...यहाँ दो रूपों में पूजे जाते हैं हनुमान

कुंभ नगरी के नाम से पूरी दुनिया में विख्यात इलाहाबाद संगम के किनारे रामभक्त हनुमान का एक अनूठा मन्दिर है जहाँ बजरंग बली की लेटी हुई प्रतिमा की पूजा की जाती हैं| इसके पीछे हनुमान हनुमान के पुनर्जन्म की कथा जुड़ी हुई है| पौराणिक कथाओं के मुताबिक, लंका विजय के बाद भगवान् राम जब संगम स्नान कर भारद्वाज ऋषि से आशीर्वाद लेने प्रयाग आए तो उनके सबसे प्रिय भक्त हनुमान इसी जगह पर शारीरिक कष्ट से पीड़ित होकर मूर्छित हो गए| पवन पुत्र को मरणासन्न अवस्था में देख सीता जी ने उन्हें अपनी सुहाग के प्रतीक सिन्दूर से नई जिंदगी दी और हमेशा स्वस्थ और निरोग रहने का आशीर्वाद प्रदान किया| बजरंग बली को मिले इस नए जीवन को अमर बनाने के लिए 700 साल पहले कन्नौज के तत्कालिन राजा ने यहाँ यह मन्दिर स्थापित किया था| यहाँ स्थापित हनुमान की अनूठी प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल होने का दर्जा भी हासिल है और बजरंगबली यहाँ 2 रूपों मे पूजे जाते हैं|

आपको बता दें कि बजरंग बली की यहाँ दो रूपों में पूजा होती है| सुबह शिव रूप में उन्हे जल चढाया जाता है तो शाम को आकर्षक श्रृंगारकर भव्य आरती की जाती है| शक्ति के प्रतीक और शहर की सीमा पर होने की वजह से मन्दिर में लगी इस प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल भी कहा जाता है| यूँ तो यहाँ हर दिन देश के कोने- कोने से भक्त आते हैं लेकिन हमेशा निरोग रहने व अन्य कामनाओं को लेकर यहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं| 

इसके अलावा एक अन्य पौरानिंक कथा के अनुसार, एक बार एक व्यापारी हनुमान जी की भव्य मूर्ति लेकर जलमार्ग से चला आ रहा था। वह हनुमान जी का परम भक्त था। जब वह अपनी नाव लिए प्रयाग के समीप पहुँचा तो उसकी नाव धीरे-धीरे भारी होने लगी तथा संगम के नजदीक पहुँच कर यमुना जी के जल में डूब गई। कालान्तर में कुछ समय बाद जब यमुना जी के जल की धारा ने कुछ राह बदली। तो वह मूर्ति दिखाई पड़ी। उस समय मुसलमान शासक अकबर का शासन चल रहा था। उसने हिन्दुओं का दिल जीतने तथा अन्दर से इस इच्छा से कि यदि वास्तव में हनुमान जी इतने प्रभावशाली हैं तो वह मेरी रक्षा करेगें। 

यह सोचकर उनकी स्थापना अपने किले के समीप ही करवा दी। किन्तु यह निराधार ही लगता है। क्योंकि पुराणों की रचना वेदव्यास ने की थी। जिनका काल द्वापर युग में आता है। इसके विपरीत अकबर का शासन चौदहवीं शताब्दी में आता है। अकबर के शासन के बहुत पहले पुराणों की रचना हो चुकी थी। अतः यह कथा अवश्य ही कपोल कल्पित, मनगढ़न्त या एक समुदाय विशेष के तुष्टिकरण का मायावी जाल ही हो सकता है।

जो सबसे ज्यादा तार्किक, प्रामाणिक एवं प्रासंगिक कथा इसके विषय में जनश्रुतियों के आधार पर प्राप्त होती है, वह यह है कि रामावतार में अर्थात त्रेतायुग में जब हनुमानजी अपने गुरु सूर्यदेव से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करके विदा होते समय गुरुदक्षिणा की बात चली। भगवान सूर्य ने हनुमान जी से कहा कि जब समय आएगा तो वे दक्षिणा माँग लेंगे। हनुमान जी मान गए। किन्तु फिर भी तत्काल में हनुमान जी के बहुत जोर देने पर भगवान सूर्य ने कहा कि मेरे वंश में अवतरित अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम अपने भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ प्रारब्ध के भोग के कारण वनवास को प्राप्त हुए हैं। वन में उन्हें कोई कठिनाई न हो या कोई राक्षस उनको कष्ट न पहुँचाएँ इसका ध्यान रखना। 

सूर्यदेव की बात सुनकर हनुमान जी अयोध्या की तरफ प्रस्थान हो गए। भगवान सोचे कि यदि हनुमान ही सब राक्षसों का संहार कर डालेंगे तो मेरे अवतार का उद्देश्य समाप्त हो जाएगा। अतः उन्होंने माया को प्रेरित किया कि हनुमान को घोर निद्रा में डाल दो। भगवान का आदेश प्राप्त कर माया उधर चली जिस तरफ से हनुमान जी आ रहे थे। इधर हनुमान जी जब चलते हुए गंगा के तट पर पहुँचे तब तक भगवान सूर्य अस्त हो गए। हनुमान जी ने माता गंगा को प्रणाम किया। तथा रात में नदी नहीं लाँघते, यह सोचकर गंगा के तट पर ही रात व्यतीत करने का निर्णय लिया।

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