ब्रह्मा ने बताया इन दिनों पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी स्त्रियाँ

श्रीमहाविष्णु को एक बार प्रसन्न मुद्रा में बैठे देखकर वैनतेय नामधारी गरुड़ ने उनसे पूछा, "हे परात्पर। हे परमपुरुष। हे जगन्नाथ। मैं यह जानना चाहता हूं कि जीव किस प्रकार जन्म और मृत्यु का कारणभूत बनता है। किन कारणों से वह स्वर्ग और नरक भोगता है? कैसे वह प्रेतात्मा बनकर कष्ट झेलता है?" इस पर अंतर्यामी श्रीमहाविष्णु ने गरुड़ पर प्रसन्न होकर उनको जन्म-मरण का रहस्य बताया। इस कारण से यह कथा गरुड़ पुराण नाम से लोकप्रिय बन गई। 

नैमिशारण्य में वेदव्यास के शिष्य महर्षि सूत ने शौनक आदि मुनियों को यह वृत्तांत सुनाया, "हे मुनिवृंद, वैनतेय ने श्रीमहाविष्णु से प्रश्न किया था कि हाड़-मांस, नसें, रक्त, मुंह, हाथ-पैर, सिर, नाक, कान, नेत्र, केश और बाहुओं से युक्त जीव के शरीर का निर्माण कैसे होता है? श्रीमहाविष्णु ने इसके जो कारण बताए, वे मैं आपको सुनाता हूं :

प्राचीन काल में देवता और राक्षसों के बीच भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया। परिणामस्वरूप इंद्र ब्रह्महत्या के दोष के शिकार हुए। इंद्र भयभीत होकर ब्रह्मा के पास पहुंचे और उनसे निवेदन किया कि वे उनको इस पाप से मुक्त कर दें। ब्रह्मा ने ब्रह्महत्या के दोष को चार भागों में विभाजित कर एक अंश स्त्रियों के सिर मढ़ दिया। स्त्रियों की प्रार्थना पर दयाद्र्र होकर ब्रह्मा ने उसके निवारण का उपाय बताया कि स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा।

ब्रह्मा ने कहा कि उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी। रजस्वला के छठे दिन से अठारह दिन तक यदि छठे, आठवें, दसवें, बारहवें, चौदहवें, सोलहवें और अठारहवें दिन वे पति के साथ संयोग करती हैं तो उन्हें पुरुष संतान की प्राप्ति होगी। ऐसा न होकर पांचवें दिन से लेकर अठारह दिन तक विषम दिनों में यानी पांच, सात, नौ, ग्यारह, तेरह, पंद्रह और सत्रहवें दिन मैथुन क्रिया संपन्न करने पर स्त्री संतान होगी। इसलिए पुत्र प्राप्ति करने की कामना रखनेवाले दम्पतियों को सम दिनों में ही दांपत्य सुख भोगना होगा।

ऋतुमती होने के चार दिन पश्चात अठारह दिन तक के सम दिन में मैथुन से यदि नारी गर्भ धारण करती है, तो गर्भस्थ शिशु की क्रमश: वृद्धि हो सुखी प्रसव होगा। वह शिशु शील, संपन्न और धर्मबुद्धिवाला होगा। रजस्वला के पांचवें दिन स्त्रियों को खीर, मिष्ठान्न आदि मधुर पदार्थो का सेवन करना होगा। तीखे पदार्थ वर्जित हैं। साधारणत: पांचवें दिन के पश्चात आठ दिनों के अंदर गर्भधारण होता है।

गर्भधारण के संबंध में भी कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। शयन गृह में दम्पति को अगरबत्ती, चंदन, पुष्प, तांबूल आदि का उपयोग करना चाहिए। इनके सेवन और प्रयोग से दम्पति का चित्त शीतल होता है। तब उन्हें परस्पर प्रेमपूर्ण रति-क्रीड़ा में पति और पत्नी के शुक्र और श्रोणित का संयोग होता है। परिणामस्वरूप पत्नी गर्भ धारण करती है। क्रमश: गर्भस्थ पिंड शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन प्रवर्धगमान होगा। रति क्रीड़ा के समय यदि पति के शुक्र की मात्रा अधिक स्खलित होती है तो पुरुष संतान होती, पत्नी के श्रोणित की मात्रा अधिक हो जाए तो स्त्री संतान के रूप में गर्भ शिशु का विकास होता है। अगर दोनों की मात्रा समान होकर पुरुष शिशु का जन्म होता है तो वह नपुंसक होगा। गर्भ धारण के रतिक्रीड़ा में स्खलित इंद्रियां गर्भ-कोशिका में एक गोल बिंदु या बुलबुला उत्पन्न करता है।

इसके बाद पंद्रह दिनों के अंदर उस बिंदु के साथ मांस सम्मिलित होकर विकसित होता है। फिर क्रमश: इसकी वृद्धि होती जाती है। एक महीने के पूरा होते-होते उस पिंड से पंच तžवों का संयोग होता है। दूसरे महीने पिंड पर चर्म की परत जमने लगती है। तीसरे महीने में नसें निर्मित होती हैं। चौथे महीने में रोम, भौंहें, पलकें आदि का निर्माण होता है। 

पांचवें महीने में कान, नाक, वक्ष; छठे महीने में कंठ, सिर और दांत तथा सातवें महीने में यदि पुरुष शिशु हो तो पुरुष-चिह्न्, स्त्री शिशु हो तो स्त्री-चिह्न् का निर्माण होता है। आठवें महीने में समस्त अवयवों से पूर्ण शिशु का रूप बनता है। उसी स्थिति में उस शिशु के भीतर जीव या प्राण का अवतरण होता है। नौवें महीने में जीव सुषुम्न नाड़ी के मूल से पुनर्जन्म कर्म का स्मरण करके अपने इस जन्म धारण पर रुदन करता है। दसवें महीने में पूर्ण मानव की आकृति में माता के गर्भ से जन्म लेता है।

प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान-ये पांच 'प्राण वायु' कहलाते हैं। इसी प्रकार नाग, कर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय नामक अन्य पांच वायु भी हैं। इस शरीर में शुक्ल, अस्थियां, मांस, जल, रोम और रक्त नामक छह कोशिकाएं हैं। नसों से बंधित इस स्थूल शरीर में चर्म, अस्थियां, केश, मांस और नख-ये क्षिति या पृथ्वी से सम्बंधित गुण हैं।

मुंह में उत्पन्न होनेवाला लार, मूत्र, शुक्ल, पीव, व्रणों से रिसनेवाला जल-ये आप यानी जल गुण हैं। भूख, प्यास, निद्रा, आलस्य और कांति तेजोगुण हैं यानी अग्नि गुण है। इच्छ, क्रोध, भय, लज्जा, मोह, संचार, हाथ-पैरों का चालन, अवयवों का फैलाना, स्थिर यानी अचल होना-ये वायु गुण कहलाते हैं। ध्वनि भावना, प्रश्न, ये गगन यानी आकाशिस्थ गुण है। कान, नेत्र, नासिका, जिा, त्वचा, ये पांचों ज्ञानेंद्रिय हैं। इडा, पिंगला और सुषुम्ना ये दीर्घ नाड़ियां हैं। 

इनके साथ गांधारी, गजसिंह, गुरु, विशाखिनी-मिलकर सप्त नाड़ियां कहलाती हैं। मनुष्य जिन पदार्थो का सवेन करता है उन्हें उपरोक्त वायु उन कोशिकाओं में पहुंचा देती हैं। परिणामस्वरूम उदर में पावक के उपरितल पर जल और उसके ऊध्र्व भाग में खाद्य पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। इस जटराग्नि को वायु प्रज्वलित कर देती है।

मानव शरीर का गठन अति विचित्र है। इस शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम, बत्तीस दांत, बीस नाखून, सत्ताईस करोड़ शिरोकेश, तीन हजार तोले के वजन की मांसपेशियां, तीन सौ तोले वजन का रक्त, तीस तोले की मेधा, तीस तोले की त्वचा, छत्तीस तोले की मज्जा, नौ तोले का प्रधान रक्त और कफ, मल व मूत्र-प्रत्येक पदार्थ नौ तोले के परिमाण में निहित हैं। इनके अतिरिक्त अंड के भीतर की सारी वस्तुएं शरीर के अंदर समाहित हैं। 

इसी प्रकार शरीर के भीतर चौदह भुवन या लोक निहित हैं- ये भुवन शरीर के विभिन्न अंगों के प्रतीक हैं, जैसे-दायां पैर अतल नाम से व्यवह्रत है, तो एड़ी वितल, घुटना सुतल, घुटने का ऊपरी भाग यानी जांध रसातल, गुह्य पाश्र्व भाग तलातल, गुदा भाग महातल, मध्य भाग पाताल, नाभि स्थल भूलोक, उदर भुवर्लोक, ह्रदय सुवर्लोक, भुजाएं सहर्लोक, मुख जनलोक, भाल तपोलोक, शिरो भाग सत्यलोक माने जाते हैं।

इसी प्रकार त्रिकोण मेरु पर्वत, अघ: कोण, मंदर पर्वत, इन कोणों का दक्षिण पाश्र्व कैलाश वाम पाश्र्व हिमाचल, ऊपरी भाग निषध पर्वत, दक्षिण भाग गंधमादन पर्वत, बाएं हाथ की रेखा वरुण पर्वत नामों से अभिहित हैं।

अस्थियां जम्बू द्वीप कहलाती हैं। मेधा शाख द्वीप, मांसपेशियां कुश द्वीप, नसें क्रौंच द्वीप, त्वचा शालमली द्वीप, केश प्लक्ष द्वीप, नख पुष्कर द्वीप नाम से व्यवहृत हैं।

जल समबंधी मूत्र लवण समुद्र नाम से पुकारा जाता है तो थूक क्षीर समुद्र, कफ सुरा सिंधु समुद्र, मज्जा आज्य समुद्र, लार इक्षु समुद्र, रक्त दधि समुद्र, मुंह में उत्पन्न होनेवाला जल शुदार्नव नाम से जाने जाते हैं।

मानव शरीर के भीतर लोक, पर्वत और समुद्र ही नहीं बल्कि ग्रह भी चक्रों के नाम से समाहित हैं। प्रधानत: मानव के शरीर में दो चक्र होते हैं- नाद चक्र और बिंदु चक्र। नाद चक्र में सूर्य और बिंदु चक्र में चंद्रमा का निवास होता है। इनके अतिरिक्त नेत्रों में अंगारक, ह्रदय में बुध, वाक्य में गुरु, शुक्ल में शुक्र, नाभि में शनि, मुख में राहू और कानों में केतु निवास करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य के भीतर भूमंडल और ग्रह मंडल समाहित है। यही मानव जन्म और शरीर का रहस्य है।

श्राप मिला विष्णु को हरण हुआ सीता का

समय अत्यंत शक्तिशाली होता है। तन नाना प्रकार के सुख चाहता है। मन बड़ा विचित्र होता है, कभी चंचल और कभी स्थिर। आत्मा तन-मन के कारनामों को भोगती है। मन की तरंगें कभी उत्ताल होती हैं तो उस उल्लास के रंग में भंग भी होता है। इसके शिकार न केवल मानव ही होते हैं, बल्कि देव और दानव भी हुआ करते हैं। ऐसी कई कहानियां पुराणों में मिलती हैं। ऐसी ही एक कहानी का जायजा लीजिए : एक बार सुरपति इंद्र देवगुरु बृहस्पति को साथ लेकर परमेश्वर के दर्शन करने कैलाश पहुंचे। परमेश्वर को न मालूम क्या सूझा, इंद्र के आगमन का समाचार जानकर भी कैलाश के प्रवेशद्वार पर ध्यानमग्न होकर बैठ गए। देवराज इंद्र ने सोचा कि वहां पर बैठा हुआ व्यक्ति कोई मुनि या यति होगा। उन्होंने पूछा, "तपस्वी, यह बताइए, इस वक्त कैलाशपति शिव जी अपने निवास में हैं या नहीं?" परंतु यति ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने कहा, "अरे दुष्ट, तुम मेरी उपेक्षा करते हो, लो इसका फल भोगो।" यह कहकर देवेंद्र ने उस यति वेषधारी पर बज्र का प्रहार करनपा चाहा। परम परमेश्वर ने इंद्र के हाथ को स्तंभित करके अपने त्रिनेत्र की ज्वाला से देवराज को भस्म करना चाहा। देवगुरु बृहस्पति ने भांप लिया कि यति वषधरी साक्षात् परमेश्वर हैं। उन्होंने शिव जी के चरणों पर गिरकर प्रार्थना की, "हे महादेव, हे शंकर, हे परमेश्वर, हे रूद्र, हे आपत्बांधव, हम आपकी शरण में आए हैं। आप कृपा करके देवराज इंद्र की जल्दबाजी का क्षमा करें।"

भोले शंकर बृहस्पति की स्तुति पर प्रसन्न होकर बोले, "देवगुरु, अब आप ही बताइए कि मैं अपने इस त्रिनेत्र की अग्नि-ज्वाला को कहां पर विसर्जित करूं?" देवगुरु बृहस्पति ने परमेश्वर को सलाह दी कि वे अपनी ज्वाला को समुद्र में छोड़ दें।

समुद्र में विसर्जित शिव जी की नेत्राग्नि से एक बालक का उदय हुआ। समुद्रराज उस बालक को देख आह्लादित होकर प्यार करने लगे। उसी समय वहां पर ब्रह्मा आ पहुंचे। समुद्रराज ने उस बालक की जन्मकुंडली जाननी चाही। ब्रह्मा ने बताया, "यह बालक यशस्वी बनकर तीनों लोकों पर शासन करेगा और इसकी पत्नी अपने पतिव्रत्य के कारण सर्वत्र पूजित होगी।" 

ब्रह्मा बालक का भविष्य बता ही रहे थे कि बालक ने ब्रह्मा की गर्दन पकड़कर मरोड़ने का प्रयत्न किया। बड़ी मुश्किल से ब्रह्मा ने उस की पकड़ से अपनी गर्दन छुड़ाई, लेकिन उनका कंठ कम जाने के कारण उनकी आँखों से जल निकलकर धरती पर गिर पड़ा। इसलिए ब्रह्मा ने उस बालक का नामकरण किया-'जलंधर'।

यही बालक कालांतर में असुर-गुरु शुक्राचार्य का शिष्य बना और कालांतर में कालनेमि की पुत्री बृंदा के साथ विवाह करके गृहस्थ बना। उनका दांपत्य जीवन बहुत ही सुखमय रहा। जलंधर का शासन निवर्धन संपन्न होता रहा। एक दिन राजसभा में राहु की विकृत आकृति को देख जलंधर ने दानवाचार्य शुक्राचार्य से इसका कारण पूछा। शुक्राचार्य ने संक्षेप में यह वृत्तांत सुनाया, "देव-दानवों ने मंथर पर्वत को मथनी तथा बासु के सर्प को नेती बनाकर समुद्र का मंथन किया। तब अंत में अमृत निकला। अमृत बांटते समय राहु और केतु को देवताओं की पंक्ति में बैठे देखकर सूर्य और चंद्र ने यह समाचार विष्णु को दिया। इस पर विष्णु ने अपने सुदर्शन-चक्र से उनके कंठ काट डाले।" 

यह वृत्तांत सुनकर जलंधर क्रोध में आ गए, क्योंकि उनके पिता समुद्रराज का मंथन करके उनको सताया गया और उससे प्राप्त अमृत का सेवन किया गया। इसलिए उन्होंने देवराज इंद्र के पास दूत द्वारा संदेशा भेजा, "आप लोगों ने मेरे पिताश्री को मथकर उनसे प्राप्त सभी वस्तुओं पर अधिकार कर लिया है। इसलिए वे सारी चीजें तत्काल मुझे सौंप दीजिए, वरना इसका परिणाम अत्यंत कठोर होगा।"

इसके उत्तर में सुरपति ने कहला भेजा, "हमने जो कुछ किया, उचित ही किया है। यदि तुम अहंकार में आकर हमारे साथ युद्ध करना चाहोगे तो तुम्हारा सर्वनाश होगा।" दूत द्वारा संदेश पाकर जलंधर ने क्रुद्ध हो देवताओं पर युद्ध घोषित किया। शुक्राचार्य की रक्षा-मंत्री नियुक्त करके उनके नेतृत्व में सुरपुरी अमरावती पर हमला बोल दिया। उधर देवताओं ने सुरगुरु बृहस्पति के मार्गदर्शन में राक्षस सेना का सामना किया। लंबे समय तक देव-दानवों के बीच तुमुल युद्ध होता रहा। 

कई दिनों तक युद्ध करने के बाद निराश हो विष्णु ने जलंधर से वर मांगने को कहा। जलंधर ने वर मांगने से तिरस्कार करके कहा, "आपके वरदानों की मुझे आवश्यकता नहीं है। आपसे केवल मेरा अनुरोध यही है कि आप मेरी सहादरी समुद्रपुत्री लक्ष्मी के साथ समुद्र में रह जाइए।" जलंधर का अनुरोध स्वीकार करके विष्णु क्षीर-सागर में शयन करते हुए लक्ष्मी समेत रहने लगे।

जलंधर ने अमरावती पर अधिकार कर लिया। देवता इस बार शिव जी के आश्रय में गए। शिव जी ने देवताओं को अभयदान देकर भेज दिया। नारद को बुलवाकर समझाया, "आप अपनी चतुरोक्तियों से मेरे और जलंधर के बीच वैर पैदा कीजिए।" नारद ने जलंधर के पास जाकर शिव जी के वैभव का वर्णन किया और बताया कि उनके ऐश्वर्य और यश का कारण पार्वती है। यदि आप पार्वती को अपने वश में कर लोगे तो फिर क्या, आठों सिद्धियां आपके द्वार पर पहरा देंगी।

जलंधर लोभ में आ गए। उन्होंने जगन्माता पार्वती को अपने वश में करने का संकल्प किया और नवरत्न खचित स्वर्ण-रथ पर आरूढ़ हो सेना समेत कैलाश जाकर युद्धभेरी बजवा दी। कैलाशपति ने जलंधर का मनोरथ भांप लिया और वृद्ध का रूप धारण कर जलंधर के सामने प्रत्यक्ष हुए। जलंधर ने परमेश्वर को आदेश दिया, "ऐ बूढ़े! तुम शिव जी से कह दो, उस भिखारी के लिए पार्वती की क्या आवश्यकता है। वह मेरी रानी बनने योग्य है। इसलिए उनसे कह दो कि वह इसी वक्त पार्वती को मेरे हाथ सौंप दे।"

वृद्ध वस्त्रधारी परमेश्वर ने क्रुद्ध होकर कहा, "अबे, सुनो! यदि तुम सचमुच बल और पराक्रम रखते हो तो इस सुदर्शन को उठाकर अपने सिर पर रख लो। तब मैं समझूंगा कि तुम त्रिलोचन को पराजित कर सकते हो।" वृद्ध की चुनौती सुनकर जलंधर ने धमकी दी, "तुम मेरी परीक्षा लेना चाहते हो। मेरा संदेशा महेश्वर तक पहुंचा दो, वरना मैं इसी वक्त तुम्हारा वध कर डालूंगा।"

वृद्ध की सहनशीलता जाती रही। उन्होंने सुदर्शन उठाकर जलंधर के सिर पर प्रहार किया। जलंधर का शरीर दो टुकड़ों में विभक्त हो गया और उनका तेज परम शिव में लीन हो गया। इसके उपरांत शिव जी ने जलधर की सेना को त्रिनेत्र की जवाला से भस्म कर डाला।

जलंधर की मृत्यु पर देवताओं ने हर्षित होकर शिव जी पर पुष्प वृष्टि की। उधर श्रीमहाविष्णु जलंधर की पत्नी 'बृंदा' के अद्भुत सौंदर्य पर पहले से ही मोहित थे। अब उनके साथ सह-शयन करने की आशा से प्रेरित होकर उन्होंने जलंधर के शरीर के कटे टुकड़ों को एक स्थान पर सुरक्षित रखा और एक वृद्ध यति का रूप धारण कर दो बंदरों को साथ लेकर जलंधर के उद्यान में पहुंचे।

उसी समय बृंदा अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा में अपनी सखियों के साथ उद्यान में आ पहुंची। उद्यान के एक कोने में भगवान के स्मरण के शब्द सुनाई दिए। बृंदा ने देखा, एक वृद्ध यति ध्यानमग्न बैठे हुए हैं। बृंदा ने अपने पति के कुशल-क्षेम का स्मरण करते हुए यति के चरणों में प्रणाम किया। वृद्ध यति ने बंदरों को संकेत किया। वे वानर जलंधर के शरीर के कटे अंग उठा लाए। बृंदा अपने मति को मृत अवस्था में देख मूर्छित हो गई। होश में आकर उसने वृद्ध यति से निवेदन किया कि वे जलंधर को जीवित कर दें।

यति ने बृंदा को समझाया, "तुम अपने पति के शरीर के इन टुकड़ों को घर ले जाकर ठीक से धो लो, फिर इन्हें जोड़कर इन पर चंदन का लेप करो, तुम्हारा पति जीवित हो जाएगा।" बृंदा ने यति के आदेश का पालन किया। विष्णु ने वानरों को भेजकर योग-शक्ति के बल पर जलंधर के शरीर में प्रवेश किया। बृंदा ने सोचा कि उसका पति पुनर्जीवित हो उठा है। परम प्रसन्न हो उसके साथ गाढ़ालिंगन किया। विष्णु बृंदा के महलों में बहुत समय तक सुख भोगते रहे।

काल की महिमा बड़ी विचित्र होती है। एक दिन श्रीमहाविष्णु अकेले गाढ़ी निद्रा में निमग्न थे। बृंदा अपने को ठीक-ठाक से अलंकृत कर उनके समीप पहुंची। उसने देखा कि जलंधर के शरीर के टुकड़ों के बीच श्यामवर्णी देह को लिए श्रीमहाविष्णु शयन किए हुए हैं। 

ब्रन्दा ने क्रोध में आकर कहा, "हे धूर्त। तुमने मेरे साथ विश्वासघात किया, प्रवंचना की, तुमको मैंने अपना पति समझा। मेरा ह्रदय निर्मल है। तुम्हारी पत्नी भी इसी प्रकार एक व्यक्ति के हाथ में पड़कर तुम्हारे अपयश का कारण बनेगी। उस समय ये ही वानर तुम्हारी सहायता करेंगे।" यों शाप देकर अपने पति के शव को जलाने के लिए चिता बनाई और उसी चिताग्नि मे बृंदा ने अपने प्राणों की आहुति दी।

विष्णु भी बृंदा के विरह में उसी चिता में बैठे रहे। इस पर लक्ष्मी देवी और देवताओं ने शिव जी के पास जाकर प्रार्थना की। परमेश्वर ने महामाया, मूल प्रकृति अंबिका को इस कार्य में नियुक्त किया। अंबिका ने नीन शक्तिमय बीज विष्णु के हाथ में देकर बृंदा की चिता पर फेंकने को कहा। विष्णु ने उसका पालन किया। तब चिता से धात्री यानी आंवला, तुलसी और मालती पौधे उग आए। उनकी गंध को सूंघते ही विष्णु मोह-ताप से मुक्त होकर बैकुंठ में चले गए। उसी समय से विष्णु के लिए धात्री और तुलसी पौधे अधिक प्रिय बन गए हैं।

जाने कहाँ है भगवान गणेश का असली मस्तक

धार्मिक मान्यतानुसार हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भगवान गणेश गजानन के नाम से भी जाने जाते हैं क्योंकि उनका मुख हाथी का है| क्या आपको पता है कि भगवान श्रीगणेश का सिर कटने के बाद हाथी के बच्चे का मुख लगा लेकिन उनका असली सिर कहाँ गया? इसके बारे में आज आपको एक रोचक जानकारी देते हैं| 

ब्रह्मांड पुराण में कहा गया है कि जिस समय माता पार्वती ने भगवान श्री गणेश को जन्म दिया उस समय इन्द्रदेव समेत कई देवी- देवता उनके दर्शनों के लिए उपस्थित हुए| जिस समय यह देवी देवता पधारे उसी समय न्यायाधीश कहे जाने वाले शनिदेव भी वहां आये| शनिदेव के बारे में कहा जाता है कि उनकी क्रूर दृष्टि जहां भी पड़ेगी, वहां हानि होगी। उनकी उपस्थिति से माता पार्वती रुष्ट हो गईं| फिर भी शनि देव की दृष्टि जब गणेश पर पड़ी और दृष्टिपात होते ही श्री गणेश का मस्तक अलग होकर चन्द्रमण्डल में चला गया।

इसी तरह दूसरे प्रसंग के मुताबिक, एक बार की बात है माता पार्वती स्नान करने जा रही थीं। वह चाहती थी की स्नान करते समय उन्हें कोई परेशान न करें। तब उन्होंने स्नान से पहले अपने मैल से एक सुंदर बालक को उत्पन्न किया और उसे अपना द्वारपाल बनाकर दरवाजे पर पहरा देने का आदेश दिया। उसी समय वहाँ भगवान शिवजी आये और अन्दर प्रवेश करने लगे, तब बालक ने उन्हें बाहर रोक दिया। शिव जी ने उस बालक को कई बार समझाया लेकिन वह नहीं माना। इस पर शिवगणों ने भगवान शिवजी के कहने पर उस बालक को द्वार से हटाने के लिए उससे भयंकर युद्ध किया। लेकिन उसे कोई पराजित नहीं कर सका। बालक के पराक्रम और हठधर्मिता से क्रोधित होकर शिवजी ने उस बालक का सिर काट दिया। जो चंद्रलोक चला गया| 

जब माता पार्वती स्नान करके निकली तो अपने पुत्र का कटा हुआ सिर देखकर क्रोधित हो उठीं और शिवजी से उसे पुनः जीवित करने के लिए कहा। उन्होंने कहा की अगर उनके पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो प्रलय आ जाएगी। यह सब देखकर सारे देवी-देवता भयभीत हो गये। तब देवर्षि नारद न एपर्वती जी को शांत किया और बालक को जिन्दा करने का अनुराध भगवान शिवजी से करने लगे। बड़ी समस्या यह थी कि कटा हुआ सिर वापस से धड के साथ जुड नही सकता था। अतः यह तय हुआ कि अगर किसी दूसरे जीव का सिर मिल जाए तो यह बालक वापस से जिन्दा हो जाएगा।

शिव जी के आदेशानुसार शिवगणों जब दूसरा सिर खोजने निकले तो उन्हें एक जंगल में एक हाथी का बच्चा मिला। शिवगणों उस हाथी के बच्चे का सिर काटकर ले आए। इसके पश्चात शिव जी ने उस गज के कटे हुए मस्तक को बालक के धड पर रखकर उसे पुनर्जीवित कर दिया और इस बालक का नाम गणेश पड़ा।

ऐसी मान्यता है कि श्री गणेश का असल मस्तक चन्द्रमण्डल में है, इसी आस्था से भी धर्म परंपराओं में संकट चतुर्थी तिथि पर चन्द्रदर्शन व अर्घ्य देकर श्री गणेश की उपासना व भक्ति द्वारा संकटनाश व मंगल कामना की जाती है।

जब दानव गुरु शुक्राचार्य बने शिव के क्रोध का शिकार

दानव गुरु शुक्राचार्य के संबंध में काशी खंड महाभारत जैसे ग्रंथों में कई कथाएं वर्णित हैं। शुक्राचार्य भृगु महर्षि के पुत्र थे। देवताओं के गुरु बृहस्पति अंगीरस के पुत्र थे। इन दोनों बालकों ने बाल्यकाल में कुछ समय तक अंगीरस के यहां विद्या प्राप्त की। आचार्य अंगीरस ने विद्या सिखाने में शुक्र के प्रति विशेष रुचि नहीं दिखाई। असंतुष्ट होकर शुक्र ने अंगीरस का आश्रम छोड़ दिया और गौतम ऋषि के यहां जाकर विद्यादान करने की प्रार्थना की। गौतम मुनि ने शुक्र को समझाया, "बेटे! इस समस्त जगत् के गुरु केवल ईश्वर ही हैं। इसलिए तुम उनकी आराधना करो। तुम्हें समस्त प्रकार की विद्याएं और गुण स्वत: प्राप्त होंगे।"

गौतम मुनि की सलाह पर शुक्र ने गौतमी तट पर पहुंचकर शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने प्रत्यक्ष होकर शुक्र को मृत संजीवनी विद्या का उपदेश दिया। शुक्र ने मृत संजीवनी विद्या के बल पर समस्त मृत राक्षसों को जीवित करना आरंभ किया। परिणामस्वरूप दानव अहंकार के वशीभूत हो देवताओं को यातनाएं देने लगे, क्योंकि देवता और दानवों में सहज ही जाति-वैर था। फलत: देवता और दानवों में निरंतर युद्ध होने लगे। 

मृत संजीवनी विद्या के कारण दानवों की संख्या बढ़ती ही गई। देवता असहाय हो गए। वे युद्ध में दानवों को पराजित नहीं कर पाए। देवता हताश हो गए। कोई उपाय ने पाकर वे शिव जी की शरण में गए, क्योंकि शिव जी ने शुक्राचार्य को मृत संजीवनी विद्या प्रदान की थी। इसलिए देवताओं ने शिव जी से शिकायत की, "महादेव! आपकी विद्या का दानव लोग दुरुपयोग कर रहे हैं। आप तो समदर्शी हैं। शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से मृत दानवों को जिलाकर हम पर भड़का रहे हैं। यही हालत रही तो हम कहीं के नहीं रह जाएंगे। कृपया आप हमारा उद्धार कीजिए।"

शुक्राचार्य द्वारा मृत संजीवनी विद्या का इस प्रकार अनुचित कार्य में उपयोग करना शिव जी को अच्छा न लगा। शिव जी क्रोध में आ गए और शुक्राचार्य को पकड़कर निगल डाला। इसके बाद शुक्राचार्य शिव जी की देह से शुक्ल कांति के रूप में बाहर आए और अपने निज रूप को प्राप्त किया।

शुक्राचार्य के संबंध में एक और कथा इस प्रकार है-शुक्राचार्य ने किसी प्रकार छल-कपट से एक बार कुबेर की सारी संपत्ति का अपहरण किया। कुबेर को जब इस बात का पता चला, तब उन्होंने शिव जी से शुक्राचार्य की करनी की शिकायत की। शुक्राचार्य को जब विदित हुआ कि उनके विरुद्ध शिव जी तक शिकायत पहुंच गई, वे डर गए और शिव जी के क्रोध से बचने के लिए झाड़ियों में जा छिपे। आखिर वे इस तरह शिव जी की आंख बचाकर कितने दिन छिप सकते थे। 

एक बार शिव जी के सामने पड़ गए। शिव स्वभाव से ही रौद्र हैं। शुक्राचार्य को देखते ही शिव जी ने उनको पकड़कर निगल डाला। शिव जी की देह में शुक्राचार्य का दम घुटने लगा। उन्होंने महादेव से प्रार्थना की कि उनको शिव जी की देह से बाहर कर दें। शिव जी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उन्होंने रोष में आकर अपने शरीर के सभी द्वार बंद किए। अंत में शुक्राचार्य मूत्रद्वार से बाहर निकल आए। इस कारण शुक्राचार्य पार्वती-परमेश्वर के पुत्र समान हो गए।

शुक्राचार्य को बाहर निकले देख शिव जी का क्रोध पुन: भड़क उठा। वे शुक्राचार्य की कुछ हानि करें, इस बीच पार्वती ने परमेश्वर से निवेदन किया, "यह तो हमारे पुत्र समान हो गया है। इसलिए इस पर आप क्रोध मत कीजिए। यह तो दया का पात्र है।" पार्वती की अभ्यर्थना पर शिव जी ने शुक्राचार्य को अधिक तेजस्वी बनाया।

अब शुक्राचार्य भय से निरापद हो गए थे। उन्होंने प्रियव्रत की पुत्री ऊर्जस्वती के साथ विवाह किया। उनके चार पुत्र हुए-चंड, अमर्क, त्वाष्ट्र और धरात्र।

एक कथा शुक्राचार्य के संबंध में इस प्रकार है- एक बार वामन ने राजा बलि के पास जाकर तीन कदम रखने की पृथ्वी मांगी। यह समाचार शुक्राचार्य को मिला। उन्होंने राजा बलि को समझाया, "राजन! सुनो। आपसे तीन कदम जमीन मांगनेवाले व्यक्ति नहीं हैं, वे नर भी नहीं। भूल से भी सही, उनको एक कदम रखने की जमीन तक मत देना। नीतिशास्त्र बताता है कि वारिजाक्ष, विवाह, प्राण, मान तथा वित्त के संदर्भ में झूठ बोला जा सकता है, इसलिए मेरी सलाह मानकर याचक को जमीन का दान देने से अस्वीकार करो।"

शुक्राचार्य ने राजा बलि को इस तरह अनेक प्रकार से समझाया, परंतु राजा बलि अपने वचन के पक्के थे, साथ ही ज्ञानी भी। इसलिए उन्होंने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, "यदि याचक नर न होकर नारायण ही हों तो और अधिक उत्तम। यदि उनके हाथों में मेरा कुछ अहित भी होता है, तो वह मेरा भाग्य ही माना जाएगा। इसलिए ऐसे सुअवसर से मैं वंचित होना नहीं चाहता। मैं अपने वचन का पालन हर हालत में करना चाहूंगा।" यह कहकर राजा बलि ने प्रसन्नतापूर्वक वामन को तीन कदम रखने की भूमि दान कर दी।

इससे दानवाचार्य शुक्र चिंता में पड़ गए। उन्होंने संकल्प किया कि किसी प्रकार से राजा बलि का उपकार करना चाहिए। यह विचार करके वे मक्खी का रूप धरकर कमंडल की टोंटी से जलधारा के गिरने से अटक गए। टोंटी से जल के न गिरते देख राजा बलि ने तीली लकेर कमंडल की टोंटी में घुसेड़ दिया। तीली मक्खी की आंख में चुभ गई और आंख फूट गई। परिणामस्वरूप दानवाचार्य शुक्र काना बन गए। तब से दानवाचार्य काना शुक्राचार्य कहलाए।

तो इस तरह चोलराज को मिला ज्ञान

कई शताब्दियां गुजर गईं, लेकिन आज भी सर्वत्र एक साधारण भक्त की कहानी कही-सुनी जाती है। बात उन दिनों की है जब चोल राजा कांचीपुर को अपनी राजधानी बनाकर राज्य किया करते थे। वे बड़े प्रतापी और पुण्यात्मा थे। जनता को अपनी संतान की तरह मानकर सदा उनके सुख-दुख का ख्याल रखते थे। यज्ञ कराते थे। जनता के कल्याण के लिए सब प्रकार के पुण्य कार्य किया करते थे। जनता की भी चोल राजा पर अत्यंत श्रद्धा-भक्ति थी। 

चोल राजा न सिर्फ एक उत्तम शासक, बल्कि एक पहुंचे हुए भक्त भी थे। उनके आराध्य देव थे श्री महाविष्णु। ताम्रपर्णी के तट पर चोल राजा ने यज्ञ पशुओं को बांधने के लिए सोने के जो स्तंभ बनवाए थे, उनकी चर्चा दूर-दराज के प्रदेशों में भी होती थी।

एक बार चोल राजा विष्णु मंदिर में पूजा-अर्चना करने गए। मंदिर के सरोवर में स्नान किया। सूर्य भगवान को अघ्र्य दिया, उसके बाद श्री महाविष्णु को उपहार के रूप में वज्र, वैदूर्य वगैरह रत्न भेंट किए। पंच भक्ष्यों का नैवेद्य चढ़ाया। भक्तिभाव से भगवान के सामने साष्टांग दंडवत किया। उसी समय विष्णुदास नामक एक अति दरिद्र विष्णु मंदिर में पहंचा। उसने तुलसी दल व फूलों से विष्णु की पूजा की। नैवेद्य के रूप में कुछ फल समर्पित किए।

चोलराज विष्णुदास की पूजा का ढंग देखते रहे। उनको विष्णुदास का पूजा-विधान अच्छा न लगा। अपने आराध्यदेव सर्वशक्तिमान श्री महाविष्णु का इस तरह अनादर होते उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने क्रोध में आकर उस दरिद्र भक्त को पास बुलाकर पूछा, "सुनो, तम नहीं जानते कि किस तरह भगवान की पूजा-अर्चना की जाती है। उस पर तुम दरिद्र भी हो। मैंने भगवान की पूजा-अर्चना स्वर्ण पुष्पों से की, उनकी दिव्य मूर्ति के सामने विविध प्रकार के रत्न समर्पित किए। तुमने तो पत्ते, फूल और टहनियों से उन्हें ढंक दिया और उन्हें साधारण फल समर्पित किए। इससे तुम्हारा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा?"

इसके बाद राजा अपनी पूजा खत्म कर रथ पर आरूढ़ हो राजमहल को लौट गए। इस घटना के थोड़े दिन बाद महर्षि मौदगल्य के नेतृत्व में यज्ञ प्रारंभ हुए। कांचीपुर अलंकृत किया गया। चारों ओर जनता की भीड़ उमड़ पड़ी, सारे नगर में चहल-पहल थी। मेले जैसे उत्सव का उत्साह उमड़ रहा था। जनता ने भी भगवान की कई तरह से पूजा-अर्चना की। महाराज का यश चारों तरफ फैल गया। लेकिन दरिद्र विष्णुदास अपने सामथ्र्य के मुताबिक भगवान विष्णु के प्रति श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा-अर्चना में लीन रहा। क्षण प्रति-क्षण वह विष्णु का स्मरण करता रहा।

एक दिन विष्णुदास के घर में एक विचित्र बात हुई। रोज की तरह पूजा-अर्चना समाप्त कर विष्णुदास ने भोजन बनाया, भगवान को नैवेद्य चढ़ाने के लिए उसने भोजन समर्पित करना चाहा। लेकिन आश्चर्य की बात यह हुई कि अचानक सभी पदार्थ नदारद हो गए। एक ओर उसके मन को यह चिंता खाए जाए जा रही थी कि वह आज स्वामी को नैवेद्य नहीं चढ़ा पाया, दूसरी ओर यह कि फिर से रसोई बनाकर नैवेद्य चढ़ाया चाहे तो संध्या वंदन के लिए पर्याप्त समय न होगा। इसलिए उस दिन स्वामी के साथ विष्णुदास को भी भोजन नहीं मिला।

दूसरे दिन रसोई बनाकर विष्णुदास पूजा करने के लिए मंदिर में पहुंचा। पूजा-अर्चना समाप्त कर घर लौटा। भोजन करने के पूर्व स्वामी को नैवेद्य चढ़ाना चाहा तो उस दिन भोजन पदार्थ नदारद थे। विष्णुदास की समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसी माया है। तीसरे व चौथे दिन भी इसी प्रकार उसके भोजन-पदार्थ अदृश्य हो गए।

विष्णुदास ने मन में निश्चय कर लिया कि इस बात का पता लगाया चाहिए कि रोजना भोजन पदार्थ कैसे अदृश्य हो रहे हैं। पांचवें दिन रसोई बनाकर विष्णुदास ने पात्रों में रख दिया और अपने कमरे के एक कोने में छिपकर बैठ गया। थोड़ी देर बाद वहां पर एक बहुत बूढ़ा व्यक्ति आया। वह इतना दुर्बल था कि देखने में ऐसा लगता था कि मानों कोई कंकाल ही जान पाकर चल रहा हो। उसकी देह पर चीथड़े लटक रहे थे। 

वह कुछ सहमा व डरा हुआ-सा लग रहा था। इधर-उधर दृष्टि दौड़ाते ताबड़-तोड़ उसने सारे भोजन पदार्थ समेटकर एक गठरी बांध ली। थोड़ा चखकर देखा। एक खंभे के पीछे दुबककर बैठा। विष्णुदास यह सारा दृश्य देख रहा था। उस बूढ़े पर विष्णुदास को दया आ रही थी। विष्णुदास से रहा नहीं गया। उसने बूढ़े से कहा, "महाशय, थोड़ा रुक जाओ। केवल सब्जी-दाल से भोजन पूरा न होगा, मैं अभी घी और दही ला देता हूं। रुक जाओ।" यह कहकर विष्णुदास बूढ़े की ओर बढ़ा। लेकिन विष्णुदास को देखते ही बूढ़ा घबरा गया और भागने लगा। पैर में ठोकर खाकर वह नीचे गिर पड़ा। उसके बदन पर चोट लगी। वह कराहने लगा।

विष्णुदास ने दौड़कर उसको हाथ का सहारा देकर ऊपर उठाया। पानी पिलाकर उसने शाल से बूढ़े के मुंह पर हवा करने लगा। इसके बाद आंखें मूंदकर भगवान से प्रार्थना करने लगा, "हे भगवान! बेचारे इस बूढ़े को स्वस्थ करो। इसे अन्न-जल की कोई कमी न हो, ऐसा वरदान दो।" अपनी प्रार्थना खत्म कर विष्णुदास ने आंखें खोलीं तो देखता है कि उसके समक्ष शंख, चक्र, गदा व खड्गधारी साक्षात श्री महाविष्णु खड़े मंद-मंद मुस्का रहे थे।

विष्णुदास को आश्चर्य हुआ। उसके बाद वह मुग्ध होकर उस अनंत दिव्य रूप को निहारता ही रह गया। उसके आश्चर्य और आनंद की कोई सीमा न रही। उसकी आंखों में आनंद के आंसू झलक उठे। अपने दोनों हाथ जोड़कर विष्णुदास ने विनम्र भाव से परमात्मा की स्तुति की। परमात्मा विष्णुदास की भक्ति पर प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने भक्त को हाथ का सहारा देकर अपने दिव्य विमान में चढ़ाया और अपने साथ दिव्य धाम को ले गए।

चोल राजा को जब यह समाचार मिला तब उनमें ज्ञानोदय हुआ। उन्होंने समझ लिया कि ईश्वर का अनुग्रह पाने के लिए निश्चय ध्यान व समस्त मानव के हृदय में परमात्मा के दर्शन करने की प्रवृत्ति होनी चाहिए। केवल वाह्यआडम्बर और मूल्यवान उपहारों से परमात्मा प्रसन्न नहीं होते। उस दिन से राजा ने निश्छल भाव से पत्रं-पुष्पं से ईश्वर की आराधना शुरू कर दी।

जब महर्षि पराशर ने बताया कलियुग में इस तरह की होंगी स्त्रियाँ

जिज्ञासा प्रश्न को जन्म देती है, प्रश्न उत्तर की अपेक्षा करता है। जिज्ञासु अपनी शंका के निवारण के लिए समाधान के द्वार पर दस्तक देता है। ज्ञानी और शिष्य का संवाद ज्ञान का अक्षय भंडार बनकर भावी पीढ़ियों के लिए सुरक्षित होता है। मैत्रेय और मुनि पराशर के मध्य जीव, जगत और ब्रह्म को लेकर जो संवाद हुआ, वही विष्णु पुराण का संकलित रूप है। मनुष्य संसार मे जन्म लेता है, जीता है और मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसा क्यों होता है। क्या वह अमर नहीं बन सकता? यह प्रश्न अनादिकाल से अनुत्तरित ही रहा। इसका समाधान पाने को मैत्रेय पराशर मुनि से प्रश्न करते हैं। 

पराशर उत्तर देते हैं, "वत्स मैत्रेय, सृष्टि, स्थिति और लय-क्रमश: जन्म, अस्तित्व और मृत्यु के प्रतीक हैं। इनका आवर्तन अवश्यंभावी है। इस त्रिगुणात्मक रहस्य का ज्ञान प्राप्त करने के पूर्व तुम्हें काल-ज्ञान का परिचय पाना होगा।" उन्होंने कहा, ध्यान से सुनो, "मनुष्य के एक निमष यानी पलक मारने का समय एक मात्र है। पंद्रह निमेष एक काष्ठा कहलाता है। तीस काष्ठा एक कला है। पंद्रह कलाएं एक नाडिका है, दो नाडिकाएं एक मुहूर्त, तीस अहोरात्र एक मास होता है। बारह मास एक वर्ष होता है। मानव समाज का एक वर्ष देवताओं का एक अहोरात्र होता है। तीन सौ आठ वर्ष एक दिव्य वर्ष कहलाता है। बारह हजार दिव्य वर्ष एक चतुर्युगी (कृत त्रेता, द्वापर और कलियुग) होता है। एक हजार चतुर्युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन होता है। इसी को कल्प कहते हैं। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प में प्रलय होता है। इसको नैमित्तांतक प्रलय कहते हैं। प्रलय तीन प्रकार के होते हैं : नैमित्तिक, प्राकृतिक और आत्यंतिक। इन प्रलयों का वृत्तांत मैं आगे सुनाऊंगा।' "

मैत्रेय ने पूछा, "गुरुदेव, आपने कहा था कि सतयुग में ब्रह्मा सृष्टि रचते हैं और कलियुग में संहार करते हैं। मैं सर्वप्रथम कलियुग का वृत्तांत सुनना चाहता हूं, इसके स्वरूप का विवेचन कीजिए।"

मुनि पराशर थोड़ी देर के लिए विचारमग्न हुए, फिर बोले, "मैत्रेय, कलियुग में वर्णाश्रम धर्मो का याने ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास का पालन न होगा। विधिपूर्वक धर्मबद्ध विवाह न होगे। गुरु और शिष्य का समबंध टूट जाएगा। दाम्पत्य जीवन में दरारें पड़ेंगी। पति-पत्नी के बीच कलह होंगे। यज्ञ-कर्म लुप्त हो जाएंगे। बलवान लोग निर्बलों पर अधिकार करेंगे। अत्याचार और अन्यायों का बोलबाला होगा। धनी वर्ग सभी जातियों वाली कन्याओं से विवाह करेंगे। अपने पापों को धोने के लिए गुरु से दीक्षा लेंगे और प्रायश्चित करवा लेंगे। छद्म वेषधारी गुरुओं के मुंह से जो शब्द निकलेंगे, वे ही शास्त्र माने जाएंगे। क्षुद्र देवताओं की पूजा होगी। आश्रमों के द्वार सब लोगें के लिए खुले रहेंगे। उपवास, तीर्थ-यात्रा, दान-पुण्य, पुराण-पाठ उत्तम धर्म के लक्षण माने जाएंगे।" 

यह कहकर पराशर मुनि पल भर मौन रहे, फिर बोले, "और सुनो, कलियुग की अनंत महिमा। स्त्रियां अपने केश-विन्यास पर अभिमान करेंगी। विविध प्रकार के प्रसाधनों से अपने को अलंकृत करेंगी। रत्न, मणि, मानिक, स्वर्ण और चांदी के बिना अपने बालों को संवारेंगी। दरिद्र पति को त्याग देंगी। अधिक-से-अधिक धन देनेवाले पुरुष को वे अपना पति मानेंगी। वही उनका स्वामी होगा। कुलीनता पर नारी-पुरुष का संबंध नहीं जुड़ेगा। स्त्रियों में स्वेच्छाचारिता बढ़ जाएगी। वे सुंदर पुरुष की कामना करेंगी। भोग-विलास को अपने जीवन का लक्ष्य मानेंगी।"

अब पुरुषों का वृत्तांत सुनो, "पुरुष थोड़ा-सा धन पर अभिमान करेगा। धन जोड़ने की प्रवृत्ति पुरुष वर्ग में बढ़ जाएगी। वे अपना धन सुख भोगने में पानी की तरह बहाएंगे। गृह-निर्माण में सारा धन खर्च करेंगे। अन्यायपूर्वक धन कमाने की चेष्टा करेंगे। उत्तम कार्यो में धन खर्च करने से विमुख होंगे। स्वार्थ की वृत्ति बढ़ेगी और परोपकार की भावना लुप्त हो जाएगी! संक्षेप में समझाना हो तो यही कहना चाहूंगा कि पैसे में परमात्मा के दर्शन करेंगे।"

पराशर के अनुसार, सामाजिक दशा बद से बदतर होती जाएगी। जाति-पांति के भेद-भाव मिट जाएंगे। शूद्र अपने को ब्राह्मण वर्ग के बराबर मानेंगे। दूध देनेवाली गायों का ही संरक्षण होगा। धन-धान्य की स्थिति क्या बताई जाए। समय पर वर्षा न होगी। सर्वत्र अकाल का तांडव होगा। सूखा पड़ने से लोग भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाएंगे। कंद, मूल और फलों से पेट भरने का प्रयास करेंगे। जनता दुख, दरिद्रता और रोगों का शिकार होगी। पौष्टिक आहार के अभाव में लोग अल्पायु में ही बूढ़े हो जाएंगे। पिंडदान न होगा, स्त्रियां अपने पति और बुजुर्गो के आदेशों का पालन नहीं करेंगी। रीति-रिवाज मिट जाएंगे। स्त्रियां झूठ बोलेंगी। दुराचारिणियां होंगी। ब्रह्मचारी यम-नियम का पालन नहीं करेंगी। वानप्रस्थी नगर का भोजन पसंद करेंगे। साधु-संन्यासी अपने स्नेहीजनों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार करेंगे।"

ऐसी स्थिति में राजा-प्रजा की बात क्या होगी, सुन लो, "कलियुग की अपार महिमा यह है कि राजा कर वसूली के बहाने प्रजा को लूटेंगे। मुसीबत में फंसी प्रजा की रक्षा नहीं करेंगे। गुंडे और चरित्रहीन लोगों का राज्य होगा। जो अपने पास ज्यादा रथ, हाथी और घोड़े रखता है, वही राजा माना जाएगा। विद्वान पुरुष और सज्जन धनहीन होने के कारण सेवक माने जाएंगे। वणिक वर्ग कृषि और वाणिज्य त्याग यकर शिल्पकारी होंगे। वे भी शूद्र वृत्ति से अपना भरण-पोषण करेंगे। पाखंडी लोग साधु-संन्यासी के वेष में भिक्षाटन करेंगे। वे समाज द्वारा सम्मानित होकर सर्वत्र पाखंड फैलाएंगे। राजा के द्वारा कर बढ़ाया जाएगा। कर-भार और अकाल से पीड़ित होकर लोग ऐसे देशों की शरण लेंगे जहां गेहूं और ज्वार ज्यादा पैदा होता है।"

"वत्स! अब तम्हें कलियुगीन धर्म की बात सुनाता हूं, "वैदिक धर्म नष्ट हो जाएगा। पाखंड का साम्राज्य फैलेगा। शास्त्र विरुद्ध तप और राजा के कुशासन से अधिक संख्या में शिशुओं की मृत्यु होगी। प्रजा की आयु घट जाएगी। सात-आठ वर्ष की बालिका और दस-बारह वर्ष आयु के बालक की संतान होगी। बारह वर्ष की उम्र में बाल पकने लग जाएंगे। पूर्णायु बीस वर्ष की होगी। प्रजा की बुद्धि मंद पड़ जाएगी। दृष्टि दोष होगा।"

"गरुदेव, आपने कलियुग के लक्षण बताए, पर कलियुग के आगमन की पहचान कैसे हो? इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।" मैत्रेय ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

मुनि पराशर ने मंदहास करके कहा, "संसार में धर्म के लुप्त होने के साथ ही सर्वत्र युद्ध, हिंसा, अत्याचार, दुराचार, पाखंड आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएंगे। इन लक्षणों को देख बुद्धिमान लोग समझ जाएंगे कि अब कलियुग अपने परे उत्कर्ष पर है। हां, उस हालत में पाखंडी लोग यह प्रश्न जरूर करेंगे कि देवताओं की पूजा और वेदाध्ययन से लाभ ही क्या है। सुनो, कलियुग के उत्तरार्ध में प्रकृति और मानव चरित्र में कैसे-कैसे परिवर्तन लक्षित होते हैं।"

"वर्षा कम होगी। अनाज कम होगा। फलों का रस फीका पड़ जाएगा। लोग सन के कपड़े पहनेंगे। चातुर्वर्णी लोग शूद्रों जैसा आचरण करेंगे। अनाज के दाने छोटे होंगे। गायों के दूध के स्थान पर बकरियोंके दूध का प्रचलन होगा।"

"वत्स! कलियुग का महत्व कहां तक कहा जाए। परिवार में माता-पिता, भाई-बंधु, गुरुजनों के स्थान पर सास-सुसर, पत्नी और साले का प्रभुत्व होगा। स्वाध्याय समाप्त होगा। धर्म टिमटिमाते दीप के समान अल्प मात्रा में रह जाएगा। एक रहस्यपूर्ण बात सुन लो-इन सारी विकृतियों के बावजूद कलियुग की अपनी विशेष महिमा है। कृत युग में जहां जप, तप, व्रत, उपवास, तीर्थाटन, दान-पुण्य, सदाचरण और सत्यकर्मो से जो पुण्य प्राप्त होता था, वह कलियुग में थोड़े से प्रयत्न से ही संभव होगा।"

मैत्रेय ने विस्मय में आकर पूछा, "सो कैसे? कलियुग तो समस्त दुष्कृत्यों से भरा हुआ है।" महर्षि परासर मंदहास करके बोले, "सुनो, तपस्वियों में एक बार चर्चा चली। अल्प पुण्य के संपादन से महान फल की प्राप्ति कब होती है? और उसका कारक कौन होता है?" परस्पर विचार-विनिमय के उपरांत भी वे किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाए। अंत में यह निर्णय हुआ कि महर्षि व्यास से इस प्रश्न का समाधान प्राप्त करें। जब वे महर्षि के समीप पहुंचे तब व्यासजी गंगाजी में स्नान कर रहे थे। सभी मुनि गंगा के किनारे खड़े रहे। व्यासजी ने गंगाजल में एक बार गोता लगाया, जल से ऊपर उठते हुए बोले, "कलियुग श्रेष्ठ है।" फिर दूसरा गोता लगाया, कहा, "हे शूद्र, तुम्हीं श्रेष्ठ हो।" तीसरी बार डुबकी लगाकर बोले, "स्त्रियां धन्य हैं! साधु। साधु।"

मुनि आश्चर्यचकित हो देखते रह गए। व्यासजी नहा-धोकर किनारे आए, तब मुनियों के आगमन का कारण पूछा, मुनियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम करके कहा, "महर्षि। वैसे हम लोग आपसे एक शंका का समाधान करने आए, परंतु इस समय हम आपके इस कथन का आशय जानने को उत्सुक हैं। स्नान करते समय गोते लगाते हुए आपने कलियुग, शूद्र और स्त्रियों को श्रेष्ठ बताया। यह कैसे संभव है?"

व्यासजी ने गंभीर होकर कहा, "कृत युग में दस वर्ष तक जप, तप उपवास आदि करने पर जो फल मिल सकता है वह त्रेतायुग में एक ही वर्ष में प्राप्त होता है। द्वापर युग में एक महीने में और कलियुग में एक ही दिन में प्राप्त होगा। कृतयुग में ध्यान योग से जो पुण्य हो सकता है, वहीं कलियुग में केवल श्रीकृष्ण-विष्णु का नाम-स्मरण मात्र से प्राप्त होता है। इसलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया। द्विजवर्ग धर्म च्युत होकर अनर्गल वार्तालाप, अनायास भोजन पाकर पतन के मार्ग पर होंगे। उन्हें संयम का पालन करना होगा। अन्न उपजानेवाला वर्ग द्विजों की सेवा करके यानी थोड़े परिश्रम से पुण्य-संपादन करके मोक्ष के अधिकारी हो जाते हैं। इसलिए मैंने शूद्र को श्रेष्ठ कहा।"

"स्त्रियां तो कलियुग में पति की सेवा करके परलोक को प्राप्त कर सकती हैं। इस कारण से मैंने स्त्रियों को श्रेष्ठ और साधु! साधु! कहा। मैं समझता हूं कि अब आप लोगों की शंका का समाधान हो गया होता ।" ये शब्द कहकर महर्षि अपनी कुटी की ओर चल पड़े। मुनि वृंद महर्षि व्यासजी के दर्शन और उनकी वाणी से प्रसन्न हुए। उनकी पूजा करके अपने-अपने निवास को लौट गए।

तो इसलिए काले होते हैं कौवे

मानव सामाजिक प्राणी है और काँव-काँव बोलनेवाला कौवा मानव के सामाजिक जीवन में विशेष स्थान रखता है। कौवों के बारे में कहा जाता है कि जब कभी घर की छत पर वह बोलता है, तो मेहमान आने वाले होते हैं| लेकिन कौवों के बारे में सबसे रोचक जानकारी जो शायद आपको न पता हो वह यह कि कौवों का रंग काला क्यों होता है? क्या आपको पता है यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि कौवों का रंग काला क्यों होता है| 

कौवे के रंग के बारे में एक पुरानी किवदंती है। एक ऋषि ने कौए को अमृत खोजने भेजा, लेकिन उन्होंने यह इतला भी दी कि सिर्फ अमृत की जानकारी ही लेना है, उसे पीना नहीं है। एक वर्ष के परिश्रम के पश्चात सफेद कौए को अमृत की जानकारी मिली, पीने की लालसा कौआ रोक नहीं पाया एवं अमृत पी लिया। ऋषि को आकर सारी जानकारी दी।

इस पर ऋषि आवेश में आ गए और श्राप दिया कि तुमने मेरे वचन को भंग कर अपवित्र चोंच द्वारा पवित्र अमृत को भ्रष्ट किया है। इसलिए प्राणी मात्र में तुम्हें घृणास्पद पक्षी माना जाएगा एवं अशुभ पक्षी की तरह मानव जाति हमेशा तुम्हारी निंदा करेगी, लेकिन तुमने अमृत पान किया है, इसलिए तुम्हारी स्वाभाविक मृत्यु कभी नहीं होगी। कोई बीमारी भी नहीं होगी एवं वृद्धावस्था भी नहीं आएगी। 

भादौ महीने के सोलह दिन तुम्हें पितरों का प्रतीक समझ कर आदर दिया जाएगा एवं तुम्हारी मृत्यु आकस्मिक रूप से ही होगी। इतना बोलकर ऋषि ने अपने कमंडल के काले पानी में उसे डूबो दिया। काले रंग का बनकर कौआ उड़ गया तभी से कौए काले हो गए।

दुर्लभ संयोग: नवरात्रि पर मां के साथ बरसेगी हनुमानजी की कृपा!


हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 16 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी| इस दिन स्वाती नक्षत्र, विष्कुम्भ योग होगा| प्रतिपदा तिथि के दिन शारदिय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार 34 साल बाद नवरात्रों पर अद्भुत संयोग बन रहा है। इसके बाद यह संयोग 27 साल बाद ही बनेगा। इसलिए इस शारदीय नवरात्र में खुशियां ही खुशियां होगी। इस बार शारदीय नवरात्र मंगलवार को शुरू होकर मंगलवार को ही पूरे होंगे। यह संयोग 34 वर्ष पूर्व तीन अक्टूबर 1978 में बना था। भविष्य में 27 साल बाद 18 अक्टूबर 2039 में यह संयोग बनेगा। हालांकि इस बार 9 की जगह 8 दिन ही मां भगवती की आराधना होगी। मंगलवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी। 23 अक्टूबर मंगलवार को नवरात्र पूर्ण हो जाएंगे। 

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं। 

नव दुर्गा- 

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है। 

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

इस तरह से किरात बन गए वाल्मीकि

ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में प्रचेतस भी एक हैं। एक बार समस्त लोकों का संचार करते हुए सुरपुरी अमरावती की शोभा को निहारते हुए उन्होंने इंद्र सभा में प्रवेश किया। इंद्र ने दिक्पालकों के समेत आगे बढ़कर आदरपूर्वक प्रचेतस का स्वागत किया, 'अघ्र्य' पाद्य आदि से उनका उपचार किया। उनको प्रसन्न करने के लिए रंभा, ऊर्वशी, मेनका इत्यादि अप्सराओं के नृत्य-गान का प्रबंध किया। 

उन अनुपम सुंदरियों को देखते ही युवा प्रचेतस के मन में काम-वासना उद्दीप्त हुई, परिणामस्वरूप उनके वीर्य का स्खलन हुआ। वीर्य नीचे गिरते ही तत्काल एक बालक के रूप में प्रत्यक्ष हुआ। देव सभा के सदस्य इस अद्भुत दृश्य को विस्फारित नयनों से देखते ही रह गए। उसी समय बालक ने प्रचेतस को प्रणाम करके निवेदन किया, "पिताजी, मेरा उद्भव आपके वीर्य के पतन से हुआ है। इस कारण से मेरे पालन-पोषण का दायित्व आप ही का बनता है।"

बालक के वचन सुनकर इंद्रसभा के सभापद परस्पर कानाफूसी करने लगे। देव सभा में बालक द्वारा अपने रहस्य के प्रकट हुए देख प्रचेतस क्रोध में आ गए और उन्होंने कठोर स्वर में बालक को शाप दिया, "किरात बनकर क्रूर कृत्य करते हुए जीवनयापन करोगे। मेरी आंखों के सामने से हट जाओ। मैं तुम्हारा चेहरा तक देखना नहीं चाहता।"

बालक रुदन करते हुए प्रचेतस के चरणों पर गिरकर करुण स्वर में बोला, "पिताश्री, मेरा जन्म सार्थक है, मैं ऐसा ही मानता हूं। परंतु जन्म-धारण के साथ-ही-साथ अपने ही पिता के द्वारा शापित होना मैं अपना दुर्भाग्य ही समझूंगा। धर्मशास्त्र घोषित करते हैं कि शिष्य के अपराध गुरु और पुत्र के अपराध पिता क्षमा कर देते हैं। आप मेरे इस अपराध को क्षमा करके मुझे इस शाप से मुक्त होने का वरदान दीजिए।"

बालक का आक्रंदन सुनकर देवताओं के हृदय द्रवित हुए। सबने समवेत स्वर में उसे शापमुक्त करने का प्रचेतस से अनुरोध किया। इस पर प्रचेतस का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कहा, "पुत्र! तुम चिंता न करो। थोड़े दिन तक तुम किरातकर रहकर उसी पेशे में अपना जीवनयापन करोगे। इसके उपरांत तुम्हें कुछ महापुरुषों के अनुग्रह से एक दिव्य मंत्र प्राप्त होगा। उसी मंत्र के बल पर तुम अपनी आखेट-वृत्ति त्यागकर ब्रह्मर्षि बनोगे और तुम्हें शाश्वत यश प्राप्त होगा।"

प्रचेतस का आशीर्वाद पाकर बालक भूलोक में पहुंचा। किरातों की बस्ती में निवास करते हुए आखेट के द्वारा अपना पेट पालने लगा। कालक्रम में उसके कई बच्चे हुए। आखेट-वृत्ति के द्वारा परिवार को पालना जब सम्भव न हुआ तब उसने उस वन से गुजरनेवाले यात्रियों को लूटना आरम्भ किया।

कालचक्र के परिभ्रमण में अनेक वर्ष गुजर गए। एक बार सप्तर्षि तीर्थाटन के लिए निकले। किरात ने हुंकार करके उनका रास्ता रोका। उनको लूटने के लिए अनेक प्रकार से उन्हें यातनाएं देने लगा। ऋषियों ने समझाया, "बेटे, हम तो संन्यासी ठहरे। हम तो मूल्यवान वस्तुएं अपने पास नहीं रखते। दरअसल, हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है, हम सर्वसंग मरित्यागी हैं। हमें अपने रास्ते जाने दो। यह जीवन तो शाश्वत नहीं है। तुम अपना पेट पालने के लिए ऐसे पाप-कृत्य क्यों करते हो?"

महर्षियों के मुंह से हित वचन सुनकर किरात की हिंसा वृत्ति शांत हो गई। उसने विनीत स्वर में उत्तर दिया, "महानुभाव, मैं यह पाप केवल अपना पेट पालने के लिए नहीं कर रहा, अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के लिए मुझे ये कर्म करने पड़ रहे हैं।"

किरात के भोलेपन पर महर्षियों को हंसी आई। उसको अबोध मानकर ऋषियों ने समझाया, "तुम गृहस्थ हो और परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यह बात सही है, लेकिन तुम जो कुछ ले जाकर उन्हें दोगे, वही वे लोग खाएंगे, परंतु यह मत भूलो कि तुम्हारी कमाई के वे लोग अवश्य भागीदार होते हैं, तुम्हारे इन पाप-कृत्यों के नहीं।" 

किरात का हृदय दहल उठा। उसने सप्तर्षियों को उसके लौटने तक वहीं प्रतीक्षा करने की प्रार्थना की और लंबे डग भरते अपनी झोंपड़ी को लौट आया। खाली हाथ लौटे किरात को देख उसके परिवार वाले अचंभित थे। किरात ने गम्भीर स्वर में पूछा, "तुम लोग मेरी कमाई पर बंसी की चैन लेते हो। आराम से घर बैठे नाच-गान करते हो। लेकिन तुम लोग नहीं जानते कि मैं कैसे अत्याचार और अन्याय करके तुम लोगों का पेट पालता हूं, जिससे मैं पाप का भागीदार बनता हूं। अब बताओ, मेरे किए-कराए इस पाप में तुम लोग भी अपना हिस्सा बांटने को तैयार हो या नहीं?"

किरात की पत्नी और उसके बच्चों ने एक स्वर में बताया, "अरे! तुम भी कैसी ये अनर्गल बातें करते हो। पत्नी और बच्चों का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम हमारे प्रति कौन-सा बड़ा उपकार करते हो। यही बात थी तो तुमने शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? कोई सुने तो हंसे। जाओ, जल्दी हमारे खाने के लिए कुछ लेते आओ।"

पत्नी और बच्चों की बातें सुनकर किरात का दिल दहल गया। तत्काल वह सप्तर्षियों के पास लौटा, उनके चरणों पर गिरकर विनती करने लगा, "महानुभावों, आज मेरे भाग्यवश आप लोगों के दर्शन हुए। मेरा जीवन धन्य हो गया। आप लोग मुझ पर अनुग्रह करके इस पापपूर्ण पंक से मेरा उद्धार कीजिए।" किरात को अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते देख सप्तर्षि प्रसन्न हुए और उसको 'श्रीराम' मंत्र जपने का उपदेश दिया।

किरात के मन में विवेक जागृत हुआ। वह अपने परिवार को त्यागकर कंद-मूल और फलों का सेवन करते हुए, पवित्र नदियों में स्नान करते हुए श्रीराम तारक मंत्र का जाप करने लगा। अन्न-जल का उसे स्मरण तक न रहा। शन:-शनै: उसके चारों ओर वल्मीक बनता गया। उस पर पौधे उग आए। पेड़ बने, सरीसृप आदि जानवरों ने उस वल्मीकि पर अपना आश्रय बनाया, परंतु किरात को इस बात का भान तक न हुआ। वह तपस्या में निमग्न हो गया था।

अनेक वर्ष तीर्थाटन करके जब सप्तर्षि उसी वन से होकर अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे, तब उन्हें उस किरात का स्मरण हो आया। उन्होंने किरात का पता लगाया। "सप्तर्षियों! जिस किरात को आप लोग ढूंढ़ रहे हैं, वह एक तपस्वी बनकर आप लोगों के सामने दर्शित होने वाले वल्मीकि में है। वह इस समय ध्यानमग्न हैं।"

यह समाचार पाकर सप्तर्षि अमित आनंदित हुए और उन लोगों ने संपूर्ण हृदय से उस तपस्वी को आशीर्वाद दिया। "वल्मीकि के भीतर तपस्या में मग्न पुण्यात्मा वाल्मीकि महर्षि के नाम से विख्यात होंगे। श्रीमहाविष्णु स्वयं श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष हो इन्हें दर्शन देंगे और अपना चरित लिखने का आदेश देंगे। ये ऋषि कुल तिलक बनकर जगत के कल्याण का सूत्रधार बनेंगे।" इस प्रकार आशीर्वाद देकर सप्तर्षि अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। वही तपस्वी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रख्यात हुए और 'रामायण' की रचना करके आदिकवि कहलाए।