भगवान विश्वकर्मा की पूजा से होती है धन-धान्य की प्राप्ति

शिल्प और यंत्रों के देवता भगवान विश्वकर्मा की जयंती (17 सितंबर) देश के कई हिस्सों में धूमधाम से मनाई जाती है। इस दिन औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे, मशीनों तथा औजारों से संबंधित कार्य करने वाले, वाहन शोरूम आदि में विश्वकर्मा की पूजा की जाती है। इस अवसर पर मशीनों और औजारों की साफ-सफाई आदि की जाती है और उन पर रंग किया जाता है।

भगवान विश्वकर्मा की जयंती वर्षाऋतु के अंत और शरदऋतु के शुरू में मनाए जाने की परंपरा रही है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, इसी दिन सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करते हैं। चूंकि सूर्य की गति अंग्रेजी तारीख से संबंधित है, इसलिए कन्या संक्रांति भी प्रतिवर्ष 17 सितंंबर को पड़ती है। जैसे मकर संक्रांति अमूमन 14 जनवरी को ही पड़ती है। ठीक उसी प्रकार कन्या संक्रांति भी प्राय: 17 सितंबर को ही पड़ती है। इसलिए विश्वकर्मा जयंती भी 17 सितंबर को ही मनाई जाती है।

कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थीं, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का ‘स्वर्ग लोक’, त्रेता युग की ‘लंका’, द्वापर की ‘द्वारिका’ और कलयुग का ‘हस्तिनापुर’ आदि विश्वकर्मा रचित ही थे। ‘सुदामापुरी’ की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता भी विश्वकर्मा थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। विश्वकर्मा को देवताओं के शिल्पी के रूप में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

भगवान विश्वकर्मा की महत्ता को सिद्ध करने वाली एक कथा भी है। कथा के अनुसार, काशी में धार्मिक आचरण रखने वाला एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह अपने कार्य में निपुण तो था, परंतु स्थान-स्थान पर घूमने और प्रयत्न करने पर भी वह भोजन से अधिक धन प्राप्त नहीं कर पाता था। उसके जीविकोपार्जन का साधन निश्चित नहीं था। पति के समान ही पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहती थी।

पुत्र प्राप्ति के लिए दोनों साधु-संतों के यहां जाते थे, लेकिन यह इच्छा पूरी न हो सकी। तब एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा, ‘तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी अवश्य ही इच्छा पूरी होगी और अमावस्या तिथि को व्रत कर भगवान विश्वकर्मा महात्म्य सुनो।’ इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने अमावस्या को भगवान विश्वकर्मा की पूजा की, जिससे उसे धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे। तभी से विश्वकर्मा की पूजा धूमधाम से की जाने लगी।

पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का महापर्व है पितृपक्ष

प्रतिवर्ष आश्विन मास में प्रौष्ठपदी पूर्णिमा से ही श्राद्ध आरंभ हो जाते है। इन्हें सोलह श्राद्ध भी कहते हैं। श्राद्ध महापर्व 17 सितंबर से शुरू हो रहा है। यह 30 सितंबर तक सर्वपितृ श्राद्ध तक चलेगा। 30 सिंतबर को केवल स्नान-दान की अमावस्या होगी। पितृपक्ष के दौरान वैदिक परंपरा के अनुसार ब्रह्म वैवर्त पुराण में यह निर्देश है कि इस संसार में आकर जो सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धा पूर्वक पितृपक्ष के दौरान पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराते है, उनको इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है| हिन्दू धर्म मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र- पौत्रों के यहां आते हैं|

श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है| श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है| पितरों को आहार तथा अपनी श्रद्धा पहुँचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है| मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड तथा दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को पितर कहा जाता है|

शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम तथा गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है| जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है| यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है| पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर माँस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में तथा मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है|

पितृ पक्ष का महत्व-

देवताओ से पहले पितरो को प्रसन्न करना अधिक कल्याणकारी होता है। देवकार्य से भी पितृकार्य का विशेष महत्व होता है| वायु पुराण ,मत्स्य पुराण ,गरुण पुराण, विष्णु पुराण आदि पुराणों तथा अन्य शास्त्रों जैसे मनुस्मृति इत्यादि में भी श्राद्ध कर्म के महत्व के बारे में बताया गया है| पूर्णिमा से लेकर अमावस्या के मध्य की अवधि अर्थात पूरे 16 दिनों तक पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये कार्य किये जाते है| पूरे 16 दिन नियम पूर्वक कार्य करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है| पितृ श्राद्ध पक्ष में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है| भोजन कराने के बाद यथाशक्ति दान – दक्षिणा दी जाती है|

श्राद्ध से पितृ दोष शान्ति-

आश्विन मास के कृ्ष्ण पक्ष में श्राद्ध कर्म द्वारा पूर्वजों की मृ्त्यु तिथि अनुसार तिल, कुशा, पुष्प, अक्षत, शुद्ध जल या गंगा जल सहित पूजन, पिण्डदान, तर्पण आदि करने के बाद ब्राह्माणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन, फल, वस्त्र, दक्षिणा आदि दान करने से पितृ दोष से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है| यदि किसी को अपने पितरों की मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो वह लोग इस समय अमावस्या तिथि के दिन अपने पितरों का श्राद्ध कर सकते हैं और पितृदोष की शांति करा सकते हैं| श्राद्ध समय सोमवती अमावस्या होने पर दूध की खीर बना, पितरों को अर्पित करने से पितर दोष से मुक्ति मिल सकती है|

श्राद्ध करते समय इन बातों का रखें विशेष ध्यान-

शास्त्रों में बताए गए विधि -विधान और नियम का सही से पालन श्राद्ध में करना चाहिए| श्राद्ध पक्ष में पितरों के श्राद्ध के समय कुछ विशेष वस्तुओं और सामग्री का उपयोग और निषेध बताया गया है।

1- श्राद्ध में सात पदार्थ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जैसे – गंगाजल, दूध, शहद, तरस का कपड़ा, दौहित्र, कुश और तिल।

2- शास्त्रों के अनुसार, तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णुलोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

3 – सोने, चांदी कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल का भी प्रयोग किया जा सकता है|

4 – रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं।

5 – आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

6 – केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है।

7 – चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

जाने पुत्र के न होने पर कौन-कौन कर सकता है श्राद्ध-

हिन्दू धर्म के मरणोपरांत संस्कारों को पूरा करने के लिए पुत्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। शास्त्रों में भी इस बात की पुष्टि की गई है, कि नरक से मुक्ति पुत्र द्वारा ही मिलती है। इसलिए पुत्र को ही श्राद्ध, पिंडदान करना चाहिए| यही कारण है कि नरक से रक्षा करने वाले पुत्र की कामना हर माता- पिता करते है। इसलिए हम आप को बताते है कि शास्त्रों के अनुसार पुत्र न होने पर कौन-कौन श्राद्ध का अधिकारी हो सकता है|

– पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए।

– पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है।

– पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए।

– एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है।

– पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं।

– पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

– पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है।

– पत्नी का श्राद्ध तभी कर सकता है, जब कोई पुत्र न हो।

– पुत्र, पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध का अधिकारी है।

– गोद में लिया पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है।

– कोई न होने पर राजा को उसके धन से श्राद्ध करने का भी विधान है।

विनीत कुमार वर्मा

बकरीद आज, जानिए क्या है इसके पीछे की कहानी



दुनिया में कोई भी कौम ऐसी नहीं है जो कोई एक खास दिन त्यौहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों में एक तो धार्मिक आस्था विशेष रूप से देखने को मिलती है दूसरा अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का अवसर मिलता है। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं के पास दीपावली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन अर्थात क्रिसमस है तो सिखों की ईद गुरु पर्व है। इस्लाम में मुख्यत: दो त्योहारों का जिक्र आता है। पहला है ईद-उल-फितर। इसे मीठी ईद और छोटी ईद भी कहा जाता है। यह त्यौहार रमजान के 30 रोजे रखने के बाद मनाया जाता है। दूसरा है ईद-उल-जुहा। इसे ईद-उल-अजहा अथवा बकरा-ईद (बकरीद) और बड़ी ईद भी कहा जाता हैं। इस बार ईद-उल-जुहा 13 सितंबर दिन मंगलवार को है| 

ईद-उल-जुहा हज के बाद मनाया जाने वाला त्यौहार है। इस्लाम के 5 फर्ज होते हैं, हज उनमें से आखिरी फर्ज माना जाता है। हर मुसलमान के लिए अपनी सहूलियत के हिसाब से जिंदगी में एक बार हज करना जरूरी है। हज के संपूर्ण होने की खुशी में बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। पर यह बलिदान का त्यौहार भी है। इस्लाम में बलिदान का बहुत अधिक महत्व है। कहा गया है कि अपनी सबसे प्यारी चीज रब की राह में खर्च करो। रब की राह में खर्च करने का अर्थ नेकी और भलाई के कामों से लिया जाता है।

कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानि अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्यौहार ईद-उल-जुहा। वैसे बकरीद शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह (कुर्बान) किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। वास्तव में कुर्बानी का असल अर्थ ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। 

जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की कुर्बानी दी। यहां तक कि उन्होंने अपने सबसे प्यारे बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा। हजरत इब्राहीम चूंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे इसलिए उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है। कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जिलहिज्जा (अर्थात हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है, "हमने तुम्हें हौज-ए-कौसर दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।"

वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : "जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। गैर मुसलिमों के दिल को चोट न पहुंचे इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदू बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय कुर्बान की सख्त मनाही की थी क्योंकि हमारे देश में गाय को गोमाता के नाम से माना जाता है। यह करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ी है इसलिए सरकार ने गाय की कुर्बानी करने पर पाबंदी लगायी है।

बकरीद वास्तव में न सिर्फ अकबर व जहांगीर के समय धूम धाम से मनाया जाता था बल्कि आज भी ईद-उल- जुहा का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।

आइये एक नज़र ईद-उल-जुहा के इतिहास पर डालें। ईद-उल-जुहा का इतिहास बहुत पुराना है जो हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। इब्राहीम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी उनके दुश्मन हो गए। हजरत इब्राहीम का ज्यादातर जीवन रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में जनसेवा में बीता। संतानहीन होने के कारण उन्होंने एक संतान प्राप्ति के लिए खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की थी जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा हुआ। उन्होंने अपने इस फूल से बेटे का नाम इस्माईल रखा। 

जब इस्माईल की उम्र 11 साल से भी कम थी तो एक दिन हजरत इब्राहीम ने एक ख़्वाब देखा, जिसमें उन्हें यह आदेश हुआ कि खुदा की राह में सबसे प्यारी चीज कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। इतना होने पर हजरत इब्राहीम समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और उन्होंने अपनी पत्नी हाजरा से अपने प्यारे लाडले को नहला-धुलाकर कुर्बानी के लिए तैयार करने को कहा। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं। 

हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बुढ़ापे में रेगिस्तान में पत्नी और बच्चे को छोड़ आए। बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर उस बीहड़ रेगिस्तान में पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने लगा। यह देखकर हजरत जिब्रईल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा अर्था तालाब जारी हो जाए। पानी का फव्वारा हजरत इस्माईल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माईल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब हाजरा को यह पता चला कि अल्लाह के नाम पर उनके प्यारे बेटे का गला उनके पिता द्वारा ही काटा जाएगा, तो हाजरा स्तब्ध हो गईं। मानों वह मां नहीं, कोई पत्थर की मूरत हों। 

जब हजरत इब्राहीम अपने प्यारे बेटे इस्माईल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो शैतान (इबलीस) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे हुए बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद रहा है और उसकी जगह जन्नत से एक दुम्बा भेजा गया और उसकी कुर्बानी हुई। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से जिलहिज्जा के महीने में जानवर की कुर्बानी देने की परंपरा चली आ रही है।

डेंगू और कैंसर की महान औषधि है यह बेल



गिलोय या गुर्च एक प्रकार की लता/बेल है, जिसके पत्ते पान के पत्ते की तरह होते है। यह इतनी अधिक गुणकारी होती है, कि इसका नाम अमृता रखा गया है। आयुर्वेद में गिलोय को बुखार और कैंसर की एक महान औषधि के रूप में माना गया है। गिलोय का रस पीने से शरीर में पाए जाने वाली विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ दूर होने लगती हैं। गिलोय की पत्तियों में कैल्शियम, प्रोटीन तथा फास्फोरस पाए जाते है। यह वात, कफ और पित्त नाशक होती है। यह हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक शक्ति को बढाने में सहायता करती है। इसमें विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक तथा एंटीवायरल तत्व पाए जाते है जिनसे शारीरिक स्वास्थ्य को लाभ पहुँचता है। यह गरीब के घर की डॉक्टर है क्योंकि यह गाँवो में सहजता से मिल जाती है।

गिलोय में प्राकृतिक रूप से शरीर के दोषों को संतुलित करने की क्षमता पाई जाती है। गिलोय एक बहुत ही महत्वपूर्ण आयुर्वेदिक जडीबूटी है। गिलोय बहुत शीघ्रता से फलने फूलनेवाली बेल होती है। गिलोय की टहनियों को भी औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। गिलोय की बेल जीवन शक्ति से भरपूर होती है, क्योंकि इस बेल का यदि एक छोटा-सा टुकडा भी जमीन में डाल दिया गया तो वहाँ पर एक नया पौधा बन जाता है। तो आइये बात करें इस गुर्च के फायदे-

गिलोय में हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढाने का एक बहुत ही महत्वपूर्ण गुण पाए जाते है। गिलोय में एंटीऑक्सीडंट के विभिन्न गुण पाए जाते हैं, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य बना रहता है, तथा भिन्न प्रकार की खतरनाक बीमारियाँ दूर रखने में सहायता मिलती है। गिलोय हमारे लीवर तथा किडनी में पाए जाने वाले रासायनिक विषैले पदार्थों को बाहर निकालने का कार्य भी करता है। गिलोय हमारे शरीर में होनेवाली बीमारीयों के कीटाणुओं से लड़कर लीवर तथा मूत्र संक्रमण जैसी समस्याओं से हमारे शरीर को सुरक्षा प्रदान करता है।

गिलोय की वजह से लंबे समय तक चलने वाले बुखार को ठीक होने में काफी लाभ होता है। गिलोय में ज्वर से लड़ने वाले गुण पाए जाते हैं। गिलोय हमारे शरीर में होने वाली जानलेवा बीमारियों के लक्षणों को उत्पन्न होने से रोकने में बहुत ही सहायक होता है। यह हमारे शरीर में रक्त के प्लेटलेट्स की मात्रा को बढ़ाता है जो कि किसी भी प्रकार के ज्वर से लड़ने में उपयोगी साबित होता है। डेंगु जैसे ज्वर में भी गिलोय का रस बहुत ही उपयोगी साबित होता है। यदि मलेरिया के इलाज के लिए गिलोय के रस तथा शहद को बराबर मात्रा में मरीज को दिया जाए तो बडी सफलता से मलेरिया का इलाज होने में काफी मदद मिलती है। पाचन क्रिया करता है दुरुस्त – गिलोय की वजह से शारीरिक पाचन क्रिया भी संयमित रहती है। विभिन्न प्रकार की पेट संबंधी समस्याओं को दूर करने में गिलोय बहुत ही प्रचलित है। हमारे पाचनतंत्र को सुनियमित बनाने के लिए यदि एक ग्राम गिलोय के पावडर को थोडे से आंवला पावडर के साथ नियमित रूप से लिया जाए तो काफी फायदा होता है। बवासीर से पीडित मरीज को यदि थोडा सा गिलोय का रस छांछ के साथ मिलाकर देने से मरीज की तकलीफ कम होने लगती है।

अगर आपके शरीर में रक्त में पाए जाने वाली शुगर की मात्रा अधिक है तो गिलोय के रस को नियमित रूप से पीने से यह मात्रा भी कम होने लगती है। 6 उच्च रक्तचाप को करे नियंत्रित – गिलोय हमारे शरीर के रक्तचाप को नियमित करता है। अस्थमा एक प्रकार की अत्यंत ही खतरनाक बीमारी है, जिसकी वजह से मरीज को भिन्न प्रकार की तकलीफों का सामना करना पडता है, जैसे छाती में कसाव आना, साँस लेने में तकलीफ होना, अत्याधिक खांसी होना तथा सांसो का तेज तेज रूप से चलना। कभी कभी ऐसी परिस्थिती को काबू में लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। लेकिन क्या आप जानते है, कि अस्थमा के उपर्युक्त लक्षणों को दूर करने का सबसे आसान उपाय है, गिलोय का प्रयोग करना। जी हाँ अक्सर अस्थमा के मरीजों की चिकित्सा के लिए गिलोय का प्रयोग बडे पैमाने पर किया जाता है, तथा इससे अस्थमा की समस्या से छुटकारा भी मिलने लगता है।

इसके अलावा कैसर में भी काफी लाभदायक सिद्ध होती है। यदि किसी भी व्यक्ति को कैसर हो गया है तो उस व्यक्ति को प्रतिदिन गिलोय की एक टहनी एक फिट, तुलसी के 7 पत्ते, नीम के 7 पत्ते इसके अलावा, गेहूं के ग्वार को सिलबट्टे पर पीसकर उसका रस निकाल ले उसके बाद उस रस को आप दिन में दो बार कैसर रोगी को दें और उसके एक सप्ताह बाद इसका लाभ देखें। ध्यान रहे गिलोय वही सबसे अच्छा होता है जो नीम के पेड़ पर चढ़ा होता है। इसलिए नीम के पेड़ पर चढ़े हुए गिलोय का ही चुनाव करें।

अगर आपको एनीमिया है तो गिलोय के पत्तों का इस्तेमाल करना आपके लिए बहुत फायदेमंद रहेगा। गिलोय खून की कमी दूर करने में सहायक है। इसे घी और शहद के साथ मिलाकर लेने से खून की कमी दूर होती है। पीलिया के मरीजों के लिए गिलोय लेना बहुत ही फायदेमंद है। कुछ लोग इसे चूर्ण के रूप में लेते हैं तो कुछ इसकी पत्त‍ियों को पानी में उबालकर पीते हैं। अगर आप चाहें तो गिलोय की पत्त‍ियों को पीसकर शहद के साथ मिलाकर भी ले सकते हैं। इससे पीलिया में फायदा होता है और मरीज जल्दी स्वस्थ हो जाता है।

कुछ लोगों को पैरों में बहुत जलन होती है। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी हथेलियां हमेशा गर्म बनी रहती हैं। ऐसे लोगों के लिए गिलोय बहुत फायदेमंद है। गिलोय की पत्त‍ियों को पीसकर उसका पेस्ट तैयार कर लें और उसे सुबह-शाम पैरों पर और हथेलियों पर लगाएं। अगर आप चाहें तो गिलोय की पत्त‍ियों का काढ़ा भी पी सकते हैं. इससे भी फायदा होगा।

अगर आपके कान में दर्द है तो भी गिलोय की पत्त‍ियों का रस निकाल लें। इसे हल्का गुनगुना कर लें. इसकी एक-दो बूंद कान में डालें. इससे कान का दर्द ठीक हो जाएगा। पेट से जुड़ी कई बीमारियों में गिलोय का इस्तेमाल करना फायदेमंद होता है। इससे कब्ज और गैस की प्रॉब्लम नहीं होती है और पाचन क्रिया भी दुरुस्त रहती है।

गंभीर स्वास्थ्य समस्या के प्रति सचेत करते हैं कंधों पर जाते शव


नई दिल्ली: ओडिशा में हाल में अपनी पत्नी का शव 12 किलोमीटर तक कंधे पर ढोने के लिए मजबूर दाना मांझी की तस्वीरें हों या कानपुर में पिता के कंधे पर दम तोड़ती बीमार बेटे की तस्वीरें लापरवाही के एक-दो मामले भर नहीं हैं, बल्कि देश की गंभीर स्वास्थ्य समस्या के प्रति सचेत करतीं तस्वीरें हैं। ये तस्वीरें उन लाखों लोगों की कहानियां कहती हैं, जिन्हें आज भी बीमारों से भरे पड़े अस्पतालों में जगह नहीं मिल पाती या चिकित्सा सुविधाओं का अभाव झेलना पड़ता है।

सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर कहा है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के प्रति 1,000 व्यक्ति पर एक चिकित्सक के मानक को आधार बनाया जाए तो भारत में इस समय पांच लाख चिकित्सकों की कमी है। आठ मार्च, 2016 को संसद में पेश किए गए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मामले पर एक संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 2014 में देश में चिकित्सकों की संख्या 740,000 थी, जिसके अनुसार देश में चिकित्सकों और रोगियों के बीच अनुपात 1:1,674 हुआ, जो वितयनाम, अल्जीरिया और पाकिस्तान से भी कमतर है।

समिति ने देश में चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता के नियामक 'मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया' की जांच करने वाली इस समिति ने निजी मेडिकल कॉलेजों में अवैध शुल्क, देश के शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सेवाओं में अंतर तथा चिकित्सीय शिक्षा प्रणाली और जनस्वास्थ्य के बीच विसंगति जैसे विषयों की भी पड़ताल की। देश में हर साल पढ़कर निकलने वाले 55,000 चिकित्सकों में 55 फीसदी से अधिक चिकित्सक निजी मेडिकल कॉलेजों से आते हैं और उनमें से अधिकांश निजी मेडिकल कॉलेज विद्यार्थियों से शुल्क के नाम पर अतिरिक्त अवैध राशि वसूलते हैं।

समाचार पत्र 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में 26 अगस्त, 2016 को प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, तमिलनाडु का ही उदाहरण लें, तो वहां निजी मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने में एक विद्यार्थी को आम तौर पर दो करोड़ रुपये का शुल्क अदा करना पड़ता है। असंतुलन की स्थिति मेडिकल कॉलेज की उपलब्धता से ही शुरू हो जाती है। देश की आधी आबादी का भार ढोने वाले राज्यों में देश की कुल एमबीबीएस सीटों का पांचवां हिस्सा आता है।

संसदीय समिति को गवाही देने वाले एक विशेषज्ञ ने नाम उजागर न करने की शर्त पर बताया, "भारत की कुल आबादी का 31 फीसदी वहन करने वाले छह राज्यों में एमबीबीएस की 58 फीसदी सीटें हैं। वहीं 46 फीसदी आबादी वहन करने वाले आठ राज्यों में 21 फीसदी सीटें ही उपलब्ध हैं।" देश के आर्थिक रूप से पिछड़े राज्यों में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति दुनिया के उन देशों से भी बदतर है, जो भारत से आर्थिक मामले में काफी पीछे हैं। ब्रिक्स देशों (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) में भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे कम खर्च करने वाला देश है।

एक अन्य विशेषज्ञ ने भी नाम न छापने की शर्त पर बताया कि पूरे देश में हर वर्ष 55,000 एमबीबीएस डिग्रीधारी चिकित्सक निकलते हैं, जबकि 25,000 स्नातकोत्तर डिग्रीधारी चिकित्सक। उन्होंने कहा, "संसदीय समिति को बताया कि चिकित्सक रातों-रात पैदा नहीं किए जा सकते। यहां तक कि यदि अगले पांच वर्षो तक हर साल 100 नए मेडिकल कॉलेज खोले जाएं, तो भी देश में 2029 तक जाकर पर्याप्त चिकित्सक हो पाएंगे।" स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से प्रकाशित ई-पुस्तक के अनुसार, केंद्र सरकार ने पिछले दो वर्ष में 1,765 सीटों वाले 22 नए मेडिकल कॉलेज स्थापित किए जाने को मंजूरी दी है।

नीति आयोग ने देश की स्वास्थ्य सेवा एवं चिकित्सकीय शिक्षा अवसंरचना के मूल्यांकन के लिए 'राष्ट्रीय शिक्षा आयोग विधेयक-2016' का मसौदा तैयार किया है।

मध्य रात्रि में श्रीकृष्ण का अवतरण

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥

गीता की इस अवधारण द्वारा भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब जब धर्म का नाश होता है तब तब मैं स्वयं इस पृथ्वी पर अवतार लेता हूँ और अधर्म का नाश करके धर्म कि स्थापना करता हूँ। अत: जब असुर एवं राक्षसी प्रवृतियों द्वारा पाप का आतंक व्याप्त होता है तब-तब भगवान विष्णु किसी न किसी रूप में अवतरित होकर इन पापों का शमन करते हैं। भगवान विष्णु इन समस्त अवतारों में से एक महत्वपूर्ण अवतार श्रीकृष्ण का रहा। भगवान स्वयं जिस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे उस पवित्र तिथि को कृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। भगवान श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का यह उत्सव हिंदुओं का एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। भगवान विष्णु के अवतार रूप में श्रीकृष्ण जी का अवतरण भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को रोहिणी नक्षत्र में देवकी व श्रीवसुदेव के पुत्ररूप में हुआ था। इस वर्ष जन्माष्टमी का त्यौहार 25 अगस्त को मनाया जाएगा। 


जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के मथुरा-वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्‍यौहार को 'कृष्‍णाष्‍टमी' अथवा 'गोकुलाष्‍टमी' के नाम से भी जाना जाता है। श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु कृष्ण का श्रृंगार कर उनकी पूजा अर्चना की जाती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा करते हैं। जो व्यक्ति जन्माष्टमी के व्रत को करता है, वह ऐश्वर्य और मुक्ति को प्राप्त करता है। आयु, कीर्ति, यश, लाभ, पुत्र व पौत्र को प्राप्त कर इसी जन्म में सभी प्रकार के सुखों को भोग कर अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। जो मनुष्य भक्तिभाव से श्रीकृष्ण की कथा को सुनते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं।


एक बार इंद्र ने नारद जी से कहा है- हे ब्रह्मपुत्र, हे मुनियों में श्रेष्ठ, सभी शास्त्रों के ज्ञाता, व्रतों में उत्तम उस व्रत को बताएँ, जिस व्रत से मनुष्यों को मुक्ति, लाभ प्राप्त हो तथा प्राणियों को भोग व मोक्ष भी प्राप्त हो जाए। इंद्र की बातों को सुनकर देवर्षि ने कहा- त्रेतायुग के अन्त में और द्वापर युग के प्रारंभ समय में निन्दितकर्म को करने वाला कंस नाम का एक अत्यंत पापी दैत्य हुआ। उस दुष्ट व नीच कर्मी दुराचारी कंस की देवकी नाम की एक सुंदर बहन थी। देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र कंस का वध करेगा। नारदजी की बातें सुनकर इंद्र ने कहा- हे महामते! उस दुराचारी कंस की कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए। क्या यह संभव है कि देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र अपने मामा कंस की हत्या करेगा। इंद्र की सन्देहभरी बातों को सुनकर नारदजी ने कहा-हे इंद्र! एक समय की बात है। उस दुष्ट कंस ने एक ज्योतिषी से पूछा कि ब्राह्मणों में श्रेष्ठ ज्योतिर्विद! मेरी मृत्यु किस प्रकार और किसके द्वारा होगी। ज्योतिषी बोले-हे दानवों में श्रेष्ठ कंस! वसुदेव की धर्मपत्नी देवकी जो वाक्‌पटु है और आपकी बहन भी है। उसी के गर्भ से उत्पन्न उसका आठवां पुत्र जो कि शत्रुओं को भी पराजित कर इस संसार में 'कृष्ण' के नाम से विख्यात होगा, वही एक समय सूर्योदयकाल में आपका वध करेगा।


ज्योतिषी की बातें सुनकर कंस ने कहा- हे दैवज, बुद्धिमानों में अग्रण्य अब आप यह बताएं कि देवकी का आठवां पुत्र किस मास में किस दिन मेरा वध करेगा। ज्योतिषी बोले- हे महाराज! माघ मास की शुक्ल पक्ष की तिथि को सोलह कलाओं से पूर्ण श्रीकृष्ण से आपका युद्ध होगा। उसी युद्ध में वे आपका वध करेंगे। इसलिए हे महाराज! आप अपनी रक्षा यत्नपूर्वक करें। इतना बताने के पश्चात नारदजी ने इंद्र से कहा- ज्योतिषी द्वारा बताए गए समय पर हीकंस की मृत्युकृष्ण के हाथ निःसंदेह होगी। तब इंद्र ने कहा- हे मुनि! उस दुराचारी कंस की कथा का वर्णन कीजिए, और बताइए कि कृष्ण का जन्म कैसे होगा तथा कंस की मृत्यु कृष्ण द्वारा किस प्रकार होगी।


इंद्र की बातों को सुनकर नारदजी ने पुनः कहना प्रारंभ किया- उस दुराचारी कंस ने अपने एक द्वारपाल से कहा- मेरी इस प्राणों से प्रिय बहन की पूर्ण सुरक्षा करना। द्वारपाल ने कहा- ऐसा ही होगा। कंस के जाने के पश्चात उसकी छोटी बहन दुःखित होते हुए जल लेने के बहाने घड़ा लेकर तालाब पर गई। उस तालाब के किनारे एक घनघोर वृक्ष के नीचे बैठकर देवकी रोने लगी। उसी समय एक सुंदर स्त्री जिसका नाम यशोदा था, उसने आकर देवकी ने उनके विलाप का कारण पूछा| तब दुःखित देवकी ने यशोदा से कहा- हे बहन! नीच कर्मों में आसक्त दुराचारी मेरा ज्येष्ठ भ्राता कंस है। उस दुष्ट भ्राता ने मेरे कई पुत्रों का वध कर दिया। इस समय मेरे गर्भ में आठवाँ पुत्र है। वह इसका भी वध कर डालेगा। इस बात में किसी प्रकार का संशय या संदेह नहीं है, क्योंकि मेरे ज्येष्ठ भ्राता को यह भय है कि मेरे अष्टम पुत्र से उसकी मृत्यु अवश्य होगी।


देवकी की बातें सुनकर यशोदा ने कहा- हे बहन! विलाप मत करो। मैं भी गर्भवती हूँ। यदि मुझे कन्या हुई तो तुम अपने पुत्र के बदले उस कन्या को ले लेना। इस प्रकार तुम्हारा पुत्र कंस के हाथों मारा नहीं जाएगा। तदनन्तर कंस ने अपने द्वारपाल से पूछा- देवकी कहाँ है? इस समय वह दिखाई नहीं दे रही है। तब द्वारपाल ने कंस से नम्रवाणी में कहा- हे महाराज! आपकी बहन जल लेने तालाब पर गई हुई हैं। यह सुनते ही कंस क्रोधित हो उठा और उसने द्वारपाल को उसी स्थान पर जाने को कहा जहां वह गई हुई है। द्वारपाल की दृष्टि तालाब के पास देवकी पर पड़ी। तब उसने कहा कि आप किस कारण से यहां आई हैं। उसकी बातें सुनकर देवकी ने कहा कि मेरे गृह में जल नहीं था, जिसे लेने मैं जलाशय पर आई हूँ। इसके पश्चात देवकी अपने गृह की ओर चली गई।


कंस ने पुनः द्वारपाल से कहा कि इस गृह में मेरी बहन की तुम पूर्णतः रक्षा करो। अब कंस को इतना भय लगने लगा कि गृह के भीतर दरवाजों में विशाल ताले बंद करवा दिए और दरवाजे के बाहर दैत्यों और राक्षसों को पहरेदारी के लिए नियुक्त कर दिया। कंस हर प्रकार से अपने प्राणों को बचाने के प्रयास कर रहा था। एक समय सिंह राशि के सूर्य में आकाश मंडल में जलाधारी मेघों ने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। भादौ मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को घनघोर अर्द्धरात्रि थी। उस समय चंद्रमा भी वृष राशि में था, रोहिणी नक्षत्र बुधवार के दिन सौभाग्ययोग से संयुक्त चंद्रमा के आधी रात में उदय होने पर आधी रात के उत्तर एक घड़ी जब हो जाए तो श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फल निःसंदेह प्राप्त होता है।


इस प्रकार बताते हुए नारदजी ने इंद्र से कहा- ऐसे विजय नामक शुभ मुहूर्त में श्रीकृष्ण का जन्म हुआ और श्रीकृष्ण के प्रभाव से ही उसी क्षण बन्दीगृह के दरवाजे स्वयं खुल गए। द्वार पर पहरा देने वाले पहरेदार राक्षस सभी मूर्च्छित हो गए। देवकी ने उसी क्षण अपने पति वसुदेव से कहा- हे स्वामी! आप निद्रा का त्याग करें और मेरे इस अष्टम पुत्र को गोकुल में ले जाएँ, वहाँ इस पुत्र को नंद गोप की धर्मपत्नी यशोदा को दे दें। उस समय यमुनाजी पूर्णरूपसे बाढ़ग्रस्त थीं, किन्तु जब वसुदेवजी बालक कृष्ण को सूप में लेकर यमुनाजी को पार करने के लिए उतरे उसी क्षण बालक के चरणों का स्पर्श होते ही यमुनाजी अपने पूर्व स्थिर रूप में आ गईं। किसी प्रकार वसुदेवजी गोकुल पहुँचे और नंद के गृह में प्रवेश कर उन्होंने अपना पुत्र तत्काल उन्हें दे दिया और उसके बदले में उनकी कन्या ले ली। वे तत्क्षण वहां से वापस आकर कंस के बंदी गृह में पहुँच गए।


प्रातःकाल जब सभी राक्षस पहरेदार निद्रा से जागे तो कंस ने द्वारपाल से पूछा कि अब देवकी के गर्भ से क्या हुआ? इस बात का पता लगाकर मुझे बताओ। द्वारपालों ने महाराज की आज्ञा को मानते हुए कारागार में जाकर देखा तो वहाँ देवकी की गोद में एक कन्या थी। जिसे देखकर द्वारपालों ने कंस को सूचित किया, किन्तु कंस को तो उस कन्या से भय होने लगा। अतः वह स्वयं कारागार में गया और उसने देवकी की गोद से कन्या को झपट लिया और उसे एक पत्थर की चट्टान पर पटक दिया किन्तु वह कन्या विष्णु की माया से आकाश की ओर चली गई और अंतरिक्ष में जाकर विद्युत के रूप में परिणित हो गई।


उसने कंस से कहा कि हे दुष्ट! तुझे मारने वाला गोकुल में नंद के गृह में उत्पन्न हो चुका है और उसी से तेरी मृत्यु सुनिश्चित है। मेरा नाम तो वैष्णवी है, मैं संसार के कर्ता भगवान विष्णु की माया से उत्पन्न हुई हूँ, इतना कहकर वह स्वर्ग की ओर चली गई। उस आकाशवाणी को सुनकर कंस क्रोधित हो उठा। उसने नंदजी के गृह में पूतना राक्षसी को कृष्ण का वध करने के लिए भेजा किन्तु जब वह राक्षसी कृष्ण को स्तनपान कराने लगी तो कृष्ण ने उसके स्तन से उसके प्राणों को खींच लिया और वह राक्षसी कृष्ण-कृष्ण कहते हुए मृत्यु को प्राप्त हुई।


जब कंस को पूतना की मृत्यु का समाचार प्राप्त हुआ तो उसने कृष्ण का वध करने के लिए क्रमशः केशी नामक दैत्य को अश्व के रूप में उसके पश्चात अरिष्ठ नामक दैत्य को बैल के रूप में भेजा, किन्तु ये दोनों भी कृष्ण के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए। इसके पश्चात कंस ने काल्याख्य नामक दैत्य को कौवे के रूप में भेजा, किन्तु वह भी कृष्ण के हाथों मारा गया। अपने बलवान राक्षसों की मृत्यु के आघात से कंस अत्यधिक भयभीत हो गया। उसने द्वारपालों को आज्ञा दी कि नंद को तत्काल मेरे समक्ष उपस्थित करो। द्वारपाल नंद को लेकर जब उपस्थित हुए तब कंस ने नंदजी से कहा कि यदि तुम्हें अपने प्राणों को बचाना है तो पारिजात के पुष्प ले लाओ। यदि तुम नहीं ला पाए तो तुम्हारा वध निश्चित है।


कंस की बातों को सुनकर नंद ने 'ऐसा ही होगा' कहा और अपने गृह की ओर चले गए। घर आकर उन्होंने संपूर्ण वृत्तांत अपनी पत्नी यशोदा को सुनाया, जिसे श्रीकृष्ण भी सुन रहे थे। एक दिन श्रीकृष्ण अपने मित्रों के साथ यमुना नदी के किनारे गेंद खेल रहे थे और अचानक स्वयं ने ही गेंद को यमुना में फेंक दिया। यमुना में गेंद फेंकने का मुख्य उद्देश्य यही था कि वे किसी प्रकार पारिजात पुष्पों को ले आएँ। अतः वे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर यमुना में कूद पड़े।कृष्ण के यमुना में कूदने का समाचार श्रीधर नामक गोपाल ने यशोदा को सुनाया। यह सुनकर यशोदा भागती हुई यमुना नदी के किनारे आ पहुँचीं और उसने यमुना नदी की प्रार्थना करते हुए कहा- हे यमुना! यदि मैं बालक को देखूँगी तो भाद्रपद मास की रोहिणी युक्त अष्टमी का व्रत अवश्य करूंगी क्योंकि दया, दान, सज्जन प्राणी, ब्राह्मण कुल में जन्म, रोहिणियुक्त अष्टमी, गंगाजल, एकादशी, गया श्राद्ध और रोहिणी व्रत ये सभी दुर्लभ हैं।


हजारों अश्वमेध यज्ञ, सहस्रों राजसूय यज्ञ, दान तीर्थ और व्रत करने से जो फल प्राप्त होता है, वह सब कृष्णाष्टमी के व्रत को करने से प्राप्त हो जाता है। यह बात नारद ऋषि ने इंद्र से कही। इंद्र ने कहा- हे मुनियों में श्रेष्ठ नारद! यमुना नदी में कूदने के बाद उस बालरूपी कृष्ण ने पाताल में जाकर क्या किया? यह संपूर्ण वृत्तांत भी बताएँ। नारद ने कहा- हे इंद्र! पाताल में उस बालक से नागराज की पत्नी ने कहा कि तुम यहाँ क्या कर रहे हो, कहाँ से आए हो और यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?


नागपत्नी बोलीं- हे कृष्ण! क्या तूने द्यूतक्रीड़ा की है, जिसमें अपना समस्त धन हार गया है। यदि यह बात ठीक है तो कंकड़, मुकुट और मणियों का हार लेकर अपने गृह में चले जाओ क्योंकि इस समय मेरे स्वामी शयन कर रहे हैं। यदि वे उठ गए तो वे तुम्हारा भक्षण कर जाएँगे। नागपत्नी की बातें सुनकर कृष्ण ने कहा- 'हे कान्ते! मैं किस प्रयोजन से यहाँ आया हूँ, वह वृत्तांत मैं तुम्हें बताता हूँ। समझ लो मैं कालियानाग के मस्तक को कंस के साथ द्यूत में हार चुका हूं और वही लेने मैं यहाँ आया हूँ। बालक कृष्ण की इस बात को सुनकर नागपत्नी अत्यंत क्रोधित हो उठीं और अपने सोए हुए पति को उठाते हुए उसने कहा- हे स्वामी! आपके घर यह शत्रु आया है। अतः आप इसका हनन कीजिए।


अपनी स्वामिनी की बातों को सुनकर कालियानाग निन्द्रावस्था से जाग पड़ा और बालक कृष्ण से युद्ध करने लगा। इस युद्ध में कृष्ण को मूर्च्छा आ गई, उसी मूर्छा को दूर करने के लिए उन्होंने गरुड़ का स्मरण किया। स्मरण होते ही गरुड़ वहाँ आ गए। श्रीकृष्ण अब गरुड़ पर चढ़कर कालियानाग से युद्ध करने लगे और उन्होंने कालियनाग को युद्ध में पराजित कर दिया।


अब कालियानाग ने भलीभांति जान लिया था कि मैं जिनसे युद्ध कर रहा हूँ, वे भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ही हैं। अतः उन्होंने कृष्ण के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया और पारिजात से उत्पन्न बहुत से पुष्पों को मुकुट में रखकर कृष्ण को भेंट किया। जब कृष्ण चलने को हुए तब कालियानाग की पत्नी ने कहा हे स्वामी! मैं कृष्ण को नहीं जान पाई। हे जनार्दन मंत्र रहित, क्रिया रहित, भक्तिभाव रहित मेरी रक्षा कीजिए। हे प्रभु! मेरे स्वामी मुझे वापस दे दें। तब श्रीकृष्ण ने कहा- हे सर्पिणी! दैत्यों में जो सबसे बलवान है, उस कंस के सामने मैं तेरे पति को ले जाकर छोड़ दूँगा अन्यथा तुम अपने गृह को चली जाओ। अब श्रीकृष्ण कालियानाग के फन पर नृत्य करते हुए यमुना के ऊपर आ गए।


तदनन्तर कालिया की फुंकार से तीनों लोक कम्पायमान हो गए। अब कृष्ण कंस की मथुरा नगरी को चल दिए। वहां कमलपुष्पों को देखकर यमुनाके मध्य जलाशय में वह कालिया सर्प भी चला गया। इधर कंस भी विस्मित हो गया तथा कृष्ण प्रसन्नचित्त होकर गोकुल लौट आए। उनके गोकुल आने पर उनकी माता यशोदा ने विभिन्न प्रकार के उत्सव किए। अब इंद्र ने नारदजी से पूछा- हे महामुने! संसार के प्राणी बालक श्रीकृष्ण के आने पर अत्यधिक आनंदित हुए। आखिर श्रीकृष्ण ने क्या-क्या चरित्र किया? वह सभी आप मुझे बताने की कृपा करें। नारद ने इंद्र से कहा- मन को हरने वाला मथुरा नगर यमुना नदी के दक्षिण भाग में स्थित है। वहां कंस का महाबलशायी भाई चाणूर रहता था। उस चाणूर से श्रीकृष्ण के मल्लयुद्ध की घोषणा की गई। हे इंद्र! कृष्ण एवं चाणूर का मल्लयुद्ध अत्यंत आश्चर्यजनक था। चाणूर की अपेक्षा कृष्ण बालरूप में थे। भेरी शंख और मृदंग के शब्दों के साथ कंस और केशी इस युद्ध को मथुरा की जनसभा के मध्य में देख रहे थे।


श्रीकृष्ण ने अपने पैरों को चाणूर के गले में फँसाकर उसका वध कर दिया। चाणूर की मृत्यु के पश्चात उनका मल्लयुद्ध केशी के साथ हुआ। अंत में केशी भी युद्ध में कृष्ण के द्वारा मारा गया। केशी के मृत्युपरांत मल्लयुद्ध देख रहे सभी प्राणी श्रीकृष्ण की जय-जयकार करने लगे। बालक कृष्ण द्वारा चाणूर और केशी का वध होना कंस के लिए अत्यंत हृदय विदारक था। अतः उसने सैनिकों को बुलाकर उन्हें आज्ञा दी कि तुम सभी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर कृष्ण से युद्ध करो। हे इंद्र! उसी क्षण श्रीकृष्ण ने गरुड़, बलराम तथा सुदर्शन चक्र का ध्यान किया, सुदर्शन चक्र को लेकर गरुड़ की पीठ पर बैठकर न जाने कितने ही राक्षसों और दैत्यों का वध कर दिया, कितनों के शरीर अंग-भंग कर दिए। इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलदेव ने असंख्य दैत्यों का वध किया। बलरामजी ने अपने आयुध शस्त्र हल से और कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को विशाल दैत्यों के समूह का सर्वनाश किया।


जब अन्त में केवल दुराचारी कंस ही बच गया तो कृष्ण ने कहा- हे दुष्ट, अधर्मी, दुराचारी अब मैं इस महायुद्ध स्थल पर तुझसे युद्ध कर तथा तेरा वध कर इस संसार को तुझसे मुक्त कराऊँगा। यह कहते हुए श्रीकृष्ण ने उसके केशों को पकड़ लिया और कंस को घुमाकर पृथ्वी पर पटक दिया, जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। कंस के मरने पर देवताओं ने शंखघोष व पुष्पवृष्टि की। वहां उपस्थित समुदाय श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर रहा था। कंस की मृत्यु पर नंद, देवकी, वसुदेव, यशोदा और इस संसार के सभी प्राणियों ने हर्ष पर्व मनाया।


गोविंदा आला रे...


पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं नृत्‍य किया जाता है। मथुरा व महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है, इनसे दही व मक्‍खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे। यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।


विनीत कुमार वर्मा

बहुत पुरानी है रक्षाबंधन की परंपरा

रक्षाबंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है। श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार का प्रतीक है। इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं। भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है। इस वर्ष यह त्यौहार 18 अगस्त दिन गुरूवार को मनाया जायेगा| रक्षा बंधन का त्यौहार भाई बहन के प्रेम का प्रतीक होकर चारों ओर अपनी छटा को बिखेरता सा प्रतीत होता है। सात्विक एवं पवित्रता का सौंदर्य लिए यह त्यौहार सभी जन के हृदय को अपनी खुशबू से महकाता है। इतना पवित्र पर्व यदि शुभ मुहूर्त में किया जाए तो इसकी शुभता और भी अधिक बढ़ जाती है।

भाई बहन का यह पावन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है भविष्य पुराण में भी इसका व्याख्यान किया गया है। एक बार दानवों और देवताओं में युद्ध शुरू हुआ। दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे तब इन्द्र घबराकर वृहस्पतिदेव के पास गए| वहां बैठी इंद्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मंत्रों की शक्ति से पवित्र कर के अपने पति के हाथ पर बांध दिया। वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इंद्र इस लड़ाई में इसी धागे की मंत्र शक्ति से विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बांधने की प्रथा चली आ रही है।

इसके अलावा स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान ने वामन अवतार लेकर ब्राम्हण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश,पाताल और धरती नाप कर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकानाचूर कर देने के कारण यह त्योहार 'बलेव' नाम से भी प्रसिद्ध है।

कहा जाता है कि जब बलि रसातल चला गया तो उसने अपने तप से भगवान को रात- दिन अपने पास रहने का वचन ले लिया| भगवान विष्णु के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को देवर्षि नारद ने एक उपाय सुझाया| नारद के उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी राजा बलि के पास गई और उन्हें राखी बांधकर अपना भाई बना लिया| उसके बाद अपने पति भगवान विष्णु और बलि को अपने साथ लेकर वापस स्वर्ग लोक चली गईं| उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त किया था। हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है।

महाभारत में ही रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तांत मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबंधन के पर्व में यहीं से आन मिली।पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी। महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे।

मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए रानी कर्मवती और उसके राज्य की रक्षा की। कहते है सिकंदर की पत्नी ने अपने पति के हिंदू शत्रु पुरूवास को राखी बांध कर अपना मुंहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकंदर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बंधी राखी का और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकंदर को जीवदान दिया। इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं।

रक्षाबंधन का यह त्यौहार अलग- अलग राज्यों में अलग- अलग नामों से जाना जाता है| उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहते हैं। इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपकर्म होता है। उत्सर्जन, स्नान-विधि, ॠषि-तर्पणादि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। इस दिन ब्राह्मण अपने यजमानों को राखी देकर दक्षिणा लेते हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से जाना जाता है| इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। इस अवसर पर समुद्र के स्वामी वरुण देवता को प्रसन्न करने के लिए नारियल अर्पित करने की परंपरा भी है। वहीँ, अगर राजस्थान की बात करें तो रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बांधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और केवल भगवान को बांधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है।

जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकर्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट(पूजास्थल) बनाकर मंत्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनाई जाती है। राखी में कच्चे दूध से अभिमंत्रित करते हैं और इसके बाद भोजन का प्रावधान है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिए यह दिन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्णण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।

विनीत कुमार वर्मा 

मनोरंजन-जगत की जगमगाता सितारा हैं श्रीदेवी

पर्दे पर अपने चुलबुले अंदाज से तहलका मचाने वाली अभिनेत्री श्रीदेवी मनोरंजन-जगत की जगमगाता सितारा हैं। उन्होंने अपनी गजब की खूबसूरती, दिलकश अदाओं और दमदार अभिनय से दर्शकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। भारतीय फिल्मों की मशहूर अदाकारा ने हिंदी फिल्मों के अलावा तमिल, मलयालम, तेलुगू, कन्नड़ और में भी काम किया है। अपने बेहतरीन अभिनय के कारण उनकी गिनती बेहतरीन कलाकारों में की जाती है। वह अस्सी और नब्बे के दशक में सक्रिय रहीं।

श्रीदेवी का जन्म 13 अगस्त,1963 को तमिलनाडु के एक छोटे से गांव मीनमपट्टी में हुआ था। उनके पिता का नाम अय्यपन और मां का नाम राजेश्वरी है। उनके पिता एक वकील थे। उनकी एक बहन और दो सौतेले भाई हैं। उन्होंने महज चार साल की उम्र में एक तमिल फिल्म में अभिनय किया था। वर्ष 1976 तक श्रीदेवी ने कई दक्षिणी भारतीय फिल्म में बतौर बाल-कलाकर के रूप में काम किया। अभिनेत्री के रूप में 1976 में उन्होंने तमिल फिल्म 'मुंदरू मुदिची' में काम किया।

नन्ही श्रीदेवी को मलयालम फिल्म 'मूवी पूमबत्ता'(1971) के लिए केरला स्टेट फिल्म अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने इस दौरान कई तमिल-तेलुगू और मलायलम फिल्मों में काम किया, जिसके लिए उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया। श्रीदेवी ने अपने करियर की शुरुआत वर्ष 1979 में फिल्म 'सोलवां सावन' से की थी। लेकिन उन्हें बॉलीवुड में पहचान फिल्म 'हिम्मतवाला' से मिली। इस फिल्म के बाद वह हिंदी सिनेमा की सुपरस्टार अभिनेत्रियों में शुमार हो गईं।

उन्होंने अपने करियर के दौरान कई दमदार रोल किए। उन्होंने हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म 'सीता और गीता' की रीमेक 'चालबाज' में डबल रोल निभाया। पंकज पराशर द्वारा निर्देशित फिल्म में अंजू और मंजू के किरदार से उन्होंने सभी का मन मोह लिया। वर्ष 1983 में फिल्म 'सदमा' में श्रीदेवी दक्षिण सिनेमा के अभिनेता कमल हासन संग नजर आईं। इस फिल्म में उनके अभिनय को देख समीक्षक भी हैरान थे। इस फिल्म के लिए उन्हें पहली बार फिल्मफेयर अवार्डस में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का नामांकन मिला था।

श्रीदेवी को फिल्मों में अपने मिथुन चक्रवर्ती से प्यार हो गया। दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा, हालांकि मिथुन पहले ही शादीशुदा था। उन दिनों दोनों का फिल्मी करियर उन दिनों ऊंचाइयों पर था और उनके प्यार के चर्चे भी आम हो गए। इन सबसे मिथुन के गृहस्थ जीवन में भूचाल लाकर रख दिया था, जिसके बाद मिथुन ने सबको अपने और श्रीदेवी के रिश्ते की सफाई दी। इसके बाद श्रीदेवी ने 1996 में अपनी उम्र से लगभग 8 साल बड़े फिल्म निर्माता बोनी कपूर से शादी कर सबको चौंका दिया था। इनकी दो बेटियां भी हैं- जाह्न्वी और खुशी कपूर। फिलहाल इनकी बड़ी बेटी पूरी तरह से बॉलीवुड में आने को तैयार है।

वर्ष 1996 में निर्देशक बोनी कपूर से शादी के बाद श्रीदेवी ने फिल्मी दुनिया से अपनी दूरी बना ली थी। लेकिन इस दौरान वह कई टीवी शो में नजर आईं। श्रीदेवी ने साल 2012 में गौरी शिंदे की फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' से रूपहले परदे पर अपनी वापसी की। हिंदी सिनेमा से कई वर्षो तक दूर रहने के बाद भी फिल्म 'इंग्लिश विंग्लिश' में उन्होंने बेहतरीन अभिनय से आलोचकों और दर्शकों को चौंका दिया था।

उन्हें भारत सरकार ने साल 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया। इसके अलावा उन्हें 'चालबाज' (1992) और 'लम्हे' (1990) के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिल चुका है। उन्होंने 'जैसे को तैसा', 'जूली', 'सोलहवां साल', 'हिम्मतवाला', 'जस्टिस चौधरी', 'जानी दोस्त', 'कलाकार', 'सदमा', 'अक्लमंद', 'इन्कलाब', 'जाग उठा इंसान', 'नया कदम', 'मकसद', 'तोहफा', 'बलिदान', 'मास्टर जी', 'सरफरोश','आखिरी रास्ता', 'भगवान दादा', 'धर्म अधिकारी', 'घर संसार', 'नगीना', 'कर्मा', 'सुहागन', 'सल्तनत', 'औलाद', 'हिम्मत और मेहनत', 'नजराना', 'जवाब हम देंगे', 'मिस्टर इंडिया', 'शेरनी', 'सोने पे सुहागा', 'चांदनी', 'गुरु', 'निगाहें', 'बंजारन', 'फरिश्ते', 'पत्थर के इंसान', 'लम्हे', 'खुदा गवाह', 'हीर रांझा', 'चंद्रमुखी', 'गुमराह', 'रूप की रानी चोरों का राजा', 'चांद का टुकड़ा', 'लाडला', 'आर्मी', 'मि. बेचारा', 'कौन सच्चा कौन झूठा', 'जुदाई', 'मिस्टर इंडिया 2' जैसी फिल्मों में काम किया।

श्रीदेवी ने अपने तीन दशक लंबे करियर में लगभग 200 फिल्मों में काम किया। इनमें 63 हिंदी, 62 तेलुगू, 58 तमिल और 21 मलयालम फिल्में शामिल हैं। श्रीदेवी फिलहाल अपने परिजनों के साथ आनंदपूर्व जीवन व्यतीत कर रही हैं। हम यही कामना करेंगे की उनके जन्मदिन पर उन्हें दीर्घायु के साथ खुशनुमा जिंदगी मिले।

कभी अलविदा न कहना...


'मेरे महबूब कयामत होगी', 'मेरे सामने वाली खिड़की में', 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू' जैसे लोकप्रिय गीतों के लिए मशहूर पार्श्र्वगायक किशोर कुमार हिंदी फिल्म-जगत के एक ऐसे धरोहर हैं, जिसे बनाने-संवारने में कुदरत को भी सदियों लग जाते हैं। आज भले ही वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी विरासत अमर है। 

किशोर कुमार के नगमों ने किसका दिल नहीं चुराया? उन्होंने लाखों के दिलों पर राज किया। उनकी मधुर आवाज का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोला, और आज भी बोल रहा है। मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में गांगुली परिवार में जन्मे किशोर कुमार के पिता का नाम कुंजालाल गांगुली और माता का नाम गौरी देवी था। उनके बचपन का नाम आभास कुमार गांगुली था। चार अगस्त, 1929 को जन्मे आभास कुमार ने फिल्मी दुनिया में अपनी पहचान किशोर कुमार के नाम से बनाई। वह अपने भाई बहनों में सबसे छोटे थे।

उनके पिता कुंजीलाल खंडवा के बहुत बड़े वकील थे। किशोर कुमार को अपनी जन्मभूमि से काफी लगाव था। वह जब किसी सार्वजनिक मंच पर या किसी समारोह में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करते तो शान से खंडवा का नाम लेते। अपनी जन्मभूमि और मातृभूमि के प्रति ऐसा जज्बा कम लोगों में देखने को मिलता है। मशहूर अभिनेता अशोक कुमार उनके सबसे बड़े भाई थे। अशोक कुमार से छोटी उनकी बहन और उनसे छोटा एक भाई अनूप कुमार था। जब अनूप कुमार फिल्मों में अभिनेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे, तब किशोर कुमार बच्चे थे।

वह बचपन से ही मनमौजी थे। उन्होंने इन्दौर के क्रिश्चियन कॉलेज से पढ़ाई की थी। उनकी आदत थी कॉलेज की कैंटीन से उधार लेकर खुद भी खाना और दोस्तों को भी खिलाना। किशोर कुमार पर जब कैंटीन वाले के पांच रुपये बारह आना उधार हो गए और कैंटीन मालिक उन्हें उधारी चुकाने को कहता तो वह कैंटीन में बैठकर टेबल पर गिलास और चम्मच बजा-बजा कर पांच रुपया बारह आना गा-गा कर कई धुन निकालते थे और कैंटीन वाले की बात अनसुनी कर देते थे। बाद में उन्होंने अपने इस गीत का खूबसूरती से इस्तेमाल किया, जो काफी हिट हुआ।

किशोर कुमार ने चार शादियां की। उनकी पहली शादी रुमा देवी से हुई थी, लेकिन आपसी अनबन के कारण जल्द ही उनका तलाक हो गया। इसके बाद, उन्होंने मधुबाला के साथ शादी रचाई। मधुबाला संग शादी करने के बाद उन्होंने अपना नाम बदलकर इस्लामिक नाम 'करीम अब्दुल' रखा। फिल्म 'महलों के ख्वाब' से दोनों एक-दूसरे के करीब हुए थे, लेकिन नौ साल बाद मधुबाला ने दुनिया के साथ उन्हें भी अलविदा कह दिया। किशोर ने 1976 में अभिनेत्री योगिता बाली के साथ शादी की। लेकिन यह शादी भी ज्यादा दिन तक नहीं चल सकी। योगिता ने 1978 में उनसे तलाक लेकर मिथुन चकवर्ती के साथ सात फेरे लिए। वर्ष 1980 में उन्होंने चौथी और आखिरी शादी लीना चंद्रावरकर से की। उनके दो बेटे हैं।

किशोर कुमार के फिल्मी करियर की शुरुआत एक अभिनेता के रूप में वर्ष 1946 में फिल्म 'शिकारी' से हुई। इस फिल्म में उनके बड़े भाई अशोक कुमार ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। उन्हें पहली बार गाने का मौका मिला 1948 में बनी फिल्म 'जिद्दी' से। इस फिल्म में उन्होंने देव आनंद के लिए गाना गाया। वह के. एल. सहगल के बहुत-बड़े प्रशंसक थे, इसलिए उन्होंने यह गीत उनकी शैली में ही गाया। किशोर कुमार की आवाज राजेश खन्ना पर बेहद जमती थी। राजेश फिल्म निर्माताओं से किशोर से ही अपने लिए गीत गंवाने की गुजारिश किया करते थे। जब किशोर कुमार नहीं रहे तो राजेश खन्ना ने कहा था कि "मेरी आवाज चली गई।"

राजेश के लिए उन्होंने 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय', 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू', 'मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने', 'कही दूर जब दिन ढल जाए', 'जिंदगी प्यार का गीत है', 'अच्छा तो हम चलते हैं', 'अगर तुम न होते', 'चला जाता हूं', 'चिंगारी कोई भड़के', 'दीवाना लेके आया है', 'दिल सच्चा और चेहरा झूठा', 'दीये जलते हैं', 'गोरे रंग पे ना इतना', 'हमें तुमसे प्यार कितना', 'जय जय शिव शंकर', 'करवटे बदलते रहे सारी रात हम', 'कोरा कागज था ये मन मेरा', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'मेरे नैना सावन भादो', 'ओ मेरे दिल के चैन', 'प्यार दीवाना होता है', 'रूप तेरा मस्ताना', 'शायद मेरी शादी का ख्याल','ये जो मोहब्बत है', 'ये क्या हुआ', 'ये शाम मस्तानी', 'जिंदगी का सफर' जैसे खूबसूरत नगमे गाए।

किशोर कुमार को बतौर पाश्र्वगायक आठ बार फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। सबसे पहले उन्हें वर्ष 1969 में 'आराधना' फिल्म के गीत 'रूप तेरा मस्ताना' के लिए सर्वश्रेष्ठ गायक का फिल्म फेयर पुरस्कार दिया गया था। इसके बाद उन्हें 1975 में फिल्म 'अमानुष' के गीत 'दिल ऐसा किसी ने मेरा' के साथ ही 1978 में 'डॉन' के गीत 'खाइके पान बनारस वाला' के लिए उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड से नवाजा गया था। वर्ष 1980 में फिल्म 'हजार राहे जो मुड़ के देखी' के गीत 'थोड़ी सी बेवफाई' सहित वर्ष 1982 की फिल्म 'नमक हलाला' के गाने 'पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी' के लिए भी फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1983 में फिल्म 'अगर तुम ना होते' के गीत 'अगर तुम ना होते' के लिए, वर्ष 1984 में फिल्म शराबी के सुपरहिट गीत 'मंजिले अपनी जगह है' सहित वर्ष 1985 की फिल्म 'सागर' के 'सागर किनारे दिल ये पुकारे' के लिए किशोर को फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

किशोर कुमार ने वर्ष 1987 में फैसला किया कि वह फिल्मों से सन्यास लेने के बाद, अपने गांव खंडवा लौट जाएंगे। वह कहा करते थे, 'दूध जलेबी खाएंगे खंडवा में बस जाएंगे'। लेकिन उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका। 18 अक्टूबर, 1987 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। उन्हें उनकी मातृभूमि खंडवा में ही दफनाया गया, जहां उनका मन बसता था। वह भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी खूबसूरत आवाज मधुर गीतों के रूप में आज भी लोगों के मन-मस्तिष्क में झंकृत हो रही है।

मैथिलीशरण गुप्त : खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि

भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' के प्रणेता राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि हैं। वह कबीर दास के भक्त थे। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से उन्होंने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया। मैथिलीशरण गुप्त का जन्म 3 अगस्त, 1886 को झांसी में हुआ। उन्हें साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से संबोधित किया जाता था।

'भारत-भारती', मैथिलीशरण गुप्तजी द्वारा स्वदेश प्रेम को दर्शाते हुए वर्तमान और भावी दुर्दशा से उबरने के लिए समाधान खोजने का एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है। भारत दर्शन की काव्यात्मक प्रस्तुति 'भारत-भारती' निश्चित रूप से किसी शोध से कम नहीं आंकी जा सकती। 

मैथिलीशरण गुप्त स्वभाव से ही लोकसंग्रही कवि थे और अपने युग की समस्याओं के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील रहे। उनका काव्य एक ओर वैष्णव भावना से परिपोषित था, तो साथ ही जागरण व सुधार युग की राष्ट्रीय नैतिक चेतना से अनुप्राणित भी था। 

लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचंद्र पाल, गणेश शंकर विद्यार्थी और मदनमोहन मालवीय उनके आदर्श रहे। महात्मा गांधी के भारतीय राजनीतिक जीवन में आने से पूर्व ही गुप्त का युवा मन गरम दल और तत्कालीन क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित हो चुका था। 'अनघ' से पूर्व की रचनाओं में, विशेषकर जयद्रथ वध और भारत भारती में कवि का क्रांतिकारी स्वर सुनाई पड़ता है। 

बाद में महात्मा गांधी, राजेंद्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू और विनोबा भावे के संपर्क में आने के कारण वह गांधीवाद के व्यावहारिक पक्ष और सुधारवादी आंदोलनों के समर्थक बने। 

सन् 1936 में गांधी ने ही उन्हें मैथिली काव्य-मान ग्रंथ भेंट करते हुए राष्ट्रकवि का संबोधन दिया। महावीर प्रसाद द्विवेदी के संसर्ग से गुप्तजी की काव्य-कला में निखार आया और उनकी रचनाएं 'सरस्वती' में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 1909 में उनका पहला खंडकाव्य 'जयद्रथ-वध' आया। इसकी लोकप्रियता ने उन्हें लेखन और प्रकाशन की प्रेरणा दी। 59 वर्षों में गुप्त जी ने गद्य, पद्य, नाटक, मौलिक तथा अनुदत सब मिलाकर, हिंदी को लगभग 74 रचनाएं प्रदान की हैं, जिनमें दो महाकाव्य, 20 खंड काव्य, 17 गीतिकाव्य, चार नाटक और गीतिनाट्य हैं।

काव्य के क्षेत्र में अपनी लेखनी से संपूर्ण देश में राष्ट्रभक्ति की भावना भर दी थी। राष्ट्रप्रेम की इस अजस्रधारा का प्रवाह बुंदेलखंड क्षेत्र के चिरगांव से कविता के माध्यम से हो रहा था। बाद में इस राष्ट्रप्रेम की इस धारा को देशभर में प्रवाहित किया था राष्ट्रकवि गुप्त ने।

उनकी पंक्ति है "जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। 

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।"

पिताजी के आशीर्वाद से वह राष्ट्रकवि के सोपान तक पदासीन हुए। महात्मा गांधी ने उन्हें राष्ट्रकवि कहे जाने का गौरव प्रदान किया। भारत सरकार ने उनकी सेवाओं को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा की सदस्यता प्रदान की। हिन्दी में मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-साधना सदैव स्मरणीय रहेगी। बुंदेलखंड में जन्म लेने के कारण गुप्त जी बोलचाल में बुंदेलखंडी भाषा का ही प्रयोग करते थे। 

धोती और बंडी पहनकर माथे पर तिलक लगाकर संत के रूप में अपनी हवेली में बैठे रहा करते थे। उन्होंने अपनी साहित्यिक साधना से हिन्दी को समृद्ध किया। मैथिलीशरण गुप्त के जीवन में राष्ट्रीयता के भाव कूट-कूट कर भर गए थे। इसी कारण उनकी सभी रचनाएं राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत है। 

वह भारतीय संस्कृति एवं इतिहास के परम भक्त थे। परंतु अंधविश्वासों और थोथे आदर्शो में उनका विश्वास नहीं था। वह भारतीय संस्कृति की नवीनतम रूप की कामना करते थे।

मैथिलीशरण गुप्त को काव्य क्षेत्र का शिरोमणि कहा जाता है। उनकी प्रसिद्धि का मूलाधार 'भारत-भारती' है। यही उन दिनों राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का घोषणापत्र बन गई थी। 

'साकेत' और 'जयभारत' इनके दोनों महाकाव्य हैं। 'साकेत' रामकथा पर आधारित है, लेकिन इसके केंद्र में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला है। कवि ने उर्मिला और लक्ष्मण के दाम्पत्य जीवन के हृदयस्पर्शी प्रसंग तथा उर्मिला की विरह दशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है, साथ ही कैकेयी के पश्चात्ताप को दर्शाकर उसके चरित्र का मनोवैज्ञानिक एवं उज्‍जवल पक्ष प्रस्तुत किया है। 

इसी तरह 'यशोधरा' में गौतम बुद्ध की मानिनी पत्नी यशोधरा केंद्र में है। यशोधरा की मन:स्थितियों का मार्मिक अंकन इस काव्य में हुआ है तो 'विष्णुप्रिया' में चैतन्य महाप्रभु की पत्नी केंद्र में है। 

खड़ी बोली के स्वरूप निर्धारण और विकास में गुप्त जी का अन्यतम योगदान रहा। आजादी के बाद उन्हें मानद राज्यसभा सदस्य का पद प्रदान किया गया। उनका निधन 12 दिसंबर, 1964 को झांसी में हुआ।

कई ऐसे रहस्य जो आज तक नहीं सुलझ पाए!

यदि रहस्य उजागर हो जाए तो वह रहस्य नहीं रहते। हमारी हमेशा रहस्यों को जानने की बड़ी तीव्र इच्छा रहती है। कई ऐसे रहस्य हैं जिनको आज भी हम नहीं जान पाए हैं और शायद न ही जान पाएंगे। मौत का रहस्य और जीवन की उत्पत्ति का रहस्य आज तक कोई नहीं जान पाया। जबकि मौत और जीवन के बारे में कहने को कई कथाएं हैं। फिलहाल हमारे पूरे जीवन में हमें रोजाना कई चीजें देखने को मिलती हैं, उनमें से कई चीजें सामान्य होती हैं जब कि कुछ अजीब होती हैं। आप यदि इनका वैज्ञानिक कारण जानना चाहें तो हम पाएंगे कि विज्ञान भी इसका जवाब नहीं दे पाता है। ये ऐसी चीजें हैं जिनका विज्ञान के पास भी कोई जवाब नहीं है। ये चीजें आपको आश्र्चयचकित तो करेंगी और विज्ञान भी इनके बारे में ज्यादा नहीं बता पाएगा। बरमूडा त्रिकोण से पक्षियों का प्रवास होना सहित कई ऐसी पेचीदा बातें हैं जिनकी गुत्थी कोई नहीं सुलझा पाया है।

क्या हैं इनका रहस्य :-

पक्षियों का प्रवास : पक्षी किसी विशेष मौसम में एक स्थान से दूसरे स्थान पर क्यों जाते हैं यह समझ नहीं आता। उनके पास कोई नेविगेशन टूल नहीं हैं फिर भी वे उस जगह कैसे पहुंचते हैं। यह कैसे संभव है?

जीव कैसे बिना ऑक्सीजन के रह जाते हैं : क्या आप जानते हैं कि कुछ ऐसे बैक्टीरिया और प्रजातियां हैं जो कि बिना ऑक्सीजन के जिंदा रहते हैं। ये जीव ऐसे स्थितियों में रहते हैं जहां ऑक्सीजन नहीं है, ऐसा कैसे हो पता है, वैज्ञानिक इसका पता लगा रहे हैं।

आंतरिक ज्ञान : क्या आप जानते हैं कि आपके अंतर्मन की बातें हमेशा सही है? यह मनोवैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य है कि व्यक्ति की अंतर्दृष्टि कैसे काम करती है?

भूत : यह बहस बरसों से चलती आ रही है कि भूत होते हैं या नहीं। आज तक कोई पुख्ता सबूत नहीं है। विज्ञान कहता है कि भूत होते ही नहीं है यह केवल मानिसक भ्रम है जबकि कुछ लोग कहते हैं कि उनका भूत से सामना हो चुका है।

क्या वास्तव में एलियंस हैं : कई लोग कहते हैं कि उन्होंने उड़नतश्तरियां और एलियंस देखें हैं लेकिन उनका अस्तित्व भी एक अनसुलझा रहस्य है। विज्ञान के पास भी इसका कोई जवाब नहीं है।

चुम्बक के ध्रुव : यह भी विज्ञान का एक अनसुलझा रहस्य है। आप चुम्बक को चाहे कितने ही टुकड़ों में बांट दें लेकिन फिर भी उसके उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव होते हैं।उबासी लेना : बोर होने या थकान होने पर हम उबासी लेते हैं। लेकिन इसका कोई तयपरक जवाब किसी के पास नहीं है। हालांकि लोग कहते हैं कि शरीर में ऑक्सीजन की कमी होने पर ऐसा होता है, लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं है।

बरमूडा त्रिकोण का रहस्य : डैथ ट्रैप ट्राइंगल में विमान और जहाज लापता कैसे हो जाते हैं, यह एक रहस्य है! जो वैज्ञानिक इसकी खोज के लिए निकले थे उनका भी कोई पता आज तक नहीं चला है। यह पृवी की सबसे रहस्यमयी जगह है।

भगवान शिव क्यों कहलाते हैं त्रिपुरारी, जानिए क्या है रहस्य

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी।

शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं। आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|

भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| आपको पता होगा कि भगवान शिव के तीन नेत्रों वाले हैं| इसलिए त्रिदेव कहा गया है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता माने गए हैं और विष्णु को पालनहार माना गया है| वहीँ, भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है। इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है। वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।


तो आइये जाने आखिर क्यों कहलाते हैं भगवान शिव त्रिपुरारी!

भगवान शिव के त्रिपुरारी कहलाने के पीछे एक बहुत ही रोचक कथा है। शिव पुराण के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने दैत्यराज तारकासुर का वध किया तो उसके तीन पुत्र तारकक्ष, विमलाकक्ष, तथा विद्युन्माली अपने पिता की मृत्यु पर बहुत दुखी हुए। उन्होंने देवताओ और भगवान शिव से अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने की ठानी तथा कठोर तपश्या के लिए उच्चे पर्वतो पर चले गए। अपनी घोर तपश्या के बल पर उन्होंने ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे अमरता का वरदान माँगा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की मैं तुम्हे यह वरदान देने में असमर्थ हूँ अतः मुझ से कोई अन्य वरदान मांग लो। तब तारकासुर के तीनो पुत्रो ने ब्रह्मा जी से कहा की आप हमारे लिए तीनो पुरियों (नगर) का निर्माण करवाइये तथा इन नगरो के अंदर बैठे-बैठे हम पृथ्वी का भ्रमण आकाश मार्ग से करते रहे है। जब एक हजार साल बाद यह पूरिया एक जगह आये तो मिलकर सब एक पूर हो जाए। 

तब जो कोई देवता इस पूर को केवल एक ही बाण में नष्ट कर दे वही हमारी मृत्यु का कारण बने। ब्रह्माजी ने तीनो को यह वरदान दे दिया व एक मयदानव को प्रकट किया। ब्रह्माजी ने मयदानव से तीन पूरी का निर्माण करवाया जिनमे पहला सोने का दूसरा चांदी का व तीसरा लोहे का था। जिसमे सोने का नगर तारकक्ष, चांदी का नगर विमलाकक्ष व लोहे का महल विद्युन्माली को मिला।

तपश्या के प्रभाव व ब्रह्मा के वरदान से तीनो असुरो में असीमित शक्तिया आ चुकी थी जिससे तीनो ने लोगो पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने पराक्रम के बल पर तीनो लोको में अधिकार कर लिया। इंद्र समेत सभी देवता अपने जान बचाते हुए भगवान शिव की शरण में गए तथा उन्हें तीनो असुरो के अत्याचारों के बारे में बताया। देवताओ आदि के निवेदन पर भगवान शिव त्रिपुरो को नष्ट करने के लिए तैयार हो गए। स्वयं भगवान विष्णु, शिव के धनुष के लिए बाण बने व उस बाण की नोक अग्नि देव बने। हिमालय भगवान शिव के लिए धनुष में परिवर्तित हुए व धनुष की प्रत्यंचा शेष नाग बने। भगवान विश्वकर्मा ने शिव के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण करवाया जिसके पहिये सूर्य व चन्द्रमा बने. इंद्र, वरुण, यम कुबेर आदि देव उस रथ के घोड़े बने।

उस दिव्य रथ में बैठ व दिव्य अश्त्रों से सुशोभित भगवान शिव युद्ध स्थल में गए जहाँ तीनो दैत्य पुत्र अपने त्रिपुरो में बैठ हाहाकार मचा रहे थे। जैसे ही त्रिपुर एक सीध में आये भगवान शिव ने अपने अचूक बाण से उन पर निशाना साध दिया। देखते ही देखते उन त्रिपुरो के साथ वे दैत्य भी जलकर भष्म हो गए और सभी देवता आकश मार्ग से भगवान शिव पर फूलो की वर्षा कर उनकी जय-जयकार करने लगे। उन तीनो त्रिपुरो के अंत के कारण ही भगवान शिव त्रिपुरारी नाम से जाने जाते है।