शनि के अस्त होने से किन-किन राशियों को होगा लाभ

कठोर न्यायाधीश कहे जाने वाले शनि देव के कोप से सभी भलीभांति परिचित हैं क्योंकि शनि देव बुरे कर्मों का न्याय बड़ी कठोरता से करते हैं। शनि की बुरी नजर किसी भी राजा को रातों-रात भिखारी बना सकती है और यदि शनि शुभ फल देने वाला हो जाए तो कोई भी भिखारी राजा के समान बन सकता है।26 सितम्बर को शाम पांच बजे से शनि अस्त हो गया है और अब शनि 30 अक्टूबर 2011 तक अस्त ही रहेगा।

आपको बता दें कि शनि की स्थिति से सभी राशियों पर सीधा-सीधा प्रभाव पड़ता है। शनि के अस्त होने से कुछ राशियों को लाभ मिलेगा, लेकिन राशियों के लिए अशुभ रहेगा| सूर्य पुत्र शनि अत्यंत धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। यह एक राशि में ढाई वर्ष तक रहता है। शनि देव के कोप से बचने के लिए इनकी आराधना करना अति आवश्यक है।

जानिए शनि के अस्त होने से किन राशियों को होगा लाभ और किन को हानि-

ज्योतिष के अनुसार, शनि के अस्त होने से कन्या, वृश्चिक, कुंभ और मिथुन राशि के लोगों को लाभ होगा और इस राशि के लोगों को शनि दोषों से हो रहे नुकसान में कमी आएगी। इनके लिए शनि का अस्त होना उत्तम है। इसके साथ साथ तुला, धनु, मीन और कर्क राशि के जातकों के लिए शनि का अस्त होना शुभ संकेत है। आपके बिगड़े कार्य बनेंगे। वहीँ सिंह, मकर, वृष और मेष के लिए शनि के अस्त होने पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन लोगों के समय पहले जैसा ही रहेगा।

कुण्डली के अनुसार शनि का प्रभाव-

ज्योतिष के अनुसार जिस जातक की कुण्डली में सूर्य की राशि में शनि हो उस व्यक्ति को जीवनभर कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

जिस व्यक्ति की कुंडली में चार, आठ या बाहरवें भाव में शनि है तो उस व्यक्ति को शनि की कृपा प्राप्त होती है।

शनि नीच राशिस्थ, अस्त वक्री होकर व्यक्ति को सदैव दुख और कष्ट ही देता है।

शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। मेष राशि में नीच व तुला राशि में उच्च का शनि माना गया है।

शनि के कोप से बचने के उपाय-

प्रतेक दिन महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।

भगवान भोलेनाथ का पूजन करें और प्रत्येक दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं।

शनि के प्रभाव से बचने के लिए आप शनिवार का व्रत रखें और काले उड़द, काले तिल, तेल, लोहे के बर्तन आदि, काली गाय, काले कपड़े का दान करें|

पीपल की पूजा करें, जल चढ़ाएं एवं परिक्रमा करें साथ ही गरीबों को भोजन कराएँ|

शनि मंत्र-

शनि के प्रभाव से बचने के लिए "शन्नो देवीरभिष्ट्यऽआपो भवंतु पीतये। शंय्योर भिस्त्रवन्तु न:" का जाप करे|

वृहस्पतिवार व्रत की विधि, कथा और आरती


||  वृहस्पतिवार व्रत की विधि ||

- ब्रहस्पति देवता का व्रत इस दिन रखा जाता है|
- दिन में केवल एक ही बार भोजन किया जाता है|
- इस दिन पीले वस्त्र धारण करके शंकर भगवन पर पीले उर्द और चने की दाल चढ़ानी चाहिएऔर वृहस्पतिवार कथा सुनकर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए|
- इस व्रत के करने से विद्या, धन, पुत्र तथा अक्षय सुख प्राप्त होता है|
- इस दिन केले के वृक्ष की सादर पूजा करनी चाहिए|




|| वृहस्पतिवार व्रत कथा  ||


प्राचीन समय की बात है– एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था, वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था| यह उसकी रानी को अच्छा न लगता न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती| एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए| 

घर पर रानी और दासी थी|  उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए| साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज| मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ| आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं| 
साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी| तुम बड़ी विचित्र हो| संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें| परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई| उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये|
साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना| वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना| इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा| इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये|
साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई| भोजन के लिये परिवार तरसने लगा| एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी| तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है| इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नही कर सकता| ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया|  वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता| इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा|
इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं| एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी| पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है| वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए|  
दासी रानी की बहन के पास गई| उस दिन वृहस्पतिवार था| रानी की बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी|  दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया| जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई| उसे क्रोध भी आया|  दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी| सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा|
उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी|  कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन|  मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी|  तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली| कहो, दासी क्यों गई थी|
रानी बोली, बहन| हमारे घर अनाज नहीं था| ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई| उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी|  रानी की बहन बोली, बहन देखो|  वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है| देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो|  यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया| उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था|
उसने बाहर आकर रानी को बताया|  दासी रानी से कहने लगी, हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे|  दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा, उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें, पीला भोजन करें तथा कथा सुनें, इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है|  व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आई|
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें|  सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा|  घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया| अब पीला भोजन कहाँ से आए| दोनों बड़ी दुखी हुई| परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे| एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, हे दासी, यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना|  दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई| उसने रानी को सारी बात बतायी|
उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी| वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया, परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी|  तब दासी बोली, देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया| अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है|
बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये| अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राहमणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण कराओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों|  दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी|  उसका यश फैलने लगा|
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है| उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं|
उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा| वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता| एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया|
उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे| तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ| यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया| साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी|  महात्मा दयालु होते है, वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई\  अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें| देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है. 
अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो, फिर कथा कहो या सुनो, भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें| साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो. लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा पाई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं| मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है|  मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं|  फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है|
साधु ने कहा, हे राजा, मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो| वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे| वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना| तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा| जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है - 

वृहस्पतिदेव की कहानी - 


प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था. उसके कोई संन्तान न थी. वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती| इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे|
भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई| कन्या बड़ी होने लगी|  प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती|  वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी|  पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती|  लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती|  एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी, सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये|
दूसरे दिन गुरुवार था|  कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की|  वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली| रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई| पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला. उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी, परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा|
एक दिन की बात है, कन्या सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला| कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया| राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया|
राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा. राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया|  मंत्री उस लड़की के घर गया| मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया|  कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गया|
कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया| एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये|  बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया| कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया| लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया. ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी,
आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ|  मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए|  ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी|  परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी. वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी|
एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया. प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई|
इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी.. इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई. वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ| इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये|
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया. राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला. राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया| उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए|  परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो गए|
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें|  किसी के घर चूल्हा न जले| इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी|
राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए|  जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हुआ था|  उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया|  रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है| उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया|
लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा|  तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख,  तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ हैं|  अब चिन्ता मत कर, वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे|
अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले| राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा|  उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा| तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना वह निर्दोष है, राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया|
गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया| राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे| राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये गए है|  राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा|
जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी, देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे|  वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा|  रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई, तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है|  तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई|
राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा|  अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता| 
एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं. इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया|  मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है|  उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो, वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है, परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें|  राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी|  जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया|
राजा आगे बढ़ा| उसे चलते-चलते शाम हो गई| आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला|  राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना|  राजा आगे चल पड़ा| राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जो दर्द होने लगा|
उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई| उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा| बेटे ने सभी हाल बता दिया. बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना| राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया| 
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया|  बहन ने भाई की खूब मेहमानी की. दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है|  राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो|  जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले. बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोई अन्य काम करते है|  फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था| 
उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है| रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा|  वह तैयार हो गया| राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही, जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया, अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी|   एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन. मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ|  राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी| 
सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है|  बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया|  मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा|  अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया| राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया|  रानी बोली, हे प्रभो, वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें|
उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा, उठ, सभी सोच त्याग दे|  तेरी रानी गर्भवती है|  राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई, नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ, तब राजा बोला, हे रानी|  स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती, जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना|
रानी ने हां कर दी, जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई, उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई, तो राजा की बहन बोली, भाई, मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती|
वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है, जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है|
जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की|  अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें, ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये, हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये| 

|| अथ ब्रहस्पति की आरती  ||
जय जय आरती राम तुम्हारी। राम दयालु भक्त हितकारी॥
जनहित प्रगटे हरि व्रतधारी। जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी॥
द्रुपदसुता को चीर बढ़ायो। गज के काज पयादे धायो॥
दस सिर छेदि बीस भुज तोरे। तैंतीसकोटि देव बंदी छोरे॥
छत्र लिए सर लक्ष्मण भ्राता। आरती करत कौशल्या माता॥
शुक शारद नारदमुनि ध्यावैं। भरत शत्रुघन चँवर ढुरावैं॥
राम के चरण गहे महावीरा। ध्रुव प्रहलाद बालिसुर वीरा॥
लंका जीति अवध हरि आए। सब संतन मिलि मंगल गाए॥
सीय सहित सिंहासन बैठे। रामानन्द स्वामी आरती गाएँ ॥

सोमवार व्रत की कथा

   || सोमवार के व्रत के नियम ||

- आमतौर पर सोमवार का व्रत तीसरे पहर तक होता है|
- व्रत में अन्न या फल का कोई नियम नहीं है |
- भोजन केवल एक ही बार किया जाता है|
- व्रतधारी को गौरी- शंकर की पूजा करनी चाहिए|
- तीसरे पहर, शिव पूजा करके, कथा कह सुनकर भोजन करना चाहिए|


|| साधारण सोमवार व्रत की कथा ||

एक नगर में एक शेठ रहता था| उसे धन एश्वर्य की कोई कमी न थी फिर भी वह दुखी था क्योंकि उसके कोई पुत्र न था| पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार को व्रत रखता था तथा पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवन गौरी-शंकर की पूजा करता था| उसके भक्तिभाव से दयामयी पार्वती जी द्रवित हो गई और एक दिन अच्छा अवसर देखकर उन्होंने शंकर जी से विनती की,"स्वामी ! यह नगर शेठ आपका परमभक्त है, नियमित रूप से आपका व्रत रखता है, फिर भी पुत्र के आभाव से पीड़ित है| कृपया इसकी कामना पूरी करें|"


दयालू पार्वती की ऐसी इच्छा को सुनकर भगवन शंकर ने कहा, पार्वती ! यह संसार, कर्मभूमि है| इसमें जो करता है, वह वैसा ही भरता है | इस साहूकार के भाग्य में पुत्र सुख नहीं है| शंकर के इंकार से पार्वती जी निराश नहीं हुई | उन्होंने शंकर जी से तब तक आग्रह करना जरी रखा जब तक कि वे उस साहूकार को पुत्र सुख देने को तैयार नहीं हो गए|


भगवन शंकर ने पार्वती से कहा- तुम्हारी इच्छा है इसलिए मै इसे एक पुत्र प्रदान करता हूँ लेकिन उसकी आयु केवल 12 वर्ष होगी| संयोग से नगर शेठ गौरी- शंकर संवाद सुन रहा था| समय आने पर नगर शेठ को सर्व सुख संपन्न पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई| सब और खुशियाँ मनाई गईं| नगर शेठ को बधाइयाँ दी गई| लेकिन नगर शेठ की उदासी में कोई कमी नहीं आई, क्योंकि वह जानता था, कि वह पुत्र केवल 12 वर्ष के लिए प्राप्त हुआ है| उसकी बाद काल इसे मुझसे छीन लेगा| इतने पर भी सेठ ने सोमवार का व्रत और गौरी शंकर का  पूजन हवन यथाविधि पहले की तरह ही जारी रखा| 


जब बालक ग्यारह वर्ष का हो गया तो वह पूर्ण युवा जैसा लगने लगा, फलतः सभी चाहने लगे कि उसका विवाह कर दिया जाए| नगर सेठानी का भी यही आग्रह था | किन्तु नगर सेठ पुत्र के विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ| उसने अपने साले को बुलवाकर आदेश दिया कि वह पर्याप्त धन लेकर पुत्र सहित काशी के लिए कूच करे और रास्ते में भजन तथा दान- दक्षिणा देता हुआ काशी पहुंचकर सर्व विद्या में पूर्ण बनाने का प्रयास करे| मामा भांजे काशी के लिए रवाना हुए| हर पड़ाव पर वे यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और दान- दक्षिणा देकर दीनहीनों को संतुष्ट करते इसी प्रकार वह काशी की ओर बढ़ रहे थे कि एक नगर में उनका पड़ाव पड़ा था और उस दिन उस नगर के राजा की कन्या का विवाह था, बारात आ चुकी थी, किंतु वर पक्ष वाले भयभीत थे, क्योंकि उनका वर एक आँख से काना था, उन्हें एक सुन्दर युवक की आवश्यकता थी| गुप्तचरों से राजा को जब सेठ के पुत्र के रूप गुण की चर्चा का पता चला तो उन्होंने विवाह के पूरा होने तक लड़का यदि दूल्हा बना रहेगा तो वे उन दोनों को बहुत धन देंगे और उनका अहसान भी मानेंगे| नगर सेठ का लड़का इस बात के लिए राजी हो गया| कन्या पक्ष के लोगों ने राजा की पुत्री के भाग्य की बहुत सराहना की कि उसे इतना सुन्दर वर मिला| जब सेठ का पुत्र विदा होने लगा तो उसने राजा की पुत्री की चुनरी पर लिख दिया कि तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है| मै राजा का लड़का न होकर नगर सेठ का पुत्र हूँ और विद्याअध्ययन के लिए काशी जा रहा हूँ| राजा का लड़का तो काना है| राजा की लडकी ने अपनी चुनरी पर कुछ लिखा हुआ देखा तो  उसे पढ़ा और विदा के समय काने लड़के के साथ जाने से इंकार कर दिया फलतः राजा की बारात खाली हाथ लौट गई| नगर सेठ का पुत्र काशी जाकर पूरी श्रद्धा और भक्ति से विद्याध्ययन में जुट गया| उसके  मामा ने यज्ञ और दान पुण्य का काम जारी रखा| जिस दिन लड़का पूरे 12 वर्ष का हो गया उस दिन भी और दिनों की भांति यज्ञादि हो रहे थे| तभी उसकी तबियत ख़राब हुई| वह भवन के अन्दर ही आकर एक कमरे में लेट गया| थोड़ी देर में मामा पूजन करने को उसे लेने आया तो उसे मरा देखा उसे अत्यंत दुःख हुआ और वह बेहोश हो गया| जब उसे होश आया तो उसने सोचा मै अगर रोया चिल्लाया तो पूजन में विघ्न पड़ेगा| ब्रह्मण लोग भोजन त्याग कर चल देंगे| अतः उसने धैर्य धारण कर समस्त कार्य निपटाया| और उसके बाद जो उसने रोना शुरू किया तो उसे सुनकर सभी का  ह्रदय विदीर्ण होने लगा| सौभाग्य से उसी समय, उसी रास्ते से गौरी-शंकर जा रहे थे| गौरी के कानों में वह करुण क्रंदन पहुंचा तो उनका वात्सल्य से पूर्ण ह्रदय करुणा से भर गया| सही स्थित का ज्ञान होने पर उन्होंने शंकर भगवान से आग्रह किया कि वे बालक को पुनः जीवन प्रदान कर  दें| शंकर भगवान को पार्वती जी की प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी| नगर सेठ का इकलौता लाल पुनः जीवित हो गया| शिक्षा समाप्त हो चुकी थी|  मामा भांजे दोनों वापिस अपने नगर के लिए रवाना हुए रास्ते में पहले की तरह दान दक्षिणा देते उसी नगर में पहुंचे जहाँ राजा की कन्या के साथ लड़के का विवाह हुआ था, तो ससुर ने लड़के को पहचान लिया| अत्यंत आदर सत्कार के साथ उसे महल में ले गया| शुभ मुहूर्त निकल कर कन्या और जामाता को पूर्ण दहेज़ के साथ विदा किया| नगर सेठ का लड़का पत्नी के साथ जब अपने घर पहुंचा तो पिता को यकीन ही नहीं आया| लड़के के  माता- पिता अपनी हवेली पर चढ़े बैठे थे| उनकी प्रतिज्ञा थी कि वहां से तभी उतरेंगे जब उनका लड़का स्वयं अपने हाथ से उन्हें नीचे उतारेगा, वरना ऊपर से ही छलांग लगाकर आत्महत्या कर लेंगे| पुत्र अपनी पत्नी के साथ हवेली की छत पर गया| जहाँ जाकर माँ बाप के सपत्नीक चरण स्पर्श किए| पुत्र और पुत्र वधु को देखकर नगर सेठ और सेठानी को अत्यंत हर्ष हुआ| सबने मिलकर उत्सव मनाया| 


10 सितम्बर, आत्महत्या निषेध दिवस पर विशेष: जीवन है अनमोल...


नई दिल्ली। दुनियाभर में एक ओर जहां विभिन्न तरह की बीमारियां हर साल लाखों लोगों की जान ले लेती हैं। वहीं ऐसे लाखों लोग भी हैं जो किन्हीं वजहों से अपने खुद के जीवन के दुश्मन बन जाते हैं और आत्महत्या जैसा कदम उठाकर समाज की संरचना, सोच और सरोकारों पर नए सिरे से बहस को जन्म देते हैं। लोगों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने और इसके प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से डब्ल्यूएचओ ने विश्वभर में 10 सितम्बर को विश्व आत्महत्या निषेध दिवस की शुरुआत की।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक विश्व में हर साल करीब 10 लाख लोग वाह्य एवं आंतरिक कारणों के चलते आत्महत्या करते हैं। औसतन हर 40 मिनट पर आत्महत्या से एक मौत और प्रत्येक तीन मिनट पर इसकी कोशिश की जाती है।विश्व आत्महत्या निषेध दिवस के इस अभियान में गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) आत्महत्या निषेध अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईएएसपी) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 50 से अधिक देशों के पेशेवर और स्वयंसेवक आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं।

आत्महत्या के संदर्भ में यदि भारत की बात करें तो यहां आत्महत्या के आंकड़े काफी भवायह हैं। डब्ल्यूएचओ की मानें तो भारत में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार भारत में जाहिर तौर पर आत्महत्या की रोकथाम के लिए एक राष्ट्रीय योजना की जरूरत है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक वर्ष 2009 में देश में 127151 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 68.7 फीसदी लोगों की उम्र 15 से 44 वर्ष के बीच थी। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रत्येक दिन आठ आत्महत्याएं गरीबी की वजह से, 73 आत्महत्याएं बीमारियों से, नौ आत्महत्याएं दिवालिया घोषित होने पर हुईं।

इसके अलावा 82 आत्महत्याएं पारिवारिक समस्याओं के चलते, 10 आत्महत्याएं प्रेम सम्बंधों में नाकामी की वजह से, छह परीक्षा में असफल होने पर, सात बेरोजगारी की वजह से, 128 आत्महत्याएं 0 से 29 आयु वर्ग के बीच, 119 30 से 44 आयु वर्ग के बीच और 101 आत्महत्याएं 45 वर्ष उम्र के लोगों ने की। आत्महत्या करने वालीं 125 से अधिक महिलाओं में 69 गृहणियां थीं जबकि एक दिन में 223 पुरुषों ने आत्महत्या की।

स्वास्थ्य पेशे से जुड़े लोग आत्महत्या को नितांत निजी और जातीय मामला भी मानते हैं। वे आत्मघाती व्यवहार के लिए कई व्यक्तिगत और सामाजिक कारकों जैसे तलाक, दहेज, प्रेम सम्बंध, वैवाहिक अड़चन, अनुचित गर्भधारण, विवाहेतर सम्बंध, घरेलू कलह, कर्ज, गरीबी, बेरोजगारी और शैक्षिक समस्या को उत्तरदायी ठहराते हैं।

वहीँ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति रोकी नहीं जा सकती क्योंकि आत्महत्या की वजह ज्यादातर सामाजिक एवं व्यक्ति के परिवेश से जुड़ी होती है जिस पर व्यक्ति का बहुत ही कम नियंत्रण होता है।

शिक्षकों को 5 सितंबर को सम्मान बाकी दिन अपमान


भारत  में शिक्षक दिवस के मौके पर राष्ट्रपति और राज्यपाल  बेहतर अध्यापन के लिए कई शिक्षकों का सम्मान करती है, ताकि शिक्षक और भी अच्छे ढंग से बच्चों को ज्ञान प्रदान कर सकें, लेकिन शिक्षक दिवस पर मिलने वाले केंद्र सरकार और राज्य सरकार से सम्मान के लिए उच्चाधिकारियों के समक्ष अपनी उपलब्लियां गिनवाना आज शिक्षकों की मजबूरी बन गई है। अच्छे शिक्षक होने के बावजूद भी बिना सोर्स के सम्मानित हो पाना बहुत ही मुश्किल है|


शिक्षक वो होता है जो हमें ज्ञान प्रदान कर एक काबिल इंसान बना देता है| इनको धन्यवाद देने के लिए एक दिन है, जो 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में जाना जाता है। दरअसल, भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति 1952-1962 तथा द्वितीय राष्ट्रपति 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक रहे डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन से एक बार उनके शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने की अनुमति मांगी, तो उन्होंने कहा कि मुझे ख़ुशी होगी यदि आप  5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाएं|


शिक्षक दिवस’ कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन इसका महत्त्व बहुत कम ही लोग समझते हैं| शिक्षक दिवस का मतलब यह नहीं कि साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या कोई भी उपहार हो और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है। वास्तव में शिक्षक दिवस मानने का मूल मकसद शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा देने और भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षकों के महत्व के प्रति जागरुकता लाना है।




हर साल शिक्षक दिवस आते ही राष्ट्रपति या राज्यपाल से सम्मान पाने के लिए शिक्षकों में उम्मीदें जग जाती हैं। भारत देश में सम्मान के लिए शिक्षकों को खुद ही अपनी उपलब्धियों को विभागीय अधिकारियों के सामने गिनवाना पड़ता है| ऐसा इसलिए शासन अपने अधिकारियों की नजरों को योग्य-अयोग्य शिक्षकों का चयन करने के काबिल नहीं मानता| शिक्षकों को उपलब्धियां गिनवाकर सम्मान की दौड़ में शामिल होना पड़ता है, जिससे वह सम्मान किसी अपमान से कम नहीं लगता।शायद इसीलिए कई बार शिक्षक की छोटी-मोटी गलती होने पर अधिकारी उन पर तुरंत कार्रवाई कर देते हैं|


अगर देखा जाये तो शिक्षकों  के ऊपर  घर-घर जाकर जनगणना, मलेरिया, कुष्ट और अन्य बीमारियों के रोगियों को खोजने की जिम्मेदारी भी शिक्षकों के कंधे डाल दी जाती है। क्या वास्तव में शिक्षकों की नियुक्ति इन्ही कार्यो के लिए हुई है| 


विवाहित स्त्री को मस्तक पर नहीं चूड़ियों पर लगवाना चाहिए तिलक

धार्मिक कार्यों में स्त्री हो या पुरुष, दोनों को कुमकुम, चंदन आदि का तिलक लगाने की परंपरा है। सभी पंडित पुरुषों के मस्तक पर तिलक लगाते हैं लेकिन स्त्रियों के संबंध में कुछ पंडित या ब्राह्मण मस्तक पर नहीं बल्कि उनकी चूड़ियों पर तिलक लगाते हैं। इसके पीछे कुछ खास कारण है| ब्रह्मण बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार स्त्रियों की चूड़ियों पर तिलक लगाने से विवाहित स्त्री पतिव्रत धर्म हमेशा पवित्र रहता है और पति की उम्र लंबी होने के साथ जीवन सुखी रहता है| पति और पत्नी दोनों के जीवन में सुख, समृद्धि और शांति बनी रहती है, उन्हें धन आदि की भी कमी नहीं होती|

यदि कोई पति-पत्नी कोई धार्मिक कार्य करवाते हैं, तब उन दोनों का पूजन में सम्मिलित होना अनिवार्य माना गया है। इस प्रकार के आयोजन में ब्राह्मण द्वारा यजमान को कई बार तिलक लगाया जाता है। कई वेदपाठी ब्राह्मण स्त्रियों की चूड़ियों पर ही तिलक लगाते हैं मस्तक पर नहीं। इसकी वजह यह है कि विवाहित स्त्री को पति के अलावा किसी अन्य पुरुष का स्पर्श करना निषेध माना गया है।


वेद-पुराणों के अनुसार, किसी भी विवाहित स्त्री को स्पर्श करने का अधिकार अन्य महिलाओं के अतिरिक्त केवल उसके पति को ही प्राप्त है। अन्य पुरुषों का स्पर्श होने से उसका पतिव्रत धर्म प्रभावित होता है। इसी वजह से वेदपाठी ब्राह्मण महिलाओं की चूड़ियों पर तिलक लगाते हैं, माथे पर नहीं ताकि उन्हें स्पर्श न हो सके। ब्रह्मण बताते है कि स्त्री के बीमार होने पर या संकट में होने पर कोई वैध या डॉक्टर स्पर्श कर सकता है, इससे स्त्री का पतिव्रत धर्म नष्ट नहीं होता है। यही वजह है कि स्त्रियों के मस्तक पर नहीं बल्कि उनकी चूड़ियों पर कुमकुम का तिलक लगाया जाता है|

घर-घर में आज जन्मेंगे नन्द गोपाल

जब-जब असुरों के अत्याचार बढे और धर्म की हानि हुई है तब- तब ईश्वर ने धरती पर अवतार लेकर सत्य और धर्म का मार्ग प्रशस्त किया है और धरतीवासियों के दुखों को हरा है। जन्‍माष्‍टमी का पावन त्‍यौहार भगवान विष्‍णु के अवतार श्रीकृष्ण के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। जन्‍माष्‍टमी श्रावण (जुलाई-अगस्‍त) माह के कृष्‍ण पक्ष की अष्‍टमी के दिन मनाया जाता है। हिन्दू परम्परा के अनुसार जिस भाव से जन्‍माष्‍टमी का त्‍यौहार मनाया जाता है वह विश्व के किसी भी कोने में दिखना अत्यंत ही दुर्लभ है।

जन्‍माष्‍टमी की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार मथुरा के राजा कंस की बहन का विवाह वासुदेव से साथ हुआ था। जब कंस अपनी बहन को विदा कर रहा था तभी एक आकाशवाणी हुई, देवकी का आठवा पुत्र कंस का वध करेगा। इस बात से भयभीत कंस ने अपनी बहन और वासुदेव को काल कोठारी में डाल दिया। कंस ने देवकी की सारी संतानों की एक-एक करके हत्या कर दी। जब देवकी के आठवें पुत्र का जन्म हुआ तो अचानक काल कोठारी के सारे दरवाजे खुल गए और वासुदेव अपने नवजात पुत्र को लेकर अपने मित्र नन्द के पास गोकुल गए। दैवीय कारणों से नन्द के घर में एक पुत्री ने जन्म लिया था। उन्होंने अपनी पुत्री वासुदेव को सौंप दी। अगली सुबह कंस हमेशा की तरह आया और देवकी की बेटी को पत्थर पर पटक दिया, लेकिन उस कन्या ने देवी का रूप धारण कर कंस को बताया कि उस शक्ति का जन्म हो चुका है जो तेरी वध करेगा। इस बात से क्रोधित कंस ने कृष्ण को कई बार मारने की भी कोशिश की, लेकिन वह अपनी योजनों में सफल न हो सका। जब कंस के पापो का घड़ा भर गया तब भगवान श्री कृष्ण ने कंस का वध कर अपने माता-पिता को कारागार से बाहर निकला और मथुरा की जनता को कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई।

पूजन विधि-

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर महिलाएं, पुरूष व बच्चे उपवास रखते हैं और श्री कृष्ण का भजन-कीर्तन करते हैं। इस पावन पर्व में कृष्ण मन्दिरों व घरों को सुन्‍दर ढंग से सजाया व प्रकाशित किया जाता है। उत्‍तर प्रदेश के मथुरा-वृन्‍दावन के मन्दिरों में इस अवसर पर कई तरह के रंगारंग समारोह आयोजित किए जाते हैं। कृष्‍ण की जीवन की घटनाओं की याद को ताजा करने व राधा जी के साथ उनके प्रेम का स्‍मरण करने के लिए रास लीला का भी आयोजन किया जाता है। इस त्‍यौहार को 'कृष्‍णाष्‍टमी' अथवा 'गोकुलाष्‍टमी' के नाम से भी जाना जाता है।

श्री कृष्ण का जन्म रात्रि 12 बजे हुआ था इसलिए बाल कृष्‍ण की मूर्ति को आधी रात के समय दूध, दही, धी, जल से स्‍नान कराया जाता है। इसके बाद शिशु कृष्ण का श्रृंगार कर भजन व पूजन-अर्चन की जाती है और उन्हें भोग लगाया जाता है। जो लोग उपवास रखते हैं वह इसी भोग को ग्रहण कर अपना उपवास पूरा करते हैं।

गोविंदा आला रे...

पूरे उत्‍तर भारत में इस त्‍यौहार के उत्‍सव के दौरान भजन गाए जाते हैं नृत्‍य किया जाता है। मथुरा व महाराष्‍ट्र में जन्‍माष्‍टमी के दौरान मिट्टी की मटकियों जिन्हें लोगों की पहुंच से दूर उचाई पर बांधा जाता है, इनसे दही व मक्‍खन चुराने की कोशिश की जाती है। इन वस्‍तुओं से भरा एक मटका अथवा पात्र जमीन से ऊपर लटका दिया जाता है, तथा युवक व बालक इस तक पहुंचने के लिए मानव पिरामिड बनाते हैं और अन्‍तत: इसे फोड़ते हैं। इसके पीछे आशय यह है कि लोगों का मानना है कि भगवान श्री कृष्ण इसे ही अपने मित्रों के साथ दही और मक्खन की मटकियों को फोड़ते थे और दही, मक्खन चुरा कर खाते थे। यह उत्सव करीब सप्ताह तक चलता है।

मुंह की दुर्गन्ध से तंग पत्नी ने छोड़ पति

अगर आप अपने दांतों की साफ सफाई पर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो आज से सुधर जाइये क्योंकि साफ सफाई को लेकर एक ऐसा मामला सामने आया है जिसको सुनकर आप भी आश्चर्यचकित हो जायेंगे| मामला उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले का है| मेरठ जिले की रहने वाली जुबैदा ने अपने पति अब्दुल रहमान के सामने यह शर्त रख दी कि जब तक वह अपने दांत व शरीर को साफ सुथरा नहीं करेगा वह ससुराल नहीं जाएगी। जुबैदा पिछले एक साल से इसी शर्त पर अड़ी हुई है।

साल भर पहले एक बीवी ने अपने पति के सामने शर्त रख दी है कि वह रोज दांतों में मंजन करेगा और अपने शरीर को साफ सुथरा रखेगा तभी उसके साथ रहेगी। पति-पत्नी के बीच का यह मामला मेरठ के परिवार परामर्श केंद्र में पहुंच गया है। हालाँकि केंद्र के परामर्शदाता इस प्रयास में हैं कि यह मामला सुलझ जाये और फिर से पति- पत्नी एक हो जाएँ|

गौरतलब है कि खुर्जा के एक कपड़े के कारोबारी अब्दुल रहमान का निकाह छह साल पहले जुबैदा से हुआ था। जुबैदा के मुताबिक उनके पति साफ सफाई का बिलकुल ध्यान नहीं रखते| वह सुबह उठाकर मंजन भी नहीं करते हैं| जिसकी वजह से उनके मुंह से इतनी ज्यादा बदबू आती है कि नजदीक भी नहीं आया जाता। जुबैदा जब साफ सफाई को लेकर अपने पति से कहती तो अब्दुल रहमान साफ सफाई पर ध्यान न देकर उलटे मारना पीटना शुरू कर देता जिससे तंग आकर वह साल भर पहले अपनी बहन के घर चली गई थी|

बहरहाल परिवार परामर्श केंद्र के परामर्शदाताओं के समझाने पर जुबैदा ने एक शर्त पर रहना स्वीकार किया है कि वह रोज मंजन करेगा| अब देखना यह है कि अगर अब्दुल रोजाना मंजन करने की शर्त को मान लेते हैं तो जुबैदा 15 दिन के बाद घर लौट आएंगी।

रविवार को मनाई जाएगी श्रीकृष्ण जन्माष्टमी


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को लेकर इस बार भी हमेशा की तरह संशय बरकरार है| जहाँ सरकारी गजट व कैलेंडर के हिसाब से जन्माष्टमी सोमवार को मनाई जाएगी वहीँ शहर के तमाम पंडित ने रविवार को जन्माष्टमी मनाने का निर्णय लिया है।

इस बारे में अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा की बैठक में विचार विमर्श करने के बाद पंडितों ने रविवार को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाने की घोषणा की है।

बहरहाल सरकारी विभागों में सोमवार को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का अवकाश घोषित किया है। इसके अलावा कैलेंडर में भी 22 अगस्त को ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व अंकित हैं लेकिन शहर के अधिकांश पंडितों की माने तो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व रविवार को ही मनाया जाएगा।

मालूम हो कि शुक्रवार देर रात अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा की ओर से एक बैठक बुलाई गई। इसमें श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को लेकर चर्चा की गई।जहाँ पंडित जगदीश प्रसाद पैन्यूली ने कहा कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म अ‌र्द्ध रात्रि अष्टमी तिथि चंद्र व्यापनी रोहिणी नक्षत्र में हुआ था। 21 अगस्त को कातिक नक्षत्र एवं अष्टमी तिथि है। जबकि रोहिणी नक्षत्र 22 अगस्त को है। पंडित रजनीश शास्त्री ने कहा कि उदय व्यापनी अष्टमी को ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में लिया जाना है। विचार विमर्श के बाद बैठक में निर्णय लिया गया कि 21 अगस्त को ही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाए।

कई क्रांतिकारियों को इसी चंदर नगर गेट पर दी गई थी फांसी

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आलमबाग में स्थित यह इमारत आज चंदरनगर गेट के नाम से जानी जाती है। आपको बता दें कि यह चंदर नगर गेट वास्तव में आलमबाग कोठी का दरवाजा है। यह कोठी लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम आलम आरा (आजम बहू) के लिए बनवाई थी।लेकिन बाद में यह कोठी आजादी की लड़ाइयों में उजड़ गई|  फाटक अब भी बाकी है। 

यह चंदर नगर गेट आजादी की लड़ाई का एक अहम हिस्सा रहा है। अगर हम बुद्धिजीवियों की माने तो रेजीडेंसी सीज होने के बाद अंग्रेज आलमबाग के रास्ते शहर में प्रवेश कर रहे थे। यहां मौलवी अहमद उल्लाह शाह और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजों की हार हुई। बताते हैं सर हेनरी हैवलॉक यहीं बीमार हुए थे, जिनकी मृत्यु दिलकुशा में हुई थी| मौत के बाद उन्हें यहीं  दिलकुशा के करीब स्थित कब्रिस्तान में दफन किया गया था। 

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के अंतिम पड़ाव में अंग्रेजों ने इसी फाटक को किले के रूप में प्रयोग किया और कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गई। इसके बाद से इसे फांसी दरवाजा के नाम से जाना जाने लगा था|

'कितनी सुहानी थी आज़ादी की पहली सुबह'

लखनऊ| कितनी सुहानी थी 15 अगस्त 1947 की वह सुबह जब देश आज़ाद हुआ| कितने समय बाद देशवासियों ने बिना किसी बंधन के नई सुबह का स्वागत किया था, दिल में उमंग था और देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले बलिदानियों के सम्मान में मस्तक झुका हुआ था|

आज़ादी की इस पहली सुबह के दिन राज्यपाल सरोजनी नायडू लखनऊ मेल से सुबह सात बजे दिल्ली से राजधानी लखनऊ पहुंची। स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे| सरोजनी नायडू रेलवे स्टेशन से सीधे राजभवन पहुंचीं जहां पर उन्होंने आज़ादी की सुबह ठीक आठ बजे झंडारोहण किया| इस दौरान पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएं और बच्चे भी घरों से बाहर निकल आए और सड़कों पर लोगों का हुजूम उमड़ आया|

इसके बाद तो जैसे पूरा लखनऊ खुशी से झूम उठा। सभी लोग सड़कों पर ही नज़र आ रहे थे, भीड़ इतनी थी कि लोगों को समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस ओर जाएं। हजरतगंज से विशेश्र्वरनाथ रोड तक तो इतनी भीड़ थी कि लोगों को थोड़ी दूर जाने में ही घंटों लग जाते थे| आसपास के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों लोग काफी उत्साहित थे, सड़कों पर ढोल-नगाड़े के साथ जश्न का माहौल था| मिठाई की दुकान हो या दूध की दुकान हर तरफ आजादी का जश्न का माहौल था। मुफ्त में मिठाई व दूध बांटा जा रहा था|

भीड़ के बीच किसी के हाथ में अखबार दिख जाता तो लोग उसे पढ़ने के लिए टूट पड़ते। अंग्रेज क्या कह गए कांग्रेस से? लोग इस विचार में डूबे थे कि कहीं फिर से अंग्रेजों का खेल शुरू
न हो जाये?

अगर देखा जाये तो यह चर्चाएं भी आम थीं। मुस्लिम टीले वाली मस्जिद में अल्लाह से देश को आजादी मिलने का शुक्रिया अदा करने कर रहे थे| इस मौके पर ईसाई भी पीछे नहीं रहे उन्होंने भी कई आयोजन चर्च में किये। इस दिन कैसरबाग बारादरी में ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन ने झंडा फहराया था। राजा विशेश्र्वर दयाल सेठ ने भी पायनियर हाउस में झंडारोहण किया था। इसी दिन शाम को छह बजे अमीनाबाद पार्क में मीटिंग भी हुई थी लिहाजा शाम होते ही भीड़ उधर बढ़ चली। हर रास्ते रोशनी से जगमगा गए थे| गोमती में महिलाएं और बच्चे स्वतंत्रता की देवी को दीप अर्पित कर रहे थे|

लो आ गई 'सीताज रामायण'

नई दिल्ली| अभी तक आपने वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण या फिर तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस के साथ- साथ रामकथा के अन्य कई संस्करणों को ही पढ़ा होगा, लेकिन बहुत जल्द ही आप अंग्रेजी में 'सीताज रामायण' (सीता की रामायण) को भी पढ़ सकेंगे| बेंगलूर में रहने वाली स्मिता अर्नी ने इस अत्याधुनिक 'सीताज रामायण' की रचना की है|

रामायण व रामचरितमानस जैसे महाकाव्यों में सिर्फ मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के संपूर्ण जीवनकाल की छवि ही मिलती है, लेकिन अब सीता की रामायण में पूरी कहानी माता सीता पर केन्द्रित होगी| इस अत्याधुनिक सीताज रामायण में राम का नहीं वरन सीता व उनके साथ रामायण में आने वाली कुछ अन्य स्त्रियों का वर्णन किया गया है| इसमें सुग्रीव की पत्नी तारा, रावण की बहन शूर्पणखा और अशोक वाटिका में सीता की देखरेख करने वाली राक्षसी त्रिजटा का जीवन वृतांत भी पढ़ सकेंगे|

स्मिता का कहना है कि उन्होंने इस रामायण की रचना आज कल के ज़माने को ध्यान में रखते हुए किया है| उन्होंने इस रामायण को ग्राफिक नॉवेल, कॉमिक चित्रकथा रूप में रेखांकित किया है, जिसे पश्चिम बंगाल के पश्चिम मिदनापुर जिले के निर्भयपुर गांव में रहने वाली कलाकार, मोन्या चित्रकार ने लोकशैली के चित्रों से सजाया है।

अमेरिका के माउंट होलयोक कॉलेज में धर्म और सिनेमा की पढ़ाई करने वाली स्मिता ने कहा कि मैंने अभी तक रामकथा के कई संस्करणों को पढ़ा है| पूरी रामकथा को पढने में मुझे सबसे अधिक दुखद पक्ष सीता की अग्निपरीक्षा का लगता था| उन्होंने कहा कि मैंने महसूस किया कि सभी रामकथाओं में सबसे ज्यादा ग्लैमर अग्निपरीक्षा को किया गया है|

स्मिता ने इस राम कथा में सीता की अग्निपरीक्षा को सीता के नजरिये से ही रेखांकित किया है| उनका कहना है कि इस प्रसंग में पाठक को अंतत: राम से सहानुभूति होती है। भगवान राम लम्बे समय तक रावण से युद्ध करने के पश्चात जब सीता से मिलते हैं, तब राम सीता को सीधे तौर पर न अपनाकर उनसे अग्निपरीक्षा देने को कहते हैं|

स्मिता बताती हैं कि उस वक्त सीता के संवाद काफी महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि सीता अपने सतीत्व की परीक्षा देने से इंकार कर देती हैं|

भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना

रक्षा बंधन हिन्दुओं का सबसे प्रमुख त्यौहार है . श्रावण  मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला यह त्यौहार भाई बहन के प्यार क प्रतीक है. इस दिन सभी बहने अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधती हैं और भाई की लम्बी उम्र की कामना करती हैं. भाई अपनी बहन को रक्षा करने का वचन देता है .
भाई बहन का यह पवन पर्व आज से ही नहीं बल्कि युगों-युगों से चलता चला आ रहा है. पुराणों में भी इस पर्व का व्याख्यान किया गया है . आपको बताते चलें कि महाभारत में पांडवों की पत्नी द्रोपदी भगवन श्री कृष्ण की तर्जनी से निकल रहे रक्त स्राव को देखकर उनकी उंगली पर अपनी साड़ी का एक कोना फाड़कर बांध दिया था. उस वक्त श्री कृष्ण ने द्रोपदी को रक्षा करने का वचन दिया था. वहीँ श्री कृष्ण ने जब दुर्योधन की भारी सभा में दुह्शासन साड़ी खीच कर उनको निह्वस्त्र किया जा रहा था तब भगवन ने रक्षा की थी. इसका एक और उदहारण आपको बताते चले कि जब देवता और दानवों के बीच युद्ध शुरू हुआ .देवताओं पर राक्षस भारी पड़ रहे थे तब इन्द्र की पत्नी ने उस वक्त अपने पति की कलाई पर रेशम का धागा बांध दिया और वह दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था. कहते हैं इन्द्र की जीत इसी धागे की मंत्र शक्ति  से हुई थी . पौराणिक युग के साथ साथ एतिहासिक युग में भी यह त्यौहार काफी प्रचलित था कहते हैं कि राजपूत जब युद्ध के लिए जाते थे तब महिलाएं उनके मस्तक पर कुमकुम का टीका लगाती थी और हाथ में रेशम का धागा बांधती थी . महिलाओं को यह विश्वास होता था कि उनके पति विजयी होकर लौटेंगे.
आपको यह भी बता दे कि मेवाड़ की महारानी कर्मवती के राज्य पर जब बहादुर शाह जफ़र द्वारा हमला की सूचना मिली तब रानी ने अपनी कमजोरी को देखते हुए मुग़ल शासक हुमायूँ को राखी भेजी. हुमायूँ ने राखी की लाज रख ली और उसने तुरंत सेना को तैयार कर बहादुर शाह पर आक्रमण कर दिया और रानी कर्मावती और उनके राज्य की रक्षा कर ली.
इस तरह से तमाम येसे प्रसंग हैं जो भ्रात्र स्नेह से जुड़े हुए हैं .