बरतें चन्द सावधानियां और खुशी से मनाएं दीपों का त्यौहार

दीपावली का त्योहार हो और पटाखे छोड़कर खुशी न मनार्इ जाए ऐसा संभव नहीं है। मगर चिंतन का विषय यह है कि खुशियों में दागे जाने वाले पटाखों से फैलने वाला ध्वनि एवं वायु प्रदूषण ग्लोबल वार्मिंग में इजाफा कर रहा है इसलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि दीपावली की खुशियां भी बरकरार रहे और प्रदूषण कम से कम फैले। दीपावली हर घर में खुशियों का संदेशा लेकर आती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार देश में हर त्योहार का अलग-अलग महत्व है। रोशनी का त्योहार कहे जाने वाले इस पर्व को समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े हर्षोल्लास से मनाना चाहता है।

खासकर बच्चों और युवाओं में पटाखे फोड़ने की ललक रहती है। दीपावली पर हर साल करोडों रुपये की आतिशबाजी फूंकने के बाद पर्यावरण को प्रदूषण के सिवा कुछ नहीं मिलता है। बदलते युग में समाज में तौर-तरीकों पर काफी परिवर्तन आया है। हम अपनी खुशियों के खातिर दूसरों को परेशानियों में डाल देते हैं। हर साल करोड़ों रुपये की आतिशबाजी से ध्वनि प्रदूषण तो होता ही है इसके साथ ही साथ वायु प्रदूषण भी फैलता है।

आतिशबाजी से निकलने वाली गूंज और ध्वनि से स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है। इस तरह से प्रदूषण के एकाएक बढ़ जाने से समाज के सभी लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। हम सभी अपनी खुशियों की खातिर समाज को एक जटिल मुशिकल में डाल रहे हैं। धरातल पर कम प्लाटेंशन भी इसकी मुख्य वजह माना जा सकता है। पटाखों से निकलने वाला धुआं शरीर के लिए काफी हानिकारक होता है। सांस रोगियों और दिल के रोगियों को पटाखों से परहेज करना चाहिए। अगर किसी को भी परेशानी हो तो तुरंत ही ड‚क्टर से संपर्क करना चाहिए।

पटाखे फोड़ने पर होने वाले नुकसान : –

• सांस रोगियों को सांस लेने मे परेशानी • वातावरण में प्रदूषण की मात्रा अधिक होने से स्वच्छ हवा न मिल पाना • जहरीली गैसों से श्वांस रोगों का बढ़ता खतरा • श्रवण शक्ति पर पड़ता हैं काफी असर

पटाखे दगाते समय क्या बरतें सावधानी : –

• पटाखे दगाते समय ढीले ढाले वस्त्र पहने • कसे व सिकन टाइट वस्त्र न पहने • तेज आवाज के पटाखों का प्रयोग न करें • खुले मैदान पर पटाखों का प्रयोग करना चाहिए • तेज रोशनी वाले पटाखों का प्रयोग न करें • जहरीली गैसों के पटाखों से परहेज करें • लोकल पटाखों का प्रयोग न करें • बच्चों को अपने निर्देशन मे ही पटाखे फोड़ने दे

इन चन्द बातों का ध्यान रखकर आप अपनी दीपावली बहुत ही श्रद्धा, उल्लास व खुशी से शांति पूर्वक मना सकते हैं। आप सबकी दीपावली मंगलमय हो, भगवान गणेश, माता लक्ष्मी व कुबेर जी की कृपा सभी पर सदैव बनी रहे।

ये है कुतिया महारानी मां का मंदिर, जहाँ श्रद्धालु मांगते हैं सुख-समृद्धि व परिवार खुशहाली की मन्नतें

अपने देश में कई मंदिर है जहां भक्त बडी आस्था के साथ जाते हैं और अपना सर झुका कर भगवान् का आशीर्वाद लेते है। लेकिन आप ने कभी ऎसा मंदिर देखा है जहां भगवान की मूर्ति नही होती है इस मंदिर में कुतिया की पूजा होती है। बुंदेलखंड क्षेत्र के झांसी जनपद में स्थित रेवन व ककवारा गांवों के बीच लिंक रोड पर कुतिया महारानी मां का एक मंदिर है, जिसमें काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है। आस्था के केंद्र इस मंदिर में लोग प्रतिदिन पूजा करते हैं। श्रद्धालु यहां सुख-समृद्धि व परिवार एवं फसलों की खुशहाली की मन्नतें मांगते हैं। झांसी के मऊरानीपुर के गांव रेवन व ककवारा के बीच लगभग तीन किलोमीटर का फासला है। इन दोनों गांवों को आपस में जोड़ने वाले लिंक रोड के बीच सड़क किनारे एक चबूतरा बना है। इस चबूतरे पर एक छोटा सा मंदिर नुमा मठ बना हुआ है। इस मंदिर में काली कुतिया की मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के बाहर लोहे की जालियां लगाई गई हैं, ताकि कोई इस मूर्ति को नुकसान न पहुंचा सके।

इस मंदिर पर आसपास के गांवों की महिलाएं प्रतिदिन जल चढ़ाने आती हैं और यहां पूजा-अर्चना कर अपने परिवार की खुशहाली का आशीर्वाद मांगती हैं। वैसे तो आबादी से दूर यह छोटा सा मंदिर सुनसान सड़क पर बना है, मगर यहां के लोगों की कुतिया महारानी के प्रति अपार श्रद्धा है। ग्रामीणों के मुताबिक, कुतिया का यह मंदिर उनकी आस्था का केंद्र है। बताया जाता है कि दोनों गांवों में जब भी किसी भी आयोजन में होने वाला खाना यानी पंगत होती थी, तो यह कुतिया वहां पहुंचकर पंगत खाती थी। पुराने समय में पंगत शुरू होने से पहले बुंदेलखंडी लोक संगीत का एक वाद्य यंत्र रमतूला बजाया जाता था। उसकी आवाज सुनकर उस आयोजन में आमंत्रित सभी लोग पंगत खाने पहुंच जाते थे।

एक बार ककवारा व रेवन दोनों गांवों में कार्यक्रम था। दोनों जगह पंगत होनी थी। कुतिया को भी दोनों जगह जाना था। मगर वह उस दिन कुछ बीमार थी। ककवारा का रमतूला जैसे ही बजा, वह ककवारा की ओर दौड़ने लगी। जब तक वह ककवारा पहुंची, वहां पंगत खत्म हो चुकी थी। वह थक कर चूर हो गई। उसने सोचा कुछ आराम कर लूं। वह वहीं लेट गई। इसी दौरान रेवन गांव का रमतूला बजने लगा। कुतिया ने सोचा कि यदि देर हो गई तो रेवन की पंगत भी नहीं मिलेगी और उसे भूखा ही रहना पड़ेगा। यह सोचकर वह रेवन की ओर दौड़ गई। जब तक वह रेवन पहुंची, वहां की भी पंगत खत्म हो गई।

दोनों ओर से खाना न मिलने और बीमारी की वजह से वह हताश होकर वापस चल पड़ी और रेवन व ककवारा के बीच एक स्थान पर सड़क किनारे गिरकर बेहोश हो गई और कुछ देर बाद उसकी मौत हो गई। सुबह जब गांव वालों को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने कुतिया के शव को वहीं पर दफना दिया और उसी स्थान पर इस मंदिर का निर्माण करा दिया। तब से यह कुतिया महारानी मां के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है।

आपको बता दें कि एक ऐसा ही मंदिर छत्तीसगढ़ में है जहाँ एक कुत्ते की पूजा होती है| छत्तीसगढ़ के राजनंद गांव के एक मंदिर में एक कुत्ते की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर से जुड़ी यह मान्यता है कि इसके प्रदक्षिणा से कुकुर खांसी व कुत्ते के काटने से कोई रोग नहीं होता। ‘कुकुरदेव मंदिर’ राजनंदगांव के बालोद से छह किलोमीटर दूर मालीघोरी खपरी गांव में है। दरअसल यह मंदिर भैरव स्मारक है, जो भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है। मंदिर के शिखर के चारों ओर दीवार पर नागों का अंकन किया गया है। इस मंदिर का निर्माण हालांकि फणी नागवंशी शासकों द्वारा 14वीं-15 वीं शताब्दी में कराया गया था। इस मंदिर के प्रांगण में स्पष्ट लिपियुक्त शिलालेख भी है, जिस पर बंजारों की बस्ती, चांद-सूरज और तारों की आकृति बनी हुई है। राम लक्ष्मण और शत्रुघ्न की प्रतिमा भी रखी गई है। मंदिर के प्रांगण में कुत्ते की प्रतिमा भी स्थापित है।

जनश्रुति के अनुसार, कभी यहां बंजारों की बस्ती थी। मालीघोरी नाम के बंजारे के पास एक पालतू कुत्ता था। अकाल पड़ने के कारण बंजारे को अपने प्रिय कुत्ते को मालगुजार के पास गिरवी रखना पड़ा। इसी बीच, मालगुजार के घर चोरी हो गई। कुत्ते ने चोरों को मालगुजार के घर से चोरी का माल समीप के तालाब में छुपाते देख लिया था। सुबह कुत्ता मालगुजार को चोरी का सामान छुपाए स्थान पर ले गया और मालगुजार को चोरी का सामान भी मिल गया। कुत्ते की वफादारी से अवगत होते ही उसने सारा विवरण एक कागज में लिखकर उसके गले में बांध दिया और असली मालिक के पास जाने के लिए उसे मुक्त कर दिया। अपने कुत्ते को मालगुजार के घर से लौटकर आया देखकर बंजारे ने डंडे से पीट-पीटकर कुत्ते को मार डाला। कुत्ते के मरने के बाद उसके गले में बंधे पत्र को देखकर उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और बंजारे ने अपने प्रिय स्वामी भक्त कुत्ते की याद में मंदिर प्रांगण में ही कुकुर समाधि बनवा दी। बाद में किसी ने कुत्ते की मूर्ति भी स्थापित कर दी। आज भी यह स्थान कुकुरदेव मंदिर के नाम से विख्यात है।

इस मंदिर में वैसे लोग भी आते हैं, जिन्हें कुत्ते ने काट लिया हो। यहां हालांकि किसी का इलाज तो नहीं होता, लेकिन ऐसा विश्वास है कि यहां आने से वह व्यक्ति ठीक हो जाता है। ‘कुकुरदेव मंदिर’ का बोर्ड देखकर कौतूहलवश भी लोग यहां आते हैं। उचित रखरखाव के अभाव में यह मंदिर हालांकि जर्जर होता जा रहा है। 

…यहीं गिरा था देवी सती का कंगन


हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

रायपुर जिला मुख्यालय के सिर पर मुकुट के समान खड़ा पहाड़। उसके नीचे बैठी शक्तिपीठ कंकालीन देवी रियासत काल से ही लोगों के बीच आस्था का केंद्र है। पौराणिक कथा के अनुसार इन्हीं देवी के नाम पर कांकेर का नामकरण हुआ। 52 पीठों में से एक कंकालीन पीठ के बारे में मान्यता है कि यहां पर सती का कंगन गिरा था। कंगन का अपभ्रंश कंकर हुआ और कंकर से ही इस नगर (प्राचीन में गांव) का नाम कांकेर पड़ा। सोमवंश के पतन के बाद चौदहवीं सदी में कंड्रा वंश के शासन काल में पद्मदेव के कार्यकाल में यहां मंदिर की स्थापना की गई।

ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर में पहले महिलाएं प्रवेश करते ही बेहोश हो जाती थीं या कुछ ना कुछ अनहोनी हो जाती थी। इस कारण यहां महिलाओं का प्रवेश वर्जित था। 1990-91 में माता की विशेष पूजा-अर्चना की गई और उनसे विनती की गई। इसके बाद महिलाओं का प्रवेश कराया गया। मंदिर परिसर में चट्टान पर लिखित लिपि रहस्यपूर्ण है। ऐसी मान्यता है कि जो इस लिपि को पढ़ लेगा, उसे खजाने की प्राप्ति होगी। इस लिपि को आज तक किसी के पढ़े जाने का प्रमाण नहीं है। इस लिपि में 84 लाख जीव-जंतुओं के भोजन के खर्च का ब्यौरा लिखा जाना बताया जाता है।

आज ही के दिन इस दुनिया से विदा हुए थे 'शोले' के ठाकुर

भारतीय सिनेमा जगत में संजीव कुमार को एक ऐसे बहुआयामी कलाकार के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने नायक, सहनायक, खलनायक और चरित्र भूमिकाओं से दर्शकों के दिलों में जगह बनाई। उनके अभिनय की यह विशेषता रही कि वह किसी भी तरह की भूमिका में खुद को ढाल लेते थे। फिल्म ‘कोशिश’ में एक गूंगे की भूमिका हो या ‘शोले’ में ठाकुर की भूमिका। ‘सीता और गीता’ में लवर बॉय की भूमिका हो या ‘नया दिन नई रात’ में नौ अलग-अलग भूमिकाएं, सभी में उनका अभिनय लाजवाब रहा। इस फिल्म में संजीव ने लूले-लंगड़े, अंधे, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान और प्रोफेसर के किरदार को निभाकर जीवन के नौ रसों को रुपहले पर्दे पर साकार किया।

मुंबई में 9 जुलाई, 1938 को एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में जन्मे संजीव कुमार का असली नाम हरिभाई जरीवाला था। बचपन से ही वह फिल्मों में नायक बनने का सपना देखा करते थे। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने फिल्मालय के एक्टिंग स्कूल में दाखिला लिया। वर्ष 1962 में राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म ‘आरती’ के लिए उन्होंने स्क्रीन टेस्ट दिया, जिसमें वह पास नहीं हो सके। संजीव को सर्वप्रथम मुख्य अभिनेता के रूप में 1965 में प्रदर्शित फिल्म ‘निशान’ में काम करने का मौका मिला।

इसी दौरान वर्ष 1960 में उन्हें फिल्मालय बैनर की फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला। वर्ष 1960 से वर्ष 1968 तक संजीव कुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। फिल्म ‘हम हिंदुस्तानी’ के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने ‘स्मगलर’, ‘पति-पत्नी’, ‘हुस्न और इश्क’, ‘बादल’, ‘नौनिहाल’ और ‘गुनाहगार’ जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई।

वर्ष 1968 में प्रदर्शित फिल्म ‘शिकार’ में वह पुलिस ऑफिसर की भूमिका में दिखाई दिए। यह फिल्म पूरी तरह अभिनेता धर्मेद्र पर केंद्रित थी, फिर भी संजीव धर्मेद्र जैसे अभिनेता की मौजूदगी में अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ भी मिला।

वर्ष 1970 में प्रदर्शित फिल्म ‘खिलौना’ की जबर्दस्त कामयाबी के बाद संजीव कुमार ने बतौर अभिनेता अपनी अलग पहचान बनाई। वर्ष 1970 में ही प्रदर्शित फिल्म ‘दस्तक’ में उनके लाजवाब अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के ‘राष्ट्रीय पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। वर्ष 1972 में प्रदर्शित फिल्म ‘कोशिश’ में उनके अभिनय का नया आयाम दर्शकों को देखने को मिला। इस फिल्म में उनके लाजवाब अभिनय के लिए उन्हें दूसरी बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

वर्ष 1975 में प्रदर्शित रमेश सिप्पी की सुपरहिट फिल्म ‘शोले’ में वह अभिनेत्री जया भादुड़ी के ससुर की भूमिका निभाने से भी नहीं हिचके। हालांकि संजीव कुमार ने फिल्म ‘शोले’ के पहले जया भादुड़ी के साथ ‘कोशिश’ और ‘अनामिका’ में नायक की भूमिका निभाई थी। वर्ष 1977 में प्रदर्शित फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उन्हें महान निर्देशक सत्यजित रे के साथ काम करने का मौका मिला।

इसके बाद संजीव कुमार ने मुक्ति (1977), त्रिशूल (1978), पति पत्नी और वो (1978), देवता (1978), जानी दुश्मन (1979), गृहप्रवेश (1979), हम पांच (1980), चेहरे पे चेहरा (1981), दासी (1981), विधाता (1982), नमकीन (1982), अंगूर (1982) और हीरो (1983) जैसी कई सुपरहिट दी और उसके बाद तो वह दर्शकों के दिल पर राज करने लगे। अपने दमदार अभिनय से दर्शकों के दिल में खास पहचान बनाने वाले इस महान कलाकार को 6 नवंबर, 1985 को दिल का गंभीर दौरा पड़ा और उन्होंने दुनिया से विदा ले ली।

महिलाओं को क्यों नहीं करना चाहिए हनुमान जी की पूजा?

कहते हैं भगवान रामभक्त हनुमान की उपासना से जीवन के सारे कष्ट, संकट मिट जाते है। माना जाता है कि हनुमान एक ऐसे देवता है जो थोड़ी-सी प्रार्थना और पूजा से ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते है। इतिहास साक्षी है जब-जब भक्तों पर संकट के बादल मंडराए भगवान ने अपने भक्तो की रक्षा के लिए किसी न किसी रूप में अवतार लेकर उनकी रक्षा की है। हनुमान जी को बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इसलिए हनुमान जी लंगोट धारण किए हर मंदिर और तस्वीरों में अकेले दिखते हैं। कभी भी अन्य देवताओं की तरह हनुमान जी को पत्नी के साथ नहीं देखा होगा। लेकिन अगर आप हनुमान के साथ उनकी पत्नी को देखना चाहते हैं तो आपको आंध्र प्रदेश जाना होगा। हैदराबाद से करीब 220 किलोमीटर दूर तेलंगाना के खम्मन जिले में एक ऐसा मंदिर है जहाँ पवनपुत्र हनुमान अपनी पत्नी सुर्वचला के साथ विराजमान हैं| 

किंवदंती है कि सुवर्चला सूर्य देव की पुत्री हैं। जिनका विवाह पवनपुत्र हनुमानजी के साथ हुआ था। मान्यता है कि जो भी हनुमानजी और उनकी पत्नी के दर्शन करता है, उन भक्तों के वैवाहिक जीवन की सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं और पति-पत्नी के बीच प्रेम बना रहता है। पाराशर संहिता के अनुसार हनुमानजी अविवाहित नहीं, विवाहित हैं। हनुमानजी ने सूर्य देव को अपना गुरु बनाया था। सूर्य देव के पास 9 दिव्य विद्याएं थीं। इन सभी विद्याओं का ज्ञान बजरंग बली प्राप्त करना चाहते थे। सूर्य देव ने इन 9 में से 5 विद्याओं का ज्ञान तो हनुमानजी को दे दिया, लेकिन शेष 4 विद्याओं के लिए सूर्य के समक्ष एक संकट खड़ा हो गया। शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान सिर्फ उन्हीं शिष्यों को दिया जा सकता था जो विवाहित हों।

हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी थे, इस कारण सूर्य देव उन्हें शेष चार विद्याओं का ज्ञान देने में असमर्थ हो गए। समस्या के निराकरण के लिए सूर्य देव ने हनुमानजी से विवाह करने की बात कही। पहले तो हनुमानजी विवाह के लिए राजी नहीं हुए, लेकिन उन्हें शेष 4 विद्याओं का ज्ञान पाना ही था। तब हनुमानजी ने विवाह के लिए हां कर दी। जब हनुमानजी विवाह के लिए मान गए तब उनके योग्य कन्या के रूप में सूर्य देव की पुत्री सुवर्चला को चुना गया। सूर्य देव ने हनुमानजी से कहा कि सुवर्चला परम तपस्वी और तेजस्वी है और इसका तेज तुम ही सहन कर सकते हो। सुवर्चला से विवाह के बाद तुम इस योग्य हो जाओगे कि शेष 4 दिव्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर सको। 

सूर्य देव ने यह भी बताया कि सुवर्चला से विवाह के बाद भी तुम सदैव बाल ब्रह्मचारी ही रहोगे, क्योंकि विवाह के बाद सुवर्चला पुन: तपस्या में लीन हो जाएगी। इस तरह हनुमानजी और सुवर्चला का विवाह सूर्य देव ने करवा दिया। विवाह के बाद सुवर्चला तपस्या में लीन हो गईं और हनुमानजी से अपने गुरु सूर्य देव से शेष 4 विद्याओं का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। इस प्रकार विवाह के बाद भी हनुमानजी ब्रह्मचारी बने हुए हैं। हनुमान ने प्रत्येक स्त्री को मां समान दर्जा दिया है। यही कारण है कि किसी भी स्त्री को अपने सामने प्रणाम करते हुए नहीं देख सकते बल्कि स्त्री शक्ति को वो स्वयं नमन करते हैं। यदि महिलाएं चाहे तो हनुमान जी की सेवा में दीप अर्पित कर सकती हैं। हनुमान जी की स्तुति कर सकती हैं। हनुमान जी को प्रसाद अर्पित कर सकती हैं। लेकिन 16 उपचारों जिनमें मुख्य स्नान, वस्त्र, चोला चढ़ाना आते हैं, ये सब सेवाएं किसी महिला के द्वारा किया जाना हनुमान जी स्वीकार नहीं करते हैं।

‘ब्रह्मा’ ने क्यों बनाया अपनी पुत्री सरस्वती को अर्धांगिनी?

पुराणों में कहा गया है सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी ने अपनी ही बेटी सरस्वती से विवाह कर लिया था| ब्रम्हा का अपनी ही बेटी के साथ विवाह करने की इस घटना का उल्लेख सरस्वती पुराण में वर्णित है। सरस्वती पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्मा ने सीधे अपने वीर्य से सरस्वती को जन्म दिया था। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती की कोई मां नहीं केवल पिता, ब्रह्मा थे।

सरस्वती पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना करते समय ब्रह्मा ने सीधे अपने वीर्य से सरस्वती को जन्म दिया था। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि सरस्वती की कोई मां नहीं केवल पिता, ब्रह्मा थे। सरस्वती को विद्या की देवी कहा जाता है, लेकिन विद्या की यह देवी बेहद खूबसूरत और आकर्षक थीं कि स्वयं ब्रह्मा भी सरस्वती के आकर्षण से खुद को बचाकर नहीं रख पाए और उन्हें अपनी अर्धांगिनी बनाने पर विचार करने लगे।

सरस्वती ने अपने पिता की इस मनोभावना को भांपकर उनसे बचने के लिए चारो दिशाओं में छिपने का प्रयत्न किया लेकिन उनका हर प्रयत्न बेकार साबित हुआ। इसलिए विवश होकर उन्हें अपने पिता के साथ विवाह करना पड़ा। ब्रह्मा और सरस्वती करीब 100 वर्षों तक एक जंगल में पति-पत्नी की तरह रहे। इन दोनों का एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम रखा गया था स्वयंभु मनु।

वहीँ, मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा के पांच सिर थे। कहा जाता है जब ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की तो वह इस समस्त ब्रह्मांड में अकेले थे। ऐसे में उन्होंने अपने मुख से सरस्वती, सान्ध्य, ब्राह्मी को उत्पन्न किया। ब्रह्मा अपनी ही बनाई हुई रचना, सरवस्ती के प्रति आकर्षित होने लगे और लगातार उन पर अपनी दृष्टि डाले रखते थे। ब्रह्मा की दृष्टि से बचने के लिए सरस्वती चारो दिशाओं में छिपती रहीं लेकिन वह उनसे नहीं बच पाईं।

इसलिय सरस्वती आकाश में जाकर छिप गईं लेकिन अपने पांचवें सिर से ब्रह्मा ने उन्हें आकाश में भी खोज निकाला और उनसे सृष्टि की रचना में सहयोग करने का निवेदन किया। सरस्वती से विवाह करने के पश्चात सर्वप्रथम मनु का जन्म हुआ। ब्रह्मा और सरस्वती की यह संतान मनु को पृथ्वी पर जन्म लेने वाला पहला मानव कहा जाता है। इसके अलावा मनु को वेदों, सनातन धर्म और संस्कृत समेत समस्त भाषाओं का जनक भी कहा जाता है।

जानिए कैसे बना मां पार्वती का वाहन शेर


जिस तरह भगवान शंकर का वाहन नंदी, विष्णु का गरुड़, कार्तिकेय का मोर, दुर्गा का सिंह और श्रीगणेश का वाहन चूहा, माता सरस्वती का वाहन हंस है, उसी प्रकार माता पार्वती का वाहन शेर है| यहां जानिए माता पार्वती का वाहन शेर कैसे बना?

धार्मिक पुराणों के अनुसार माता पार्वती ने विश्व के पालनहार भगवान शिव को पाने के लिए बहुत ही कठोर तपस्या की थी। जो हजारों साल चली थी। इस तपस्या से पार्वती को भगवान शिव तो मिल गए, लेकिन तपस्या के प्रभाव से मां सांवली हो गई थी। एक दिन मां पार्वती और भगवान साथ बैठे थे और मजाक में शिव जी ने माता को काली कह दिया जो मां को बहुत ही बुरा लगा और वह कैलाश छोडकर एक वन में चली गई और कठोर तपस्या में लीन हो गई। इस बीच एक भूखा शेर मां पार्वती को खाने की इच्छा से वहां पहुंचा, ले‌किन इसे आप चमत्कार कहिए या कोई लीला।

उस शेर ने देखा कि मां तपस्या कर रही है तो वह वही पर चुपचाप बैठ गया। मां के चेहरें में उस शेर ने ऐसा क्या देखा कि मां की तपस्या में वह कोई विघ्न नही डालना चाहता था कि वह मां को अपना भोजन बना लें, लेकिन शेर वही चुपचाप कई सालों तक बैठा रहा जब तक माता पार्वती तपस्या करती रही। मां ने हठ कर ली थी कि जब तक वह गोरी न हो जाएगी। वह इसी तरह तप करती रहेगी, लेकिन तभी शिव वहां प्रकट हुए और देवी को गोरे होने का वरदान देकर चले गए।

इसके बाद माता गंगा स्नान करनें को गई तो स्नान करते समय माता के अंदर से एक और देवी बाहर निकली और माता पार्वती गोरी हो गई जिसके कारण इनका नाम मां गौरी पड़ा और दूसरी देवी जो काले रूप में थी उनका नाम कौशिकी पड़ा। जब मां गंगा स्नान कर बाहर निकली तो देखा कि एक शेर वहां बैठा उन्हें बडें ही ध्यान से देख रहा है। साथ ही इस बात का पार्वती मां को आश्चर्य हुआ कि इस शेर ने मेरे ऊपर हमला कर अपना ग्रास नही बनाया। इसके साथ ही मां को पार्वती को पता चला कि यह शेर उनके साथ ही तपस्या में था। जिसका वरदान मां पार्वती ने उसे अपना वाहन बना कर दिया। तब से मां पार्वती का वाहन शेर हो गया।

अहोई अष्टमी आज, जानिए व्रत विधि और कथा

नई दिल्ली| कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है| पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह व्रत व पूजन संतान व पति के कल्याण हेतु किया जाता है| माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय अहोई माता का का पूजन किया जाता है। तारों को करवा से अर्ध्य भी दिया जाता है। इस दिन धोबी मारन लीला का भी मंचन होता है, जिसमें श्री कृष्ण द्वारा कंस के भेजे धोबी का वध करते प्रदर्शन किया जाता है। इस वर्ष अहोई अष्टमी का व्रत 3 नवंबर दिन मंगलवार को मनाया जा रहा है|

कहते हैं कि जिन्हें संतान का सुख प्राप्त नहीं हो पा रहा हो उन्हें अहोई अष्टमी व्रत अवश्य करना चाहिए क्योंकि संतान प्राप्ति हेतु अहोई अष्टमी व्रत अमोघफल दायक होता है| इसके लिए, एक थाल मे सात जगह चार-चार पूरियां एवं हलवा रखना चाहिए| इसके साथ ही पीत वर्ण की पोशाक-साडी एवं रूपये आदि रखकर श्रद्धा पूर्वक अपनी सास को उपहार स्वरूप देना चाहिए| शेष सामग्री हलवा-पूरी आदि को अपने पास-पडोस में वितरित कर देना चाहिए सच्ची श्रद्धा के साथ किया गया यह व्रत शुभ फलों को प्रदान करने वाला होता है|

अहोई अष्टमी व्रत विधि-

संतान की शुभता को बनाये रखने के लिये क्योकि यह उपवास किया जाता है इसलिये इसे केवल माताएं ही करती है| इस व्रत को रखने वाली माताएं प्रात: काल उठकर स्नान आदि करके अहोई माता का चित्रांकन करें| चित्रांकन में ज्यादातर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास सेह तथा उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं। उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अहोई माता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की अहोई बनवाती हैं। जमीन पर गोबर से लीपकर कलश की स्थापना होती है। अहोईमाता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है। तत्पश्चात एक पाटे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। तारे निकलने पर इस व्रत का समापन किया जाता है| तारों को करवे से अर्ध्य दिया जाता है. और तारों की आरती उतारी जाती है| इसके पश्चात संतान से जल ग्रहण कर, व्रत का समापन किया जाता है|

पूजा पाठ करके अपनी संतान की दीर्घायु व सुखमय जीवन हेतू कामना करें और माता अहोई से प्रार्थना करें, कि हे माता मैं अपनी संतान की उन्नति, शुभता और आयु वृ्द्धि के लिये व्रत कर रही हूं, इस व्रत को पूरा करने की आप मुझे शक्ति दें| यह कर कर व्रत का संकल्प लें| एक मान्यता के अनुसार इस व्रत को करने से संतान की आयु में वृ्द्धि, स्वास्थय और सुख प्राप्त होता है| साथ ही माता पार्वती की पूजा भी इसके साथ-साथ की जाती है| क्योकि माता पार्वती भी संतान की रक्षा करने वाली माता कही गई है|

अहोई अष्टमी व्रत कथा-

प्राचीन काल में किसी नगर में एक साहूकार रहता था। उसके सात लड़के थे। दीपावली से पहले साहूकार की स्त्री घर की लीपा-पोती हेतु मिट्टी लेने खदान में गई और कुदाल से मिट्टी खोदने लगी। दैव योग से उसी जगह एक सेह की मांद थी। सहसा उस स्त्री के हाथ से कुदाल सेह के बच्चे को लग गई जिससे सेह का बच्चा तत्काल मर गया। अपने हाथ से हुई हत्या को लेकर साहूकार की पत्नी को बहुत दुख हुआ परन्तु अब क्या हो सकता था? वह शोकाकुल पश्चाताप करती हुई अपने घर लौट आई। कुछ दिनों बाद उसके बेटे का निधन हो गया। फिर अकस्मात दूसरा, तीसरा और इस प्रकार वर्ष भर में उसके सभी बेटे मर गए। महिला अत्यंत व्यथित रहने लगी। एक दिन उसने अपने आस-पड़ोस की महिलाओं को विलाप करते हुए बताया कि उसने जान-बूझ कर कभी कोई पाप नहीं किया। हाँ, एक बार खदान में मिट्टी खोदते हुए अंजाने में उससे एक सेह के बच्चे की हत्या अवश्य हुई है और तत्पश्चात मेरे सातों बेटों की मृत्यु हो गई।

यह सुनकर पास-पड़ोस की वृद्ध औरतों ने साहूकार की पत्नी को दिलासा देते हुए कहा कि यह बात बताकर तुमने जो पश्चाताप किया है उससे तुम्हारा आधा पाप नष्ट हो गया है। तुम उसी अष्टमी को भगवती माता की शरण लेकर सेह और सेह के बच्चों का चित्र बनाकर उनकी अराधना करो और क्षमा-याचना करो। ईश्वर की कृपा से तुम्हारा पाप धुल जाएगा। साहूकार की पत्नी ने वृद्ध महिलाओं की बात मानकर कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उपवास व पूजा-याचना की। वह हर वर्ष नियमित रूप से ऐसा करने लगी। बाद में उसे सात पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई। तभी से अहोई व्रत की परम्परा प्रचलित हो गई।

इसके अलावा एक और काठ प्रचलित है जो इस प्रकार है, प्राचीन काल में दतिया नगर में चंद्रभान नाम का एक आदमी रहता था। उसकी बहुत सी संतानें थीं, परंतु उसकी संताने अल्प आयु में ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होने लगती थीं। अपने बच्चों की अकाल मृत्यु से पति-पत्नी दुखी रहने लगे थे। कालान्तर तक कोई संतान न होने के कारण वह पति-पत्नी अपनी धन दौलत का त्याग करके वन की ओर चले जाते हैं और बद्रिकाश्रम के समीप बने जल के कुंड के पास पहुंचते हैं तथा वहीं अपने प्राणों का त्याग करने के लिए अन्न-जल का त्याग करके उपवास पर बैठ जाते हैं। इस तरह छह दिन बीत जाते हैं तब सातवें दिन एक आकाशवाणी होती है कि, हे साहूकार! तुम्हें यह दुख तुम्हारे पूर्व जन्म के पाप से मिल रहे है।

अतः इन पापों से मुक्ति के लिए तुम्हें अहोई अष्टमी के दिन व्रत का पालन करके अहोई माता की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, जिससे प्रसन्न हो अहोई माता तुम्हें पुत्र प्राप्ति के साथ-साथ उसकी दीर्घ आयु का वरदान देंगी। इस प्रकार दोनों पति-पत्नी अहोई अष्टमी के दिन व्रत करते हैं और अपने पापों की क्षमा मांगते हैं। अहोई मां प्रसन्न हो उन्हें संतान की दीर्घायु का वरदान देती हैं। आज के समय में भी संस्कारशील माताओं द्वारा जब अपनी सन्तान की इष्टकामना के लिए अहोई माता का व्रत रखा जाता है और सांयकाल अहोई मता की पूजा की जाती है तो निश्चित रूप से इसका शुभफल उनको मिलता ही है और सन्तान चाहे पुत्र हो या पुत्री, उसको भी निश्कंटक जीवन का सुख मिलता है।

आधुनिक राष्ट्र निर्माता सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती पर विशेष……

आज हम जिस विशाल भारत को देखते हैं उसकी कल्पना लौह पुरुष कहलाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल के बिना शायद पूरी नहीं हो पाती| वल्लभ भाई पटेल एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने देश के छोटे-छोटे रजवाड़ों और राजघरानों को एककर भारत में सम्मिलित किया| भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की जब भी बात होती है तो सरदार पटेल का नाम सबसे पहले ध्यान में आता है| उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति, नेतृत्व कौशल का ही कमाल था कि 600 देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कर सके| भारत के प्रथम गृह मंत्री और प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नाडियाड में उनके ननिहाल में हुआ| वह खेड़ा जिले के कारमसद में रहने वाले झावेर भाई पटेल की चौथी संतान थे|

वल्लभ भाई पटेल की माता का नाम लाडबा पटेल था| बचपन से ही उनके परिवार ने उनकी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया| प्रारंभिक शिक्षा काल में ही उन्होंने एक ऐसे अध्यापक के विरुद्ध आंदोलन खड़ाकर उन्हें सही मार्ग दिखाया जो अपने ही व्यापारिक संस्थान से पुस्तकें क्रय करने के लिए छात्रों के बाध्य करते थे। हालाँकि 16 साल में उनका विवाह कर दिया गया था पर उन्होंने अपने विवाह को अपनी पढ़ाई के रास्ते में नहीं आने दिया| 22 साल की उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और ज़िला अधिवक्ता की परीक्षा पास की, जिससे उन्हें वकालत करने की अनुमति मिली| अपनी वकालत के दौरान उन्होंने कई बार ऐसे केस लड़े जिसे दूसरे निरस और हारा हुए मानते थे| उनकी प्रभावशाली वकालत का ही कमाल था कि उनकी प्रसिद्धी दिनों-दिन बढ़ती चली गई| गम्भीर और शालीन पटेल अपने उच्चस्तरीय तौर-तरीक़ों और चुस्त अंग्रेज़ी पहनावे के लिए भी जाने जाते थे| लेकिन गांधीजी के प्रभाव में आने के बाद जैसे उनकी राह ही बदल गई|

भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जब पूरी शक्ति से अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन चलाने का निश्चय किया तो सरदार पटेल ने अहमदाबाद में एक लाख जन-समूह के सामने लोकल बोर्ड के मैदान में इस आंदोलन की रूपरेखा समझाई। लौह पुरुष कहे जाने वाले सरदार बल्लभ भाई पटेल ने पत्रकार परिषद में कहा, ऐसा समय फिर नही आएगा, आप मन में भय न रखें। चौपाटी पर दिए गए भाषण में कहा, आपको यही समझकर यह लड़ाई छेड़नी है कि महात्मा गांधी और अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया जाएगा तो आप न भूलें कि आपके हाथ में शक्ति है कि 24 घंटे में ब्रिटिश सरकार का शासन खत्म हो जाएगा।

सितंबर, 1946 में जब पंडित जवाहर लाल नेहरु की अस्थाई राष्ट्रीय सराकर बनी तो सरदार पटेल को गृहमंत्री नियुक्त किया गया। अत्यधिक दूरदर्शी होने के कारण भारत मे विभाजन के पक्ष में पटेल का स्पष्ट मत था कि जहरवाद फैलने से पूर्व गले-से अंग को ऑपरेशन कर कटवा देना चाहिए। नवंबर,1947 में संविधान परिषद की बैठक में उन्होंने अपने इस कथन को स्पष्ट किया, मैंने विभाजन को अंतिम उपाय मे रूप में तब स्वीकार किया था जब संपूर्ण भारत के हमारे हाथ से निकल जाने की संभावना हो गई थी। मैंने यह भी शर्त रखी कि देशी राज्यों के संबंध में ब्रिटेन हस्तक्षेप नहीं करेगा। इस समस्या को हम सुलझाएंगे। और निश्चय ही देशी राज्यों के एकीकरण की समस्या को पटेल ने बिना खून-खराबे के बड़ी खूबी से हल किया, देशी राज्यों में राजकोट, जूनागढ़, वहालपुर, बड़ौदा, कश्मीर, हैदराबाद को भारतीय महासंघ में सम्मिलित करना में सरदार को कई पेचीदगियों का सामना करना पड़ा।

भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इसे भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) में परिवर्तित करना सरदार पटेल के प्रयासो का ही परिणाम है। यदि सरदार पटेल को कुछ समय और मिलता तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता। उनके मन में किसानो एवं मजदूरों के लिये असीम श्रद्धा थी। वल्लभभाई पटेल ने किसानों एवं मजदूरों की कठिनाइयों पर अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा:-

” दुनिया का आधार किसान और मजदूर पर हैं। फिर भी सबसे ज्यादा जुल्म कोई सहता है, तो यह दोनों ही सहते हैं। क्योंकि ये दोनों बेजुबान होकर अत्याचार सहन करते हैं। मैं किसान हूँ, किसानों के दिल में घुस सकता हूँ, इसलिए उन्हें समझता हूँ कि उनके दुख का कारण यही है कि वे हताश हो गये हैं। और यह मानने लगे हैं कि इतनी बड़ी हुकूमत के विरुद्ध क्या हो सकता है ? सरकार के नाम पर एक चपरासी आकर उन्हें धमका जाता है, गालियाँ दे जाता है और बेगार करा लेता है। “

किसानों की दयनीय स्थिति से वे कितने दुखी थे इसका वर्णन करते हुए पटेल ने कहा: –

“किसान डरकर दुख उठाए और जालिम की लातें खाये, इससे मुझे शर्म आती है और मैं सोचता हूँ कि किसानों को गरीब और कमजोर न रहने देकर सीधे खड़े करूँ और ऊँचा सिर करके चलने वाला बना दूँ। इतना करके मरूँगा तो अपना जीवन सफल समझूँगा”

कहते हैं कि यदि सरदार बल्लभ भाई पटेल ने जिद्द नहीं की होती तो ‘रणछोड़’ राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति पद के लिए तैयार ही नहीं होते। जब सरदार वल्‍लभभाई पटेल अहमदाबाद म्‍युनिसिपेलिटी के अध्‍यक्ष थे तब उन्‍होंने बाल गंगाघर तिलक का बुत अहमदाबाद के विक्‍टोरिया गार्डन में विक्‍टोरिया के स्‍तूप के समान्‍तर लगवाया था। जिस पर गाँधी जी ने कहा था कि- “सरदार पटेल के आने के साथ ही अहमदाबाद म्‍युनिसिपेलिटी में एक नयी ताकत आयी है। मैं सरदार पटेल को तिलक का बुत स्‍थापित करने की हिम्‍मत बताने के लिये उन्हे अभिनन्‍दन देता हूं।”

सरदार पटेल को कई बार जाना पड़ा जेल-

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में पटेल, गांधी के बाद अध्यक्ष पद के दूसरे उम्मीदवार थे। गांधी ने स्वाधीनता के प्रस्ताव को स्वीकृत होने से रोकने के प्रयास में अध्यक्ष पद की दावेदारी छोड़ दी और पटेल पर भी नाम वापस लेने के लिए दबाव डाला। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों के प्रति पटेल की हठधर्मिता थी। अंतत: जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष बने। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान पटेल को तीन महीने की जेल हुई। मार्च 1931 में पटेल ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के करांची अधिवेशन की अध्यक्षता की। जनवरी 1932 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जुलाई 1934 में वह रिहा हुए और 1937 के चुनावों में उन्होंने कांग्रेज़ पार्टी के संगठन को व्यवस्थित किया। 1937-38 में वह कांग्रेस के अध्यक्ष पद के प्रमुख दावेदार थे। एक बार फिर गांधी के दबाव में पटेल को अपना नाम वापस लेना पड़ा और जवाहर लाल नेहरू निर्वाचित हुए। अक्टूबर 1940 में कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ पटेल भी गिरफ़्तार हुए और अगस्त 1941 में रिहा हुए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी हमले की आशंका हुई, तो पटेल ने गांधी की अहिंसा की नीति को अव्यावहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया। सत्ता के हस्तान्तरण के मुद्दे पर भी पटेल का गांधी से इस बात पर मतभेद था कि उपमहाद्वीप का हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान के रूप में विभाजन अपरिहार्य है। पटेल ने ज़ोर दिया कि पाकिस्तान दे देना भारत के हित में है।

माना जाता है पटेल कश्मीर को भी बिना शर्त भारत से जोड़ना चाहते थे पर जवाहर लाला नेहरु ने हस्तक्षेप कर कश्मीर को विशेष दर्जा दे दिया| नेहरू ने कश्मीर के मुद्दे को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है| यदि कश्मीर का निर्णय नेहरू की बजाय पटेल के हाथ में होता तो कश्मीर आज भारत के लिए समस्या नहीं बल्कि गौरव का विषय होता| 15 दिसंबर 1950 को प्रातःकाल 9.37 पर इस महापुरुष का 76 वर्ष की आयु में निधन हो गया|

प्रथम महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि पर विशेष…

राजनीति के प्रभावशाली परिवार में 19 नवंबर 1917 को जन्मी इंदिरा प्रियदर्शिनी गाँधी जिन्हें सभी इंदिरा गांधी के नाम से जानते हैं, ने देश की पहली और एकमात्र प्रधानमंत्री बनने का गौरव अपने नाम किया था| इंदिरा गांधी ने लगातार तीन बार इस पद को सुशोभित किया| इंदिरा ने जब फिरोज़ गाँधी से विवाह किया तब उन्हें ‘गांधी’ उपनाम मिला था|

उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी छोटी लेकिन महत्वपूर्ण भूमिका निभाई| इस दौरान उन्होंने अपने साहस का परिचय भी दिया| उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पुलिस की नज़र से बचा कर अपने पिता के घर से एक महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसमें 1930 दशक के शुरुआत की एक प्रमुख क्रांतिकारी पहल की योजना थी, को अपने स्कूलबैग के माध्यम से बाहर निकाल लाई थीं|

इंदिरा गांधी ने 1950 के दशक में भारत के पहले प्रधानमंत्री और अपने पिता जवाहर लाल नेहरु के कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में काम किया था| अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में वे राज्यसभा सदस्य के रूप में चयनित हुईं| इससे कुछ कदम आगे बढ़ते हुए लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में उन्होंने सूचना और प्रसारण मंत्रालय का कार्यभार सम्भाला| एक राजनैतिक परिवार में जन्म लेने के कारण वह शुरुआत से ही राजनीति की तरफ आकर्षित थीं|

लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद तत्कालीन कॉंग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज ने इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक योगदान दिया| इंदिरा ने सबकी उम्मीदों पर खरा उतरते हुए जीत हासिल की और जनमानस में अपनी ख़ास छाप छोड़ी| अपने चमत्कारी व्यक्तित्व से वह भारतीय राजनीति में जननायक के रूप में उभरीं| इंदिरा ने महिलाओं को कमज़ोर समझने वाली उन सभी धारणाओं को चकनाचूर किया, जिसमें पुरुषप्रधान समाज ने महिला को कमज़ोर साबित करने की कोशिश की थी| उन्होंने सही मायने में ‘महिला सशक्तिकरण’ को सबके समक्ष प्रदर्शित किया|

इंदिरा ने ऐसे समय में भारतीय राजनीति में कदम रखा जब देश को एक सही नेता और नेतृत्व की ज़रूरत थी| उस समय इंदिरा गांधी रुपी इस सितारे ने भारतीय राजनीति को अपनी चमक से प्रकाशमय कर दिया| वह नेतृत्व संकट से जूझ रहे देश के लिए ‘संकटमोचन’ के रूप में सामने आयीं| शुरू में ‘गूंगी गुड़िया’ कहलाने वाली इंदिरा गाँधी ने अपने चमत्कारिक नेतृत्व से न केवल देश को कुशल नेतृत्व प्रदान किया बल्कि विश्व मंच पर भी भारत की धाक जमा दी|

इंदिरा ने जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी| वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया| इंदिरा गाँधी न सिर्फ एक कुशल प्रशासक थीं बल्कि उनके नेतृत्व में भारत ने विश्व पटल पर अपनी छाप छोड़ी| देश में परमाणु कार्यक्रम और हरित क्रांति लाने का श्रेय इंदिरा गांधी को ही जाता है| उन्होंने आधुनिक भारत की नीव रखी, जिसने विश्व पटल पर देश को एक नयी पहचान दिलाई|

भारत ने परमाणु शक्ति के रूप में उभरते हुए साल 1974 में राजस्थान के रेगिस्तान में बसे गांव पोखरण में ‘स्माइलिंग बुद्धा’ के नाम से सफलतापूर्वक एक भूमिगत परमाणु परीक्षण किया| शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परीक्षण का वर्णन करते हुए भारत दुनिया की सबसे नवीनतम परमाणु शक्तिधर बन गया| 1960 में उन्होंने संगठित हरित क्रांति गहन कृषि जिला कार्यक्रम (आईएडीपी) की शुरुआत की| इसका उद्देश्य देश में चल रही खाद्द्यान्न की कमी से निपटना था|

हालांकि, इंदिरा गाँधी के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे| इसके बाद 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधानानुसार आपातकालीन की घोषणा उनके राजनितिक जीवन का सबसे गलत कदम साबित हुआ और देश में उनके लिए नाराज़गी फ़ैल गयी| इसके बाद साल 1981 में ओपरेशन ब्लू स्टार’ उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती साबित हुई| सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं| 31 अक्टूबर सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या कर दी गई|

करवाचौथ पर ऐसे सजें अपने सजना के लिए

करवा चौथ के दिन महिलाएं इतनी सुन्दर लगती है जिस से कोई एक शब्द में बयान नहीं कर सकता। करवाचौथ के दिन पत्नियां अपनी सुंदरता में चार चाँद लगाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ती। तो वहीं आज कल की महिलाएं दिखने में सुंदर और हलकी साड़ी पहना पसंद करती है और साथ ही उस से ही मैचिंग गहने भी पहना पसंद करती हैं।

करवाचौथ के अवसर पर आपकी नजरों से उनकी नजर न हटे, इसका खयाल रखते हुए मेकअप में आइ मेकअप को दरकिनार न करें। इन दिनों लेटेस्ट में न्यूड आंखें व बोल्ड लिप्स का फैशन है। आंखों को बिल्कुल लाइट रखने के लिए ब्रोंज, सिल्वरिश गोल्ड, कॉपर या लाइट ब्राउन कलर का आइशैडो लगाएं। आंखों के कोनों पर डार्क ब्राउन कलर का आइशैडो लगाएं। इस मौके पर आइब्रो के नीचे एक लाइन स्पार्कल की जरूर लगाएं।

हाइलाइटर अपने पहनावे के अनुसार गोल्डन या सिल्वर कलर का सेलेक्ट कर सकती हैं। आइलाइनर ब्लैक या ब्राउन कलर का लगा सकती हैं और पलकों को घनी व खूबसूरत बनाने के लिए आइलैशस को आइलैश कर्लर से कर्ल करके लांग-लैश मसकारा लगाएं। सौभाग्य को बढ़ाने वाले इस त्योहार में ब्लैक या डार्क ब्लू कलर की कोई भी पोशाक न चुनें। इसके अलावा, मेकअप में भी स्मोकी शैडो व ब्लैक बिंदी को इग्नोर ही करें तो बेहतर होगा।

इसके अलावा अपनी ड्रेस से मिलते-जुलते रंग की चूडियां पहनें| आजकल लाह की चूड़ियां फैशन में हैं| कांच की चूड़ियां भी पहन सकते हैं| अपने बालों को सेट करने के लिए आप चोटी या जुड़ा भी बना सकती हैं| आप इसे अलग तरीके से भी बना सकती हैं| इसके बाद आप इसे ज्यादा खूबसूरत दिखने के लिए फूल से अपने जुड़े को सजा सकती हैं|

बिंदी करवाचौथ के सौन्दर्य का अभिन्न अंग मानी जाती है। अपनी पोशाक से मिलती जुलती रंग की सजावटी बिंदी का प्रयोग करें। छोटे चमकीले रत्नों से जड़ित बिंदी काफी आर्कषक लगती है। अपने सौन्दर्य में इत्र लगाना कभी न भूलें क्योंकि यह सोने पर सुहागे का काम करता है, उचित जीवनशैली अपनाने से चहेरे पर चमक तथा उत्साह की झलक मिलती है।

तेजस्वी आभा के लिए उचित पोषाहार, व्यायाम पर्याप्त नींद, तथा विश्राम अत्यंत आवश्यक है। त्यौहार से कुछ हफ्ते पहले हल्का व्यायाम तथा पैदल चलने की आदत डालनी चाहिए। पैदल चलना शारीरिक तथा मानसिक स्वस्थ्य दोनों के लिए लाभकारी साबित होता है।मन की शांति तथा स्वास्थ्य के लिए लंबी गहरी सांसे सबसे ज्यादा लाभप्रद मानी जाती है।

लिपस्टिक की सुंदरता के लिए घने गहरे रंगों का उपयोग न करें क्योंकि चमकीली लाइट में यह ज्यादा गहरे दिखाई देते हैं, जिससे आपकी आभा पर विपरित असर दिखाई देता है। सौंदर्य पर चार चांद लगाने के लिए गुलाबी, ताम्रवर्णी, कांस्यवर्णी रंगों का प्रयोग करें। नारंगी रंग या नारंगी शेड का प्रयोग फैशन का नया प्रचलन है। विकल्प के तौर पर आप हल्के बैंगनी तथा गुलाबी रंगों का प्रयोग भी कर सकती हैं।

कार्तिक मास में क्यों करते हैं दीपदान…?


हिंदू धर्म के धर्म शास्त्रों में प्रत्येक ऋतु व मास का अपना विशेष महत्व बताया गया है। सामान्य रूप से तुला राशि पर सूर्यनारायण के आते ही कार्तिक मास प्रारंभ हो जाता है। कार्तिक का माहात्म्य पद्मपुराण तथा स्कंदपुराण में बहुत विस्तार से उपलब्ध है। कार्तिक मास में स्त्रियां ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके राधा-दामोदर की पूजा करती हैं। कलियुग में कार्तिक मास व्रत को मोक्ष के साधन के रूप में बताया गया है। कार्तिक में पूरे माह ब्रह्म मुहूर्त में किसी नदी, तालाब, नहर या पोखर में स्नान कर भगवान की पूजा की जाती है।

धर्म ग्रंथों में कार्तिक मास के बारे में वर्णित है कि यह मास स्नान, तप व व्रत के लिए सर्वोत्तम है। इस माह में दान, स्नान, तुलसी पूजन तथा नारायन पूजन का अत्यधिक महत्व है| कार्तिक माह की विशेषता का वर्णन स्कन्द पुराण में भी दिया गया है| स्कन्द पुराण में लिखा है कि सभी मासों में कार्तिक मास, देवताओं में विष्णु भगवान, तीर्थों में नारायण तीर्थ (बद्रीनारायण) शुभ हैं| कलियुग में जो इनकी पूजा करेगा वह पुण्यों को प्राप्त करेगा| पदम पुराण के अनुसार कार्तिक मास धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने वाला है|

पद्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति पूरे कार्तिक माह में सूर्योदय से पूर्व उठकर नदी अथवा तालाब में स्नान करता है और भगवान विष्णु की पूजा करता है। भगवान विष्णु की उन पर असीम कृपा होती है। पद्म पुराण के अनुसार जो व्यक्ति कार्तिक मास में नियमित रूप से सूर्योदय से पूर्व स्नान करके धूप-दीप सहित भगवान विष्णु की पूजा करते हैं वह भगवान विष्णु के प्रिय होते हैं। पद्मपुराण की कथा के अनुसार कार्तिक स्नान और पूजा के पुण्य से ही सत्यभामा को भगवान श्री कृष्ण की पत्नी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

कथा है कि एक बार कार्तिक मास की महिमा जानने के लिए कुमार कार्तिकेय ने भगवान शिव से पूछा कि कार्तिक मास को सबसे पुण्यदायी मास क्यों कहा जाता है। इस पर भगवान शिव ने कहा कि नदियों में जैसे गंगा श्रेष्ठ है, भगवानों में विष्णु उसी प्रकार मासों में कार्तिक श्रेष्ठ मास है। इस मास में भगवान विष्णु जल के अंदर निवास करते हैं। इसलिए इस महीने में नदियों एवं तलाब में स्नान करने से विष्णु भगवान की पूजा और साक्षात्कार का पुण्य प्राप्त होता है।

भगवान विष्णु ने जब श्री कृष्ण रूप में अवतार लिया तब रूक्मिणी और सत्यभामा उनकी पटरानी हुई। सत्यभामा पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण की पुत्री थी। युवावस्था में ही एक दिन इनके पति और पिता को एक राक्षस ने मार दिया। कुछ दिनों तक ब्राह्मण की पुत्री रोती रही। इसके बाद उसने स्वयं को विष्णु भगवान की भक्ति में समर्पित कर दिया।

वह सभी एकादशी का व्रत रखती और कार्तिक मास में नियम पूर्वक सूर्योदय से पूर्व स्नान करके भगवान विष्णु और तुलसी की पूजा करती थी। बुढ़ापा आने पर एक दिन जब ब्राह्मण की पुत्री कार्तिक स्नान के लिए गंगा में डुबकी लगायी तब बुखार से कांपने लगी और गंगा तट पर उसकी मृत्यु हो गयी। उसी समय विष्णु लोक से एक विमान आया और ब्राह्मण की पुत्री का दिव्य शरीर विमान में बैठकर विष्णु लोक पहुंच गया।

जब भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार लिया तब ब्राह्मण की पुत्री ने सत्यभामा के रूप में जन्म लिया। कार्तिक मास में दीपदान करने के कारण सत्यभामा को सुख और संपत्ति प्राप्त हुई। नियमित तुलसी में जल अर्पित करने के कारण सुन्दर वाटिका का सुख मिला। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में किये गये दान पुण्य का फल व्यक्ति को अगले जन्म में अवश्य प्राप्त होता है।

कार्तिक में दीपदान का महत्व-

दीपदान करने के लिए कार्तिक माह का विशेष महत्व है| शास्त्रों के अनुसार इस माह भगवान विष्णु चार माह की अपनी योगनिद्रा से जागते हैं| विष्णु जी को निद्रा से जगाने के लिए महिलाएं विष्णु जी की सखियां बनती हैं और दीपदान तथा मंगलदान करती हैं| इस माह में दीपदान करने से विष्णु जी की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में छाया अंधकार दूर होता है| व्यक्ति के भाग्य में वृद्धि होती है|

पदमपुराण के अनुसार कार्तिक के महीने में शुद्ध घी अथवा तेल का दीपक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्यानुसार जलाना चाहिए| इस माह में जो व्यक्ति घी या तेल का दीया जलाता है, उसे अश्वमेघ यज्ञ के बराबर फलों की प्राप्ति होती है| मंदिरों में और नदी के किनारे दीपदान करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं| हमारे शास्त्रों में दुखों से मुक्ति दिलाने के लिए कई उपाय बताए हैं। उनमें कार्तिक मास के स्नान, व्रत की अत्यंत महिमा बताई गई है। इस मास का स्नान, व्रत लेने वालों को कई संयम, नियमों का पालन करना चाहिए तथा श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्रीहरि की आराधना करनी चाहिए।

जानिए क्यों किया जाता है करवा चौथ का व्रत?

करवा चौथ भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत इस बार 30 अक्टूबर दिन शुक्रवार को मनाया जायेगा| करवा चौथ का पर्व सुहागिन स्त्रियाँ मनाती हैं| पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चन्द्रमा की पूजा की जाती है| चंद्रमा के साथ- साथ भगवान शिव, पार्वती जी, श्रीगणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है| करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अर्ध्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है|

इस बार शु्क्रवार और रोहिणी नक्षत्र में करवाचौथ व्रत पड़ रहा है। इस विशेष संयोग में व्रत रखने वाली सुहागिनों का सुहाग तो अटल रहेगा ही, पति का आकर्षण भी उनके प्रति बढ़ जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म नक्षत्र रोहिणी भी शाम 4:57 तक है। रोहिणी नक्षत्र होने के कारण पति पति के संबंधों में जहां मिठास घुलेगी वहीं एक दूसरे के प्रति लगाव भी धीरे धीरे बढ़ता जायेगा। इस बार करवा चौथ पर चांद महिलाओं को नखरे दिखाएगा और रात 8:20 मिनट पर ही दर्शन देगा।

करवा चौथ की व्रत विधि-
कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करक चतुर्थी व्रत स्त्रियां अखंड़ सौभाग्य की कामना के लिए करती हैं| इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है| इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं| पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवाचौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताज़गी एवं मिठास लाता है| करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है| सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है|

करवा चौथ व्रत की प्रक्रिया-
करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें| व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- ‘मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। करवा चौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए रहा जाता है| दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। उसके बाद आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें। वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें।

‘नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥’ करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासूजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें।इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें।

करवा चौथ की कथा-
इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित है, जिनमें एक बहन और सात बहनों की कथा बहुत प्रसिद्ध है| बहुत समय पहले की बात है, एक लडकी थी, उसके साथ भाई थें, उसकी शादी एक राजा से हो गई| शादी के बाद पहले करवा चौथ पर वो अपने मायके आ गई| उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी| वह बडी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतिक्षा कर रही थी|

उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गयें, वे सभी अपने बहन से बेहद स्नेह करते थें| उन्होने अपनी बहन का व्रत समाप्त कराने की योजना बनाई| और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी| बहन ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर, भोजन खा लिया| बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबियत खराब होने लगी| अपने पति की तबियत खराब होने की खबर सुन कर, वह अपने पति के पास ससुराल गई और रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिलें| पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृ्त्यु हो चुकी है, क्योकि तुमने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था|

यह सुनकर बहन ने अपनी भाईयों की करनी के लिये क्षमा मांगी| माता पार्वती ने कहा” कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जायेगा, लेकिन इसके लिये तुम्हें, करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा| इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई| माता के कहे अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया|

धर्म ग्रंथों में एक महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है| इसके अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर पांडवों पर कई प्रकार के संकटों से आन पड़ते हैं| यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं| श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उसे इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है| भगवान कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी विधि विधान सहित करवा चौथ का व्रत रखती हैं जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं|