जानिए भगवान राम नीले और कृष्ण काले क्यों है....

शास्त्रों में यह कहा गया कि भगवान श्रीराम नीले रंग के थे और श्रीकृष्ण सावले यानि की काले थे| शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि यह दोनों अवतार तीनों लोकों के स्वामी भगवान विष्णु के हैं|

ऐसा सुनकर मन में एक सवाल जरुर उठता है वह है यह कि व्यक्ति कला तो होता है पर नीले रंग का व्यक्ति तो किसी ने नहीं देखा? आखिर इन भगवानों के रंग-रूप के पीछे क्या रहस्य है।

आपको बता दें कि भगवान राम के नीले वर्ण और कृष्ण के काले रंग के पीछे एक दार्शनिक रहस्य है। भगवानों का यह रंग उनके व्यक्तित्व को दर्शाते हैं। दरअसल इसके पीछे भाव है कि भगवान का व्यक्तित्व अनंत है। उसकी कोई सीमा नहीं है, वे अनंत है। ये अनंतता का भाव हमें आकाश से मिलता है। आकाश की कोई सीमा नहीं है। वह अंतहीन है। राम और कृष्ण के रंग इसी आकाश की अनंतता के प्रतीक हैं। राम का जन्म दिन में हुआ था। दिन के समय का आकाश का रंग नीला होता है।

इसी तरह कृष्ण का जन्म आधी रात के समय हुआ था और रात के समय आकाश का रंग काला प्रतीत होता है। दोनों ही परिस्थितियों में भगवान को हमारे ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने आकाश के रंग से प्रतीकात्मक तरीके से दर्शाने के लिए है काले और नीले रंग का बताया है।

यही कारण है कि है कि भगवान श्रीराम के शरीर का रंग नीला और श्रीकृष्ण का रंग श्याम था|

जानिये आखिर सोमवार ही क्यों हैं भगवान शंकर का दिन

हिन्दू धर्म में प्रत्येक दिन देवताओं के लिए बंटे होते हैं जैसे सोमवार भगवान शिव का है, मंगलवार हनुमान जी का है और शनिवार न्यायधीश कहे जाने वाले शनिदेव का है| क्या आपको पता है कि आखिर सोमवार ही क्यों भगवान शंकर को मिला है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं-

आपको बता दें कि पुराणों में सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान शिव के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। भगवान शंकर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।

इसके अलावा सोम का अर्थ सौम्य होता है। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है।

अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। केवल कल्याणरी शिव की उपासना न करके साधक भगवती शक्ति की भी साथ में उपासना करना चाहता है क्योंकि बिना शक्ति के शिव के रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिए भक्तों ने सोमवार को शिव का वार स्वीकृत किया।

भगवान शंकर आखिर क्यों कहलाते हैं कालों के काल - 'महाकाल'

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी।

शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं।

आखिर क्यों भगवान शंकर को कालों के काल कहा जाता है, आइये जाने-

आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|

भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| आपको पता होगा कि भगवान शिव के तीन नेत्रों वाले हैं| इसलिए त्रिदेव कहा गया है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता माने गए हैं और विष्णु को पालनहार माना गया है| वहीँ, भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है।

इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है। वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।

घर के बाहर क्यों बनाए जाते हैं पैरों के निशान

आपने ज्यादातर घरों में एक चीज जरूर देखी होगी वह है किसी के घर के प्रवेश द्वार पर रंगोली या कुमकुम से पैरों के निशान बने| क्या आपको पता है यह पैरों के निशान क्यों बनाये जाते हैं, अगर नहीं तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि हिन्दू धर्म व संस्कृति में घर के बाहर रंगोली बनाना अति आवश्यक होता है क्योंकि कुमकुम या रंगोली से बने पैरों के निशान शुभ शगुन माना जाता है|

आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार यह पैरों के निशान माता लक्ष्मी के माने जाते हैं, देवी के पैरों के निशान मुख्य द्वार के पास जमीन पर लगाना चाहिए। अगर घर के बाहर कुमकुम के छोटे-छोटे पैर बारह महीने बने रहें तो इसके भी अनेक लाभ होते हैं|

आपको बता दें कि अगर आपके घर के बाहर देवी लक्ष्मी के चरणों के निशान बने हैं तो इससे सभी देवी-देवताओं की शुभ दृष्टि हमारे घर और सदस्यों पर सदैव बनी रहती है। इसके आलावा अशुभ ग्रहों का बुरा प्रभाव भी कम होता है। इतना ही नहीं आपके घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है।

इसलिए अगर आपके घर के बाहर माता लक्ष्मी के पैरों के निशान नहीं बने हैं तो आप भी बना लें क्योंकि इससे पॉजिटिव ऊर्जा मिलती है|

पशु-पक्षी भी अवगत कराते हैं आपके आने वाले दिनों के बारे में

हर व्यक्ति की यही इच्छा होती है कि मेरा आने वाला दिन कैसा होगा| कहते हैं कि कई जानवरों को आपके भविष्य का पूर्वाभास हो जाता है लेकिन वह इसको बयां नहीं कर सकते हैं| आपको बता दें कि कई ऐसे जानवर हैं जिन्हें आपके आने वाले समय के बारे में पहले से ही ज्ञात हो जाता है जैसे कि कौआ, गाय, कुत्ता, बिल्ली और कबूतर| आपको यह सुनकर थोडा अचम्भा जरुर होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है|

तो आइये जाने कैसे यह पशु, पक्षी हमारे आने वाले समय के बारे में जान जाते हैं-

आपको बता दें कि अगर आप के घर कोई मेहमान आने वाला है तो कौआ को पहले से ही ज्ञात हो जाता है और भोर के समय आपके छत पर आकर चिल्लाएगा, इतना ही नहीं अगर आपके साथ कुछ बुरा या अशुभ होने वाला है तो आपके सिर पर चौंच मार के आपको बाता देगा।

वहीँ, अगर कबूतर आपके घर आकर बसेरा लेने लगे हैं तो समझ जाइये कि आपके परिवार में से कोई सदस्य कम हो सकता है| कहने का तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति के घर में अकाल मृत्यु हो सकती है या धीरे-धीरे वो घर सुनसान होने वाला है।

इसके आलावा अगर आपके साथ कुछ बुरा या अशुभ होने वाला है तो कुत्ता आपके घर की तरफ मुंह कर के रोने लगेगा, वहीँ अगर कुछ आपके साथ अपशगुन होने वाला होता है तो बिल्ली रास्ता काट देती है|

इतना ही नहीं गाय भी आपके आने वाले दिनों के बारे में जान जाती है| अगर आपका कोई काम होने वाला है या आप किसी काम के लिए जा रहे हैं तब गाय रम्भा दे तो समझ लेना चहिए आपका सोचा हुआ काम पूरा होगा।

जानिए किसी के पैर छूने से क्या होता है लाभ

हिन्दू परम्परों में एक परंपरा है अपने से बड़े लोगों के पैर छूने की| इससे आदर-सम्मान और प्रेम के भाव उत्पन्न होते हैं। साथ ही रिश्तों में प्रेम और विश्वास भी बढ़ता है। पैर छूने के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण दोनों ही मौजूद हैं।

आज आपको बता दे कि पैर छूने से व्यक्तियों को क्या-क्या लाभ होता है-

आपको बता दें कि पैर छुने से केवल बड़ों का आशीर्वाद ही नहीं मिलता बल्कि अनजाने ही कई बातें हमारे अंदर उतर जाती है। पैर छूने का सबसे बड़ा फायदा शारीरिक कसरत होता है, तीन तरह से पैर छूए जाते हैं। पहले झुककर पैर छूना, दूसरा घुटने के बल बैठकर तथा तीसरा साष्टांग प्रणाम।

झुककर पैर छूने से कमर और रीढ़ की हड्डी को आराम मिलता है। घुटने के बल बैठकर किसी के पैर छूने से पैर के सारे जोड़ मुड़ जाते हैं, जिससे जोड़ो में होने वाले स्ट्रेस से राहत मिलती है| इसके आलावा साष्टांग प्रणाम करने से सारे जोड़ थोड़ी देर के लिए तन जाते हैं, इससे भी स्ट्रेस दूर होता है।

इतना की काफी नहीं झुकने से सिर में रक्त प्रवाह बढ़ता है, जो स्वास्थ्य और आंखों के लिए लाभप्रद होता है। प्रणाम करने का तीसरा सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे हमारा अहंकार कम होता है। किसी के पैर छूना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है।

आखिर क्यों लगाते हैं वर-वधू को हल्दी

आजकल विवाह विवाह का दौर चल रहा है, इसमें कई रस्में निभाई जाती है इन कई रस्मों एक रस्म होती है हल्दी लगाने की। शादी के अवसर पर हल्दी दूल्हा और दुल्हन दोनों को लगाई जाती है।

हल्दी को लेकर लोगों का मानना होता है कि यह एक एक आवश्यक परंपरा है इसलिए इसका निर्वाह किया जाना अनिवार्य है। शास्त्रों के अनुसार हल्दी का उपयोग सभी प्रकार के पूजन-कार्य में आवश्यक रूप से किया जाता है। इसके बिना कई पूजन पूर्ण नहीं माने जाते हैं। इसी वजह से पूजन सामग्री में हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। हल्दी की पवित्रता के कारण ही वर-वधू के शरीर पर इसका लेप लगाया जाता है ताकि ये दोनों शास्त्रों के अनुसार पूरी तरह पवित्र हो सके।

स्वास्थ्य की द्रष्टि से हल्दी एक औषधि है। हल्दी हमारी त्वचा के लिए तो वरदान की तरह है। हल्दी लगाने से त्वचा संबंधी अनेक बीमारियां दूर हो जाती है। विवाह पूर्व वर-वधु के शरीर पर हल्दी का लेप लगाया जाता है ताकि यदि इन्हें को त्वचा संबंधी रोग हो, इंफेक्शन हो या अन्य कोई बीमारी हो तो उसका उपचार हो सके। हल्दी लगाने से त्वचा पर जमी हुई धूल आदि भी शत-प्रतिशत साफ हो जाती है। जिससे त्वचा में चमक बढ़ जाती है। चेहरे पर आकर्षण बढ़ जाता है। त्वचा की खुश्की दूर होती है, त्वचा में चमक पैदा होती है। त्वचा संबंधी कई इंफेक्शन मात्र हल्दी लगाने से ठीक हो जाते हैं।

जाने भगवान भोलेनाथ के सर्पों की माला पहनने का क्या है रहस्य

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना गया है। भगवान शिव अजन्में माने जानते हैं कहा जाता है उनका न तो कोई आरम्भ हुआ है और न ही अंत होगा| इसलिए भगवान भोलेनाथ अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं| क्या आपको पता है कि भगवान भोलेनाथ नागों का हार क्यों पहनते हैं अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि देवाधि देव महादेव के गले में सर्पों का हार क्यों शोभायमान है|

शास्त्रों के मुताबिक, भगवान शिव नागों के अधिपति है। नाग या सर्प को कालरूप माना गया है क्योंकि नाग विषैला व तामसी प्रवत्ति का जीव होता है| सर्पों का भगवान शंकर के अधीन होना यही संकेत है कि भगवान शंकर तमोगुण, दोष, विकारों के नियंत्रक व संहारक हैं, जो कलह का कारण ही नहीं बल्कि जीवन के लिये घातक भी होते हैं। इसलिए वह प्रतीक रूप में कालों के काल भी पुकारे जाते हैं और शिव भक्ति ऐसे ही दोषों का शमन करती है।

इस तरह भगवान भोलेनाथ का नागों का हार पहनना व्यावहारिक जीवन के लिये भी यही संदेश देता है कि जीवन को तबाह करने वाले कलह और कड़वाहट रूपी घातक जहर से बचाना है तो मन, वचन व कर्म से द्वेष, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद जैसे तमोगुण व बुरी आदत रूपी नागों पर काबू रखें। यही वजह है कि भगवान भोलेनाथ सर्पों की माला से अपना सिंगार करते हैं|

जाने पति के बायीं ओर क्यों बैठती है पत्नी?

आपने हमेशा देखा होगा कि किसी धार्मिक अनुष्ठानों में पत्नी को पति के बायीं ओर ही बिठाया जाता है क्या आपको पता है इसके पीछे क्या मान्यता है ? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि पति के बायीं ओर ही क्यों बैठती है पत्नी|

पति-पत्‍नी का रिश्ता बड़ा ही कोमल और पवित्र होता है। यह विश्वास की डोर से बंधा होता है। कहते हैं पत्‍नी, पति का आधा अंग होती है। दोनों में कोई भेद नहीं होता। हमारे धर्म-ग्रथों में पत्नी को पति का आधा अंग बताया गया है। उसमें भी उसे वामांगी कहा जाता है अर्थात पति का बायां भाग। शरीर विज्ञान और ज्योतिष ने पुरुष के दाएं और महिलाओं के बाएं हिस्से को शुभ माना है।

इतना ही नहीं अगर हस्त ज्योतिष की बात करें तो भी महिलाओं का बाया हाथ ही देखा जाता है| मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा खास तौर पर मस्तिष्क रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। दायां हिस्सा कर्म प्रधान होता है। मनुष्य का मस्तिक भी दो हिस्सों में बंटा होता है| बायाँ हिस्सा कला प्रधान और दायाँ हिस्सा कर्म प्रधान होता है| यही कारण है कि महिलाएं पुरुषों के बाईं ओर ही बैठती हैं| 

स्त्री का स्वभाव सामान्यत: वात्सल्य का होता है और किसी भी कार्य में रचनात्मकता तभी आ सकती है जब उसमें स्नेह का भाव हो। दायीं ओर पुरुष होता है जो किसी शुभ कर्म या पूजा में कर्म के प्रति दृढ़ता के लिए होता है, बायीं ओर पत्‍नी होती है जो रचनात्मकता देती है, स्नेह लाती है। 

इस तरह से किरात बन गए वाल्मीकि

ब्रह्मा के मानस-पुत्रों में प्रचेतस भी एक हैं। एक बार समस्त लोकों का संचार करते हुए सुरपुरी अमरावती की शोभा को निहारते हुए उन्होंने इंद्र सभा में प्रवेश किया। इंद्र ने दिक्पालकों के समेत आगे बढ़कर आदरपूर्वक प्रचेतस का स्वागत किया, 'अघ्र्य' पाद्य आदि से उनका उपचार किया। उनको प्रसन्न करने के लिए रंभा, ऊर्वशी, मेनका इत्यादि अप्सराओं के नृत्य-गान का प्रबंध किया। 

उन अनुपम सुंदरियों को देखते ही युवा प्रचेतस के मन में काम-वासना उद्दीप्त हुई, परिणामस्वरूप उनके वीर्य का स्खलन हुआ। वीर्य नीचे गिरते ही तत्काल एक बालक के रूप में प्रत्यक्ष हुआ। देव सभा के सदस्य इस अद्भुत दृश्य को विस्फारित नयनों से देखते ही रह गए। उसी समय बालक ने प्रचेतस को प्रणाम करके निवेदन किया, "पिताजी, मेरा उद्भव आपके वीर्य के पतन से हुआ है। इस कारण से मेरे पालन-पोषण का दायित्व आप ही का बनता है।"

बालक के वचन सुनकर इंद्रसभा के सभापद परस्पर कानाफूसी करने लगे। देव सभा में बालक द्वारा अपने रहस्य के प्रकट हुए देख प्रचेतस क्रोध में आ गए और उन्होंने कठोर स्वर में बालक को शाप दिया, "किरात बनकर क्रूर कृत्य करते हुए जीवनयापन करोगे। मेरी आंखों के सामने से हट जाओ। मैं तुम्हारा चेहरा तक देखना नहीं चाहता।"

बालक रुदन करते हुए प्रचेतस के चरणों पर गिरकर करुण स्वर में बोला, "पिताश्री, मेरा जन्म सार्थक है, मैं ऐसा ही मानता हूं। परंतु जन्म-धारण के साथ-ही-साथ अपने ही पिता के द्वारा शापित होना मैं अपना दुर्भाग्य ही समझूंगा। धर्मशास्त्र घोषित करते हैं कि शिष्य के अपराध गुरु और पुत्र के अपराध पिता क्षमा कर देते हैं। आप मेरे इस अपराध को क्षमा करके मुझे इस शाप से मुक्त होने का वरदान दीजिए।"

बालक का आक्रंदन सुनकर देवताओं के हृदय द्रवित हुए। सबने समवेत स्वर में उसे शापमुक्त करने का प्रचेतस से अनुरोध किया। इस पर प्रचेतस का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने वात्सल्य भाव से प्रेरित होकर कहा, "पुत्र! तुम चिंता न करो। थोड़े दिन तक तुम किरातकर रहकर उसी पेशे में अपना जीवनयापन करोगे। इसके उपरांत तुम्हें कुछ महापुरुषों के अनुग्रह से एक दिव्य मंत्र प्राप्त होगा। उसी मंत्र के बल पर तुम अपनी आखेट-वृत्ति त्यागकर ब्रह्मर्षि बनोगे और तुम्हें शाश्वत यश प्राप्त होगा।"

प्रचेतस का आशीर्वाद पाकर बालक भूलोक में पहुंचा। किरातों की बस्ती में निवास करते हुए आखेट के द्वारा अपना पेट पालने लगा। कालक्रम में उसके कई बच्चे हुए। आखेट-वृत्ति के द्वारा परिवार को पालना जब सम्भव न हुआ तब उसने उस वन से गुजरनेवाले यात्रियों को लूटना आरम्भ किया।

कालचक्र के परिभ्रमण में अनेक वर्ष गुजर गए। एक बार सप्तर्षि तीर्थाटन के लिए निकले। किरात ने हुंकार करके उनका रास्ता रोका। उनको लूटने के लिए अनेक प्रकार से उन्हें यातनाएं देने लगा। ऋषियों ने समझाया, "बेटे, हम तो संन्यासी ठहरे। हम तो मूल्यवान वस्तुएं अपने पास नहीं रखते। दरअसल, हमें उनकी आवश्यकता ही नहीं है, हम सर्वसंग मरित्यागी हैं। हमें अपने रास्ते जाने दो। यह जीवन तो शाश्वत नहीं है। तुम अपना पेट पालने के लिए ऐसे पाप-कृत्य क्यों करते हो?"

महर्षियों के मुंह से हित वचन सुनकर किरात की हिंसा वृत्ति शांत हो गई। उसने विनीत स्वर में उत्तर दिया, "महानुभाव, मैं यह पाप केवल अपना पेट पालने के लिए नहीं कर रहा, अपनी पत्नी और बच्चों की परवरिश करने के लिए मुझे ये कर्म करने पड़ रहे हैं।"

किरात के भोलेपन पर महर्षियों को हंसी आई। उसको अबोध मानकर ऋषियों ने समझाया, "तुम गृहस्थ हो और परिवार का भरण-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। यह बात सही है, लेकिन तुम जो कुछ ले जाकर उन्हें दोगे, वही वे लोग खाएंगे, परंतु यह मत भूलो कि तुम्हारी कमाई के वे लोग अवश्य भागीदार होते हैं, तुम्हारे इन पाप-कृत्यों के नहीं।" 

किरात का हृदय दहल उठा। उसने सप्तर्षियों को उसके लौटने तक वहीं प्रतीक्षा करने की प्रार्थना की और लंबे डग भरते अपनी झोंपड़ी को लौट आया। खाली हाथ लौटे किरात को देख उसके परिवार वाले अचंभित थे। किरात ने गम्भीर स्वर में पूछा, "तुम लोग मेरी कमाई पर बंसी की चैन लेते हो। आराम से घर बैठे नाच-गान करते हो। लेकिन तुम लोग नहीं जानते कि मैं कैसे अत्याचार और अन्याय करके तुम लोगों का पेट पालता हूं, जिससे मैं पाप का भागीदार बनता हूं। अब बताओ, मेरे किए-कराए इस पाप में तुम लोग भी अपना हिस्सा बांटने को तैयार हो या नहीं?"

किरात की पत्नी और उसके बच्चों ने एक स्वर में बताया, "अरे! तुम भी कैसी ये अनर्गल बातें करते हो। पत्नी और बच्चों का पेट पालना तुम्हारा कर्तव्य है। तुम हमारे प्रति कौन-सा बड़ा उपकार करते हो। यही बात थी तो तुमने शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किए? कोई सुने तो हंसे। जाओ, जल्दी हमारे खाने के लिए कुछ लेते आओ।"

पत्नी और बच्चों की बातें सुनकर किरात का दिल दहल गया। तत्काल वह सप्तर्षियों के पास लौटा, उनके चरणों पर गिरकर विनती करने लगा, "महानुभावों, आज मेरे भाग्यवश आप लोगों के दर्शन हुए। मेरा जीवन धन्य हो गया। आप लोग मुझ पर अनुग्रह करके इस पापपूर्ण पंक से मेरा उद्धार कीजिए।" किरात को अपनी करनी पर पश्चात्ताप करते देख सप्तर्षि प्रसन्न हुए और उसको 'श्रीराम' मंत्र जपने का उपदेश दिया।

किरात के मन में विवेक जागृत हुआ। वह अपने परिवार को त्यागकर कंद-मूल और फलों का सेवन करते हुए, पवित्र नदियों में स्नान करते हुए श्रीराम तारक मंत्र का जाप करने लगा। अन्न-जल का उसे स्मरण तक न रहा। शन:-शनै: उसके चारों ओर वल्मीक बनता गया। उस पर पौधे उग आए। पेड़ बने, सरीसृप आदि जानवरों ने उस वल्मीकि पर अपना आश्रय बनाया, परंतु किरात को इस बात का भान तक न हुआ। वह तपस्या में निमग्न हो गया था।

अनेक वर्ष तीर्थाटन करके जब सप्तर्षि उसी वन से होकर अपने आश्रमों की ओर लौटने लगे, तब उन्हें उस किरात का स्मरण हो आया। उन्होंने किरात का पता लगाया। "सप्तर्षियों! जिस किरात को आप लोग ढूंढ़ रहे हैं, वह एक तपस्वी बनकर आप लोगों के सामने दर्शित होने वाले वल्मीकि में है। वह इस समय ध्यानमग्न हैं।"

यह समाचार पाकर सप्तर्षि अमित आनंदित हुए और उन लोगों ने संपूर्ण हृदय से उस तपस्वी को आशीर्वाद दिया। "वल्मीकि के भीतर तपस्या में मग्न पुण्यात्मा वाल्मीकि महर्षि के नाम से विख्यात होंगे। श्रीमहाविष्णु स्वयं श्रीराम के रूप में प्रत्यक्ष हो इन्हें दर्शन देंगे और अपना चरित लिखने का आदेश देंगे। ये ऋषि कुल तिलक बनकर जगत के कल्याण का सूत्रधार बनेंगे।" इस प्रकार आशीर्वाद देकर सप्तर्षि अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। वही तपस्वी कालांतर में महर्षि वाल्मीकि नाम से प्रख्यात हुए और 'रामायण' की रचना करके आदिकवि कहलाए।

इस तरह मोदक बना गणेश का प्रिय


हिन्दू धर्म में भगवान श्री गणेश को प्रथम पूज्य देवता माना गया है| इसलिए सभी देवताओं में गणेश जी की पूजा सबसे पहले की जाती है आपने यदि श्री गणेश तस्वीर पर ध्यान दिया होगा तो उनके हाथ में उनका प्रिय भोजन मोदक जरुर रहता है| क्या आपको पता है कि गणेश जी अन्य भोग की जगह मोदक इतना क्यों पसंद है? 

शास्त्रों में कहा गया है कि गजानन का एक दांत परशुराम जी के साथ हुए युद्ध में टूट गया था| दांत के टूट जाने से उन्हें अन्य चीजों को खाने में तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें चबाना पड़ता था लेकिन मोदक को चबाना नहीं पड़ता है ऐसा इसलिए क्योंकि मोदक बहुत मुलायम होता है|

भगवान गणेश को मोदक इसलिए भी पसंद हो सकता है कि मोदक प्रसन्नता प्रदान करने वाला मिष्टान है। मोदक के शब्दों पर गौर करें तो 'मोद' का अर्थ होता है हर्ष यानी खुशी। भगवान गणेश को शास्त्रों में मंगलकारी एवं सदैव प्रसन्न रहने वाला देवता कहा गया है। 

पद्म पुराण के सृष्टि खंड में गणेश जी को मोदक प्रिय होने की जो कथा मिलती है उसके अनुसार मोदक का निर्माण अमृत से हुआ है। देवताओं ने एक दिव्य मोदक माता पार्वती को दिया। गणेश जी ने मोदक के गुणों का वर्णन माता पार्वती से सुना तो मोदक खाने की इच्छा बढ़ गयी। अपनी चतुराई से गणेश जी ने माता से मोदक प्राप्त कर लिया। गणेश जी को मोदक इतना पसंद आया कि उस दिन से गणेश मोदक प्रिय बन गये। 

तो इस तरह बहेलिया से बना सत्यतप


मानव जीवन एक पहेली है। जीवन की इस लम्बी यात्रा में कुछ लोगों के तहत ऐसी घटनाएं अचानक घटित हो जाती हैं, जो उनकी जीवनधारा को ही बदल देती हैं। कब किसके जीवन में कैसी घटनाएं घटित हो सकती हैं, हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। सत्यतप की कथा इसका उत्तम उदाहरण है। 

प्राचीन काल में एक बहेलिया रहा करता था। वह राहगीरों को लूटकर अपना पेट पालता था। एक बार वह आरुणि नामक मुनि को मारने गया, फिर भी मुनि मौन रहकर अपने ध्यान में लीन रहे। उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। इस पर बहेलिया विस्मय में आ गया और इस घटना ने उसके दिल में हलचल मचा दी। उसने मुनि के पैरों पर गिरकर निवेदन किया, "महात्मा! आज तक मैंने अनेक लोगों को सताया है, परंतु आप जैसे शांत पुरुष को कभी नहीं देखा। मैं कसम खाकर कान पकड़ता हूं कि भविष्य में कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगा। मुझे मुक्ति का मार्ग बताइए।"

परंतु मुनि ने बहेलिए की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वह अपने रास्ते चल पड़े। बहेलिया भी उनके पीछे चलता रहा। जब वह एक भयंकर जंगल से होकर गुजर रहे थे, तब हठात् एक बाघ मुनि पर हमला कर बैठा। इस पर बहेलिए ने बाघ का सामना करके उसका वध कर डाला और मुनि की रक्षा की। बहेलिए पर मुनि को दया आई। उन्होंने बहेलिए को आशीर्वाद देकर समझाया, "तुम सदा सत्य कहो, वही तुम्हारे लिए मुक्ति का मार्ग बनेगा।"

बहेलिए ने मुनि के वचनों को गुरुमंत्र माना और उसी जंगल में रहकर उसने अन्न-जल त्यागकर तपस्या करना आरंभ किया। एक दिन उस मार्ग से जाते हुए मुनि दुर्वासा बहेलिए की कुटी में आए। बहेलिए ने दुर्वासा का आदरपूर्वक स्वागत किया और आतिथ्य ग्रहण करने की प्रार्थना की। दुर्वासा को आश्चर्य हुआ कि निराहार तप करने वाला यह तापसी उन्हें क्या खिला सकता है। फिर भी उसकी परीक्षा लेने के विचार से बहेलिए की प्रार्थना उन्होंने स्वीकार की। 

बहेलिए ने शिव जी का ध्यान किया। शिव जी ने उसे एक मणिमय पात्र दे दिया। उस पात्र के भीतर से बहेलिए के मनवांछित पदार्थ निकलने लगे। फिर क्या था, उसने मुनि दुर्वासा को अत्यंत स्वादिष्ट भोजन कराया। बहेलिए के आतिथ्य से संतुष्ट होकर मुनि ने उसे आशीर्वाद दिया, "तुम नि:संदेह सत्यतप हो।" और इसके बाद वह अपने रास्ते चले गए। उस दिन से बहेलिया सत्यतप कहलाया।

एक दिन की घटना है। सत्यतप वन में लकड़ी काट रहा था। गलती से उनकी एक अंगुली कटकर जमीन पर गिर गई और फिर आकर अपनी जगह पर चिपक गई। वहीं एक वृक्ष पर बैठे किन्नरों ने इस दृश्य को देखा। वे विस्मित हो गए और इंद्र को वृत्तांत सुनाया।

सत्यतप की सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने के लिए इंद्र और उपेंद्र सूअर और बहेलिए का वेश धरकर उसके सामने आए। वह मायावी सूअर भय का अभिनय करते हुए सत्यतप के समीप पहुंचा और उसने सत्यतप से शरण मांगी। सत्यतप ने सूअर को अभयदान दे दिया। थोड़ी देर बाद बहेलिए ने सत्यतप के आश्रम में प्रवेश करके पूछा, "मुनिवर, मैं एक सूअर का शिकार खेल रहा था, वह बचकर भाग निकला और इसी ओर आया है। बताइए, वह कहां है?"

सत्यतप दुविधा में पड़ गया। यदि वह सच्ची बात नहीं बताएगा तो उसे मिथ्या का दोष लगेगा। सच्ची बात बताएगा तो बहेलिया उस सूअर को मार डालेगा। उसने सूअर को शरण दी है, ऐसी हालत में वह शरणागत की रक्षा नहीं कर पाएगा। इस प्रकार विचार करके सत्यतप ने कहा, "महाशय, सूअर को आंखों ने देखा, परंतु वे बोल नहीं सकतीं। मुंह तो आपका जवाब दे सकता है, किंतु उसने तो नहीं देखा। बिना देखे मुंह कैसे बता सकता है कि उसने देख लिया है।"

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

जब इंद्र को करनी पड़ी भूत की सृष्टि


 प्राचीन काल में समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करने के लिए कुछ नैतिक मूल्यों को मानदंड बनाया गया था और इन मूल्यों का अनुपालन अत्यंत कड़ाई के साथ करवाया जाता था। उन्हीं मूल्यों और मानदंडों पर आधारित कहानियां पुराणों के निर्माण में सहायक सिद्ध हुई। ऐसी गाथाओं में मातृपंचक और पितृपंचक सम्बंधी आदर्शो को अधिक प्रधानता दी गई है। ऐसी ही एक कथा यहां पर प्रस्तुत है, जिसमें पितृभक्ति के माहात्म्य का वर्णन हुआ है :- 

प्राचीन काल में द्वारका नगर में शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मणवंशी गृहस्थ रहा करते थे। उनके पांच पुत्र थे- यज्ञशर्मा, वेदशर्मा, धर्मशर्मा, दवेशर्मा और सोमशर्मा। ये सब समस्त शास्त्रों के ज्ञाता थे और पितृभक्ति को सवरेत्तम धर्म मानते थे। शिवशर्मा ब्रह्मज्ञान रखते थे। एक बार उनके मन में अपने पुत्रों की पितृभक्ति की परीक्षा लेने का संकल्प उदित हुआ। उन्होंने अपनी मायाशक्ति के बल पर अपनी पत्नी को मृत घोषित कर उनका शव अपने पुत्रों को दिखाया। पांचों पुत्र अपनी माता की मृत्यु पर शोक संतप्त हुए। ऐसी स्थिति में शिवशर्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यज्ञशर्मा के हाथ में एक शस्त्र देकर आदेश दिया, "पुत्र, तुम इस शस्त्र से अपनी माता के अवयवों का खंडन करके इन्हें फेंक दो।"

यज्ञशर्मा ने बिना किसी प्रकार के प्रतिवाद के अपनी माता के अवयवों का खंडन किया। शिवशर्मा अपने ज्येष्ठ पुत्र की मितृभक्ति पर अत्यंत प्रसन्न हुए। तदनंतर शिवशर्मा ने अपने द्वितीय पुत्र वेदशर्मा को बुलाकर आदेश दिया, "वत्स, मैं एक युवती के सौंदर्य पर आसक्त हूं। वह यहीं समीप में संचार कर रही है। उसको मेरी इच्छा बताकर यहां पर ले आओ।" यह कहकर शिवशर्मा ने अपनी मायाशक्ति से एक अनुपम सुंदरी की सृष्टि की।

वेदशर्मा ने उस रमणी के पास जाकर निवेदन किया, "मेरे पिताजी आप पर आसक्त हैं। आप कृपया उनकी कामना की पूर्ति कीजिए।" इस पर युवती ने कहा, "तुम्हारे पिता वृद्ध हो चुके हैं। मैं उनकी कामना की पूर्ति नहीं कर सकती। तुम परिपूर्ण यौवन से सुशोभित हो। तुम्हारे साथ संसर्ग करने की मैं अभिलाषा रखती हूं।" वेदशर्मा ने समझाया, "देवी, तुम्हारा कथन धर्म-संगत नहीं है। मैं अपने पिता की इच्छापूर्ति के लिए अपना सर्वस्व तुम्हें अर्पित कर सकता हूं।" 

युवती ने शर्त लगाई, "यदि तुम इंद्र आदि देवताओं का मुझे दर्शन करा सकोगे, तो मैं तुम्हारे पिता के मनोरथ को पूरा कर सकती हूं।" वेदशर्मा ने अपने तपोबल से उस रमणी को देवताओं के दर्शन कराए। युवती ने मुदित होकर वेदशर्मा की पितृभक्ति की परीक्षा लेने के विचार से दूसरी शर्त रखी, "अगर तुम इस शस्त्र से अपना सिर काटकर मुझे अर्पित करोगे, तो मैं तुम्हारे पिता की कामना की पूर्ति करूंगी।" तत्काल वेदशर्मा ने अपना सिर काटकर युवती के हाथ में धर दिया। युवती वेदशर्मा का सिर लेकर शिवशर्मा के पास पहुंची और सारा वृत्तांत उन्हें सुनाया। शिवशर्मा अपने द्वितीय पुत्र वेदशर्मा की पितृभक्ति पर परम आनंदित हुए।

इसके उपरांत शिवशर्मा ने अपने तृतीय पुत्र धर्मशर्मा को निकट बुलाकर कहा, "तुम वेदशर्मा के सिर और धड़ को जोड़कर पुनर्जीवित करो।" धर्मशर्मा ने धर्म देवता का स्मरण किया और वेदशर्मा के सिर और धड़ को जोड़कर कहा, "देव, यदि मैं सचमुच अपने पिता के प्रति भक्ति रखता हूं, तो वेदशर्मा तत्काल जीवित हो जाए।"

धर्म देवता ने 'तथास्तु' कहकर वेदशर्मा को प्राण दान किया। तदुपरांत शिवशर्मा ने अपने चौथे पुत्र देवशर्मा को आदेश दिया, "पुत्र, मैं इस कामिनी के साथ संसर्ग चाहता हूं। तुम स्वर्ग में जाकर यौवनप्रद अमृत लाओ।"

देवशर्मा को अपने पिता के अनुग्रह से खेचरत्व प्राप्त हुआ। वे स्वर्ग के समीप पहुंच ही रहे थे कि उनके कार्य में विघ्न डालने के लिए इंद्र ने मेनका को भेजा। देवशर्मा मेनका के रूप, यौवन और विभ्रम का तिरस्कार करके आगे बढ़े। इस पर इंद्र ने भूत-सृष्टि की। प्रेत, बेताल, राक्षस, दैत्य, सिंह, शार्दूल भी उनके प्रयत्न में बाधा नहीं डाल पाए। वेदशर्मा ने मन ही मन कहा, "जो मुझे दंड देना चाहने हैं, वे दंडित हों।-यो हत्यात्स विहन्यते।" उन्होंने यह भी संकल्प किया कि मैं स्वयं अपने तपोबल से एक और इंद्र की सृष्टि करके स्वर्ग पर शासन कराऊंगा। देवशर्मा के संकल्प से भयभीत हो इंद्र ने उनसे क्षमा मांगी और उनकी पितृभक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा करके अमृत ला दिया।

देवशर्मा ने अपने पिता को अमृत सौंपकर निवेदन किया, "पिताश्री, इस अमृत का सेवन करके आप अपने मनोरथ को पूर्ण कीजिए।" 

शिवशर्मा अपने पुत्रों की पितृभक्ति पर प्रसन्न होकर बोले, "बेटे, तुम लोग आज्ञाकारी पुत्र हो। तुम सब जो भी कठिन वर मांगो, मैं देने के लिए तैयार हूं।" इस पर सभी पुत्रों ने एक स्वर में निवेदन किया, "हमारी माता जीवित हो जाए।" पुत्रों की प्रार्थना पर शिवशर्मा ने अपनी पत्नी 'सुव्रता' को जीवित किया। सुव्रता ने हर्षित हो कहा, "वत्स, तुम लोग पितृभक्त हो, इसलिए तुम लोग सदा सुखी और प्रसन्न रहो।"

पुत्रों ने अपनी माता के चरणों में प्रणाम करके कहा "मां, पुण्यात्माओं को ही योग्य माता-पिता प्राप्त होते हैं। अगले जन्म में भी आप दोनों हमारे माता-पिता हों, यही हमारी प्रबल कामना है।"

शिवशर्मा अपने पुत्रों की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर बोले, "वत्सों, मैं तुम लोगों की मातृ-पितृ भक्ति पर प्रसन्न हूं। कोई वर मांग लो।"

पुत्रों ने विष्णु के सान्निध्य की कामना की। शिवशर्मा ने उन्हें विष्णु लोक की प्राप्ति का वरदान दिया। इस पर स्वयं विष्णु ने प्रत्यक्ष होकर सबको अपने लोक में आमंत्रित किया, परंतु शिवशर्मा ने श्रीमहाविष्णु से निवेदन किया, "भगवान! इस समय मेरे चार पुत्र आपके लोक में जाएंगे, मैं अपने अंतिम पुत्र सोमशर्मा और अपनी पत्नी के साथ थोड़े दिन और भूलोक में निवास करना चाहता हूं। अनुग्रह कीजिए।" विष्णु ने शिवशर्मा की प्रार्थना मान ली और उसी समय शिवशर्मा के चार पुत्र विष्णु लोक में पहुंचे।

इसके बाद शिवशर्मा अमृत कलश सामशर्मा के हाथ सौंपकर अपनी पत्नी के साथ तपस्या करने निकल पड़े। कई वर्ष बाद अपने पुत्र की परीक्षा लेने के लिए कुष्ठ रोग पीड़ित हाकेर घर लौटे। सोमशर्मा ने आदरपूर्वक अपने माता-पिता का स्वागत किया और अपने माता-पिता को रोगग्रस्त होने के कारण पर आश्चर्य प्रकट किया। "आप जैसे पुण्यात्मा और पतिव्रता को यह भीषण रोग कैसे प्राप्त हो सकता है?" शिवशर्मा ने अपने पूर्वजन्मों का कर्मफल बताकर सोमशर्मा को शांत किया।

सोमशर्मा भक्ति-भाव से अपने माता-पिता की सेवा-शुश्रूषा में लग गया। उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दिया, फिर भी शिवशर्मा हर बात की शिकायत करते। परंतु सोमशर्मा किंचित भी असंतुष्ट हुए बिना अपने माता-पिता की सेवा में निमग्न रहे। शिवशर्मा अपने पुत्र सोमशर्मा के इस कर्मयोग से पूर्ण संतुष्ट हुए, फिर भी उनकी अंतिम परीक्षा लेने के विचार से अमृत कलश में से अमृत को अदृश्य किया और पुत्र से अमृत लाने को कहा।

सोमशर्मा ने कलश को रिक्त पाकर अपने तपोबल से पुन: अमृत से भरवा दिया और अपने पिता के हाथ में सौंप दिया। शिवशर्मा सोमशर्मा की पितृभक्ति और तपोशक्ति पर संतुष्ट होकर अपने निज रूप में प्रत्यक्ष हुए। सोमशर्मा ने भक्ति-भाव से माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया। पिता ने पुत्र को संतुष्ट हृदय से अनेक वरदान प्रदान किए। हमारे शास्त्रों में पिता को ब्रह्मा, विष्णु और महेश बताया गया है और पितृभक्ति को सर्वफलदायक माना गया है- पिता ब्रह्मा, पिता विष्णु, पिता देवो महेश्वर:।

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