विश्व एड्स दिवस पर विशेष: नशे की सुई लेने वालों को एचआईवी का ज्यादा खतरा

भारत में एचआईवी संक्रमण में कमी आई है, लेकिन एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इंजेक्शन के जरिए नशीले पदार्थो का सेवन करने वाले लोग एचआईवी या एड्स से सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेको) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की सामान्य जनसंख्या में एचआईवी का प्रसार 0.40 प्रतिशत है जबकि इंजेक्शन से नशे का सेवन करने वाले लोगों में इसका प्रसार 7.17 प्रतिशत है।

विशेषज्ञ इसका दोष मादक पदार्थ उपयोगकर्ताओं का गरीबी की हालत में गुजर-बसर करना और नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज (एनडीपीएस) अधिनियम को देते हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (एनएसीपी) तृतीय के तहत चलाई जा रही परियोजना 'हृदय' के कार्यक्रम अधिकारी फ्रांसिस जोसेफ ने बताया, "जो लोग इंजेक्शन के जरिए नशा करते हैं वे सामाजिक, चिकित्सकीय और कानूनी स्तर पर बड़े पैमाने पर उत्पीड़न का सामना करते हैं। यह स्थिति उन्हें एचाआईवी/एड्स की रोकथाम वाली सेवाओं का लाभ उठाने से वंचित कर देती है।" 

भारत के कई हिस्सों में इसके नुकसान को कम करने वाले कार्यक्रमों में बाधा के लिए उन्होंने एनडीपीएस अधिनियम को भी दोष दिया। उन्होंने कहा, "कानून में कुछ बदलावों की जरूरत है। विशेष रूप से जहां तक नशा करने वालों का संबंध है वहां इसे नरम होने की जरूरत है।" एक वरिष्ठ नेको अधिकारी के मुताबिक, एनडीपीएस अधिनियम अपने आप में कठोर है लेकिन इसमें नशा करने वालों से अलग तरह से व्यवहार करने का प्रावधान है लेकिन ये प्रावधान पुलिस के लिए नहीं है।

जोसेफ ने बताया कि यह तथ्य है कि भारत में अधिकतर नशा करने वाले गरीबी की पृष्ठभूमि से आते हैं और नासमझी के कारण अपनी सुई और सीरिंज साझा करते हैं जो एचआईवी संक्रमण फैलाते हैं। नेको के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, भारत में युवा आबादी के बीच एचआईवी संक्रमण में अनुमानित 57 प्रतिशत वार्षिक की कमी आई है। 2011 में एचआईवी संक्रमित लोगों की अनुमातित संख्या 20.8 लाख थी।
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उत्पन्ना एकादशी व्रत से मिलता है हजारों यज्ञों का फल

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। अगहन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है| इस वर्ष उत्पन्ना एकादशी 29 नवम्बर दिन शुक्रवार को पड़ रही है| इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने का विधान है| 

उत्पन्ना एकादशी की व्रत विधि-

मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी के एक दिन पहले यानी दशमी तिथि को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात के समय भोजन न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। 

इसके पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात में सोए नहीं। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। सुबह पुन: भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करें व योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा संभव दान देने के पश्चात ही स्वयं भोजन करना चाहिए।

धर्म शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल हजारों यज्ञों से भी अधिक है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।

उत्पन्ना एकादशी की कथा- 

सतयुग में एक महा भयंकर दैत्य मुर हुआ करता था| दैत्य मुर ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें, उनके स्थान से भगा दिया| तब इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर भगवान श्री विष्णु के पास जाते हैं| देवताओं सहित सभी ने श्री विष्णु जी से दैत्य के अत्याचारों से मुक्त होने के लिये विनती की| इन्द्र देव के वचन सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले -देवताओं मै तुम्हारे शत्रुओं का शीघ्र ही संकार करूंगा|

जब दैत्यों ने भगवान श्री विष्णु जी को युद्ध भूमि में देखा तो उन पर अस्त्रों-शस्त्रों का प्रहार करने लगे| भगवान श्री विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शास्त्रों का प्रयोग करते वे सभी उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगे़ भगवान श्री विष्णु उस दैत्य के साथ सहस्त्र वर्षों तक युद्ध करते रहे़ परन्तु उस दैत्य को न जीत सके| अंत में विष्णु जी शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रियाकाश्रम में एक लम्बी गुफा में वे शयन करने के लिये चले गये|

दैत्य भी उस गुफा में चला गया, कि आज मैं श्री विष्णु को मार कर अपने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लूंगा| उस समय गुफा में एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई़ और दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी| दोनों में देर तक युद्ध हुआ| उस कन्या ने उसको धक्का मारकर मूर्छित कर दिया और उठने पर उस दैत्य का सिर काट दिया और वह दैत्य मृत्यु को प्राप्त हुआ|

उसी समय श्री विष्णु जी की निद्रा टूटी तो उस दैत्य को किसने मारा वे ऎसा विचार करने लगे| इस पर उक्त कन्या ने उन्हें कहा कि दैत्य आपको मारने के लिये तैयार था| तब मैने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इसका वध किया है| भगवान श्री विष्णु ने उस कन्या का नाम एकादशी रखा क्योकि वह एकादशी के दिन श्री विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुई थी इसलिए इस दिन को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है|

लेह: प्राकृतिक खूबसूरती का अद्भुत नजारा

जम्मू और कश्मीर के उत्तर में हिमालय के हसीन वादियों की गोद में बसा 'लेह' बेहद सुंदर और आकर्षक स्थान है। सिंधु नदी के किनारे और 11000 फीट की ऊंचाई पर बसा लेह पर्यटकों को जमीं पर स्वर्ग का एहसास दिलाता है। धरती पर रहकर स्वर्ग के दर्शन करने हों तो लेह से बेहतर जगह शायद ही दूसरी हो। सुंदरता का अनोखा नजारा प्रस्तुत करता लेह रुई नुमा बादलों से ढ़का होता है। लगता है की मानो आसमान ने लेह को कम्बल से ढ़क् दिया हो। गगन चुंबी पर्वतों पर ट्रैकिंग का यहां अपना अलग ही मजा है। लेह में पर्वत और नदियों के अलावा भी कई ऐतिहासिक इमारतें मौजूद हैं। यहां बड़ी संख्या में खूबसूरत बौद्ध मठ हैं, जिनमें बहुत से बौद्ध भिक्षु रहतें हैं। 

सिंधु नदी के किनारे बसे इस प्राचीन शहर आधुनिकता को अपने अंदर समाहित कर चूका है। यहाँ हमेशा सैलानियों का जमावड़ा लगा रहता है। लगता है जैसे ये सैलानी यहीं के वासिंदे हों। लेह का बाजार बहुत चौडा है| कहा जता है कि आजादी से पहले अंग्रेज यहां पोलो खेला करते थे। यह एक छोटी सी शांति वाली जगह है। यहाँ लोग प्रकृति गोद में सुखद अनुभूति करतें हैं। लेह में सैलानी धूमने या कुछ विशेष देखने का उद्देश्य ले कर नहीं आते क्योंकि यह कोई बडा शहर नही है, यहां तो सैलानी जिदगी के कुछ दिन प्रक़ति की गोद में बिताने आतें हैं, शांति की तलाश में आतें हैं। 17वीं शताब्दी में बना लेह महल और बैद्व मठ दर्शनीय है। वैसे लेह का मुख्यत बाजार देखने लायक है। जहां सैलानियों को कशमीरी, लद्दाखी और तिब्बती कलाओं वाली ढ़ेरों चीजें सजी देखने को मिलती है। 

पहाडों से बर्फ खिसकने के कारण मई, जून में लद्दाख के रास्ते खतरनाक हो जाते हैं। जुलाई से अक्‍टूबर तक ही इस इलाके में यात्रा करना उपयुक्त होता है। यहां बारि‍श नही होती लेकिन ठंड काफी होती है। हां जुलाई और अगस्त में लेह नगर में ठंड नहीं होती। यहाँ स्थित कुछ स्थल अद्भुत हैं। जिन्हे सैलानी देखना पसंद करतें हैं, जिनमें शेय महल, पहाड़ी की चोटी को सुशोभित करता लद्दाख के प्रथम राजा हेचेन स्पेलगीगोन का यह महल। इस महल के अंदर एक मठ भी है। कॉपर गिल्ट से निर्मित महात्मा बुद्ध की तीन मंजिला मूर्ति यहां स्थापित है।

स्तोक महल यह महल लेह से 17 किमी दूर स्थित है। स्तोक महल में शाही परिवार के लोग रहते हैं। यहां एक आकर्षक संग्रहालय भी है जिसमें यहां के राजा-रानी की काफी दिलचस्प वस्तुएं रखी हुईं हैं।

थिकसी मठ यह मठ लेह के सभी मठों से आकर्षक और खूबसूरत है। यह मठ गेलुस्‍पा वर्ग से संबंधित है। वर्तमान में यहां लगभग 80 बौद्ध सन्यासी रहते हैं। अक्टूबर-नवम्बर के बीच यहां थिकसी उत्सव का आयोजन किया जाता है।

लेह महल राजा नामग्याल द्वारा बनवाया गया नौ मंजिला यह खूबसूरत महल 17 वीं शताब्दी के धरोहरों में से एक है। यह महल तिब्बती कारीगरी का बेहतरीन नमूना है। इस महल से जुड़े कई मंदिर भी हैं जो आमतौर पर बंद रहते हैं। इन मंदिरों को पुजारी सुबह और शाम के वक्त ही पूजा करने के लिए खोलता है। जामी मस्जिद-लेह बाजार के समीप 17 वीं शताब्दी में निर्मित जामी मस्जिद पर्यटकों को खूब लुभाती है। हरे और सफेद रंग की यह मस्जिद पर्यटकों के बीच आर्कषण का केन्‍द्र है।

हेमिस मठ पश्चिमी लेह से 53 किमी दूर यह विशाल और प्रसिद्ध मठ दुपका वर्ग से संबंधित है। जून में यहां हेमिस पर्व का आयोजन किया जाता है। यह पर्व दूर-दूर से बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है।

शान्ति स्तूप लेह बाजार से 3 किमी दूर चंगस्पा गांव में स्थित सफेद पत्थर से निर्मित शान्ति स्तूप है। इसका उदघाटन 1983 में शान्ति पैगोड़ा दलाई लामा द्वारा किया गया था। इसके किनारे गिल्ट पेनल से सुसज्जित हैं जो महात्मा बुद्ध के जीवन को दर्शाते हैं।

लेह किला यह किला जोरावर सिंह ने बनवाया था। किले में तीन मंदिर है। यह किला अब सेना के कैम्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

बाजार, लेह का बाजार काफी आकर्षक होता है। लेह के बाजार की सैर अपने आप में अनोखा अनुभव है। यहां पर्यटक स्थानीय लोगों की दुकानों को बड़ी उत्सुकता के साथ देखते हैं। बाजार का सबसे आकर्षक नजारा पास के गांव की महिलाएं होती हैं,जो लाइन से बैठकर फल-सब्जियां बेचती हैं। 

ख़रीददारी के लिए लेह में आकर्षक बाजारों के अलावा डिस्ट्रिक हैन्डीकाफ्ट सेन्टर अच्छा विकल्प है। यहां लद्दाख की संस्कृति और परंपरा से जुड़ी चीजें खरीदी जा सकती हैं। यहां मिलने वाले सामानों में पशमीना शॉल सबसे अधिक लोकप्रिय है। यह शॉल बेहद गर्म और नर्म होती है। यहाँ के बाजारों कि दूसरा मुख्य सामान तिब्बती गलीचे होतें हैं। कारीगर बहुत ही खूबसूरत गलीचे बनातें हैं। यहां की थांग्का पेंटिंग पर्यटकों को खूब पसंद आती है। लेह से लकड़ी के सामान के साथ अन्य बहुत सी वस्‍तुएं भी खरीदी जा सकती हैं।

राम के लिए ही नहीं श्रीकृष्ण के लिए भी बंदरों ने बनाया था सेतु, जानिए कहाँ है वह

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जब लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे तो उस समय वानर सेना ने रामेश्वरम से लंका तक पत्थरों से एक सेतु का निर्माण किया था यह बात तो हर कोई जानता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब भगवान विष्णु ने द्वापर युग में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था तो उस समय भी वानरो ने फिर से एक सेतु का निर्माण किया था यह बात शायद ही आपको पता हो| बंदरों द्वारा बनाया गया यह सेतु भगवान् श्रीकृष की नगरी मथुरा से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर काम्यवन में एक सरोवर पर बनाया गया था। इस सेतु को भी सेतुबंध रामेश्वरम नाम दिया गया| इस सरोवर के उत्तर दिशा में एक भगवान भोलेनाथ का मंदिर है जिसे रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है| सरोवर के दक्षिण में एक टीले पर लंका भी बना हुआ। 

इस सेतु के बारे में कहा जाता है श्रीकृष्ण लीला के समय दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे । उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणामकर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे । बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे । भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे । गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई । वे भी भगवान श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं । कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी । उस समय ललिताजी ने कहा– हमने सुना है कि महापराक्रमी हनुमान जी ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था । परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं । 

ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थी । ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो । तुम कदापि राम नहीं थे । तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं । श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनु को तोड़कर सीता से विवाह किया था । पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया । फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका । पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा । मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ । पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी । किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं । 

ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं । यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं । श्रीरामचन्द्रजी सौ योजन समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे । आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं । ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया । देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये । श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया । सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की । आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं । इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है ।

आपको बता दें कि काम्यवन ब्रज के बारह वनों में से एक उत्तम वन है। काम्यवन के आस-पास के क्षेत्र में तुलसी जी की प्रचुरता के कारण इसे आदि वृन्दावन भी कहा जाता है। वृन्दा तुलसी जी का ही पर्याय है। श्रीवृन्दावन की सीमा का विस्तार दूर-दूर तक फ़ैला हुआ था, श्री गिरिराज, बरसाना, नन्दगाँव आदि स्थलियाँ श्री वृन्दावन की सीमा के अन्तर्गत ही मानी गयीं। महाभारत में वर्णित काम्यवन भी यही माना गया है, पाण्डवों ने यहाँ अज्ञातवास किया था। वर्तमान में यहाँ अनेक ऐसे स्थल मौजूद हैं जिससे इसे महाभारत से सम्बन्धित माना जा सकता है। पाँचों पाण्डवों की मूर्तियाँ, धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से धर्मकूप तथा धर्मकुण्ड भी यहाँ प्रसिद्ध है। यह स्थल राजस्थान राज्य के भरतपुर जिले के अन्तर्गत आता है। इसका वर्तमान नाम कामां है।

विष्णु पुराण के अनुसार यहाँ छोटे-बड़े असंख्य तीर्थ हैं। 84 तीर्थ, 84 मन्दिर, 84 खम्भे आदि राजा कामसेन ने बनवाये थे, जो यहाँ कि अमूल्य धरोहर हैं। यहाँ कामेश्वर महादेव, श्री गोपीनाथ जी, श्रीगोकुल चंद्रमा जी, श्री राधावल्लभ जी, श्री मदन मोहन जी, श्रीवृन्दा देवी आदि मन्दिर हैं। यद्यपि अनुरक्षण के अभाव में यहाँ के अनेक तीर्थ नष्ट भी होते जा रहे हैं फ़िर भी कुछ तीर्थ आज भी अपना गौरव और श्रीकृष्ण लीलाओं को दर्शाते हैं। कामवन को सप्तद्वारों के लिये भी जाना जाता है।

जाने अगहन मास को क्यों कहते हैं मार्गशीर्ष

हिन्दू धर्म के अनुसार वर्ष का नवां महीना अगहन कहलाता है| अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से भी जाना जाता है| क्या आपको पता है अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जाना जाता है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जानते हैं| 

आपको बता दें कि अगहन मास को मार्गशीर्ष कहने के पीछे भी कई तर्क हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा अनेक स्वरूपों में व अनेक नामों से की जाती है। इन्हीं स्वरूपों में से एक मार्गशीर्ष भी श्रीकृष्ण का ही एक रूप है।

अगहन मास को मार्गशीर्ष क्यों कहा जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस माह का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है। ज्योतिष के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं जिसमें से एक है मृगशिरा नक्षत्र| इस माह की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है। इसी वजह से इस मास को मार्गशीर्ष मास के नाम से जाना जाता है| 

भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा था कि सभी महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। मार्गशीर्ष मास में श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त पुण्य के बल पर हमें सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस माह में नदी स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व है। 

श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की महत्ता गोपियों को भी बताई थी। उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष माह में यमुना स्नान से मैं सहज ही सभी को प्राप्त हो जाऊंगा। तभी से इस माह में नदी स्नान का खास महत्व माना गया है।

मार्गशीर्ष में नदी स्नान के लिए तुलसी की जड़ की मिट्टी व तुलसी के पत्तों से स्नान करना चाहिए। स्नान के समय ऊँ नमो नारायणाय या गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए।

अब तो ‘राख’ हो गया होगा सोने का महाखजाना!

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौंडि़याखेड़ा गांव में राजा राव रामबक्श सिंह किले में सोने के महाखजाना को धनतेरस के पूर्व न निकालने पर संत शोभन सरकार ने उसके ‘राख’ हो जाने की भविष्यवाणी की थी, तो फिर अब खुद खोदाई कर सोना निकालने की जिद क्यों की जा रही है? अब तो वह ‘राख’ हो गया होगा।

संत शोभन सरकार के सपने को सच मान कर केन्द्र सरकार ने आनन-फानन में एएसआई को किले की खोदाई कराने का निर्देश दिया था, एएसआई ने 18 अक्टूबर से खोदाई कार्य में जुटी भी। लेकिन करीब दो लाख रुपये खर्च करने के बाद एएसआई के हाथ टूटी चूडि़यां, कांच के टुकड़े और मिट्टी के बर्तनों के सिवाय कुछ नहीं मिला। खोदाई के दौरान ही संत शोभन सरकार के शिष्य स्वामी ओम जी महराज ने भविष्यवाणी की थी कि धनतेरस के पूर्व खोदाई पूर्ण कर सोना न निकाल पाए तो वह ‘राख’ हो जाएगा। तो फिर अब ओम जी या संत के अन्य नजदीकी खुद खोदाई कराने का प्रयास क्यों कर रहे हैं? यह एक बड़ा सवाल फिर लोगों के जेहन में गूंजने लगा है।

पिछले गुरुवार को ओम जी का अचानक जेसीबी मशीन और तमाम ग्रामीणों के साथ किला परिसर में पहुंचना और खोदाई की जिद करने से वहां तनाव की सिथति बन गई थी, लिहाजा प्रशासन को पुनः भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ा। संत शोभन सरकार के एक नजदीकी राजेन्द्र तिवारी ने बताया कि संत शोभन की ओर से केन्द्र व राज्य सरकार को पत्राचार कर खुद खोदाई कराने की इजाजत मांगी गई है, इजाजत मिलती है तो सोना निकाल कर देश को सौंपा जाएगा। 

तिवारी इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि संत ने धनतेरस के पूर्व सोना न निकाल पाने पर ‘राख’ हो जाने की भविष्यवाणी की थी। उल्टे वह कहते हैं कि संत की शर्त अस्वीकार करने पर ही एएसआई को सोना नहीं मिला, साथ ही जोड़ा कि जीएसआई की रिपोर्ट में 15 से 20 मीटर की गहराई में ‘धातु’ होने की पुष्टि हुई थी, मगर एजेंसी ने महज 15-20 फिट खोदाई कर काम बंद कर दिया।

एएसआई के एक अधिकारी पीके मिश्रा बताते हैं कि ‘किले की खोदाई में करीब दो लाख रुपये सरकार का खर्च हो चुका है और वहां कोई खास उपलब्धि नहीं मिली। उपजिला अधिकारी विजयशंकर दुबे बताते हैं कि पिछले गुरुवार को ओम जी द्वारा जेसीबी मशीन से खुद खोदाई का प्रयास करने से तनाव की स्थिति बन गई थी, जिससे किला परिसर में दोबारा डेढ़ सेक्शन पीएसी बल तैनात करना पड़ा है।

सच्चाई यह नहीं है कि संत की शर्त न मानने या धनतेरस के पूर्व न निकाल पाने पर सोना नहीं मिला। बल्कि सच यह है कि संत शोभन सरकार को उन्नाव और कानपुर इलाके में ग्रामीण आंख मूंद कर ‘भगवान’ का दर्जा देते थे, चूंकि अब पूरे देश में संत की किरकिरी हो चुकी है तो उनके अनुयायी इस कोशिश में लगे हैं कि संत की प्रतिष्ठा कायम रखने का यही एक तरीका है। 
वह यहां यह कहावत चरितार्थ कर रहे है कि ‘न नौ मन तेल होगा और न राधा नचेगी’ यानी कि सरकार खुद खोदाई की अनुमति नहीं देगी तो यह साबित हो जाएगा कि संत खोदाई करते तो सोने का महाखजाना जरूर मिलता।

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महिलाओं से लंबी होती है पुरुषों की नाक


समाज में नाक ऊंची होने की कहावतें तो आपने जरूर सुनी होंगी, और यह भी मानते होंगे कि अक्सर पुरुषों की ही नाक को खतरा होता है। लेकिन विज्ञान ने भी अब इस तथ्य को मान लिया है कि पुरुषों की नाक महिलाओं की नाक से बड़ी होती है।

अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव नाक पर अपने ताजा अध्ययन में इस बात का खुलासा किया है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि शोधकर्ताओं ने इसका संबंध मान-सम्मान से जोड़कर एकदम नहीं बताया है।

इस शोध में पाया गया कि महिलाओं की नाक पुरुषों की नाक के मुकाबले औसतन 10 प्रतिशत छोटी होती है। हालांकि यह शोध विशेष तौर पर यूरोपीय नागरिकों के लिए किया गया है, और इसके परिणाम यूरोपीय नागरिकों पर ही लागू होते हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक पुरुषों के शरीर में पतली मांसपेशियां अधिक होती हैं, जिसके कारण मांसपेशियों के उत्तकों के विकास के लिए अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इसीलिए पुरुषों की नाक बड़ी होती है, क्योंकि बड़ी नाक का मतलब है श्वसन के जरिए अधिक से अधिक ऑक्सिजन का रक्त के जरिए मांसपेशियों तक पहुंचना।

शोध में यह तथ्य भी उभरकर आया कि पुरुष और महिलाओं के नाक में यह अंतर 11 वर्ष की आयु में स्पष्ट होना शुरू हो जाता है। अमूमन यह अवस्था तरुणावस्था में प्रवेश करने की होती है। शारीरिक रूप से स्वस्थ पुरुषों में इस दौरान पतली मांसपेशियों का विकास तेजी से होता है, जबकि महिलाओं में मोटी मांसपेशियों का विकास होता है। इससे पहले हुए शोध बताते हैं कि पुरुष अपने शरीर का 95 प्रतिशत वजन तरुणाई के दौरान ही प्राप्त करते हैं, जबकि महिलाएं इस दौरान अपने वजन का 85 प्रतिशत हिस्सा विकसित करती हैं।

विज्ञान शोधों की पत्रिका 'अमेरिकी जर्नल ऑफ फीजिकल एंथ्रोपोलॉजी' में प्रकाशित शोध के मुख्य लेखक एवं यूआई दंत चिकित्सा महाविद्यालय में सहायक प्रवक्ता नैथन हॉल्टन के अनुसार, "शरीर और नाक के आकार के बीच संबंध पर साहित्य में पहले ही चर्चा हुई है। लेकिन यह अपने आप में पहला शोध है, जिसमें महिलाओं एवं पुरुषों में उनके शरीर के आकार के साथ उनकी नाक के आकार के बीच संबंध की पड़ताल की गई है।"

इस शोध के लिए हॉल्टन और उनकी टीम ने आयोवा विश्वविद्यालय की फेसियल ग्रोथ स्टडी में अध्ययनरत यूरोपीय मूल के तीन से 20 वर्ष की आयुवर्ग के 38 विद्यार्थियों को अपने अध्ययन में शामिल किया। शोध में शामिल किए गए प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य अंगों का लगातार मापन किया जाता रहा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 11 वर्ष की अवस्था से पहले तक लड़के और लड़कियों की नाक का आकार एक था। लेकिन तरुणाई के साथ-साथ उनके नाक के आकार में अंतर आता गया। हाल्टन ने अपने शोध में कहा है, "यहां तक कि यदि पुरुष और महिला के शरीर का आकार एक ही हो, फिर भी पुरुष की नाक महिला की नाक से बड़ी होती है।"

उन्होंने यह भी कहा कि इस शोध के परिणाम यूरोपीय नागरिकों के साथ ही दूसरे समुदायों पर भी लागू हो सकते हैं, लेकिन अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी जब तक कि शोध के जरिए इस तरह के तथ्य प्राप्त न कर लिए जाएं।

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विलुप्तप्राय गरुड़ों की शरणस्थली बना बिहार


हिन्दू धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, भगवान विष्णु की सवारी गरुड़ (ग्रेटर एड्ज्यूटेंट) के वंशज दुनिया भर में आज लुप्त होने के कगार पर हैं, लेकिन बिहार में इनकी संख्या में लगातार वृद्धि देखी जा रही है। गरुड़ों ने उत्तर बिहार के कोसी और गंगा के दियारा क्षेत्र में अपनी वंशवृद्घि के लिए स्थान खोज लिया है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक, पूर्व में गरुड़ कंबोडिया और असम की ब्रह्मपुत्र घाटी में एवं उसके आसपास ही अपना बसेरा बनाते थे। यहीं प्रजनन करते थे। परंतु वैज्ञानिकों को उस समय हैरानी हुई जब वर्ष 2006 में भागलपुर के पास गंगा दियारा क्षेत्र में गरुड़ के घोसले पाए। इसके बाद वैज्ञानिकों के लिए यह स्थान शोध का विषय बन गया।

इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के बिहार इकाई के समन्वयक अरविंद मिश्रा ने आईएएनएस को बताया कि ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि इस क्षेत्र में पिछले दो दशक से गरुड़ प्रजनन के लिए आते रहे हैं। ये अलग बात है कि हमारी नजर 2006 में इस ओर पड़ी।

उन्होंने कहा, "2006-07 में सुल्तानगंज प्रखंड के गंगा दियारा क्षेत्र के नया टोला मोतीचक गांव में तथा नवगछिया प्रखंड के कोसी दियारा क्षेत्र के कदवा और खैरपुर पंचायत के विभिन्न गांवों में गरुड़ के 16 घोसले पाये गये थे और यहां 78 गरुड़ होने का अनुमान लगाया गया था।"

इसके बाद पक्षी वैज्ञानिकों और पक्षी प्रेमियों की नजर इस इलाके पर पड़ी और स्थानीय लोगों को इस विलुप्तप्राय पक्षी को संरक्षित करने के लिए जागरूक किया गया। आज इस इलाके में इस पक्षी के 75 घोसले हैं, जबकि उनमें गरुड़ों की संख्या करीब 400 आंकी गई है। खैरपुर इलाके के एक पीपल पर ही इस पक्षी के 23 घोसले पाए गए हैं।

पिछले दिनों बिहार दौरे पर आए रॉयल सोसायटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस, एशिया प्रोग्राम मैनेजर इयान बारबर ने बताया कि बिहार के अन्य हिस्सों में बड़े गरुड़ों का प्रजनन नहीं पाया गया है। इस स्थल को संरक्षित किया जाएगा। वे मानते हैं कि विशालकाय गुरुड़ दुनिया में लुप्तप्राय हो गए हैं। वे कहते हैं कि असम में लगभग 550, कंबोडिया में 150 और बिहार में इनकी संख्या 400 के करीब आंकी गई है।

उल्लेखनीय है कि पूरे विश्व में गरुड़ों की संख्या 1000 से 1200 के आसपास बताई गई है। इस पक्षी को वन्य प्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 के अंतर्गत संरक्षित माना गया है, जबकि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस (आयूसीएन) ने इसे लाल सूची में रखा है।

मिश्रा मानते हैं कि यह इलाका गरुड़ के प्रजनन के लिए उपयुक्त वातावरण देता है। वे कहते हैं कि स्थानीय समुदाय के संरक्षण के संकल्प, अनुकूल वातावरण और भेाजन की सुलभता ही इनके यहां बसने का मुख्य कारण है।

बता दें इस पक्षी सितंबर-अक्टूबर माह में घोसला बनाते हैं। अक्टूबर-नवंबर में अंडा देते हैं। अप्रैल-मई तक घोसला छोड़ देते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि गरुड़ के विषय में लोगों को कम जानकारी है।

माना जाता है कि गरुड़ मुख्य रूप से दक्षिण एशिया में ही पाए जाते हैं।

वैसे वे यह भी मानते हैं कि गरूड़ों के संरक्षण में स्थानीय लोगों का सहयोग और सुरक्षा प्रदान करना इनकी संख्या में वृद्घि का एक सबसे बड़ा कारण है।

उनका कहना है कि वन्य जीव के संरक्षण नियमों का उल्लंघन, लापरवाही, और स्थानीय लोगों में जगारूकता की कमी के कारण यह पक्षी प्रजाति खुद को संकट में पाती है। हालांकि, वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया, बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, बर्ड लाइफ इंटरनेशनल, रॉयल सोसाइटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बर्डस जैसी संस्थाएं मंदार नेचर क्लब को सहयोग कर गरुड़ संरक्षण के लिए सक्रिय हैं।

मिश्रा कहते हैं कि इन क्षेत्रों में सड़क चौड़ीकरण के लिए होने वाली पेड़ों की कटाई गरुड़ के प्रजनन में व्यवधान उत्पन्न कर सकती है। इस बाबत उन्होंने सरकार को भी पत्र लिखा है।

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मप्र में जीतेंगे सब तो हारेगा कौन!


खेल का मैच हो या चुनाव इसमें एक जीतता है तो दूसरा हारता है, मगर मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में मतदान के बाद दोनों प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेता अपनी जीत के दावों के बीच हार की चर्चा तक करने को तैयार नहीं हैं। अब सवाल यही उठ रहा है कि अगर सब जीत जाएंगे तो हारेगा कौन? मतदान सोमवार 25 नवंबर को हो चुका है और नतीजे आठ दिसंबर को आएंगे।
राज्य के विधानसभा चुनाव रोचक रहे हैं और मुकाबला भी भाजपा तथा कांग्रेस के बीच कांटे का रहा है। इस चुनाव में कुछ इलाके जिनमें बुंदेलखंड, विंध्य व ग्वालियर-चंबल ऐसे हैं जहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने मुकाबले को त्रिकोणीय बनाया है तो महाकौशल में यही स्थिति गोंडवाना गणतंत्र पार्टी व जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन की रही है।

चुनाव से पहले की तैयारियों की समीक्षा करें तो साफ नजर आता है कि शुरुआत में भाजपा संगठन व अन्य मामलों में कांग्रेस से कहीं आगे थी, यही कारण है कि भाजपा की हैट्रिक की संभावनाएं भरपूर थी। मगर वक्त गुजरने के साथ कांग्रेस ने अपनी स्थिति सुधारी और गुटबाजी को दिखावटी ही सही खत्म होने का प्रदर्शन किया। यह बात अलग है कि यह एकता ज्यादा दिन नहीं चली। टिकट वितरण को लेकर भी कांग्रेस में मारामारी कम नहीं हुई तो भाजपा में भी लगभग यही आलम रहा।

चुनाव प्रचार में भाजपा और कांगेस ने अपनी भरपूर ताकत झोंकी। दोनों दलों के स्टार प्रचारकों के अलावा बंद कमरे में रणनीति बनाने वाले भी किसी मामले में पीछे नहीं रहे। दोनों ने ही मतदाताओं को लुभाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दिया। जो चुनाव के दौरान एक दूसरे पर जवाबी हमले में लगे थे तो अब वे अपनी जीत का दावा कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि बीत 10 वर्षो में भाजपा ने राज्य की तस्वीर बदलने का काम किया। हर वर्ग के लिए योजनाएं बनाई है। वे इस क्रम को आगे बढ़ाना चाहते हैं, वे उम्मीद करते हैं कि जनता का साथ और समर्थन उन्हें मिलेगा।

वहीं कांग्रेस के नेता और केद्रीय मंत्री शहरी विकास मंत्री कमलनाथ ने कहा है कि राज्य का किसान, नौजवान, आमआदमी परेशान है और भ्रष्टाचार ने उसका बुराहाल कर रखा है। जनता इस भ्रष्ट सरकार से मुक्ति चाहती है। यही कारण है कि राज्य की जनता बदलाव चाहती है।

भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर को उम्मीद है कि राज्य की जनता एक बार फिर भाजपा को सरकार बनाने का अवसर देगी। जनता के सामने वह सब कुछ है जो भाजपा करना चाहती है, वहीं कांग्रेस के पास करने को कुछ नहीं है, लिहाजा मतदाता कांग्रेस को क्यों वोट देगा।

इसके ठीक उलट केंद्रीय उर्जा राज्यमंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया कहते हैं कि हर चुनाव चुनौतीपूर्ण होता है, यह चुनाव भी ऐसा ही है, यही कारण है कि कांग्रेस ने इस चुनाव को गंभीरता से लिया है। राज्य में बदलाव की लहर है और लोग भाजपा सरकार से परेशान हो चुके हैं। यही कारण है कि कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत होगी ओर सरकार बनेगी।

राज्य के पिछले चुनावों पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि वर्ष 2003 के चुनाव में भाजपा ने 173 विधानसभा क्षेत्रों में जीत दर्ज कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर किया था। वहीं 2008 के चुनाव में भाजपा को जीत तो मिली मगर सीटें घटकर 143 रह गई। दूसरी ओर कांगेस ने सीटें बढ़ी थी। 2008 में कांग्रेस का आंकड़ा 71 तक पहुंच गया।

राज्य के 2013 के विधानसभा चुनाव पिछले दो चुनाव से अलग है। भाजपा के खिलाफ कई इलाकों में असंतोष है वहीं केंद्र सरकार के कामकाज से भी जनता खुश नहीं है। यही कारण है कि दोनों दलों में जीत की आस है, मगर हार मानने को कोई तैयार नहीं है। नेताओं को कौन बताए कि एक की हार तो होगी ही। 

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खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

भारत को अंग्रेजों से आज़ादी दिलाने के लिए 1857 में हुई आजादी की पहली क्रांति में बढ चढकर हिस्सा लेने वाली वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्म आज के ही दिन उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के भदैनी नामक नगर में हुआ था| लक्ष्मी बाई का वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन प्यार से उन्हें 'मनु' कहा जाता था| देश में जब भी महिला सशक्तिकरण की बात होती है तो शायद सबसे पहला नाम इस वीरांगना का ही लिया जाता है| रानी लक्ष्मीबाई ना सिर्फ एक महान नाम है बल्कि वह एक आदर्श हैं उन सभी महिलाओं के लिए जो खुद को बहादुर मानती हैं और उनके लिए भी एक आदर्श हैं जो महिलाएं सोचती है कि वह कुछ नहीं कर सकती|

रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही बेहद साहसी थीं, और उन्होंने बचपन में न सिर्फ शास्त्रों की शिक्षा ली बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| समय पड़ने पर उन्होंने अपने अप्रतिम शौर्य से सबको परिचित भी करवाया| अपनी वीरता के किस्सों को लेकर वह किंवदंती बन चुकी हैं| हर किताब हर जुबान उनकी महान गाथा से ओत-प्रोत होती है| अँगरेज़ भी खुद को उनके शौर्य की प्रशंसा से नहीं रोक सके थे|

बचपन में ली शस्त्रों की शिक्षा

बचपन की मनु, शुरुआत से ही खुद को देश की आज़ादी के लिए तैयार कर रही थी| उन्होंने सिर्फ शास्त्रों की ही नहीं बल्कि शस्त्रों की शिक्षा भी ली| छोटी सी उम्र में ही वह देशभावना के प्रति जागरुक हो गई थी, उनमें अपने देश को आजाद रखने की ललक थी| उन्हें गुड्डे गुड़ियों से ज्यादा तलवार से प्यार था| उन्होंने हर वो गुर सिखा जो किसी शासक के लिए जरूरी होता है| चाहे वो घुड़सवारी हो या तलवारबाजी, मनु का कोई जवाब नहीं था|

गंगाधर राव से विवाह बाद बनी झांसी की रानी

मात्र 12 साल की उम्र में उनका विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हो गया| उनकी शादी के बाद झांसी की आर्थिक स्थिति में अप्रत्याशित सुधार हुआ, जिसके बाद बचपन की मनु, लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हो गई| घुड़सवारी और शस्त्र-संधान में निपुण महारानी लक्ष्मीबाई ने झांसी किले के अंदर ही महिला-सेना खड़ी कर ली थी, जिसका संचालन वह स्वयं करती थीं| इससे उन्होंने महिलाओं के अंदर की शक्ति को उजागर किया और एक मजबूत महिला-सेना का निर्माण किया| लक्ष्मीबाई ने न सिर्फ खुशियों का स्वागत किया बल्कि दुखों को भी सहर्ष स्वीकार किया| पहले पुत्र की मृत्यु फिर पती ने भी प्राण त्याग दिए|

अंग्रेजों से लड़ते हुए मिली वीरगति

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी| रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करते हुए एक स्वयंसेवक सेना का गठन शुरू किया| इस सेना में महिलाओं को भी शामिल किया गया और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया| 1857 के सितंबर तथा अक्तूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया| रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया|

1858 के जनवरी माह में अंग्रेजों ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया| दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने शहर पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी और कालपी पंहुचकर तात्या टोपे से मिली| तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया|

17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में अंग्रेजों से लड़ते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हो गयीं| लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज़ ने टिप्पणी करते हुए लिखा रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं|

महिलाओं के लिए मिसाल

रानी लक्ष्मीबाई ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए न सिर्फ आज़ादी की लड़ाई में अपना योगदान दिया बल्कि महिलाओं के सशक्त रूप को सबके सामने रखा| वहीँ, लक्ष्मीबाई महिलाओं के लिए एक मिसाल बनकर उभरीं| उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए देश उन्हें हमेशा याद करेगा|

विनीत वर्मा

बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

'बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मदार्नी वह तो झांसी वाली रानी थी' कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां आज भी बुंदेलों की जुबान पर हैं। स्वतंत्रता दिवस या आजादी की बात हो और रानी झांसी का जिक्र न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता। 

सन् 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) में फिरंगी सेना की चूल्हे हिला देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यह बात अलग है कि आजादी की लड़ाई का हिस्सा बना बुंदेलखण्ड आज खुद की 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई में अलग-थलग पड़ा हुआ है।

यह विश्व विदित है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सन् 1857 में भड़के विद्रोह में वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारीबाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबले करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था, लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं स्वीकार की थी। 

अंग्रेजों को आभास भी नहीं था कि 19 साल की उम्र में कदम रखने वाली रानी झांसी के सामने उसके सैनिकों को मुंह की खानी पड़ेगी। 21 नवम्बर, 1853 को राजा बाल गंगाधर राव की मौत के बाद सात मार्च, 1854 को अंग्रेजों ने झांसी रियासत को अपने कब्जे में ले लिया था, तमाम प्रयासों के बाद भी फिरंगियों ने जब रानी झांसी को राज्य वापस करने से इंकार कर दिया तो उनके सामने युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं बचा। रानी झांसी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर अंग्रेजी सेना के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस युद्ध में बांदा के नवाब अली बहादुर ने रक्षाबंधन में रानी झांसी द्वारा भेजी गई 'राखी' की कीमत अपनी सेना झांसी की मदद में भेज कर अदा की थी। चार अप्रैल, 1858 को नाना भोपटकर की सलाह पर रात को जब रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ बिठूर की ओर रवाना हुईं तब वह अपनी ही रियासत के राजनीतिक अभिकर्ता मालकम की गद्दारी का शिकार हुईं और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो गईं। 

झांसी की रानी की निर्भीकता और बहादुरी को देखकर ही अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने चार जून, 1858 को कहा था कि 'नो स्टूअर्स इफ वन परसेंट ऑफ इंडियन वुमेन बिकम सो मैड ऐज दिस गर्ल इज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कंट्री (अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा)।' अंग्रेज अधिकारी की यह बात सही साबित हुई और उन्हें यह देश छोड़कर जाना ही पड़ा। लेकिन, आजादी की लड़ाई का हिस्सा बनने वाले इस बुंदेलखण्ड के अब हालात क्या हैं?

बुंदेलखण्ड के इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, "आजादी की जंग में रानी लक्ष्मीबाई और उनकी महिला सेनापति झलकारीबाई ने ब्रिटिश हुकूमत की चूल्हे हिलाकर रख दी थीं। इन दोनों वीरांगनाओं ने युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया, लेकिन फिरंगियों की दासता नहीं स्वीकार की थी।" 

झांसी किले के उन्नाव गेट के नया पुरा मुहल्ला में रहने वाले बुजुर्ग मोहन मास्टर खुद के झलकारीबाई का वंशज होने का दावा करते हुए बताते हैं, "रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल से ही अंग्रेजों को एक भारतीय नारी और बुंदेली माटी की ताकत का अहसास हुआ था।" 

इसी उन्नाव गेट के अंदर रहने वाले मनसुख दास जतारिया को मलाल है कि यदि मालकम ने गद्दारी न की होती तो रानी लक्ष्मीबाई बिठूर पहुंच कर बच सकती थीं। महोबा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बासुदेव चौरसिया कहते हैं, "रानी झांसी जैसी शूरवीरों की शहादत को सहेज कर रख पाना आज की पीढ़ी के लिए बड़ा मुश्किल काम है, बुंदेलखण्ड में झांसी का किला अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता और रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का प्रत्यक्ष गवाह है।" 

बांदा के बुजुर्ग पत्रकार राजकुमार पाठक का कहना है, "आजादी का जश्न हर साल मनाकर सरकार सरकारी परम्परा का निर्वहन करती है, 15 अगस्त या 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराना ही असली आजादी नहीं है।" 

वह कहते हैं, "देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो दो वक्त की रोटी को तरस रहा है और कुछ ही लोग हैं जो आराम से जिंदगी गुजार रहे हैं।" वह सवाल करते हैं, "क्या रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांड़े, रामप्रसाद बिस्मिल, नेता जी सुभाशचंद्र बोस जैसे दीवाने इसी आजादी की कल्पना कर शहीद हुए होंगे?" 

फिल्म अभिनेता और बुंदेलखण्ड कांग्रेस के अध्यक्ष राजा बुंदेला कहते हैं, "बुंदेलखण्ड के लिए आजादी बेमानी है, बुंदेलों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व मानसिक रूप से अब तक आजादी नहीं मिली, यह इलाका आजद देश में अपनी 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई लड़ रहा है।" 

वह कहते हैं, "अंग्रेजों के जमाने में कम से कम इतना तो था कि भूख से तड़प कर कोई आत्महत्या नहीं करता था, यहां तो 'पलायन' और 'आत्महत्या' का अनवरत सिलसिला जारी है, इसे कैसे आजादी माना जा सकता है?"
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'खजुराहों' पत्थरों पर दिखता जीवन का हर रंग

अपने मंदिरों और स्थापत्य कला के लिए लिए दुनिया में मशहूर खजुराहो की छटा देखते ही बनती है। बड़े-बड़े देवालयों पर पत्थरों पर उकेरे गए जिंदगी के हर रंग अद्भुत अनुभव देतें हैं। चंदेल तथा राजपूत कुलों द्वारा 950 से 1100 ई. के बीच निर्मित यह मंदिर अनुपम हैं, जो हिंदू वास्तुकला और मूर्तिकला के कुछ सबसे उत्तम नमूनों का प्रतिनिधित्व करते है। 

मंदिरों की उत्कृष्ट वास्तुकला, उनकी भित्तियों पर जड़ी सर्वोत्तम मूर्तिकला तथा सुव्यस्थित शिल्पकला के कारण इन भव्य मंदिरों का नाम आज यूनेस्को की विश्व विरासत की सूची में भी दर्ज है। मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित खजुराहो के मंदिरों की दीवारों पर बनी कामक्रीणारत मूर्तियों के लिए भी जाना जाता है। इन मंदिरों का शिल्प हमें अपने उदार अतीत की झाँकी दिखाते हैं। काम, धर्म, मोक्ष के जीवन दर्शन को दर्शाते हैं ये मन्दिर। जीवन के हर पक्ष को मूर्तिकारों ने बड़े सजीव तरीके से पत्थरों पर उतरा है। 

यहाँ के मंदिरों कि खास बात ये है कि भौगोलिक स्थिति के आधार पर मंदिरों को पश्चिमी, पूर्वी व दक्षिणी समूहों में बांटा गया है। इसमें पश्चिमी मंदिर समूह में यहां के महत्वपूर्ण मंदिर माने जातें हैं। खजुराहों का सबसे प्राचीन मंदिर मतंगेश्वर मंदिर है। जिसे राजा हर्षवर्मन ने 920 ई में बनवाया था। इन मंदिरों में यही एकमात्र मंदिर है, जिसमें आज भी पूजा अर्चना होती है। पिरामिड शैली में बने इस एक ही शिखर वाले मंदिर की शिल्प रचना साधारण है। गर्भगृह में एक मीटर व्यास का ढाई मीटर ऊंचा शिवलिंग है। मतंगेश्वर मंदिर के सामने ही मंदिरों का मुख्य परिसर है। जिनकी देखरेख पुरातत्व विभाग द्वारा की जाती है। लक्ष्मण मंदिर पंचायतन शैली में बना है। इसके चारों कोनों पर एक-एक उप मंदिर है। मुख्य द्वार पर रथ पर सवार सूर्यदेव की प्रतिमा बनी है। बाहरी दीवारों पर मूर्तिकला का भव्य प्रदर्शन है। अधिकतर मूर्तियां उस काल के जीवन और परपंराओं को दर्शाती हैं, जिनमें नृत्य, संगीत, युद्ध, शिकार जैसे दृश्यों के बीच विष्णु, शिव, अग्निदेव आदि के साथ ही गंधर्व, नायिका, देवदासी, तांत्रिक, पुरोहित आदि की मूतियां हैं।

इसके अलावा कन्दारिया महादेव मंदिर यह खजुराहो के मन्दिरों में सबसे बड़ा मंदिर है। इसकी ऊँचाई लगभग 31 मीटर है। यह भगवन शिव का मन्दिर है, इसके गर्भगृह में एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। इस मंदिर के मुख्य मण्डप में देवी-देवताओं और यक्ष-यक्षिणियों की प्रेम लिप्त तथा अन्य प्रकार की मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां इतनी बारीकी से गढी ग़ईं हैं की इनकी कलाकारी देखते बनती है। इनके आभूषणों का एक-एक मोती अलग से दिखाई देता है और वस्त्रों की सलवटें तक दिखतीं है। चित्रगुप्त मंदिर के नाम से प्रसिद्ध सूर्य देवता का मंदिर है इसलिए यह मन्दिर पूर्वमुखी है। इस मंदिर के गर्भगृह में पाँच फीट ऊँचा रथ पत्थरों की शिलाओं पर बहुत सुन्दरता और बारीकी के साथ उकेरा गया है। इस मंदिर की दीवारों पर उकेरे दृश्य चन्देल साम्राज्य की भव्य जीवन शैली की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। मसलन शाही सवारी, शिकार, समूह नृत्यों के दृश्य। यहाँ पार्श्वनाथ मन्दिर, दुलादेव मन्दिर, चतुरभुज मन्दिर आदि हैं। 


चंदेल इतिहास की उत्कृष्ट अवधि के दौरान निर्मित यह मंदिर, पूरी तरह से बलुआ पत्थर में बने हुए है, जो केन नदी के पूर्वी तट की पन्ना खदानों से लाया गया था। चुने का उपयोग मालूम न होने के कारण पत्थर की सिल्ली को एक साथ जोड़ा जाता था। खजुराहो के सभी मंदिर एक सजातीय शैली और एक विशिष्ट वास्तुकला के साथ शैव, वैष्णव और जैन संप्रदायों से संबंधित हैं। 

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मुजफ्फरनगर हिंसा: मुआवजा बना गले की हड्डी

मुजफ्फरनगर हिंसा के कारण शिविरों में रहने को मजबूर हुए लोग अब पांच लाख रुपये मुआवजे के बदले हलफनामा मांगे जाने से असमंजस में पड़ गए हैं। मुआवजा उनके गले की ऐसी हड्डी बन गई है जिसे वे न निगल पा रहे हैं न निकाल पा रहे हैं। वे निर्णय नहीं ले पा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार की यह मदद स्वीकार की जाए या नहीं। हालांकि, इस बीच कुछ पीड़ितों ने हलफनामा भरकर मुआवजा स्वीकार भी कर लिया है।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बीते दिनों घोषणा की थी कि मुजफ्फरनगर हिंसा के जो पीड़ित फिलहाल राहत शिविरों में रह रहे हैं और भय या अन्य कारणों से अपने गांव-घर नहीं लौटना चाहते हैं, उन्हें पांच लाख रुपये आर्थिक मदद दी जाएगी। अब उस मुआवजे के वितरण का समय आया तो मुजफ्फरनगर जिला प्रशासन मुआवजा लेने वालों से हलफनामा जमा करवा रहा है।

मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने कहा कि शासन ने हिंसा भड़कने के करीब पौने दो महीने बाद घोषणा की थी कि जिन लोगों के गांव में हिंसा हुई और वे गांव वापस नहीं लौटना चाहते हैं, वे शासन से पांच लाख रुपये का मुआवजा लेकर कहीं और बस सकते हैं। शर्मा ने कहा कि जो लोग मुआवजा ले रहे हैं, उनसे हलफनामा भरवाया जा रहा है कि वे मुआवजा लेने के बाद अपने गांव वापस नहीं लौटेंगे। सरकारी जमीन पर कब्जा नहीं करेंगे। किसी सहायता शिविर में नहीं रहेंगे। शासन से प्राप्त पांच लाख रुपये का उपयोग जमीन और घर खरीदने में करेंगे।

जिलाधिकारी ने कहा कि यह लोगों की स्वेच्छा पर है कि हलफनामा भरें और पांच लाख रुपये लें। उल्लेखनीय है कि राहत शिविरों में लगभग 1800 परिवार अभी भी रह रहे हैं। ये लोग असमंजस में पड़ गए हैं कि यह मुआवजा उनके लिए कहीं घाटे का सौदा न बन जाए। अबतक करीब 100 परिवारों ने ही मुआवजा प्राप्त किया है।

बुढ़ाना स्थित राहत शिविर में रह रहे मोहम्मद असलम ने कहा कि राज्य सरकार ने हलफनामे में इस तरह की शर्ते लगाई है कि समझ नहीं आ रहा कि सरकार आर्थिक मदद दे रही है या जख्मों पर नमक छिड़क रही है।

उन्होंने कहा कि पीड़ित परिवार मुआवजा लेने के मुद्दे पर असमंजस में पड़ गए हैं। ज्यादातर लोग इसे घाटे का सौदा मान रहे हैं। शाहपुर निवासी इश्तियाक ने कहा कि राज्य सरकार हमें मुआवजे का लालीपाप देकर राहत शिविरों से निकालना चाहती है। सरकार की मंशा है कि राहत शिविर बंद कर यह दिखाया जाए कि मुजफ्फरनगर में सब कुछ सामान्य है। जबकि सच में ऐसा नहीं है।

कैराना निवासी अफजल ने कहा कि पांच लाख रुपये मुआवजे में राज्य सरकार की शर्त है कि मुआवजा लेने वाले अपने गांव नहीं लौट सकते। भला कोई पांच लाख रुपये के बदले अपना पुस्तैनी घर कैसे छोड़ सकता है। फिलहाल माहौल तनावपूर्ण होने के चलते हम घर लौटने से जरूर डर रहे हैं, लेकिन हमेशा हालात ऐसे ही थोड़े रहेंगे।

इस बीच जिन पीड़ितों ने हलफनामा भरकर मुआवजा प्राप्त कर लिया है, वे भी इसे अपनी मजबूरी बता रहे हैं। मुआवजा प्राप्त कर चुके कुटबा गांव निवासी 45 वर्षीय मोहम्मद जफर ने कहा, "हमारे पास शर्ते स्वीकार कर हलफनामा भरने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। क्योंकि दंगे में हमारा सब कुछ तबाह हो गया। कम से कम सरकार से पांच लाख रुपये की मदद मिलने के बाद हम कहीं छोटा-सा आशियाना बनाकर सुकून की जिंदगी तो जी सकेंगे।"

उल्लेखनीय है कि मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में 7 सितंबर को दो समुदायों के बीच भड़की हिंसा में करीब 50 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए थे। सैकड़ों परिवार घर छोड़कर राहत शिविरों में रहने को मजबूर हो गए थे। 

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