से भी लेख और कविताएं लिखते थे| बिस्मिल जब 19 साल के थे तब उन्होंने क्रान्तिकारी मार्ग में कदम रखा था| क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने कई पुस्तकें लिखी, जिसमे से 11 पुस्तक उनके जीवन काल में प्रकाशित भी हुईं| हालांकि, ब्रिटिश सरकार ने उन पुस्तकों को जब्त कर लिया था|

वैसे तो बिस्मिल को बड़े ही लाजों से पाला गया लेकिन जब भी वह अक्षर लिखने में गलती करते उनकी खूब पिटाई होती थी| इसके बाद भी बिस्मिल में चंचलता व उद्दण्डता कम न थी| उन्हें जैसे ही मौका मिलता था वह तुरंत बगीचे में घुस जाते थे और जमकर उत्पात मचाते थे| बिस्मिल का मन खेलने में ज्यादा और पढ़ाई में कम लगता था| इस बात से नाराज़ उनके पिता उनकी जमकर पिटाई करते थे, इसके बाद भी वह किसी की नहीं सुनते|

बिस्मिल के बाल्यकाल की जो सबसे दिलचस्प बात थी वह यह कि उनके पिता ने उन्हें हिन्दी का अक्षर-बोध कराया किन्तु 'उ' से 'उल्लू' न तो उन्होंने पढना सीखा और न ही कभी लिखकर दिखाया क्योंकि वह इस शब्द का विरोध करते थे और बदले में पिता की मार खाते थे| हारकर उन्हें उर्दू के स्कूल में भर्ती करा दिया गया| बिस्मिल अपने विचारों के बचपन से ही पक्के थे| 

बिस्मिल जब 14 साल के थे तब उन्हें अपने पिता के संदूक से पैसे चुराने की लत पड़ गई थी इन रुपयों से उन्होंने उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया| इतना ही नहीं, उन्हें सिगरेट और भांग पीने की भी लत पड़ गई| एक दिन बिस्मिल भांग के नशे में चोरी कर रहे थे तभी उन्हें रंगे हाथों पकड़ लिया गया| उनकी उपन्यास और किताबें फाड़ दी गई लेकिन उनकी रुपये चुराने की आदत नहीं छूटी| हालंकि, कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं इसे त्याग दिया|

बिस्मिल ने उर्दू मिडिल की परीक्षा में उत्तीर्ण न होने पर अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया| साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने उन्हें पूजा-पाठ की विधि का ज्ञान करवाया| पुजारी के उपदेशों के कारण बिस्मिल पूजा-पाठ के साथ ब्रह्मचर्य का भी पालन करने लगे| अब उनका मन पढ़ाई में भी लगने लगा था और वह शीघ्र ही अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में आ गए| इसी दौरान वह मन्दिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत के सम्पर्क में आये जिन्होंने उन्हें आर्य समाज के बारे में जानकारी दी| 

जब बिस्मिल नौवी कक्षा के छात्र थे तब उनकी मुलाकात स्वामी सोमदेव से हुई| स्वामी सोमदेव के साथ राजनीतिक विषयों पर खुली चर्चा से उनके मन में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। वर्ष 1916 में जब बिस्मिल ने कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं. जगत नारायण 'मुल्ला' के आदेश की धज्जियाँ उड़ाते हुए पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया| इस दौरान उनका कई महान हस्तियों के साथ परिचय हुआ|

वर्ष 1915 में अपने भाई परमानंद की फांसी की खबर सुनकर बिस्मिल ने ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा की| अब तलाश थी तो एक संगठन की जो उन्होंने पं. गेंदालाल दीक्षित के मार्गदर्शन में मातृवेदी के नाम से खुद खड़ा कर लिया था| इस संगठन की ओर से एक इश्तिहार और एक प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की गयी| दल के लिये धन एकत्र करने के उद्देश्य से बिस्मिल ने जून 1918 में दो तथा सितम्बर 1918 में कुल मिलाकर तीन डकैती डालीं, जिससे पुलिस सतर्क होकर इन युवकों की खोज में जगह-जगह छापे डाल रही थी|

26 से 31 दिसम्बर 1918 तक दिल्ली में लाल किले के सामने हुए कांग्रेस अधिवेशन में इस संगठन के नवयुवकों ने चिल्ला-चिल्लाकर जैसे ही पुस्तकें बेचना शुरू किया कि पुलिस ने छापा दाल दिया किन्तु बिस्मिल की सूझ-बूझ से सभी पुस्तकें बच गयीं| मैनपुरी षडयंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर बिस्मिल थे किन्तु वह पुलिस के हाथ नहीं आये| 1 नबम्बर 1919 को मजिस्ट्रेट ने मैनपुरी षडयंत्र का फैसला सुनाया| जिन लोगों को सजाएँ दी थी उसमे मुकुन्दीलाल के अलावा सभी को फरवरी 1920 में आम माफी के ऐलान में छोड़ दिया गया| बिस्मिल पूरे दो वर्ष भूमिगत रहे| उनके दल के ही कुछ साथियों ने यह अफवाह फैला दी थी कि बिस्मिल पुलिस द्वारा चलाई गई गोली में मारे गए| इस दौरान उन्होंने अपना क्रान्तिकारी उपन्यास 'बोल्शेविकों की करतूत' लिखा| इतना ही नहीं भूमिगत रहते हुए उन्होंने अरविन्द घोष की एक अति उत्तम बांग्ला पुस्तक 'यौगिक साधन' का हिन्दी अनुवाद किया| 
इसके बड़ा वह वापस आये और काम करने लगे| इसी बीच कलकत्ता में उनकी मुलाकात लाला लाजपत राय से हुई| 

सीआईडी ने सरकार को जब इस बात की जानकारी दी कि काकोरी ट्रेन डकैती क्रान्तिकारियों का एक सुनियोजित षड्यन्त्र है तो पुलिस ने काकोरी काण्ड के सम्बन्ध में जानकारी देने व षड्यन्त्र में शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करवाने के लिये इनाम की घोषणा के साथ इश्तिहार सभी प्रमुख स्थानों पर लगा दिये, जिसका परिणाम यह हुआ कि पुलिस को घटनास्थल पर मिली चादर में लगे धोबी के निशान से इस बात का पता चला कि चादर शाहजहाँपुर के ही किसी व्यक्ति की है| शाहजहाँपुर के धोबियों से पूछने पर मालूम हुआ कि चादर बनारसीलाल की है। बनारसी लाल से मिलकर पुलिस ने सारा भेद जान लिया| 

ख़ुफ़िया तौर से इस बात की पुष्टि हो गई कि बिस्मिल, जो एचआरए का लीडर था, उस दिन शहर में नहीं था| इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने 26 सितम्बर 1925 की रात में बिस्मिल के साथ समूचे हिन्दुस्तान से 40 से भी अधिक लोगों को गिरफ्तार किया| ब्रिटिश सरकार ने चन्द्रशेखर आजाद, मुरारी शर्मा, केशव चक्रवर्ती, अशफाक उल्ला खाँ व शचीन्द्र नाथ बख्शी को छोड़कर, जो पुलिस के हाथ नहीं आये, शेष सभी व्यक्तियों पर अभियोग चला दिया और उन्हें 5 वर्ष की कैद व फांसी की सजा सुनाई|

पुलिस ने स्थानीय लोगों से बिस्मिल व बनारसी के पिछले झगड़े का भेद जानकर ही बनारसी लाल को सरकारी गवाह बनाया और बिस्मिल के विरुद्ध पूरे अभियोग में अचूक औजार की तरह इस्तेमाल किया। बनारसी लाल व्यापार में साझीदार होने के कारण पार्टी सम्बन्धी सभी बातें जानता था, जिन्हें बिस्मिल के अतिरिक्त और कोई भी न जान सकता था। लखनऊ जेल में सभी क्रान्तिकारियों को एक साथ रखा गया और हजरतगंज चौराहे के पास रिंग थियेटर नाम की एक आलीशान बिल्डिंग में अस्थाई अदालत का निर्माण किया गया|

6 अप्रैल 1927 में विशेष सेशन जज ए. हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए यह लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है| हालंकि, इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ| फरार क्रान्तिकारियों में अशफाक उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी को बहुत बाद में पुलिस गिरफ्तार कर पायी| स्पेशल जज जे.आर.डब्लू. बैनेट की अदालत में काकोरी कांस्पिरेसी का सप्लीमेण्ट्री केस दायर किया गया और 13 जुलाई 1927 को यही बात दोहराते हुए अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी तथा शचीन्द्रनाथ बख्शी को आजीवन कारावास की सजा सुना दी गयी|

सेशन जज के फैसले के खिलाफ 18 जुलाई 1927 को अवध चीफ कोर्ट में अपील दायर की गयी। चीफ कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर लुइस शर्ट और विशेष न्यायाधीश मोहम्मद रजा के सामने दोनों मामले पेश हुए। जगतनारायण 'मुल्ला' को सरकारी पक्ष रखने का काम सौंपा गया जबकि क्रान्तिकारियों की ओर से के. सी. दत्त, जयकरणनाथ मिश्र व कृपाशंकर हजेला ने क्रमशः राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खाँ की पैरवी की। राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी पैरवी खुद की| उन्होंने चीफ कोर्ट के सामने जब धाराप्रवाह अंग्रेजी में फैसले के खिलाफ बहस की|

काकोरी काण्ड का मुकदमा लखनऊ में चल रहा था। पण्डित जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे। उन्होंने अभियुक्तों के लिए 'मुल्जिमान' की जगह 'मुलाजिम' शब्द बोल दिया। फिर क्या था बिस्मिल ने तपाक से उन पर ये चुटीली फब्ती कसी 'मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है, अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाए हैं। पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से, कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।"

बिस्मिल के कहने का अर्थ था कि "मुलाजिम वह बल्कि मुल्ला जी हैं जो सरकार से तनख्वाह पाते हैं। वह तो राजनीतिक बन्दी हैं इसलिए उनके साथ तमीज से पेश आयें। साथ ही यह ताकीद भी की कि वे समुद्र तक की लहरों तक को अपने दुस्साहस से पलटने का दम रखते हैं, मुकदमे की बाजी पलटना कौन चीज?"

इतना बोलने के बाद किसकी हिम्मत थी जो उनके आगे ठहरता। मुल्ला जी को पसीने छूट गये और उन्होंने कन्नी काटने में ही भलाई समझी। वे चुपचाप पिछले दरवाजे से खिसक लिये। फिर उस दिन उन्होंने कोई जिरह की ही नहीं| 22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ को 10 वर्ष की कड़ी कैद तथा फाँसी की सजा दी गई| 

फाँसी की नई तिथि 19 दिसम्बर 1927 की सूचना गोरखपुर जेल में कैद बिस्मिल को दे दी गयी लेकिन वह इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और बड़े ही निश्चिन्त भाव से अपनी आत्मकथा लिखने लगे| बिस्मिल ने जैसा अपनी आत्मकथा में लिखा भी, उनकी यह तड़प भी थी कि कहीं से कोई उन्हें एक रिवॉल्वर जेल में भेज देता तो फिर सारी दुनिया यह देखती कि वह क्या-क्या करते? उनकी सारी हसरतें उनके साथ ही मिट गयीं लेकिन अमर होने से पहले वह अपने आत्मकथा के रूप में हमे एक ऐसी धरोहर सौंप गए जिसे आत्मसात कर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र की जड़े मजबूत की जा सकती है|

स्मृति ईरानी : सीरियल से संसद तक का सफर

सौंदर्य प्रसाधनों के प्रचार से लेकर मिस इंडिया प्रतियोगिता की प्रतिभागी और देश के टेलीविजन दर्शकों की लोकप्रिय 'बहू' से लेकर नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री बनीं 38 साल की स्मृति ईरानी का जीवन प्रसिद्धि और सफलता के त्वरित उत्थान की कहानी है।

स्मृति का राजनीतिक करियर साल 2003 में तब शुरू हुआ जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सदस्यता ग्रहण की और चांदनी चौक से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन उन्हें कांग्रेस उम्मीदवार कपिल सिब्बल से हार का सामना करना पड़ा, लेकिन वह टीवी चैनलों में पार्टी का मुख्य चेहरा बनी रहीं।

वर्ष 2014 के आम चुनाव में स्मृति ने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और आम आदमी पार्टी के नेता कुमार विश्वास के खिलाफ अमेठी संसदीय सीट से चुनाव लड़ा और उन्हें कड़ी चुनौती दी। यद्यपि वह चुनाव हार गईं, लेकिन अभिनेत्री से राजनेता बनीं स्मृति ने राज्यसभा की सदस्य होने के नाते शपथ ग्रहण कर अब मोदी सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय पाने के लिए तैयार हैं।

दिल्ली से ताल्लुक रखने वाली स्मृति ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्होंने 10वीं के बाद पैसा कमाना शुरू कर दिया था और सौंदर्य प्रसाधन के प्रचार के लिए उन्हें 200 रुपये मिलते थे। रूढ़ीवादी पंजाबी-बंगाली परिवार की तीन बेटियों में से एक स्मृति ने सारी बंदिशें तोड़कर ग्लैमर जगत में कदम रखा। कामयाब हुईं तो भाजपा ने उनके जज्बे को सलाम किया।

उन्होंने 1998 में मिस इंडिया प्रतियोगिता में हिस्सा लिया, लेकिन फाइनल तक मुकाम नहीं बना पाईं। इसके बाद स्मृति ने मुंबई जाकर अभिनय के जरिए अपनी किस्मत बनाई। किस्मत उन पर मेहरबान भी थी और उन्होंने 'ऊह ला ला ला' की मेजबान के रूप में एक कड़ी में नीलम कोठारी का स्थान लिया। उन्हें यह कड़ी मिल गई और एकता कपूर को वह भा गईं जिसके बाद की कहानी एक इतिहास है।

एकता कपूर ने उन्हें टेलीविजन पर लंबे समय तक चले धारावाहिक 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' में तुलसी वीरानी का किरदार दिया जिसके बाद वह घर-घर की लोकप्रिय हुईं। छोटे पर्दे पर अच्छी बहू का किरदार करने वाली स्मृति ने अपने बचपन के मित्र जुबिन ईरानी से शादी की और दो बच्चों बेटा जौहर व बेटी जोइश की परवरिश करते हुए वास्तविक जिंदगी में भी इस भूमिका को अच्छे से निभा रही हैं।

इधर, राष्ट्रीय महासचिव से लेकर भाजपा महिला मोर्चा की अध्यक्ष बनने के बाद वह भाजपा की उपाध्यक्ष भी नियुक्त की गईं। पार्टी की अन्य कुछ सदस्य भी अभिनय की पृष्ठभूमि से आई हैं लेकिन यह स्मृति की स्पष्टवादिता व सहनशीलता ही है जो उन्हें सभी चुनौतियों के बीच आगे ले गई।

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दिल्ली में प्रतिदिन 6 दुष्कर्म

दिल्ली पुलिस के आंकड़ों पर गौर करें, तो साल 2014 के शुरुआती चार महीनों में दिल्ली में प्रतिदिन दुष्कर्म के छह और छेड़छाड़ के 14 मामले दर्ज किए जाते रहे हैं। पुलिस ने हालांकि दावा किया है कि कुल मामलों में से 90 फीसदी को सुलझा लिया गया है और आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है।

दिल्ली पुलिस के एक दस्तावेज से यह खुलासा हुआ है कि 1 जनवरी से 30 अप्रैल तक की अवधि में दुष्कर्म के 616 और छेड़छाड़ के 1,336 मामले दर्ज हुए हैं। पिछले साल की तुलना में इन आंकड़ों में काफी बढ़ोतरी हुई है, क्योंकि इसी अवधि में पिछले साल दुष्कर्म का आंकड़ा 450 था।

छेड़छाड़ के आंकड़ों पर गौर करें तो इसमें भी काफी बढ़ोतरी हुई है। पिछले साल यह आंकड़ा 1,000 के आसपास था। पुलिस का कहना है कि पहले चार महीनों में दर्ज दुष्कर्म और छेड़छाड़ के 89 फीसदी मामलों को सुलझा लिया गया और आरोपियों पर न्यायसंगत कार्रवाई हुई। साल 2013 की बात करें, तो दुष्कर्म के 1,559 जबकि छेड़छाड़ के 3,347 मामले दर्ज हुए। वहीं, 2012 में दुष्कर्म का आंकड़ा 680 और छेड़छाड़ का 653 था।

क्राइम ब्रांच के एसीपी अशोक चांद ने कहा कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के मामले इस कारण ज्यादा दर्ज हो रहे हैं, क्योंकि पुलिस ने अपराधियों के विरुद्ध 'जीरो टॉलरेंस' नीति अपना ली है। यानी पहले भी वारदात काफी हो रहे थे, लेकिन पुलिस पर भरोसा कम होने के कारण पीड़िताएं मामला दर्ज कराने में दिलचस्पी नहीं रखती थीं। चांद ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले पुलिस प्राथमिकता के आधार पर दर्ज करती है।

एनसीआरबी, 2011 के आंकड़ों पर गौर करें, तो दिल्ली में दुष्कर्म के 568 मामले दर्ज किए गए, जो देश मे सबसे ज्यादा हैं। दूसरे पायदान पर मुंबई है, जहां इसी अवधि में 218 मामले दर्ज किए गए। गौरतलब है कि 2012 में दिल्ली में 23 साल की फीजियोथेरेपी की छात्रा 'निर्भया' के साथ छह लोगों द्वारा सामूहिक दुष्कर्म और इलाज के दौरान उसकी मौत के बाद दिल्ली को 'रेप कैपिटल' कहा जाने लगा है।

इस दर्दनाक घटना के बाद दिल्ली पुलिस ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाए। मगर इसका श्रेय उन हजारों युवाओं को मिलना चाहिए जिन्होंने अपने जज्बे से पुलिस-तंत्र और केंद्र सरकार को हिलाकर रख दिया। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि 90 फीसदी मामले में आरोपी पीड़िता के जानने वाले ही थे, जबकि अपरिचित लोगों द्वारा ऐसे कुकर्म करने वाले लोगों की संख्या बहुत कम पाई गई है।

नाम न बताने की शर्त पर एक पुलिस अधिकारी ने बताया कि दुष्कर्म और छेड़छाड़ जैसे अपराध करने वाले आरोपी पीड़िता की जान-पहचान के ही होते हैं। ऐसे में अपराध पर लगाम लगाना पुलिस के लिए बेहद कठिन हो जाता है। महिलाओं की सुरक्षा के मद्देनजर उठाए गए कदमों की जानकारी देते हुए एसीपी वर्षा शर्मा ने कहा कि राजधानी के कुल 11 पुलिस जिलों में महिलाओं और बच्चों (एसपीयूजडब्ल्यूएसी) की सुरक्षा के लिए एक विशेष इकाई की तैनाती की गई है।

स्कूल और कॉलेजों की छात्राओं को लगातार आत्मरक्षा के गुर सिखाए जा रहे हैं। पुलिस को महिलाओं के प्रति जागरूकता के लिए कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। एसपीयूजडब्ल्यूएसी द्वारा आयोजित जागरूकता कार्यक्रम में अभी तक कुल 860 पुलिस वाले भाग ले चुके हैं। इसके अलावा, महिलाओं की सहायता के लिए 24 घंटे मोबाइल महिला पुलिस की भी व्यवस्था की गई है। औसतन 30 कॉल हर रोज इस यूनिट को मिलते हैं। महिला पुलिस टीम को इस साल 30 अप्रैल तक कुल 11,439 मोबाइल कॉल भेजी गईं, जिन पर कार्रवाई कर टीम ने मामले सफलतापूर्वक सुलझाए।

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अखंड सौभाग्य व सुहाग के लिए रखें वट सावित्री व्रत

हमारे देश में महिलाएं अपने सुहाग की रक्षा के लिए तरह-तरह के व्रत करती हैं। वट सावित्री व्रत उनमें सबसे प्रमुख है| हर वर्ष सुहागिन महिलाओं द्वारा ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है| इस बार ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष की अमावस्या 28 मई दिन बुधवार को है। ऐसी मान्यता है कि वटवृक्ष की जडों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का निवास स्थान है| इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सति सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवति महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है| 

ऐसे करें वट सावित्री व्रत और पूजन

सुहागन स्त्रियां वट सावित्री व्रत के दिन सोलह श्रृंगार करके सिंदूर, रोली, फूल, अक्षत, चना, फल और मिठाई से सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करें। यह व्रत करने वाली स्त्रियों को चाहिए कि वह वट के समीप जाकर जल का आचमन लेकर कहे-ज्येष्ठ मात्र कृष्ण पक्ष त्रयोदशी अमुक वार में मेरे पुत्र और पति की आरोग्यता के लिए एव जन्म-जन्मान्तर में भी मैं विधवा न होऊं इसलिए सावित्री का व्रत करती हूं। वट के मूल में ब्रह्म, मध्य में जर्नादन, अग्रभाग में शिव और समग्र में सावित्री है। हे वट! अमृत के समान जल से मैं तुमको सींचती हूं। ऐसा कहकर भक्तिपूर्व एक सूत के डोर से वट को बांधे और गंध, पुष्प तथा अक्षत से पूजन करके वट एवं सावित्री को नमस्कार कर प्रदक्षिणा करे|

वट सवित्री व्रत कथा

प्राचीनकाल में मद्रदेश में अश्वपति नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। राजा को सब प्रकार का सुख था, किन्तु कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति की कामना से अठारह वर्षों तक पत्नि सहित सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत तथा पूजन कठोर तपस्या की। सर्वगुण देवी सावित्री ने प्रसन्न होकर पुत्री के रूप में अश्वपति के घर जन्म लेने का वर दिया। यथासमय राजा की बड़ी रानी के गर्भ से एक परम तेजस्विनी सुन्दर कन्या ने जन्म लिया। राजा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखा। राजकन्या शुक्ल पक्षके चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके रूप-लावण्य को जो भी देखता उसपर मोहित हो जाता।

कन्या के युवा होने पर अश्वपति ने सावित्री के विवाह का विचार किया । राजा के विशेष प्रयास करने पर भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला। उन्होंने एक दिन सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम विवाह के योग्य हो गयी हो, इसलिये स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो।’ पिताकी आज्ञा स्वीकार कर सावित्री योग्य मन्त्रियों के साथ स्वर्ण-रथपर बैठकर यात्रा के लिये निकली। कुछ दिनों तक ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के तपोवनों और तीर्थोंमें भ्रमण करने के बाद वह राजमहल में लौट आयी। उसने पिता के साथ देवर्षि नारद को बैठे देखकर उन दोनों के चरणों में श्रद्धा से प्रणाम किया। महाराज अश्वपति ने सावित्री से उसी यात्रा का समाचार पूछा सावित्री ने कहा—पिताजी ! तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् सर्वथा मेरे योग्य हैं। अतः सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें मैंने पति रूप में वरण कर लिया है | ’ नारद जी सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहो की गणना कर राजा अश्वति से बोले—‘राजन ! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल कर दी है। सत्यवान् के पिता शत्रुओं के द्वारा राज्य से वंचित कर दिये गये हैं, वे वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अन्धे हो चुके हैं। सबसे बड़ी कमी यह है कि सत्यवान् की आयु अब केवल एक वर्ष ही शेष है। और सावित्री के बारह वर्ष की आयु होने पर सत्यवान कि मृत्यु हो जायेगी ।’

नारदजी की बात सुनकर राजा अश्वपति व्यग्र हो गये। उन्होंने सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम फिर से यात्रा करो और किसी दूसरे योग्य वर का वरण करो।’ 

सावित्री सती थी। उसने दृढ़ता से कहा—‘पिताजी ! आर्य कन्या होने के नाते जब मै सत्यवान का वरण कर चुकी हूँ तो अब सत्यवान् चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु, अब तो वही मेरे पति बनेगें। जब मैंने एक बार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया, फिर मैं दूसरे पुरुषका वरण कैसे कर सकती हूँ ?’

सावित्री का निश्चय दृढ़ जानकर महाराज अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान् से कर दिया।सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञातकर लिया तथा अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल मे रहने लगी । धीरे-धीरे वह समय भी आ पहुँचा, जिसमें सत्यवान् की मृत्यु निश्चित थी। सावित्री ने नादरजी द्वारा बताय हुये दिन से तीन दिन पूर्व से ही निराहार व्रत रखना शुरू कर दिया था। नारद द्वारा निश्चित तिथि को पति एवं सास-ससुर की आज्ञा से सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-मूल और लकड़ी लेने के लिये गयी। सत्यवान वन में पहुँचकर लकडी काटने के लिए बड के पेड पर चढा । अचानक वृक्ष से लकड़ी काटते समय सत्यवान् के सिर में भंयकर पीडा होने लगी और वह पेड़ से नीचे उतरा। सावित्री ने उसे बड के पेड के नीचे लिटा कर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया (कही-कही ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सर्प ने डस लिया था) । उसी समय सावित्री को लाल वस्त्र पहने भयंकर आकृति वाला एक पुरुष दिखायी पड़ा। वे साक्षात् यमराज थे। यमराज ने ब्रम्हा के विधान के रूप रेखा सावित्री के सामने स्पष्ट की और सावित्री से कहा—‘तू पतिव्रता है। तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है। मैं इसे लेने आया हूँ।’ इतना कहकर देखते ही देखते यमराज ने सत्यवान के शरीर से सूक्ष्म जीवन को निकाला और सत्यवान के प्राणो को लेकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी सत्यावान को वट वृक्ष के नीचे ही लिटाकर यमराज के पीछे पीछे चल दी । पीछे आती हुई सावित्री को यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । इस पर वह बोली महराज जहा पति वही पत्नि । यही धर्म है, यही मर्यादा है । सावित्री की बुद्धिमत्ता पूर्ण और धर्मयुक्त बाते सुनकर यमराज का हृदय पिघल गया। सावित्री के धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज बोले पति के प्राणो से अतिरिक्त कुछ भी माँग लो । सावित्री ने यमराज से सास-श्वसुर के आँखो ज्योती और दीर्घायु माँगी । यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ गए सावित्री भी यमराज का पीछा करते हुये रही । यमराज ने अपने पीछे आती सावित्री से वापिस लौटे जाने को कहा तो सावित्री बोली पति के बिना नारी के जीवन के कोई सार्थकता नही । यमराज ने सावित्री के पति व्रत धर्म से खुश होकर पुनः वरदान माँगने के लिये कहा इस बार उसने अपने श्वसुर का राज्य वापिस दिलाने की प्रार्थना की । तथास्तु कहकर यमराज आगे चल दिए सावित्री अब भी यमराज के पीछे चलती रही इस बार सावित्री ने सौ पुत्रो का वरदान दिया है, पर पति के बिना मैं पुत्रो का वरदान दिया है पर पति के बिना मैं माँ किस प्रकार बन सकती हूँ, अपना यह तीसरा वरदान पूरा कीजिए। सावित्री की धर्मनिष्ठा,ज्ञान, विवेक तथा पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राणो को अपने पाश से स्वतंत्र कर दिया । सावित्री सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान का मृत शरीर रखा था । सावित्री ने वट वृक्ष की परिक्रमा की तो सत्यवान जीवित हो उठा । प्रसन्नचित सावित्री अपने सास-श्वसुर के पास पहुँची तो उन्हे नेत्र ज्योती प्राप्त हो गई इसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हे मिल गया आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रो की माता बनी ।

इस प्रकार सावित्री ने सतीत्व के बल पर न केवल अपने पति को मृत्यु के मुख से छीन लिया बल्कि पतिव्रत धर्म से प्रसन्न कर यमराज से सावित्री ने अपने सास-ससुर की आँखें अच्छी होने के साथ राज्यप्राप्त का वर, पिता को पुत्र-प्राप्ति का वर और स्वयं के लिए पुत्रवती होने के आशीर्वाद भी ले लिया। तथा इस प्रकार चारो दिशाएँ सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गूँज उठी ।

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बॉलीवुड मोहिनी माधुरी दीक्षित के जन्मदिन पर विशेष.....


सिल्वर स्क्रीन पर अपने अभिनय, अपनी दिलकश अदाओं, खूबसूरत मुस्कराहट से दर्शकों को दीवाना बनाने वाली माधुरी दीक्षित 15 मई को अपना 47वां जन्‍मदिन मना रही हैं। गौरतलब है कि 15 मई 1967 में मुबई के मराठी परिवार में जन्मी माधुरी दीक्षित की इच्छा डॉक्टर बनने की थी लेकिन उनकी किस्मत उन्हे फ़िल्मी दुनिया मे ले आयी। वर्ष 1984 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'अबोध' से अपना फिल्मी करियर की शुरुआत की लेकिन फ़िल्म कुछ सफल नही रही। लेकिन 1988 में प्रदर्शित फिल्म तेजाब ने उन्हें बॉलीवुड का चमकता सितारा बना दिया। 

'तेजाब' के बाद माधुरी का कैरियर बुलंदियों के तरफ चल निकला 'राम लखन', 'परिंदा', 'त्रिदेव', 'किशन कन्हैया', 'बेटा', 'प्रहार' जैसी लगातार कई सुपरहिट फिल्मों ने माधुरी को बॉलीवुड की नंबर वन हीरोइन बना दिया। वर्ष 1990 आई रोमांटिक फिल्म 'दिल' में वह आमिर खान के साथ पर्दे पर नजर आयीं। इस फिल्‍म के लिए उन्हें बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्म फेयर अवार्ड मिला। इस फिल्म के गाने भी जबर्दस्त हिट हुए। जबकि राजश्री प्रोडक्‍शन की फिल्‍म ‘हम आपके हैं कौन’ की निशा के लिए लिए भी माधुरी को वर्ष 1995 में फिल्‍मफेयर पुरस्‍कार मिला। माधुरी की 'बेटा', 'खेल', 'खलनायक', 'हम आपके हैं कौन' जैसी फिल्मों ने माधुरी दीक्षित को ऐसी अभिनेत्री क दर्जा दिल दिया जिसका कोई मुक़ाबला नहीं था। इन फिल्मों में माधुरी ने अलग-अलग तरह की भूमिका की। और अपने हुनर से सबको हैरान कर दिया। 

वर्ष 1997 में आई उनकी आखिरी सुपरहिट फ़िल्म दिल तो पागल है के बाद वर्ष 1999 में माधुरी ने अमेरिका में काम कर रहे भारतीय मूल के डॉक्‍टर श्रीराम नेने से शादी कर ली माधुरी और श्रीराम नेने के दो बेटे हैं। उनके उपलब्धियों की लिस्ट लम्बी है। वर्ष 2000 में माधुरी को एक्ट्रेस ऑफ द मिलेनियम चुना गया। गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड के मिलेनियम वर्जन में उन्हें सबसे ज्यादा मेहनताना पाने वाली भारतीय अभिनेत्री माना गया। वर्ष 2008 में माधुरी को भारत सरकार ने पद्म श्री पुरस्‍कार ने नवाजा। फिल्म इंडस्ट्री में 25 साल पूरे करने पर 2011 में उन्हें फिल्मफेयर स्पेशल अवॉर्ड से भी नवाजा गया। उन्हें कुल 11 मुख्य अवॉर्ड मिले और 26 बार उन्हें अवॉर्ड के लिए नॉमिनेट किया गया। 

शादी के बाद माधुरी दीक्षित फिल्मों में फिर सक्रिय हुईं। माधुरी ने 'गजगामिनी' जैसी चर्चित फिल्म मे काम किया। 'गजगामिनी' ने बॉक्स ऑफिस पर कोई बहुत अच्छा कारोबार नहीं किया। उसके बाद 'लज्‍जा', 'हम तुम्हारे हैं सनम', 'देवदास' जैसी फिल्में कीं। उसके बाद एक लम्बे अंतराल तक अपने घर-परिवार में समय देने के बाद वर्ष 2007 में 'आजा नचले' फिल्म से माधुरी दीक्षित ने एक बार फिर से फिल्मों से वापसी की। माधुरी ने पिछले वर्ष प्रदर्शित फिल्म ये जवानी है दीवानी से इंडस्ट्री में कम बैक किया है। माधुरी की इस वर्ष 'डेढ़ इश्किया' और' गुलाब गैंग' जैसी फिल्मे प्रदर्शित हुयी है। 

बुद्ध पूर्णिमा कल, इस तरह करें भगवान बुद्ध की पूजा

बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। इसे बुद्ध जयन्ती के नाम से भी जाना जाता है| बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। इस बार बुद्ध पूर्णिमा 14 मई को मनाई जा रही है| पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं।

बुद्द पूर्णिमा का महत्व-

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार महात्मा बुद्ध को भगवान विष्णु का तेइसवां अवतार माना गया है| इस दिन लोग व्रत-उपवास रखते हैं| इस दिन बौद्ध मतावलंबी श्वेत वस्त्र धारण करते हैं तथा बौद्ध विहारों व मठों में एकत्रित होकर सामूहिक उपासना करते हैं व दान दिया जाता है| बौद्ध और हिंदू दोनों ही धर्मो के लोग बुद्ध पूर्णिमा को बहुत श्रद्धा के साथ मनाते हैं| बुद्ध पूर्णिमा का पर्व बुद्ध के आदर्शों व धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है| संपूर्ण विश्व में मनाया जाने वाला यह पर्व सभी को शांति का संदेश देता है|

दुनियाभर से बौद्ध धर्म के अनुयायी बोधगया आते हैं और प्रार्थनाएँ करते हैं तथा बोधिवृक्ष की पूजा करते हैं उसकी शाखाओं पर रंगीन ध्वज सजाए जाते हैं वृक्ष पर दूध व सुगंधित पानी डाला जाता है और उसके पास दीपक जलाए जाते है| श्रीलंका में इस पर्व को 'वेसाक' पर्व के नाम से जाना जाता है| इस दिन दीपक जलाए जाते हैं और फूलों से घरों को सजाया जाता है| बौद्ध धर्म के धर्मग्रंथों का निरंतर पाठ किया जाता है| इस दिन किए गए अच्छे कार्यों से पुण्य की प्राप्ति होती है|

महात्मा बुद्ध की कथा-

गौतम बुद्ध का मूल नाम 'सिद्धार्थ' था इन्हें ‘बुद्ध', 'महात्मा बुद्ध' आदि नामों से भी जाना जाता है| यह बौद्ध धर्म के संस्थापक हुए. बौद्ध धर्म भारत की श्रमण परंपरा से निकला धर्म और दर्शन है तथा संपूर्ण विश्व के चार बड़े धर्मों में से एक है| गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन और माता जी का नाम महामाया था| राज घराने में जन्में सिद्धार्थ के विषय में इनके पिता राजा शुद्धोधन को विद्वानों द्वारा बताया गया था कि युवराज सिद्धार्थ या तो एक महान राजा बनेंगे, या एक महान साधु बनेगें साथ ही यह भी भविष्यवाणी की कि युवराज सिद्धार्थ को किसी भी प्रकार के दुख को न देखने दिया जाए इनका कभी भी बूढे, रोगी, मृतक और सन्यासी से सामना न हो तभी यह राज्य कर पाएंगे|

इस भविष्यवाणी को सुनकर राजा शुद्धोधन ने अपनी सामर्थ्य की हद तक सिद्धार्थ को दुख से दूर रखने की कोशिश की तथा सांसारिक बंधन में पूर्ण रूप से बांधने के लिए इनका विवाह यशोधरा जी के साथ कर दिया गया| परंतु जब सिद्धार्थ ने एक बार एक वृद्ध विकलांग व्यक्ति, एक रोगी, एक पर्थिव शरीर, और एक साधु समेत इन चार दृश्यों को एक साथ देखा तो उनके मन में जीवन के सत्य को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई और एक रात्रि सिद्धार्थ अपना सब कुछ छोड़कर सत्य की खोज में निकल पडे व एक साधु का जीवन अपना लिया. उन्होंने कठिन तप किया तथा अंत में महावरिक्ष के नीचे आठ दिन तक स्माधिवस्था में वैशाख पूर्णिमा के दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई यहीं से सिद्धार्थ गौतम बुद्ध कहलाए|

बुद्ध पूर्णिमा को बैशाख माह का अंतिम स्नान-

वैसे तो प्रत्येक माह की पूर्णिमा श्री हरि विष्णु भगवान को समर्पित होती है। शास्त्रों में पूर्णिमा को तीर्थ स्थलों में गंगा स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। बैशाख पूर्णिमा का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इस पूर्णिमा को भाष्कर देव अपनी उच्च राशि मेष में होते हैं और चंद्रमा भी उच्च राशि तुला में। संयोगवश इस बार पूर्णिमा को स्वाती नक्षत्र का योग भी है।

शास्त्रों में पूरे बैशाख माह में गंगा स्नान का महत्व बताया गया है। शास्त्रों में यह भी वर्णित है कि पूर्णिमा का स्नान करने से पूरे बैशाख माह के स्नान के बराबर पुण्य मिलता है।

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नृसिंह जयंती आज, इस तरह करें भगवान नृसिंह को प्रसन्न

वैसाख के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है| इस बार नृसिंह जयंती 13 मई दिन मंगलवार को मनाई जाएगी| पुराणों में वर्णित कथाओं के अनुसार इसी पावन दिवस को भक्त प्रहलाद की रक्षा करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप में अवतार लिया था. जिस कारणवश यह दिन भगवान नृसिंह के जयंती रूप में बड़े ही धूमधाम और हर्सोल्लास के साथ मनाया जाता है|

व्रत विधि-

इस दिन स्नानादि करे संपूर्ण घर की साफ-सफाई करें। इसके बाद गंगा जल या गौमूत्र का छिड़काव कर पूरा घर पवित्र करें।

नृसिंह देवदेवेश तव जन्मदिने शुभे।
उपवासं करिष्यामि सर्वभोगविवर्जितः॥

इस मंत्र के साथ इस मंत्र के साथ दोपहर के समय क्रमशः तिल, गोमूत्र, मृत्तिका और आँवला मलकर पृथक-पृथक चार बार स्नान करें। इसके बाद शुद्ध जल से स्नान करना चाहिए। पूजा के स्थान को गोबर से लीपकर तथा कलश में तांबा इत्यादि डालकर उसमें अष्टदल कमल बनाना चाहिए। अष्टदल कमल पर सिंह, भगवान नृसिंह तथा लक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात वेदमंत्रों से इनकी प्राण-प्रतिष्ठा कर षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। दूसरे दिन फिर पूजन कर ब्राह्मणों को भोजन कराएँ।

कथा-

जब- जब पृथ्वीलोक पर असुरों का पाप बढ़ा तब-तब भगवान ने अवतार लिया| आपको बता दें कि नृसिंह अवतार भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक है| नरसिंह अवतार में भगवान विष्णु ने आधा मनुष्य व आधा शेर का शरीर धारण करके दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था|

प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुए थे उनकी पत्नी का नाम दिति था| उनके दो पुत्र हुए, जिनमें से एक का नाम हरिण्याक्ष तथा दूसरे का हिरण्यकशिपु था| हिरण्याक्ष को भगवान श्री विष्णु ने पृथ्वी की रक्षा हेतु वाराह रूप धरकर मार दिया था| अपने भाई कि मृत्यु से दुखी और क्रोधित हिरण्यकशिपु ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए अजेय होने का संकल्प किया| सहस्त्रों वर्षों तक उसने कठोर तप किया, उसकी तपस्या से प्रसन्न हो ब्रह्माजी ने उसे 'अजेय' होने का वरदान दिया| वरदान प्राप्त करके उसने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया, लोकपालों को मार भगा दिया और स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया|

देवता निरूपाय हो गए थे वह असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे अहंकार से युक्त वह प्रजा पर अत्याचार करने लगा| इसी दौरान हिरण्यकशिपु कि पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया एक राक्षस कुल में जन्म लेने पर भी प्रह्लाद में राक्षसों जैसे कोई भी दुर्गुण मौजूद नहीं थे तथा वह भगवान नारायण का भक्त था तथा अपने पिता के अत्याचारों का विरोध करता था| भगवान-भक्ति से प्रह्लाद का मन हटाने और उसमें अपने जैसे दुर्गुण भरने के लिए हिरण्यकशिपु ने बहुत प्रयास किए, नीति-अनीति सभी का प्रयोग किया किंतु प्रह्लाद अपने मार्ग से विचलित न हुआ तब उसने प्रह्लाद को मारने के षड्यंत्र रचे मगर वह सभी में असफल रहा| भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर संकट से उबर आता और बच जाता था|

इस बातों से क्षुब्ध हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिन्दा ही जलाने का प्रयास किया| होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती परंतु जब प्रल्हाद को होलिका की गोद में बिठा कर अग्नि में डाला गया तो उसमें होलिका तो जलकर राख हो गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ|

इस घटना को देखकर हिरण्यकशिपु क्रोध से भर गया उसकी प्रजा भी अब भगवान विष्णु को पूजने लगी, तब एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि बता, तेरा भगवान कहाँ है? इस पर प्रह्लाद ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु तो सर्वत्र हैं, हर जगह व्याप्त हैं| क्रोधित हिरण्यकशिपु ने कहा कि 'क्या तेरा भगवान इस स्तम्भ में भी है? प्रह्लाद ने हाँ, में उत्तर दिया|

यह सुनकर क्रोधांध हिरण्यकशिपु ने खंभे पर प्रहार कर दिया तभी खंभे को चीरकर श्री नृसिंह भगवान प्रकट हो गए और हिरण्यकशिपु को पकड़कर अपनी जाँघों पर रखकर उसकी छाती को नखों से फाड़ डाला और उसका वध कर दिया| श्री नृसिंह ने प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि आज के दिन जो भी मेरा व्रत करेगा वह समस्त सुखों का भागी होगा एवं पापों से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त होगा अत: इस कारण से दिन को नृसिंह जयंती-उत्सव के रूप में मनाया जाता है|

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परशुराम जयंती आज, जानिए परशुराम से जुड़ी कुछ रोचक जानकारियां

भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा प्रसेनजित की पुत्री रेणुका और भृगुवंशीय जमदग्नि के पुत्र और विष्णु के अवतार परशुराम की जयन्ती इस बार 1 मई को है| बताया जाता है कि इन्हें शिव से विशेष परशु प्राप्त हुआ था। इनका नाम तो राम था, किन्तु शंकर द्वारा प्रदत्त अमोघ परशु को सदैव धारण किये रहने के कारण ये परशुराम कहलाते थे। विष्णु के दस अवतारों में से छठा अवतार, जो वामन एवं रामचन्द्र के मध्य में गिने जाता है। जमदग्नि के पुत्र होने के कारण ये जामदग्न्य भी कहे जाते हैं। इनका जन्म अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ल तृतीया) को हुआ था। अत: इस दिन व्रत करने और उत्सव मनाने की प्रथा है। परम्परा के अनुसार इन्होंने क्षत्रियों का अनेक बार विनाश किया। क्षत्रियों के अहंकारपूर्ण दमन से विश्व को मुक्ति दिलाने के लिए इनका जन्म हुआ था।

परशुराम का जन्म-

प्राचीनकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्‍चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्‍वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्‍ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्‍वानस और परशुराम।

परशुराम ने अपने जीवनकाल में किये थे अनेक यज्ञ- 

परशुराम ने अपने जीवनकाल में अनेक यज्ञ किए। यज्ञ करने के लिए उन्होंने बत्तीस हाथ ऊँची सोने की वेदी बनवायी थी। महर्षि कश्यप ने दक्षिण में पृथ्वी सहित उस वेदी को ले लिया तथा फिर परशुराम से पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। परशुराम ने समुद्र पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर निवास किया।

मातृ-पितृ भक्त थे परशुराम-

श्रीमद्भागवत में दृष्टांत है कि गंधर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा-तट पर जल लेने गई माता रेणुका आसक्त हो गई। तब हवन-काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्निने पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचारवश पुत्रों को माता का वध करने की आज्ञा दी।

अन्य भाइयों द्वारा साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेदन एवं समस्त भाइयों का वध कर डाला, और प्रसन्न जमदग्नि द्वारा वर मांगने का आग्रह किए जाने पर सभी के पुनर्जीवित होने एवं उनके द्वारा वध किए जाने संबंधी स्मृति नष्ट हो जाने का ही वर मांगा।

क्रोधी स्वभाव वाले थे परशुराम- 

दुर्वासा की भाँति ये भी अपने क्रोधी स्वभाव के लिए विख्यात है। एक बार कार्त्तवीर्य ने परशुराम की अनुपस्थिति में आश्रम उजाड़ डाला था, जिससे परशुराम ने क्रोधित हो उसकी सहस्त्र भुजाओं को काट डाला। कार्त्तवीर्य के सम्बन्धियों ने प्रतिशोध की भावना से जमदग्नि का वध कर दिया। इस पर परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय-विहीन कर दिया और पाँच झीलों को रक्त से भर दिया। अंत में पितरों की आकाशवाणी सुनकर उन्होंने क्षत्रियों से युद्ध करना छोड़कर तपस्या की ओर ध्यान लगाया।

परशुराम ने ली थी राम के पराक्रम की परीक्षा-

बताया जाता है कि परशुराम राम का पराक्रम सुनकर वे अयोध्या गये। दशरथ ने उनके स्वागतार्थ रामचन्द्र को भेजा। उन्हें देखते ही परशुराम ने उनके पराक्रम की परीक्षा लेनी चाही। अतः उन्हें क्षत्रियसंहारक दिव्य धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए कहा। राम के ऐसा कर लेने पर उन्हें धनुष पर एक दिव्य बाण चढ़ाकर दिखाने के लिए कहा। राम ने वह बाण चढ़ाकर परशुराम के तेज पर छोड़ दिया। बाण उनके तेज को छीनकर पुनः राम के पास लौट आया। राम ने परशुराम को दिव्य दृष्टि दी। जिससे उन्होंने राम के यथार्थ स्वरूप के दर्शन किये। परशुराम एक वर्ष तक लज्जित, तेजहीन तथा अभिमानशून्य होकर तपस्या में लगे रहे। तदनंतर पितरों से प्रेरणा पाकर उन्होंने वधूसर नामक नदी के तीर्थ पर स्नान करके अपना तेज पुनः प्राप्त किया।

भगवान परशुराम को पृथ्वी को अत्याचारियों से मुक्त करवाने वाला अत्याचार का अंत करने वाला महापुरुष मन जाता है, इसीलिए उनके जन्मदिन पर विशेष आयोजन कर उन्हें श्रद्धा पूर्वक याद किया जाता है|

45 के हुए अजय देवगन, जानिए उनसे जुड़ी कुछ ख़ास बातें

फिल्म 'फूल और कांटे' से बॉलीवुड में एंट्री कर कामयाबी की चमक बरकरार रखने वाले फिल्मस्टार अजय देवगन आज 45 साल के हो गये हैं| अपनी आँखों से सब कुछ बयान कर देने वाले अजय बिन किसी हंगामे के दर्शकों के आज भी चेहते स्टार हैं|

फ़िल्मी दुनिया के स्टार अजय देवगन का असली नाम विशाल देवगन है| उनका जन्म दिल्ली में 2 अप्रैल, 1969 को हुआ था| अजय के पिता वीरू देवगन हिंदी फिल्मों के नामी स्टंटमैन थे, जबकि उनकी मां वीना देवगन ने एक-दो फिल्मों का निर्माण किया था| बचपन से ही पिता के साथ सेट्स पर जाते-जाते अजय ने भी फिल्मी दुनिया में आने का मन बना लिया| उन्होंने मुंबई में अपनी पढ़ाई पूरी की|

अजय ने अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत वर्ष 1991 में फिल्म 'फूल और कांटे' से की थी| अपनी पहली फिल्म के लिए उन्होंने 'बेस्ट मेल डेब्यू' का फिल्मफेयर अवॉर्ड हासिल किया| इसके बाद उन्होंने वर्ष 1992 में “जिगर” फिल्म में काम किया जो एक हिट फिल्म साबित हुई| वर्ष 1994 तो अजय देवगन के लिए सबसे अच्छा साल साबित हुआ| इस वर्ष अजय देवगन ने तीन हिट फिल्में दीं, जिनमें 'दिलवाले', 'सुहाग' और 'दिलजले' शामिल थीं| वर्ष 1999 में उन्होंने 'प्यार तो होना ही था' और 'जख्म' जैसी फिल्में की| “जख्म” के लिए उन्होंने पहली बार नेशनल फिल्म अवॉर्ड जीता|

वर्ष 1995 में आई फिल्म “हलचल” में पहली बार काजोल और अजय की जोड़ी फ़िल्मी पर्दे पर नज़र आई| इस फिल्म के बाद दोनों ने एक साथ कई फिल्में की जो बेहद हिट रहीं जैसे ‘इश्क’, ‘प्यार तो होना ही था’, ‘दिल क्या करे’, ‘राजू चाचा’ और ‘यू मी और हम’|

फ़िल्मी पर्दे पर एक-दूसरे का साथ निभाते-निभाते काजोल और अजय इतने नज़दीक आ गये कि वर्ष 1999 में दोनों ने शादी कर ली| कहा जा सकता है की शादी के बाद का समय अजय के लिए खुशियां लेकर आया| उनके लिए वर्ष 2010 सफल रहा| 'गोलमाल 3', 'राजनीति', 'ऑल द बेस्ट', 'वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' जैसी फिल्मों ने उन्हें 2010 का सबसे कमाऊ कलाकार बना दिया था|

जैसी तेरी सूरत, वैसा मेरा जवाब!

दागी, बागी, बाहुबली और भ्रष्टों के खिलाफ वोटिंग मशीन में नोटा (इनमें से कोई नहीं) की मिली शक्ति के कारण ऐसे दागी, बागी और दलबदलू प्रत्याशियों की धड़कनें तेज हैं। चुनाव में पहली बार इस्तेमाल किए जा रहे 'राइट टू रिजेक्ट' की ताकत से मतदाता बेहद खुश हैं। इस ताकत के प्रयोग की मतदान में प्रबल संभावना है। नेताओं की हर चालों से ऊब चुका मतदाता इस अधिकार से प्रत्याशियों को सबक सिखा सकता है। माना जा रहा है कि राइट टू रिजेक्ट से वोटिंग प्रतिशत बढ़ेगा।

मतदान में नोटा के रूप में मिली इस ताकत का प्रभाव मतदाताओं पर साफ दिख भी रहा है। मतदाता इस बार अधिक संख्या में पोलिंग स्टेशन तक जाने को तैयार हैं। अब तक मतदाता इन बातों पर विचार करता था कि किन पार्टियों से बेदाग छवि के लोग हैं, ईमानदार और कर्मठ प्रत्याशी कौन है, संसद में वह हमारी बात को कैसे रखेगा। लेकिन किसी भी प्रत्याशी के इन मुद्दों पर खरा नहीं उतरने पर मतदाताओं की रूचि मतदान में खत्म होने लगी थी, जिससे मतदान प्रतिशत घटता था।

अब नोटा बटन ने उस वर्ग को मतदान की ओर आकर्षित किया है, जो कसौटी पर खरा न उतरने वाले प्रत्याशियों को देखकर मतदान ही करने नहीं जाते थे। सीतापुर की दोनों संसदीय सीट से दलबदलू एक-दूसरे को आमने-सामने की टक्कर दे रहे हैं। बार-बार पार्टियां बदलने वाले प्रत्याशियों का जनता में खासा विरोध है। अभी तक इन्हीं में से किसी एक को वोट देना मजबूरी बन जाती थी, लेकिन अब नोटा विकल्प से मतदाताओं की बाछें खिल गई हैं।

व्यंग्यकार कवि शांति शरण मिश्र इस पर बेबाक टिप्पणी करते हैं। वह कहते हैं कि नोटा के विकल्प से मतदाता को पहली बार शक्ति मिली है। वह दागदार बाहुबलियों को नकार देगा जो दागी प्रत्याशी और उनको प्रत्याशी बनाने वाली पार्टी दोनों को आईना दिखाएगा यानी 'जैसी तेरी सूरत वैसा मेरा जवाब।' उन्होंने कहा कि यह राजनीतिज्ञों को सचेत करेगा कि वे सुधरें और स्वच्छ छवि के प्रत्याशी चुनाव में उतारें जिससे लोकतंत्र मजबूत हो। उनका यह भी कहना है कि नोटा के वोटों की गणना भी की जानी चाहिए। 

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