दुर्गा पूजा: प्रतिमाओं को मिल रहा आधुनिक रूप

नवरात्र आरंभ हो गया है और दुर्गा पंडालों की साज-सज्जा अपने अंतिम दौर में है। इसके साथ ही यहां की कुम्हारटोली के मूर्तिकार दुर्गा की प्रतिमाओं को आधुनिक रूप दे रहे हैं। समय बहुत कम है, इसलिए प्रतिमाओं पर उनकी कुशल और सधी हुई उंगलियां तेजी से चलने लगी हैं। 

उत्तरी कोलकाता के कुम्हारटोली इलाके के मूर्तिकार मिट्टी और पुआल से रची जाने वाली इस प्राचीन कला के साथ कई प्रयोग भी कर रहे हैं, और बदलते युग की मांग को देखते हुए दुर्गा के साथ-साथ गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्तियों को आधुनिक स्वरूप में ढाल रहे हैं।

सजीव सी लगने वाली इन मूर्तियों को मूर्तिकार रंगों, साड़ियों, गहनों से सजाने में लगे हुए हैं, ताकि उन्हें पश्चिम बंगाल के विभिन्न हिस्सों और यहां तक की अन्य राज्यों में भी भेजा जा सके। विदेशों को जाने वाली मूर्तियां सप्ताह भर पहले ही भेजी जा चुकी हैं।

यहां की घुमावदार पेचीदा गलियों में बांस और कंक्रीट से बनी अपनी कार्यशालाओं में सदियों से मूर्ति निर्माण का कार्य करते चले आ रहे पाल समुदाय के मूर्तिकारों ने मूर्ति निर्माण में इस्तेमाल होने वाले परंपरागत रंगों, मूर्तियों की सज्जा में इस्तेमाल होने वाली अन्य सामग्रियों एवं मूर्ति की संरचना में काफी परिवर्तन किया है।

मूर्तिकार सोंटू डे ने बताया, "इस वर्ष सिरेमिक मूर्तियों की भारी मांग है। ये मूर्तियां चमकीली होती हैं जो रोशनी में चमक उठती हैं और मूर्ति को बहुत आकर्षक बनाती हैं। यह एक तरह का रंग है जिसे हम मिट्टी के ऊपर लगाते हैं।" मूर्ति निर्माण में अपने आधुनिक प्रयोगों के कारण गुमनामी के अंधेरों से निकलकर मूर्तिकार के रूप में प्रसिद्धि पाने वाले इन मूर्तिकारों ने इस वर्ष बॉलीवुड से प्रेरित मूर्तियां भी बनाई हैं।

बॉलीवुड के नए नायकों की भांति मूर्तियों के ग्राहक इन मूर्तिकारों से महिषासुर के तराशे हुए बदन और दुर्गा की आठ भुजाओं वाली मूर्ति बनाने की मांग की है। वहीं दुर्गा के परंपरागत घुंघराले बालों के बजाय अब रेशम जैसे नर्म कृत्रिम केशों ने इन मूर्तियों को एकदम नया स्वरूप प्रदान किया है।

डे ने बताया, "कुछ ग्राहकों ने कंधे तक बालों वाली मूर्तियों की भी मांग की है, जबकि कुछ ने भूरे बालों वाली दुर्गा मूर्तियों की मांग की है।" एक अन्य मूर्तिकार ने बताया, "ज्यादातर मूर्तियां तो परंपरागत स्वरूप वाली ही हैं, लेकिन कुछ ने टीवी के प्रभाव में एक छरहरी काया वाली मूर्तियों की मांग भी की है।"

आधुनिक मूर्तियों में इन तमाम बदलावों के बावजूद आज भी हानिकारक सीसायुक्त रंगों के उपयोग में कोई बदलाव नहीं आया है। कुम्हारटोली मूर्तिशिल्प संस्कृति समिति के प्रवक्ता बाबू पाल ने कहा, "सरकार ही जब सीसा रहित रंगों की कीमतें कम करने में असफल रही है, तो हम इसे कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? हम ज्यादातर सीसायुक्त रंगों का ही इस्तेमाल करते हैं।"

मूर्तिशिल्पियों एवं विसर्जन के बाद जलीय जीवजगत के लिए बेहद हानिकारक इन रंगों का इस्तेमाल लंबे समय से पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।

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आज करें माँ शैलपुत्री की पूजा

मां दुर्गा शक्ति की उपासना का पर्व नवरात्र के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है| इस वर्ष नवरात्रि का आरंभ 5 अक्टूबर को होगा| मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं| शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं| इसी वजह से मां के इस स्वरूप को शैलपुत्री कहा जाता है। 

माँ भगवती शैलपुत्री का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है| इस स्वरूप का पूजन नवरात्री के प्रथम दिन किया जाता है| सभी देवता, राक्षस, मनुष्य आदि इनकी कृपा-दृष्टि के लिए लालायित रहते हैं| किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें | मूर्ति स्थापित कर, कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनाएं| माँ शैलपुत्री के पूजन से योग साधना आरंभ होती है| जिससे नाना प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं |

शैलपुत्री पूजा विधि-

नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है| पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है| दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं| माँ शैलपुत्री की पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों का कलश पर विराजने के लिए प्रार्थना कर आवाहन किया जाता है | कलश में सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है|

कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती हैI “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते” मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं|

कलश स्थापना के बाद देवी दु्र्गा जिन्होंने दुर्गम नामक प्रलयंकारी असुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराया उस देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गे' हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें| माँ देवी दुर्गा ने महिषासुर को वरदान दिया था कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों हुई है इस हेतु तुम्हें मेरा सानिध्य प्राप्त हुआ है अत: मेरी पूजा के साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी इसलिए देवी की प्रतिमा में महिषासुर और उनकी सवारी शेर भी साथ होता है|

माँ दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है| प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है|इस प्रकार दुर्गा पूजा की शुरूआत हो जाती है प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती के समय “जग जननी जय जय” और “जय अम्बे गौरी” के गीत भक्तजनो को गाना चाहिए|

शैलपुत्री मंत्र-

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृतशेखराम्।

वृषारूढ़ा शूलधरां यशस्विनीम्॥

माँ शैलपुत्री का ध्यान :-


वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।

वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥

पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥

पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।

कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

माँ शैलपुत्री का स्तोत्र पाठ-

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।

धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।

सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।

मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

माँ शैलपुत्री का कवच-

ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।

हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।

हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥

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दशहरा : बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक

अश्विन शुक्ल पड़िवा (कलश स्थापन) से शुरू होकर दशमी तिथि तक देशभर में मनाया जाने वाला त्योहार देवी दुर्गा शक्ति पूजन का पर्व विजयदशमी बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है। पूरे देश में मनाए जाने के कारण यह देश का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार में 10 दिनों तकदेवी पूजन और रामलीला साथ-साथ चलती है। माना जाता है कि अयोध्या के राजा रामचंद्र ने अपनी धर्मपत्नी का हरण करने वाले रावण को इसी दिन धराशायी किया था। लंका पर आक्रमण से लेकर रावण वध तक दस दिनों तक युद्ध चला था। शक्ति की देवी दुर्गा के उपासक राम ने लगातार देवी की उपासना की और अंत में युद्ध में विजय प्राप्त की थी। उसी युद्ध की याद में यह त्योहार आज भी दस दिनों तक मनाया जाता है और अंत में रावण का पुतला दहन करने का रिवाज है।

इस त्योहार की अवधि में उत्तर भारत में विभिन्न जगहों पर रामलीलाओं का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता है। रामलीला के आखिरी दिन रावण वध का रिवाज है। किशोर वय के लड़कों को राम और लक्ष्मण के वेश में खुले मैदान में खड़े किए गए रावण मेघनाद के पुतले के सामने लाया जाता है और अग्नि बाण से उसके पुतले को जलाया जाता है।

दशहरा उत्सव की उत्पत्ति के विषय में कई कल्पनाएं की गई हैं। भारत के कतिपय भागों में नए अन्नों की हवि (आहुति) देने, द्वार पर धान की हरी एवं अनपकी बालियों को टांगने तथा गेहूं आदि को कानों मस्तक या पगड़ी पर रखने के कृत्य होते हैं। अत: कुछ लोगों का मत है कि यह कृषि का उत्सव है। 

कुछ लोगों के मत से यह रणयात्रा का द्योतक है, क्योंकि दशहरा के समय वर्षा समाप्त हो जाती है, नदियों की बाढ़ थम जाती है, धान आदि कोष्ठागार में रखे जाने वाले हो जाते हैं। संभवत: यह उत्सव इसी दूसरे मत से संबंधित है। भारत के अतिरिक्त अन्य देशों में भी राजाओं के युद्ध प्रयाण के लिए यही ऋतु निश्चित थी। 

पौराणिक मान्यताएं : इस अवसर पर कहीं-कहीं भैंसे या बकरे की बलि दी जाती है। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व देशी राज्यों जैसे बड़ोदा, मैसूर आदि रियासतों में विजयादशमी के अवसर पर दरबार लगते थे और हौदों से युक्त हाथी दौड़ते थे तथा उछ्लकूद करते हुए घोड़ों की सवारियां राजधानी की सड़कों पर निकलती थीं और जुलूस निकाला जाता था। प्राचीन एवं मध्य काल में घोड़ों, हाथियों, सैनिकों एवं स्वयं का नीराजन उत्सव राजा लोग करते थे।

दशहरा का संबंध देवी के विविध रूपों से भी है। नौ दिनों तक देवी के नौ रूपों की पूजा का विधान है। इससे इस त्योहार का संबंध शक्ति से जुड़ता है। अंतिम दिन महिषासुर मर्दनी की पूजा की जाती है। दुर्गा को शक्ति और युद्ध की देवी माना गया है इसलिए इस दिन शस्त्र की पूजा का भी विधान है। 

दस दिनों तक देवी के उपासक विभिन्न उपक्रमों से देवी की उपासना करते हैं। कुछ भक्त अपने शरीर पर कलश स्थापना कर दस दिनों तक कठिन तप की तरह उपासना करते हैं। दसवें दिन देवी के विदा होने का दिन होता है। पश्चिम बंगाल में दसवें दिन स्त्रियां 'सिंदूर खेला' कर देवी को विदा करती हैं। किसी बड़े तालाब या नदी में देवी की प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है।
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शक्ति की उपासना का पर्व है नवरात्र

हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष शारदीय नवरात्रि 5 अक्टूबर आश्चिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से प्रारम्भ होगी| इस दिन स्वाती नक्षत्र, विष्कुम्भ योग होगा| प्रतिपदा तिथि के दिन शारदिय नवरात्रों का पहला नवरात्र होगा| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार नवरात्रि पूरे नौ दिन के होंगे| शनिवार को नवरात्र के मंगल कलश की स्थापना होगी। 13 अक्टूबर मंगलवार को नवरात्र पूर्ण हो जाएंगे।

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

नव दुर्गा-

श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण -

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है।

नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है।

आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।


घट स्थापना मुहूर्त-


नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ दैनिक पूजा भी बहुत सरल विधि से की जा सकती है| घट स्थापना का समय 5 अक्टूबर दिन शनिवार को आश्विन शुक्ल की प्रतिपदा के दिन प्रातः काल 08:05 मिनट से सुबह 9 बजे तक रहेगा| उसके बाद दोपहर 12:03 मिनट से लेकर 12 बजकर 50 मिनट तक के मध्य में


घट स्थापना विधि-


आचार्य विजय कुमार ने कहा है कि नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है। आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें।

इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े। शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक 'अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम' के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है।

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चारा से बेचारा तक लालू का सफ़र

चारा घोटाले में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और राजद अध्यक्ष लालू यादव को सजा सुनाई जा चुकी है| लालू को 5 साल जेल की सजा के साथ 25 लाख का जुर्माना भी लगाया गया है| 

ऐसे में एक बार फिर चारा घोटाला चर्चा में है,हम में से कई ऐसे हैं जिनको इस घोटाले के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता ऐसे में हम आपको साल दर साल के हिसाब से बता रहे हैं इस चर्चित घोटाले के बारे में .....

27 जनवरी 1996: पशुओं के चारा घोटाले के रूप में सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये की लूट सामने आयी। चाईबासा ट्रेजरी से इसके लिये गलत तरीके से 37.70 करोड़ रुपए निकाले गये थे।

11 मार्च, 1996: पटना उच्च न्यायालय ने चारा घोटाले की जाँच के लिये सीबीआई को निर्देश दिये।

19 मार्च, 1996: उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश की पुष्टि करते हुए हाईकोर्ट की बैंच को निगरानी करने को कहा।

27 जुलाई, 1997: सीबीआई ने मामले में राजद सुप्रीमो पर फंदा कसा।

30 जुलाई 1997: लालू प्रसाद ने सीबीआई अदालत के समक्ष समर्पण किया।

19 अगस्त 1998: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की आय से अधिक की सम्पत्ति का मामला दर्ज कराया गया।

4 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद यादव के खिलाफ आरोप पत्र दर्ज हुआ और राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया।

5 अप्रैल 2000: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी का समर्पण, राबड़ी देवी को मिली जमानत।

9 जून, 2000: अदालत में लालू प्रसाद के खिलाफ आरोप तय किये।

अक्टूबर 2001: सुप्रीम कोर्ट ने झारखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद मामले को नये राज्य में ट्रांसफर कर दिया। इसके बाद लालू ने झारखण्ड में आत्मसमर्पण किया।

18 दिसम्बर 2006: लालू प्रसाद और राबड़ी देवी को आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में क्लीन चिट दी।

2000 से 2012 तक: मामले में करीब 350 लोगों की गवाही हुई। इस दौरान मामले के कई गवाहों की भी मौत हो गयी।

17 मई 2012: सीबीआई की विशेष अदालत में लालू यादव पर इस मामले में कुछ नये आरोप तय किये। इसमें दिसम्बर 1995 और जनवरी 1996 के बीच दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी पूर्ण निकासी भी शामिल है।

17 सितम्बर 2013: रांची की विशेष अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा।

30 सितम्बर 2013: राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव दोषी करार।

3 अक्तूबर 2013 : लालू प्रसाद यादव को 5 साल जेल की सजा के साथ 25 लाख का जुर्माना|

बात जुलाई, 1997 की है जब लालू ने जनता दल से अलग अपनी राष्ट्रीय जनता दल खड़ी कर दी| गिरफ्तारी तय हो जाने के बाद लालू ने मुख्यमन्त्री पद से इस्तीफा दिया और पत्नी राबड़ी को मुख्यमन्त्री बनाने का निर्णय लिया। जब राबड़ी के विश्वास मत हासिल करने में समस्या आयी तो कांग्रेस और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने उनको अपना सहारा दिया।

वर्ष 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार बनी। वर्ष 2000 में विधानसभा चुनाव हुआ तो राजद अल्पमत में आ गया। सात दिनों के लिये नीतीश कुमार की सरकार बनी। एक बार फिर राबड़ी बिहार की मुख्यमन्त्री बनीं। इस बार कांग्रेस के 22 विधायक सरकार में मन्त्री बने। वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव में लालू किंग मेकर की भूमिका में आये और रेलमन्त्री बने। अगले ही वर्ष 2005 में बिहार से राजद सरकार की विदाई हो गयी और 2009 के लोकसभा चुनाव में राजद के सिर्फ चार सांसद जीत सके। इसका अंजाम यह हुआ कि लालू को केन्द्र सरकार में जगह नहीं मिली।

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71 की हुई आशा पारेख

बीते जमाने की मशहूर अदाकारा आशा पारेख का आज 71 वां जन्मदिन है। आशा पारेख तमाम सुपर हिट फिल्मे दी। साठ और सत्तर के दिनों में स्टाईल आईकॉन मानी जाने वाली आशा परेख को करियर के शुरुआत में हर निर्माता-निर्देशक ने उन्हें ना कहते रहे। आशा पारेख ने जब फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा ही था तब निर्माता-निर्देशक विजय भट्ट ने उन्हें अपनी फिल्म गूंज उठी शहनाई में काम देने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उनमें स्टार अपील नहीं है। बाद में उन्होंने आशा की जगह अपनी फिल्म में नई अभिनेत्री अमीता को काम करने का अवसर दिया। 

मुंबई में एक मध्यम वर्गीय गुजराती परिवार में 02 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख ने अपने सिने करियर की शुरूआत बाल कलाकार के रुप में 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘आसमान’ से की। इस बीच निर्माता-निर्देशक विमल राय एक कार्यक्रम के दौरान आश पारेख के नृत्य को देखकर काफी प्रभावित हुए और उन्हें अपनी फिल्म ‘बाप बेटी’ में काम करने का प्रस्ताव दिया।हीरोइन के रूप में उनकी पहली फिल्म थी 'दिल देके देखो', जो सफल हुई थी। लगभग सत्तर फिल्मों में बतौर अभिनेत्री काम कर चुकीं आशा पारेख की सारी फिल्में बेहद पसंद की गई, जिनमें 'जब प्यार किसी से होता है', 'घराना', 'फिर वही दिल लाया हूं', 'मेरी सूरत तेरी आंखें', 'भरोसा', 'मेरे सनम', 'तीसरी मंजिल', 'लव इन टोक्यो', 'दो बदन', 'आये दिन बहार के', 'उपकार', 'शिकार', 'साजन', 'आया सावन झूम के', 'पगला कहीं का', 'कटी पतंग', 'आन मिलो सजना', 'मेरा गांव मेरा देश', 'कारवां', 'समाधि', 'जख्मी', 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' सुपरहिट फिल्मे शामिल हैं। 

वर्ष 1972 में 'कटी पतंग' के लिए इन्हें बेस्ट ऐक्ट्रेस का फिल्मफेयर अवार्ड और फिल्मों में योगदान के लिए फिल्मफेयर का ही लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड वर्ष 2002 में मिला। इनके योगदान के लिए आइफा ने भी 2006 में स्पेशल अवार्ड से सम्मानित किया। हिंदी फिल्मो के अलवा आशा पारेख ने गुजराती, पंजाबी और कन्नड़ फिल्मों में भी काम किया। खूबसूरत 'मिस नीता' के ग्लैमरस किरदार से मशहूर पारेख ने कई गंभीर फिल्मों में गंभीर चरित्र भी निभाए हैं। 

उनकी 10 लोकप्रिय और सफल फिल्मों में शामिल हैं :

'भरोसा' (1963) : ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित सरल कहानी में आशा पारेख ने अभिनेता गुरुदत्त के साथ काम किया है। फिल्म में दोनों कलाकारों के उम्दा अभिनय के अलावा 'वो दिल कहां से लाऊं' जैसे लोकप्रिय गीत भी शामिल थे।

'दो बदन' (1966) : राज खोसला की फिल्म में पारेख ने एक ऐसी युवती के चरित्र को गंभीरता और जीवंतता के साथ निभाया, जिसका प्रेमी हादसे में अंधा हो जाता है और वर्ग विभाजित समाज दोनों प्रेमियों को एक-दूसरे से अलग कर देता है।

'तीसरी मंजिल' (1966) : रहस्य रोमांच से भरपूर फिल्म में पारेख ने शम्मी कपूर के साथ काम किया था, जिसमें वह अपनी मृत बहन के कातिल की तलाश करती हैं। फिल्म में पारेख के जिंदादिल किरदार और अभिनय ने उन्हें एकदम से लोगों की नजरों के केंद्र में ला खड़ा किया।

'बहारों के सपने' (1967) : फिल्म में सुपरस्टार राजेश खन्ना की प्रेमिका की भूमिका में सीधी सादी गंभीर स्वभाव की युवती के किरदार ने दर्शकों को खासा चौंका दिया था, क्योंकि तब तक उनकी छवि चुलबुली और ग्लैमरस नायिका की बन चुकी थी।

'चिराग' (1969) : इस फिल्म में पारेख ने एक दृष्टिहीन महिला का किरदार निभाया था, जिसका अपने पति (सुनील दत्त) से अलगाव हो चुका है। फिल्म का गीत 'तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है' बेहद मशहूर और लोकप्रिय हुआ था।

'कटी पतंग' (1970) : फिल्म में एक विधवा स्त्री का किरदार निभाने से शर्मिला टैगोर के मना कर देने पर निर्देशक शक्ति सामंता ने इस भूमिका में आशा पारेख को लिया था। आशा ने भाग्य की मारी स्त्री के भावुकता भरे किरदार से लोगों का दिल तो जीता ही था, कई अवार्ड भी अपने नाम किए थे।

'नादान' (1971) : फिल्म में पारेख ने एक टॉम ब्वॉय युवती का किरदार निभाया था, जिसे फिल्म के नायक (नवीन निश्चल) के संपर्क में आने के बाद अपने महिला होने का एहसास होता है। 

'कारवां' (1971) : यह फिल्म पारेख के करियर की सफलतम फिल्म थी, जिसमें उन्होंने आखिरी बार नासिर हुसैन के साथ काम किया था।

'मैं तुलसी तेरे आंगन की' (1979) : राज खोसला की इस फिल्म की मुख्य नायिका नूतन थीं और पारेख की भूमिका फिल्म में सिर्फ 20 मिनट लंबी थी, जिसके बावजूद उन्होंने फिल्म में अपने अभिनय से गहरा प्रभाव छोड़ा था।

'बिन फेरे हम तेरे' (1979) : इस फिल्म में पारेख को एक ठेठ भारतीय स्त्री का किरदार निभाने का मौका मिला जो जीवन के कई अच्छे-बुरे दौर से गुजरी। एक तवायफ, एक विधवा और फिर अपनी संतान के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाली मां तक का बहुआयामी किरदार पारेख ने इस एक फिल्म में जीवंत कर दिखाया।

आशा पारेख के अभिनय और प्रतिभा की बात करते हुए इससे ज्यादा क्या बोला जा सकता है कि 'आज की मुलाकात बस इतनी' (भरोसा)।

निर्धनता की आग में झुलस कर अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने वाले शास्त्री जी के जन्मदिन पर शत-शत नमन

आज का दिन भारतवासियों के लिए काफी खास होता है क्योंकि हमारे राष्ट्रपिता के जन्मदिवस के साथ-साथ स्वतंत्र भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्म दिवस है। लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर सन्‌ 1904 ई.में वाराणसी जिले के एक गांव मुगलसराय में हुआ था। इनके पिता शारदा प्रसाद एक शिक्षक थे। मात्र डेढ़ वर्ष की आयु में इनके सर से पिता का साया उठ गया। माता श्रीमती रामदुलारी ने बड़ी कठिनाईयों के साथ इनका लालन-पालन किया। 

लाल बहादुर शास्त्री का जीवन एक साधारण व्यक्ति से असाधारण बनने की सीख देती है। निर्धनता की आग में झुलस कर भी उन्होंने अपने जीवन में अपने लक्ष्यों को प्राप्त किया। उन्होंने बड़ी निर्धन एवं कठिन परिस्थितियों में इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण की। उसके बाद में वाराणसी स्थित हरिश्चन्द्र स्कूल में प्रवेश लिया। सन् 1921 में वाराणसी आकर जब गांधी जी ने राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए नवयुवकों का आह्वान किया, तो उनका आह्वान सुनकर मात्र सत्रह वर्षीय शास्त्री ने भरी सभा में खड़े होकर अपने को राष्ट्रहित में समर्पित करने की घोषणा की।

काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलते ही शास्त्री ने अपने नाम के साथ जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा के लिए हटा दिया और अपने नाम के आगे शास्त्री लगा लिया। उन्होंने मरो नहीं, मारो का नारा दिया, जिसने एक क्रांति को पूरे देश में उग्र कर दिया। उनका दिया हुआ एक और नारा जय जवान-जय किसान आज भी लोगों की जुबान पर है। शिक्षा छोड़ राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े और पहली बार ढाई वर्ष के लिए जेल में बंद कर दिए गए।जेल से छूटने के बाद उन्होंने शिक्षा पूरी की । 

शिक्षा समाप्त कर शास्त्री जी लोक सेवक संघ के सदस्य बनकर उन्होंने अपना जीवन जन सेवा और राष्ट्र को समर्पित कर दिया। अपने कार्यों के फलस्वरूप बाद के इलाहाबाद नगर पालिका एवं इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के क्रमशः सात और चार वर्षों तक सदस्य बने रहे। बाद में उन्हें इलाहाबाद जिला कांग्रेस का महासचिव, तदुपरांत अध्यक्ष तक मनोनीत किया गया। प्रत्येक पद का निर्वाह इन्होंने बड़ी योग्यता और लगन के साथ निःस्वार्थ भाव से किया। वो सबके चहेते बन गए। 

भारत की स्वतंत्रता के बाद शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव बनाये गए। वो गोविंद बल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहांत हो जाने के बाद, शास्त्री जी ने 9 जून 1964 को प्रधान मंत्री बनाये गए। उस समय राजनीति में उथल-पुथल मची थी पाकिस्तान और चीन भारतीय सीमाओं पर तांडव कर रहे थे। 

देश भी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा था। शास्त्री जी सूझ बुझ के साथ समस्याओं का निपटारा करते रहे। 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में पाकिस्तान से समझौता करने के बाद दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गयी। लाल बहादुर शास्त्री आज भी हमारे बीच मौजूद हैं। देश के लिए किये गए उनके कार्य उनके बलिदान स्मरणीय है। इसलिए तो देश का हर व्यक्ति शास्त्री को उनकी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिए आज भी श्रद्धापूर्वक याद करता है।

गांधी से जुड़ा है पुलिसिया कार्रवाई से त्रस्त ठाकुर चौबीसी का इतिहास

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी देश की आजादी की अलख जगाने ठाकुर चौबीसी में आए थे। अब यही ठाकुर बिरादरी रविवार की खेड़ा महापंचायत के बाद हुई पुलिस कार्रवाई को लेकर अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रही है। ठाकुर विरादरी की मानें तो युवाओं को फर्जी मुकदमों में फंसाया जा रहा है, जिससे उनके भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। 

उत्तर प्रदेश में मेरठ जिले में स्थित सरधना विधानसभा क्षेत्र के 24 गांवों को संयुक्त रूप से ठाकुर चौबीसी कहा जाता है। इन गावों में 95 प्रतिशत आबादी ठाकुरों की है। सरधना विधानसभा की सीमा बागपत, मुजफ्फरनगर से भी लगती है। बीते रविवार आयोजित की गई महापंचात में मौजूद लोगों पर पुलिस ने जमकर लाठियां भांजी थी, जिसमें कई लोग घायल हुए थे। 

ठाकुर चौबीसी के लोगों का कहना है कि गांधी जी तो यहां आजादी की अलख जगाने आए थे, लेकिन पुलिस की इतनी बड़ी कार्रवाई के बाद कोई हाल चाल पूछने तक नहीं आया। ठाकुर चौबीसी के गांव खेड़ा के हरपाल चौधरी ने बताया, "विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव, ठाकुरों ने एक राय होकर जिसे चाहा, उसी राजनीतिक दल को वोट दिया। अब रविवार को खेड़ा महापंचायत के दौरान पुलिसिया कहर उन पर बरसा। सैकड़ों लोग घायल हुए। पुलिस ने फर्जी मुकदमे दर्ज कर उनकी गिरफ्तारी भी शुरू कर दी। चार हजार से अधिक लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए।"

रविवार की महापंचायत भाजपा विधायक संगीत सोम व सुरेश राणा पर रासुका व हिन्दुओं पर पुलिस प्रशासन द्वारा की जा रही एकपक्षीय कार्रवाई के विरोध में आयोजित की गई थी। मेरठ में भाजपा के जिलाध्यक्ष अजित चौधरी ने कहा, "महापंचायत के बाद अभी भी स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है। लोग गांवों में पुलिस को घुसने नहीं दे रहे हैं।"

चौधरी ने बताया कि लोगों का आरोप है कि पुलिस ने पाली गांव में 100 बीघा गन्ने की खड़ी फसल महज इसलिए जला दी कि उसे अंदेशा था कि इसमें काफी लोग छुपे हुए हैं। चौधरी कहते हैं, "अब गांधी जी का जमाना गया। यहां लोग लाठियों से ही बात करते हैं। जिस तरह से महापंचायत में एकत्र हुए निरीह लोगों पर लाठियां बरसाई गईं, उससे काफी सबक मिला है और इसका जवाब भी उचित समय पर दिया जाएगा।"

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जब बापू ने खुद एक लड़के के लिए बनाई रजाई

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया ओर बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, "तू रात को यहीं सोता है?" 

लड़के ने जवाब दिया, "हां बापू।" "रात को ओढ़ता क्या है?" बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आए। बा से दो पुरानी साड़ियां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोली बनाई, अखबार के कागज और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, "इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?"

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, "बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।"

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, "सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।"

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कई फिल्मकार गांधी पर फिल्म बनाने को उत्सुक

अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के जीवन दर्शन और सुविचारों की प्रासंगिकता को इसी बात से समझा जा सकता है कि आज, उनके जन्म के 144वें वर्ष में भी कई फिल्मकार उनके दर्शन और उपदेशों को अपनी फिल्मों में उतारना चाहते हैं, और कई फिल्मकार इस दिशा में लगे भी हुए हैं। 

आइए, ऐसी ही कुछ फिल्मों पर एक दृष्टि डालते हैं, जो राष्ट्रपिता के जीवन पर आधारित हैं, साथ-साथ हम ऐसी भी फिल्मों पर दृष्टिपात करेंगे जो गांधी के जीवन पर भले न हों, पर उनमें उनके विचारों को प्रमुखता से रखा गया है :

गांधी (1982) : रिचर्ड एटनबरो के निर्देशन में बनी यह फिल्म गांधी के जीवन पर बनी सबसे उत्कृष्ट फिल्मों में शुमार की जाती है। फिल्म में बेन किंग्स्ले ने गांधी के चरित्र को इतनी खूबसूरती से निभाया है कि उन्हें इस फिल्म में अभिनय के लिए आस्कर अवार्ड से नवाजा गया। फिल्म को सात आस्कर अवार्ड मिले।

द मेकिंग ऑफ द महात्मा (1996) : फातिमा मीर की पुस्तक 'द एप्रेंटिसशिप ऑफ ए महात्मा' का श्रेष्ठ भारतीय फिल्मकार श्याम बेनेगल ने फिल्मी रूपांतर कर इस फिल्म की रचना की। फिल्म में गांधी की भूमिका करने वाले रजित कपूर को उनके अभिनय के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।

लगे रहो मुन्नाभाई (2006) : निर्देशक राजकुमार हिरानी ने अपनी इस फिल्म में गांधी के विचारों को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बेहद सहज अंदाज में पेश किया, और 'गंधीगीरी' के रूप में उनके विचारों को लोकप्रिय बनाया।

गांधी माई फादर (2007) : देश के लिए समर्पित गांधी के अपने परिवार से खासकर अपने बड़े बेटे हरीलाल से संबंधों को इस फिल्म में निर्देशक फीरोज अब्बास खान ने बहुत बारीकी से बुना है। फिल्म को तीन वर्गो में राष्ट्रीय पुरस्कार मिले।

आइए, कुछ ऐसी फिल्मों पर भी नजर डालते हैं, जो सीधे तौर पर तो महात्मा गांधी पर केंद्रित तो नही थीं, लेकिन उनमें गांधी और उनके विचारों का उल्लेख अवश्य है।

सरदार (1993) : मुख्यत: सरदार बल्लभभाई पटेल पर बनी इस फिल्म में निर्देशक केतन मेहता ने गांधी और उनके विचारों को भी गंभीरता से चित्रित किया है।

हे राम (2000) : हिंदी और तमिल, दो भाषाओं में बनी इस फिल्म का निर्देशन प्रख्यात अभिनेता कमल हासन ने किया है। यह फिल्म विभाजन और गांधी की हत्या पर केंद्रित है। फिल्म में गांधी का किरदार मशहूर अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने निभाया है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगॉटेन हीरो (2005) : श्याम बेनेगल ने एकबार फिर जब आजादी से पूर्व के काल को सुभाष चंद्र बोस की कहानी के माध्यम से फिल्म में उतारा तो गांधी की जिक्र किए बगैर उन्हें फिल्म बनाना अधूरा सा लगा। यह गांधी के दौर की दो विचारधाराओं पर केंद्रित फिल्म है।

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टैगोर ने दिया था 'महात्मा गांधी' नाम

भारतीय जीवन को जिन मनीषियों ने गहरे रूप से प्रभावित किया, उनमें महात्मा गांधी का नाम अग्रणी है। उनके विराट व्यक्तित्व का असर यह है कि उन्हें धर्म, जाति, भाषा, प्रांत की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। वे इन सबसे परे देश-काल की सीमाओं को लांघ जाते हैं। शायद यही वजह है कि भारतीय जनमानस ने उन्हें 'राष्ट्रपिता' माना है। 

महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहन दास करमचंद गांधी था। हम उन्हें महात्मा गांधी के नाम से जानते हैं। महात्मा का अर्थ होता है; जिसके पास महान आत्मा हो। उन्हें इस उपनाम से विश्वप्रसिद्ध कवि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने नवाजा था। 

गांधी का जन्म गुजरात के पोरबंदर में 2 अक्टूबर, 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचंद गांधी पोरबंदर के तत्कालीन राजा के दीवान थे। 13 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कस्तूरबा के साथ हुआ था। गांधी पर भारतीय पुराकथाओं खास तौर से राजा हरिश्चंद्र की कथा का गहरा असर पड़ा था। इस बात का जिक्र गांधी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है।

1888 में गांधी उच्च शिक्षा के लिए लंदन चले गए और वहां उन्होंने कानून की पढ़ाई की। वहां शाकाहार के आग्रही गांधी को कई दिनों तक भूखे ही रहना पड़ा और अंतत: उन्होंने शकाहारी भोजन तलाश लिया। हेनरी साल्ट के लेखन से प्रभावित गांधी ने वहां शाकाहार समुदाय की सदस्यता ग्रहण की और अपने आग्रही स्वभाव के कारण इसकी कार्यकारिणी में शामिल किए गए।

1891 में गांधी अपनी कानून की पढ़ाई पूरी कर भारत लौटे और बम्बई (मुंबई) में वकील के रूप में काम करना शुरू किया, लेकिन बोलने में झिझकने वाले गांधी यहां असफल साबित हुए। 1893 में वे एक वर्ष के करार पर दक्षिण अफ्रीका चले गए, जहां उन्हें दादा अब्दुल्ला एंड को. ने उन्हें अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त किया था।

दक्षिण अफ्रीका में उन दिनों नस्लभेद चरम पर था। प्रथम दर्जे का टिकट होते हुए भी गांधी को ट्रेन से अपमानजनक तरीके से उतार दिया गया। इस एक घटना ने गांधी के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाया और उन्होंने वहां रंगभेद के खिलाफ लड़ने की ठान ली। उसी लड़ाई ने गांधी को पहचान दिलाई जिसके बाद वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत बने।

गांधीजी ने जीवन में सत्य की अनुभूति करने के लिए तमाम तरह की नकारात्मक प्रवृत्तियों से बचाते हुए उन्होंने स्वयं पर ही कई तरह के प्रयोग किया। गांधीजी न तो शिक्षाविद् थे, न सिद्धांतकार। खुद को ज्ञानी पंडित की तरह पेश करने के लिए उन्होंने कभी शब्दाडंबर का सहारा नहीं लिया। 

उन्हें भलिभांति मालूम था कि उनकी कही हर बात को भारत और दुनिया भर के करोड़ों लोग गंभीरता से लेते हैं, उन्होंने कभी भी अपने विचारों को सिद्धांत रूप देने की कोशिश नहीं की। 

वे एक स्वप्नदर्शी, एक व्यावहारिक आदर्शवादी और इन सबसे भी ऊपर एक कर्मयोगी थे। उन्होंने दुनिया को दिखाया कि किस तरह शुद्ध इच्छाशक्ति से आदमी हर तरह की दासता; चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या नैतिक हो, से मुक्ति पा सकता है। सत्य का पालन करने के लिए वे शहादत देने तक की इच्छाशक्ति से लैस थे और इसी ताकत ने उन्हें उस रूप में खड़ा किया जिसे आज हम गर्व और आदर से देखते हैं।

शब्द और कर्म के जरिए गांधीजी का दुनिया में अवदान कोई मामूली उपलब्धि नहीं है। उनका सत्याग्रह हालांकि साधारण आदमी के लिए सहज बोधगम्य नहीं है, फिर भी इस का व्यापक अर्थ परिणाम की चिंता किए बगैर हर हाल में सत्य का दामन थामे रहने के अलावा कुछ और नहीं है। इसी के प्रति आग्रह रखने के कारण गांधीजी आज भी पूजे और याद किए जाते हैं। उनका यही आग्रह 'गांधीवाद' के नाम से महात्मा की विरासत के तौर पर दुनिया में उपलब्ध है। 

वे एक चिंतक के साथ-साथ कर्मयोगी भी थे। अपनी अपर्याप्तता के लिए वे अक्सर आलोचना के पात्र बनते थे, लेकिन अपने आदर्श के साथ समझौता करने के लिए कभी भी वे दबाव में नहीं आए। 

गांधी के अपने सिद्धांतों के प्रति समर्पण को इसी से समझा जा सकता है कि विभाजन के बाद मिली आजादी का जब देश जश्न मना रहा था तब वे नूआखाली में सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ उपवास कर रहे थे। इस विराटा व्यक्तित्व का अत्यंत दारुण अंत 30 जनवरी 1948 को तब हुआ जब एक सिरफिरे नाथूराम गोडसे ने दिल्ली में प्रार्थना सभा के लिए जाते समय उनके सीने में तीन गोलियां दाग दीं। गांधी 'हे राम' बोलकर सदा के लिए सो गए।

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महात्मा गांधी देश के आधिकारिक 'राष्ट्रपिता' नहीं!

देश की बाल आरटीआई कार्यकर्ता ऐश्वर्या पाराशर की सूचना के अधिकार की अर्जियों पर केंद्र सरकार ने यह सूचना दी है कि महात्मा गांधी आधिकारिक रूप से राष्ट्रपिता नहीं हैं और महात्मा गांधी का जन्मदिवस गांधी जयंती राष्ट्रीय पर्व नहीं है। महात्मा गांधी को आधिकारिक रूप से राष्ट्रपिता घोषित करने के सवाल पर केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 18(1) का हवाला देते हुए कहा है कि महात्मा गांधी को आधिकारिक रूप से राष्ट्रपिता घोषित नहीं किया गया है। गृह मंत्रालय ने ऐश्वर्या की सूचना की अर्जी भारतीय अभिलेखागार को स्थानांतरित कर दी थी। 

भारत सरकार के जवाबों से असंतुष्ट ऐश्वर्या ने पिछले दिनों इन दोनों मामलों में केंद्रीय सूचना आयोग में अपील दायर की थी। केंद्रीय सूचना आयुक्त बसंत सेठ ने अपने जवाब में कहा, "भारत सरकार के पास महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित करने का कोई अभिलेख नहीं है। पूरे देश द्वारा गांधीजी को आदरपूर्वक राष्ट्रपिता कहा जाता है। यह उपाधि किसी अभिलेख की उपस्थिति या अनुपस्थिति की मोहताज नहीं है।" 

उन्होंने कहा, "हमारे देश के स्वाधीनता संग्राम में उनका सर्वोच्च योगदान हमारी अविवादित गौरवमयी धरोहर है। ऐसे प्रकरणों में अनावश्यक विवाद दुख पहुंचाने वाले हैं और सभी को ऐसे विवाद उठाने से बचना चाहिए। हमें इससे अधिक कुछ नहीं कहना है।" इसी प्रकार केंद्रीय सूचना आयुक्त सुषमा सिंह के पत्रानुसार, भारत सरकार द्वारा गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती को राष्ट्रीय पर्व घोषित करने संबंधी कोई भी आदेश जारी नहीं किया गया है।

राष्ट्रपिता और राष्ट्रीय पर्वो पर इन नकारात्मक जवाबों से निराश ऐश्वर्या कहती है कि उसे राष्ट्रीय गौरव की जो बातें उनके बड़-बुजुर्गो ने बताई थीं, वे सब एक-एक कर गलत साबित होती जा रही हैं। ऐश्वर्या इस संबंध में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पत्र लिख चुकी है। ऐश्वर्या बताती है कि उसने इस संबंध में सभी सांसदों को ई-मेल भेजकर उनसे राष्ट्रीय गौरव के इन मुद्दों पर कार्यवाही करने का आग्रह करने के लिए लोकसभा और राज्यसभा से सांसदों के ई-मेल पता की जानकारी मांगी थी, पर उन्हें बताया गया कि कुछ सांसद ही ई-मेल का प्रयोग करते हैं। 

सभी सांसदों के ई-मेल न मिल पाने के कारण और सांसदों को डाक से पत्र भेजने के लिए ऐश्वर्या के पास जमा जेबखर्च के पैसे नाकाफी हैं, इसलिए ऐश्वर्या सांसदों को अपनी इच्छा नहीं बता पाई है। ऐश्वर्या कहती है कि 2 अक्टूबर को न जाने कितने नेता टेलीविजन पर गांधीजी को राष्ट्रपिता कहते और गांधी जयंती को राष्ट्रीय पर्व कहते नजर आएंगे, पर जब यही सम्मान आधिकारिक रूप से देने की बात आती है तो संविधान की दुहाई दी जाती है।

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...इस व्रत से होती है पितरों को बैकुंठ की प्राप्ति!

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को इंदिरा एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी एक अक्टूबर दिन मंगलवार को पड़ रही है| 

इंदिरा एकादशी व्रत विधि-

इंदिरा एकादशी के बारे में मान्यता है कि इसका व्रत करने वाले के सात पीढ़ियों तक के पितृ तर जाते हैं। इस एकादशी का व्रत करने वाला स्वयं मोक्ष प्राप्त करता है। इस एकादशी के व्रत और पूजा का विधान वही है जो अन्य एकादशियों का है। अंतर केवल यह है कि इस दिन शालिग्राम की पूजा की जाती है। इस दिन स्नानादि से पवित्र होकर भगवान शालिग्राम को पंचामृत से स्नान कराकर भोग लगाना चाहिए तथा पूजा कर, आरती करनी चाहिए। फिर पंचामृत वितरण कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन पूजा तथा प्रसाद में तुलसी की पत्तियों का (तुलसीदल) का प्रयोग अनिवार्य रूप से किया जाता है।

इंदिरा एकादशी व्रत कथा- 

एक बार धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्ण से कहने लगे कि हे भगवान! आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके बताइए। मधुसूदन कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है। हे प्रभु इस कथा के बारे में कृपया विस्तार पूर्वक बताइए| श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहने लगे कि हे राजन! ध्यानपूर्वक इसकी कथा सुनो। इसके सुनने मात्र से ही वायपेय यज्ञ का फल मिलता है।

प्राचीनकाल में सतयुग के समय में महिष्मति नाम की एक नगरी में इंद्रसेन नाम का एक प्रतापी राजा धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का पालन करते हुए शासन करता था। वह राजा पुत्र, पौत्र और धन आदि से संपन्न और विष्णु का परम भक्त था। एक दिन जब राजा सुखपूर्वक अपनी सभा में बैठा था तो आकाश मार्ग से महर्षि नारद उतरकर उसकी सभा में आए। राजा उन्हें देखते ही हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और विधिपूर्वक आसन व अर्घ्य दिया।

सुख से बैठकर मुनि ने राजा से पूछा कि हे राजन! आपके सातों अंग कुशलपूर्वक तो हैं? तुम्हारी बुद्धि धर्म में और तुम्हारा मन विष्णु भक्ति में तो रहता है? देवर्षि नारद की ऐसी बातें सुनकर राजा ने कहा- हे महर्षि! आपकी कृपा से मेरे राज्य में सब कुशल है तथा मेरे यहाँ यज्ञ कर्मादि सुकृत हो रहे हैं। आप कृपा करके अपने आगमन का कारण कहिए। तब ऋषि कहने लगे कि हे राजन! आप आश्चर्य देने वाले मेरे वचनों को सुनो।

मैं एक समय ब्रह्मलोक से यमलोक को गया, वहाँ श्रद्धापूर्वक यमराज से पूजित होकर मैंने धर्मशील और सत्यवान धर्मराज की प्रशंसा की। उसी यमराज की सभा में महान ज्ञानी और धर्मात्मा तुम्हारे पिता को एकादशी का व्रत भंग होने के कारण देखा। उन्होंने संदेशा दिया सो मैं तुम्हें कहता हूँ। उन्होंने कहा कि पूर्व जन्म में ‍कोई विघ्न हो जाने के कारण मैं यमराज के निकट रह रहा हूँ, सो हे पुत्र यदि तुम आश्विन कृष्णा इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे निमित्त करो तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है।

आश्विन कृष्ण एकादशी का क्या नाम है? इसकी विधि तथा फल क्या है? सो कृपा करके कहिए। भगवान श्रीकृष्ण कहने लगे कि इस एकादशी का नाम इंदिरा एकादशी है। यह एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा पितरों को अधोगति से मुक्ति देने वाली होती है। 

इतना सुनकर राजा कहने लगा कि हे महर्षि आप इस व्रत की विधि मुझसे कहिए। नारदजी कहने लगे- आश्विन माह की कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन प्रात:काल श्रद्धापूर्वक स्नानादि से निवृत्त होकर पुन: दोपहर को नदी आदि में जाकर स्नान करें। फिर श्रद्धापूर्व पितरों का श्राद्ध करें और एक बार भोजन करें। प्रात:काल होने पर एकादशी के दिन दातून आदि करके स्नान करें, फिर व्रत के नियमों को भक्तिपूर्वक ग्रहण करता हुआ प्रतिज्ञा करें कि ‘मैं आज संपूर्ण भोगों को त्याग कर निराहार एकादशी का व्रत करूँगा। 

हे अच्युत! हे पुंडरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिए, इस प्रकार नियमपूर्वक शालिग्राम की मूर्ति के आगे विधिपूर्वक श्राद्ध करके योग्य ब्राह्मणों को फलाहार का भोजन कराएँ और दक्षिणा दें। पितरों के श्राद्ध से जो बच जाए उसको सूँघकर गौ को दें तथा ध़ूप, दीप, गंध, ‍पुष्प, नैवेद्य आदि सब सामग्री से ऋषिकेश भगवान का पूजन करें।

रात में भगवान के निकट जागरण करें। इसके पश्चात द्वादशी के दिन प्रात:काल होने पर भगवान का पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराएँ। भाई-बंधुओं, स्त्री और पुत्र सहित आप भी मौन होकर भोजन करें। नारदजी कहने लगे कि हे राजन! इस विधि से यदि तुम आलस्य रहित होकर इस एकादशी का व्रत करोगे तो तुम्हारे पिता अवश्य ही स्वर्गलोक को जाएँगे। इतना कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।

नारदजी के कथनानुसार राजा द्वारा अपने बाँधवों तथा दासों सहित व्रत करने से आकाश से पुष्पवर्षा हुई और उस राजा का पिता गरुड़ पर चढ़कर विष्णुलोक को गया। राजा इंद्रसेन भी एकादशी के व्रत के प्रभाव से निष्कंटक राज्य करके अंत में अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर स्वर्गलोक को गया। हे युधिष्ठिर! यह इंदिरा एकादशी के व्रत का माहात्म्य मैंने तुमसे कहा। इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से छूट जाते हैं और सब प्रकार के भोगों को भोगकर बैकुंठ को प्राप्त होते हैं।

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