विश्व प्रसिद्ध है बिहार का सोनपुर मेला

बिहार के सारण और वैशाली जिले की सीमा पर गंगा और गंडक नदी के संगम पर ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले सोनपुर में शनिवार को विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला (हरिहर क्षेत्र मेला) शुरू हो गया। एक महीने तक चलने वाले इस मेले की पहचान ऐसे तो सबसे बड़े पशु मेले की रही है, परंतु मेले में आमतौर पर सभी प्रकार के सामान मिलते हैं। मेले में जहां देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं के क्रय-विक्रय के लिए पहुंचते हैं, वहीं विदेशी सैलानी भी यहां खिंचे चले आते हैं।

मेला प्रारंभ होते ही देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए पहुंचते हैं। पूरा मेला परिसर सज-धज कर तैयार है। मेले के इतिहास के विषय में बताया जाता है कि इस मेले का प्रारंभ मौर्य काल के समय हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने के लिए यहां आते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला क्रांतिकारियों के लिए पशुओं की खरीदारी के लिए पहली पसंद रही।

सोनपुर के बुजुर्गो के अनुसार वीर कुंवर सिंह जनता को अंगेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरुक करने के लिए और अपनी सेना की बहाली के लिए यहां आए व यहां से घोड़ों की खरीदारी भी की थी। सोनपुर निवासी 78 वर्षीय बृजनंदन पांडेय कहते हैं कि इस मेले में हाथी, घोड़े, ऊंट, कुत्ते, बिल्लियां और विभिन्न प्रकार के पक्षियों सहित कई दूसरे प्रजातियों के पशु-पक्षियों का बाजार सजता है। यह मेला केवल पशुओं के कारोबार का बाजार ही नहीं, बल्कि परंपरा और आस्था का भी मिलाजुला स्वरूप है।

इस मेले से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के भक्त हाथी (गज) और मगरमच्छ (ग्राह) के बीच कोनहारा घाट पर संग्राम हुआ था। जब गज कमजोर पड़ने लगा तो उसने अपने अराध्य को पुकारा और भगवान विष्णु ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुदर्शन चक्र चलाकर दोनों के बीच युद्ध का अंत किया था।

इसी स्थान पर हरि (विष्णु) और हर (शिव) का हरिहर मंदिर भी है जहां प्रतिदिन सैकड़ों भक्त श्रद्धा से पहुंचते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान राम ने सीता स्वयंवर में जाते समय किया था। बुजुर्ग बताते हैं कि पूर्व में मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी और ऊंट के साथ यहां आते थे। इस मेले की विशेषता है कि यहां सभी पशुओं का अलग-अलग बाजार लगता है।

धीरे-धीरे इस मेले में पशुओं की संख्या कम होती जा रही है। बिहार पर्यटन विभाग के प्रधान सचिव बी़ प्रधान भी कहते हैं कि सोनपुर मेले में पशुओं की संख्या कम होना चिंता का विषय है। पशुओं के प्रति लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही है। इस वजह से पशुओं की संख्या बढ़ाने के लिए प्रशासन भी अपने स्तर से बहुत कुछ नहीं कर पा रहा है।

प्रधान कहते हैं कि मेले के इतिहास को जीवित रखने के लिए विभाग ने असम, पश्चिम बंगाल समेत दूसरे राज्यों से पशुओं को मंगवाने की कोशिश की है। वे कहते हैं कि मेले के परंपरागत और ग्रामीण स्वरूप बनाए रखते हुए हर साल इसे आधुनिक और आकर्षक रूप प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं।

मेले की धार्मिक, एतिहासिक और पौराणिक महता को देखते हुए और इसे पर्यटन एवं दुनिया के मानचित्र पर लाने के लिए वेबसाइट के साथ-साथ अन्य प्रचार माध्यमों से प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है। इस मेले में नौटंकी, पारंपरिक संगीत, नाटक, जादू, सर्कस जैसी चीजें भी लोगों के मनोरंजन के लिए होती हैं।

सोनपुर बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सोनपुर पहुंचने के लिए सड़क का जरिया सबसे सुगम माना जाता है। सोनपुर में ठहरने के लिए टूरिस्ट विलेज बने हुए हैं जो उचित दर पर उपलब्ध हैं। 

www.pardaphash.com

जब मौलवी की खुल गईं आंखें गुरु नानक ने किया पानी-पानी

गुरु नानक एक जगह से दूसरी जगह बराबर घूमते रहते थे। एक बार वे घूमते-फिरते मक्का जा पहुंचे। वहां पर वे मस्जिद में बेफिक्री के साथ सोए हुए थे। नमाज का वक्त था। संयोग से उनके पांव काबा की ओर थे। वहां के बड़े मुल्ला ने उनको इस तरह लेटे हुए देखा तो आग बबूला हो गया और उनके पास जाकर उन्हें झकझोरते हुए बोला, "अरे काफिर, तुम्हें कुछ पता भी है कि कैसे सोना चाहिए। खुदा की तरफ पांव किए सोए हो। बड़े बदतमीज हो। उठो और खुदा से अपने गुनाह के लिए माफी मांगो।" 

गुरु नानक ने हंसते हुए कहा, "मौलवी साहब, आप बजा फरमाते हैं, मुझे सचमुच ही तमीज नहीं कि खुदा की ओर पांव करके नहीं सोना चाहिए। लेकिन मेहरबानी करके आप ही मेरे पांव उस तरफ कर दीजिए, जिस तरफ खुदा न हो।"

मौलवी नसीहत देने की बात भूलकर पानी-पानी हो गया।

धरती का रस : 

एक राजा था। एक बार वह सैर करने के लिए अपने शहर से बाहर गया। लौटते समय देर हो गई तो वह एक किसान के खेत में विश्राम करने के लिए ठहर गया। किसान की बूढ़ी मां खेत में मौजूद थी। राजा को प्यास लगी तो उसने बुढ़िया से कहा, "बुढ़िया माई, प्यास लगी है, थोड़ा-सा पानी दे।"

बुढ़िया ने सोचा, एक पथिक अपने घर आया है, चिलचिलाती धूप का समय है, इसे सदा पानी क्या पिलाऊंगी। यह सोचकर उसने अपने खेत में गन्ना तोड़ लिया और उसे निचोड़कर एक गिलास रस निकाल कर राजा के हाथ में दे दिया। राजा गóो का वह मीठा और शीतल रस पीकर तृप्त हो गया। उसने बुढ़िया से पूछा, "माई! राजा तुमसे इस खेत का लगान क्या लेता है?"

बुढ़िया बोली, "इस देश का राजा बड़ा दयालु है। बहुत थोड़ा लगान लेता है। मेरे पास बीस बीघा का खेत है। उसका साल में एक रुपया लेता है।"

राजा के मन में लोभ आया। उसने सोचा, बीस बीघा के खेत का लगान एक रुपया ही क्यों हो! उसने मन में तय किया कि शहर पहुंचकर इस बारे में मंत्री से सलाह करके खेतों का लगान बढ़ाना चाहिए। यह विचार करते-करते उसकी आंख लग गई।

कुछ देर बाद वह उठा तो उसने बुढ़िया माई से फिर गóो का रस मांगा। बुढ़िया ने फिर एक गन्ना तोड़ा और उसे निचोड़ा, लेकिन इस बार बहुत कम रस निकला। मुश्किल से चौथाई गिलास भरा होगा। बुढ़िया ने दूसरा गन्ना तोड़ा। इस तरह चार-पांच गन्नों को निचोड़ा, तब जाकर गिलास भरा।

राजा यह दृश्य देख रहा था। उसने किसान की बूढ़ी मां से कहा, "माई, पहली बार तो एक गóो से ही पूरा गिलास भर गया था, इस बार वही गिलास भरने के लिए चार-पांच गóो तोड़ने पड़े, इसका क्या कारण है?"

किसान की मां बोली, "यह बात तो मेरी समझ में भी नहीं आती। धरती का रस तो तब सूखा करता है जब राजा की नीयत में फर्क, उसके मन में लोभ आ जाता है। बैठे-बैठे इतनी ही देर में ऐसा कैसे हो गया! फिर हमारे राजा तो प्रजा की भलाई करने वाले, न्यायी और धरम बुद्धिवाले हैं। उनके राज्य में धरती का रस कैसे सूख सकता है।"

बुढ़िया का इतना कहना था कि राजा को चेत हो गया कि राजा का धर्म प्रजा का पोषण करना है, शोषण करना नहीं और उसने तत्काल लगान न बढ़ाने का निर्णय कर लिया।

..और मौलवी की आंखें खुल गईं :

एक स्त्री शाम को अभिसार के लिए अपने घर से निकली। वह इतनी मस्त हो रही थी कि उसके पांव सीधे नहीं पड़ रहे थे और न उसे अपना-पराया ही कुछ सूझ रहा था। रास्ते में मस्जिद के बड़े मौलवी अपना मुसल्ला बिछाए उस पर नमाज पढ़ रहे थे। अनजाने में वह नमाज के लिए बिछे मुसल्ले को रौंदती हुई निकल गई। मौलवी को बड़ा गुस्सा आया, लेकिन वह उस समय कुछ बोले नहीं, क्योंकि बोलने से नमाज में खलल पड़ने का डर था।

नमाज पूरी होने पर भी वह वहीं बैठे रहे और इस बात की प्रतीक्षा करने लगे कि वह स्त्री वापस आए तो उसे उलाहना दें, धमकाएं और आगे के लिए नसीहत दें। कुछ देर बाद वह स्त्री वापस आई तो मौलवी ने कहा, "भली मानस, तुम्हें दीखता नहीं, मैं खुदा की इबादत कर रहा था और तुम मेरे नमाज के लिए बिछाए हुए मुसल्ले को रौंदती, उसे नापाक करके आगे बढ़ गईं! तुम्हारी आंखें फूटी तो नहीं हैं! जरा देखकर चला करो।"

स्त्री ठहाका मारकर हंसी। बोली, "मौलवी साहब, खता माफ हो, लेकिन मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं कि अगर आप खुदा की इबादत कर रहे थे तो आपको यह सूझ कैसे पड़ा कि कौन आया था और कौन गया था? इबादत करने वाला तो उसे कहते हैं, जिसके लिए यह कहा जा सके कि "तन की कछु न सम्हार।"

इतना सुनते ही मौलवी की आंखें खुल गईं।

www.pardaphash.com

सिख धर्म के संस्थापक गुरुनानक की जयंती पर विशेष.......

हमारे समाज में गुरू का स्थान भगवान के समान ही माना जाता है और गुरू की महिमा का व्याखान हमें ग्रंथों और पुराणों में भी मिलता है। भारत के सिक्ख धर्म के पहले गुरू नानक देव भी अपने धर्म के सबसे बड़े गुरू माने जाते हैं और उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में गुरू की महिमा का व्याख्यान किया और समाज में प्रेम भावना को फैलाने का कार्य किया। गुरू नानकदेव जी ने अपनी शिक्षा से लोगों में एकता और प्रेम को बढ़ावा दिया।

नानक देव जी के जीवन के अनेक पहलू हैं. वे जन सामान्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले महान दार्शनिक, विचारक थे तथा अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को झंकृत कर देने वाले महान संत कवि भी थे। उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं। ईश्वर सबका साझा पिता है। फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंचे-नीचे कैसे हो सकते है।

(अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत के सब बंदे एक नूर तेसब जग उपज्या, कौन भले को मंदे)

गुरु नानक का जन्म आधुनिक पाकिस्तान में लाहौर के पास तलवंडी में 15 अप्रैल, 1469 को एक हिन्दू परिवार में हुआ जिसे अब ननकाना साहब कहा जाता है। पूरे देश में गुरु नानक का जन्म दिन प्रकाश दिवस के रूप में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। नानक के पिता का नाम कालू एवं माता का नाम तृप्ता था।

बचपन से ही गुरु नानक में आध्यात्मिकता के संकेत दिखाई देने लगे थे। बताते हैं कि उन्होंने बचपन में उपनयन संस्कार के समय किसी हिन्दू आचार्य से जनेऊ पहनने से इंकार किया था। सोलह वर्ष की उम्र में उनका सुखमणि से विवाह हुआ जिससे उनके दो पुत्र श्रीचंद और लक्ष्मीचंद थे। लेकिन गुरु नानक देव का मन बचपन से ही अध्यात्म की तरफ ज्यादा था। वह सांसारिक सुख से परे रहते थे। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहते थे पर वो कामयाब नहीं हो पाए। एक बार उनके पिता ने उन्हें व्यापार के लिए कुछ रूपये दिए लेकिन गुरु नानक ने उस धन को साधुसेवा में लगा दिया और अपने पिताजी से कहा कि यही सच्चा व्यापार है।

एक कथा के अनुसार गुरु नानक नित्य प्रात: बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। एक दिन वे स्नान करने के बाद वन में ध्यान लगाने के लिए गए और उन्हें वहां परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा – मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, मैंने तुम्हें आनन्दित किया है। जो तुम्हारे सम्पर्क में आएंगे, वे भी आनन्दित होंगे। जाओ नाम में रहो, दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओ। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर मूला को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। गुरु जी ने इन उपदेशों को अपने जीवन में अमल में लाकर स्वयं एक आदर्श बन सामाजिक सद्भाव की मिसाल कायम की।

लंगर 

उन्होंने लंगर की परंपरा चलाई, जहां अछूत लोग, जिनके समीप से उच्च जाति के लोग बचने की कोशिश करते थे, ऊंची जाति वालों के साथ बैठकर एक पंक्ति में बैठकर भोजन करते थे। आज भी सभी गुरुद्वारों में गुरु जी द्वारा शुरू की गई यह लंगर परंपरा कायम है। लंगर में बिना किसी भेदभाव के संगत सेवा करती है। इस जातिगत वैमनस्य को खत्म करने के लिए गुरू जी ने संगत परंपरा शुरू की। जहां हर जाति के लोग साथ-साथ जुटते थे, प्रभु आराधना किया करते थे। गुरु जी ने अपनी यात्राओं के दौरान हर उस व्यक्ति का आतिथ्य स्वीकार किया, उसके यहां भोजन किया, जो भी उनका प्रेमपूर्वक स्वागत करता था, कथित निम्न जाति के समझे जाने वाले मरदाना को उन्होंने एक अभिन्न अंश की तरह हमेशा अपने साथ रखा और उसे भाई कहकर संबोधित किया। इस प्रकार तत्कालीन सामाजिक परिवेश में गुरु जी ने इन क्रांतिकारी कदमों से एक ऐसे भाईचारे की नींव रखी जिसके लिए धर्म-जाति का भेदभाव बेमानी था।

गुरु नानक की पहली 'उदासी' विचरण यात्रा अक्टूबर, 1507 ई. में 1515 ई. तक रही। इसमें उन्होंने हरिद्वार, अयोध्या, जगन्नाथ पुरी रामेश्वर, सोमनाथ द्वारिका, नर्मदातट, बीकानेर, पुष्कर तीर्थ, दिल्ली पानीपत, कुरुक्षेत्र, मुल्तान, लाहौर आदि की यात्राये की। उन्होंने बहुतों का हृदय परिवर्तन किया, ठगों को साधु बनाया, वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया, अहंकारियों का अहंकार दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। जीवन भर देश विदेश की यात्रा करने के बाद गुरु नानक अपने जीवन के अंतिम चरण में अपने परिवार के साथ करतापुर बस गए थे। गुरु नानक ने 25 सितंबर, 1539 को अपना शरीर त्याग दिया। ऐसा कहा जाता हैं कि नानक के निधन के बाद उनकी अस्थियों की जगह मात्र फूल मिले थे। इन फूलों का हिन्दू और मुसलमान अनुयायियों ने अपनी अपनी धार्मिक परंपराओं के अनुसार अंतिम संस्कार किया।

गुरुनानक देव की दस शिक्षाएं 

1. ईश्वर एक है।
2. सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
3. ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।
4. ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
5. ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
6. बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं।
7. सदैव प्रसन्न रहना चाहिए. ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
8. मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से ज़रूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
9. सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
10. भोजन शरीर को ज़िंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरी है।

निर्गुण उपासना

गुरुनानक आरंभ से ही भक्त थे अत: उनका ऐसे मत की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था, जिसकी उपासना का स्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को समान रूप से ग्राह्य हो। उन्होंने घर बार छोड़ बहुत दूर दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की 'निर्गुण उपासना' का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख सम्प्रदाय के आदिगुरु हुए। कबीरदास के समान वे भी कुछ विशेष पढ़े लिखे न थे। भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे उनका संग्रह (संवत् 1661) ग्रंथसाहब में किया गया है। ये भजन कुछ तो पंजाबी भाषा में हैं और कुछ देश की सामान्य काव्य भाषा हिंदी में हैं। यह हिन्दी कहीं तो देश की काव्यभाषा या ब्रजभाषा है, कहीं खड़ी बोली जिसमें इधर उधर पंजाबी के रूप भी आ गए हैं।

www.pardaphash.com

भावनाओं में बहाकर चले गए सचिन

वानखेड़े स्टेडियम में सचिन तेंदुलकर का अंतिम सम्बोधन पूरी तरह भावनाओं से ओतप्रोत रहा। अपने इस सम्बोधन में सचिन अपने परिवार सहित ऐसे किसी शख्स या संगठन को धन्यवाद करना नहीं भूले, जो किसी न किसी रूप से उनके करियर से जुड़ा रहा हो। सचिन अपने सम्बोधन के दौरान खुद भी भावनाओं में बहे और खुद को सुन रहे लोगों को भी बहा दिया।

दरअसल, यह सचिन से देशवासियों का प्यार भरा लगाव ही था, जिसने उन्हें भावनाओं से ओतप्रोत कर दिया। 24 साल और एक दिन तक अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट को हर पल जीने वाले इस खिलाड़ी की आगे की जिंदगी क्या होगी, अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन उनकी पत्नी अंजलि ने साफ कर दिया कि क्रिकेट के बगैर सचिन के जीवन की सम्भावना तलाशना बेमानी है।

अंजलि के मुताबिक सचिन का जन्म ही क्रिकेट के लिए हुआ है। अंजलि की यह बात उस समय बिल्कुल सही लगी, जब सचिन ने अपने सम्बोधन की शुरुआत में कहा कि 22 गज के बीच 24 साल की उनकी जिंदगी आज खत्म हो रही है लेकिन वह उन सभी लोगों को आज के दिन याद करना चाहते हैं, जिन्होंने किसी न किसी रूप में उन्हें यहां तक पहुंचाने में योगदान दिया है।

सचिन कहा, "मेरे पिता मेरे लिए प्रेरणा का सबसे बड़ा स्रोत थे। वह मुझे एक अच्छा इंसान बनाना चाहते थे और मैंने हमेशा कोशिश की कि एक अच्छा इंसान बना रहूं। आज के दिन मैं अपने पिता की कमी महसूस कर रहा हूं।"

''मेरी मां ने कभी नहीं जाना कि क्रिकेट क्या चीज है। जहां तक मैं समझता हूं कि मेरे जैसे बच्चे को बड़ा करने में उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़े होंगे लेकिन मां हर तरह से मेरे साथ रही। मां ने एक खिलाड़ी होने के नाते मेरे स्वास्थ्य और खानपान का पूरा ध्यान रखा। धन्यवाद मां।"

सचिन ने कहा कि उनकी बड़ी बहन सविता ने ही उन्हें सबसे पहला बैट गिफ्ट किया था। वह अपनी बहन, उनके परिवार, अपने सबसे बड़े भाई नितिन और अजीत को धन्यवाद देना चाहते हैं। सचिन के मुताबिक उन्होंने अजीत के साथ ही एक क्रिकेट खिलाड़ी बनने का सपना पाला था और इसमें अजीत ने अहम योगदान दिया।

इसके बाद सचिन ने अपनी पत्नी और बच्चों को धन्यवाद दिया। ऐसा करते हुए सचिन अपना भावनाओं पर काबू नहीं रख सके और उन्हें छुपाने के लिए पानी का सहारा लिया। अंजलि भी अपने आंखों से आंसू को नहीं रोक पाईं।

सचिन ने कहा, "मेरे जीवन का सबसे हसीन पल 1999 में आया, जब मैंने अंजलि से शादी की। अंजलि ने परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ली और मुझे आजाद कर दिया देश और दुनिया घूमकर क्रिकेट खेलने के लिए। मैं समझता हूं कि अगर अंजलि नहीं होतीं तो मेरा करियर ऐसा नहीं होता। धन्यवाद अंजलि"

सचिन बोले, "मेरा बेटा अर्जुन 16 और बेटी सारा 14 साल की है। इन दोनों ने उम्र के इस पड़ाव पर बहुत कम ही मेरा साथ पाया है। मैं जब कभी स्कूल में पैरेंट्स मीटिंग में नहीं जाता या फिर होमवर्क कराने में इनकी मदद नहीं कर पाता तो इन्होंने कभी इसकी शिकायत नहीं की। धन्यवाद सारा और अर्जुन। मैं आज आपसे वादा करता हूं कि आने वाले 16 और 14 साल तक मैं हर वक्त आपके साथ रहूंगा।"

इसके बाद सचिन ने मुम्बई क्रिकेट संघ, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, मीडिया (प्रिंट इलेक्ट्रानिक एवं फोटोग्राफरों), चयनकर्ताओं, फिजियो, ट्रेनरों और तमाम टीम सहयोगियों को धन्यवाद दिया। इसी दौरान स्टेडियम की बड़ी स्क्रीन पर राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण और सौरव गांगुली को दिखाया गया, तब सचिन ने कहा कि आज की उनकी टीम और इन तीनों के बगैर वह अपने करियर को इस रूप में नहीं सोच सकते थे।

सचिन ने कहा, "राहुल, सौरव और लक्ष्मण मेरे लम्बे समय के साथी रहे हैं। आज अनिल (कुम्बले) यहां नहीं हैं लेकिन मैंने इन सबके साथ शानदार वक्त बिताया है। मैं इतना कहना चाहता हूं कि हम सबको भारत के लिए खेलने का मौका मिला और हमें इसके लिए ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए क्योंकि ईश्वर ने हमें इस खास काम के लिए चुना है।"

सचिन का इतना कहना था कि राहुल अपनी भावनाओं को छुपा नहीं सके। वह काफी रुअांसे नजर आ रहे थे। गांगुली और लक्ष्मण का भी यही हाल था।

इसके बाद सचिन ने विराट कोहली के कंधे पर बैठकर भारतीय टीम के अपने साथियों के साथ तिरंगा हाथ में लेकर मैदान का चक्कर लगाया और फिर हमेशा के लिए सक्रिय क्रिकेट से दूर चले गए। यह एक युग के अवसान का समय था। एक ऐसा युग, जिसमें सचिन ने हर एक कीर्तिमान को अपना गुलाम और दुनिया भर के अरबों लोगों को अपना मुरीद बनाए रखा।

www.pardaphash.com

उमा भारती के मुकाबले कांग्रेस की साधना भारती

कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में प्रचार के मामले में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को उसी के अंदाज में जवाब देने की रणनीति बनाई है। इस क्रम में उसने उमा भारती के मुकाबले साधना भारती को मैदान में उतारा है। इन दिनों साधना भारती पूरे राज्य में उमा भारती की तर्ज पर प्रचार में जुटी हुई हैं। 

भाजपा ने राज्य में उमा भारती को स्टार प्रचारक के तौर पर कई सभाओं की जिम्मेदारी सौंपी है। इसके जवाब में कांग्रेस ने साधना भारती को मैदान में उतारा है। 

साध्वी उमा भारती गेरुआ वस्त्र पहनती हैं तो साधना भारती पीतांबर धारण करती हैं। दोनों अपने अंदाज में एक-दूसरे दल पर हमले बोल रही हैं। उमा राज्य सरकार की खूबी और केंद्र की नाकामी गिना रही हैं तो साधना राज्य सरकार की विफलताओं व केंद्र की जनकल्याणकारी योजनाओं का ब्यौरा दे रही हैं।

उल्लेखनीय है कि उमा और साधना दोनों ही लोधी समाज से आती हैं। उमा भारती धार्मिक प्रवचन के साथ ही राजनीति में लम्बे अरसे से सक्रिय हैं, तो कांग्रेस ने बाल कथावाचक से चर्चा में आईं साधना को राजनीति में उतारा है। साधना पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस का प्रचार करने आई थीं।

साधना ने बताया कि पार्टी के निर्देश पर उन्होंने चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है। साधना ने अपने अभियान की शुरुआत उमा भारती के बुंदेलखंड क्षेत्र से की है। उन्होंने गुरुवार को छतरपुर जिले में तीन सभाएं की। इन सभाओं में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह भी मौजूद थे।

साधना ने बताया कि कांग्रेस ने उन्हें 23 नवंबर तक राज्य में रहकर चुनाव प्रचार करने को कहा है। वह शनिवार को गुना जिले में प्रचार पर जा रही हैं। साधना का कहना है कि भाजपा वह दल है, जिसके लिए किसी वर्ग की कोई अहमियत नहीं हैं। उसे न तो महिलाओं के सम्मान की चिंता है और न ही समाज में सद्भाव बनाने की।

साधना ने कहा कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष पार्टी है, यह सभी वर्गो को साथ लेकर चलती है और इस दल का नेतृत्व जिस गांधी परिवार के पास है, उसे प्रधानमंत्री पद का कोई लालच नहीं है।

साधना का कहना है कि एक ओर कांग्रेस है तो दूसरी ओर भाजपा, बसपा व सपा हैं, जिनका धर्म निरपेक्षता में कोई भरोसा नहीं हैं। वे अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए किसी हद तक जाकर सांप्रदायिकता का जहर घोल सकते हैं।

साधना भारती ने आरोप लगाया कि भाजपा ने मध्य प्रदेश का बुरा हाल कर रखा है। यहां भ्रष्टाचार चरम पर है, भाजपा नेता प्रदेश लूटने में लगे हैं। उन्हें जनता के दुख-दर्द का ख्याल नहीं है। राज्य में भाजपा सड़क, बिजली और पानी केमुद्दे पर सत्ता में आई थी, मगर उसने इन समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया। 

उमा भारती की तर्ज पर साधना भारती को प्रचार में उतारे जाने के सवाल पर वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर ने कहा कि उमा भारती और साधना भारती का कोई जोड़ नहीं है। साधना, उमा का कितना विकल्प बन पाएंगी, यह कहना कठिन है। लेकिन राजनीतिक दल ऐसे प्रयोग चुनाव के दौरान भीड़ जुटाने के लिए करते रहते हैं, और साधना भी इसका हिस्सा हैं।
www.pardaphash.com

शोभन सरकार ने कहा, 48 घंटे में सोना निकाल देंगे

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौंडियाखेड़ा स्थित राजा राव रामबख्श सिंह के खंडहरनुमा किले में खजाना दबा होने का सपना देखने वाले संत बाबा शोभन सरकार ने शुक्रवार को केंद्र व प्रदेश सरकार से कहा है कि सभी को खनन स्थल से हटा लें और उन्हें 48 घंटे का समय दें। अपने संसाधनों से वह खजाना निकालकर दिखा देंगे। डौंडियाखेड़ा से सटे बक्सर इलाके स्थित अपने आश्रम में स्थानीय पत्रकारों को बुलाकर संत शोभन सरकार ने कहा कि मुझे खजाना निकालने दिया जाए। अब एएसआई के बस का नहीं है। उसे खजाना नहीं मिलेगा। 

सरकार ने कहा कि विदेशी लोग ऋषियों के इस देश को साधू सपेरों का देश कहते हैं। सोना निकाल विदेशी आंखों में लगा विज्ञान का चश्मा हटाना है। उन्होंने कहा कि यह पता होना चाहिए कि विज्ञान जहां से खत्म होता है अध्यात्म वहीं से शुरू होता है।

अब तक 24 दिन खुदाई हो चुकी है। किले में दबे कथित खजाने को निकालने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) अब आगे खुदाई करेगी या नहीं, इसे लेकर संशय की स्थिति बनी है। शुक्रवार को मुहर्रम की छुट्टी के चलते खुदाई बंद रही। दो दिन और खुदाई बंद होने की बात कही जा रही है।

अब तक दूसरे ब्लाक में 6. 10 मीटर खुदाई हो चुकी है। पहले ब्लाक में 5. 96 मीटर की खुदाई के बाद प्राकृतिक सतह मिलने के बाद खनन का काम बंद कर दिया गया था। 

गौरतलब है कि शोभन सरकार ने किले के नीचे एक हजार टन सोना दबे होने का सपना देखा था। उनके सपने के आधार पर एएसआई द्वारा खुदाई शुरू की गई, लेकिन बाद में सोना मिलने की संभावना क्षीण होते देख किरकिरी से बचने के लिए एएसआई ने कहा कि वह खुदाई सोने के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अवशेषों के लिए कर रही है।

सचिन का संन्यास, एक युग का समापन

 
विश्व क्रिकेट को भारत की सबसे महान देन-सचिन तेंदुलकर ने अपने 24 साल और एक दिन के ओजस्वी करियर के बाद शनिवार को संन्यास ले लिया। वेस्टइंडीज के खिलाफ वानखेड़े स्टेडियम में खेलते हुए भारतीय टीम ने सचिन को उनके करियर के 200वें टेस्ट में पारी की जीत का शानदार तोहफा और गार्ड ऑफ ऑनर दिया। 

सचिन ने मैदान से बाहर जाते हुए अपने साथियों और दर्शकों अभिनंदन स्वीकार किया। सचिन के संन्यास के साथ ही भारत ही नहीं बल्कि विश्व क्रिकेट में एक युग का समापन हो गया। एक ऐसा युग, जिसमें इस महान खिलाड़ी ने क्रिकेट के हर रिकार्ड को अपनी धरोहर बनाकर रखा और मैदान के बाहर तथा मैदान के अंदर करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहे।

सचिन ने 10 नवम्बर को संन्यास की घोषणा की थी। सचिन ने अपने संदेश में कहा था, "मैंने जीवन में देश के लिए खेलने का सपना पाला था। बीते 24 साल से मैं हर दिन इस सपने को जी रहा हूं। मेरे लिए क्रिकेट के बगैर रहना नामुमकिन सा लगता है क्योंकि 11 साल की उम्र से मैं इस खेल के साथ रचा-बसा हूं। देश के लिए खेलना मेरे लिए महान सम्मान की बात है। मैं अपने घरेलू मैदान पर 200वां टेस्ट मैच खेलते हुए इस महान खेल को अलविदा कहना चाहता हूं।"

"बीते सालों में मेरा साथ देने के लिए मैं बीसीसीआई को धन्यवाद कहना चाहता हूं। साथ ही मैं अपने परिवार को उसके संयम और मेरी भावना को समझने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूं। सबसे बाद में और सबसे अधिक दिल से मैं अपने प्रशंसकों को धन्यवाद कहना चाहता हूं, जिन्होंने लगातार अपनी प्रार्थनाओं और हौसलाअफजाई से मुझे अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करनी की क्षमता और शक्ति प्रदान की।"

दिग्गजों ने सराहा : 

सचिन के संन्यास के बाद दिग्गजों ने उनकी जमकर सराहना की । श्रीलंका की विश्वकप विजेता टीम के कप्तान अर्जुन रणतुंगा ने ट्वीट करते हुए कहा, "भारतीय क्रिकेट जगत के लिए यह एक दुखद दिन है। टेस्ट क्रिकेट के लिए वास्तव में यह एक बड़ा नुकसान है। अपने पूरे करियर के दौरान खेल को लेकर उनकी प्रतिबद्धता अद्वितीय रही।"

प्रख्यात अंपायर डिकी बर्ड ने कहा कि तेंदुलकर का खेल डॉन ब्रैडमैन के समतुल्य था। तेंदुलकर के पर्दापण मैच में कप्तान रहे के. श्रीकांत ने कहा कि सचिन का 200 टेस्ट मैचों में हिस्सा लेने और 100 शतक लगाना अद्वितीय है।"

पूर्व भारतीय बल्लेबाज दिलीप वेंगसरकर ने कहा, "उन्होंने पूरी दुनिया के गेंदबाजों पर विजय पाई है। उनके रिकॉर्डो को तोड़ पाना बहुत मुश्किल है।"

इंग्लैंड क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान माइकल वॉन ने लिखा, "सार्वकालिक महान क्रिकेटरों में से एक सचिन, मेरे आदर्श खिलाड़ियों में से एक और जिनके खिलाफ खेलना सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी।"

भारत के 'सम्मान पुरुष' हैं सचिन : 

सचिन ने अपने 24 साल के करियर में अनेक मान-सम्मान और अलंकरण हासिल किए। वह खेलों के माध्यम से राज्य सभा में आए और देश का सबसे बड़ा खेल सम्मान तथा दूसरा सबसे बड़ा नागरिक अलंकरण हासिल किया।

-1997 में सचिन को विजडन क्रिकेटर ऑफ द इअर चुना गया।

-केंद्र सरकार ने 1997-98 में ही सचिन को देश के सबसे बड़े खेल सम्मान-राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाजा था।

-वर्ष 1999 में सचिन पद्मश्री से नवाजे गए थे। उससे पहले 1994 में सचिन को अर्जुन पुरस्कार दिया गया था।

-सचिन को 2008 में उनकी उपलब्धियों के लिए देश के दूसरे सबसे बड़ा नागरिक अलंकरण-पद्म विभूषण से नवाजा गया। 

-वर्ष 2001 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें प्रदेश के सबसे बड़े नागरिक अलंकरण-महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार से नवाजा।

-2003 में सचिन विश्व कप के सबसे अच्छे खिलाड़ी रहे।

-वह 2004, 2007 और 2010 में आईसीसी वर्ल्ड ओडीआई इलेवन का हिस्सा रहे।

-2005 में सचिन को राजीव गांधी पुरस्कार से नवाजा गया।

-सचिन ने 2009, 2010 और 2011 में आईसीसी वर्ल्ड टेस्ट इलेवन में जगह बनाई। 

-वर्ष 2010 में सचिन को 'विजडन लीडिंग क्रिकेटर इन द वर्ल्ड' पुरस्कार मिला था।

-2010 में ही आईसीसी ने सचिन को वर्ष के श्रेष्ठ क्रिकेट खिलाड़ी का सर गैरी सोबर्स ट्रॉफी प्रदान किया था।

-2010 में ही सचिन को एली पीपुल्स च्वाइस अवार्ड मिला था।

-2011 में सचिन को कैस्ट्राल इंडियन क्रिकेटर ऑफ द इअर अवार्ड से नवाजा गया।

-2011 में ही सचिन को बीसीसीआई क्रिकेटर ऑफ द इअर से नवाजा गया।

-2010 में सचिन को भारतीय वायु सेना ने मानद ग्रुप कैप्टन नियुक्त किया।

-2012 में सचिन को विजडन इंडिया आउटस्टैंडिंग अचीवमेंट अवार्ड दिया गया।

-2012 में ही सचिन को आस्ट्रेलिया सरकार ने ऑनरेरी मेम्बर ऑफ द आर्डर ऑफ आस्ट्रेलिया से नवाजा।

'रिकार्ड पुरुष' भी हैं सचिन : 

-सर्वाधिक 200 टेस्ट , सचिन ने अपना पहला टेस्ट 15 नवम्बर, 1989 में पाकिस्तान के खिलाफ कराची में खेला और अंतिम टेस्ट मुम्बई में 14 नवम्बर, 2013 को वेस्टइंडीज के साथ खेला।

-सर्वाधिक 463 एकदिवसीय मैच, सचिन ने अपना पहला एकदिवसीय मैच 18 दिसम्बर, 1989 को पाकिस्तान के खिलाफ गुजरावाला में खेला। अंतिम एकदिवसीय मैच 18 मार्च, 2012 को पाकिस्तान के खिलाफ ढाका में खेला।

-टेस्ट मैचों में सर्वाधिक 15,921 रन, टेस्ट मैचों में सचिन के नाम 68 अर्धशतक और 115 कैच भी दर्ज हैं।

-एकदिवसीट मैचों में सर्वाधिक 18,426 रन, एकदिवससीय मैचों में सचिन के नाम 96 अर्धशतक और 140 कैच हैं।

-टेस्ट मैचों में सर्वाधिक 51 शतक, सचिन का सर्वाधिक व्यक्तिगत योग नाबाद 248 रन है।

-एकदिवसीय मैचों में सर्वाधिक 49 शतक, एकिदवसीय मैचों में सचिन का सर्वाधिक व्यक्तिगत योग नाबाद 200 रन है।

-एकदिवसीय मैच में सबसे पहले 200 रनों का व्यक्तिगत आंकड़ा पार करने वाले बल्लेबाज

-प्रतिस्पर्धी क्रिकेट में 50,000 रनों का आंकड़ा पार करने वाले पहले भारतीय

-आईसीसी क्रिकेट विश्व कप में सर्वाधिक छह शतक लगाने वाले बल्लेबाज

-आईसीसी क्रिकेट विश्व कप में 2000 रनों का आंकड़ा पार करने वाले पहले बल्लेबाज

-एक कैलेंडर वर्ष (1998) में सर्वाधिक 1894 एकदिवसीय रनों का रिकार्ड।

www.pardaphash.com

इमाम हुसैन की शहादत की याद है मुहर्रम

दुनिया के विभिन्न धर्मो के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमे सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम मास है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।

रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जब 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र याजीद राज सिंहासन पर बैठे। सिंहासन पर बैठते ही याजीद ने मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर मेरी आज्ञाओं का पालन करने और इस्लाम के सिद्धांतों को ध्यान में लाने के लिए कहो। यदि वह न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाए। 

वलीद पुत्र अतुवा ने 25 या 26 रजब 60 हिजरी को रात्रि के समय हजरत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन ने वलीद से कहा, "मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी, खुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता।" इसके बाद इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ पहुंचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें। लेकिन वहां पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम को बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बना कर हुसैन का कत्ल करने भेज दिया। 

हजरत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रूप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहां पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कि मक्का में किसी प्रकार का खून-खराबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप प्रथा जिसको इस्लामिक रूप से उमरा कहते हैं, अदा किया। हजरत हुसैन इसके बाद अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गए। 

मुहर्रम मास की 2 तारीख 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुंचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। लेकिन हजरत इमाम हुसैन की बातों का यजीद की फौज पर कोई असर नहीं हुआ। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हजरत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को आसुर की रात कहा जाता है।

हजरत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई। 

सुबह नमाज से असर तक इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गए। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गए। खेमे में शोर सुनकर इमाम साहब खेमे में गए तो देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हजरत इमाम हुसैन ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आए।

हजरत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद तीन दिन से भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन साहब का कत्ल कर दिया गया। हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है।

www.pardaphash.com

हर घर से रिश्ता चाहते हैं 'पेड़ वाले बाबा'

विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जाकर छात्रों का मानवीय विषयों एवं प्रकृति की ओर ध्यान खींचना और वृक्ष को अपनी बेटी मानते हुए हर घर के सामने एक पेड़ लगाकर उस घर से दिली रिश्ता जोड़ना 'पेड़ वाले बाबा' के जीवन का उद्देश्य है। बाबा अपनी मुहिम में कुछ हद तक सफल भी हुए हैं। उनकी इस लगन के लिए राज्यपाल बी.एल. जोशी ने उन्हें सम्मानित भी किया है। 

पेड़ वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध आचार्य चंद्रभूषण तिवारी की जीवन यात्रा की कहानी बड़ी ही मर्मस्पर्शी है। उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के एक छोटे से गांव भंटवा तिवारी में पैदा हुए इस शख्स ने एक ऐसी मुहिम शुरू करने का फैसला किया, जिससे उनकी जिंदगी बदल गई। अब तिवारी राजधानी और सूबे के अन्य हिस्सों में पेड़ वाले बाबा के नाम से मशहूर हैं। आचार्य चंद्रभूषण तिवारी उर्फ पेड़ वाले बाबा ने बातचीत में अपने जीवन के उन पहलुओं को भी सामने रखा, जिससे आम आदमी कुछ सीख सकता है।

तिवारी ने कहा कि गांव के जिस स्कूल में पढ़ता था वहां हर शनिवार बालसभा होती थी। मैं भी उसमें हिस्सा लेता था। बाद में मैं अपने गांव में भी बालसभा कराने लगा। इस दौरान मैं लोगों को आम, जामुन और कटहल के पौधे भी देता था। इस काम से गांव में प्रशंसा मिली। भटवां तिवारी गांव में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के बाद तिवारी लखनऊ आ गए। लखनऊ विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की उपाधि हासिल की। फिर बीएड किया और उन्हें केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिल गई। 

बकौल तिवारी, "लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मैं राजधानी की झुग्गी-झोपड़ियों में बच्चों के बीच चला जाता था। राजधानी में घर-घर जाकर बच्चों के लिए पुराने कपड़े दान के तौर पर ले आता था। गरीब-बेसराहा बच्चे काफी खुश होते थे।" तिवारी बताते हैं कि वर्ष 1995 उनके जीवन में निर्णायक साबित हुआ। वह ओडिशा में केंद्रीय विद्यालय में तैनात थे। लखनऊ के गरीब बच्चों ने उन्हें चिट्ठी लिखी। बच्चों ने लिखा था, "अंकल आप कब आओगे, खिलौने और मिठाई कब लाओगे। किताबें कब मिलेंगी।" पत्र पढ़ने के बाद तिवारी ने नौकरी छोड़ लखनऊ आने का फैसला किया।

नौकरी छोड़ने के बाद शुरू हुई पेड़ वाले बाबा की असली कहानी। लखनऊ आने पर उन्होंने बच्चों से मुलाकात की। फिर उनका जीवन बच्चों और वृक्षों को समर्पित हो गया। राजधानी में सालेहनगर, सेक्टर एम 1 आशियाना, औरंगाबाद रेलवे क्रॉसिंग के पास और हनीमैन चौराहे के पास तिवारी ने चार स्कूल खोल रखे हैं। इन स्कूलों में गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते हैं।

तिवारी बताते हैं कि हर घर से दान लेने के बदले वहां एक वृक्ष लगाकर रिश्ता जोड़ने की मुहिम की वजह से ही वह कब तिवारी से पेड़ वाले बाबा बन गए, पता नहीं चला। आज लोग उन्हें पेड़ वाले बाबा के नाम से पुकारते हैं। तिवारी ने बताया कि अखबारों के माध्यम से ही उनके कार्यो की गूंज सूबे के राज्यपाल बी.एल. जोशी तक पहुंची। जोशी ने खुद उन्हें बुलवाया और सम्मानित किया। तिवारी ने कहा, "जब राजभवन से फोन आया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन वहां जाने के बाद उन्होंने मेरे काम की बहुत प्रशंसा की और पांच हजार रुपये भी दिए।"
www.pardaphash.com

आधुनिक भारत के निर्माता थे चाचा नेहरू

बच्चों के बीच चाचा नेहरू के नाम से मशहूर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत का जो स्वरूप आज हमारे सामने मौजूद है, उसकी आधारशिला रखी थी। आधुनिक भारत के निर्माण की राह बनाने के साथ ही उन्होंने देश के भावी सामाजिक स्वरूप का खाका भी खींचा था। दुनिया के पटल पर भारत आज अपने जिन मूल्यों आदर्शो के लिए जाना पहचाना जाता है, उसे स्वरूप प्रदान करने का श्रेय एक हद तक नेहरू को दिया जा सकता है।

उनके बारे में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, "जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।" नेहरू का जन्म कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह परिवार 18वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गया था। इलाहाबाद में बसे इसी परिवार में उनका जन्म 14 नवंबर 1889 को हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित मोतीलाल नेहरू और माता का नाम श्रीमती स्वरूप रानी था। 

उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। 15 वर्ष की उम्र में 1905 में नेहरू इंग्लैंड के हैरो स्कूल में भेजे गए। हैरो में दो वर्ष तक रहने के बाद नेहरू केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचे जहां उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन कर विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। कैम्ब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की।

भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च 1916 में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ। कमला दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। दोनों की अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म 1917 में हुआ। 1929 में लाहौर अधिवेशन में नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। 27 मई 1964 को प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए निधन होने तक नेहरू अपने देशवासियों का आदर्श बने रहे। 

भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में नेहरू का महžव उनके द्वारा आधुनिक जीवन मूल्यों और भारतीय परिस्थतियों के लिए अनुकूलित विचारधाराओं के आयात और प्रसार के कारण है। धर्मनिरपेक्षता और भारत की जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद देश की मौलिक एकता पर जोर देने के अलावा नेहरू भारत को वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी विकास के आधुनिक युग में ले जाने के प्रति भी सचेत थे। 

अपने देशवासियों में निर्धनों तथा अछूतों के प्रति सामाजिक चेतना की जरूरत के प्रति जागरुकता पैदा करने और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा करने का भी कार्य उन्होंने किया। उन्हें अपनी एक उपलब्धि पर विशेष गर्व था कि उन्होंने प्राचीन हिंदू सिविल कोड में सुधार कर अंतत: उत्तराधिकार तथा संपत्ति के मामले में विधवाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करवाया।

www.pardaphash.com

चाहते हैं अनंत सुख की प्राप्ति तो रखें प्रबोधिनी एकादशी व्रत

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जानते हैं| देव प्रबोधिनी एकादशी को देवोत्थान एकाद्शी या देव उठावनी एकादशी के नाम से जाना जाता है| प्रबोधिनी एकादशी के बारे में यह मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु चौमास यानी चार महीने के विश्राम के बाद उठते हैं| इसलिए इसे देव उठावनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है| इस तिथि के बाद ही शादी-विवाह आदि के शुभ कार्य शुरु होते है| इस वर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी 11 नवम्बर दिन बुधवार को पड़ रही है| 

प्रबोधिनी एकादशी व्रत विधि-

इस वरात को करने वाले व्रतियों को चाहिए कि वह दशमी के दिन से ही मांस और प्याज तथा मसूर की दाल इत्यादि वस्तुओं का त्याग कर दें| दशमी तिथि की रात्रि को ब्रह्माचार्य का पालन करना चाहिए| प्रात: काल में लकडी की दातुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए| फिर स्नान कर मंदिर में जाना चाहिए. गीता पाठ करना या गीता पाठ का श्रवण करना चाहिए| प्रभु के सामने यह प्रण करना चाहिए कि, मै, इस व्रत को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करूंगा| व्रत के दिन "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय" इस द्वादश अक्षर के मंत्र का जाप करना चाहिए| एकादशी के दिन झाडू नहीं देनी चाहिए क्योकि इससे सूक्ष्म जीव मर जाते है| इस दिन भोग लगाने के लिये मूळी, आम, अंगूर, केला और बादाम का प्रयोग किया जा सकता है| द्वादशी के दिन ब्राह्माणों को मिष्ठान दक्षिणा से प्रसन्न कर परिक्रमा लेनी चाहिए| 

प्रबोधनी एकाद्शी व्रत कथा-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’

ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।

हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।

इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ (भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है ।

इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए । रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए ।

‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए, भगवान को अर्ध्य देना चाहिए । इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है ।

जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से, दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं । इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए ।

जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।
www.pardaphash.com

बढ़ रही घरेलू नौकरानियों के साथ दुर्व्यवहार, हिंसा

गरीबी के कारण बरखा (कल्पित नाम) को मात्र 12 वर्ष की अवस्था में पश्चिम बंगाल से दिल्ली आकर घरेलू नौकरानी का काम अपनाना पड़ा। उसने जब पश्चिमी दिल्ली में एक चिकित्सक के घर खाना पकाने का काम शुरू किया तो उसे विश्वास था कि अब उसका जीवन बेहतर हो जाएगा।

लेकिन उसकी उम्मीदें तब धूमिल पड़ने लगीं, जब उसके मालिक ने उसे छोटी-छोटी गलतियों पर गाली देना और मारना-पीटना शुरू कर दिया। बरखा ने बताया कि वह मुझे बिना वजह मारता था और चिल्लाता था। मुझे गर्मियों की चिलचिलाती धूप में खड़े रहना पड़ता था। वे मुझे खाना तक नहीं देते थे और घर में ताला लगाकर बंद रखते थे। अंतत: बरखा एक दिन अपने अभिभावकों को फोन करने में कामयाब रही। तब कहीं जाकर बरखा के अभिभावकों द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बाद बरखा को 2012 में आजाद करवाया जा सका।

वास्तव में यह कहानी सिर्फ एक बरखा की नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी में पुलिस के सामने पिछले एक वर्ष में घरेलू नौकरानियों के साथ दुर्व्यवहार एवं हिंसा के ऐसे 170 मामले सामने आ चुके हैं। उप्र के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सांसद धनंजय सिंह की दंत चिकित्सक पत्नी जागृति सिंह द्वारा अपनी नौकरानी राखी को पीट-पीटकर मार डालने की घटना ने पिछले दिनों राजधानी को हिलाकर रख दिया।

जागृति को अपनी 35 वर्षीय नौकरानी राखी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। जागृति पर अपने दो अन्य नौकरों के साथ भी अक्सर मारपीट करने के आरोप हैं। इस मामले में सांसद धनंजय सिंह को भी साक्ष्य मिटाने एवं किशोर न्याय अधिनियम का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। दोनों इस समय पुलिस हिरासत में हैं।

राजधानी स्थित गैर सरकारी संगठन 'शक्ति वाहिनी' के प्रवक्ता ऋषिकांत के अनुसार, घरेलू नौकरानियों पर अत्याचार के मामलों में काफी वृद्धि हुई है। ऋषिकांत ने बताया कि इस तरह के मामलों में काफी तेजी आई है। समाज में हर पहलू से गिरावट आई है। ऋषिकांत के अनुसार, "इसका संबंध आर्थिक स्थिति से भी है। लोगों के पास तेजी से पैसा आ रहा है, जिसके कारण उनका गरीबों और उनके लिए काम करने वाले लोगों के प्रति रवैया बुरा होता जा रहा है।"

ऋषिकांत ने बताया कि इसी प्रकार 2006 में आठ से 12 वर्ष की आयु के बीच की तीन बच्चियों को बेहद बुरे हालात में फरीदाबाद के एक घर से आजाद करवाया गया था। पुलिस उपायुक्त एस. बी. एस. त्यागी ने बताया कि तीनों बच्चियां एक अभियंता के घर में काम करती थीं। मकान मालकिन कुंठित थी या बेहद तनाव में रहती थी, जिसके कारण वह तीनों बच्चियों के साथ बहुत निर्मम व्यवहार करती थी।

एक अन्य पुलिस अधिकारी ने बताया कि पिछले दशक में इस तरह के मामलों में तेजी आई है, तथा उनमें से अधिकतर मामलों में नाबालिग लड़कियां ही पीड़ित पाई गईं। दिल्ली में घरों में काम करने के लिए अमूमन पूर्वी राज्यों जैसे, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और झारखंड तथा आंध्र प्रदेश से भी बच्चियों को लाया जाता है। उनमें से अधिकांश बच्चियों को प्लेसमेंट एजेंसी के दलाल दिल्ली की चकाचौंध और नौकरी दिलाने का लालच दिखाकर लाते हैं। लेकिन दिल्ली लाकर ये दलाल उन्हें अमीरों के यहां बेच देते हैं।

दिल्ली पुलिस के अनुसार इस तरह गैर कानूनी तौर पर काम करने वाली एजेंसियों की संख्या हजारों में है। दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता राजन भगत ने बताया कि हमें जैसे ही इस तरह की प्लेसमेंट एजेंसी का पता लगता है, हम तत्काल उनके खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई करते हैं। पिछले दो महीनों में राजधानी में घरेलू नौकरानियों के साथ मारपीट के तीन मामले सामने आए हैं। इन सबके बावजूद देश में गृह सहायक कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून तक नहीं है।

www.pardaphash.com

....जब रेडियो पर बोले गांधी जी

महात्मा गांधी ने अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में लिखने और बोलने का काम बड़े पैमाने पर किया था। संपूर्ण गांधी वांग्मय के लगभग 100 खंड उनके लेखन, उद्बोधन और चिंतन की गहराई के उदाहरण हैं। गांधीजी जो लिखते या जो बोलते वह कितनी तेजी से पूरे भारत में फैल जाता और उसका किस-किस पर कैसा-कैसा असर पहुंचता, इसे भी हम सब अच्छी तरह जानते हैं। उनका लिखा जनलेखन बन जाता और उनकी वाणी जन-जन की वाणी बन जाती।

लेकिन 12 नवंबर 1947 को गांधीजी ने अपने लिखने और बोलने के दो सशक्त माध्यमों के अलावा एक तीसरे माध्यम का पहली बार उपयोग किया था और वह था आकाशवाणी से प्रसारण। इससे पहले उन्होंने कभी भी इस माध्यम का प्रयोग नहीं किया था, और इसके बाद भी उन्होंने अपने जीवन में दोबारा इस माध्यम का उपयोग नहीं किया।

यह प्रसंग इसलिए उपस्थित हुआ कि विभाजन के शरणार्थी कुरुक्षेत्र में आ रहे थे और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही थी। गांधीजी उनसे कुरुक्षेत्र जाकर ही मिलना चाहते थे। लेकिन किसी कारण से वहां नहीं जा सकते थे। तब उन्हें घनश्यामदास बिड़ला ने सुझाव दिया था कि आप क्यों नहीं रेडियो का उपयोग करते हैं। गांधीजी ने उनका सुझाव मानकर अपने जीवन में पहली और आखिरी बार आकाशवाणी भवन से रेडियो का उपयोग देश की जनता को संबोधित करने के लिए किया था।

इस संदेश में उन्होंने प्रारंभ में ही कहा था कि उन्हें यह माध्यम अच्छा नहीं लगता। इसलिए उन्होंने रेडियो का उपयोग इससे पहले करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। प्रसारण के प्रारंभ में उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा था कि दुखियों के साथ दुख उठाना और उनके दुखों को दूर करना ही मेरे जीवन का काम रहा है। इसलिए गांधीजी को दूर बैठकर रेडियो पर भाषण देकर, अपनों के दुख में शामिल होना ठीक नहीं लगा था। उन्होंने इस माध्यम में यह कमी देखी थी।

फिर भी उन्होंने इसी माध्यम का उपयोग किया और इस तरह पहली बार प्रसारण की तकनीक को सीधे समाज के दुख-सुख से जोड़ दिया था। 12 नवंबर, 1947 के दिन दीपावली भी थी। एक तरफ खुशी का पर्व था तो दूसरी तरफ समाज के सामने विभाजन का दुख भी।

12 नवंबर की तिथि एक और घटना के लिए महत्वपूर्ण है। देश की पहली रेडियो उद्घोषक स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता को 1942 में इसी दिन ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ रेडियो प्रसारण के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। देश के इस प्रथम रेडियो की शुरुआत डॉ. राममनोहर लोहिया की प्रेरणा से विट्ठलभाई झवेरी ने की थी। इसका संचालन उषा मेहता करती थीं।

बहरहाल, सन् 1997 में गांधीजी के इस ऐतिहासिक प्रसारण के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में दिल्ली की जन प्रसार नामक संस्था ने इस दिवस को जन प्रसारण दिवस की तरह मनाना प्रारंभ किया। इसके बाद आकाशवाणी ने भी इस दिन के महत्व को स्वीकार किया। तब से प्रतिवर्ष दिल्ली में आकाशवाणी अपने प्रांगण में एक सादगी भरा, किंतु भव्य आयोजन करती है।

इसलिए हमें इस आयोजन का ठीक संदर्भ भी समझ लेना चाहिए। आज 24 घंटे रेडियो चलता है, दूरदर्शन चलता है, टीवी, एफएम चलते हैं और हिंदी व अंग्रेजी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में निजी कंपनियों के चैनल भी हैं। इनमें 24 घंटे समाचार, राजनीति, खेल, फिल्म, घटना, दुर्घटना, फूहड़ मनोरंजन, नाच-गाना श्रोताओं एवं दर्शकों को परोसा जाता है और इसमें सबसे प्रधान होता है विज्ञापन यानी बाजार।

उदारीकरण के इस ताजा दूसरे दौर में यह प्रवृत्ति प्रसारण के इन माध्यमों पर और तेजी से पकड़ बढ़ाएगी। यह प्रवृत्ति समाज के दुख को भी एक खबर की तरह परोसती है। उसमें भी यह श्रेय लेती है कि इस खबर को आप तक हम सबसे पहले पहुंचा रहे हैं और बड़ी से बड़ी दुखद घटना के बीच में, पहले और उसके बाद तरह-तरह के विज्ञापन भी दिखाए जाते हैं।

जिनका सब लुट गया हो, उनकी खबरों के बीच ऐयाशी के सामान का विज्ञापन जले पर नमक की तरह छिड़का जाता है। स्वायत्त माने गए प्रसार भारती जैसे संगठन भी बाजार के दबाव के अलावा सत्तारूढ़ शासक दल के दबाव में काम करते हैं और प्राय: समाज के सुख-दुख को सामने रखने के बदले सरकार के गुणगान में व्यस्त रहते हैं।

ऐसी विचित्र स्थिति में यह बताना आवश्यक नहीं है कि गांधीजी से जुड़ा यह पावन प्रसंग, यह लोक प्रसारण दिवस हमें किस ढंग से मनाना होगा, कौन-कौन सी चिंताएं समाज के सामने रखनी होंगी। हम सब इस काम में अपनी शक्ति लगाएं तो हमें पूरा भरोसा है कि लगातार जनविरोधी होते जा रहे प्रसारणों का स्वरूप थोड़ा और बेहतर बन सकेगा।

www.pardaphash.com