यहाँ के जंगलों में विचरण करता था अंगुलिमाल

अंगुलिमाल के बारे में आपने बहुत कुछ सुना होगा लेकिन पहला सवाल तो यही उठता है कि कौन था अंगुलिमाल| अंगुलिमाल बौद्ध कालीन एक दुर्दांत डाकू था जो राजा प्रसेनजित के राज्य श्रावस्ती में निरापद जंगलों में राहगीरों को मार देता था और उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहनता था। इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ गया था। एक डाकू जो बाद मे संत बन गया।

अहिंसक से कैसे बना अंगुलिमाल- 

लगभग ईसा के 500 वर्ष पूर्व कोशल देश की राजधानी श्रावस्ती में एक ब्राह्मण पुत्र के बारे में एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि यह बालक हिंसक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर हत्यारा डाकू बन सकता है।

माता-पिता ने उसका नाम 'अहिंसक' रखा और उसे प्रसिद्ध तक्षशिला विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्ति के लिए भेजा। अहिंसक बड़ा मेधावी छात्र था और आचार्य का परम प्रिय भी था। सफलता ईर्ष्या का जन्म देती है। कुछ ईर्ष्यालु सहपाठियों ने आचार्य को अहिंसक के बारे में झूठी बातें बताकर उन्हें अहिंसक के बिरुद्ध कर दिया। 

आचार्य ने अहिंसक को आदेश दिया कि वह सौ व्यक्तियों की उँगलियाँ काट कर लाए तब वे उसे आखिरी शिक्षा देंगे। अहिंसक गुरु की आज्ञा मान कर हत्यारा बन गया और लोगों की हत्या कर के उनकी उँगलियों को काट कर उनकी माला पहनने लगा। इस प्रकार उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा गया।

भगवान बुद्ध और अंगुलिमाल-

प्राचीनकाल की बात है। मगध देश की जनता में आतंक छाया हुआ था। अँधेरा होते ही लोग घरों से बाहर निकलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, कारण था अंगुलिमाल। अंगुलिमाल एक खूँखार डाकू था जो मगध देश के जंगल में रहता था। जो भी राहगीर उस जंगल से गुजरता था, वह उसे रास्ते में लूट लेता था और उसे मारकर उसकी एक उँगली काटकर माला के रूप में अपने गले में पहन लेता था। इसी कारण लोग उसे "अंगुलिमाल" कहते थे। 

एक दिन उस गाँव में महात्मा बुद्ध आए। लोगों ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया। महात्मा बुद्ध ने देखा वहाँ के लोगों में कुछ डर-सा समाया हुआ है। महात्मा बुद्ध ने लोगों से इसका कारण जानना चाहा। लोगों ने बताया कि इस डर और आतंक का कारण डाकू अंगुलिमाल है। वह निरपराध राहगीरों की हत्या कर देता है। महात्मा बुद्ध ने मन में निश्चय किया कि उस डाकू से अवश्य मिलना चाहिए।

बुद्ध जंगल में जाने को तैयार हो गए तो गाँव वालों ने उन्हें बहुत रोका क्योंकि वे जानते थे कि अंगुलिमाल के सामने से बच पाना मुश्किल ही नहीं असंभव भी है। लेकिन बुद्ध अत्यंत शांत भाव से जंगल में चले जा रहे थे। तभी पीछे से एक कर्कश आवाज कानों में पड़ी- "ठहर जा, कहाँ जा रहा है?" 

बुद्ध ऐसे चलते रहे मानो कुछ सुना ही नहीं। पीछे से और जोर से आवाज आई-"मैं कहता हूँ ठहर जा।" बुद्ध रुक गए और पीछे पलटकर देखा तो सामने एक खूँखार काला व्यक्ति खड़ा था। लंबा-चौड़ा शरीर, बढ़े हुए बाल, एकदम काला रंग, लंबे-लंबे नाखून, लाल-लाल आँखें, हाथ में तलवार लिए वह बुद्ध को घूर रहा था। उसके गले में उँगलियों की माला लटक रही थी। वह बहुत ही डरावना लग रहा था। 

बुद्ध ने शांत व मधुर स्वर में कहा- "मैं तो ठहर गया। भला तू कब ठहरेगा?"

अंगुलिमाल ने बुद्ध के चेहरे की ओर देखा, उनके चेहरे पर बिलकुल भय नहीं था जबकि जिन लोगों को वह रोकता था, वे भय से थर-थर काँपने लगते थे। अंगुलिमाल बोला- "हे सन्यासी! क्या तुम्हें डर नहीं लग रहा है? देखो, मैंने कितने लोगों को मारकर उनकी उँगलियों की माला पहन रखी है।" 

बुद्ध बोले- "तुझसे क्या डरना? डरना है तो उससे डरो जो सचमुच ताकतवर है।" अंगुलिमाल जोर से हँसा - 'हे साधु! तुम समझते हो कि मैं ताकतवर नहीं हूँ। मैं तो एक बार में दस-दस लोगों के सिर काट सकता हूँ।' 

बुद्ध बोले - 'यदि तुम सचमुच ताकतवर हो तो जाओ उस पेड़ के दस पत्ते तोड़ लाओ।' अंगुलिमाल ने तुरंत दस पत्ते तोड़े और बोला - 'इसमें क्या है? कहो तो मैं पेड़ ही उखाड़ लाऊँ।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'नहीं, पेड़ उखाड़ने की जरूरत नहीं है। यदि तुम वास्तव में ताकतवर हो तो जाओ इन ‍पत्तियों को पेड़ में जोड़ दो।' अंगुलिमाल क्रोधित हो गया और बोला - 'भला कहीं टूटे हुए पत्ते भी जुड़ सकते हैं।' महात्मा बुद्ध ने कहा - 'तुम जिस चीज को जोड़ नहीं सकते, उसे तोड़ने का अधिकार तुम्हें किसने दिया? 

एक आदमी का सिर जोड़ नहीं सकते तो काटने में क्या बहादुरी है? अंगुलिमाल अवाक रह गया। वह महात्मा बुद्ध की बातों को सुनता रहा। एक अनजानी शक्ति ने उसके हृदय को बदल दिया। उसे लगा कि सचमुच उससे भी ताकतवर कोई है। उसे आत्मग्लानि होने लगी। 

वह महात्मा बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और बोला - 'हे महात्मन! मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं भटक गया था। आप मुझे शरण में ले लीजिए।' भगवान बुद्ध ने उसे अपनी शरण में ले लिया और अपना शिष्य बना लिया। आगे चलकर यही अंगुलिमाल एक बहुत बड़ा साधु हुआ।

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यहाँ दहेज़ में मिलता है कुत्ता और गधा!

अभी तक शादी तो बहुत देखी और सूनी होगी लेकिन आज हम आपको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे| अभी तक आपने यही सुना होगा की लड़की पक्ष वाले लड़कों वालों को दहेज़ देते हैं लेकिन इस अनोखी शादी में लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले लड़की को दहेज़ देते हैं| और शादी के बाद जब लड़की अपनी ससुराल आती है तो वह उपहार के तौर पर गधा और कुत्ता भी लाती है| इतना सुनकर आप भी सोच रहे होंगे कि आखिर यह अनोखी शादी होती कहाँ है तो आपको बता दें कि पश्चिमी राजस्थान का खुबसूरत जिला है बाड़मेर| इस जिले में अनेक जातियां बसती हैं इन्हीं जातियों में एक जाति है जोगी| आमतौर पर यह जाति भीख मांगकर अपना गुजारा करती है| आजादी के 65 साल बीत गए जहाँ पूरे देश तरक्की कर रहा है वहीं इस जाति के लोग आज भी सदियों पुरानी परम्पराओं में जकड़े हुए हैं| 

इस जाति में शादी की सदियों पुरानी परम्परा जो आज भी चली आ रही है वह यह कि यहाँ लड़की वाले नहीं बल्कि लड़के वाले दहेज़ देते हैं इसके अलावा युवक जिस लड़की से शादी करना चाहता है उसे दो साल तक कमाकर खिलाता है यदि वह ऐसा करने में सफल होता है तभी उसकी शादी होती है| 

इस जाति में दहेज़ के रूप में कुत्ता और गधा देने का चलन है। कुत्ता जहां सामान की रखवाली करने के काम आता है और गधा इसलिए ताकि उसका सामान आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाया जा सके। इतना ही नहीं इस जाति की एक और अनोखी परंपरा वह यह कि यहाँ जब सस्त्रियाँ गर्भवती होती हैं तो उसके पति को उसे सियार का मांस खिलाना होता है| फिलहाल यदि इस जाति के लोगों की माने तो उनका कहना है कि यह पुरानी परम्पराएँ धीरे- धीरे समाप्त हो रही है और लोग अन्य व्यवसाय में रूचि ले रहे हैं|

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यहाँ की महिलाएं एक नहीं कई पतियों के साथ करती हैं सम्भोग!

आमतौर पर विवाह चार प्रकार के होते हैं| एकल विवाह, बहु पत्नी विवाह, बहु पति विवाह व समूह विवाह| हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में आज भी बहु पति विवाह का चलन है| यहाँ की महिलाओं के एक से अधिक पति होते हैं| किन्नौर जिले में एक ऐसा स्थान भी है जहाँ पत्नी को पति के मरणोपरांत उसका वियोग सहने का मौका नहीं दिया जाता है| 

किन्नौर के इस क्षेत्र में एक ही स्त्री से एक ही परिवार के तीन चार भाई शादी करते हैं| यहाँ जब कोई भाई अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहा होता है तो वह कमरे के बाहर लगी खूंटे पर अपनी टोपी टांग जाता है ताकि अन्य भाइयों को यह पता चल जाए कि दूसरा भाई अभी पत्नी के साथ सम्भोग कर रहा है|

यदि यहाँ के लोगों की माने तो उनका कहा है कि यह प्रथा इसलिए चली आ रही है क्योंकि अज्ञातवास के दौरान पाँचों पांडवों ने यही समय बिताया था| सर्दी में बर्फबारी की वजह से यहाँ की महिलाएं और पुरुष घर में ही रहते हैं क्योंकि बर्फबारी की वजह से कोई काम नहीं रहता है| इन दिनों इन लोगों के पास बस मौज मस्ती में दिन व रात गुजारने होते हैं इसके अलावा और कोई काम नहीं होता है| महिलाएं सारा दिन पुरुषों के साथ गप्पें मारती हैं और पहेलियां बुझाती हैं। फिर रात वहीं गुजारती हैं। इस प्रथा को घोटुल प्रथा कहते हैं। घोटुल घरों में युवक-युवतियां आपस में शारीरिक संबंध भी कायम करते हैं|

भारत देश पुरुष प्रधान देश माना जाता है लेकिन यहाँ पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं घर की मुखिया होती हैं| इनका काम होता है पति व संतानों की सही ढंग से देखभाल करना| परिवार की सबसे बड़ी स्त्री को गोयने कहा जाता है, जिसके पास घर के भंडार की चाबियां रहती हैं। उसके सबसे बडे पति को गोर्तेस,कहते हैं यानी घर का स्वामी, जिसकी आज्ञा से पूरा परिवार चलता है।

यहाँ की एक और बात खास होती है वह यह कि यहाँ खाने के साथ शराब अनिवार्य होती है| यदि पुरुषों का मन दुखी होता है तो यह शराब और तम्बाकू का सेवन करते हैं वहीं जब महिलाओं को किसी बात को लेकर दुःख होता है तो वह गीत गाती हैं|

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यहाँ मां बनने के बाद होती है शादी..!

अभी तक आपने शादी तो कई तरह की देखि होगी लेकिन आज हाको एक ऐसी अनोखी शादी के बारे में बताने जा रहे हैं| जिसमें संतान होने के बाद होती है लड़की की शादी| यह सुनकर आपको थोड़ा अटपटा जरुर लग रहा होगा कि यह कैसी परम्परा है| लेकिन यह सच है| हिमाचल प्रदेश के कबायली इलाके के किन्नौर में अभी भी विवाह की यह परम्परा प्रचलित है| इस परम्परा को दारोश डब-डब के नाम से जाना जाता है| इस परम्परा के तहत लड़का जिस लड़की को पसंद करता है उसे अपने घर उठा ले जाता है और बच्चा होने के बाद लड़की के घरवालों की रजामंदी से शादी कर लेता है| 

बताते हैं कि इस विवाह में वर एक टोली बनाता है और वह जिस लड़की को पसंद करता है जब लड़की कहीं अकेली मिलती है तो वह उसे अपने घर उठा ले जाता है| वर द्वारा लाइ गई उस युवती की खूब सेवा की जाती है| उसे अच्छे से अच्छा भोजन कराया जाता है| वर के परिवार व रिश्तेदार उस युवती को शादी करने के लिए खूब समझाते हैं| यदि लड़की शादी के लिए रजामंद नहीं होती है तो वह खाना नहीं खाती और मौका पाकर वह भाग जाती है| 

बताते हैं कि जब लड़की अपने घर भाग जाती है तो लड़के वाले उसे मनाने के लिए एक व्यक्ति को उसके घर भेजते हैं| और वह व्यक्ति उस लड़की से क्षमा मांगता है इसके अलावा उसकी इज्जत के तौर पर उसे कुछ पैसे भी देता है| यदि लड़की उसे क्षमा कर देती है तो लड़के वाले उसके माता-पिता को अपने घर बुलाते हैं ताकि विधिवत तरीके से शादी की जा सके| इज्जत स्वीकार करने पर कन्या विवाह से पूर्व ससुराल में आती जाती रहती है। जब उसका पहला बच्चा हो जाता है तो उसकी बड़ी धूम धाम से शादी कर दी जाती है|

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यहाँ बिना दूल्हे के होती है शादियाँ

अभी तक आपने बहुत शादी देखी और सुनी होगी जिसमें एक दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर आता है और अपनी राजकुमारी को ले जाता है| क्या कभी आपने कोई ऐसी बारात देखी है जिसमें दूल्हा न हो? शायद नहीं! पर हिमाचल प्रदेश के दुर्गम कबायली जिला लाहुल स्पीती में शादी की रस्म ही अलग है| यहाँ कई गाँवों में बारात में दूल्हा नहीं बल्कि उसकी बहन कुछ निशानी लेकर जाती है और दूल्हन को अपने घर विदा कराकर लाती है| 

शीत नारुस्थल के नाम से जाने जाने वाली इस घाटी के जिला मुख्यालय केलोंग सहित गाहर घाटी के बिलिंग, युरिनाथ, रौरिक, छिक्का, जिस्पा अदि कई ऐसे गांव हैं जहां बैंड बाजा बारात तो होती है पर दूल्हा नहीं होता है यहाँ दूल्हे के स्थान पर बहन जाती है|

घाटी की मियाद, तिणन, गाहर अदि घाटियों की शादी की रस्में मेल भी खाती हैं। इस घाटी में विवाह की सबसे पुराणी रसम गंधार्भ विवाह है। यहाँ अपनी पसंदीदा लड़की उठा कर ले जाने की परंपरा आज भी प्रचलित है| वर द्वारा कन्या को उठा ले जाने के बाद वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के घर मक्खन लगी शराब लेकर जाते हैं यदि कन्या पक्ष के लोग उस शराब की बोतल का ढक्कन खोल देते हैं तो समझो रिश्ता पक्का यदि नहीं तो रिश्ता नामंजूर माना जाता है| घाटी में इस रिश्ते की मंजूरी को कई साल भी लग जाते हैं और ऐसी शादियों के निर्वहन में बच्चों ही नहीं बल्कि पोतो के शरीक होने के भी कई प्रमाण मिलते हैं।

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'यहाँ लड़कियों का होता है उपनयन संस्कार, पहनती हैं जनेऊ'

महिलाओं के लिए नैतिकता के पैमाने गढ़े जाने के बीच बिहार के एक गांव की महिलाओं ने परम्पराओं और पुरुषवादी मानसिकता को बदलने वाला उदाहरण पेश किया है। राजधानी पटना से 150 किलोमीटर दूर बक्सर जिले के मैनिया गांव में पिछले तीन दशक से लड़कियों का उपनयन संस्कार कराया जाता है जो कि सामान्यत: ब्राह्ण लड़कों के बीच होता है। यहां की लड़कियां लड़कों की तरह धागे से बने जनेऊ भी पहनती हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सिद्धेश्वर शर्मा ने कहा, "तीन दशक से चली आ रही यह रोचक कहानी है। विश्वनाथ सिंह ने 1972 में मैनिया में लड़कियों के लिए उस वक्त एक स्कूल की स्थापना की थी जब महिलाओं को स्कूल जाने से रोका जा रहा था। उन्होंने अपनी चार बेटियों को स्कूल भेजना शुरू किया, इससे दूसरी लड़कियां भी प्रेरित हुईं। इसके बाद विश्वनाथ ने अपनी बड़ी बेटी का जनेऊ संस्कार कराया। इसके बाद इसका अनुसरण दूसरों ने भी किया और अब यह पूरे गांव में होता है।"

इस परम्परा की शुरुआत करने वाली मीरा कुमारी अपनी तीन बहनों के साथ अभी भी जनेऊ पहनती हैं। पेशे से शिक्षक मीरा ने कहा, "जनेऊ पहनना इस बात का प्रतीक है कि हम पुरुषों से किसी भी रूप में कम नहीं हैं।"शर्मा के मुताबिक इस परम्परा ने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरुकता पैदा करने के लिए गांव की चर्चित कर दिया है।

उनके मुताबिक गांव की 24 से अधिक लड़कियां जनेऊ पहन कर स्कूल आती हैं। शर्मा ने कहा, "महिलाओं की इस परम्परा ने गांव के पुरुषों की मानसिकता बदली है और अब वे महिलाओं के साथ भेदभाव की हिम्मत नहीं करते।"

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यहाँ माहवारी आने पर घर से बाहर निकाल दी जाती हैं महिलाएं!

आधुनिकता के इस दौर में हिमाचल प्रदेश के कबायली क्षेत्र में आज भी महिलाएं वह तीन रातें बड़े कष्ट से गुजारती हैं जब वह मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं| इन दिनों महिलाएं घर के बाहर गौशाला में घास के बिछौने व फटे-पुराने कम्बल में रातें काटती हैं अब चाहे बर्फबारी हो या फिर आंधी तूफ़ान ही क्यों न आए| यहाँ एक ऐसा भी गाँव है जहाँ माहवारी आने पर महिलाओं को गाँव से बाहर निकाल दिया जाता है और उन्हें इन दिनों बाहर ही रहना पड़ता है| 

मिली जानकारी के मुताबिक, यहाँ के जिला मंडी की चौहारघाटी, स्नोर बदार, चच्योट, कमरूघाटी, जंजैहली, करसोग, कांगड़ा के छोटा व बड़ा भंगाल में आज भी महिलाएं अछूत होने का दंड भुगतती हैं| 

बताते हैं कि यहाँ प्रथम रजस्वला से लेकर तृतीय रजस्वला तक महिलाएं घर के बर्तन से लेकर घर के चूल्हे चौके तक को हाथ नहीं लगा सकती हैं| इन दिनों उन्हें घर के बाहर ही अलग बर्तन में खाना दिया जाता है| मान्यता है कि माहवारी के दिनों में महिला किसी देव स्थल घर के चूल्हे व चौके से छू गई तो घर से देवताओं का वास उठ जाएगा कई प्रकार के क्लेश उत्पन्न होंगे। इसके अलावा उन्हें रात गुजारने के लिए घास के बनी दरी व फटा-पुराना कम्बल दिया जाता है| माहवारी के तीसरे दिन उस महिला को घर से बाहर ही एकांत स्थान पर नहलाकर पंचामृत, पिलाकर घर में प्रवेश दिया जाता है। 

इन स्थानों पर इतना ही काफी है कि महिलाओं को गौशाला में रहना पड़ता है लेकिन कुल्लू के मलाणा में महिलाओं को गाँव से ही निकाल दिया जाता है| इतना ही नहीं किसी औरत की प्रसूति होने पर तो उसे तेरह दिनों तक गांव से बाहर रखा जाता है।

शास्त्रों में भी कहा गया है कि ब्रम्हा जी ने कहा, स्त्रियों के रजस्वला के प्रथम चार दिन तक ही उन पर यह दोष बना रहेगा। उन दिनों में स्त्रियां घर से बाहर रहेंगी। पांचवें दिन स्नान करके वे पवित्र बन जाएंगी। ये चार दिन वे पति के साथ संयोग नहीं कर सकेंगी।

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तो इसलिए सिर पर रखते हैं शिखा

हिन्दू धर्म के साथ शिखा (चोटी) का अटूट संबंध होने के कारण शिखा रखने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। सिर पर शिखा ब्राह्मणों की पहचान मानी जाती है। लेकिन यह केवल कोई पहचान मात्र नहीं है। जिस जगह शिखा (चोटी) रखी जाती है, यह शरीर के अंगों, बुद्धि और मन को नियंत्रित करने का स्थान भी है। 

इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि शिखा वाला भाग, जिसके नीचे सुषुम्ना नाड़ी होती है, कपाल तन्त्र के अन्य खुली जगहोँ की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है। जिसके खुली होने के कारण वातावरण से उष्मा व अन्यब्रह्माण्डिय विद्युत-चुम्बकी य तरंगोँ का मस्तिष्क से आदान प्रदान बड़ी ही सरलता से हो जाता है। और इस प्रकार शिखा न होने की स्थिति मेँ स्थानीय वातावरण के साथ साथ मस्तिष्क का ताप भी बदलता रहता है। लेकिन वैज्ञानिकतः मस्तिष्क को सुचारु, सर्वाधिक क्रियाशिल और यथोचित उपयोग के लिए इसके ताप को नियंन्त्रित रहना अनिवार्य होता है। जो शिखा न होने की स्थिति मेँ एकदम असम्भव है। क्योँकि शिखा इस ताप को आसानी से सन्तुलित कर जाती है और उष्मा की कुचालकता की स्थिति उत्पन्न करके वायुमण्डल से उष्मा के स्वतः आदान प्रदान को रोक देती है।

आधुनकि दौर में अब लोग सिर पर प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी चोटी रख लेते हैं लेकिन इसका वास्तविक रूप यह नहीं है। वास्तव में शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे सिर में बीचों बीच सहस्राह चक्र होता है। शरीर में पांच चक्र होते हैं,मूलाधार चक्र जो रीढ़ के नीचले हिस्सेमें होता है और आखिरी है सहस्राह चक्र जो सिर पर होता है। इसका आकार गाय के खुर के बराबर ही माना गया है। शिखा रखने से इस सहस्राह चक्र का जागृत करने और शरीर, बुद्धि व मन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। शिखा का हल्का दबाव होने से रक्त प्रवाह भी तेज रहता है और मस्तिष्क को इसका लाभ मिलता है।

कहते हैं कि शिखा रखने से मनुष्य लौकिक तथा पारलौकिक समस्त कार्यों में सफलता प्राप्त करता है| शिखा रखने से मनुष्य प्राणायाम, अष्टांगयोग आदि यौगिक क्रियाओं को ठीक-ठीक कर सकता है। शिखारखने से सभी देवता मनुष्य की रक्षा करते हैं। शिखा रखने से मनुष्य की नेत्रज्योति सुरक्षित रहती है। शिखा रखने से मनुष्य स्वस्थ, बलिष्ठ, तेजस्वी और दीर्घायु होता है।

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छत्तीसगढ़ के राजिम में मिला छठी शताब्दी का शिवमंदिर

छत्तीसगढ़ के राजिम में पुरातत्व विभाग की ओर से राजीव लोचन मंदिर के पास की जा रही खुदाई में छठी शताब्दी का एक शिव मंदिर मिला है। खुदाई में और भी कई पुरातात्विक अवशेष सामने आ रहे हैं। खुदाई स्थल से प्राचीन इमारतों के अवशेष मिलने का दावा करने वाले अधिकारी अब उसे छठी शताब्दी का पांडुकाल के दौरान निर्मित शिव मंदिर बता रहे हैं।

पुरातत्व अवशेषों को देखने के लिए वहां बड़ी संख्या में लोग पहुंच रहे हैं। पिछले 18 दिनों से चल रही खुदाई में करीब 10 फुट गहराई तक खुदाई की जा चुकी है। पुरातत्व विभाग को 30 सितंबर तक खुदाई की अनुमति मिली है। 25 सितंबर को नई दिल्ली में पुरातत्व विभाग के उच्चाधिकारियों की बैठक होने वाली है। उम्मीद है कि इसमें खुदाई की तारीख आगे बढ़ाने पर चर्चा होगी।

बताया जाता है कि राजीव लोचन मंदिर के सामने सीताबाड़ी में 500 वर्ग फुट जगह में चार सितंबर से पुरातत्व विभाग खुदाई कर रहा है। यह काम पुरातत्व अधिकारी अरुण शर्मा के मार्गदर्शन में चल रहा है।

खुदाई के दौरान प्राचीन खंभे, सीप, बड़ा शंख, शिवलिंग, जलहरी, बिल्लस, तकली, दवाई कूटने की कुट्टी, तांबे की बाली, मिट्टी के बर्तन, नाद आदि के टुकड़े बरामद हुए हैं। 10 फीट गहराई में मंदिर का गर्भगृह मिला, जिसकी लंबाई 3.25 मीटर व चौड़ाई 2.20 मीटर है। अभी खुदाई का काम जारी है।

पुरातत्वविद् उम्मीद कर रहे हैं कि आगे की खुदाई में शिवलिंग जलहरी आदि मिल सकती है। जहां खुदाई हुई है उसके बगल में पत्थर की जोड़ाई वाली दीवार दिखाई दे रही है, जो संभवत: मंडप हो सकता है। इस मंडप की लंबाई 4.75 मीटर और चौड़ाई 3.29 मीटर है।

अरुण शर्मा ने बताया कि मंडप में एक-एक मीटर में दीवारें हैं, जिसे मजबूती के लिए बनाया गया है। ये दीवारें नदी की मुख्य धारा के समानांतर बनाई गई हैं, जिससे यह बाढ़ में भी टूटने नहीं पाए। यह पश्चिममुखी शिवमंदिर रहा होगा। पूरी दीवार को पत्थर से जोड़ा गया है। पत्थर को चिपकाने के लिए बेल का गुदा व बबूल के गोंद का गारा बनाकर पत्थरों की जोड़ाई की गई है।

मंदिर के पास ही शंख से चूड़ियां बनाने का कारखाना होने की संभावना जताई जा रही है। खुदाई के दौरान अलंकृत चूड़ियां मिल रही हैं। शर्मा का कहना है कि खुदाई की तारीख सरकार बढ़ाए और निधि आवंटित कर दे तो खुदाई का काम आगे भी जारी रखा जा सकेगा, जिससे और भी अचरज की वस्तुएं प्राप्त हो सकती हैं।

खुदाई से प्राप्त अवशेषों को सुरक्षित रखने तथा लोगों को ऐतिहासिक वस्तुओं से परिचित कराने के लिए यहां संग्रहालय के लिए भवन की मांग की जा रही है। इस बीच, सांसद चंदूलाल साहू ने खुदाई स्थल का मुआयना किया। बहरहाल, विशेषज्ञों ने इलाके में और भी जगहों पर पुरातात्विक अवशेष होने की संभावना जताई है। 

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प्रेम और सद्भाव लाने में मदद करेगी कवाल की रामलीला

उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई हिंसा के बाद चारों तरफ बने अविश्वास के माहौल के बीच कवाल गांव में दोनों समुदाय के लोगों ने परंपरागत रामलीला का आयोजन करने का फैसला किया है। इसका मकसद समाज को यह संदेश देना है कि नफरत की आग में झुलसने के बाद भी उनका आपसी विश्वास पहले की तरह अटूट है।

कवाल गांव की रामलीला पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मशहूर है। करीब 66 साल से यहां दोनों समुदाय के लोग मिलकर रामलीला का आयोजन करते आ रहे हैं। हिंसा भड़कने के बाद इलाके में बने माहौल के बीच सवाल उठ रहे थे कि इस वर्ष रामलीला का आयोजन हो सकेगा या नहीं और यदि होगा भी तो इसमें पहले की तरह मुस्लिम समुदाय के लोग शिरकत करेंगे या नहीं।

लगभग 12 हजार की मिश्रित आबादी वाले कवाल गांव के प्रधान एवं रामलीला आयोजन समिति के सदस्य महेंद्र सिंह सैनी कहते हैं, "माहौल थोड़ा सामान्य होने के बाद जब मैंने मुस्लिम भाइयों से रामलीला के आयोजन और उनकी सहभागिता को लेकर बातचीत की तो उन्होंने नाराजगी जताते हुए कहा कि आपके मन में सहभागिता को लेकर संशय कैसे पैदा हुआ। यह बात सुनकर मेरी आंखों में आंसू भर आए।"

कवाल वही गांव है, जो हिंसा का वजह बना। इसी गांव में छेड़खानी की घटना को लेकर हुए विवाद में तीन हत्याएं होने के मामले के तूल पकड़ने के बाद जिले भर में हिंसा भड़की और लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। हिंसा में 47 लोगों की जानें चली गईं, हजारों लोग बेघर हो गए।

सैनी ने कहा, "हम लोग आज भी उस काले दिन को सोच कर सहम उठते हैं, जब हमारे गांव से उठी चिंगारी ने पूरे जिले और प्रदेश को झुलसा दिया। लेकिन हम सभी मानते हैं कि सियासतदानों ने अपने मुनाफे के लिए विवाद को तूल देकर नफरत की आग फैलाई और दो भाइयों को आपस में लड़ाया। इस तरह की साजिशें हमारे आपसी प्रेम और सद्भाव को कम नहीं कर पाएंगी।"

सैनी ने कहा, "हमारी रामलीला दोनों वर्गो के सहयोग से होती है। यह हमारे आपसी भाईचारे का जीता-जागता प्रतीक है। गुजरे वर्षो की तरह इस वर्ष भी दोनों समुदाय के लोग मिलकर रामलीला का आयोजन करेंगे। यह हिंसा हमारे बीच के विश्वास की दीवार नहीं तोड़ पाएगी।" कवाल की रामलीला में विभिन्न पात्रों की अदायगी हिंदू समुदाय के लोग करते हैं, और साजो-सामान, प्रकाश एवं ध्वनि व्यवस्था और वाद्य यंत्रों को बजाने का जिम्मा मुस्लिम समुदाय के लोग निभाते आए हैं।

रामलीला के दौरान ढोलक बजाने वाले निजामुद्दीन ने कहा, "हम मिलजुल कर रामलीला का आयोजन करके लोगों का मनोरंजन करने के साथ कौमी एकता और सांप्रदायिक सौहार्द का संदेश भी देते हैं।" छह अक्टूबर से शुरू होने वाली रामलीला के लिए सभी पात्रों ने रिहर्सल शुरू कर दी है। लक्ष्मण का करदार निभाने वाले जगपाल ने कहा, "हम मानते हैं कि हिंसा के बाद जिले में लोगों के मन में जो तनाव और अविश्वास पैदा हुआ है, हमारी रामलीला उसे समाप्त करके प्रेम और सद्भाव लाने में मदद करेगी।" 

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भारत का स्विट्ज़रलैंड है औली

अगर आप अपनी ज़िन्दगी में रोमांच पसंद करते हैं, तो अपने ही देश में एक ऐसी जगह है, जहां आपको स्विट्ज़रलैंड जैसा खूबसूरत और रूमानी माहौल मिल सकता है। उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित औली पर्यटक स्थल, जो किसी भी मायने में स्विट्ज़रलैंड से कम नहीं है। प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर औली भारत का एक प्रसिद्ध स्किन रिजोर्ट है। इसके चारों ओर धुंध के बादल, मीलों दूर तक जमी बर्फ की सफेद चादर, बड़े-बड़े पहाड़ देखकर आपको लगेगा जैसे आप स्विट्ज़रलैंड में आ गए हैं। जहां तक आपकी नज़र जाएगी बर्फीले पहाड़ों का यह खूबसूरत दृश्य और खाइयों की गहराई आपको रोमांच से भर देगी। 

5-7 किमी. में फैला यह छोटा-सा स्किन रिसोर्ट जोशीमठ से 16 किमी दूर स्थित है। जोशीमठ से औली तक जाने के दो सुलभ रस्ते हैं , एक तो सड़क का ओर दूसरा रोपवे (केबल) का, चार किलोमीटर लम्बे रोपवे से जाने पर इस जन्नत का नज़ारा ओर भी खूबसूरत लगता है। इस तीन किलोमीटर लंबा रोमांचकारी ढलान, जिसकी ऊंचाई 2519 मीटर से लेकर 3049 मीटर है | गढ़वाल मंडल विकास निगम द्वारा इसका रखरखाव किया जाता है। स्कीइंग के लिए मशहूर इस रिजोर्ट में स्कीइंग प्रशिक्षण भी दिया जाता है।

फिशिंग, स्कीइंग के लिए यह जगह एकदम परफेक्ट मानी जाती है। वैसे भी अगर चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ हो तो स्कीइंग किये बिना भला किसका मन मानेगा। दिसम्बर से मार्च तक यहां का मौसम सुहावना रहता है। जब यहाँ बर्फ गिरती है, तो यहाँ के वातावरण को और भी सुन्दर बना देती है । स्कीइंग के लिए यह समय बिलकुल परफेक्ट होता है। इसके आलावा यहां रॉक क्लाइम्बिंग, फॉरस्ट कैम्पिंग और हौर्स राइडिंग आदि भी की जाती है। यहां छुट्टियाँ मनाने के लिए टूरिस्टों की अच्छी-खासी भीड़ रोमांच का मज़ा लेने आती है।

भ्रमण स्थल :- औली में वैसे तो देखने लायल बहुत सी जगह हैं मगर दयारा बुग्याल, मुंडाली और मुनस्यारी कुछ खास स्थल है जो औली को और भी खूबसूरत बना देते है | 

1. दयारा बुग्याल :- यह जगह 3048 ऊंचाई पर स्थित एक चरागाह है, जहां की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है। यहां स्कीइंग की बेहतर सुविधा उपलब्ध है। यहां से हिमालय का दृश्य भी दिखाई देता है| यह दृश्य इतना मार्मिक दिखाई देता है कि आप एकटक इस नजारे को देखते रह जाएंगे। यहां भाटवारी और स्थानीय घरों में ठहरने की व्यवस्था भी हो जाती है।

2. मुंडाली:- यह देहरादून से 129 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हिमालय की बर्फ से ढंकी चोटियों और गहरी खाइयों का बेहद रोमांचक नजारा यहां से आसानी से देखा जा सकता है। स्कीइंग करने के लिए यहां पर अच्छा स्लोप है।

3. मुनस्यारी:- यह स्थल उत्तराखंड और नेपाल की सीमा से लगा हुआ है ,जो की 2135 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह स्थल मिलम, नामिक तथा रालिम ग्लेशियर के लिए आधार कैंप है। गढ़वाल और कुमांयु में औली तो मुख्य स्कीइंग स्थल है | इसके साथ ही आप पाएंगे की यहां और भी बहुत से विंटर स्पोर्ट प्लेसेज हैं। जैसे गढ़वाल में कुश कल्याण तथा उत्तरकाशी जिले में केदार कांठा,टिहरी गढ़वाल जिले में पनवाली और मत्या, चमोली में बेड़नी बुग्याल, कुमायूं के पिथौरागढ़ जिले में चिपलाकोट घाटी आदि। 

तो फिर अब इंतज़ार किस बात का है, उठिए और अपनी पैकिंग कर तैयार हो जाइये भारत के स्विट्जरलैंड की आबो-हवा में खो जाने के लिए। पैकिंग करते वक़्त औली के मौसम का खास ख्याल रखना बिल्कुल भी मत भूलियेगा और सर्दी के कपड़े अवश्य रख लीजियेगा ताकि आपके आनंद में कोई कमी न आये।

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33 की हुईं करीना, आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर...

बॉलीवुड अदाकारा बेबो यानी करीना कपूर शनिवार को 33 साल की हो गईं। खूबसूरत करीना ने 'जब वी मेट' और 'ओमकारा' जैसी फिल्मों के जरिए खुद को साबित किया है। आइए नजर डालते हैं करीना की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों पर.. 

'रिफ्यूजी' (200) : इस फिल्म में करीना की नैसर्गिक सुंदरता नजर आई है। निर्देशक जे.पी.दत्ता ने अपने दोस्त रणधीर से किया वादा पूरा किया कि वह उनकी बेटी की शुरुआत ऐसे करेंगे कि लोग हमेशा याद रखेंगे। पाकिस्तान सीमा पार करने वाली लड़की के किरदार में करीना ने हमें नूतन, मधुबाला और नर्गिस जैसी अदाकाराओं की याद दिला दी थी।

'अशोका' (2001) : संतोष सिवान निर्देशित इस ऐतिहासिक फिल्म में करीना योद्धा राजकुमारी कौरवकी के रूप में नजर आईं। उन्होंने हर दृश्य में जोश भर दिया। 

'चमेली' (2004) : मनीष मल्होत्रा के परिधानों में बारिश में नाचती करीना इस फिल्म में काफी खूबसूरत लगी थीं। फिल्म में चमेली का किरदार निभाने वाली करीना ने काफी अच्छा अभिनय किया था।

'युवा' (2004) : मणि रत्नम की युवा में करीना ने ऐसी लड़की किरदार किया है जो सनकी, भावुक और अपने भविष्य को लेकर अस्थिर है। लेकिन वह विरोध प्रदर्शनों में दिलचस्पी रखती है। जया बच्चन को इसमे करीना बेहद अच्छी लगी थीं।

'देव' (2004) : गोविंद निहलानी की इस फिल्म में करीना का किरदार 2002 के गुजरात दंगों में बेकरी में 14 लोगों की मौत के खिलाफ प्रमाण देने वाली जहीरा शेख से प्रेरित था। करीना इसमें बिना मेकअप के नजर आई हैं।

'फिदा' (2004) : करीना ने अभी तक करियर में इसी फिल्म में नकारात्मक भूमिका निभाई है। उन्होंने ईष्र्यालु पति की दुखी और असुरक्षित पत्नी की भूमिका में जबरदस्त अभिनय किया।

'जब वी मेट' (2007) : चंचल और बातूनी लड़की के तौर पर करीना को सभी ने पसंद किया। एक भाग में करीना चंचल और बातूनी हैं तो दूसरे भाग में गंभीर और शांत नजर आती हैं। इस फिल्म में भी वह काफी खूबसूरत नजर आई हैं। 

'हीरोइन' (2012) : मधुर भंडारकर की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर भले ही न चली हो लेकिन एक अभिनेत्री के किरदार को करीना ने बखूबी निभाया है। फिल्म एक हीरोइन की जिंदगी के उतार-चढ़ाव की कहानी है।

'तलाश' (2012) : इसमें करीना ने भूत की भूमिका निभाई है। फिल्म में करीना के अभिनय की काफी सराहना की गई थी।

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उप्र में ईमानदार अफसर झेल रहे दबाव

उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) के कार्यकर्ताओं और मंत्रियों की कार्यशैली ईमानदार अधिकारियों के लिए परेशानी का सबब बन रही है। ईमानदारी एवं निष्ठा से काम करने वाले अधिकारी राजनीतिक दबाव की वजह से परेशान हैं। अनुचित दबाव से बचने के लिए अधिकारी राज्य को छोड़कर अन्यत्र प्रतिनियुक्ति चाहते हैं। 

सूबे के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (कानून व्यवस्था) अरुण कुमार द्वारा केंद्रीय प्रतिनिुक्त पर भेजे जाने की मांग करने के बाद एक बार फिर यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या उप्र में ईमानदार अधिकारियों के काम करने लायक माहौल रह गया है? ताजा मामले के मुताबिक, सूबे के तेज तर्रार आईपीएस अधिकारी अरुण कुमार ने पुलिस महानिदेशक देवराज नागर और शासन को पत्र लिखकर प्रतिनियुक्ति पर जाने के लिए कार्यमुक्त करने की मांग की है। 

इस बीच शासन की तरफ से आधिकारिक तौर पर यह बताया गया है कि वह छुट्टी पर चले गए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि मुजफ्फनगर हिंसा के बाद ऐसे हालात बने हैं जिसके बाद अरुण कुमार को यह कदम उठाना पड़ा है। सूत्र बताते हैं कि हिंसा के दौरान उनकी एक नहीं चलने दी गई, जिसके बाद उन्होंने नाराज होकर यह कदम उठाया है। सूबे के अधिकारियों की ओर से हालांकि हवाला यह दिया जा रहा है कि अरुण कुमार ने दो महीने पहले ही प्रतिनियुक्ति को लेकर पत्र लिखा था, लेकिन दो सितंबर को अरुण कुमार की ओर से भेजे गए रिमाइंडर के बाद इस मामले ने अब तूल पकड़ लिया है।

अरुण कुमार के अलावा ताजा मामला गोंडा का है। यहां के सपा नेताओं ने जिलाधिकारी डा. रोशन जैकब के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया है। सपा के जिला अध्यक्ष ने जिलाधिकारी पर आरोप लगाया है कि वह तानाशाही रवैया अपना रही है। अब यह मामला अखिलेश के दरबार में पहुंच गया है। 

इस बीच जिलाधिकारी जैकब ने कहा कि उन पर लग रहे आरोप निराधार हैं और सौहार्द्र कायम करने के लिए वह प्रतिबद्ध हैं। इससे पूर्व नोएडा के सपा नेता और कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त नरेश भाटी के दबाव में ही सपा सरकार को महिला आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलंबित करना पड़ा था। भाटी का बयान भी तब विवाद का कारण बना था और सरकार की काफी किरकिरी हुई थी।

अरुण कुमार के अलावा अमृत अभिजात, पार्थसारथी सेन और नीरज गुप्ता जैसे वरिष्ठ अधिकारी भी लंबी छुट्टी पर चले गए। सूबे पूर्व महानिदेशक के.एल. गुप्ता ने कहा, "मैं जब सूबे का पुलिस महानिदेशक था तब ईमानदार अधिकारियों को काम करने की पूरी छूट थी और तब किसी नेता का हस्तक्षेप नहीं होता था, लेकिन अब क्या स्थितियां हैं यह तो अंदर काम कर रहे अधिकारी ही बता सकते हैं।"

अरुण कुमार की प्रतिनियुक्ति पर जाने की खबरों के बारे में पूछे जाने पर गुप्ता ने कहा, "यह कोई नई बात नहीं है। अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर हमेशा से ही केंद्र में जाते रहे हैं, लेकिन वह किन परिस्थतियों में जा रहे हैं यह तो वही बता सकते हैं।" सूबे के कद्दावर मंत्री आजम खान ने भी कुछ दिनों पहले प्रमुख सचिव (स्वास्थ्य) प्रबीर कुमार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर प्रबीर कुमार पर सांप्रदायिक मानसिकता वाला होने के आरोप लगाए थे।

सूबे में अधिकारियों के काम करने लायक महौल पर विपक्षी भी लगातार सवाल उठा रहे हैं। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक कहते हैं कि उप्र में अधिकारियों के काम करने लायक माहौल ही नहीं बन पा रहा है। सरकार सारे अधिकारियों पर साजिश रचने का आरोप लगा रही है। ऐसे में सूबे का काम कैसे चलेगा, यह बड़ा सवाल है।

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