उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में बीहड़ वाले इलाके के दर्जनभर गांवों में बसे वनवासियों की 'रोजी-रोटी' कही जाने वाली जंगली सब्जियों में अंकुर फूट आए हैं। बरसात के दो महीने इन सब्जियों के भरोसे ही वनवासी अपने परिवार को जिंदा रखते हैं।
इन सब्जियों को गांव-देहात और आस-पास के कस्बों में बेच कर वे आटा-चावल का जुगाड़ कर पेट की आग बुझाते हैं। एक दशक से बुंदेलखंड के जंगली गांवों में बसे वनवासी मुफलिसी और त्रासदी का जीवन गुजार रहे हैं, तमाम सरकारी योजनाएं भी इस वर्ग को तंगहाली से उबार नहीं सकी हैं।
पहले वनवासी वन संपदा पर अपना हक और अधिकार समझकर खैर, गोंद, शहद, आंवला, आचार, तेंदूफल व सीताफल का संग्रह कर उसे शहर व कस्बों में बेच कर अपने परिवार की भूख मिटाते थे, लेकिन अब इधर वन विभाग वन संपदा पर अपना हक जता कर इन उत्पादों की नीलामी करने लगा है। अब तो वनवासी जंगल में घुस भी नहीं सकते, बड़ी मुश्किल और वनकर्मियों की मेहरबानी के बूते ही उन्हें महज सूखी लकड़ी बीनने की इजाजत मिलती है।
जंगली गांवों के वाशिंदों के लिए केन्द्र सरकार की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) भी बेअसर साबित हुई है। बरसात के दो महीने वनवासी जंगली सब्जी बेचकर गुजर-बसर करते हैं।
बांदा जिले के फतेहगंज के जंगली इलाके के गांवों में बसे वनवासियों की 'रोजी-रोटी' कही जाने वाली सब्जियों वन करैला, वन भिंडी व पड़ोरा के बीजों में अंकुर फूट आए हैं। अब जहां कृषि भूमि के काश्तकार अपने खेतों में खरीफ की फसल की बुआई की तैयारी में जुटे हैं, वहीं वनवासी इन जंगली सब्जियों को जानवरों के उजाड़ से बचाने के लिए 'बिरवाही' (झाड़-झांखड़ की बाड़) बनाने में मशगूल हैं।
इस इलाके के गांवों गोबरी, गोड़रामपुर, बिलरियामठ, बघोलन, मवासी डेरा, डढ़वामानपुर, गोड़ी बाबा के पुरवा में करीब डेढ़ सौ वनवासी परिवार आबाद हैं जिनमें खैरगर, मवासी व मवइया कौम के लोग हैं।
मवासी डेरा के रहने वाले मइयादीन मवासी ने बताया, "यहां ज्यादातर वनवासी भूमिहीन हैं, जिनके पास खेती करने की कोई भूमि नहीं है। रोजगार के साधन न होने के कारण वनवासी परदेस में जाकर मेहनत-मजदूरी करते हैं।" उसने बताया, "परदेस गए वनवासी बरसात की शुरुआत में वापस आ गए हैं और जंगली सब्जी के उगे पौधों की रखवाली का इंतजाम करने में जुट गए हैं।"
गोड़ी बाबा के पुरवा के रहने वाले वनवासी युवक गुलाब ने बताया कि "यहां मनरेगा के तहत भी कोई रोजगार मुहैया नहीं हो पाता, इसलिए वनवासी जंगली सब्जी बेच दो माह तक आटा-चावल का जुगाड़ कर अपने परिवार की भूख मिटाते हैं।"
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