रैलियां करने में सपा, भाजपा सबसे आगे

लोकसभा चुनाव की घोषणा में अभी भले ही तीन-चार महीने की देरी हो, मगर सर्वाधिक सीटों वाले उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल तेज हो गई है। बड़े राजनीतिक दलों की रैलियों से चुनावी बिगुल बजने लगा है। रैलियों की होड़ में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और राज्य में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) सबसे आगे है। एक ओर जहां भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कई रैलियां की हैं, वहीं सपा प्रमुख ने भी अपना दम दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने अभी एक ही रैली की है, पर इसमें जुटे लोगों की भीड़ ने पूर्व में आयोजित रैलियों को पीछे छोड़ दिया। प्रदेश में होने वाली रैलियों में कांग्रेस भी पीछे नहीं है, पर भीड़ के लिहाज से उसकी रैलियां अपना खास असर नहीं छोड़ पाई हैं।

सूबे में राजनीतिक हाशिए पर पड़ी भाजपा ने पिछले साल सितंबर महीने से ही रैलियों की शुरुआत कर चुकी है। मोदी की इन रैलियों को भाजपा नेतृत्व ने 'विजय शंखनाद' नाम दिया। कानपुर में मोदी की पहली रैली आयोजित की गई। रैली आयोजन स्थल के लिए प्रशासनिक अनुमति को लेकर छिड़े विवाद ने ही इस रैली के प्रचार का काम किया। मोदी की इस रैली में जुटी भीड़ ने मानो भाजपा में नई जान फूंकने का काम किया। चंद रोज बाद ही बुंदेलखंड के झांसी में मोदी ने दूसरी रैली कर विरोधी दलों को चुनावी मैदान तैयार करने को मजबूर कर दिया। 

भाजपा ने एक ओर जहां पूर्वाचल के बहराइच में चुनावी हुंकार भरी तो दूसरी ओर पश्चिम में आगरा में भी मोदी ने बदलाव की बयार बहाने का प्रयास किया। आगरा में खराब मौसम के बाद भी रैली ग्राउंड से लेकर काफी दूर तक भाजपा का रंग दिखा। इस रैली की खासियत रही कि मंच पर जिस कुर्सी पर मोदी बैठे थे, उसे खरीदने की लोगों में होड़ मच गई। मामूली कुर्सी की कीमत लाखों में पहुंच गई, मगर कुर्सी के मालिक ने इसे बेचने से इनकार कर दिया। उनसे इच्छा जताई कि जीतने के बाद मोदी एक बार आकर फिर इसी कुर्सी पर बैठें। 

भाजपा के इस आक्रामक रुख को कम करने के लिए समाजवादी पार्टी ने भी चुनावी जंग में ताल ठोंककर उतरने का फैसला लिया। कमान खुद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने संभाली। 28 अक्टूबर को पूर्वाचल के आजमगढ़ में 'देश बचाओ-देश बनाओ' रैली में भारी भीड़ जुटाकर पार्टी सपा प्रमुख ने चुनावी शंखनाद किया। 

इसके चंद रोज बाद ही मुलायम और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पश्चिम के मैनपुरी में कई विकास योजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास करने के साथ ही बड़ी रैली आयोजित कर जनता से संवाद बनाया। इसके बाद सपा की रैलियों का भी सिलसिला चल पड़ा। भाजपा की ताबड़तोड़ रैलियों का जवाब सपा ने निराले अंदाज में दिया। पार्टी ने उसी दिन रैली आयोजित की जिस दिन भाजपा की रैली थी। 

बरेली में मुलायम व मुख्यमंत्री अखिलेश ने 21 नवंबर को महारैली कर अपनी ताकत का अहसास कराया, वहीं ठीक उसी दिन आगरा में मोदी ने जनता को विकास का पाठ पढ़ाया। इसके चंद दिन बाद ही मुलायम सिंह यादव व मुख्यमंत्री ने बदायूं में रैली कर विपक्ष को चुनौती दी। इसके बाद सपा नेतृत्व ने मोदी का जवाब देने के लिए झांसी में रैली की। झांसी की यह रैली भीड़ के लिहाज से सपा की आजमगढ़ व बरेली की रैलियों से बड़ी थी। सपा ने एक बार फिर मोदी की गोरखपुर रैली के दिन 23 जनवरी को ही पूर्वाचल के ही दूसरे गढ़ वाराणसी में चुनावी शंखनाद किया। 

चुनावी जमीन तैयार करने के लिए यूं तो कांग्रेस के 'युवराज' राहुल गांधी ने भी कई महीने पहले ही उत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों में रैलियां आयोजित कीं। राहुल इन रैलियों के आयोजन के केंद्र में 'खाद्य सुरक्षा विधेयक' को रखकर जनता के बीच कांग्रेस के 'मिशन 2014' का अहसास दिलाया। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने सबसे पहले पश्चिम के मुस्लिम इलाकों रामपुर और अलीगढ़ में रैलियां कीं। एक ही दिन में इन दोनों ही जगहों पर की गई रैलियों में कांग्रेस भाजपा व सपा के मुकाबले भीड़ जुटाने में पीछे रह गई।

इसी क्रम में एक ही दिन में बुंदेलखंड के हमीरपुर जिले के राठ और पूर्वाचल के देवरिया जिले के सलेमपुर में रैली आयोजित की गई। दोनों की जगह राहुल गांधी ने रैली की कमान संभाली, लेकिन यहां भी कांग्रेस भीड़ जुटाने में सफल नहीं रही।

प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले इस प्रदेश में भाजपा, सपा और कांग्रेस की रैलियों की आंधी के बीच बसपा ने अपने सधे हुए अंदाज में कदम रखा। लंबे इंतजार के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने प्रदेश की राजधानी लखनऊ में रैली का ऐलान किया। रैली में प्रदेश ही नहीं, बल्कि पूरे देश से लोगों को बुलाया गया। लखनऊ में रैली के लिए तीन दिन पहले से ही लोगों के आने का सिलसिला शुरू हो गया। रैली के दिन खराब मौसम के बावजूद यहां जुटी भीड़ ने विपक्षी दलों की रैलियों के रिकार्ड ध्वस्त कर दिए।

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...यहाँ दलितों को खेत जोतने, नल से पानी भरने व मंदिर जाने पर लगा दी रोक!

वे दलित हैं, इसलिए उन्हें अछूत बना दिया गया है, गांव के दबंगों ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया। वे अपने खेत की जुताई नहीं कर सकते, नलों से पानी नहीं भर सकते और मंदिर नहीं जा सकते। विरोध करते हैं तो सबक सिखाने की धमकी दी जाती है, अब पीड़ितों ने पुलिस के दरवाजे पर दस्तक देकर मदद मांगी है। 

मामला मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले के कैथ गांव का है। यह गांव चीनौर थाना क्षेत्र में आता है। दबंगों ने यहां के एक दलित परिवार का जीना मुश्किल कर दिया है। आलम यह है कि यह परिवार अपनी मर्जी से कोई काम नहीं कर पा रहा है। परिवार का बुजुर्ग सदस्य हुकमा राम बताता है कि दबंग उसे अपनी खेती की जमीन को जोतने नहीं दे रहे हैं। वह जमीन जोतने की कोशिश करता है तो उसे धमकाया जाता है। इतना ही नहीं, उसके परिवार के सदस्य मंदिर दर्शन करने तक नहीं जा पा रहे हैं। मंदिर जाते हैं तो वहां भी उन्हें धमकाया जाता है।

परिवार की बुजुर्ग महिला पुक्खो बाई का कहना है कि उनके परिवार की महिलाएं नलों पर पानी भरने को नहीं जा पा रही हैं। इतना ही नहीं, उनसे बदसलूकी भी की जा रही है। काफी अरसे से यही हाल है, लेकिन कोई भी उनकी मदद के लिए आगे नहीं आ रहा।

पीड़ित परिवार के युवा सदस्य राजाराम का कहना है कि गांव के दबंग उनकी जमीन हथियाना चाहते हैं, इसीलिए उन्हें तरह-तरह से परेशान किए जा रहे हैं। थाने की पुलिस ने भी उनकी नहीं सुनी, तब वे पुलिस अधीक्षक के पास आए हैं। पीड़ित परिवार ने थाने में जाकर शिकायत की, लेकिन बात अनसुनी कर दी गई। आखिर में वे गुरुवार को पुलिस अधीक्षक संतोष कुमार सिंह के कार्यालय में जा पहुंचे। पीड़ितों ने सिंह को आपबीती सुनाई।

पुलिस अधीक्षक ने बताया कि पीड़ितों ने उन्हें अपने साथ हो रहे बर्ताव की जानकारी दी है, उन्होंने अनुविभागीय अधिकारी पुलिस को गांव जाकर जांच कर पीड़ितों की मदद करने और दोषियों पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। वैसे तो संविधान में दलितों को बराबरी का हक दिलाने का प्रावधान है, सरकार उनके सशक्तीकरण के लिए योजनाएं भी चला रही है, लेकिन हकीकत गाहे-बगाहे सामने आ ही जाती है।

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....इसलिए मौनी अमावस्या को रखते हैं मौन

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| क्या आपको पता है कि मौनी अमावस्या को मौन धारण क्यों किया जाता है?

विद्वानों के अनुसार इस दिन व्यक्ति विशेष को मौन व्रत रखना चाहिए| मौन व्रत का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना चाहिए| धीरे-धीरे अपनी वाणी को संयत करके अपने वश में करना ही मौन व्रत है| कई लोग इस दिन से मौन व्रत रखने का प्रण करते हैं | वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि कितने समय के लिए वह मौन व्रत रखना चाहता है| 

प्रत्येक मनुष्य के अंदर तीन प्रकार का मैल होता है| कर्म का मैल, भाव का मैल तथा अज्ञान का मैल| इन तीनों मैलों को त्रिवेणी के संगम पर धोने का महत्व है| त्रिवेणी के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के अंदर स्थित मैल का नाश होता है और उसकी अन्तरआत्मा स्वच्छ होती है, इसलिए व्यक्ति को इस दिन मौन व्रत धारण करके ही स्नान करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी के संगम में मौनी अमावस्या के दिन स्नान करने से सौ हजार राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है अथवा इस दिन संगम में स्नान करना और अश्वमेघ यज्ञ करना दोनों के फल समान है|

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मौनी अमावस्या आज, अत्यंत पवित्र एवं फलदायी है गंगा स्नान

हिन्दू ग्रंथों में माघ मास को बेहद पवित्र माना जाता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। दुख दरिद्र और सभी को सफलता दिलाने वाली मौनी अमावस्या इस बार 30 जनवरी दिन गुरूवार को है। मान्यताओं के अनुसार इस दिन पवित्र संगम में देवताओं का निवास होता है इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस मास को भी कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। 

मौनी अमावस्या का महत्व-

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सूर्य तथा चन्द्रमा गोचरवश मकर राशि में आते हैं| ऐसा माना गया है कि इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| लोगों का यह भी मानना है कि इस दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरुपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी, इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| 

मौनी अमावस्या में स्नान करने की विधि-

माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं। यह योग पर आधारित महाव्रत है। इस दिन व्यक्ति विशेष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान, पुण्य तथा जाप करने चाहिए| यदि किसी व्यक्ति की सामर्थ्य त्रिवेणी के संगम अथवा अन्य किसी तीर्थ स्थान पर जाने की नहीं है तब उसे अपने घर में ही प्रात: काल उठकर दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करना चाहिए अथवा घर के समीप किसी भी नदी या नहर में स्नान कर सकते हैं क्योंकि पुराणों के अनुसार इस दिन सभी नदियों का जल गंगाजल के समान हो जाता है| स्नान करते हुए मौन धारण करें और जाप करने तक मौन व्रत का पालन करें| इस दिन व्यक्ति प्रण करें कि वह झूठ, छल-कपट आदि की बातें नहीं करेगें| 

मौनी अमावस्या की कथा-

प्राचीन समय में कांचीपुरी में देवस्वामी नाम का ब्राह्मण रहता था| उसकी पत्नी का नाम धनवती था| देवस्वामी की आठ संताने थी| सात पुत्र और एक पुत्री थी| उसकी पुत्री का नाम गुणवती था| ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्र के विवाह के बाद अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश में अपने सबसे बडे़ पुत्र को भेजा| उसी दौरान किसी ज्योतिषी ने कन्या की कुण्डली देखकर कहा कि विवाह समाप्त होते ही वह विधवा हो जाएगी| इससे देवस्वामी तथा अन्य सदस्य चिन्तित हो गये| देवस्वामी ने गुणवती के वैधव्य दोष के निवारण के बारे में ज्योतिषी से पूछा तब उसने कहा कि सिंहल द्वीप में सोमा नाम की धोबिन रहती है| सोमा का पूजन करने से गुणवती के वैधव्य दोष का निवारण हो सकता है| आप किसी भी प्रकार सोमा को विवाह होने से पहले यहाँ बुला लें| यह सुनने के पश्चात गुणवती और उसका सबसे छोटा भाई सिंहल द्वीप की ओर चल दिए| सिंहल द्वीप सागर के मध्य स्थित था| दोनों बहन-भाई सागर तट पर एक वृक्ष के नीचे सागर को पार करने की प्रतीक्षा में बैठ गए| दोनों को सागर पार करने की चिन्ता थी| उसी वृक्ष के ऊपर एक गिद्ध ने अपना घोंसला बना रखा था| उस घोंसले में गिद्ध के बच्चे रहते थे| जब शाम को गिद्ध अपनी पत्नी के साथ घोंसलें में लौटा तब उसके बच्चों ने बताया कि इस वृक्ष के नीचे बहन-भाई सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं| जब तक वह दोनों खाना नहीं खाएंगें, हम भी भोजन ग्रहण नहीं करेगें|

गिद्ध ने दोनों बहन-भाइयों को भोजन कराया तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा तब उन्होंने सारा वृतांत सुनाया| सारी बातें जानने के बाद गिद्ध ने उन्हें सिंहल द्वीप पर पहुंचाने का अश्वासन दिया| अगले दिन सुबह ही गिद्ध ने दोनों को सिंहल द्वीप पहुंचा दिया| सिंहल द्वीप पर आने के बाद दोनों बहन-भाइयों ने सोमा धोबिन के घर का काम करना शुरु कर दिया| सारे घर की साफ सफाई तथा घर के अन्य कार्य दोनों बहन-भाई बहुत ही सफाई से करने लगे| सुबह सोमा जब उठती तब उसे हैरानी होती कि कौन यह सब कम कर रहा है| सोमा ने अपनी पुत्रवधु से पूछा तब उसने बडे़ ही चतुराई से कहा कि हम करते हैं और कौन करेगा| सोमा को अपनी बहु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसने उस रात जागने का निर्णय किया| तब सोमा ने देखा कि गुणवती अपने छोटे भाई के साथ सोमा के घर का सारा कार्य निबटा रही है| सोमा उन दोनों से बहुत प्रसन्न हुई और उनके ऎसा करने का कारण पूछा तब उन्होंने गुणवती के विवाह तथा उसके वैधव्य की बात बताई|

सोमा ने गुणवती को आशीर्वाद दिया, लेकिन दोनों बहन-भाई सोमा से अपने साथ विवाह में चलने की जिद करने लगे| सोमा उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गई और अपनी पुत्रवधु से कहा कि यदि परिवार में किसी कि मृत्यु हो जाती है तब उसका अंतिम संस्कार ना करें, मेरे घर आने की प्रतीक्षा करें| गुणवती का विवाह होने लगा| विवाह समाप्त होते ही गुणवती के पति का देहांत हो गया| सोमा ने अपने अच्छे कर्मों के बल पर गुणवती के मरे हुए पति को अपने आशीर्वाद से दोबारा जीवित कर दिया, लेकिन ऎसा करने पर सोमा के सभी अच्छे कर्म समाप्त हो गये और सिंहल द्वीप पर रहने वाले उसके परिवार के सदस्यों का देहान्त हो गया| 

सोमा ने वापस अपने घर जाते हुए रास्ते में ही अपने संचित कर्मों को फिर से एकत्रित करने की बात सोची और रास्ते में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा की और पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की| ऎसा करने पर उसके परिवार के मृतक सदस्य दोबारा जीवित हो गये, सोमा को उसके नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल मिल गया|

अहिंसा के पुजारी को हिंसक श्रद्धांजलि!

गांधी बलिदान दिवस, 30 जनवरी पर एक बार फिर देश अपने शहीदों को याद करेगा। इस दिन होने वाले ढेर सारे कार्यक्रमों का केंद्र बनता है राजघाट। यहां राष्ट्रपति महोदय ठीक 10 बजकर 58 मिनट पर गांधी समाधि पर एक विशेष फूल माला चढ़ाते हैं। फिर सेना के तीनों अंगों की तीन टुकड़ियां अपने हथियारों को उलटा करती हैं। 

सेना के बिगुलवादक अपने बिगुल पर 'लॉस्ट पोस्ट' नामक धुन बजाकर पूरे देश में दो मिनट का मौन प्रारंभ होने का संकेत देते हैं। सेना की तोप इस मौन की सूचना गोला दागकर देती है। और सब जगह तो शायद नहीं, पर गांधी समाधि पर तो सब कुछ थम जाता है। बस थमती नहीं है गुलामी की जंजीरों की तेज खनखनाहट। इन जंजीरों को हम इतने सारे वर्षो की आजादी के बाद भी हटाना नहीं चाहते। 

गुलामी की ये जंजीरें बहुत ही भव्य जो हैं! हमारे इस शहीद दिवस की रस्म का हर अंग, एक-एक हिस्सा ब्रितानी सैनिक प्रतीकों से भरा पड़ा है। आजादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों के सपनों से ये प्रतीक बिलकुल मेल नहीं खाते। वे लोग जिनके विरुद्ध लड़े थे, उनकी, अंग्रेजों की सैन्य परंपरा की भव्यता का ही बखान करते हैं ये प्रतीक। 

यह घिनौना काम और कहीं भी होता तो चल जाता, पर यह तो होता है गांधी समाधि पर। उसकी समाधि पर जिसका हथियारों, बंदूकों, सेना और ब्रितानी रीति-रिवाज, तौर-तरीकों से कोई भी संबंध नहीं था। 
दुनिया भर में अहिंसा का प्रतीक बन गई इस समाधि, राजघाट पर हमारी सेना के तीनों अंगों से चुनकर बनाई गई तीन टुकड़ियों का प्रवेश होता है। सारे श्रद्धालु इस जगह जूते उतार कर आते हैं, पर इस दिन तीनों टुकड़ियों के सैनिक अपने चमकाए गए शानदार जूतों के साथ यहां प्रवेश करते हैं। इसके बाद का सारा समारोह ब्रितानी सेना की उन विशिष्ट परंपराओं से मंडित होता है, जो उनके हिसाब से ठीक ही रही होंगी। 

लेकिन बीच में अचानक गांधीजी का प्रिय भजन 'रघुपति राघव राजा राम' भी सुनाई दे जाए तो चौंक मत पड़िए। यह इस भव्य माने गए कार्यक्रम का मूल हिस्सा नहीं था। बहुत बाद में और शायद बहुत बेमन से इसे उस कार्यक्रम का हिस्सा बनाया गया था। 

गांधीजी के प्रिय भजन गाए जाने लगते हैं। राष्ट्रपति महोदय के आने की सूचना मिलती है। उनका प्रवेश होता है समाधि पर तो भजन गायन का स्वर धीमा पड़ने लगता है। भजन पूरा होना भी जरूरी नहीं है। बस यह तो राष्ट्रपति के आगमन तक समय बिताने, वक्त काटने का एक सुंदर तरीका बना लिया गया है। अब राष्ट्रपति पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। यह श्रद्धासुमन देसी या गंवारू ढंग से अर्पित नहीं किए जाते। यूरोप में, इंग्लैंड में जिसे 'रीथ' कहा जाता है, उसे यहां अपनाया गया है शुरू से ही। एक बड़े गोल आकार में सजे फूलों की माला। प्राय: यह टायरों पर ताजे फूलों को सजाकर बनाई जाती है। फिर बजता है बिगुल। 'लॉस्ट पोस्ट' की धुन।

इसी शोक धुन से ब्रितानी फौज अपने शहीदों को याद करती आ रही है। इसके बाद प्रारंभ होता है दो मिनिट का मौन। यह मौन श्रद्धांजलि भी हमारी परंपरा का अंश नहीं है। और न ग्यारह बजे का समय भी। ऐसा बताया जाता है कि प्रथम महायुद्ध के बाद सन् 1918 को ठीक ग्यारह बजे युद्ध विराम संधि पर दस्तखत हुए थे। शहीद दिवस के आयोजन में इसी समय को चुन लिया गया है।

शहीदों की याद में दो मिनिट के मौन में अपनी गुलामी की जंजीरों को जोर-जोर से बजाने वाला यह समारोह सन् 1953 से शुरू हुआ था। इससे पहले गांधी समाधि पर 30 जनवरी को चार बार यह शहीद दिवस बहुत ही सादगी से, पर बहुत ही श्रद्धा से मनाया गया था। 

उन दिनों समाधि भी बहुत ही सीधी-सादी थी। न तो आज की तरह उस पर काला संगमरमर मढ़ा गया था और न चौबीस घंटे गैस बर्बाद करने वाली 'अमर ज्योति' वहां जला करती थी। सन् 1951 में संसद ने 'राजघाट समाधि अधिनियम' पारित किया था। समाधि की देखभाल, रख-रखाव के लिए तब के आवास मंत्रालय (अब शहरी विकास) के अंतर्गत एक समिति का गठन किया गया था। बस इसी के बाद शुरू हुआ था यह भव्य समारोह जो तब से आज तक बराबर दुहराया जाता है। 

इस समिति के अध्यक्ष प्राय: कोई वरिष्ठ गांधीवादी रखे जाते हैं पर बाकी काम अपने ढंग से होता रहता है। सन् 1970 में पहली बार संसद के तीस सदस्यों ने आचार्य कृपालानी, मधु लिमये और समर गुहा के नेतृत्व में इस शहीद दिवस समारोह में भरी पड़ी ब्रितानी रस्मों का विरोध किया था और सार्वजनिक रूप से बयान आदि देकर इसकी निंदा की थी। राजघाट समिति के कुछ सदस्यों ने भी इसमें उनका साथ दिया था।

ऐसा नहीं था कि सरकार ने इतने बड़े और इतनी बड़ी संख्या में आगे आए संसद सदस्यों की बात को गंभीरता से नहीं लिया था। पर तब 30 जनवरी आने ही वाली थी। सरकार ने अपनी मजबूरी बताई। कहा कि इतना कम वक्त बचा है, इसमें तो कोई बुनियादी बदलाव नहीं लाया जा सकेगा। संसद सदस्य भी उदार हृदय वाले थे। धीरज वाले थे।

इस तरह सन् 1971 का समारोह ज्यों का त्यों मनाया गया। उसके बाद अगले साल भी यह काम हो नहीं पाया। तब तो सरकार के पास वक्त की कोई कमी नहीं थी, इच्छा की कमी जरूर रही होगी। इसलिए 1972 के समारोह में भी समारोह का मूल रूप, ब्रितानी परंपरा ज्यों की त्यों रही। बस गांधीजी के कुछ प्रिय भजन जरूर जोड़ दिए गए थे। वह भी ऐसी जगह, जिससे मूल कार्यक्रम पर भजनों की उपस्थिति पता न चल पाए। 

तब रक्षामंत्री से इस बारे में पूछा गया था कि यह सब बदल क्यों नहीं पा रहा? उनका उत्तर था : 'सरकार ने सभी विरोधी दलों की राय ले ली है।' यानी कम से कम ब्रितानी नकल के मामले मंे हमारे सत्तारूढ़ दल और विरोधी दलों में दूरी घट चली थी। सन् 1973 से लेकर 1976 तक सत्तारूढ़ दल और विरोधी दल और भी जरूरी कामों में व्यस्त रहे होंगे। तब आ गया 1977। विरोधी दल ही सत्ता में आ गया। कुछ को लगा था कि अब तो यह समारोह बदल ही जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। अब कब होगा?

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अदरक एक, फायदे अनेक

साधारण सी दिखने आने वाली अदरक अगर थोड़ी सी भी चाय में डाल दी जाए तो स्वाद को दोगुना कर देती है| औषधीय गुणों से भरपूर अदरक महज सर्दी जुकाम खांसी की नहीं है, बल्कि कई बीमारियों की बेमिसाल दवा भी है| इसका आयुर्वेद में भी खूब जिक्र किया गया है| आयुर्वेद में अदरक को रूचिकारक, पाचक, स्निग्ध, उष्ण वीर्य, कफ तथा वातनाशक, कटु रस युक्त विपाक में मधुर, मलबंध दूर करने वाली, गले के लिए लाभकारी, श्वास, शूल, वमन, खांसी, हृदय रोग, बवासीर, तीक्ष्ण अफारा पेट की वायु, अग्निदीपक, रूक्ष तथा कफ को नष्ट करने वाली बताया गया है।

अदरक में शरीर के लिए आवश्यक सभी पोषक तत्व मौजूद होते हैं| ताजा अदरक में 81% पानी, 2.5% प्रोटीन, 1% वसा, 2.5% रेशे और 13% कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है| इसके अलावा अदरक में आयरन, कैल्शियम, आयोडीन, क्लो‍रीन और विटामिन के साथ कई पोषक तत्व मौजूद होते हैं. इतना ही नहीं, ये कई बीमारियों से भी लड़ती है, जैसे कि:

जुकाम में चाय में अदरक के साथ तुलसी के पत्ते तथा एक चुटकी नमक डालकर गुनगुनी अवस्था में पीने से लाभ मिलता है। गले में खराश होने या खांसी होने पर ताजा अदरक के टुकड़े को नमक लगाकर चूसने से आराम मिलता है। बुखार, फ्लू आदि में अदरक तथा सौंफ के रस में शहद मिलाकर सेवन करने से शीघ्र पसीना आकर बुखार उतर जाता है। ऐसे में अदरक की चाय भी फायदेमंद होती है। गला पकने या इन्फ्लुएंजा होने पर पानी में अदरक का रस तथा नमक मिलाकर गरारे करने से शीघ्र लाभ मिलता है।

पेट संबंधी समस्याओं के निदान में भी अदरक बहुत लाभदायक सिद्ध होता है। अफारे और अजीर्ण में सोंठ का चूर्ण, अजवायन, इलायची का चूर्ण लेकर मिलाकर पीस कर रख लें। दिन में प्रत्येक भोजन के बाद इसका सेवन करें। बच्चों के पेट में दर्द की शिकायत होने पर अदरक का रस दूध में मिलाकर पिलाना चाहिए इससे गैस तथा अफारे की समस्या दूर हो जाती है। सोंठ और गुड़ की बनी गोलियों के नियमित सेवन से, आंव आने की समस्या का समाधान हो जाता है। आमाजीर्ण में भी सोंठ और गुड मिलाकर सेवन करना चाहिए इससे पाचक अग्नि ठीक हो जाती है। गजपिप्पली और सोंठ के चूर्ण का दूध के साथ सेवन पेट के विकारों के लिए एक आदर्श औषधि है।

अदरक को जलाकर उसकी राख बारीक पीसकर रख ले। यह राख नेत्रांजन करने से नेत्रों में ढलका जाना, जाला पड़ना आदि रोग दूर हो जाते है। यदि किसी को आधासीसी का दर्द है तो रोगी व्यक्ति को चारपाई पर कुछ नीचा सिर करके सीधा लिटा दे। उसके बाद जिधर के हिस्से में दर्द हो उधर नासाछिद्र में अदरक का रस, मधु व जल समान मात्रा में मिलाकर 2-3 बूदे टपकाये। 3-4 बार ऐसा करने से लाभ हो जायेगा, दवा मस्तिष्क में अवश्य पहुच जानी चाहिए। 

भूख बढ़ाने तथा भोजन के प्रति रूचि पैदा करने के लिए भोजन से पहले थोड़ा सा अदरक या सोंठ का चूर्ण नमक मिलाकर खाना चाहिए। इससे पाचन शक्ति बढ़ती है और कब्ज का निदान होता है। छोटों या बड़ों को यदि खालिस दूध न पचने की शिकायत हो तो दूध में सोंठ की गांठ उबालकर या सोंठ का चूर्ण बुरकाकर सेवन करना चाहिए। 48 ग्राम सोंठ, 200 ग्राम तिल तथा 120 ग्राम गुड़ को मिलाकर कूट लें। इस मिश्रण की 12 ग्राम मात्रा का सेवन रोज करने से वायुगोला शांत होता है। पेट की ऐंठन तथा योनि शूल का दूर करने के लिए यह एक कारगर औषधि है। खाली पेट अधिक पानी पीने से हुए पेटदर्द को दूर करने लिए सोंठ के चूर्ण का गुड़ के साथ सेवन करना चाहिए।

अदरक पीसकर गर्म कर ले। इसकी दर्द वाले स्थान पर लगभग आधा इंच (मोटाई) लेप करके पट्टी बाधे लगभग 2 घन्टे पश्चात लेप को हटाये व सरसों का तेल लगाकर सेक लें। इस प्रक्रिया को लाभ हाने पर प्रतिदिन करे। अदरक के रस में कपड़ा भिगो-भिगोकर नाभि पर प्रति 15 मिनट बाद बदलते हुए रखें। अतिसार रूक जाता है और नाभि यथास्थान बैठ जाती है। सिर में दर्द या शरीर के जोड़ों (संधि स्थलो) में किसी भी कारण से पीड़ा होने पर अदरक के रस में सेंधानमक या हिगं मिलाकर मालिश करनी चाहिऐ। 

मोच आ जाए तो अदरक का लेप लगाकर रखा जाए, जब लेप सूख जाए तो इसे साफ करके गुनगुने सरसों के तेल से मालिश करनी चाहिए, दिन में दो बार दो दिनों तक किया जाए, मोच का असर खत्म हो जाता है| दांतों में दर्द होते समय अदरक के छोटे टुकड़े दांतों के बीच में दबाकर रखने से दांतों में होने वाला दर्द खत्म हो जाता है, सूखे अदरक या सोंठ के चूर्ण में थोड़ा सा लौंग का तेल मिलाकर दांतों पर लगाया जाए तो दर्द छूमंतर हो जाता है| 

संग्रहणी रोग में भी अदरक खासा फायदेमंद होता है। संग्रहणी में आम विकार के निदान के लिए सोंठ, मोथा और अतीस का काढ़ा बनाकर रोगी को देना चाहिए। इसके अतिरिक्त मसूर के सूप के साथ सोंठ और कच्चे बेल की गिरी के कल्क का सेवन करने से भी लाभ होता है। ज्वरातिसार एवं शोथयुक्त ग्रहणी रोग मंे प्रतिदिन सोंठ के एक ग्राम चूर्ण का दशमूल के काढ़े के साथ सेवन करना चाहिए। उल्टी होने पर अदरक के रस में पुदीने का रस, नींबू का रस एवं शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए। उल्टियां रोकने के लिए अदरक के रस में, तुलसी के पत्तों का रस, मोरपंख की राख तथा शहद मिलाकर सेवन करने से शीघ्र लाभ होता है।

तीव्र प्यास को शांत करने के लिए अदरक के रस और शुंठी बीयर में आधा पानी मिलाकर पिलाने से रोगी का प्यास जल्दी शांत हो जाती है। डायरिया के रोगी के यदि हाथ−पैर ठंडे पड़ गए हों तो सोंठ के चूर्ण में देशी घी मिलाकर मलना चाहिए इससे खून की गति बढ़ जाती है। महिलाओं में गर्भपात रोकने के लिए सोंठ, मुलहठी और देवदारू का दूध के साथ सेवन करना चाहिए। इससे गर्भ पुष्ट होता है। बच्चों के पेट में यदि कीडे़ हों तो उन्हें अदरक के रस की एक−एक चम्मच मात्रा दिन में दो बार नियमित रूप से देनी चाहिए। अदरक का कोसा रस कान में डालने पर कान का दर्द ठीक हो जाता है।

आमवात तथा कटिशूल में एक ग्राम सोंठ तथा तीन ग्राम गोखरू के काढ़े का प्रातरूकाल सेवन करना चहिए। फीलपांव के रोगी के लिए भी सोंठ का काढ़ा लाभदायक होता है। सबसे आम समस्या सिरदर्द में तुरन्त फायदे के लिए आधा चम्मच सोंठ पाउडर को एक कप पानी में घोलकर पिएं।

अदरक त्वचा को आकर्षक व चमकदार बनाने में मदद करता है। सुबह ख़ाली पेट एक गिलास गुनगुने पानी के साथ अदरक का एक टुकड़ा खाएं। इससे न केवल आपकी त्वचा में निखार आएगा बल्कि आप लंबे समय तक जवान दिखेंगे। बहुत कम लोग जानते हैं कि अदरक एक प्राकृतिक दर्द निवारक है, इसलिए इसे आर्थराइटिस और दूसरी बीमारियों में उपचार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। अदरक दर्द भगाने की सबसे कारगर दवा है। 'फूड्स दैट फाइट पेन' पुस्तक के लेखक आर्थर नील बर्नार्ड के मुताबिक अदरक में दर्द मिटाने के प्राकृतिक गुण पाए जाते हैं। यह बिना किसी दुष्प्रभाव के दर्दनिवारक दवा की तरह काम करता है। अदरक का अर्क मांसपेशियों की सूजन और दर्द कम कर देता है। और मांसपेशियों में दर्द, गठिया, सिर दर्द, माइग्रेन आदि अदरक का तेल की मालिश या अदरक का पेस्ट दर्द को कम कर के मांसपेशियों के दर्द और तनाव को कम करने में सहायक होता है।

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मैहर के शारदा मंदिर पर संकट के बादल

मध्य प्रदेश के सतना जिले के मैहर में स्थित प्रसिद्ध शारदा देवी मंदिर पर जल भराव, अंधाधुंध निर्माण और बढ़ते यातायात के दवाब के कारण संकट के बादल मंडराने लगे हैं। यह खुलासा हुआ है सूचना के अधिकार के तहत हासिल की गई जानकारी से ।  विंध्यांचल पर्वत श्रंखला की ऊंची पहाड़ी पर स्थित यह ऐसा ऐतिहासिक मंदिर है, जहां हर वर्ष 50 लाख से ज्यादा श्रद्धालु दर्शन को आते हैं। मान्यता है कि यहां की गई कामना पूरी होती है। यहां आने वालों में राज्य और राज्य के बाहर के श्रद्धालु भी शामिल हैं। 

ऐतिहासिक मंदिर संकट के दौर से गुजर रहा है, क्योंकि पहाड़ी पर स्थित मंदिर का सुरक्षा कवच जंगल लगातार कम हो रहा है, वहीं निर्माण कार्यों के चलते पहाड़ी पर वजन बढ़ रहा है। इतना ही नहीं मिट्टी का क्षरण होने के साथ पानी का भराव भी होता है। ये स्थितियां केंद्रीय भवन शोध संस्थान(सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीटयूट) रुड़की ने एक अध्ययन के दौरान 1993 में पाई थी।

रुड़की के शोध संस्थान द्वारा किया गया अध्ययन उन लाखों श्रद्धालुओं की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है जो हर वर्ष यहां माता के दर्शन करने आते हैं। इस अध्ययन के तथ्य सूचना के अधिकार के जरिए सामने आए हैं। सूचना के अधिकार के तहत जानकारी हासिल करने वाले अधिवक्ता नित्यानंद मिश्रा का कहना है कि शारदा माता मंदिर पर गहराए संकट का खुलासा रुड़की के अध्ययन से हुआ है। वह बताते हैं कि इस अध्ययन मंे कहा गया है कि पहाड़ी पर कई स्थानों पर ढाल बन गए हैं और कई स्थानों पर मिट्टी भी धंस रही है। पहाड़ी की ढलान पर लगे कुछ पेड़ों का झुकना भी इस बात का संकेत है कि कुछ हलचल है। 

अध्ययन यह भी कहता है कि निर्माण कार्यों के दौरान लोक निर्माण विभाग की राय को भी नजर अंदाज किया गया है। इनता ही नहीं मंदिर के आसपास जो निर्माण किए गए हैं, उनमे भी दरारें उभरी हैं। जो चटटानों के खिसकने का संकेत है। 

माता का मंदिर विंध्य पर्वत श्रृंखला की पहाड़ी पर लगभग 646 फुट की उंचाई पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए घुमावदार चार किलोमीटर लम्बी सड़क बनाई गई है और सीढ़ियां भी हैं। यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मंदिर प्रबंधक समिति (एसपीएस) ने ही यह अध्ययन कराया था, मगर इससे कोई सीख नहीं ली गई है। साथ ही कोई एहतियाती कदम भी नहीं उठाए गए हैं। 

मिश्रा का कहना है कि रुड़की के अध्ययन के नतीजों से कोई सीख लेकर सुरक्षा के इंतजाम करना तो दूर नए निर्माण कार्यों का सिलसिला बदस्तूर जारी है। उनका कहना है कि एक तरफ पहाड़ी में बढ़ता मिट्टी का क्षरण व अन्य स्थितियां अंदेशे का आभास करा रही हैं तो दूसरी ओर मंदिर की पहाड़ी से पांच से 10 किलो मीटर की परिधि में जारी खनन भी खतरा बना हुआ है। 

अध्ययन के निष्कर्षो को राज्य सरकार भी नजरअंदाज कर रही है। मंदिर प्रबंधन समिति और राज्य सरकार के रवैए से निराश अधिवक्ता मिश्रा ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय जाने का मन बनाया है। मंदिर के प्रशासक के. बी. एस. चौधरी पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर अतिरिक्त निर्माण कार्य कराए जाने से इंकार करते हैं। उनका कहना है कि पहाड़ी के ऊपरी हिस्से पर मंदिर के अलावा कोई निर्माण कार्य नहीं हुआ है। साथ ही उनका कहना है कि यह रिपोर्ट पुरानी है और जल निकासी के प्रबंध किए गए हैं, लिहाजा मंदिर को कोई खतरा नहीं है। 

दूसरी ओर सूत्रों का कहना है कि प्रशासन की ओर से मंदिर क्षेत्र में अतिक्रमण कर बनाई गई कई दुकानों के संचालकों को नोटिस जारी किए गए हैं।

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शंख की इन खूबियों के बारे में जानकर दंग रह जायेंगे आप

भारतीय संस्कृति में शंख को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। पुराणों के अनुसार, शंख चंद्रमा और सूर्य के समान ही देवस्वरूप माना गया है| कहते हैं शंख के मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा और सरस्वती का निवास है। शंख से शिवलिंग, कृष्ण या लक्ष्मी विग्रह पर जल या पंचामृत अभिषेक करने पर देवता प्रसन्न होते हैं। हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा है क्योंकि शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है। शंख निधि का प्रतीक है। ऐसा माना जाता है कि इस मंगलचिह्न को घर के पूजास्थल में रखने से अरिष्टों एवं अनिष्टों का नाश होता है और सौभाग्य की वृद्धि होती है। स्वर्गलोक में अष्टसिद्धियों एवं नवनिधियों में शंख का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 

शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। शिव पुराण के अनुसार शंखचूड नाम का महापराक्रमी दैत्य हुआ। शंखचूड दैत्यराम दंभ का पुत्र था। दैत्यराज दंभ को जब बहुत समय तक कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई तब उसने विष्णु के लिए घोर तप किया और तप से प्रसन्न होकर विष्णु प्रकट हुए। विष्णु ने वर मांगने के लिए कहा तब दंभ ने एक महापराक्रमी तीनों लोको के लिए अजेय पुत्र का वर मांगा और विष्णु तथास्तु बोलकर अंतध्र्यान हो गए। तब दंभ के यहां शंखचूड का जन्म हुआ और उसने पुष्कर में ब्रह्मा की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। ब्रह्मा ने वर मांगने के लिए कहा और शंखचूड ने वर मांगा कि वो देवताओं के लिए अजेय हो जाए। ब्रह्मा ने तथास्तु बोला और उसे श्रीकृष्णकवच दिया फिर वे अंतध्र्यान हो गए। जाते-जाते ब्रह्मा ने शंखचूड को धर्मध्वज की कन्या तुलसी से विवाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्मा की आज्ञा पाकर तुलसी और शंखचूड का विवाह हो गया। ब्रह्मा और विष्णु के वर के मद में चूर दैत्यराज शंखचूड ने तीनों लोकों पर स्वामित्व स्थापित कर लिया। देवताओं ने त्रस्त होकर विष्णु से मदद मांगी परंतु उन्होंने खुद दंभ को ऐसे पुत्र का वरदान दिया था अत: उन्होंने शिव से प्रार्थना की। तब शिव ने देवताओं के दुख दूर करने का निश्चय किया और वे चल दिए। परंतु श्रीकृष्ण कवच और तुलसी के पतिव्रत धर्म की वजह से शिवजी भी उसका वध करने में सफल नहीं हो पा रहे थे तब विष्णु से ब्राह्मण रूप बनाकर दैत्यराज से उसका श्रीकृष्ण कवच दान में ले लिया और शंखचूड का रूप धारण कर तुलसी के शील का अपहरण कर लिया। अब शिव ने शंखचूड को अपने त्रिशूल से भस्म कर दिया और उसकी हड्डियों से शंख का जन्म हुआ। चूंकि शंखचूड विष्णु भक्त था अत: लक्ष्मी-विष्णु को शंख का जल अति प्रिय है और सभी देवताओं को शंख से जल चढ़ाने का विधान है। परंतु शिव ने चूंकि उसका वध किया था अत: शंख का जल शिव को निषेध बताया गया है। इसी वजह से शिवजी को शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता है।

भारतीय धर्मशास्त्रों में शंख का विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। मान्यता है कि इसका प्रादुर्भाव समुद्र-मंथन से हुआ था। समुद्र-मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में से छठवां रत्न शंख था। अन्य 13 रत्नों की भांति शंख में भी वही अद्भुत गुण मौजूद थे। विष्णु पुराण के अनुसार माता लक्ष्मी समुद्रराज की पुत्री हैं तथा शंख उनका सहोदर भाई है। अत यह भी मान्यता है कि जहाँ शंख है, वहीं लक्ष्मी का वास होता है। इन्हीं कारणों से शंख की पूजा भक्तों को सभी सुख देने वाली है। शंख की उत्पत्ति के संबंध में हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सृष्टी आत्मा से, आत्मा आकाश से, आकाश वायु से, वायु आग से, आग जल से और जल पृथ्वी से उत्पन्न हुआ है और इन सभी तत्व से मिलकर शंख की उत्पत्ति मानी जाती है। भागवत पुराण के अनुसार, संदीपन ऋषि आश्रम में श्रीकृष्ण ने शिक्षा पूर्ण होने पर उनसे गुरु दक्षिणा लेने का आग्रह किया। तब ऋषि ने उनसे कहा कि समुद्र में डूबे मेरे पुत्र को ले आओ। कृष्ण ने समुद्र तट पर शंखासुर को मार गिराया। उसका खोल शेष रह गया। माना जाता है कि उसी से शंख की उत्पत्ति हुई। पांचजन्य शंख वही था। पौराणिक कथाओं के अनुसार, शंखासुर नामक असुर को मारने के लिए श्री विष्णु ने मत्स्यावतार धारण किया था। शंखासुर के मस्तक तथा कनपटी की हड्डी का प्रतीक ही शंख है। उससे निकला स्वर सत की विजय का प्रतिनिधित्व करता है।

अगहन मास में शंख पूजा से सभी मनोवांछित फल प्राप्त हो जाते हैं। शंख को देवता का प्रतीक मानकर पूजा जाता है एवं इसके माध्यम से अभीष्ट की प्राप्ति की जाती है। शंख की विशिष्ट पूजन पद्धति एवं साधना का विधान भी है। पंचजन्य की पूजा भी भगवान श्री हरि की आराधना के समान ही पुण्य देने वाली मानी गई है। विधि-विधान से इस माह शंख की पूजा की जानी चाहिए। जिस प्रकार सभी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, वैसे ही शंख का भी पूजन करें। वास्तु में भी शंख के बारे में गुणगान किया गया है| ज्योतिष बताते हैं कि शंख में ऐसी खूबियां है जो वास्तु संबंधी कई समस्याओं को दूर करके घर में सकारात्मक उर्जा को आकर्षित करता है जिससे घर में खुशहाली आती है। शंख की ध्वनि जहां तक पहुंचती हैं वहां तक की वायु शुद्ध और उर्जावान हो जाती है। वास्तु विज्ञान के अनुसार सोयी हुई भूमि भी नियमित शंखनाद से जग जाती है। भूमि के जागृत होने से रोग और कष्ट में कमी आती है तथा घर में रहने वाले लोग उन्नति की ओर बढते रहते हैं। भगवान की पूजा में शंख बजाने के पीछे भी यह उद्देश्य होता है कि आस-पास का वातावरण शुद्ध पवित्र रहे।

शंख कई प्रकार के होते हैं और सभी प्रकारों की विशेषता एवं पूजन-पद्धति भिन्न-भिन्न है। उच्च श्रेणी के श्रेष्ठ शंख कैलाश मानसरोवर, मालद्वीप, लक्षद्वीप, कोरामंडल द्वीप समूह, श्रीलंका एवं भारत में पाये जाते हैं। शंख की आकृति के आधार पर इसके प्रकार माने जाते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं - दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। जो शंख दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है, वह दक्षिणावृत्ति शंख कहलाता है। जिस शंख का मुँह बीच में खुलता है, वह मध्यावृत्ति शंख होता है तथा जो शंख बायें हाथ से पकड़ा जाता है, वह वामावृत्ति शंख कहलाता है। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरुड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं। हिन्दुओं के 33 करोड़ देवता हैं। सबके अपने- अपने शंख हैं। देव-असुर संग्राम में अनेक तरह के शंख निकले, इनमे कई सिर्फ़ पूजन के लिए होते है।

शंख का धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक भी महत्व है| तो आइये जानते हैं क्या है इसका वैज्ञानिक महत्त्व- 

अगर आपको खांसी, दमा, पीलिया, ब्लडप्रेशर या दिल से संबंधित मामूली से लेकर गंभीर बीमारी है तो इससे छुटकारा पाने का एक सरल-सा उपाय है - शंख बजाइए और रोगों से छुटकारा पाइए। शंखनाद से आपके आसपास की नकारात्मक ऊर्जा का नाश तथा सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। शंख से निकलने वाली ध्वनि जहां तक जाती है वहां तक बीमारियों के कीटाणुओं का नाश हो जाता है। 

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, पूजा के समय शंख में जल भरकर देवस्थान में रखने और उस जल से पूजन सामग्री धोने और घर के आस-पास छिड़कने से वातावरण शुद्ध रहता है। क्योकि शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में गंधक, फास्फोरस और कैल्शियम जैसे उपयोगी पदार्थ मौजूद होते हैं। इससे इसमें मौजूद जल सुवासित और रोगाणु रहित हो जाता है। इसीलिए शास्त्रों में इसे महाऔषधि माना जाता है।

शंखनाद से सकारात्मक ऊर्जा का सर्जन होता है जिससे आत्मबल में वृद्धि होती है। शंख में प्राकृतिक कैल्शियम, गंधक और फास्फोरस की भरपूर मात्रा होती है। प्रतिदिन शंख फूंकने वाले को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। शंख से मुख के तमाम रोगों का नाश होता है। शंख बजाने से चेहरे, श्वसन तंत्र, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों का व्यायाम होता है। शंख वादन से स्मरण शक्ति बढ़ती है। आयुर्वेद के अनुसार शंखोदक भस्म से पेट की बीमारियाँ, पीलिया, कास प्लीहा यकृत, पथरी आदि रोग ठीक होते हैं।

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नेता जी सुभाषचन्द्र बोस की जयंती पर विशेष.......

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें आज भी लोग दिल से याद करते हैं| सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था, लेकिन बोस की मृत्यु को लेकर आजतक असमंजस्य बना हुआ है| 

भाई से था सबसे ज्यादा लगाव

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था| बोस के पिता कटक शहर के मशहूर वकील थे| बोस के पिता ने कटक की महापालिका में लंबे समय तक काम किया था और वह बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे| अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें 'रायबहादुर' का खिताब दिया था| प्रभावती और जानकीनाथ बोस की 14 संतानें थी, जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे| सुभाषचंद्र उनकी 9वीं संतान थे| अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था| सुभाष, शरदचंद्र को मेजदा कहकर बुलाते थे| दोनों भाइयों में बहुत लगाव था| दोनों हमेशा एक-दूसरे के साथ रहते थे| 

गांधीजी से पहली मुलाकात

सुभाषचन्द्र बोस कोलकाता के स्वतंत्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्यों से प्रेरित थे| वह सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे अतः उन्होंने इंग्लैंड से उन्हें पत्र लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की| 

रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के मुताबिक भारत वापस आने पर वह सर्वप्रथम मुम्बई गये और महात्मा गाँधी से मुलाकात की| उस समय गाँधी जी मुम्बई के मणिभवन में निवास करते थे| वहाँ, 20 जुलाई, 1921 को महात्मा गाँधी और सुभाषचंद्र बोस के बीच पहली बार मुलाकात हुई| गाँधीजी ने भी उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी| इसके बाद बोस ने दासबाबू से भेट की| 

स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश

उन दिनों गाँधीजी, अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ 'असहयोग आंदोलन' कर रहे थे| वहीँ दासबाबू इस आंदोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे| उनके साथ सुभाषबाबू इस आंदोलन में सहभागी हो गए| वर्ष 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अंतर्गत 'स्वराज पार्टी' की नींव रखी| दासबाबू ने बोस को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया| बोस ने अपने कार्यकाल में कोलकाता महापालिका का पूरा ढाँचा और काम करने का तरीका ही बदल कर रख दिया| कोलकाता में जो रास्तों के अंग्रेज़ी नाम बदलकर, उन्हें भारतीय नाम दिया| जिन लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में अपने प्राण न्यौछावर किये थे उस लोगों के परिजाओं को महापालिका में नौकरी मिलने लगी|

नेहरू के साथ शुरू की इंडिपेंडन्स लिग

अपने कार्य से बोस बहुत ही जल्द एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए| पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ बोस ने कांग्रेस के अंतर्गत युवकों की 'इंडिपेंडन्स लिग' शुरू की| वर्ष 1928 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाए| कोलकाता में बोस ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था| साइमन कमीशन को जवाब देने के लिए, कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा| पंडित मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और बोस उसके एक सदस्य थे| 

नहीं बचा सके भगत सिंह को

26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्रध्वज फैलाकर बोस ने एक विशाल मोर्चा का नेतृत्व किया| इस दौरान पुलिस ने उन पर लाठी चलायी, जिससे वह घायल हो गए| जब बोस जेल में थे, तब गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा किया गया, लेकिन अंग्रेजों ने सरदार भगत सिंह को रिहा करने से इनकार कर दिया| यही नहीं भगत सिंह की फांसी माफ़ कराने के लिए गाँधीजी ने सरकार से बात भी की, लेकिन वह नहीं माने| बोस चाहते थे कि गाँधीजी, अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड दें, लेकिन गांधीजी इसके लिए राजी नहीं हुए| अंग्रेज सरकार भी अडी रही इसके चलते भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दे दी गई| 

अपने सार्वजनिक जीवन में बोस को कुल 11 बार जेल जाना पड़ा| सबसे पहले उन्हें 1921 में छह महीन एके लिए जेल जाना पड़ा| 

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद बोस को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था| उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया| 18 अगस्त1945 को नेताजी हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जा रहे थे कि अचानक रास्ते में उनका जहाज लापता हो गया| उस दिन के बाद आज तक बोस का कोई आता-पता नहीं है| उन्हें आज तक कोई खोज नहीं सका|

बचपन से ही थे सुभाष-

नेता जी के घर के सामने एक बूढ़ी भिखारिन रहती थी। वे देखते थे कि वह हमेशा भीख मांगती थी और दर्द साफ दिखाई देता था। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उसका दिल दहल जाता था। भिखारिन से मेरी हालत कितनी अच्‍छी है यह सोचकर वे स्वयं शर्म महसूस करते थे। 

उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट होता था कि उसे दो समय की रोटी भी नसीब नहीं होती। बरसात, तूफान, कड़ी धूप और ठंड से वह अपनी रक्षा नहीं कर पाती। यदि हमारे समाज में एक भी व्यक्ति ऐसा है कि वह अपनी आवश्यकता को पूरा नहीं सकता तो मुझे सुखी जीवन जीने का क्या अधिकार है और उन्होंने ठान लिया कि केवल सोचने से कुछ नहीं होगा, कोई ठोस कदम उठाना ही होगा। 

सुभाष के घर से उसके कॉलेज की दूरी 3 किलोमीटर थी। जो पैसे उन्हें खर्च के लिए मिलते थे उनमें उनका बस का किराया भी शामिल था। उस बुढ़िया की मदद हो सके, इसीलिए वह पैदल कॉलेज जाने लगे और किराए के बचे हुए पैसे वह बुढ़िया को देने लगे।

सुभाष जब विद्यालय जाया करते थे तो मां उन्हें खाने के लिए भोजन दिया करती थी। विद्यालय के पास ही एक बूढ़ी महिला रहती थी। वह इतनी असहाय थी कि अपने लिए भोजन तक नहीं बना सकती थी। प्रतिदिन सुभाष अपने भोजन में से आधा भोजन उस बुढ़िया को दिया करते थे। एक दिन सुभाष ने देखा कि वह बुढ़िया बहुत बीमार है। सुभाष ने 10 दिन तक उस बुढ़िया की मन से सेवा की और वह बुढ़िया ठीक हो गई। ऐसे थे अपने नेता जी सुभाष चन्द्र बोस

उत्तर भारत में अधिक देखने को मिलती है सर्दियों की उदासी

पश्चिमी देशों की आम समस्याएं निराशा, एकाकीपन, अरुचि और नकारात्मक भावना भारतीयों को भी अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। चिकित्सकों के मुताबिक सर्दियों की उदासी (विंटर ब्लूज) के नाम से पहचानी जाने वाली यह समस्या उत्तर भारत में अधिक देखने को मिलती है। 

पुष्पावती सिंघानिया रिसर्च सेंटर की मनोविज्ञानी बृष्टि बर्काटकी ने कहा कि इस मौसम में लोग अलगाव, चिड़चिड़ापन, कमजोरी और एकाकीपन जैसी भावनाओं की शिकायत करते हैं। जीवन में आने वाली छोटी-छोटी समस्याओं को भी बहुत बड़ा समझने लगते हैं और कई बार खुद से ही उसका इलाज भी करने लगते हैं।

उन्होंने कहा कि भारत में 1.5-2 करोड़ लोग सर्दियों की उदासी से प्रभावित होते हैं। सर्दी के मौसम में घर से बाहर निकलना कम होने और धूप नहीं मिल पाने के कारण यह संख्या बढ़ती जा रही है। सर गंगा राम अस्पताल के वरिष्ठ सलाहकार राजीव मेहता ने कहा कि सर्दियों की उदासी या मौसम प्रभावित अवसाद (एसएडी) धूप की अवधि कम होने से मस्तिष्क में जैवरासायनिक असंतुलन के कारण पैदा होता है।

उन्होंने कहा कि इस मौसम में धूप की कमी के कारण स्ट्रोटाइनिन का स्तर घट जाता है और लोग उदासी महसूस करने लगते हैं। मेहता ने कहा, "कड़ाके की ठंड के कारण शारीरिक गतिविधि का अभाव और घर से बाहर नहीं निकलने के कारण भी लोग एकाकीपन और उदासी महसूस करने लगते हैं।"

कई लोग शरीर दर्द, कब्ज और सिर दर्द की भी शिकायत करते हैं। मेहता ने कहा, "सर्दी के मौसम में लोग यह सोच कर घर से बाहर नहीं निकलते हैं कि कहीं जुकाम न हो जाए, लेकिन उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि इस मौसम में धूप और विटामिन डी की जरूरत होती है क्योंकि सर्दियों में घर में खुद को बंद रखने से विटामिन डी का स्तर शरीर में घट जाता है।"

गुड़गांव के कोलंबिया एशिया अस्पताल के मनोवैज्ञानिक आशीष मित्तल ने कहा, "घर से बहुधा बाहर निकलकर, सुबह के समय में धूप का सेवन कर और शराब तथा धूम्रपान को पूरी तरह से छोड़कर अवसाद से बचा जा सकता है।" मित्तल ने कहा कि 2020 तक हृदय रोग के बाद अवसाद दूसरी सबसे आम बीमारी हो जाएगी। उन्होंने कहा कि बेहतर खान-पान, चिकित्सकों से सलाह मशविरा, घर से बाहर निकलकर घूमना और धूप का सेवन करना इस समस्या का इलाज है।

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वर्ष 2014 में कई बड़ी फिल्में बॉक्स आफिस पर धूम मचाने को तैयार

बॉलीवुड में हर वर्ष अनगिनत फ़िल्में बनतीं हैं। जिनमें कुछ ऐसी होतीं हैं जो लोगों के दिलों-दिमाग पर छा जातीं हैं और कुछ ऐसी होतीं हैं जो कब आतीं हैं और कब चली जातीं हैं किसी को पता ही नही चलता। लेकिन बॉलीवुड फिल्मों के लिए वर्ष 2013 तेरह काफी सफल साबित हुआ। इस साल में कई रिकॉर्ड बने और कई रिकार्ड् टूटे। फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ कमाई की। वर्ष 2014 से भी ऐसी ही कुछ उम्मीद है। इस साल कई बड़ी फिल्में बॉक्स आफिस पर धूम मचाने का इंतजार कर रहीं हैं। आईये जानतें हैं इस वर्ष रिलीज होने वाली फिल्मों के बारे में..... 

जनवरी 

पिछले साल बड़े पर्दे से दूर रहे बॉलीवुड दबंग सलमान खान ले कर आ रहें हैं अपनी फ़िल्म जय हो, जो 24 जनवरी को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही है। सोहेल खान द्वारा निर्देशित फ़िल्म 'जय हो' दक्षिण भारतीय फिल्‍म 'स्‍टालिन' की हिंदी रीमेक है। इस फिल्‍म में चिरंजिवी ने मुख्‍य भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म में सलमान का एक्शन देखने को मिलेगा। जिसका दर्शकों को बेसब्री से इंतज़ार है। 

31 जनवरी को रिलीज हो रही है 'वन बाई टू'। देविका भगत के निर्देशन में बनी इस फिल्म में अभय देओल मुख्य भूमिका में नजर आयेगें। रोमांटिक और कॉमेडी से भरपूर है यह फिल्म। 

फ़रवरी 

7 फ़रवरी को रिलीज हो रही है धर्मा प्रोडक्शन की फ़िल्म हंसी तो फंसी। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में सिद्धार्थ मल्होत्रा और परणीति चोपड़ा हैं। ये एक रोमांटिक फ़िल्म होगी। वहीँ शेखर सुमन द्वारा निर्मित फ़िल्म हार्टलेस भी 7 फ़रवरी को ही रिलीज हो रही है। 

14 फ़रवरी को पर्दे पर होगी यशराज बैनर की नई फिल्म 'गुंडे'। 1970 के दशक में आधारित यह फिल्म दो अनाथ दोस्तों की कहानी है, जो परिस्थितियों के चलते अपराध की दुनिया में गहरे से धंस जाते हैं। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में होंगे प्रियंका चोपड़ा, रणवीर सिंह और अर्जुन कपूर। 

वहीँ साजिद नाडियावाला और इम्तियाज अली की फ़िल्म हाईवे 21 फ़रवरी को रिलीज की जा रही है। इस फिल्म में आलिया भट्ट और रणदीप हुड्डा होंगे। ये एक रोड मूवी है। इस फिल्म में ऑस्कर अवॉर्ड विजेता एआर रहमान का म्यूजिक है। 

बॉलीवुड अभिनेता फरहान अख्‍तर और बॉलीवुड अभिनेत्री विद्या बालन जल्‍द ही ‘शादी के साइड इफेक्‍ट्स’ में नजर आएंगे। बालाजी मोशन पिक्‍चर्स और प्रीतीश नंदी कम्‍युनिकेशन लिमिटेड की इस फिल्‍म में एक शादीशुदा जोड़े की कहानी है जो शादी और एक बच्‍चा हो जाने के बाद फिर से एक-दूसरे में प्‍यार खोज रहे हैं। फिल्‍म का निर्देशन साकेत चौधरी ने किया है और यह 28 फरवरी को रिलीज होने वाली है। 

मार्च 

7 मार्च को दर्शकों के सामने होगी अभिनेत्री माधुरी दीक्षित बहुप्रतीक्षित फ़िल्म गुलाब गैंग। हालिया रिलीज फ़िल्म डेढ़ इश्किया को अच्छी ओपनिंग मिली। काफी समय से पर्दे से दूर रहने के बावजूद माधुरी का जादू दर्शकों पर अभी भी बरकरार है। एक और फ़िल्म रिलीज हो रही है 'टोटल श्यापा'। इस फ़िल्म यामी गौतम और अली जफ़र मुख्य भूमिका में नजर आयेगें। विक्रम भट्ट निर्मित फ़िल्म हेट स्टोरी 14 मार्च को रिलीज हो रही है। 

सनी लियोन की फ़िल्म रागिनी एमएमएस 2 21 मार्च को दर्शकों के सामने होगी। भूषण पटेल द्वारा निर्देशित फ़िल्म में सनी का बोल्ड अवतार देखने को मिलेगा। 28 मार्च को पर्दे पर होगी 'यंगिस्तान'। इस फ़िल्म में मुख्य भूमिका में जैकी भागनेनी होंगें। ये फ़िल्म आज के यूथ को डेडिकेटेड होगी।

अप्रैल 

4 अप्रैल को रिलीज हो रही है फ़िल्म मै तेरा हीरो। इस फ़िल्म में वरुण धवन इलियाना डिक्रूज और नर्गिस फाकरी मुख्य भूमिका में नजर आयेगें। 11 अप्रैल को रिलीज हो रही है बॉलीवुड महानायक अमिताभ बच्चन की फ़िल्म 'भूतनाथ रिटर्न्स' ये फ़िल्म वर्ष 2008 में आयी फ़िल्म भूतनाथ का सीक्वल है। इस फ़िल्म में अमिताभ ने भूत का किरदार निभाया था। 

18 अप्रैल को रिलीज होगी 'टू स्टेटस'। यह फिल्म चेतन भगत के नॉवेल पर आधारित है। अर्जुन कपूर और आलिया भट्ट मुख्य भूमिका में होंगें। करण जौहर और साजिद नाडियावाला इस फिल्म के निर्माता हैं और अभिषेक वर्मन इसका निर्देशन करेंगे। 

मई 

राउडी राठौर जैसे फिल्म बनाने वाले प्रभु देवा की पिछली फिल्म आर राजकुमार कुछ खास नहीं रही। लेकिन उनकी आने वाली फ़िल्म एक्शन-जैक्सन से वे फिर कमाल कर सकते हैं। फ़िल्म 1 मई को पर्दे पर होगी। साथ ही अजय देवगन की 2014 में रिलीज होने वाली यह पहली फिल्म होगी। 16 मई को फुगली पर्दे पर होगी। यह एक साइकोलॉजिकल थ्रिलर फ़िल्म है। वहीँ 23 मई को रिलीज हो रही करण जौहर द्वारा निर्मित इस फ़िल्म में इमरान हाशमी, संजय दत्त कंगना रनौत लीड रोल में होंगे। 

29 को रिलीज हो रही 'जग्‍गा जासूस' एक कॉमेडी लेकिन रहस्‍य की दुनिया पर केंद्रित फिल्‍म है। इसमें रणबीर कपूर, कटरीना कैफ और गोविंदा मुख्‍य भूमिका में हैं। फिल्‍म के डायरेक्‍टर अनुराग बासु हैं। 

जून 

वहीँ जून में तीन फ़िल्में रिलीज को तैयार हैं। जिसमे 6 जून को 'हॉलीडे', 20 जून को 'हमशक्ल' और 'रॉय' रिलीज हो रही है। 'रॉय' में रणबीर कपूर, जैकलिन, अर्जुन राम पाल होंगें। 'हॉलीडे' एक एक्‍शन थ्रिलर फिल्‍म है जो इस साल जून में रिलीज हो रही है। फिल्‍म में अक्षय कुमार और सोनाक्षी सिन्‍हा मुख्‍य भूमिका में हैं। 

जुलाई 

11 जुलाई को हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया, 27 जुलाई को सलमान की 'किक' फिल्‍म के डायरेक्‍टर साजिद नाडियाडवाला हैं। 

अगस्त 

अगस्त में 8 अगस्त को 'इट्स इंटरटेनमेंट', और 15 अगस्त को 'सिंघम-2'। साल 2011 की हिट फिल्‍म सिंघम का सीक्‍वल 'सिंघम-2' में अजय देवगन मुख्‍य भूमिका में हैं लेकिन सिंघम की लीड हीरोइन काजल अग्रवाल की जगह इस बार करीना कपूर को लिया गया है। फिल्‍म के निर्देशक रोहित शेट्टी हैं। 

सितम्बर 

सितम्बर की आने वाली फिल्मों में 5 सितम्बर को 'किल दिल' और 12 सितम्बर को 'एनएच 10' । 

अक्टूबर 

अक्टूबर का महीना काफी धमाकेदार रहने वाला है। इस महीने तीन बड़ी फिल्मे रिलीज होने वाली हैं। 2 को 'बैंग बैंग' इस फिल्म ऋतिक रोशन की 'कृष-3' ने बॉक्स ऑफिस में धूम मचा दी, तो दूसरी तरफ उनकी पत्नी सुजैन खान ने उनके तलाक ले लिया। लेकिन हम उम्मीद करेंगे कि साल 2014 ऋतिक के लिए अच्छा रहेगा। फिल्म में इनके साथ कैटरीना कैफ नजर आएंगी।

2 को ही रिलीज हो रही फैंटम। कैटरीना की फ़िल्म ने वर्ष 2013 में अपनी धूम-3 से धूम मचाई और अब वे साल 2014 में भी धमाका करने जा रहीं हैं। सैफ अली खान, कैट फिल्म फैंटम लेकर आ रहे हैं।
वहीँ फरहा खान निर्देशित और शाहरुख़ खान अभिनीत फ़िल्म हैपी न्यू ईयर 24 को पर्दे पर होगी। पिछले साल शाहरुख ने चेन्नई एक्सप्रेस जैसी सुपरहिट फिल्म दी और इस साल भी वे कुछ धमाका ही करने जा रहे हैं। 

नवंबर 

7 को इमरान हाशमी और विद्या बालन की फ़िल्म हमारी अधूरी कहानी दर्शकों के सामने होगी। 

दिसम्बर 

5 को रिलीज हो रही है अभिषेक बच्चन अभिनीत फ़िल्म ऑल इस वेल। डिटेक्टिव ब्‍योमकेश बक्‍शी' यशराज फिल्‍म्‍स के बैनर तले बन रही फिल्‍म है, जो 12 को रिलीज होगी। फिल्‍म के डायरेक्‍टर दिबाकर बनर्जी और प्रोड्यूसर आदित्‍य चोपड़ा हैं। फिल्‍म में सुशांत सिंह राजपूत मुख्‍य भूमिका में हैं। 

25 को रिलीज हो रही है आमिर खान की 'पीके' और जॉन अब्राहम की 'वेलकम बैक'। 'धूम 3' के बाद इस साल आमिर की एक और बड़ी फिल्म पीके रिलीज होने वाली है। इस फिल्म में आमिर के अलग-अलग अवतार देखने को मिलेंगे। 25 को ही बॉम्‍बे वेल्‍वेट' हिंदी ड्रामा फिल्‍म है जो इस साल रिलीज हो रही है। अनुराग कश्‍यप के डायरेक्‍शन में बन रही इस फिल्‍म में रणबीर कपूर और अनुष्‍का शर्मा लीड रोल में हैं।

सुचित्रा सेन: 59 फिल्मों की नायिका एक गूढ़ पहेली

बांग्ला फिल्मों की दिलकश महानायिका सुचित्रा सेन ने अपनी सुंदरता, भव्यता और असंख्य भूमिकाओं के माध्यम से तीन पीढ़ियों को सम्मोहित किया। फिर भी तीन दशकों से लंबे आत्म-वैराग्य की वजह से उनकी तुलना हॉलीवुड की आदर्श नायिका ग्रेटा गार्बो से हुई। अपने 26 साल के करियर में महानायिका सुचित्रा ने 59 फिल्मों में अभिनय किया। उन्होंने बांग्ला फिल्मों के सबसे आदर्श पुरुष उत्तम कुमार के साथ बांग्ला सिनेमा के स्वर्णयुग में प्रवेश किया। सुचित्रा ने 'देवदास', 'बंबई का बाबू', 'आंधी', 'ममता' और 'मुसाफिर' सरीखी हिंदी फिल्मों में यादगार भूमिकाएं निभाईं।

अपनी खूबसूरती और भव्यता से पीढ़ियों को सम्मोहित करने वाली 82 वर्षीया अभिनेत्री ने शुक्रवार को कोलकाता के नर्सिग होम में अंतिम सांस ली। एक चिकित्सक ने बताया कि वह पिछले 26 दिनों से सांस संबंधी तकलीफ की वजह से यहां उपचाराधीन थीं। वह भारत और बांग्लादेश दोनों ही देशों में बांग्लाभाषी लोगों के बीच लोकप्रिय थीं। उनकी अंतिम फिल्म 'प्रणय पाशा' 1978 में प्रदर्शित हुई थी। हिंदी फिल्मों में उन्हें 'तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा', 'तुम आ गए हो नूर आ गई है..', 'रहे न रहे हम, महका करेंगे..' सरीखे गीतों वाले दृश्यों में उनके बेजोड़ अभिनय के लिए याद किया जाता है।

नामचीन ब्रिटिश फिल्म आलोचक डेरेक मैल्कम ने एक बार कहा था, "सुचित्रा बहुत, बहुत, बहुत सुंदर हैं। उन्हें अभिनय के लिए बहुत मशक्कत करने की जरूरत नहीं पड़ी।" हालांकि, सुचित्रा ने सभी फिल्मों में जबर्दस्त प्रस्तुतियां दीं। लेकिन उनमें से 52 फिल्में बांग्ला की रहीं और हिंदी की सात। बांग्ला फिल्म 'सात पाके बांधा' में एक महिला की मानसिक पीड़ा की बेजोड़ अभिव्यक्ति के लिए उन्हें 1963 में मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का 'सिल्वर प्राइज' मिला था।

वह कई मामलों में नए चलन की शुरुआत करने वाली मानी जाती हैं। वर्ष 1947 में दिवानाथ सेन संग शादी के पांच वर्षो बाद फिल्मों में कदम रखना था। उन दिनों एक विवाहिता के लिए इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हालांकि, कहा गया कि उनका वैवाहिक जीवन चट्टान की तरह मजबूत था। 6 अप्रैल, 1931 को हेडमास्टर पिता करुणामय दासगुप्ता और गृहिणी इंदिरा देवी के घर जन्मीं रमा दासगुप्ता को वर्ष 1952 में उसकी पहली फिल्म 'शेष कोथाय' से सुचित्रा नाम मिला। लेकिन यह फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पाई।

वह अपनी अगली हास्य फिल्म 'शारेय चुआत्तर' में उत्तम संग नजर आईं। यह फिल्म सफल रही। इस जोड़ी ने 20 वर्षो तक दर्शकों को अपना गुलाम बनाए रखा। उन्होंने इसके बाद 30 फिल्में कीं। इनमें 'अग्निपरीक्षा', 'शाप मोचन' (1955), 'सागरिका' (1956), 'हारानो सुर' (1957), 'इंद्राणी' (1958), 'छाउवा पावा' (1959) और 'सप्तपदी' (1961) सरीखी फिल्में शामिल हैं। उन्हें 'दीप ज्वले जाइ' और 'उत्तर फाल्गुनी' सरीखी बांग्ला फिल्मों में उनके दमदार अभिनय के लिए जाना जाता है। सुचित्रा सेन को वर्ष 2012 में पश्चिम बंगाल सरकार ने अपने सर्वोच्च पुरस्कार 'बंग विभूषण' से सम्मानित किया था।
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बॉलीवुड में इन अभिनेत्रियों ने दिखाई अपनी सुडौल काया की शान

बॉलीवुड में छरहरी काया वाली अभिनेत्रियों को तरजीह दिए जाने के चलन में बदलाव आ रहा है। अभिनय के बल पर सुडौल काया वाली अभिनेत्रियों ने अपने बॉलीवुड में जगह बनाई है। इस सूची में विद्या बालन, परिणीति चोपड़ा जैसे नाम भी शामिल हैं जिन्होंने अपनी सुडौल काया की शान दिखाई।

बॉलीवुड की सुडौल काया वाली अभिनेत्रियां :

सोनाक्षी सिन्हा : फिल्म उद्योग में शामिल होने से पहले सोनाक्षी का वजन 90 किलोग्राम था। पहली फिल्म 'दबंग' से पहले सोनाक्षी ने 30 किलोग्राम वजन घटाया लेकिन जीरो फिगर नहीं हो पाईं लेकिन अपनी अभिनय क्षमता के बल पर वह सफलता की सीढ़ियां चढ़ रही हैं। 


विद्या बालन : विद्या को इस बात की चिंता नहीं होती कि दूसरे लोग उनके शरीर को लेकर क्या कहते हैं। विद्या खुद को आत्मविश्वास से भरा रखती हैं और प्रशंसक उनके अभिनय के मुरीद होते हैं। उनके अभिनय कौशल की कभी अनदेखी नहीं हुई। 2011 में आई 'द डर्टी पिक्चर' में उन्होंने अपना वजन बढ़ाया भी था और फिल्म में सिल्क स्मिता के किरदार के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।


हुमा कुरैशी : रेस्तरां मालिक सलीम कुरैशी की बेटी हुमा कुरैशी खुद को खाने की शौकीन कहती हैं। उन्हें वजन घटाने में दिलचस्पी नहीं है, लेकिन वह फिट रहने में यकीन करती हैं। उन्हें लगता है कि उनका वजन उनके बॉलीवुड कैरियर में रोड़ा नहीं बनना चाहिए। हाल ही में आई 'डेढ़ इश्किया' में उनके काम के लिए हुमा की तारीफ हुई है।


परिणीति चोपड़ा : प्रियंका चोपड़ी की चचेरी बहन परिणीति को बबली भी कहा जाता है। 'इशकजादे' में उन्होंने लहंगे से लेकर जींस-टीशर्ट और कुर्ते जैसे परिधान पहने। वह भी अपनी अभिनय क्षमताओं पर ध्यान देती हैं।


सनी लियोन : कनाडियाई वयस्क फिल्मों की चर्चित हस्ती से अभिनेत्री बनीं सनी ने 2012 में 'जिस्म 2' से बॉलीवुड में अपना आगाज किया और उन्हें उनके सुडौल शरीर के साथ स्वीकार किया गया। सनी ने साबित कर दिया कि बिकनी जैसे छोटे कपड़े पहनने के लिए छरहरी काया की जरूरत नहीं होती।

यह कैसी परम्परा! यहाँ कुत्ते के बच्चे से होता है बच्चों का विवाह

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में आदिवासी मुंडा समाज में एक अजीबोगरीब परंपरा आज भी कायम है। यहां ग्रह-दोष मिटाने के लिए बच्चों का विवाह कुत्ते के बच्चे के साथ किया जाता है। मकर संक्रांति के अगले दिन बुधवार को पारंपारिक गीतों के बीच दुधमुंहे बच्चे सहित पांच साल के आठ बच्चों की शादी धूमधाम से की गई। बच्चों के साथ दूल्हे-दुल्हन के रूप में कुत्ते के बच्चे बैठे थे। खुशनुमा माहौल में समाज के लोग गीतों पर थिरक भी रहे थे। ऐसा दृश्य बालको नगर के समीप बेलगरी नाला बस्ती के उड़िया मोहल्ले में दिनभर देखने को मिला। 

बताया जाता है कि समाज में मान्यता है कि दुधमुंहे बच्चों के ऊपरी दांत पहले निकलने पर उसे ग्रहदोष लग जाता है। इसलिए पांच वर्ष से पहले ऐसे बच्चों की शादी इस जानवर से की जाती है। शादी भी पूरे रीति-रिवाज व धूमधाम से होती है। बच्चों को दूल्हा-दुल्हन के रूप में सजाने के साथ कुत्ते के बच्चे को भी सजाया जाता है। उसे माला पहनाई जाती है। बारात निकालकर गांव के आखिरी छोर में बच्चों की शादी की जाती है। बड़े-बुजुर्ग पूजा-अर्चना के साथ ही बच्चों व कुत्ते को हल्दी भी लगाते हैं। इसके बाद सामान्य शादी की तरह मांग भरी जाती है, आशीर्वाद लिया जाता है। शादी संपन्न होते ही समाज की महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए झूमते-नाचते दूल्हा-दुल्हन को घर ले जाती हैं, जहां उनके पैर धुलाकर घर प्रवेश कराया जाता है। पप्पी को खाना खिलाया जाता है। इसके बाद रातभर जश्न मनाया जाता है।

दूल्हा-दुल्हन की देखरेख की जिम्मेदारी बड़े होने तक समाज के लोग ही निभाते हैं। समाज के लोगों के मुताबिक इस परंपरा को निभाने से बच्चों पर से सभी प्रकार के ग्रहदोष मिट जाते हैं। समाज की उम्रदराज खेदिन बाई ने बताया कि यह परंपरा सदियों से चली आ रही है। पूर्वजों के बताए अनुसार जिन बच्चों के ऊपर के दांत पहले निकलते हैं उनकी शादी कुत्ते से कराना अनिवार्य होता है। यहां के कई बड़े-बुजुर्गो की भी बचपन में ऐसी शादी हो चुकी है। बच्चों के परिजन भी रस्म अदा करते हुए कुत्ते का स्वागत करते हैं। उन्हें उपहार में रुपये भेंट किए जाते हैं। उनके भी हाथ-पैर व माथे में हल्दी का लेप किया जाता है। आखिर में दूल्हा कुत्ते का हाथ पकड़कर दुल्हन बच्ची के माथे में सिंदूर लगाया जाता है। वहीं दूल्हा बने बच्चे द्वारा दुल्हन कुत्ते के माथे में सिंदूर लगाकर शादी की रस्म पूरी कराई जाती है।

कोरबा जिले की सावित्री मुंडा ने बताया कि समाज में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है। ऐसा न करने पर युवावस्था में शादी करने वाले जोड़ों को ग्रहदोष घेर लेता है। परिवार के साथ अनिष्ट होने लगता है। यहां तक कि जोड़े में से किसी एक की मौत भी संभावित होती है। कुत्ते से शादी होने पर भविष्य में शादी करने वाले जोड़े सुख-समृद्धि में रहते हैं। मुंडा समाज में परंपरागत रिवाज के अनुसार मकर संक्रांति के अगले दिन ही बच्चों का कुत्ते के बच्चे से शादी का कार्यक्रम चलता है। दिनभर गाने व नाचने का दौर चलता है। वहीं बस्ती में विशेष व्यंजन बनाकर एक-दूसरे को बांटे जाते हैं।

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...इन्हीं माँ के आशीर्वाद से हुई थी जोधपुर और बीकानेर की स्थापना

राजस्थान की धरती पर अनेक सांस्कृतिक रंग रह पग पर नजर आते हैं। वीर सपूतों की इस धरती पर धर्म और आध्यात्म के भी कई रंग दिखाई देते हैं। धर्म-यात्रा सीरीज में आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहां खुद मां जगत जननी अपने इष्टदेव की पूजा अर्चना किया करती थीं। इन्ही माँ के आशीर्वाद से जोधपुर और बीकानेर जैसे राज्य की स्थापना हुई| इस माँ के दर्शन करने केवल राजस्थान से ही नहीं बल्कि देश विदेश से भक्त आते हैं| अब आप सोंच रहे होंगे कि आखिर कौन सा यह मंदिर है तो आपको बता दें कि यह है करनी माता का मंदिर जिसे चूहे वाली माता का मंदिर भी कहा जाता है| चूहे वाली माता का मंदिर इस लिए कहा जाता है क्योंकि इस मंदिर में एक-दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में चूहे मौजूद हैं खासकर आरती के वक्त तो चूहों से पूरा का पूरा मंदिर भरा रहता है। माता के दर्शन करने वालों के पैरों पर और शरीर पर भी चूहे चढ़ जाते है लेकिन फिर भी लोग चूहों से नाराज नहीं होते। इसे माता का आशीर्वाद और कृपा मानकर प्रसन्न होते हैं।

करनी माता के दर्शन करने के लिए जो भी भक्त आते हैं वह इन चूहों के खाने के लिए कुछ न कुछ जरूर लाते हैं। माता के मंदिर में सुबह की पूजा और शाम की आरती के समय चूहों की फौज देखने लायक होती है। मंदिर में आपको बड़ी ही सावधानी से अपना पैर रखना होगा अन्यथा एक दो चूहे पैरों से दबकर मर भी सकते हैं। चूहों का दबकर मर जाना यहां अपशकुन समझा जाता है। ये माता मंदिर बीकानेर से लगभग 30 किलोमीटर दूर जोधपुर रोड पर गांव देशनोक की सीमा में स्थित है। 

मान्यता है कि करनी माता का जन्म एक चारण परिवार में हुआ था। बाल्यकाल में ही इन्होंने अपने चमत्कारों से लोगों का कल्याण करना शुरू कर दिया जिससे लोगों ने इन्हें करनी माता कहना शुरू कर दिया। माता एक गुफा में रह अपने इष्ट देव की आराधना किया करती थी। यह गुफा आज भी मंदिर परिसर में स्थित है। माता के ज्योर्लिलीन होने के बाद इस स्थान पर मंदिर का निर्माण कर उसमें मूर्ति स्थापित की गयी। मंदिर में मौजूद चूहों के विषय में किंवदंती है कि माता के सौतेल पुत्र की मृत्यु कुएं में गिरने से हो गयी। 

माता ने यमराज को आदेश दिया कि उनके पुत्र को जीवित कर दे, यमराज ने माता के पुत्र को जीवित तो कर दिया लेकिन वह चूहा बन गया। इसलिए माना जाता है कि चूहे माता के पुत्र के समान हैं। माता के वंशज मृत्यु के बाद चूहा बनाकर मंदिर में पहुंच जाते हैं। जैसे अमरनाथ मंदिर में कबूतरों को दिखना शुभ माना जाता है ठीक इसी तरह करनी माता मंदिर में चूहों की फौज में सफेद चूहों का दिख जाना बड़ा ही शुभ संयोग माना जाता है। मान्यता है कि सफेद चूहा दिख जाने से मांगी गयी मुराद पूरी होती है। मंदिर परिसर में प्रसाद भी पहले चूहे खाते हैं फिर वह भक्तों को मिलता हैं|

...यहाँ मुस्लिम नहीं हिन्दू भाई मनाते हैं उर्स

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिला मुख्यालय से लगभग 12 किमी दूर स्थित डूमरडीह गांव के लोगों ने सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल खड़ी की है। गांव में एक भी मुस्लिम परिवार नहीं है, पर दो दशकों से यहां के लोग हजरत सैय्यद अली की मजार पर उर्स का आयोजन कर रहे हैं। यहां तीन दिनों तक चलने वाले उर्स के सारे प्रबंध हिंदू परिवार के लोग ही करते हैं। इस साल उर्स मंगलवार से शुरू हो गया है। 

ग्रामीणों ने बताया कि जब इंसान की खुशहाली और मदद के लिए ऊपर वाला मजहब नहीं देखता, तो वे इस झंझट में आखिर क्यों पड़ें। गांव में हजरत की मजार तैयार होने की भी अपनी एक कहानी है। गांव में निवासरत आदिवासी परिवार की मीना ध्रुव ने बताया कि करीब 21 साल पहले वह काफी बीमार रहती थीं। तब पूरा परिवार हार मान चुका था। इसी बीच किसी ने कुरूद के मीरा दातार बाबा की जानकारी दी। वहां जाकर दुआ मांगने के बाद उसे काफी लाभ हुआ। उसके बाद ध्रुव परिवार ने तय किया कि वह हजरत सैय्यद अली की मजार गांव में बनाएंगे। उनके गांव में एक भी मुसलमान न तब था, न आज है। पर गांव के कई और लोगों की भी बाबा के प्रति श्रद्धा थी। मजार बन गया तो लोग सेवा के लिए खुद ही आने लगे। 

मीना ने बताया कि दातार में हिंदू या मुसलमान सभी लोगों की मुरादें पूरी होने लगीं, तो विश्वास और गहरा हो गया। सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल को गांव के साहू परिवारों ने मजबूती दी। साहू समाज ने दातार में रोजमर्रा के आयोजनों के साथ मेले के लिए एक एकड़ जमीन दान कर दी। ग्रामीणों ने बताया कि मजार पर रोज आसपास के इलाके से लोग मन्नत मांगने आते हैं। पंचायत सचिव देवकी देवांगन और मनीष साहू ने बताया कि गांव के हिंदू परिवार बाबा को देवी-देवता की तरह मानते हैं।

दरबार समिति के अध्यक्ष शिवकुमार महानंद ने बताया कि गांव के सारे लोग अपनी हैसियत और श्रद्धा के हिसाब से आर्थिक सहयोग देते हैं। गांव की सरपंच मालती महानंद ने कहा कि गांव के लोगों की बाबा दातार के प्रति आस्था है। गांव के लोग यहां माथा टेकने के बाद ही किसी काम को शुरू करते हैं। हिंदू परिवारों ने उर्स के आयोजन के लिए बाकायदा दरबार समिति बना रखी है। इसके मार्गदर्शन में ही मेले का आयोजन होता है। गांव में मुस्लिम परिवार नहीं होने के कारण कुरूद (धमतरी) बाबा को बुलाकर मुस्लिम रीतियों से उर्स के मौके पर चादरपोशी की जाती है।

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सूर्यदेव की अगवानी का महापर्व है मकर संक्रांति

भारतीय ज्योतिष में 12 राशियों में से एक मकर राशि में सूर्य के प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं। इसे हिंदुओं का बड़ा दिन भी कहा जाता है। मकर संक्रांति शिशिर ऋतु की समाप्ति और वसंत के आगमन का प्रतीक है। इसे भगवान भास्कर की उपासना एवं स्नान-दान का पवित्रतम पर्व माना गया है। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी मकर संक्रांति 14 जनवरी को मनाई जायेगी|

मकर संक्रांति का पर्व जीवन में संकल्प लेने का दिन भी कहा गया है। संक्रांति यानी सम्यक क्रांति। इस दिन से सूर्य की कांति में परिवर्तन शुरू हो जाता है। वह दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर अभिमुख हो जाता है। उत्तरायण से रातें छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। अंधकार घटने लगता है और प्रकाश में बढ़ोतरी शुरू हो जाती है। जब प्रकृति शीत ऋतु के बाद वसंत के आने का इंतजार कर रही होती है, तो हमें भी अज्ञान के तिमिर से ज्ञान के प्रकाश की ओर मुड़ने और कदम तेज करने का मन बनाना चाहिए।

महाभारत युद्ध में अर्जुन के बाणों से बिंधे शर शय्या में लेटे भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन तक प्राण न छोड़ने का संकल्प लिया था। आज के दिन मन और इंद्रियों पर अंकुश लगाने के संकल्प के रूप में भी यह पर्व मनाया जाता है। लोग नदी, सरोवर या तीर्थ में स्नान करने जाते हैं। इस दिन तिल, गुड़ के व्यंजन, ऊनी वस्त्र, काले तिल आदि खाने और दान करने का विधान है। मकर संक्रांति ही एक ऐसा त्योहार है, जिसमें तिल का प्रयोग किया जाता है।

माघ मास में पड़ने वाला मकर संक्रांति का पर्व असम में बिहू कहलाता है। पंजाब में इसे लोहड़ी, बंगाल में संक्रांति और समस्त भारत में मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। सर्दी का प्रकोप शांत करने के लिए सूर्य भगवान की पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस ऋतु में रोजाना प्रात:काल सूर्य को एक लोटा जल चढ़ाने से सारे रोग दूर हो जाते हैं। सूर्य का बारह राशियों से युक्त रथ आकाश के चारों ओर घूमता है। इसी के साथ ऋतुओं में परिवर्तन होता है।

मकर संक्रांति के पर्व पर गुड़, घी, खिचड़ी बनाने के पीछे भी वैज्ञानिक आधार है। यह पर्व सदा 14 जनवरी को ही मनाया जाता है। मकर संक्रांति सामाजिक समरसता का पर्व है। मान्यता है कि तिल, घी, गुड़ और काली उड़द की खिचड़ी का दान और उसका सेवन करने से शीत का प्रकोप शांत होता है। दक्षिण भारत में बालकों के विद्याध्ययन का पहला दिन मकर संक्रांति से शुरू कराया जाता है। प्राचीन रोम में इस दिन खजूर, अंजीर और शहद बांटने का उल्लेख मिलता है। ग्रीक के लोग वर-वधू को संतान-वृद्धि के लिए तिल से बने पकवान बांटते थे।

जम्मू-कश्मीर और पंजाब में यह पर्व लोहड़ी के रूप में मनाया जाता है, जो संक्रांति के एक दिन पहले संपन्न होती है। सिंधी लोग इसे लाल लोही के नाम से जानते हैं। तमिलनाडु में लोग कृषि देवता के प्रति कृतज्ञता दर्शाने के लिए नई फसल के चावल और तिल के भोज्य पदार्थ से विधिपूर्वक पोंगल मनाते हैं। दक्षिण भारत में पोंगल, पश्चिम यूपी में संकरात, पूर्वी यूपी और बिहार में खिचड़ी के रूप में यह त्योहार मनाया जाता है।

खिचड़ी का आयोजन मौसम के मिले-जुले रूप के स्वागत के तौर पर किया जाता है। दाल-चावल मिलाकर खिचड़ी बनाने का तर्क यह है कि चावल की तासीर ठंडी होती है और दाल की गरम। जिस तरह इस समय ऋतुओं में गरम और ठंडे का समायोजन होता है, ठीक उसी तरह का समायोजन आहार में भी किया जाता है, ताकि बदलते मौसम का स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े। कई जगहों पर इस दिन मेले लगते हैं। पूर्वान्चल में इस दिन गोरखनाथ बाबा को खिचड़ी चढ़ाने का प्रचलन है।

इस दिन गंगा सागर में स्नान का माहात्म्य है। कहा जाता है कि मकर संक्रांति के दिन देवता भी धरा पर उतर आते हैं। कहीं-कहीं काले कपड़े पहनने का भी रिवाज है।

मकर संक्रान्ति के दिन दान का महत्व:-

इस दिन दान का विशेष महत्व हैं। विद्वानो के मत से मकर संक्रांति के दिन धार्मिक साहित्य-पुस्तक इत्यादी धर्म स्थलों में दान किये जाते हैं। संक्रांति के दिन दान करने से प्राप्त होने वाले पुण्य का फल अन्य दिनों की तुलना में बढ जाता हैं। इस लिये मकर संक्रांति के दिन यथासंभव किसी गरीब को अन्नदान, तिल एवं गुड का दान करना शुभदायक माना गया हैं। तिल या तिल से बने लड्डू या फिर तिल के अन्य खाद्ध पदार्थ भी दान में दिये जा सकते हैं।

मकर संक्रांति पर स्नान का महत्व:-

मकर संक्रांन्ति के दिन यह मान्यता है कि इस दिन सूर्य के उत्तरायाण में प्रवेश करने से देवलोक में रात्रि समाप्त होती हैं और दिन की शुरूआत होती है। देवलोक का द्वारा जो सूर्य के दक्षिणायण होने से 6 महीने तक बंद होता हैं मंकर संक्रान्ति के दिन खुल जाता हैं। इस दिन दान इत्यादी पुण्य कर्म किये जाते हैं उनका शुभ फल प्राप्त होता है। मकर संक्रान्ति में स्नान एवं दान का भी विशेष महात्मय शास्त्रों में बताया गया है।

भारतीय धर्म ग्रंथों में स्नान का अर्थ शुद्धता एवं सात्विकता है। अत: स्नान को किसी भी शुभ कर्म करने से पहले किया जाता है। मकर राशि में सूर्य के प्रवेश से सूर्य का सत्व एवं रज गुण बढ़ जाता है जो सूर्य की तेज किरणों से हमारे शरीर में प्रवेश करता है। यह अलौकिक किरणें हमारे शरीर को ओज, बल और स्वास्थ्य प्रदान करे, अत: इन किरणों को ग्रहण करने हेतु तन-मन की शुद्धि के लिए पुण्यकाल में स्नान करने का विधान है।

सूर्योदय से कुछ घंटे पहले का समय पुण्य काल माना जाता है। पुण्य काल में स्नान करना अत्यंत पुण्य फलदायी माना गया है क्योंकि शुभ संयोगो पर जल में देवताओं एवं तीर्थों का वास होता है। इस लिये इन अवसरों में नदी अथवा सरोवर में स्नान करना शुभफलदायक होता हैं। मकर संक्रांन्ति पर सूर्योदय से पूर्व स्नान दुग्ध स्नान के समान फल देता है अत: इन अवसरों पर पूर्ण शुद्धि हेतु पुण्य काल में स्नान करने की परम्परा युगो से चली आ रही है।

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मकर संक्रांति पर क्या करें, क्या नहीं

संक्रान्तियों मे कर्क संक्रान्ति तथा मकर संक्रान्ति का विशेष महत्व धार्मिक तथा वैज्ञानिक दोनो रुपों मे माना जाता है। मकर संक्रान्ति एक मात्र ऐसा पर्व है जो सदैव ही 14 जनवरी को होता है मकर संक्रान्ति का पर्व सौर वर्ष के आधार पर निर्धारित है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि मे प्रवेश की प्रक्रिया संक्रान्ति कहलाती है सूर्य का मकर रेखा से कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण तथा कर्क रेखा से दक्षिणी मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है उत्तरायण मे दिन बड़े तथा रातें छोटी प्रतीत होती हैं धूप मे तेजी तथा शीत मे धीरे-धीरे कमी आने लगती है दक्षिणायन मे यही प्रक्रिया ठीक विपरीत स्थिति मे होती है अर्थात् दिन छोटे और राते बड़ी प्रतीत होती है यही अंतराल ऋतु परिवर्तन का कारक और कारण है वैसे तो मकर संक्रान्ति सूर्य के संक्रमण का त्यौहार है। धर्म शास्त्रों के अनुसार उत्तरायण के समय देवताओं का निवास दिन मे तथा दक्षिणायन मे रात्रि मे होता है। उत्तरायण को देवयान तथ दक्षिणायन को पितृयान कहा जाता है। कहा जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन किसी भी धार्मिक क्रिया-कलाप मे देवता धरती पर प्रकट होते हैं तथा पुण्यात्मायें शरीर छोड़कर स्वर्ग लोक मे जाती हैं।

सूर्य को यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो सूर्य के मकर राशि मे प्रवेश करते ही अयन बदलता है यही वजह है कि मकर संक्रान्ति को सौम्यायन कहते हैं। सौम्यांयन के प्रारम्भ से ही हेमन्त ऋतु की समाप्ति तथा शिशिर ऋतु का प्रारम्भ हो जाता है। सूर्य सदैव मार्गी रहता है कभी भी अस्त नही होता है। अपनी निर्धारित चाल के साथ सदैव चलता रहता है और अपने निश्चित समय निश्चित राशियों मे पहुंच जाता है। प्रत्येक माह मे सूर्य एक राशि का भ्रमण पूरा कहते है सूर्य जी सदैव गतिशील रहकर 12 राशियों का भ्रमण 1 वर्ष मे पूरा कर लेते हैं। यही क्रिया ऋतु परिवर्तन का कारण बनती है।

मकर संक्रान्ति मे क्या करें-

सूर्य का मकर राशि मे प्रवेश 14 जनववरी दोपहर में 2 बजकर 20 मिनट पर है साथ मे दिन मे 9 बजकर 7 मिनट से पंचक भी प्रारम्भ हो जाते हैं। अर्थात् प्रातः काल सूर्योदय के साथ ही पुण्य काल प्रारम्भ हो जायेगा जो अर्धरात्रि तक है।

1. मकर संक्रान्ति के पर्व का विधान अत्यन्त सरल है। संक्रान्ति के दिन प्रातः तिल का तेल और उबटन लगाकर स्नान करना चाहिये।
2. तिल के तेल से मिश्रित जल से स्नान करना चाहिये।
3. तिल का उबटन लगाना स्वास्थ्य के लिये हितकर है।
4. तिल से होम करने से तमाम यज्ञों का पुण्य फल प्राप्त होगा।
5. जल मे तिल डालकर पानी पीना उत्तम है।
6. तिल से बने पदार्थो का खाना हितकर है तथा सुयोग्य पात्र को तिल का दान करना हितकर है।

क्या न करें-

1. अपने अभिभावक पिता का अनादर न करें।
2. भगवान भास्कर की पूजा अराधना के अवसर पर तिल-गुड़, चीनी के लड्डू दान करने की परम्परा है लेकिन सुयोग्य पात्र को ही दान करना हितकर है।
3. कम्बल तथा शुद्ध देशी घी का दान गरीब, बेसहारा लोगों को ही करना उत्तम होगा।
4. सुयोग्य पात्र को ही मकर संक्रान्ति के पावन अवसर पर दान करना चाहिये।
5. सूर्य देव की उपासना, अराधना तथा सूर्य देव से जुड़ी किसी भी वस्तु का दान प्रसन्नचित्त होकर तथा प्रसन्न मन से करना चाहिये। तथा भगवान भास्कर का आशीष आपको तथा आपके परिवार को प्राप्त होगा।

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मकर संक्रांति पर यहाँ से खरीदी लाठी दूर करती है दरिद्रता!

उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में यमुना के तट पर स्थित रोहित गिरि पर सदियों से मकर संक्रांति पर लगने वाला खिचड़ी मेला वर्तमान में भी लाखों श्रद्धालु के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है और इसमें लाठी खरीदने की अनोखी परम्परा है। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि यहां से खरीदी गयी लाठी और पत्थर के सामान से दरिद्रता दूर होती है। यहां आने वाले पुरूष पूजा के बाद बांस की लाठी खरीदना नहीं भूलते। यहाँ की यह भी मान्यता है कि मकर संक्रांति के अवसर पर यहां यमुना में स्नान, सूर्य अध्र्य और फिर रोहित गिरि की पूजा परिक्रमा से समस्त पापों का नाश हो जाता है।

बताया जा रहा है कि यमुना तट पर स्थित रोहित गिरी की एक प्राचीन कथा है| कहा जाता है कि विश्राम सागर में उदघृत प्रसंग के अनुसार बहुला नामक गाय पर्वत पर चरने गयी थी। वहीं जंगल में शेर मिल गया। शेर बहुला को अपना भोजन बनाना चाहता था। बहुला ने उसकी मनोदशा समझ लिया और प्रार्थना की कि घर में उसका बछड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। यदि वह मोहलत दे बछड़े को दूध पिला कर वापस आ जाएगी। शेर उसके शरीर से अपनी भूख शान्त कर सकता है। बहुला की विनती पर शेर मान गया और उसे घर जाने दिया। बहुला घर लौटी और बछड़े को दूध पिलाकर शीघ्र ही शेर के पास जाने को तैयार हो गयी। बछड़े के द्वारा अपनी मां के शीघ्र लौटने का कारण पूछे जाने पर बहुला ने अपने व शेर के बीच हुई वार्ता का सम्पूर्ण वृतांत उसे बता दिया।

बछड़ा भी अपनी मां के साथ चलने की जिद में अड़ गया। विवश होकर बहुला अपने बछड़े को साथ लेकर रोहित गिरि पर शेर के पास लौट आयी और क्षुधा शांत करने का आग्रह किया। शेर बहुला की सत्य निष्ठा के आगे नतमस्तक हो गया और उसे मुक्त करते हुए वरदान दिया कि जो व्यक्ति तुम्हारा दर्शन करेगा वह पाप से मुक्त हो जाएगा। तभी से रोहित गिरि पर्वत का महत्व बढ़ गया लोग खिचड़ी पर्व पर आते हैं।

कहा जाता है कि यमुना स्नान के बाद रोहित गिरि पर्वत की पूजा व परिक्रमा करते हैं। खिचड़ी मेले में चित्रकूट, बांदा, इलाहाबाद, जालौन, महोबा, फतेहपुर सहित अनेक जिलों से श्रद्धालु यहां आते है। 

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जानिए मकर संक्रांति पर क्यों खाते हैं खिचड़ी

मकर संक्रान्ति हिन्दुओं के प्रमुख पर्व के रूप में मनाया जाता है| पौष मास में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के अवसर पर इस पर्व को मनाया जाता है| इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है और दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं|

मकर संक्रान्ति का आध्यात्मिक रूप से भी विशेष महत्व है| क्या आपको पता है की इस दिन लोग खिचड़ी क्यों खाते हैं अगर नहीं तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि मकर संक्राति के मौके पर नये चावल की खिचड़ी बनाकर सूर्य देव एवं कुल देवता को प्रसाद स्वरूप भेट करने की परंपरा है। लोग इस दिन एक दूसरे के घर खिचड़ी भेजते हैं और सुख शांति की कामना करते हैं। इस प्रथा के पीछे एक कारण यह है कि भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि का आधार सूर्य देव को माना गया है। इसलिए सूर्य का आभार प्रकट करने के लिए नये धान से पकवान एवं खिचड़ी बनाकर सूर्य देवता को भोग लगाते हैं।

खिचड़ी तो आप लोग हर दिन बनाकर खाते हैं लेकिन मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी का स्वाद अनुपम होता है। मकर संक्राति की खिचड़ी नये चावल, उड़द की दाल, मटर, गोभी, अदरक, पालक एवं अन्य तरह की सब्जियों को मिलाकर तैयार की जाती है। इस खिचड़ी में आस्था का स्वाद भी मिला होता है जो अन्य दिनों की खिचड़ी में नहीं होता है। आपको पता है इस तरह सब्जियों को मिलाकर खिचड़ी बनाने की परम्परा की शुरूआत करने वाले बाबा गोरखनाथ थे। ऐसी मान्यता है कि बाबा गोरखनाथ भगवान शिव के अंश हैं। इसलिए इनके द्वारा शुरू की गयी परम्परा लोग श्रद्धापूर्वक निभाते चले आ रहे हैं।

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नवाबों की नगरी में 'मैं हूं आम आदमी' टोपी की धूम

कहते हैं कि राजनीति में ग्लैमर नहीं होता और ये फैशन और स्टाइल से मीलों दूर रहती है, लेकिन अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) की टोपी आजकल नवाबों की नगरी लखनऊ के युवाओं के स्टाइल स्टेटमेंट का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है।

इन दिनों 'मैं हूं आम आदमी' लिखी टोपी राजधानी के युवाओं को इस कदर पसंद आ रही है कि वे इसे शापिंग और सैर पर जाने के साथ-साथ कालेज जैसी जगहों पर भी पहन रहे हैं।

नेशनल पी.जी़ कालेज के अभिषेक तिवारी कहते हैं कि टोपी (कैप) पहनने के चलन तो बहुत पुराना है। तमाम अलग-अलग तरह की टोपियां युवाओं को लुभाती रही है लेकिन अब इस चलन में बदलाव देखने को मिल रहा है।

बीते समय में अलग अलग तरह की स्पोर्ट्स कैप का शौक युवाओं में देखने को मिलता रहा है, लेकिन अब युवाओं की पहली पसंद है 'मैं हूं आम आदमी' लिखी साधारण गांधी टोपी है।

तिवारी ने कहा, "अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी ने एहसास कराया कि आम आदमी में बहुत शक्ति होती है। वह बड़ा से बड़ा काम सकता है। उनकी जीत के बाद लोगों को आम आदमी कहलाने और दिखने में गर्व महसूस होता है।"

लेटेस्ट फैशन बन चुकी 'मैं हूं आम आदमी' लिखी टोपियों को लेकर युवाओं का कहना है कि अब वे जहां भी जाएंगे, इन टोपियों को पहनकर जाएंगे।

शिया पी.जी. कालेज के आयुष गुप्ता कहते हैं, "मैं और मेरे कालेज के सभी दोस्त अब टोपी को घर से लगाकर निकलते हैं। हम लोग हर जगह खुद को आम आदमी कहलाना पसंद करते हैं।"

लखनऊ विश्वविद्यालय से बीएससी कर रहीं अपूर्वा कहती हैं कि वे तो इस टोपी को लगाकर विश्वविद्यालय परिसर जाती हैं। कई अन्य छात्र भी ये टोपियां लगाकर आते हैं।

युवा सैर पर निकलते समय भी इन टोपियों को लगाकर अपने सिर की शान बढ़ाते हैं। अलीगंज निवासी हिना अय्यूब कहती हैं, "हम लोग अब तो इमामबाड़ा, मरीन ड्राइव, अंबेडकर पार्क जैसे स्थानों पर घूमने जाते हैं तो भी इन टोपियों को लगाकर जाते हैं।"

दुकानदारों का मानना है कि आप नई पार्टी है, इसलिए अभी तक वे इसका सामान (मैं हूं आम आदमी, मुझे स्वराज चाहिए लिखी टोपियां) नहीं रखते थे, लेकिन युवाओं में आजकल इस टोपी के बढ़ते क्रेज को देखते हुए वे लोग अब 'मैं हूं आम आदमी' की टोपियों का स्टॉक रखने लगे हैं।

शीला इंटरप्रेइजेज के मालिक राजेश जायसवाल कहते हैं, "पिछले कुछ हफ्तों से 'मैं हूं आम आदमी' लिखी टोपियों की मांग काफी बढ़ गई है। हर रोज शहर के काफी युवा इसे खरीदने आते हैं।"

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मूवी रिव्यूः डेढ़ इश्किया

निर्देशक: अभिषेक चौबे
कलाकार : माधुरी दीक्षित, हुमा कुरैशी, अरशद वारसी, नसीरूद्दीन शाह, विजय राज

मुंबई। बॉलीवुड मोहिनी माधुरी दीक्षित की बहुप्रतीक्षित फ़िल्म "डेढ़ इश्किया" कल रिलीज हो चुकी है। यश राज कैंप की 'आजा नच ले' के लंबे अर्से बाद इस बार जब माधुरी बड़े पर्दे पर नजर आ रहीं हैं। निर्देशक अभिषेक चौबे ने बॉलीवुड में बतौर निर्देशक अपनी शुरूआत ब्लैक कॉमेडी थ्रिलर फिल्म "इश्किया" से की थी। इस हफ्ते रिलीज हुई उनकी दूसरी फिल्म "इश्किया" की सीक्वल "डेढ़ इश्किया" है। फ़िलहाल पिछली कहानी से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह फिल्म रोमांस, एक्शन और कॉमेडी का कॉकटेल है, जिसका हर दृश्य दिलचस्प है।

नवाबी छाप छोड़ती कहानी बेहद असरदार है। कहानी में खालूजान (नसीरूद्दीन शाह) नवाब का नेकलेस चुराने के बाद से फरार है, जबकि बब्बन (अरशद वारसी) को मुश्ताक भाई (सलमान शाहिद) ने नेकलेस के लिए पकड़ रखा है। इस बार खालूजान महमूदाबाद के एक पुराने भव्य महल में पहुंचते हैं, इस महल में खूबसूरत बेगम पारा (माधुरी दीक्षित) ने एक खुला मुशायरा आयोजित किया हैं। बेगम पारा के इस महल में खालूजान भी खुद को नवाब बताकर दाखिल हो जाते हैं। इस बार उनका मकसद कोई छोटा-मोटा हाथ मारने की बजाय महल की तिजोरी में रखी दौलत को लूटना है। खालूजान खुद को शायर बताते हैं और मुशायरे में शामिल हो जाते हैं। शायरे में अपनी शायरी से बेगम पारा को प्रभावित करने वाले खालूजान साहब खुद बेगम पारा से प्यार करने लगते हैं।

बेगम पारा का शौहर अब इस दुनिया में नहीं हैं, इस लिए बेगम को अब अपने लिए जीवनसाथी चाहिए। बेगम पारा इसकी वजह भी अपने मरहूम पति की आखिरी ख्वाहिश बताती है। पारा कहती हैं कि नवाब साहब ने मरने से पहले उनसे ऐसा वचन लिया था। इसी मुशायरे के दौरान खालूजान देखते हैं कि यहां बब्बन मियां भी पहुंच चुके हैं। महल में आने के बाद बब्बन मियां को बेगम साहिबा खासमखास नौकरानी मुनिया (हुमा कुरैशी) से इश्क हो जाता है। इसके बाद कई ऎसी परिस्थितियां बनती हैं, जिनको देखना एक इंटरेस्टिंग एक्सपीरियंस है।

अभिषेक चौबे की स्क्रीनप्ले के साथ डायरेक्शन पर भी पकड़ रही। इस फिल्म को यकीनन अपनी पिछली फिल्म इश्किया के मुकाबले कहीं ज्यादा दमदार बनाया है। अभिषेक अपनी स्क्रिप्ट से नहीं भटकते । इस फ़िल्म में उन्होंने माधुरी को 20-25 साल की लड़की दिखाने की कोशिश नहीं की, जिस उम्र में वह हैं, उसी के अनुसार उन्हें पेश किया है। फ्लैशबैक में माधुरी और नसीर के युवावस्था के किरदारों के लिए उन्होंने युवा कलाकारों का सहारा लिया है। फिल्म के हर सीन पर उनकी छाप नजर आती है।

पूरी फिल्म नसीरुद्दीन शाह और माधुरी दीक्षित पर टिकी है। पूरी फिल्म में इन दोनों ने गजब अभिनय किया है। माधुरी के फैंस के लिए ये फ़िल्म बहुत अच्छी है। नसीर ने भी अपने किरदार को बखूवी निभाया है। अरशद वारसी और नसीर की केमिस्ट्री खूब जमती है। खालूजान और बब्बन मियां के ज्यादातर सीन फिल्म की हैं। विशाल भारद्वाज संगीत भी ठीक-ठाक है।