दशहरा पर नीलकंठ के दर्शन शुभ

नीलकंठ तुम नीले रहियो, दूध-भात का भोजन करियो, हमरी बात राम से कहियो', इस लोकोक्त‍ि के अनुसार नीलकंठ पक्षी को भगवान का प्रतिनिधि माना गया है। दशहरा पर्व पर इस पक्षी के दर्शन को शुभ और भाग्य को जगाने वाला माना जाता है। जिसके चलते दशहरे के दिन हर व्यक्ति इसी आस में छत पर जाकर आकाश को निहारता है कि उन्हें नीलकंठ पक्षी के दर्शन हो जाएँ। ताकि साल भर उनके यहाँ शुभ कार्य का सिलसिला चलता रहे।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन नीलकंठ के दर्शन होने से घर के धन-धान्य में वृद्धि होती है, तथा फलदायी एवं शुभ कार्य घर में अनवरत्‌ होते रहते हैं| सुबह से लेकर शाम तक किसी वक्त नीलकंठ दिख जाए तो वह देखने वाले के लिए शुभ होता है|

भगवान शिव को भी नीलकंठ कहा गया है क्योकिं उन्होंने सर्वकल्याण के लिए विषपान किया था| इसीलिए शिव कल्याण के प्रतीक है| ठीक उसी तरह नीलकंठ पक्षी भी है| इस पक्षी का भी कंठ (गला) नीला होता है| कहते हैं कि दशहरे के दिन जो भी कुंवारी लडकी नीलकंठ के दर्शन करती है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूरी होती है|

उत्तरभारत में बहलिए नीलकंठ को घर-घर में लाकर दिखाते हैं। आज भी देश के कई हिस्सों में दशहरे के दिन लोग सुबह से उठकर नीलकंठ के दर्शन करते हैं।

नीलकंठ को किसान का मित्र भी कहा गया है| वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाग्य विधाता होने के साथ-साथ किसानों का मित्र भी है, क्योंकि सही मायने में नीलकंठ किसानों के भाग्य का रखवारा भी होता है, जो खेतों में कीड़ों को खाकर किसानों की फसलों की रखवारी करता है।

यहाँ दशहरा पर पूजे जाते हैं दशानन

विजय दशमी के दिन असत्य पर सत्य की जीत के प्रतीक स्वरूप लंकापति रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन उत्तर प्रदेश में कई ऐसी जगह भी हैं जहां दशहरा के दिन रावण की पूजा की जाती है| सिर्फ यही नहीं उसके पुतले को चिंगारी भी नहीं छुआई जाती। कानपुर, लखनऊ और बदायूं में बने मंदिरों में रावण की मूर्तियां स्थापित है|

कानपुर में प्रयाग नारायण शिवाला स्थित कैलाश मंदिर परिसर में लंकाधिराज रावण की मूर्ति स्थापित है। विजय दशमी पर यहां विधि विधान के साथ रावण की पूजा की जाएगी। महाआरती के साथ रावण का फूलों से श्रृंगार किया जाएगा इसके साथ ही महाभोग भी अर्पित किया जाएगा| पूरा दिन मंदिर का पट खुला रहेगा, ताकि लोग दर्शन पूजन कर सकें।

इलाहाबाद में मात्र एक कमेटी की ओर से रावण की पूजा होती है। पितृपक्ष एकादशी को श्री कटरा रामलीला कमेटी रावण की शोभायात्रा भारद्वाज आश्रम से निकालती है।इसमें पूरी सजधज के साथ रावण की सेना चलती है। दशहरा के दिन श्री दारागंज रामलीला कमेटी की ओर से रावण का पुतला दहन के बाद श्री कटरा रामलीला कमेटी व दारागंज रामलीला कमेटी के लोग एक साथ अलोपीबाग मंदिर पहुंचते हैं और ब्रह्म हत्या के दोष निवारण के लिए पूजा-अर्चना करते हैं। लक्ष्मणपुरी यानी लखनऊ में लगता है रावण दरबार|

अगर आप इसे देखना चाहते हैं तो चौक स्थित चारों धाम मंदिर जा सकते हैं जहां रावण दरबार स्थापित है। खास बात है कि इस दरबार में श्रीराम के लंका विजय की पूरी दास्तान प्रतिमाएं बयान करती हैं। चौक के रानीकटरा में 1912 में बने चारों धाम मंदिर परिसर में रावण दरबार बना है। जिसमें दशानन सबसे ऊंचे सिंहासन पर विराजमान है|

रावण का किरदार निभाने वाले विष्णु त्रिपाठी 33 वर्षो से दशहरे के दिन गाय के गोबर से पहले घर में दश शीश बनाकर लड्डू का भोग लगाते हैं। फिर रानीकटरा जाकर रावण दरबार में रावण को तिलक करके प्रसाद चढ़ाते हैं। पूजन के बाद वह चौक के श्री पब्लिक बाल रामलीला ग्राउंड लोहिया पार्क में होने वाली रामलीला में रावण का किरदार निभाते हैं। बदायूं के अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी जिले में रावण की पूजा नहीं की जाती। बदायूं में रावण का मंदिर है।

साहूकारा इलाके में इस मंदिर का निर्माण जमींदार पं. बलदेव प्रसाद शर्मा ने 1952 में कराया था। दशहरा के दिन रावण के खानदानी शखधार परिवार के लोग शोक मनाते हैं। बरेली में सुभाषनगर निवासी रमेश चंद्र शुक्ला रावण के इतने बड़े भक्त हैं कि उन्होंने 'चालीसा' ही गढ़ दी| इटावा के जसवंत नगर के लोग भी दशहरा के दिन रावण की पूजा करते हैं। रावण को न फूंकने की परंपरा कहां से आई, अयोध्या शोध संस्थान के लिए कौतूहल का विषय है|

संस्थान के डायरेक्टर डॉ. वाईपी सिंह तीन वर्षो से यहां की संपूर्ण रामलीला पर शोध कार्य करने में जुटे हैं। दशहरा के दिन वध के बाद पुतला नीचे गिरता है तो भीड़ पुतले की बांस की खपच्ची, कपड़े आदि नोंच-नोंच कर घर ले जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के बड़ागांव में एक भव्य प्राचीन मंदिर है। दंतकथाओं के मुताबिक उसका निर्माण रावण ने कराया था। यहां के लोग रावण के प्रति श्रद्धा रखते हैं। रामलीला का आयोजन यहां नहीं होता। मेरठ में रावण की ससुराल मानी जाती है, लेकिन यहां भी दशहरे पर रावण की पूजा नहीं होती। 

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सत्य, धर्म और शक्ति का प्रतीक है दशहरा

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है वह है मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है| आपको बता दें कि दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुई है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है| इस वर्ष विजयादशमी (दशहरा) पर्व 13 अक्टूबर को मनाया जायेगा|

विजयदशमी के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है| प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे|इस दिन जगह- जगह मेले लगते हैं और रामलीला का आयोजन होता है इसके अलावा रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है| दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है| भारत कृषि प्रधान देश है| जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती| इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है| पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है| महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है| इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं| फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है| इसके अलावा मैसूर का दशहरा देशभर में विख्‍यात है। मैसूर का दशहरा पर्व ऐतिहासिक, धार्मिक संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य रहा है| यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है|

मैसूर दशहरा का आरंभ मैसूर में पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता हे विजयादशमी के त्यौहार में चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है| पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक होती है, यानी यह बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व है| मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है| इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया| वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है| यहाँ इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। 

इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के दशहरा की| हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी| कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित था अत: साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की तथा उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया|

एक अन्य किंवदंती अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है| सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं अत: यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है|

परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है| तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है| राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा|

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं. सौ से ज़्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है| इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं| रथ यात्रा का आयोजन होता है| रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबा जी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है| उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं, रघुनाथ जी के इस पड़ाव सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है|

यहाँ नहीं जलाया जाता है रावण का पुतला -

दशहरे के अवसर पर देशभर में रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है। यहाँ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षो तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभंजन बनना।

13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की 47वीं पुण्यतिथि पर विशेष......

 देश के परिवर्तनकारी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया की आज 47वीं पुण्यतिथि है| समाजवाद को एक नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने ब्रितानिया हुकूमत की गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भारत में 23 मार्च, 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में अकबरपुर नाम के गांव में जन्म लिया था|

समाजवाद की नयी परिभाषा देने वाले लोहिया ने भविष्य को ध्यान में रखते हुए कहा था- ''मुझे खतरा लगता है कि कहीं सोशलिस्ट पार्टी की हुकूमत में भी ऐसा ना हो जाये कि लड़ने वालों का तो एक गिरोह बने और जब हुकूमत का काम चलाने का वक़्त आये तब दूसरा गिरोह आ जाये|'' उनके इन वाक्यों को पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्हें भविष्य की राजनीति का पूर्वाभास हो गया था|

प्रारंभिक जीवन

लोहिया के पिता का नाम हीरालाल व माता का नाम चन्दा देवी था| जब लोहिया ढाई वर्ष के थे तब उनकी माता का देहांत हो गया| लोहिया के पिता महात्मा गांधी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे| इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ|

लोहिया ने शुरूआती पढाई टंडन पाठशाला से की जिसके बाद वह विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए| उन्होंने इंटरमीडीयेट की पढ़ाई बनारस के काशी विश्वविद्यालय से की| 1927 में इंटर पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज में दाखिला लिया|

जर्मनी से पीएचडी की उपाधि लेने वाले लोहिया ने देश से अंग्रेजी हटाने का जो आह्वान किया| उन्होंने कहा, "मैं चाहूंगा कि हिंदुस्तान के साधारण लोग अपने अंग्रेजी के अज्ञान पर लजाएं नहीं, बल्कि गर्व करें| इस सामंती भाषा को उन्हीं के लिए छोड़ दें जिनके मां बाप अगर शरीर से नहीं तो आत्मा से अंग्रेज रहे हैं|’’

स्वतंत्रता संग्राम में दिया योगदान

भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी राममनोहर लोहिया, महात्मा गांधी से प्रेरित थे| उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रीय भूमिका निभाई| सिर्फ इतना है नहीं, भारत छोड़ो आन्दोलन में भी उनके महत्वपूर्ण योगदान को भुलाया नहीं जा सकता| लोहिया ने लोकमान्य तिलक के निधन पर छोटी हड़ताल आयोजित कर स्वतंत्रता आंदोलन में अपना पहला योगदान दिया| वह महज दस साल की उम्र में गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़े|

लोहिया ने जिनिवा में लीग ऑफ नेशंस सभा में भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज के सहयोगी बीकानेर के महाराजा द्वारा किए जाने पर कड़ी आपत्ति जतायी| अपने इस विरोध का स्पष्टीकरण देने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं में उन्होंने कई पत्र भेजे| इस पूरी प्रतिक्रिया के दौरान लोहिया रातोंरात चर्चा में आ गए|

वर्ष 1940 में उन्होंने ‘सत्याग्रह अब ’ आलेख लिखा और उसके छह दिन बाद उन्हें दो साल की कैद की सजा हो गयी| ख़ास बात थी मजिस्ट्रेट ने उन्हें सजा सुनाने के दौरान उनकी खूब सराहना की| जेल में उन्हें खूब यातना दी गयी| दिसंबर, 1941 में वह रिहा कर दिए गए|

9 अगस्त, 1942 को महात्मा गांधी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद लोहिया ने भूमिगत रहकर 'भारत छोड़ो आंदोलन' को पूरे देश में फैलाया| लोहिया ने भूमिगत रहते हुए 'जंग जू आगे बढ़ो, क्रांति की तैयारी करो, आजाद राज्य कैसे बने' जैसी पुस्तिकाएं लिखीं| इसके बाद 20 मई, 1944 को लोहिया को बंबई में गिरफ्तार कर लिया गया| बचपन में पिता से मिले आदर्शों व देशभक्ति के जज्बे ने स्वतंत्रता संग्राम के समय खूब रंग दिखाया| हालांकि, स्वतंत्रता के बाद हुए देश के विभाजन ने लोहिया को कहीं न कहीं झकझोर कर रख दिया|

रखी समाजवाद की नींव

लोहिया ने स्वतंत्रता के नाम पर सत्ता मोह का खुला खेल अपनी नंगी आंखों से देखा था और इसीलिए स्वतंत्रता के बाद की कांग्रेस पार्टी और कांग्रेसियों के प्रति उनमें बहुत नाराजगी थी| लोहिया सही मायनों में गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी थे| भारत विभाजन में कांग्रेस के विचारों ने उन्हें बहुत ठेस पंहुचाई, जिसके बाद उन्होंने कांग्रेस से दुरी बनाते हुए समाजवाद को अपना ध्येय बना लिया|

लोहिया ने कहा, "हिंदुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें और मैं यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़|"

लोहिया व्यवस्था परिवर्तन के हिमायती थे| समाज के निचले पायदान पर रह गये वंचितों की गैर-बराबरी के खात्मे के हिमायती तथा मानव के द्वारा मानव के शोषण की खिलाफत करने में लोहिया ने कोई कसर नहीं रखी| उन्होंने आगे चलकर विश्व विकास परिषद बनायी| जीवन के अंतिम वर्षों में वह राजनीति के अलावा साहित्य से लेकर राजनीति एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे| 12 अक्तूबर, 1967 को लोहिया का देहांत हो गया|

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महंगाई पर कटाक्ष तो मतदान के लिए प्रोत्साहित करेंगे 'रावण'

मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव का रंग गहराने लगा है और दशहरा पर्व पर किया जाने वाला रावण का पुतला दहन समारोह भी इससे नहीं बच सका है। इंदौर में रावण के ये पुतले एक ओर जहां महंगाई पर कटाक्ष करते नजर आएंगे वहीं दूसरी ओर लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश भी करेंगे। 

दशहरा का पर्व असत्य पर सत्य की जीत का पर्व है और इस मौके पर श्रद्धालु रावण का पुतला दहन कर बुराइयों को जलाते हैं। इस बार भी हर तरफ दशहरे पर रावण के पुतले जलाने की तैयारी है, इन्हें बनाने का कारोबार करने वाले तरह-तरह के पुतले बना रहे हैं। 

पिछले कई वर्षो से रावण के पुतलों को बनाने का काम करते आ रहे सुनील रावत का कहना है कि इस बार उनके द्वारा बनाए जा रहे पुतले बढ़ती महंगाई पर कटाक्ष करने से लेकर विधानसभा चुनाव में मतदान के लिए प्रोत्साहित करते नजर आएंगे। 

महंगाई की मार को रावण के पुतले के मुख्य चेहरे को देखकर ही आसानी से जाना जा सकता है। इस रावण की एक आंख ही नजर आती है। वहीं अन्य पुतले लोगों को वोट का महत्व बताते हुए आगामी विधानसभा चुनाव में अधिक से अधिक मतदान करने का संदेश दे रहे हैं। 

रावत बताते हैं कि उनके पास पांच फुट से लेकर 25 फुट तक के रावण के पुतले बनाने के ऑर्डर हैं। इन पुतलों की कीमत 25 हजार रुपये तक है। उनके द्वारा बनाए जा रहे पुतले समाज को संदेश देने के साथ समाज की समस्याओं को जाहिर करने वाले होंगे। 

राजनीतिक दलों से जुड़े लोग अपने विरोधियों पर रावण के पुतलों के जरिए हमला करने के मनसूबे पाले हुए हैं। वहीं पुतले बनाने वालों का कहना है कि वे ऐसे पुतले नहीं बनाएंगे जो किसी राजनीतिक दल या किसी व्यक्ति पर हमला करने वाले हों। वे तो समस्याओं को जाहिर करने वाले पुतले बनाने का ही काम कर रहे हैं। 

दशहरे पर रावण के पुतलों का तो दहन हो जाएगा, मगर इन पुतलों के संदेश लोगों पर कितना असर डालते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा।
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जहां कहारों की 'डोली' पर विदा होती हैं मां दुर्गा

शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-आराधना के बाद दशमी तिथि (दशहरा) के दिन मां की विदाई की परंपरा है। आमतौर पर प्रतिमाओं के विसर्जन में ट्रक, ट्राली और ठेलों का प्रयोग होता है, परंतु बिहार के मुंगेर जिले में बड़ी दुर्गा मां मंदिर की प्रतिमा के विसर्जन के लिए न तो ट्रक की जरूरत पड़ती है और न ही ट्राली की। यहां मां की विदाई के लिए 32 लोगों के कंधों की जरूरत होती है, और ये सभी कहार जाति के होते हैं। 

मुंगेर में इस अनोखे दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। बुजुर्ग लोगों का कहना है कि यह परंपरा यहां काफी समय से चली आ रही है और इस परंपरा का निर्वहन वर्तमान में भी हो रहा है। 

स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि पुराने जमाने में जब वाहनों का प्रचलन नहीं था तब लोग बेटियों की विदाई डोली पर ही किया करते थे, जिसे उठाने वाले कहार जाति के लोग ही होते थे। संभवत: इसी कारण यहां दुर्गा मां की विदाई के लिए इस तरीके को अपनाया गया होगा, जो अब यहां परंपरा बन गई है। मां की प्रतिमा के विसर्जन की तैयारी यहां काफी पहले से शुरू हो जाती है। 

मुंगेर बड़ी दुर्गा स्थान समिति के सदस्य आलोक कुमार कहते हैं कि यहां प्रतिवर्ष दुर्गा पूजा के बाद प्रतिमा विसर्जन तब होता है, जब 32 कहार इनकी विदाई के लिए यहां उपस्थित हों। वह कहते हैं कि इसके लिए कहार जाति के लोगों को पहले से निमंत्रण दे दिया जाता है। वह बताते हैं कि इनकी संख्या का खास ख्याल रखा जाता है कि वे 32 से न ज्यादा हों और न कम। 

मुंगेर के वरिष्ठ पत्रकार अरुण कुमार ने बताया कि जनश्रुतियों के मुताबिक कुछ साल पहले पूजा समिति के लोग प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लेकर आए थे, लेकिन प्रतिमा लाख कोशिशों के बाद भी अपने स्थान से नहीं हिली। लिहाजा, अब कोई भी व्यक्ति दुर्गा मां की प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लाने के विषय में नहीं सोचता। विसर्जन के दौरान लाखों लोग यहां इकट्ठे होते हैं और मां के जयकारे से पूरा शहर गुंजायमान रहता है। 

समिति के सदस्यों के मुताबिक विसर्जन से पूर्व यहां प्रतिमा को पूरे शहर में भ्रमण करवाया जाता है। इस दौरान चौक-चौराहों पर प्रतिमा की विधिवत पूजा-अर्चना भी होती है। दुर्गा प्रतिमा के आगे-आगे अखाड़ा पार्टी के कलाकार चलते हैं, जो ढोल और नगाड़े की थाप पर तरह-तरह की कलाबाजियां दिखाते रहते हैं। इसके बाद प्रतिमा गंगा घाट पहुंचती है, जहां उसे विसर्जित कर मां को विदाई दी जाती है।

विदाई यात्रा के दौरान बीच-बीच में मां के भक्त डोली को कंधा देकर अपने को धन्य समझते हैं। दुर्गा मां की विदाई के समय भक्तों की आंखें नम रहती हैं, परंतु उन्हें यह उम्मीद भी होती है कि दुर्गा मां अगले साल फिर आएंगी और लोगों के दुख हरेंगी। कहार जाति के लोग भी मां दुर्गा की डोली उठाने में खुद को धन्य समझते हैं।
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शिक्षा से आ सकती है बालिकाओं के चेहरे पर मुस्कान

चांद तक पहुंच चुकी दुनिया में बालिकाओं की खिलखिलाहट आज भी उपेक्षित है। खिलकर सभी को खुशी देने वाली लड़कियां आज आज भी खुद अपनी ही खुशी से महरूम हैं। आज भी लड़कियां उपेक्षा और अभावों का सामना कर रही हैं। 

दुनिया को लड़कियों की शिक्षा और अधिकारों के प्रति जागरुक करने के उद्देशय से संयुक्त राष्ट्र ने 19 दिसंबर 2011 को 11 अक्टूबर को विश्व बालिका दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की प्रेरणा कनाडियाई संस्था प्लान इंटरनेशनल के 'बिकॉज आई एम गर्ल' अभियान से मिली। इस अभियान के तहत वैश्विक स्तर पर लड़कियों के पोषण के लिए जागरुकता फैलाई जाती थी।

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पहली बार 11 अक्टूबर 2012 को मनाया गया था।

संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दुनियाभर में बहुत सी लड़कियां गरीबी के बोझ तले जी रही हैं और 7.5 करोड़ से ज्यादा लड़कियां शिक्षा से वंचित हैं। 

हर जगह अपना योगदान करने वाली और चुनौतियों का सामना कर रही लड़कियों के अधिकारों के प्रति लिए जागरुकता फैलाने, उनके सहयोग के लिए दुनिया को जागरुक करने के लिए इस दिवस का आयोजन किया गया।

यह दिवस गरीबी, संघर्ष, शोषण और भेदभाव का शिकार होती लड़कियों की शिक्षा और उनके सपनों को पूरा करने के लिए कदम उठाने पर ध्यान केंद्रित करना ही बालिका दिवस का उद्देश्य है।

दुनिया में हर तीन में से एक लड़की शिक्षा से वंचित है। गरीबी और रुढ़ियों के चलते लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा जाता। लाख प्रतिभाशाली होने के बावजूद वह प्राथमिक शिक्षा से आगे नहीं बढ़ पाती। कम उम्र में ही उनकी शादी कर दी जाती है या शादी करने के लिए उन्हें मजबूर किया जाता है। 

आज के समय में लड़कियां लड़कों से एक कदम आगे हैं, लेकिन आज भी वह भेदभाव की शिकार हैं। बाहर ही नहीं बल्कि घर में भी लड़कियां भेदभाव, घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं।

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का उद्देश्य बालिकाओं के मुद्दे पर विचार कर के इनकी भलाई की ओर सक्रिय कदम बढ़ाने का है।

अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस के अवसर पर दुनियाभर में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कुछ कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध होते हैं तो कुछ कार्यक्रम एनजीओ द्वारा किए जाते हैं।

साल 2013 में बालिका दिवस का विषय 'बालिका शिक्षा के लिए अभिनव (इनोवेशन फॉर गर्ल चाइल्ड)' रखा गया है क्योंकि लड़कियों को शिक्षित करना हमारा पहला दायित्व है और नैतिक अनिवार्यता भी। शिक्षा से लड़कियां न सिर्फ शिक्षित होती हैं बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास भी पैदा होता है। वे अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होती हैं। शिक्षा गरीबी दूर करने में भी सहायक होती है। 

इस तरह संयुक्त राष्ट्र की इस पहल से एक ओर जहां बालिकाओं के प्रति लोग जागरुक होंगे वहीं दूसरी ओर हर जगह प्यार और खुशी लुटाने वाली लड़कियों के चेहरों पर आत्मविश्वास की सच्ची खुशी झलकेगी।
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अमिट है अमिताभ की आभा

अमिताभ बच्चन, बॉलीवुड का ऐसा नाम जिन्होंने 2009 में हुए एक सर्वेक्षण में चार्ली चैप्लिन और मार्लोन ब्रैंडो जैसी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के कलाकारों को पछाड़ते हुए सदी के महानायक का खिताब हासिल किया। अमिताभ वही शख्स हैं जो मरणासन्न अवस्था में पहुंचने के बाद एकबार फिर बाजार के सबसे बड़े ब्रांड बनकर उभरे हैं, यह उनकी जीवंत का बेहतरीन उदाहरण है। 

लगभग 200 हिंदी फिल्मों में काम कर चुके अमिताभ का जन्म हिंदी के शलाका कवि हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन के घर 11 अक्टूबर 1942 को हुआ। उनके जन्म के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक अमरनाथ झा ने उनका नाम इंकलाब रखने का सुझाव दिया, लेकिन राष्ट्रकवि सुमित्रा नंदन पंत द्वारा सुझाए गए नाम अमिताभ (जिसकी आभा कभी नहीं मिटती) ने देश-विदेश में अभिनय की कविता रच डाली।

करियर:

बॉलिवुड में 'बिग बी' के नाम से लोकप्रिय अमिताभ के लिए हिंदी सिनेमा में अपना स्थान बनाना आसान नहीं था। 1969 में पहली फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' करने के बाद उन्होंने 'परवाना', 'रेशमा' 'शेरा', 'गुड्डी' और 'बांबे टू गोवा' जैसी एक के बाद एक असफल फिल्में कीं, लेकिन इन फिल्मों से वह दर्शकों को खुश नहीं कर पाए। 

अमिताभ को पहली बड़ी पहचान 1971 में ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म 'आनंद' से मिली। 'आनंद' में अमिताभ द्वारा निभाई गई सहायक भूमिका ने उन्हें पहला फिल्म फेयर पुरस्कार मिला।

अमिताभ को लेकिन बतौर अभिनेता देश की जनता ने 1973 की फिल्म 'जंजीर' में उनके गुस्सैल छवि वाले किरदार से पहचाना। आज बॉलीवुड और अभिनय का पर्याय बन चुके अमिताभ को 'जंजीर' ने ही स्टारडम के साथ एंग्री यंगमैन का तमगा भी दिलाया। इसके बाद तो एक के बाद एक अमिताभ ने 'मर्द', 'शोले', 'कुली', 'लावारिस' जैसी कई सुपरहिट फिल्मों से एंग्री यंग मैन के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर ली।

सफलता की दौड़ के बीच उनके जीवन में वह पल भी आया जब 'कुली' फिल्म की शूटिंग में हुए भयानक दुर्घटना ने उनकी रफ्तार रोक ली। उनके स्वस्थ होकर घर आने की उम्मीद कम थी, लेकिन प्रशंसकों की उम्मीद के बीच कई महीने बाद वह स्वस्थ हो कर घर लौटे।

अमिताभ ने इसके बाद कुछ वर्षो के लिए अभिनय से अवकाश ले लिया और अपने मित्र राजीव गांधी की पहल पर राजनीति में किस्मत आजमाई। उन्हें सफलता भी मिली और इलाहाबाद सीट से उन्होंने एच. एन. बहुगुणा के खिलाफ रिकार्ड अंतर से जीत हासिल की। लेकिन राजनीति उन्हें ज्यादा दिन तक रास नहीं आई और इसकी वजह बना बोफोर्स कांड में उनका नाम उछाला जाना। उन्हें न्यायालय ने हालांकि क्लीन चिट दे दी, लेकिन उन्होंने राजनीति को गंदी नाली करार दे कर इससे किनारा कर लिया।

इसके बाद अमिताभ ने 'शहंशाह' फिल्म से वापसी की। यह फिल्म सफल रही, लेकिन आने वाली फिल्मों के औंधे मुंह बॉक्स आफिस पर गिर जाने पर उनकी शोहरत कम होने लगी। उन्होंने फिल्म निर्माण कंपनी 'एबीसीएल' भी खोली लेकिन इसमें भी उनकी किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया।

इधर, पांच साल के अवकाश के बाद अमिताभ ने अपनी वास्तविक उम्र का आभास करते हुए यश चोपड़ा की फिल्म 'मोहब्बतें' से फिर वापसी की। गुरुकुल के शिक्षक की भूमिका से अमिताभ ने नई पारी शुरू की और उनकी नई पारी ने उनके लिए सफलता और शोहरत के दरवाजे फिर खोल दिए। 

अमिताभ का करियर 70-80 के दशक में उफान पर रहा और उन्होंने बॉलीवुड पर एकछत्र राज किया। अमिताभ के करियर के पूर्वार्ध में दर्शकों ने जहां उन्हें 'जंजीर', 'नमकहलाल', 'शोले', 'कूली', 'सुहाग', 'अभिमान', 'सिलसिला', 'मिली', 'मिस्टर नटवर लाल', 'द ग्रेट गैंबलर', 'अग्निपथ', 'चुपके-चुपके', 'लावारिस' में पसंद किया वहीं 'मोहब्बते', 'ब्लैक', 'बंटी और बबली', 'कभी खुशी कभी गम', 'देव', 'सरकार', 'सरकार राज', 'आरक्षण', 'सत्याग्रह' जैसी अनगिनत बेहतरीन फिल्में उनकी दूसरी पारी का इंतजार कर रहे थे।

आज बाजार का ब्रांड बन चुके अमिताभ की दूसरी पारी में शोहरत दिलाने का श्रेय गेम शो 'कौन बनेगा करोड़पति' को भी काफी हद तक जाता है। इस शो में मेजबान की भूमिका ने उन्हें हर भारतीय से दोबारा जोड़ने में मदद की और बेशक इसका फायदा उनकी फिल्मों को भी मिला। अमिताभ ने जीवन के सातवें दशक में हॉलीवुड में कदम रखा, और उनकी पहली फिल्म 'द ग्रेट गैट्सबाय' हाल ही में प्रदर्शित हुई है।

निजी जिंदगी:

उनकी शादी बॉलीवुड की बेहतरीन अदाकारा जया बहादुरी से हुई। दोनों की पहली मुलाकात पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट में और फिर 'गुड्डी' फिल्म के सेट पर हुई। इन्होंने इस मुलाकात के बाद कई फिल्में साथ कीं और इसके जरिए एक दूसरे के करीब आए। लेकिन उनके करियर की तरह निजी जिंदगी में उतार-चढ़ाव का दौर तब आया जब अभिनेत्री रेखा से उनके कथित विवाहेत्तर संबंध की खबरें आम होने लगीं। अमिताभ हालांकि, आज जया के साथ आज खुश हैं, वहीं रेखा ने भी दोनों के संबंधों पर कभी खुलकर बात नहीं की।

अमिताभ के जीवन से जुड़ी कई रोचक बातें हैं, मसलन उनकी सफलता की वजह वे फिल्में रहीं जिसे तत्कालीन सुपर स्टार राजेश खन्ना ने ठुकरा दी थीं। कहा जाता है कि जब वह फिल्म 'खुदा गवाह' की शूटिंग के लिए अफगानिस्तान गए थे तो वहां की सरकार ने देश के आधे सुरक्षाकर्मियों को उनकी सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया था।

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शर्मनाक! नौकरी के लिए पत्नी को किया अफसरों के साथ कमरे में बंद

लखनऊ| समाज में इंसानियत कई तरह से हर रोज शर्मसार होती है| लेकिन अभी जो मामला प्रकाश में आया है यह तो बहुत ही शर्मनाक है| मामला उत्तर प्रदेश के बरेली जिले का है जहाँ एक युवक ने नौकरी पाने के लिए अपनी पत्नी को रेलवे अफसरों के सामने परोस दिया| पीड़ित युवती ने अपने पति पर आरोप लगाते हुए कहा है कि सरकारी नौकरी पाने के लिए उसके पति ने उसे दो रेलवे अफसरों के साथ एक कमरे बंद कर दिया। दोनों ने रातभर उससे रेप किया।

पुलिस सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, यहाँ 23 साल की श्रुति (परिवर्तित नाम) ने पुलिस को दी गई तहरीर में कहा है कि उसके पड़ोस में ही मोबाइल टावर पर अलीगंज के गैनी गांव का प्रमोद उर्फ बबलू काम करता था। बबलू उसके घर पर भी आता जाता रहता था| बबलू अक्सर उससे प्यार का इजहार करता था पहले तो वह टालती रही लेकिन एक दिन वह उसके झांसे में आ ही गई और अपने मां बाप को बिना बताये उसके साथ उसके घर चली गई|

पढ़ें प्रमोशन के लिए पत्नी को किया सीनियरों के साथ सोने पर मजबूर

श्रुति ने आगे बताया कि जब वह बबलू के घर गई तो वह बतौर पत्नी के रूप में रख लिया और उससे शादी नहीं की लेकिन जब वह शादी के लिए बबलू पर दबाव डालने लगी तो बबलू उसे कुछ कोर्ट के कागज़ लाकर उससे दस्तखत करवा लिया और बता दिया कि उसने कोर्ट मैरेज कर ली है अब कोई दिक्कत की बात नहीं रही| श्रुति ने बबलू की बैटन पर विश्वास कर लिया और उसके साथ अच्छे से दिन बिताने लगी|

पढ़ें पदोन्नति के लिए पत्नी की इज्जत का सौदा

उसने बताया कि कुछ समय पहले बबलू पर उसके बड़े भाई नेत्रपाल और चमनलाल ने रेलवे में नौकरी हासिल करने के लिए अपने बहनोई अमर सिंह से संपर्क करने का दबाव डाला। बाद में तीनों ने उसे रेलवे के दो अफसरों के बारे में भी बताया। उसे सलाह दी कि वह अगर अपनी पत्नी से उन्हें खुश करा दे तो उसे नौकरी मिल सकती है। इस पर बबलू ने श्रुति से कहा तो वह साफ़ इनकार कर दिया लेकिन दो अक्टूबर को उसके घर पर दो लोग आये पूछने पर बबलू ने बताया कि वह रेलवे अफसर हैं|

पढ़ें स्मैक के लिए पति ने किया पत्नी के जिस्म का सौदा!

उसके बाद उसने श्रुति को उन अफसरों के साथ एक कमरे में बंद कर दिया| आरोप है कि दोनों अधिकारियों ने उसके साथ दुष्कर्म किया| मामला यहीं नहीं खत्म हुआ इस घटना के बाद भी बबलू उन अधिकारियों के साथ श्रुति को सोने के लिए मजबूर करता था लेकिन एक दिन मौका देखते ही वह अपनी मां के घर भागकर जालिमों से अपनी जान बचाई| फिलहाल पुलिस ने श्रुति की तहरीर पर मुकदमा दर्ज कर लिया है और जांच में जुट गई है|

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कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने में अखिलेश सरकार नाकाम, पुलिस हिरासत में हो रही मौतें

पिछले कुछ महीनो पर नज़र डालें तो साफ़ जाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जमकर खिलवाड़ हो रहा है| प्रदेश में अपराध का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है| यहाँ हिरासत में मौत आम बात हो गयी हैं| अभी हाल में प्रदेश के बरेली जिले में जहाँ एक नहीं बल्कि दो थानों में अभियुक्तों की पुलिस हिरासत में मौत हो गई और पुलिस उसे आत्महत्या करार देने में जुटी रही अभी यह मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि एक और ऐसी घटना अलीगढ़ में देखने को मिल गई|

अलीगढ़ के बन्ना देवी थाना क्षेत्र के सारसौल निवासी ज्ञानेंद्र सिंह उर्फ पप्पू (37) को शराब तस्करी के आरोप में सिपाही गिरीश कुमार, राजेश और अशोक कुमार मंगलवार शाम को पकड़कर थाने ले आए। पप्पू के परिजनों का कहना है पुलिसकर्मी पप्पू को छोड़ने के बदले रुपये मांग रहे थे और रुपये न देने पर हिरासत में उसकी बेरहमी से पिटाई की गई, जिससे उसकी मौत हो गई। वहीं पुलिस का कहना है कि पप्पू ने रात को हवालात के शौचालय में पजामे के नाड़े को खिड़की से बांधकर फांसी लगा ली।

अलीगढ़ के पुलिस अधीक्षक (शहर) पंकज पांडे ने बुधवार को संवाददाताओं को बताया कि घटना की मजिस्ट्रेट जांच के आदेश दे दिए गए हैं। शव के पोस्टमार्टम के बाद ही मौत की असल वजह का पता चल सकेगा। पांडे ने कहा कि जिन सिपाहियों पर वसूली और पिटाई के आरोप हैं, उन्हें निलंबित कर उनके खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया गया है।

उत्तर प्रदेश में यह कोई पहला मामला नहीं है जब पुलिस हिरासत में कैदियों की मौत हो रही है इससे पहले भी कई मामले इस तरह के आ चुके हैं लेकिन अखिलेश सरकार कार्यवाई करने के बजाय हाथ पर हाथ रखे हुए बैठी है| इससे पहले के बरेली में थाना हाफिजगंज की हवालात में युवक की हुई मौत के बाद एसएसपी ने कड़ा रुख अपनाते हुए एसओ समेत 6 पुलिसकर्मियों को सस्पेंड कर दिया गया था|

गौरतलब है कि लूट के कथित मामले में पकड़कर लाये गये दलित युवक सोहनलाल बीती रात को हाफिजगंज थाने की हवालात में फंदे पर लटका मिला| हाफिजगंज पुलिस फरीदपुर के दन्नपुरा निवासी सोहन लाल दलित को 6 अगस्त को सुन्नौर के ब्रजपाल यादव और सुकटिया के ओमकार के घर लूटपाट के मामले में पकड़ा था| रविवार को दलित सोहनलाल के परिजन ग्राम प्रधान आदि लोग थाने पर मिलने पहुचे तो सोहनलाल घबराया डरा हुआ था और बार-बार कह रहा था की मैंने कुछ नहीं किया है| मुझे छुड़ा लो पुलिस वाले मुझे मार डालेगे वह रो रोकर अपबीती अपने परिजनों को सुना रहा था और सोहनलाल की बेगुनाही के चलते परिजन व ग्राम प्रधान ने एसओ यादव से सोहनलाल को छोड़ने की विनती की तो एसओ योगेंदर कृष्ण यादव ने कहा कि लूट करने वाले आरोपियों के नाम सोहनलाल बता देगा तो छोड़ देगे|

यह कहकर परिजनों को थाने से वापस कर दिया बीती रात को हवालात से निकालकर पुलिस ने जमकर सोहन को पीटा और दूसरे पकड़े गये शक के आधार पर तोताराम, सोहनलाल के भतीजे के सामने ही पिटाई का सिलसिला चल रहा था| पिटाई से पस्त हो चुके सोहन की हालत बिगड़ने पर पुलिस ने उसे हवालात में बंद कर दिया और उस के बाद हवालात से सोहन की लाश बरामद हुई जिसे अब पुलिस आत्महत्या का रूप दे रही है| पुलिस का कहना है कि सोहन ने अपनी टीशर्ट की आस्तीन से फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली है बरेली पुलिस दलितों पर इस कदर अत्याचार कर रही है जिसका अंदाज इन्ही घटनाओ से बखूबी लगाया जा सकता है एक के बाद एक दलित युवको की पुलिस पिटाई से हत्या होती चली जा रही है|

गौरतलब है कि अभी 26 सितम्बर को ही मोनू नाम के दलित युवक की थाना बिथरी की पुलिस चौकी रामगंगा पर जमकर पिटाई की गयी थी जिस के चलते उसकी मौत हो गयी जिसे पुलिस के अधिकारी ने आत्म हत्या का रूप दिया लेकीन पोस्टमार्टम में मौत का रूप ही अलग था| ठीक उसी प्रकार अब दलित सोहनलाल की मौत को पुलिस व अधिकारी आत्महत्या बता रहे है| जबकि प्रत्यक्षदर्शी सोहन लाल का भतीजा तोताराम आँखों देखी घटना को बताते हुए पुलिस की पिटाई से सोहन की हत्या बता रहा है और मृतक की पत्नी ने भी पुलिस की पिटाई से युवक की मौत का होना बताया|

उससे पहले मई माह में राजधानी लखनऊ के ट्रामा सेंटर में एक विचाराधीन कैदी की मौत से एटा जिले की पुलिस सवालों में घिर गई है। आरोप है कि हत्या के आरोपी इस युवक से पुलिस ने कथित रूप से थर्ड डिग्री के बल पर जुर्म कबूल करवाया था और फिर जेल भेज दिया था। यातना से पीड़ित युवक की जेल में हालत बिगड़ गई और उसे इलाज के लिए लखनऊ ट्रामा सेंटर में भर्ती कराया गया था जहां शुक्रवार को इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। अलीगढ़ रेंज के डीआईजी प्रकाश डी. ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं। आरोप है कि पुलिस ने युवक के गुप्तांग में पेट्रोल और तेजाब भरकर इंजेक्शन लगाया, जिससे उसकी पहले हालत खराब हुई और फिर बाद में मौत हो गई।

एटा जिले के सकरौली क्षेत्र के इसौली गांव के रहने वाले मानिकचंद्र सरानी का शव 9 अप्रैल को हजारा नहर में मिला था। मृतक के चाचा गंगाराम ने मामले में मानिकचंद्र के ससुर साहब सिंह, पत्नी सावित्री देवी, ससुर के भाई सुनहरी लाल, प्रेमपाल और सरानी गांव के प्रधान मनवीर सिंह सहित पांच लोगों के खिलाफ अवागढ़ थाने में आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा दर्ज कराया था। मुकदमे की तफ्तीश के दौरान चार दिन बाद ही अवागढ़ पुलिस ने केस का रुख पलट दिया और मानिकचंद्र के भाई महेश और बहनोई चोब सिंह और गांव के ही बलवीर और बनी खान पर अवैध संबंधों के चलते हत्या कर शव नहर में फेक देने का आरोप लगाया। 20 अप्रैल को पुलिस ने इस मामले में महेश, चोब सिंह, बलवीर और बनी खान को हिरासत में लिया।

जुर्म का इकबाल कराने के बाद पुलिस ने सभी को 24 अप्रैल को जेल भेज दिया। जेल में बलवीर की तबीयत बिगड़ गई। जेल प्रशासन ने बलवीर को पहले इलाज के लिए एटा जिला अस्पताल में भर्ती कराया, जहां से डाक्टरों ने उसे केजीएमयू रेफर कर दिया। शुक्रवार सुबह बलवीर ने इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। डीआईजी अलीगढ़ प्रकाश डी. ने कहा कि उन्होंने मामले की जांच का आदेश एटा पुलिस को दे दिया है। जांच में जो भी पुलिसकर्मी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

इससे पहले अप्रैल माह में राजधानी लखनऊ में भी एक इसी तरह का मामला प्रकाश में आया था| लखनऊ में डालीगंज क्षेत्र में अवैध शस्त्र रखने के आरोप में गिरफ्तार एक युवक की पुलिस कस्टडी में मौत हो गई थी| मदेयगंज चौकी प्रभारी शिवाकांत त्रिपाठी वीरेन्द्र मिश्रा (26) को अवैध असलहा रखने के मामले में पकड़ पर हसनगंज कोतवाली लाए थे। जहां पर रात में उसकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। एएसपी ट्रांसगोमती हबीबुल हसन ने दावा किया था कि वीरेंद्र ने हवालात में मिले कंबल को फाड़कर उसके सहारे दस फीट ऊंचे रोशनदान से लटककर फांसी लगाने का प्रयास किया। वीरेंद्र को फांसी पर लटका देखकर उसे ट्रॉमा सेंटर ले जाया गया, जहां उसकी मौत हो गई।

घटना की सूचना पाकर एएसपी, सीओ महानगर राजेश श्रीवास्तव, सीओ महानगर विद्यासागर मिश्र, सीओ गाजीपुर विशाल पांडेय सहित अन्य पुलिस अधिकारी मौके पर पहुंचे और छानबीन शुरू की। वहीं पुलिस देर रात तक घटना को दबाने का प्रयास करती रही और वीरेंद्र के घरवालों को भी इसकी सूचना नहीं दी गई थी। आशंका है कि पुलिस पिटाई से वीरेंद्र की जान गई है। मायानगर, हसनगंज निवासी वीरेंद्र की बूढ़ी मां लाभेश्वरी मिश्र के मुताबिक, पुलिस ने उनके बेटे वीरेंद्र को घर से पकड़ा था। वीरेंद्र होली के बाद ही वाहन चोरी के मामले में जेल से छूटकर आया था। वीरेंद्र के पिता स्व.महेंद्र मिश्र डालीगंज स्थित एक दुकान में मुनीम थे। बताते हैं कि उसके बड़े भाई योगेंद्र की करीब एक साल पूर्व बीमारी से मौत हो गई थी। उसका एक भाई जितेंद्र निजी नौकरी करता है।

वीरेंद्र के परिजन यह भी बताते हैं कि जितेंद्र खाना लेकर कोतवाली गया था लेकिन पुलिस ने न वीरेंद्र को खाना दिया और न ही जितेंद्र को उससे मिलने दिया गया था। घटना का पता लगने पर मुहल्ले के लोगों में काफी आक्रोश था। कुछ लोगों का कहना था कि पुलिस ने अपने सराहनीय कार्य के चक्कर में वीरेंद्र को उठाकर उसके पास से तमंचा दिखा दिया। पुलिस किसी घटना के राजफाश के लिए उस पर दबाव बना रही होगी और इन्कार पर उसे बेरहमी से पीटा गया होगा। हालांकि अधिकारी वीरेंद्र की पिटाई किए जाने की बात से इन्कार कर रहे हैं।

इस मामले में इंस्पेक्टर जावेद खान, मदेयगंज चौकी प्रभारी शिवाकांत त्रिपाठी, नाइट अफसर दारोगा बृजेश कुमार, हेड कांस्टेबिल राकेश कुमार, सिपाही रामकृपाल पांडेय व संतरी ड्यूटी पर तैनात सिपाही मुनेश्वर को कल रात ही निलंबित कर दिया गया था। आज इनके खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया। इसके साथ ही मामले की जांच सीबीसीआइडी को सौंपी गई है। एसएसपी ने कहा कि इस मामले में जांच के आदेश दिए जा चुके हैं और जो भी मामले का दोषी पाया जाएगा उसे बक्शा नहीं जाएगा|

इससे पहले इसी महीने प्रतापगढ़ में भी कुछ इसी तरह का मामला प्रकाश में आया था| उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में कथित रूप से पुलिस प्रताड़ता से हिरासत में हुई महिला की मौत के मामले में जिलाधिकारी ने जांच के आदेश दे दिए हैं। रानीगंज इलाके में मायके में रही हेमा नाम की महिला की पड़ोसियों से मारपीट हो गई। इसी मामले में उसे पुलिस उसे पूछताछ के लिए थाने ले आई।

परिजनों का आरोप है कि दूसरे पक्ष के लोगों के कहने पर हेमा की हिरासत में इस कदर पिटाई की गई कि वह मरणासन्न हालत में पहुंच गई। बाद में पुलिसकर्मी उसे अस्पताल लेकर गए जहां उसकी मौत हो गई। जिले के अपर पुलिस अधीक्षक वी़ एस़ यादव ने संवाददाताओं को बताया कि जिलाधिकारी की तरफ से घटना की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। जांच के बाद आगे की कार्रवाई होगी।

इसके अलावा अप्रैल माह में गाजीपुर जिले में एक युवक की पुलिस हिरासत में पिटाई से मौत होने पर नाराज भीड़ ने जमकर हंगामा किया। भीड़ ने पुलिस चौकी और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया। हंसराजपुर पुलिस चौकी के पास स्थित नसीरपुर गांव की 13 साल की एक लड़की 20 साल के एक लड़के के साथ भाग गई थी। युवती के परिवार वालों ने गांव के ही युवक गुल्लू राम के खिलाफ तहरीर दी थी। इस आधार पर आरोपी के दोस्त घनश्याम राम को पुलिस ने हिरासत में लेकर पूछताछ की। आरोप है कि पूछताछ के दौरान उसकी पिटाई की गई और हालत बिगड़ने पर छोड़ दिया।

पिटाई से जख्मी घनश्याम को घर वाले जिला हॉस्पिटल ले जा रहे थे। तभी रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। इससे गुस्से में ग्रामीणों ने शव के साथ सड़क जाम कर दिया और हंसराजपुर पुलिस चौकी में तोड़फोड़ करने के बाद आग लगा दी। भीड़ ने चौकी में खड़ी पुलिस की गाड़ियों को भी आग के हवाले कर दिया। पुलिस के बल प्रयोग के बाद हालात पर काबू पाने में कामयाबी मिली।

उधर राज्य के अपर पुलिस महानिदेशक (एडीसी) अरुण कुमार ने लखनऊ में कहा कि फिलहाल स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में हैं। मौके पर भारी संख्या में पुलिस बल और पीएसी के जवानों की तैनाती की गई है। उन्होंने कहा कि वाराणसी क्षेत्र के पुलिस उपमहानिरीक्षक को मौके पर भेजकर घटना की जांच करने के लिए कहा गया है। युवक की मौत कैसे हुई यह जांच के बाद ही पता चल सकेगा। जांच के बाद आगे की कार्रवाई की जाएगी।

गौरतलब है कि पिछले कुछ महीनों से पुलिस हिरासत में हो रही कैदियों की मौत से यह साफ़ जाहिर होता है कि अखिलेश सरकार प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने में नाकाम साबित हो रहे हैं..? 

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देश-विदेश में दशहरे की धूम

भगवान राम की रावण का विजय का पर्व दशहरा पूरे देश में पूरे धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। आज भी दशहरा बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। आज भी उस दिन की याद दिलाता है जब श्रीराम ने रावण को मार कर इस इस धरती को उसके अत्याचार मुक्त कराया था। दशहरा मनाने की परंपरा सदियों से हमारे देश में चली आ रही है। दशहरा को विजयादशमी भी कहतें हैं। भगवान श्री राम की विजय के रूप में मनाया जाए या दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति पूजा अराधना का उत्सव रहा है।

दशहरा पर्व भारत में ही नहीं बल्कि भारत के बाहर विश्व के अनेक देशों में हर्षो उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। भारत में विजयादशमी का पर्व देश के कोने कोने में बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है।यहां मैसूर का दशहरा, कूल्लू का दशहरा, दक्षिण भारत में तथा इसके अतिरिक्त उत्तर भारत, बंगाल इत्यादि में विजयादशमी के त्यौहार को बडे़ पैमाने पर मनाया जाता है। यहाँ का दशहरा बस देखते ही बनता है।

कुल्लू का दशहरा

हिमांचल के कुल्‍लु का दशहरा पूरे देश में प्रसि‍द्ध है। इसे अलग और अनोखे अंदाज़ में मनाया जाता है। आश्विन मास की दसवीं तारीख को इसकी शुरुआत होती है। कुल्लू का दशहरा पर्व, परंपरा, रीतिरिवाज़ की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व रखता है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस त्योहार का रंग देखते ही बनता है। स्त्रियाँ, पुरुष सभी रंग-विरंगे वस्त्रों से सुसज्जित होकर अपने वाद्य यंत्रों के साथ बाहर निकलते हैं। इस उत्सव के दौरान पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता जुलूस निकाल कर धूम धाम से पूजन करते हैं। इन देवताओं के लिए आकर्षक पालकी सजाई जाती है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। नृत्य का प्रदर्शन किया जाता है । इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं। इस दशहरे की खास बात ये है कि यहां का दशहरा में रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्‍सव हिमाचल के लोगों की संस्‍कृति और धार्मिक आस्‍था का प्रतीक है। उत्‍सव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे होकर मिलते हैं जिसे ‘मोहल्ला’ कहते हैं। रघुनाथ जी के इस पड़ाव में सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है। सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है। जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है।

सन 1660 में यहां पहली बार दशहरा आयोजित किया गया था। कहा जाता है कि कुल्लू में विजयदशमी के पर्व मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के समय से मानी जाती है। कहा जाता है कि एक बार राजा जगत सिंह, को पता चलता है कि पास के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है, तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है। सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से उसे सताते हैं। इन यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है। परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है । इस श्राप के वजह से कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है। रजा रघुनाथ जी की मूर्ति लगवाता है। रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है। राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा।

मैसूर का दशहरा

कहतें हैं कि मैसूर का दशहरा नहीं देखा तो क्या देखा? यह दशहरा भारत में ही नहीं विश्व में प्रसिध्द है। पहले इसे 'नवरात्रि' के नाम से ही जाना जाता था लेकिन वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार के समय में इसे दशहरा कहने का चलन शुरू हुआ। यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है। वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है।

राजा वाडेयार की इच्छा थी कि इस उत्सव को आने वाली पीढ़ियाँ याद रखें तथा उसी प्रकार से मनाएँ, जिस प्रकार विजयनगर के शासक मनाया करते थे। अत: इसके लिए उन्होंने निर्देशिका भी तैयार की थी, जिसमें लिखा था कि किसी भी कारण से दशहरा मनाने की परंपरा टूटनी नही चाहिए। कहा जाता है कि दशहरे से ठीक एक दिन पहले जब राजा के पुत्र नंजाराजा की मृत्यु हो गई थी परंतु तब भी राजा वाडेयार ने बिना किसी अवरोध के ‘दशहरा उत्सव’ का आयोजन किया और परंपरा को कायम रखा । उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश जारी रखी। इस मौके पर भव्य जुलूस निकाला जाता है, जिसमें बलराम के सुनहरी हौदे पर सवार हो चामुंडेश्वरी देवी मैसूर नगर भ्रमण के लिए निकलती हैं। वर्ष भर में यह एक ही मौका होता है, जब देवी की प्रतिमा यूं नगर भ्रमण के लिए निकलती है।

पंजाब का दशहरा

पंजाब में दशहरा नवरात्रि के नौ दिन का उपवास रखकर मनाते हैं। इस दौरान यहां आगंतुकों का स्वागत पारंपरिक मिठाई और उपहारों से किया जाता है। अष्टमी और नवमी के दिन मां दुर्गा जी की उपासना की जाती है। यहां भी रावण-दहन के आयोजन होते हैं व मैदानों में मेले लगते हैं।

बस्तर का दशहरा

बस्तर में दशहरे मां दंतेश्वरी की पूजा का विधान है। यह पर्व उनको ही समर्पित है। माँ दंतेश्वरी यहाँ के निवासियों की आराध्य देवी हैं, जो दुर्गा का ही एक रूप हैं। बस्तर में दशहरा का त्यौहार श्रावण मास की अमावस से आश्विन मास की शुक्ल त्रयोदशी तक चलता है। इसका समापन ओहड़ी पर्व से किया जाता है।

बंगाल का दशहरा

यह बंगालियों का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। बंगाल में यह पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है। यह पूरे बंगाल में पांच दिनों के लिए मनाया जाता है। यहां देवी दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों विराजमान करते हैं। इसके साथ अन्य देवी-देवताओं की भी कई मूर्तियां बनाई जाती हैं। त्योहार के दौरान शहर में छोटे-मोटे स्टाल भी मिठाइयों से भरे रहते हैं। यहां षष्ठी के दिन दुर्गा देवी का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है। षष्ठी के दिन दुर्गा जी का पूजन एवं प्राण प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है इसके उपरांत सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी के दिन प्रातः और सायंकाल दुर्गा पूजा होती है दशमी के दिन विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है।

ओडिशा और असम का दशहरा

यहां भी पर्व दुर्गा पूजा के रूप में ही मनाया जाता है,यहाँ इसे चार दिन तक मनाया जाता है। बंगाल के दशहरे की तरह स्त्रियां देवी के माथे पर सिंदूर चढ़ाती हैं, और एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं एक प्रकार से सिंदूर की होली खेली जाती है। इसके पश्चात देवी की प्रतिमाओं को विसर्जन के लिए ले जाया जाता है।

तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक का दशहरा

तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश एवं कर्नाटक में दशहरा नौ दिनों तक चलता है जिसमें तीन देवियां लक्ष्मी, सरस्वती और दुर्गा की पूजा की जाती है। पहले तीन दिन लक्ष्मी-धन और समृद्धि की देवी का पूजन होता है। अगले तीन दिन सरस्वती देवी की अर्चना की जाती है और अंतिम दिन देवी दुर्गा-शक्ति की देवी की पूजा की जाती है। यहां दशहरा शिक्षा या कोई भी नया कार्य जैसे संगीत और नृत्य सीखने के लिए शुभ समय होता है।

महाराष्ट्र में दशहरा

महाराष्ट्र में दशहरे को नवरात्रि कहतें हैं। ये पर्व माँ दुर्गा को समर्पित होता है। दसवें दिन माँ सरस्वती की पूजा कि जाती है। किसी भी चीज को प्रारंभ करने के लिए खासकर विद्या आरंभ करने के लिए यह दिन काफी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन विवाह, गृह-प्रवेश एवं नये घर खरीदने का शुभ मुहूर्त मानतें हैं।

गुजरात का दशहरा

गुजरात में भी दशहरे को नवरात्र के रूप में मनाया जाता है। नवरात्र के नौ दिनों तक यहां पारंपरिक नृत्य गरबा की धूम होती है। रंगीन घड़ा देवी का प्रतीक माना जाता है और इसको कुंवारी लड़कियां सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं जिसे गरबा कहा जाता है।

नेपाल, मॉरीशस में दशहरा

जैसे दशहरा भारत में हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है वैसे ही कई अन्य देशों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका, चीन और थाइलैंड के अलावा दूनिया के दूसरे देशों में भी मनाया जाता है। विजयादशमी नेपाल में बहुत बडे़ स्तर पर मनाया जाता है। यहां यह वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार होता है। माँ काली तथा माँ दुर्गा की पूजा नौ दिनों तक की जाती है। विजयादशमी वाले दिन राज दरबार में राजा प्रजा को अबीर, चावल, दही का टीका लगाते हैं।

..यहां गिरी थी सती की दाहिनी जांघ

बिहार की राजधानी पटना में स्थित पटन देवी मंदिर शक्ति उपासना का प्रमुख केंद्र माना जाता है। देवी भागवत और तंत्र चूड़ामणि के अनुसार, सती की दाहिनी जांघ यहीं गिरी थी। नवरात्र के दौरान यहां काफी भीड़ उमड़ती है।सती के 51 शक्तिपीठों में प्रमुख इस उपासना स्थल में माता के तीन स्वरूपों वाली प्रतिमाएं विराजित हैं। पटन देवी भी दो हैं- छोटी पटन देवी और बड़ी पटन देवी, दोनों के अलग-अलग मंदिर हैं।

पटना की नगर रक्षिका भगवती पटनेश्वरी हैं जो छोटी पटन देवी के नाम से भी जानी जाती हैं। यहां मंदिर परिसर में मां महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की स्वर्णाभूषणों, छत्र व चंवर के साथ विद्यमान हैं। लोग प्रत्येक मांगलिक कार्य के बाद यहां अवश्य आते हैं।

इस मंदिर के पीछे एक बहुत बड़ा गड्ढा है जिसे 'पटनदेवी खंदा' कहा जाता है। कहा जाता है कि यहीं से निकालकर देवी की तीन मूर्तियों को मंदिर में स्थापित किया गया था। वैसे तो यहां मां के भक्तों की प्रतिदिन भारी भीड़ लगी रहती है, लेकिन नवरात्र के प्रारंभ होते ही इस मंदिर में भक्तों का तांता लग जाता है।

पुजारी आचार्य अभिषेक अनंत द्विवेदी ने बताया कि नवरात्र के दौरान महाष्टमी और नवमी को पटन देवी के दोनों मंदिरों में हजारों श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए आते हैं। महासप्तमी को महानिशा पूजा, अष्टमी को महागौरी और नवमी को सिद्धिदात्री देवी के पूजन के बाद हवन और कुमारी पूजन में बड़ी भीड़ जुटती है। दशमी तिथि को अपराजिता पूजन, शस्त्र पूजन और शांति पूजन किया जाता है।

बड़ी पटन देवी मंदिर भी शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि महादेव के तांडव के दौरान सती के शरीर के 51 खंड हुए। ये अंग जहां-जहां गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ स्थापित की गई। यहां सती की दाहिनी जांघ गिरी थी। गुलजार बाग इलाके में स्थित बड़ी पटन देवी मंदिर परिसर में काले पत्थर की बनी महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती की प्रतिमा स्थापित हैं। इसके अलावा यहां भैरव की प्रतिमा भी है।

यहां के बुजुर्गो का कहना है कि सम्राट अशोक के शासनकाल में यह मंदिर काफी छोटा था। इस मंदिर की मूर्तियां सतयुग की बताई जाती हैं। मंदिर परिसर में ही योनिकुंड है, जिसके विषय में मान्यता है कि इसमें डाली जाने वाली हवन सामग्री भूगर्भ में चली जाती है।

देवी को प्रतिदिन दिन में कच्ची और रात में पक्की भोज्य सामग्री का भोग लगता है। यहां प्राचीन काल से चली आ रही बलि-प्रदान की परंपरा आज भी विद्यमान है। भक्तों की मान्यता है कि जो भक्त सच्चे दिल से यहां आकर मां की अराधना करते हैं, उनकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। मंदिर के महंत विजय शंकर गिरि बताते हैं कि यहां वैदिक और तांत्रिक विधि से पूजा होती है।

वैदिक पूजा सार्वजनिक होती है, जबकि तांत्रिक पूजा मात्र आठ-दस मिनट की होती है। परंतु इस मौके पर विधान के अनुसार, भगवती का पट बंद रहता है। वे बताते हैं कि सती की यहां दाहिनी जांघ गिरी थी, इस कारण यह शक्तिपीठों में से एक है। वे कहते हैं कि यह मंदिर कालिक मंत्र की सिद्धि के लिए प्रसिद्ध है।

गिरि कहते हैं कि नवरात्र में यहां महानिशा पूजा की बड़ी महता है। जो व्यक्ति अर्धरात्रि के समय पूजा के बाद पट खुलते ही 2.30 बजे आरती होने के बाद मां के दर्शन करता है उसे साक्षात् भगवती का आशीर्वाद प्राप्त होता है। 

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59 की हुईं मस्तानी आंखों वाली रेखा

यूं तो रेखा की 'आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं' मगर हिंदी फिल्मों की सांवली सलोनी अभिनेत्री सिनेमा जगत में अपने अलहदा रूप-सौंदर्य और आकर्षण के लिए भी खूब मशहूर हैं। उनकी मोहक अदा और मादक आवाज ने उनके अभिनय और संवाद अदायगी के साथ मिलकर दशकों तक बॉलीवुड और सिनेप्रेमियों के दिल में राज किया है।

जेमिनी गणेशन और पुष्पावली की संतान के रूप में 10 अक्टूबर 1954 को जन्मी रेखा का वास्तविक नाम भानुरेखा गणेशन है। सत्तर और अस्सी के दशक की अग्रणी अभिनेत्रियों में शुमार रेखा फिल्मों में शुरुआत बतौर बाल कलाकार तेलुगू भाषा की फिल्म 'रंगुला रत्नम' से कर चुकी थीं। लेकिन 1970 में फिल्म 'सावन भादो' से उन्हें बॉलीवुड में एक अभिनेत्री के रूप में औपचारिक प्रवष्टि मिली और उसके बाद उन्होंने अपने रूप और सौंदर्य के साथ-साथ सिनेमा जगत में अपने अभिनय का भी लोहा मनवाया।

उन्होंने कई यादगार फिल्मों में काम किया। रेखा ने एक तरफ सजा (1972), आलाप (1977), मुकद्दर का सिकंदर (1978), मेहंदी रंग लाएगी (1982), रास्ते प्यार के (1982), आशा ज्योति (1984), सौतन की बेटी (1989),बहूरानी (1989), इंसाफ की देवी (1992), मदर (1999) जैसी मुख्यधारा की फिल्मों में अपने अभिनय के जरिये नाम कमाया तो दूसरी तरफ उनकी निजी जिंदगी भी लोगों के लिए कौतूहल का विषय बनी।

करियर की शुरुआत में ही उनका नाम अभिनेता नवीन निश्चल से जुड़ा तो कभी किरण कुमार के साथ जोड़ा गया, यहां तक कि अभिनेता विनोद मेहरा के साथ गुपचुप शादी कर लेने की खबर भी उड़ी और अमिताभ बच्चन के साथ रेखा के रिश्ते की सरगोशियां तो आज तक लोगों के जुबां से हटी नहीं हैं।

लेकिन नवीन निश्चल के साथ रेखा का नाम जुड़ना उनकी जिंदगी में प्यार के आने और चले जाने की शुरुआत भर थी। नवीन निश्चल और किरण कुमार के साथ रेखा का नाम जोड़कर कुछ समय बाद लोगों ने इन किस्सों को भुला दिया।

इसके बाद रेखा का नाम अभिनेता विनोद मेहरा के साथ जुड़ा, मगर मेहरा ने खुद अपनी शादी की बात कभी नहीं स्वीकारी। अमिताभ बच्चन के साथ रेखा की प्रेम कहानी तो आज भी एक पहेली ही है। कहा जाता है कि 1981 में बनी फिल्म 'सिलसिला' रेखा और जया भादुड़ी (बच्चन) के प्रेम के बीच बंटे अमिताभ की वास्तविक जिंदगी की सच्चाई पर आधारित थी। फिल्म बहुत सफल नहीं रही, बल्कि यह फिल्म रेखा-अमिताभ की जोड़ी वाली आखिरी फिल्म साबित हुई।

रेखा के लिए उद्योगपति मुकेश अग्रवाल के साथ विवाह (1990) भी उनके जीवन का दुर्भाग्य ही रहा। उनके पति ने शादी के एक साल बाद ही फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली, तब रेखा न्यूयार्क गई हुई थीं। इस घटना के लिए रेखा को लंबे समय तक सवालों और आक्षेपों का सामना करना पड़ा था।

रेखा एक बार फिर अपने जीवन में अकेली हो गईं। लेकिन बीच-बीच में सार्वजनिक समारोहों और कार्यक्रमों में शुद्ध कांजीवरम साड़ी और मांग में सिंदूर सजाकर रेखा लोगों के बीच कौतूहल का विषय बनती रहीं। रेखा की जिंदगी में प्यार कई बार और कई सूरतों में आया लेकिन जिस स्थायी सहारे और सम्मान की उन्हें जीवन में चाहत और जरूरत थी, उससे वह महरूम ही रहीं।

साल 2005 में आई फिल्म 'परिणीता' में रेखा पर फिल्माया गीत 'कैसी पहेली जिंदगानी' जैसे वास्तव में रेखा की जिंदगी को शब्दों में पिरोया हुआ गीत हो। रेखा को अपने अब तक के अपने फिल्मी सफर में दो बार (1981,1989) सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर अवार्ड और एक बार सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के फिल्मफेयर अवार्ड (1997) से नवाजा जा चुका है। जीवन के 59 वसंत देख चुकीं खूबसूरत रेखा इस समय राज्यसभा सदस्य होने के साथ-साथ फिल्म जगत में भी सक्रिय हैं। 

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