कैसे जन्मे पवनसुत हनुमान

कलियुग में बहुत जल्दी प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं हनुमान जी। आपको बता दें कि जीवन में जब भी कोई अत्यधिक मुश्किल प्रतीत हो रहा हो या लाख कोशिशों के बाद भी वह पूर्ण नहीं हो पा रहा हो या बार-बार बाधाएं उत्पन्न हो रही हों तब हनुमानजी को प्रसन्न कर उन रुकावटों को दूर किया जा सकता है।

हनुमान जी को हिन्दु धर्म में कष्ट विनाशक और भय नाशक देवता के रूप में जाना जाता है| हनुमान जी अपनी भक्ति और शक्ति के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं| सारे पापों से मुक्त करने ओर हर तरह से सुख-आनंद एवं शांति प्रदान करने वाले हनुमान जी की उपासना लाभकारी एवं सुगम मानी गयी है। पुराणों के अनुसार कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी मंगलवार, स्वाति नक्षत्र मेष लग्न में स्वयं भगवान शिवजी ने अंजना के गर्भ से रुद्रावतार लिया।

क्या आप जानते हैं कि हनुमान जी का जन्म कैसे हुआ अगर नहीं जानते हैं तो आज हम आपको बताते हैं कि कैसे जन्मे पवनसुत हनुमान-

आपको बता दें कि हनुमान के जन्म के संबंध में धर्मग्रंथों में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार- भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए। हनुमान जी सब विद्याओं का अध्ययन कर पत्नी वियोग से व्याकुल रहने वाले सुग्रीव के मंत्री बन गए।

उन्होंने पत्नीहरण से खिन्न व भटकते रामचंद्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराई। सीता की खोज में समुद्र को पार कर लंका गए और वहां उन्होंने अद्भुत पराक्रम दिखाए। हनुमान ने राम-रावण युद्ध ने भी अपना पराक्रम दिखाया और संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण के प्राण बचाए। अहिरावण को मारकर लक्ष्मण व राम को बंधन से मुक्त कराया।

तो इसलिए घर के आंगन में लगाई जाती है तुलसी?

हिन्दू धर्म में तुलसी के पौधे का बहुत ही महत्व होता है| ऐसा मानना है कि जिस घर में इसका वास होता है वहा आध्यात्मिक उन्नति के साथ सुख-शांति एवं आर्थिक समृद्धता स्वयं आ जाती है। वातावारण में स्वच्छता एवं शुद्धता, प्रदूषण का शमन, घर परिवार में आरोग्य की जड़ें मज़बूत करने, श्रद्धा तत्व को जीवित करने जैसे अनेकों लाभ इसके हैं। इतना ही नहीं तुलसी भारतीय मूल की ऐसी औषधि है जिसका सांस्कृतिक महत्व है। यहाँ घर में इसके पौधे की उपस्थिति को दैवीय उपहार और सौभाग्यशाली समझा जाता है। भारत में पाई गई यह अब तक की सबसे महत्वपूर्ण और चमत्कारिक औषधि है। आपको बता दें कि सर्दी, खांसी के घरेलू उपचार में इस्तेमाल होने वाली तुलसी का इस्तेमाल परमाणु विकिरण की चपेट में आए लोगों के इलाज में भी किया जा सकता है। 

आज आपको तुलसी की सबसे खास बात बताने जा रहा हूँ आपको पता है आपके घर में पूजी जाने वाले तुलसी घर का वातावरण पूरी तरह पवित्र और कीटाणुओं से मुक्त रखती है। इसे घर का वैद्य कहा गया है। इससे कई तरह की बीमारियां तो दूर होती ही है। साथ ही वास्तुशास्त्र के अनुसार भी इसे घर में रखने का विशेष महत्व माना गया है। तुलसी को घर में लगाने से कई तरह के वास्तुदोष दूर होते हैं। तुलसी के भी बहुत से प्रकार है। जिसमें जिसमें रक्त तुलसी, राम तुलसी, भू तुलसी, वन तुलसी, ज्ञान तुलसी, मुख्यरूप से विद्यमान है। तुलसी की इन सभी प्रजातियों के गुण अलग है। 

धर्मग्रंथों के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वहां रोग, दोष या क्लेश नहीं होता वहां हमेशा सुख-समृद्धि का वास होता है। इसीलिए प्रतिदिन तुलसी के पौधे की पूजा करने का भी विधान है। प्राचीन काल से ही यह परंपरा चली आ रही है कि घर में तुलसी का पौधा होना चाहिए। शास्त्रों में तुलसी को पूजनीय, पवित्र और देवी स्वरूप माना गया है, इस कारण घर में तुलसी हो तो कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए। यदि ये बातें ध्यान रखी जाती हैं तो सभी देवी-देवताओं की विशेष कृपा हमारे घर पर बनी रहती है। घर में सकारात्मक और सुखद वातावरण बना रहता है, पैसों की कमी नहीं आती है और परिवार के सदस्यों को स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। 

हर रोज तुलसी पूजन करना चाहिए के साथ ही यहां बताई जा रही सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए। साथ ही, हर शाम तुलसी के पास दीपक लगाना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि जो लोग शाम के समय तुलसी के पास दीपक लगाते हैं, उनके घर में महालक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रहती है। तुलसी घर-आंगन में होने से कई प्रकार के वास्तु दोष भी समाप्त हो जाते हैं और परिवार की आर्थिक स्थिति पर शुभ असर होता है। ऐसी मान्यता है कि तुलसी का पौधा होने से घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती है। साथ ही, सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय नहीं हो पाती है। सकारात्मक ऊर्जा को बल मिलता है।

देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। भगवान विष्णु, योगेश्वर कृष्ण और पांडुरंग (श्री बालाजी) की पूजन के समय तुलसी का हार उनकी प्रतिमाओं को अर्पण किया जाता है। तुलसी का रोजाना दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन आदि पूजन करने से पुण्य मिलता है। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण को तुलसी अत्यंत प्रिय है। सोना, रत्न, मोती से बने पुष्प यदि श्रीकृष्ण को चढाएं जाएं तो भी तुलसी के बिना वे अधूरे हैं।

जानिए ब्रह्मा जी के 4 मुख क्यों?

हिंदू मान्यता में तीन देव ब्रह्मा, विष्णु व शिव को अनादि अौर अनंत माना जाता है। अनादि या अनंत का अर्थ है, जिनका न कभी जन्म हुआ और न कभी अंत होगा। इसलिए इनके स्वरूप को लेकर पुराणों में अलग-अलग वर्णन मिलता है। ब्रह्मा को पूरे ब्रह्मांड का रचयिता माना गया है। वहीं भगवान विष्णु को पालनकर्ता और शिव को संहारक कहा गया है। पुराणों से पहले वेद और उपनिषदों ने ब्रह्मा को तत्व रूप में बताया है, जबकि पुराणों में उन्हें मानवीय रूप में चित्रित किया गया है।

श्रीमद् भागवत पुराण में बताया गया है कि ब्रह्माजी की उत्पति भगवान विष्णु की नाभि से हुई है। जब ब्रह्माजी प्रकट हुए तो उन्हें कोई लोक दिखाई नहीं दिया। तब वे आकाश में चारों ओर देखने लगे, इससे उनके चारों दिशाओं में चार मुख हो गए। दरअसल ब्रह्माजी के चार मुख चारों युगों के प्रतीक हैं। चारों दिशाओं के प्रतीक हैं। 

चारों पुरुषार्थ के प्रतीक हैं। चारों वेदों के प्रतीक हैं। ब्रह्माजी के चार मुख ब्रह्म तत्व की सर्वव्यापकता का प्रतीक है। सरल शब्दों में कहे तो ब्रह्मा यानी भगवान शरीर रूप में नहीं, बल्कि तत्व रूप में हर जगह मौजूद हैं। किसी भी लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहां भगवान न रहते हों।

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आरती के बाद क्यों जलाते हैं कपूर?

हिन्दू धर्म में संध्यावंदन, आरती या प्रार्थना के बाद कर्पूर जलाकर उसकी आरती लेने की परंपरा है। पूजन, आरती आदि धार्मिक कार्यों में कर्पूर का विशेष महत्व बताया गया है। रात्रि में सोने से पूर्व कर्पूर जलाकर सोना तो और भी लाभदायक है। लेकिन क्या आपको पता है कर्पूर क्यों जलाया जाता है?

कर्पूर अति सुगंधित पदार्थ होता है। इसके दहन से वातावरण सुगंधित हो जाता है। कर्पूर जलाने से देवदोष व पितृदोष का शमन होता है। रात में सोते वक्त कर्पूर जलाने से नींद अच्छी आती है। प्रतिदिन सुबह और शाम कर्पूर जलाते रहने से घर में किसी भी प्रकार की आकस्मि घटना और दुर्घटना नहीं होती।

वैज्ञानिक शोधों से यह भी ज्ञात हुआ है कि इसकी सुगंध से जीवाणु, विषाणु आदि बीमारी फैलाने वाले जीव नष्ट हो जाते हैं जिससे वातावरण शुद्ध हो जाता है तथा बीमारी होने का भय भी नहीं रहता।

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क्यों होते हैं सात फेरे और सात वचन

आपको पता है हिन्दू धर्मानुसार विवाह में सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूरी होती है, सात फेरों के बाद वर और कन्या द्वारा सात वचन लिए जाते हैं। प्रात:काल मंगल दर्शन के लिए सात पदार्थ शुभ माने गए हैं। गोरोचन, चंदन, स्वर्ण, शंख, मृदंग, दर्पण और मणि इन सातों या इनमें से किसी एक का दर्शन अवश्य करना चाहिए। सात क्रियाएँ मानव जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसलिए इन्हें रोज जरूर करना चाहिए। शास्त्रों में माता, पिता, गुरु, ईश्वर, सूर्य, अग्नि और अतिथि इन सातों को अभिवादन करना अनिवार्य बताया गया है। 

हिन्दू धर्मानुसार ईष्र्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा और कुविचार ये सात आंतरिक अशुद्धियाँ बताई गई हैं। अत: इनसे सदैव बचना चाहिए, क्योंकि इनके रहते बाह्यशुद्धि, पूजा-पाठ, मंत्र-जप, दान-पुण्य, तीर्थयात्रा, ध्यान-योग तथा विद्या ज्ञान ये सातों निष्फल ही रहते हैं। अत: मानव जीवन में सात सदाचारों का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। इनका पालन करने से ये सात विशिष्ट लाभ होते हैं - जीवन में सुख, शांति, भय का नाश, विष से रक्षा, ज्ञान, बल और विवेक की वृद्धि होती हैं। 

इसीलिए ऐसा माना जाता है, क्योंकि वर्ष एवं महीनों को सात दिनों के सप्ताह में विभाजित किया गया है। सूर्य के रथ में सात घोड़े होते हैं जो सूर्य के प्रकाश से मिलनेवाले सात रंगों में प्रकट होते हैं। आकाश में इंद्र धनुष के समय वे सातों रंग स्पष्ट दिखाई देते हैं। दांपत्य जीवन में इंद्रधनुषी रंगों की सतरंगी छटा बिखरती रहे। इसीलिए शादी में सात फेरे और सात वचन लिए जाते हैं।

अंगूठा देखकर स्वयं जानिए अपना व अपने दोस्तों का स्वभाव

भविष्य से जुड़े सभी प्रश्नों के सटीक उत्तर ज्योतिष शास्त्र के अनुसार प्राप्त किए जा सकते हैं। यदि किसी व्यक्ति को ज्योतिष में महारत हासिल हो तो वह आने वाले कल में होने वाली घटनाओं की जानकारी दे सकता है। भविष्य जानने की कई विद्याएं प्रचलित हैं, इन्हीं में से एक विद्या है हस्तरेखा ज्योतिष। हाथों में दिखाई देने वाली रेखाएं और हमारे भविष्य का गहरा संबंध है। इन रेखाओं का अध्ययन किया जाए तो हमें भविष्य में होने वाली घटनाओं की भी जानकारी प्राप्त हो सकती है। 

हाथ की बनावट द्वारा जातक के चरित्र व स्वभाव का अध्ययन करने में अंगूठे का वही स्‍थान है, जो मुखा‍कृति विज्ञान में नाक का है। अंगूठा केवल दिखाने के काम में नहीं आता, बल्कि वह जातक की इच्‍छाशक्ति को दर्शाता है। जातक के अंगूठे का अध्ययन चार बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है।

अंगूठे मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं- लचकदार और दृढ़। लचकदार अंगूठा वह होता है जिसका ऊपरी भाग, अंगूठा कड़क करने पर पीछे की ओर मुड़ जाता है जबकि दृढ़ अंगूठे का ऊपरी भाग सीधा रहता है। लचकदार अंगूठे वाले जातक नरम स्वभाव के खुले दिल वाले होते हैं। वे किसी निर्णय पर टिके नहीं रह पाते। बार-बार निर्णय बदल देते हैं। वे अपरिचितों से आसानी से मित्रता कर लेते हैं। इसके विपरीत दृढ़ अंगूठे वाले जातक दृढ़ एवं स्थिर स्वभाव के होते हैं। वे तुरंत निर्णय नहीं लेते, बल्कि सोच-विचार कर निर्णय लेते हैं और उस पर अडिग रहते हैं। वे आसानी से मित्रता स्थापित नहीं करते।

हाथ को इस प्रकार फैलाने पर कि चारों अंगुलियां तो चिपकी रहें और अंगूठा उनसे अलग रहे, तब हमें अंगूठे और तर्जनी के मध्य कोण प्रतीत होता है। ऐसे जातक जिनकी तर्जनी अंगुली और अंगूठे के मध्य अधिक कोण बनता है, वे कोमल हृदय के, विद्याप्रेमी, कलाकार एवं कलाप्रेमी होते हैं। उनके मित्रों की संख्या अधिक और शत्रुओं की संख्‍या कम होती है। वे भाग्यवादी, शंकालु व धार्मिक होते हैं।

यदि समकोण बने तो समझ जाइए ऐसे जातक हठी होते हैं। उनमें प्रतिशोध की भावना भी अधिक रहती है। ये टूट सकते हैं, परंतु झुकते नहीं। वे मन में एक बार जो निश्चित कर लेते हैं उसे पूर्ण करके ही रहते हैं। वे स्वेच्छाचारी होते हैं| वहीँ यदि न्यून कोण बने तो समझ जाइए ऐसे अंगूठे वाले जातक निराशावादी और आलसी होते हैं। वे व्यसनों में रत और कर्ज में डूबे रहते हैं। वे धर्म-कर्म की अपेक्षा भूत-प्रेम में अधिक विश्वास करते हैं।

इसके अलावा आप अपना पोरुआ देखकर भी जान सकते हैं कि आपका स्वभाव कैसा है| अब आप पोरुआ कैसे जान पाएंगे तो आपको बता दें कि हथेली की ओर से अंगूठा तीन भागों में विभक्त रहता है जिन्हें पोरूआ कहा जाता है। प्रथम पोरूआ, जो नाखून से चिपका रहता है वह इच्छाशक्ति का सूचक है। द्वितीय पोरूआ तर्कशक्ति दर्शाता है एवं तीसरा पोरूआ प्रेमशक्ति प्रदर्शित करता है।

जिस जातक के अंगूठे का प्रथम पोरूआ, द्वितीय पौरूए से बड़ा होता है उसमें प्रबल इच्‍छाशक्ति होती है। वह तर्क की अपेक्षा इच्छा पर अधिक बल देता है। वे निर्णय लेने में हस्तक्षेप पसंद नहीं करते। जिस जातक के अंगूठे का द्वितीय पोरूआ बड़ा है और प्रथम अपेक्षाकृत छोटा होता है, उनमें तर्कशक्ति प्रबल होती है। वे प्रत्येक बात को तर्क से जांचते हैं। वे जब भी विजय पाते हैं, तर्क के बल पर ही पाते हैं। 

जिस जातक के प्रथम व द्वितीय दोनों पौरूए बराबर होते हैं, वे सफल जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं। वे सभी कार्यों में सफल होते हैं। उनमें तर्कशक्ति और इच्छाशक्ति बराबर रहती है। अंगूठे का तृतीय भाग पोरूआ न होकर शुक्र का पर्वत ही होता है। यह प्रथम या द्वितीय पौरूए की अपेक्षा निश्चित ही बड़ा होता है। 

यदि यह सुंदर व लालिमायुक्त हो, तब व्यक्ति प्रेम में बड़ा होता है। वे प्रेम में त्याग करने को तैयार रहते हैं। उनका वैवाहिक जीवन आनंददायक रहता है। यदि यह क्षेत्र दबा हुआ हो तो व्यक्ति निराशावादी होते हैं। उनके प्रेम में वासना व स्वार्थ छिपा रहता है। उनका वैवाहिक जीवन भी मधुर नहीं रहता।
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आखिर नदी, जलाशय में सिक्का क्यों फेंकते हैं लोग?

अक्सर आपने देखा होगा कि लोग जब कही जा रहे होते हैं यदि बीच मार्ग में कोई नदी, जलाशय आ जाता है या फिर किसी धार्मिक स्थल पर भी कोई पवित्र जलाशय मिल जाता है तो लोग सिक्का निकालकर उसमें फेंक देते हैं| कभी आपने सोचा है कि आखिर लोग ऐसा क्यों करते हैं? क्या पाने में सिक्के फेंकने के पीछे कोई धार्मिक कारण है? क्या विज्ञान ऐसा करने की इजाजत देता है? 

प्राचीन समय से चली आ रही इस मान्यता के पीछे कई सारे कारण छिपे हैं जिसमें से एक है लोगों का एक विश्वास। बहुत से लोग मानते हैं कि पानी में सिक्का फेंकने से जीवन में चल रहा नकारात्मक प्रभाव दूर होता है। ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में खुशहाली आती है।

कुछ बुजुर्गों का मानना है की नदी पर भूत-प्रेत का साया मंडराता है उस साय को प्रसन्न करने के लिए नदी में सिक्के डाले जाते हैं। अब पीतल, तांबा या चांदी के सिक्कों का चलन बंद होने से लोग स्टील के सिक्के नदी को भेंट करते हैं।

ज्योतिष शास्त्र और लाल किताब के अनुसार तांबे का सिक्का पानी में डालने से सूर्य देव अनुकुल होते हैं और पितरों की कृपा प्राप्त होती है। बदलते दौर में तांबे के सिक्कों का प्रचलन समाप्त होने से स्टेनलेस स्टील के सिक्कों को उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अब लोग पानी में फेंकते हैं।

कुछ लोगों की मान्यता है कि नदी में सिक्के अर्पित करने से उनके जीवन में आ रही बाधा और परेशानियों से नकारत्मकता का अंत होगा और सकारात्मकता का संचार होगा। धन की देवी लक्ष्मी प्रसन्न होकर अपनी कृपा बनाएं रखेंगी। 

वैज्ञानिक कारण की बात करे तो विभिन्न धातुओं के मिश्रण से पानी की शुद्धता हमेशा बरक़रार रहती है।यही कारण है कि आज भी कई दुर्लभ धातुओं के भस्मों से गम्भीर बीमारी का उपचार किया जाता है। साथ ही तांबे को सूर्य का धातु माना जाता है और यह हमारे शरीर के लिए भी आवश्यक तत्व है। इसके साथ ही मानव जीवन के लिए जड़ी-बुटी या धातुओं की आवश्यकता बहुत जरूरी है।

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जानिए ब्रह्माजी ने क्यों बनाया अधिकमास

हिन्दू वर्ष में 12 माह होते हैं, लेकिन यह वर्ष करीब 13 माह का होगा। 12 चंद्र मास लगभग 354 दिन का होता है, जिसमें सूर्य की 12 संक्रांतियां होती हैं। जिस चन्द्र मास में सूर्य की संक्रांति नहीं होती है उसे मलमास या पुरुषोत्तम मास कहा जाता है| अधिकमास के संबंध में हिंदू पौराणिक कथाओं में कई किंवदंतियां मिलती हैं। कहते हैं अधिकमास के पीछे हिरण्यकशिपु का पहेलीनुमा वरदान था, जिसे सुलझाने के लिए ब्रह्माजी ने अधिक मास बनाया।

विष्णु पुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार आदिपुरुष कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हुए। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। हिरण्यकशिपु ने कठिन तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और वरदान मांगा कि, ' न वह किसी मनुष्य द्वारा मारा जा सकेगा और न पशु द्वारा, न दिन में मारा जा सकेगा न रात में, न घर के अंदर न ही घर के बाहर, न किसी अस्त्र के प्रहार से और न किसी शस्त्र के प्रहार से, न ही वर्ष के किसी माह में उसे नहीं मारा जा सके।

ब्रह्माजी ने उसे यह वरदान दे दिया। वरदान पाकर हिरण्यकशिपु अहंकारी बन गया। उसने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। युद्ध कर देवराज इंद्र से स्वर्ग भी छीन लिया। लेकिन उसका एक पुत्र था जिसका नाम था प्रह्लाद था, वह भगवान विष्णु का भक्त था। उसने अपने पुत्र को कई यातनाएं दीं ताकि वह पिता को भगवान मान कर उनकी पूजा करे, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को ऊंची चोटी से फिंकवाया। हाथी के नीचे कुचलवाया यहां तक कि अपनी बहन होलिका के जरिए उसे अग्निदाह भी करवाया लेकिन उसे किसी भी तरह से हानि नहीं पहुंचा सका।

अंत में जब उसके पापों का घड़ा भर गया तो भगवान विष्णु नृसिंह अवतार में प्रकट हुए। उन्होंने हिरण्यकशिपु से कहा कि, तुम्हारे वरदान के अनुसार न मैं मनुष्य हूं और न ही पशु, क्योंकि मेरा शरीर मनुष्य का है लेकिन सिर सिंह का। इस समय न दिन है और न रात यानी दिन का आखिरी प्रहर शाम के 6 बजे हुए हैं। न तुम इस समय घर में हो और न ही घर के बाहर यानी तुम घर की दहलीज(देहरी) पर है। और यह अधिक मास है। यानी वर्ष का 13 माह जो कि तुम्हारी मृत्यु की पहेली के लिए बनाया गया है। हिरण्यकशिपु तु्म्हें मैं किसी शस्त्र से नहीं बल्कि अपने नाखूनों से मारूंगा। इस तरह अब तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। इस तरह भगवान नृसिंह ने हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। 

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीनकाल में जब अधिक मास उत्पन्न हुआ, तब स्वामी रहित होने के कारण उसे मलमास कहा गया। सर्वत्र निंदा होने पर वह बैकुंठ में भगवान विष्णु के पास पहुंचा और अपनी व्यथा सुनाई। मलमास की पीड़ा सुनकर भगवान विष्णु उसे सर्वेश्वर श्रीकृष्ण के पास ले गए। मलमास का दुख जानने के बाद भगवान श्रीकृष्ण उसे वरदान देते हुए बोले, मैं अब मलमास का स्वामी हो गया हूं, इसलिए आज से यह पुरुषोत्तम के नाम से जाना जाएगा।

पुरुषोत्तम मास में सारे काम भगवान को प्रसन्न करने के लिए निष्काम भाव से ही किए जाते हैं। इससे प्राणी में पवित्रता का संचार होता है। इस मास में किसी कामना की पूर्ति के लिए अनुष्ठान का आयोजन या विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, नींव-पूजन, गृह-प्रवेश आदि सांसारिक कार्य सर्वथा निषिद्ध हैं। अधिक मास में भगवान विष्णु या श्रीकृष्ण की उपासना, जप, व्रत, दान आदि करना चाहिए। संतों का कहना है कि अधिक मास में की गई साधना हमें ईश्वर के निकट ले जाती है।

वट सावित्री व्रत कल, जानिए पूजन विधि, महत्व व कथा

हमारे देश में महिलाएं अपने सुहाग की रक्षा के लिए तरह-तरह के व्रत करती हैं। वट सावित्री व्रत उनमें सबसे प्रमुख है| हर वर्ष सुहागिन महिलाओं द्वारा ज्येष्ठ मास की अमावस्या को वट सावित्री व्रत रखा जाता है| इस बार वट सावित्री पूजा 17 मई रविवार को है| इस बार अमावस्या दो दिन पड़ रही है| पहला दिन व्रत की अमावस्या है और दूसरे दिन स्नान दान की अमावस्या है| मान्यता है कि वटवृक्ष की जडों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का निवास स्थान है| इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सति सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवति महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है|

ऐसे करें वट सावित्री व्रत और पूजन

सुहागन स्त्रियां वट सावित्री व्रत के दिन सोलह श्रृंगार करके सिंदूर, रोली, फूल, अक्षत, चना, फल और मिठाई से सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करें। यह व्रत करने वाली स्त्रियों को चाहिए कि वह वट के समीप जाकर जल का आचमन लेकर कहे-ज्येष्ठ मात्र कृष्ण पक्ष त्रयोदशी अमुक वार में मेरे पुत्र और पति की आरोग्यता के लिए एव जन्म-जन्मान्तर में भी मैं विधवा न होऊं इसलिए सावित्री का व्रत करती हूं। वट के मूल में ब्रह्म, मध्य में जर्नादन, अग्रभाग में शिव और समग्र में सावित्री है। हे वट! अमृत के समान जल से मैं तुमको सींचती हूं। ऐसा कहकर भक्तिपूर्व एक सूत के डोर से वट को बांधे और गंध, पुष्प तथा अक्षत से पूजन करके वट एवं सावित्री को नमस्कार कर प्रदक्षिणा करे|

वट सवित्री व्रत कथा

प्राचीनकाल में मद्रदेश में अश्वपति नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा, ब्राह्मणभक्त, सत्यवादी और जितेन्द्रिय थे। राजा को सब प्रकार का सुख था, किन्तु कोई सन्तान नहीं थी। इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति की कामना से अठारह वर्षों तक पत्नि सहित सावित्री देवी का विधि पूर्वक व्रत तथा पूजन कठोर तपस्या की। सर्वगुण देवी सावित्री ने प्रसन्न होकर पुत्री के रूप में अश्वपति के घर जन्म लेने का वर दिया। यथासमय राजा की बड़ी रानी के गर्भ से एक परम तेजस्विनी सुन्दर कन्या ने जन्म लिया। राजा ने उस कन्या का नाम सावित्री रखा। राजकन्या शुक्ल पक्षके चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उसने युवावस्था में प्रवेश किया। उसके रूप-लावण्य को जो भी देखता उसपर मोहित हो जाता।

कन्या के युवा होने पर अश्वपति ने सावित्री के विवाह का विचार किया । राजा के विशेष प्रयास करने पर भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला। उन्होंने एक दिन सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम विवाह के योग्य हो गयी हो, इसलिये स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो।’ पिताकी आज्ञा स्वीकार कर सावित्री योग्य मन्त्रियों के साथ स्वर्ण-रथपर बैठकर यात्रा के लिये निकली। कुछ दिनों तक ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों के तपोवनों और तीर्थोंमें भ्रमण करने के बाद वह राजमहल में लौट आयी। उसने पिता के साथ देवर्षि नारद को बैठे देखकर उन दोनों के चरणों में श्रद्धा से प्रणाम किया। महाराज अश्वपति ने सावित्री से उसी यात्रा का समाचार पूछा सावित्री ने कहा—पिताजी ! तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् सर्वथा मेरे योग्य हैं। अतः सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें मैंने पति रूप में वरण कर लिया है | ’ नारद जी सत्यवान तथा सावित्री के ग्रहो की गणना कर राजा अश्वति से बोले—‘राजन ! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल कर दी है। सत्यवान् के पिता शत्रुओं के द्वारा राज्य से वंचित कर दिये गये हैं, वे वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं और अन्धे हो चुके हैं। सबसे बड़ी कमी यह है कि सत्यवान् की आयु अब केवल एक वर्ष ही शेष है। और सावित्री के बारह वर्ष की आयु होने पर सत्यवान कि मृत्यु हो जायेगी ।’

नारदजी की बात सुनकर राजा अश्वपति व्यग्र हो गये। उन्होंने सावित्री से कहा—‘बेटी ! अब तुम फिर से यात्रा करो और किसी दूसरे योग्य वर का वरण करो।’

सावित्री सती थी। उसने दृढ़ता से कहा—‘पिताजी ! आर्य कन्या होने के नाते जब मै सत्यवान का वरण कर चुकी हूँ तो अब सत्यवान् चाहे अल्पायु हों या दीर्घायु, अब तो वही मेरे पति बनेगें। जब मैंने एक बार उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया, फिर मैं दूसरे पुरुषका वरण कैसे कर सकती हूँ ?’

सावित्री का निश्चय दृढ़ जानकर महाराज अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान् से कर दिया।सावित्री ने नारदजी से सत्यवान की मृत्यु का समय ज्ञातकर लिया तथा अपने श्वसुर परिवार के साथ जंगल मे रहने लगी । धीरे-धीरे वह समय भी आ पहुँचा, जिसमें सत्यवान् की मृत्यु निश्चित थी। सावित्री ने नादरजी द्वारा बताय हुये दिन से तीन दिन पूर्व से ही निराहार व्रत रखना शुरू कर दिया था। नारद द्वारा निश्चित तिथि को पति एवं सास-ससुर की आज्ञा से सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-मूल और लकड़ी लेने के लिये गयी। सत्यवान वन में पहुँचकर लकडी काटने के लिए बड के पेड पर चढा । अचानक वृक्ष से लकड़ी काटते समय सत्यवान् के सिर में भंयकर पीडा होने लगी और वह पेड़ से नीचे उतरा। सावित्री ने उसे बड के पेड के नीचे लिटा कर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया (कही-कही ऐसा भी उल्लेख मिलता हैं कि वट वृक्ष के नीचे लेटे हुए सत्यवान को सर्प ने डस लिया था) । उसी समय सावित्री को लाल वस्त्र पहने भयंकर आकृति वाला एक पुरुष दिखायी पड़ा। वे साक्षात् यमराज थे। यमराज ने ब्रम्हा के विधान के रूप रेखा सावित्री के सामने स्पष्ट की और सावित्री से कहा—‘तू पतिव्रता है। तेरे पति की आयु समाप्त हो गयी है। मैं इसे लेने आया हूँ।’ इतना कहकर देखते ही देखते यमराज ने सत्यवान के शरीर से सूक्ष्म जीवन को निकाला और सत्यवान के प्राणो को लेकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी सत्यावान को वट वृक्ष के नीचे ही लिटाकर यमराज के पीछे पीछे चल दी । पीछे आती हुई सावित्री को यमराज ने उसे लौट जाने का आदेश दिया । इस पर वह बोली महराज जहा पति वही पत्नि । यही धर्म है, यही मर्यादा है । सावित्री की बुद्धिमत्ता पूर्ण और धर्मयुक्त बाते सुनकर यमराज का हृदय पिघल गया। सावित्री के धर्म निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज बोले पति के प्राणो से अतिरिक्त कुछ भी माँग लो । सावित्री ने यमराज से सास-श्वसुर के आँखो ज्योती और दीर्घायु माँगी । यमराज तथास्तु कहकर आगे बढ गए सावित्री भी यमराज का पीछा करते हुये रही । यमराज ने अपने पीछे आती सावित्री से वापिस लौटे जाने को कहा तो सावित्री बोली पति के बिना नारी के जीवन के कोई सार्थकता नही । यमराज ने सावित्री के पति व्रत धर्म से खुश होकर पुनः वरदान माँगने के लिये कहा इस बार उसने अपने श्वसुर का राज्य वापिस दिलाने की प्रार्थना की । तथास्तु कहकर यमराज आगे चल दिए सावित्री अब भी यमराज के पीछे चलती रही इस बार सावित्री ने सौ पुत्रो का वरदान दिया है, पर पति के बिना मैं पुत्रो का वरदान दिया है पर पति के बिना मैं माँ किस प्रकार बन सकती हूँ, अपना यह तीसरा वरदान पूरा कीजिए। सावित्री की धर्मनिष्ठा,ज्ञान, विवेक तथा पतिव्रत धर्म की बात जानकर यमराज ने सत्यवान के प्राणो को अपने पाश से स्वतंत्र कर दिया । सावित्री सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान के प्राण को लेकर वट वृक्ष के नीचे पहुँची जहाँ सत्यवान का मृत शरीर रखा था । सावित्री ने वट वृक्ष की परिक्रमा की तो सत्यवान जीवित हो उठा । प्रसन्नचित सावित्री अपने सास-श्वसुर के पास पहुँची तो उन्हे नेत्र ज्योती प्राप्त हो गई इसके बाद उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हे मिल गया आगे चलकर सावित्री सौ पुत्रो की माता बनी ।

इस प्रकार सावित्री ने सतीत्व के बल पर न केवल अपने पति को मृत्यु के मुख से छीन लिया बल्कि पतिव्रत धर्म से प्रसन्न कर यमराज से सावित्री ने अपने सास-ससुर की आँखें अच्छी होने के साथ राज्यप्राप्त का वर, पिता को पुत्र-प्राप्ति का वर और स्वयं के लिए पुत्रवती होने के आशीर्वाद भी ले लिया। तथा इस प्रकार चारो दिशाएँ सावित्री के पतिव्रत धर्म के पालन की कीर्ति से गूँज उठी ।

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स्वाद और सेहत का खजाना है सलाद

सलाद हमारे भोजन में बहुत महत्व रखता है। सलाद खाने से हमारे शरीर को सारे पौष्टिक तत्व मिलते हैं। इसीलिए इसे रात को खाना खाने से पहले या खाने के साथ खाना चाहिए। सलाद पेट तो भरता ही है ज्यादा खाना खाने से भी बचाता है। संतुलित भोजन के सेवन से संक्रामक रोगों से जहां बचा जा सकता है वहां पौष्टिक तत्वों के सेवन से शरीर का सुचारू रूप से विकास भी होता है। अनियमित भोजन से मनुष्य विभिन्न रोगों का शिकार हो जाता है जो अंत में उग्र रूप धारण कर लेते हैं। सलाद का भोजन के साथ प्रमुख स्थान होने का मुख्य कारण इसमें सभी विटामिनों, पौष्टिक तत्वों, लोहा, फास्फोरस, गंधक, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, प्रोटीन आदि का होना है।

हरी मिर्च, मूली, गाजर, टमाटर, बंदगोभी, प्याज, नींबू, अदरक आदि के कच्चा खाने पर मूल रूप से अधिक से अधिक विटामिन प्राप्त हो जाते हैं जो स्वास्थ्य बनाये रखने हेतु लाभदायक हैं। सब्जियों को उबाल कर बनाने से विटामिन्स नष्ट हो जाते हैं अथवा शरीर को आवश्यकतानुसार नहीं मिल पाते। यदि सलाद के साथ-साथ पोदीन की चटनी का सेवन करें तो यह अति गुणकारी होता है। इससे पाचन क्रिया सुदृढ़ होती है। भोजन शीघ्र पचता है। मूली से विटामिन बीसी और गाजर से विटामिन एसी लोहा तथा शलजम से विटामिन बी, सी, अधिक एवं वसा की कम प्राप्ति होती है। प्याज में विटामिन बीसी गंधक, फास्फोरस पर्याप्त मात्रा में मिलता है। बंदगोभी से तो विटामिन ए, बीसी, के अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट्स, लवण और वसा की प्राप्ति में बहुत लाभ है। टमाटर से भी एबीसी के साथ कार्बोज, प्रोटीन, वसा आदि प्राप्त होता है। नींबू से भरपूर विटामिन सी मिलता है। चुकंदर तो पूर्ण स्वास्थ्यवर्ध्दक है।

चुकन्दर, मूली, शलजम आदि के मुलायाम पत्तों को भी सलाद रूप में सेवन करने से सर्वाधिक विटामिन मिलते हैं। वृध्दावस्था में सलाद का खाना एक समस्या बन जाता है। इसके लिये सलाद को जहां तक हो सके, तरल एवं बारीक बनाया जा सकता है। मूली, गाजर, शलजम, अदरक आदि को कसकर और टमाटर का जूस निकाल कर आसानी से सलाद के रूप में सेवन किया जा सकता है। अतः सलाद बच्चों, बूढ़ों, जवानों एवं महिलाओं आदि के लिये सेवन करना अति गुणकारी है क्योंकि यह स्वयं में एक वैद्य है। यह शरीर में सभी कमियों को दूर कर रक्त को शुध्द कर पूर्ण स्वास्थ्य लाभ पहुंचाता है जिसके कारण मानव अनेक रोगों का शिकार हो जाता है।

गर्भावस्था के दौरान भी सलाद के पत्ते खाना बहुत लाभदायक होता है। कम कैलोरी में इससे ज़्यादा ख़ुराक मिल जाती है। विशेष रूप से इसमें मौजूद फोलिक एसिड, जिसकी गर्भावस्था के समय तथा बाद में भी शरीर को आवश्यकता रहती है, अच्छी मात्रा में पाया जाता है। फोलिक एसिड मेगालोब्लास्टिक एनिमिया को रोकता है। तथा जिनमें बार बार गर्भपात की संभावना रहती है उन्हें भी कच्चे सलाद के पत्ते खाने की सलाह दी जाती है। कच्चे सलाद के पत्ते खाने से महिलाओं के शरीर में प्रोजेस्टेरोन होरमोन के स्राव पर भी प्रभाव पड़ता है। भोजन के तुरंत बाद सलाद के पत्ते चबाने से दाँतों की बहुत सी बीमारियों जैसे गिंगिविटिस, पायरिया, हेलीटोसिस, स्टोमेटिटिस आदि से निजात मिल सकती है। जिह्वा पर उपस्थित स्वादग्राही तंतुओं तथा इनेमल के क्षय में भी रूकावट पड़ती है। प्रतिदिन आधा लीटर सलाद के पत्ते तथा पालक के रस को पीने से बालों का झड़ना भी कम होता है। 

खीरे का सलाद कब्ज दूर करता है। पीलिया, प्यास, ज्वर, शरीर की जलन और गर्मी की सारी समस्याओं को दूर करता है तथा इससे चर्म रोगों में लाभ पहुंचता है। यदि आपके सलाद में टमाटर भी है तो इससे शरीर में विटामिन ए की कमी को पूरा किया जा सकता है। कच्चा टमाटर खाने से कब्ज़ दूर होती है। यह पाचन शक्ति को बढ़ाता है और रक्त चाप तथा मोटापे को कम करने में भी सहायक सिद्ध होता है। यदि सलाद में खीरे और टमाटर के अतिरिक्त ककड़ी भी हो तो बहुत अच्छी बात है क्योंकि इसमें पोटेशियम तत्व बहुत मिलते हैं।

रोजाना विटामिन सी के सेवन से कैंसर व हृदय रोगों का जोखिम कम हो जाता है। ये इम्यूनिटी के लिए भी महत्वपूर्ण हैं और इन्हीं की बदौलत सर्दी ज़ुकाम तथा वायरसों के अन्य हमलों की अवधि व गंभीरता में कमी आती है। ताजा फलों व सब्जियों में शक्तिशाली एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं, जैसे विटामिन ए और सी, जो हृदयरोग व कैंसर से बचाव करते हैं। सलाद के पत्ते जैसे कि लैटूयूस में कैलोरी कम होती है और इनमें 90 प्रतिशत पानी होता है; लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि इसमें कई महत्वपूर्ण विटामिन व खनिज होते हैं, जैसे कि कैल्शियम, तांबा, पोटेशियम, आयरन, विटामिन ए और सी।

गैस की समस्या से हैं परेशान तो अपनाइए ये घरेलू नुस्खे

लगातार बैठ कर काम करने और खान-पान सावधानी नहीं रखने के कारण गैस की समस्या आज आम हो गई है। इस रोग में डकारें आना, पेट में गैस भरने से बेचैनी, घबराहट, छाती में जलन, पेट में गुड़गुडाहट, पेट व पीठ में हलका दर्द, सिर में भारीपन, आलस्य व थकावट तथा नाड़ी दुर्बलता जैस लक्षण देखने को मिलते हैं। कभी-कभी भूख नहीं लगने पर भी कुछ न कुछ खाने की बेवजह आदतों से भी पेट में एसिडिटी बनने लगती है। यदि आपको भी गैस की समस्या रहती है तो अब घबराने की जरुरत नहीं बस यहाँ कुछ घरेलू उपाय बताये जा रहे हैं जिन पर ध्यान दिया जाए तो इस समस्या से हल निकल सकता है| 

भोजन में मूंग, चना, मटर, अरहर, आलू, सेम, चावल, तथा तेज मिर्च मसाले युक्त आहार अधिक मात्रा में सेवन न करें! शीर्घ पचने वाले आहार जैसे सब्जियां, खिचड़ी, चोकर सहित बनी आटें कि रोटी, दूध, तोरई, कद्दू, पालक, टिंडा, शलजम, अदरक, आवंला, नींबू आदि का सेवन अधिक करना चाहिए। भोजन खूब चबा चबा कर आराम से करना चाहिए! बीच बीच में अधिक पानी ना पिएं! भोजन के दो घंटे के बाद 1 से 2 गिलास पानी पिएं। दोनों समय के भोजन के बीच हल्का नाश्ता फल आदि अवश्य खाएं। 

तेल गरिष्ठ भोजन से परहेज करें! भोजन सादा, सात्त्विक और प्राक्रतिक अवस्था में सेवन करने कि कोशिश करें। दिन भर में 8 से 10 गिलास पानी का सेवन अवश्य करें। प्रतिदिन कोई न कोई व्यायाम करने कि आदत जरुर बनाएं! शाम को घूमने जाएं! पेट के आसन से व्यायाम का पूरा लाभ मिलता है। प्राणयाम करने से भी पेट की गैस की तकलीफ दूर हो जाती है| शराब, चाय, कॉफी, तम्बाकू, गुटखा, जैसे व्यसन से बचें। दिन में सोना छोड़ दें और रात को मानसिक परिश्रम से बचें|

एक चम्मच अजवाइन के साथ चुटकी भर काला नमक भोजन के बाद चबाकर खाने से पेट कि गैस शीर्घ ही निकल जाती है| अदरक और नींबू का रस एक एक चम्मच कि मात्रा में लेकर थोड़ा सा नमक मिलकर भोजन के बाद दोनों समय सेवन करने से गैस कि सारी तकलीफें दूर हो जाती हैं , और भोजन भो हजम हो जाता है! भोजन करते समय बीच बीच में लहसुन, हिंग, थोड़ी थोड़ी मात्रा में खाते रहने से गैस कि तकलीफ नहीं होती| हरड, सोंठ का चूर्ण आधा आधा चम्मच कि मात्रा में लेकर उसमे थोड़ा सा सेंधा नमक मिलाकर भोजन के बाद पानी से सेवन करने से पाचन ठीक प्रकार से होता है और गैस नहीं बनती! नींबू का रस लेने से गैस कि तकलीफ नहीं होती और पाचन क्रिया सुधरती है! 

गैस बनने पर हींग, जीरा, अजवायन और काला नमक, बहुत कम मात्रा में नौसादर मिलाकर गुनगुने पानी से लें। इनमें से कोई एक चीज भी ले सकते हैं। इसके अलावा आधे कच्चे, आधे भुने जीरे को कूट कर गर्म पानी से दो ग्राम लें। ऐसा दिन में दो बार एक सप्ताह तक करें। इसके बाद मोटी सौंफ को भून-पीसकर गुड़ के साथ मिक्स करके 6-6 ग्राम के लड्डू बना लें। दिन में दो-तीन बार लड्डू चूसें। 

एक मुनक्के का बीज निकालकर उसमें मूंग की दाल के एक दाने के बराबर हींग या फिर लहसुन की एक छिली कली रखकर मुनक्के को बंद कर लें। इसे सुबह खाली पेट पानी से निगल लें। इसके 20-25 मिनट बाद तक कुछ न खाएं। तीन दिन लगातार ऐसा करें। इसके अलावा अजवायन, जीरा, छोटी हरड़ और काला नमक बराबर मात्रा में पीस लें। बड़ों के लिए दो से छह ग्राम, खाने के तुरंत बाद पानी से लें। बच्चों के लिए मात्रा कम कर दें। 

लहसुन की एक-दो कलियों के बारीक टुकड़े काटकर थोड़ा-सा काला नमक और नीबू की बूंदें डालकर गर्म पानी से सुबह खाली पेट निगल लें। इससे कॉलेस्ट्रॉल, एंजाइना और आंतों की टीबी आदि बीमारियां ठीक होने में भी मदद मिलेगी। गर्मियों में एक-दो और सर्दियों में दो-तीन कलियां लें। बिना दूध की नीबू की चाय भी फायदा करती है, पर नीबू की बूंदें चाय बनाने के बाद ही डालें। इसमें चीनी की जगह हल्का-सा काला नमक डाल लें, फायदा होगा। 

पांच ग्राम हल्दी या अजवायन और तीन ग्राम नमक मिलाकर पानी से लें। 
दो लौंग चूस लें या फिर उन्हें उबालकर उस पानी को पी लें। 
पानी में 10-12 ग्राम पुदीने का रस और 10 ग्राम शहद मिलाकर लें। 
खाना खाने के बाद 25 ग्राम गुड़ खाने से गैस नहीं बनती और आंतें मजबूत रहती हैं। 
बेल का चूर्ण, त्रिफला और कुटकी मिलाकर (दो से छह ग्राम) रात को खाना खाने के बाद पानी से लें।

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मेकअप के समय ऑयली स्किन वाली महिलाएं रखें विशेष ध्यान

सभी महिलाएं चाहती हैं कि उनकी त्वचा सुंदर दिखे लेकिन सही स्किन न होने के कारण ऐसा नहीं हो पाता है। चेहरे का ड्राई होना, पिंपल्स का होना, ब्लैक स्पॉट होना हमारी सुंदरता को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। चेहरे की इन समस्याओं में से सबसे बड़ी समस्या ऑयली स्किन की है| कई महिलाओं की शिकायत रहती है कि उनकी स्किन ऑयली है, इसीलिए वो ज्यादा मेकअप नहीं करतीं। ऑयली स्किन होना आम बात है और इसकी ज्यादा चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। हां मेकअप करते समय आप कुछ बातों पर ध्यान दें तो ऑयली स्किन से छुटकारा पा सकती हैं।

मेकअप करने से पहले आप अपने चेहरे को धोएं और स्क्रब करें। यह बहुत जरूरी है मेकअप करने से पहले| त्वचा को तैयार करें मेकअप लगाने से पहले अपने चेहरे को एल्कोहल फ्री टोनर से साफ करें। इसे क्लींजर से चेहरा साफ करने के 5 मिनट बाद ही लगाएं। यह तेल को सोख लेता है और त्वचा को कोई नुकसान भी नहीं पहुंचाता है। ऑयली स्किन होने पर आप अपने लिए ऑयल फ्री फाउंडेशन चुन सकते हैं। यह त्वचा के रोम छिद्रों को पूरी तरह से ढक देता है और चेहरे पर अच्छी तरह से लग भी जाता है। अच्छे रिजल्ट के लिये इसे थोड़े से मॉइस्चराइजर के साथ मिक्स करें और चेहरे पर उंगलियों या ब्रश की मदद से लगाएं।

आप अपनी स्किन से मेल खाता कंसीलर खरीदें। इसे चेहरे के दाग धब्बों पर लगा कर उसे छुपा सकती हैं। इसे लगाने के लिये आप ब्रश या उंगलियों का प्रयोग कर सकती हैं। हमेशा अपने साथ एक ऑइल ब्लाटिंग शीट रखें। इससे आप आराम से चेहरे पर जमे तेल को सोख सकती हैं| फाउंडेशन लगाने के बाद ट्रांसलूसेंट पाउडर लगाना चाहिये। इसे फाउंडेशन लगाने के 10 मिनट बाद लगाएं और ध्यान दे कर गालों, माथा और नाक को हाईलाइट करें। ट्रांसलूसेंट पाउडर हमेशा लाइट कलर का होना चाहिये।

हो सके तो चेहरे पर अंडे का सफेद भाग लगाएं और थोड़ी देर के बाद जब ये सूख जाए, तो उसे बेसन के आटे से साफ कर लें| चावल के आटे में पुदीने का अर्क और गुलाबजल मिलाकर, गोलाई में घुमाते हुए चेहरे पर लगाएं| इसके सुखने के बाद पानी से धो लें| ऑयली त्वचा पर मुहांसे की समस्या आम होती है। इसके लिए दवा लें लेकिन इन्हें फोड़ने की गलती न करें। इससे संक्रमण फैलता है और ऑयली त्वचा की समस्याएं बढ़ जाती हैं। दिन में कम से कम आठ ग्लास पानी रोज पिएं जिससे त्वचा सेहतमंद रहेगी और शरीर डीटॉक्सिफाई होगी।

इस किले पर दशकों से हर साल गिरती है आकाशीय बिजली, जानिए क्यों?

आपने कई किलों के खंडहर में तब्दील होने की कहानी सुनी और देखी भी होगी, लेकिन प्रतिवर्ष आकाशीय बिजली गिरने से एक किले को तबाह होते कभी नहीं देखा होगा। यह हकीकत है। झारखंड के रांची-पतरातू मार्ग के पिठौरिया गांव स्थित राजा जगतपाल सिंह के 100 कमरों का विशाल महल (किला) इसका साक्षात प्रमाण है। यह आकाशीय बिजली गिरने से तबाह हो गया है। स्थानीय लोगों का कहना है कि इसके पीछे एक 'श्राप' है।

झारखंड की राजधानी रांची से करीब 18 किलोमीटर दूर पिठौरिया गांव में दो शताब्दी पुराना यह किला राजा जगतपाल सिंह का है, जो आज खंडहर में तब्दील हो चुका है। इस किले पर दशकों से हर साल आसमानी बिजली गिरती है, जिससे हर साल इसका कुछ हिस्सा टूटकर गिर जाता है। पिठौरिया गांववासियों की मान्यता है कि ऐसा एक क्रांतिकारी द्वारा राजा जगतपाल सिंह को दिए गए श्राप के कारण होता है। बिजली गिरना वैसे तो एक प्राकृतिक घटना है, लेकिन यहां के लोग एक ही जगह पर दशकों से लगातार बिजली गिरने को एक आश्चर्यजनक की बात मानते हैं।

इतिहासकार डा. भुवनेश्वर अनुज ने बताया कि पिठौरिया शुरुआत से ही मुंडा और नागवंशी राजाओं का प्रमुख केंद्र रहा है। यह इलाका 1831-32 में हुए कौल विद्रोह के कारण इतिहास में अंकित है। पिठौरिया के राजा जगतपाल सिंह ने क्षेत्र का चहुंमुखी विकास किया। इसे व्यापार और संस्कृति का प्रमुख केंद्र बनाया। वह क्षेत्र की जनता में काफी लोकप्रिय था, लेकिन उनकी कुछ गलतियों ने उसका नाम इतिहास में खलनायकों और गद्दारों की सूची में शामिल करवा दिया।

उन्होंने बताया कि वर्ष 1831 में सिंदराय और बिंदराय के नेतृत्व में आदिवासियों ने आंदोलन किया था, लेकिन यहां की भौगोलिक परिस्तिथियों से अनजान अंग्रेज, विद्रोह को दबा नहीं पा रहे थे। ऐसे में अंग्रेज अधिकारी विलकिंग्सन ने राजा जगतपाल सिंह के पास सहायता का संदेश भिजवाया, जिसे उसने स्वीकार करते हुए अंग्रेजों की मदद की। उनकी इस मदद के बदले तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम वैंटिक ने उन्हें 313 रुपये प्रतिमाह आजीवन पेंशन दी।

इतिहासकारों के मुताबिक, 1857 के दौरान भी उसने अंग्रेजों का साथ दिया था। स्थानीय बुजुर्ग कहते हैं कि जगतपाल सिंह की गवाही के कारण ही झारखंड के क्रांतिकारी ठाकुर विश्वनाथ नाथ शाहदेव को फांसी दी गई थी। मान्यता है कि विश्वनाथ शाहदेव ने जगतपाल सिंह को अंग्रेजों का साथ देने और देश के साथ गद्दारी करने पर यह श्राप दिया कि आने वाले समय में जगतपाल सिंह का कोई नामलेवा नहीं रहेगा और उसके किले पर हर साल बिजली गिरेगी। तब से हर साल इस किले पर बिजली गिरती आ रही है। इस कारण किला खंडहर में तब्दील हो चुका है।

भूगर्भशास्त्री ग्रामीणों की इस मान्यता से सहमत नहीं हैं। किले पर शोध कर चुके जाने-माने भूगर्भशास्त्री नितीश प्रियदर्शी इसके दूसरे ही कारण बताते हैं। उनके मुताबिक, यहां मौजूद ऊंचे पेड़ और पहाड़ों में मौजूद लौह अयस्कों की प्रचुरता दोनों मिलकर आसमानी बिजली को आकर्षित करने का एक बहुत ही सुगम माध्यम उपलब्ध कराती है। इस कारण बारिश के दिनों में यहां अक्सर बिजली गिरती है। बहरहाल ग्रामीणों की मान्यता और भूगर्भशास्त्रियों की शोध के अपने-अपने दावे हैं, लेकिन कई लोगों के लिए आज भी यह प्रश्न बना हुआ है कि यह किला जब दशकों तक आबाद रहा, तब क्यों नहीं बिजलियां गिरी थी? उस समय तो और ज्यादा पेड़ और लौह अयस्क रहे होंगे। 

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