जानिए भगवान भोलेनाथ के किस स्वरुप के पूजन से पूरी होती हैं कौन सी इच्छा


धर्म शास्त्रो में भगवान शिव को जगत पिता बताया गया हैं, क्योकि भगवान शिव सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म हैं। हिंदू संस्कृति में शिव को मनुष्य के कल्याण का प्रतीक माना जाता हैं। शिव शब्द के उच्चारण या ध्यान मात्र से ही मनुष्य को परम आनंद की अनुभूति होती है। भगवान शिव भारतीय संस्कृति को दर्शन ज्ञान के द्वारा संजीवनी प्रदान करने वाले देव हैं। इसी कारण अनादिकाल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में होते हुवे भी शिवलिंग के रूप में साकार मूर्ति की पूजा होती हैं। लेकिन भगवान शिव की मूर्ति पूजन का भी अपना ही एक महत्व है। श्रीलिंग महापुराण में भगवान शिव की विभिन्न मूर्तियों के पूजन के बारे में बताया गया है। जानिए शिव प्रतिमा के कौन से स्वरुप के पूजन से पूरी होती हैं कौन सी इच्छा-

श्रीलिंग महापुराण के अनुसार, भगवान शिव की अर्द्धनारीश्वर मूर्ति की पूजा करने से सुयोग्य पत्नी और सुखी वैवाहिक जीवन की प्राप्ति होती है। वहीँ, माता पार्वती और भगवान शिव की बैल पर बैठी हुई मूर्ति की पूजा करने से संतान सुख की प्राप्ति होती है| माता पार्वती सहित नृत्य करते हुए, हजारों भुजाओं वाली भगवान भोलेनाथ की मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य जीवन के सभी सुखों का लाभ लेता है। जिस मूर्ति में भगवान शिव एक पैर, चार हाथ और तीन नेत्रों वाले और हाथ में त्रिशूल लिए हुए हों। जिनके उत्तर दिशा की ओर भगवान विष्णु और दक्षिण दिशा की ओर भगवान ब्रह्मा की मूर्ति हो। ऐसी प्रतिमा की पूजा करने से मनुष्य सभी बीमारियों से मुक्त रहता है और उसे अच्छी सेहत की प्राप्ति होती है।

पुत्र कार्तिकेय के साथ भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती की मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं। मनुष्य को सुख-सुविधा की सभी वस्तुएं प्राप्त होती हैं, सुख मिलता है। भगवान शिव की तीन पैरों, सात हाथों और दो सिरों वाली मूर्ति जिसमें भगवान शिव अग्निस्वरूप में हों, ऐसी मूर्ति की पूजा-अर्चना करने से मनुष्य को अन्न की प्राप्ति होती है। नन्दी और माता पार्वती के साथ सभी गणों से घिरे हुए भगवान शिव की ऐसी मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य को मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। चार हाथों और तीन नेत्रों वाली, गले में सांप और हाथ में कपाल धारण किए हुए, भगवान शिव की सफेद रंग की मूर्ति की पूजा करने से धन-संपत्ति की प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य भगवान शिव की उपदेश देने वाली स्थिति में बैठे भगवान शिव की मूर्ति की पूजा करता है, उसे विद्या और ज्ञान की प्राप्ति होती है। काले रंग की, लाल रंग के तीन नेत्रों वाली, चंद्रमा को गले में आभूषण की तरह धारण किए हुए, हाथ में गदा और कपाल लिए हुए शिव मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य की सभी परेशानियों खत्म हो जाती है। रुके हुए काम पूरे हो जाते है। दैत्य जलंधर का विनाश करते हुए, सुदर्शन चक्र धारण किए भगवान शिव की मूर्ति की पूजा करने से शत्रुओं का भय खत्म होता है। ध्यान की स्थिति में बैठे हुए, शरीर पर भस्म लगाए हुए भगवान शिव की मूर्ति की पूजा करने से मनुष्य के सभी दोषों का नाश होता है।

जटा में गंगा और सिर पर चंद्रमा को धारण किए हुए, बाएं ओर गोद में माता पार्वती को बैठाए हुए और पुत्र कार्तिकेय और गणेश के साथ स्थित भगवान शिव की ऐसी मूर्ति की पूजा करने से घर-परिवार के झगड़े खत्म होते है और घर में सुख-शांति का वातावरण बनता है। जिस मूर्ति में भगवान शिव दैत्य निकुंभ की पीठ पर बैठे हुए, दाएं पैर को उसकी पीठ पर रखे और जिनके बाईं ओर पार्वती हों। ऐसी मूर्ति की पूजा करने से शत्रुओं पर विजय मिलती है। हाथ में धनुष-बाण लिए हुए, रथ पर बैठे हुए भगवान शिव की पूजा करने से मनुष्य को जाने-अनजाने किए गए पापों से मुक्ति मिलती है।

जानिए भगवान श्रीकृष्ण की 8 पत्नियों और 80 पुत्रों के नाम

 कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण की 16,108 पत्नियां थीं। क्या यह सही है? जानते हैं कि कृष्ण की 16,108 पत्नियां होने के पीछे राज क्या है। महाभारत के अनुसार, विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणि भगवान कृष्ण से प्रेम करती थी और उनसे विवाह करना चाहती थी। रुक्मणि के पांच भाई थे- रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली। रुक्मणि सर्वगुण संपन्न तथा अति सुन्दरी थी। उसके माता-पिता उसका विवाह कृष्ण के साथ करना चाहते थे किंतु रुक्म चाहता था कि उसकी बहन का विवाह चेदिराज शिशुपाल के साथ हो। यह कारण था कि कृष्ण को रुक्मणि का हरण कर उनसे विवाह करना पड़ा।

पांडवों के लाक्षागृह से कुशलतापूर्वक बच निकलने पर सात्यिकी आदि यदुवंशियों को साथ लेकर श्रीकृष्ण पांडवों से मिलने के लिए इंद्रप्रस्थ गए। युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुंती ने उनका आतिथ्‍य-पूजन किया। इस प्रवास के दौरान एक दिन अर्जुन को साथ लेकर भगवान कृष्ण वन विहार के लिए निकले। जिस वन में वे विहार कर रहे थे वहां पर सूर्य पुत्री कालिन्दी, श्रीकृष्ण को पति रूप में पाने की कामना से तप कर रही थी। कालिन्दी की मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसके साथ विवाह कर लिया।

फिर वे एक दिन उज्जयिनी की राजकुमारी मित्रबिन्दा को स्वयंवर से वर लाए। उसके बाद कौशल के राजा नग्नजित के सात बैलों को एकसाथ नाथ कर उनकी कन्या सत्या से पाणिग्रहण किया। तत्पश्चात उनका कैकेय की राजकुमारी भद्रा से विवाह हुआ। भद्रदेश की राजकुमारी लक्ष्मणा भी कृष्ण को चाहती थी, लेकिन परिवार कृष्ण से विवाह के लिए राजी नहीं था तब लक्ष्मणा को श्रीकृष्ण अकेले ही हरकर ले आए। इस तरह कृष्ण की आठों पत्नियां थी- रुक्मणि, जाम्बवन्ती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रबिन्दा, सत्या, भद्रा और लक्ष्मणा।

द्वारिका में अपनी आठों पत्नियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण अच्छे से अपनी जीवन बिता रहे थे| इसी दौरान एक दिन देवराज इंद्र ने आकर उनसे प्रार्थना की, 'हे कृष्ण! प्रागज्योतिषपुर के दैत्यराज भौमासुर के अत्याचार से देवतागण त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। क्रूर भौमासुर ने वरुण का छत्र, अदिति के कुण्डल और देवताओं की मणि छीन ली है और वह त्रिलोक विजयी हो गया है। इंद्र ने कहा, भौमासुर ने पृथ्वी के कई राजाओं और आमजनों की अति सुन्दरी कन्याओं का हरण कर उन्हें अपने यहां बंदीगृह में डाल रखा है। कृपया आप हमें बचाइए प्रभु।

इंद्र की प्रार्थना स्वीकार कर के श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा को साथ लेकर गरुड़ पर सवार हो प्रागज्योतिषपुर पहुंचे। वहां पहुंचकर भगवान कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से सबसे पहले मुर दैत्य सहित मुर के छः पुत्र- ताम्र, अंतरिक्ष, श्रवण, विभावसु, नभश्वान और अरुण का संहार किया। मुर दैत्य के वध हो जाने का समाचार सुन भौमासुर अपने अनेक सेनापतियों और दैत्यों की सेना को साथ लेकर युद्ध के लिए निकला। भौमासुर को स्त्री के हाथों मरने का श्राप था इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा को सारथी बनाया और घोर युद्ध के बाद अंत में कृष्ण ने सत्यभामा की सहायता से उसका वध कर डाला।

इस प्रकार भौमासुर को मारकर श्रीकृष्ण ने उसके पुत्र भगदत्त को अभयदान देकर उसे प्रागज्योतिष का राजा बनाया। भौमासुर के द्वारा हरण कर लाई गईं 16,100कन्याओं को श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया।ये सभी अपहृत नारियां थीं या फिर भय के कारण उपहार में दी गई थीं और किसी और माध्यम से उस कारागार में लाई गई थीं। वे सभी भौमासुर के द्वारा पीड़ित थीं, दुखी थीं, अपमानित, लांछित और कलंकित थीं। सामाजिक मान्यताओं के चलते भौमासुर द्वारा बंधक बनकर रखी गई इन नारियों को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं था, तब अंत में श्रीकृष्ण ने सभी को आश्रय दिया और उन सभी कन्याओं ने श्रीकृष्ण को पति रूप में स्वीकार किया। उन सभी को श्रीकृष्ण अपने साथ द्वारिकापुरी ले आए। वहां वे सभी कन्याएं स्वतंत्रपूर्वक अपनी इच्छानुसार सम्मानपूर्वक रहती थीं।

अब जानिए भगवान श्रीकृष्ण के कितने थे पुत्र-

भगवान श्री कृष्ण की 8 पत्नियां थी। प्रत्येक पत्नी से उन्हें 10 पुत्रों की प्राप्ति हुई थी इस तरह से उनके 80 पुत्र थे। आज हम आपको श्री कृष्ण की 8 रानियों और 80 पुत्रों के बारे में बताएँगे-

रूक्मिणी के पुत्रों के ये नाम थे- प्रद्युम्न, चारूदेष्ण, सुदेष्ण, चारूदेह, सुचारू, विचारू, चारू, चरूगुप्त, भद्रचारू, चारूचंद्र।

सत्यभामा के पुत्रों के नाम थे- भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।

सत्या के बेटों के नाम ये थे- वीर, अश्वसेन, चंद्र, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंत।

जाम्बवंती के पुत्र ये थे- साम्ब, सुमित्र, पुरूजित, शतजित, सहस्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ व क्रतु।

कालिंदी के पुत्रों के नाम ये थे- श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास एवं सोमक।

लक्ष्मणा के पुत्रों के नाम थे- प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊध्र्वग, महाशक्ति, सह, ओज एवं अपराजित।

मित्रविंदा के पुत्रों के नाम - वृक, हर्ष, अनिल, गृध, वर्धन, अन्नाद, महांश, पावन, वहिन तथा क्षुधि।

भद्रा के पुत्र - संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।

पति की लंबी उम्र के लिए महिलाएं रखें हरियाली तीज का व्रत

सावन के महीने के आते ही आसमान काले मेघों से आच्छ्दित हो जाता है और वर्षा की बौछर पड़ते ही हर वस्तु नवरूप को प्राप्त करती है| चारों ओर हरियाली ही हरियाली बिखर जाती है| ऐसे ही सावन की सुहावने मौसम में आता है तीज का त्यौहार| और इसी कारण से इस त्यौहार को हरियाली तीज कहा जाता है| श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन श्रावणी तीज, हरियाली तीज मनायी जाती है इसे मधुस्रवा तृतीय या छोटी तीज भी कहा जाता है| यह त्यौहार खासतौर पर महिलाओं का त्यौहार है| तीज का आगमन वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही आरंभ हो जाता है| हरियाली तीज में महिलाएं व्रत रखती हैं इस व्रत को अविवाहित कन्याएं योग्य वर को पाने के लिए करती हैं तथा विवाहित महिलाएं अपने सुखी दांपत्य की चाहत के लिए करती हैं|

भगवान शिव और पार्वती के पुर्नमिलाप के उपलक्ष्य में मनाए जाने वाले इस त्योहार के बारे में मान्यता है कि मां पार्वती ने 107 जन्म लिए थे भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए। अंततः मां पार्वती के कठोर तप और उनके 108वें जन्म में भगवान ने पार्वती जी को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया। तभी से ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से मां पार्वती प्रसन्न होकर पतियों को दीर्घायु होने का आशीर्वाद देती हैं।

अपने सुखी दांपत्य जीवन की कामना के लिये स्त्रियां यह व्रत किया करती हैं| इस दिन व्रत रखकर भगवान शंकर-पार्वती की बालू से मूर्ति बनाकर षोडशोपचार पूजन किया जाता है जो रात्रि भर चलता है| सुंदर वस्त्र धारण किये जाते है तथा कदली स्तम्भों से घर को सजाया जाता है| इसके बाद मंगल गीतों से रात्रि जागरण किया जाता है| इस व्रत को करने वालि स्त्रियों को पार्वती के समान सुख प्राप्त होता है|

...इन बीमारियों में बड़े काम की चीज है हींग

अक्सर घरों में सब्ज़ियों व दालों में हींग डाली जाती है। हींग खाने में खुशबू के साथ-साथ उसका स्वाद भी बढ़ा देती है। हींग में कई पोषक तत्वों के साथ एंटी आक्सीडेंट और एंटीबायोटिक गुण भी हैं। जिसका प्रयोग कई संक्रामक बीमारियों को दूर करने के लिए किया जाता है। आइए जानें इसके औषधीय गुण :-

दांतों में कीड़ा लग जाने पर रात्रि को दांत में हींग दबाकर सोएँ। कीड़े खुद-ब-खुद निकल जाएंगे। यदि शरीर के किसी हिस्से में कांटा चुभ गया हो तो उस स्थान पर हींग का घोल भर दें। कुछ समय में कांटा स्वतः निकल आएगा। हींग में रोग-प्रतिरोधक क्षमता होती है। दाद, खाज, खुजली व अन्य चर्म रोगों में इसको पानी में घिसकर उन स्थानों पर लगाने से लाभ होता है। हींग का लेप बवासीर, तिल्ली में लाभप्रद है।

कब्जियत की शिकायत होने पर हींग के चूर्ण में थोड़ा सा मीठा सोड़ा मिलाकर रात्रि को फांक लें, सबेरे शौच साफ होगा। पेट के दर्द, अफारे, ऐंठन आदि में अजवाइन और नमक के साथ हींग का सेवन करें तो लाभ होगा। पेट में कीड़े हो जाने पर हींग को पानी में घोलकर एनिमा लेने से पेट के कीड़े शीघ्र निकल आते हैं।

जख्म यदि कुछ समय तक खुला रहे तो उसमें छोटे-छोटे रोगाणु पनप जाते हैं। जख्म पर हींग का चूर्ण डालने से रोगाणु नष्ट हो जाते हैं। प्रतिदिन के भोजन में दाल, कढ़ी व कुछ सब्जियों में हींग का उपयोग करने से भोजन को पचाने में सहायक होती है। मासिक धर्म के दौरान होने वाली परेशानियां जैसे पेट में दर्द और मरोड़ या अनियमित मासिक धर्म में हींग का सेवन करने से फायदे होते हैं। यह औषधि कैंडिडा संक्रमण और ल्यूकोरहोइया से भी छुटकारा दिलाने में मददगार साबित होता है।

सूखी खांसी, अस्थमा, काली खांसी के लिए हींग और अदरक में शहद मिलाकर लेने से काफी आराम मिलता है। हींग की मदद से शरीर में ज्यादा इन्सुलिन बनता है और ब्लड शुगर का स्तर नीचे गिरता है। ब्लड शुगर के स्तर को घटाने के लिए हींग में पका कड़वा कद्दू खाना चाहिए| हींग में कोउमारिन होता है जो खून को पतला करने में मदद करता है और इसे जमने से रोकता है। हींग बढ़े हुए ट्राइग्लीसेराइड और कोलेस्ट्रोल को कम करता है और उच्च रक्तचाप को भी घटाता है।

यह औषधि विचार शक्ति को बढ़ाती है और इसलिए उन्माद, ऐंठन और दिमाग में खून की कमी से बेहोशी जैसे लक्षण से बचने के लिए भी हींग खाने की सलाह दी जाती है। अफीम के असर को कम करने में हींग मदद करता है। इसलिए इसे विषहरण औषधि भी कहा जाता है।

अगर चेहरे पर दाग धब्बे हैं तो एक चम्मच दही में चुटकी भर हींग मिलाकर सप्ताह में एक बार चेहरे पर लगाए लाभ मिलेगा। अगर चेहरे पर पिंपल्स हैं या त्वचा सबंधी समस्या है तो हींग का प्रयोग पानी में मिलाकर करें। चुटकी भर हींग पाउडर पानी में मिलाकर पेस्ट बनाएं और मास्क की तरह चेहरे पर लगाएं। नियमित प्रयोग करने से लाभ मिलता है।

मसूड़ों से खून आता हो या दांतों में इंफेक्शन हों तो एक कप पानी में छोटा टुकड़ा हींग का और एक लौंग उबालें। गुनगुन होने पर कुल्ला करने से लाभ मिलेगा। दो चम्मत करेले के रस में एक चौथाई चम्मच हींग का पाउडर मिला कर पिए, मधुमेह काबू में रहेगा। खाने से पहले घी में भुनी हुई हींग एवं अदरक का एक टुकडा मक्खन के साथ में लेने से भूख ज्यादा लगती है।

पीलिया होने पर हींग को गूलर के सूखे फलों के साथ खाना चाहिए। पीलिया होने पर हींग को पानी में घिसकर आंखों पर लगाने से फायदा होता है। कान में दर्द होने पर तिल के तेल में हींग को पकाकर उस तेल की बूंदों को कान में डालने से कान का दर्द समाप्त हो जाता है। उल्टी आने पर हींग को पानी में पीसकर पेट पर लगाने से फायदा होता है। सिरदर्द होने पर हींग को गर्म करके उसका लेप लगाने से फायदा होता है।

यदि दाद हो गया हो तो थोडी सी हींग पानी में घिसकर प्रभावित अंग पर लगाएं, इससे दाद ठीक हो जाते हैं। त्वचा के रोगों में हींग बहुत ही प्रभावशाली होती है। प्रसव के उपरांत हींग का सेवन करने से गर्भाशय की शुद्धि होती है और उस महिला को पेट संबंधी कोई परेशानी नहीं होती है। जोडों के दर्द में इसका नियमित सेवन बहुत ही लाभदायक रहता है।

यदि नासूर हो गया है और घाव सडने लगता है तो हींग को नीम के पत्तों के साथ पीसकर घाव पर लगाने से कुछ ही दिनों में आराम आ जाता है। पसलियों में दर्द होने पर हींग रामबाण की तरह से काम करता है। ऎसे में हींग को गरम पानी में घोलकर लेप लगाएं, सूखने पर प्रक्रिया दोहराएं। आराम मिलेगा। पेट पर विशेषकर नाभि के आसपास गोलाई में इस पानी का लेप करने से पेट दर्द, पेट फूलना व पेट का भारीपन दूर हो जाता है।

हींग के चूर्ण में थोडा सा नमक मिलाकर पानी के साथ लेने से लो ब्लड प्रेशर में आराम मिलता है। छाछ में या भोजन के साथ हींग का सेवन करने से अजीर्ण वायु, हैजा, पेट दर्द, आफरा में आराम मिलता है। भुनी हुई हींग को रूई के फाहे में लपेटकर दाढ़ पर रखने से राहत मिलती है। दांत में कीडा लगने पर भी इससे आराम मिलता है। हींग का धुआं सूंघने से हिचकियां बंद हो जाती हैं। हींग की प्रवृत्ति गरम होती है इसलिए इसका अधिक सेवन नहीं करना चाहिए। थोड़ी मात्रा में तड़के के रूप में या सलाद के मसाले आदि में आप इसका सेवन नियमित रूप से कर सकते हैं।

पढ़िए लखनऊ में कितनी सुहानी थी आज़ादी की वह पहली सुबह

15 अगस्त 1947 की वह पहली सुबह कितनी सुहानी थी जब देश आज़ाद हुआ था| कितने समय बाद देशवासियों ने बिना किसी बंधन के नई सुबह का स्वागत किया था, दिल में उमंग था और देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले बलिदानियों के सम्मान में मस्तक झुका हुआ था|


आज़ादी की इस पहली सुबह के दिन राज्यपाल सरोजनी नायडू लखनऊ मेल से सुबह सात बजे दिल्ली से राजधानी लखनऊ पहुंची। स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे| सरोजनी नायडू रेलवे स्टेशन से सीधे राजभवन पहुंचीं जहां पर उन्होंने आज़ादी की सुबह ठीक आठ बजे झंडारोहण किया| इस दौरान पुरुष ही नहीं बल्कि महिलाएं और बच्चे भी घरों से बाहर निकल आए और सड़कों पर लोगों का हुजूम उमड़ आया| 


इसके बाद तो जैसे पूरा लखनऊ खुशी से झूम उठा। सभी लोग सड़कों पर ही नज़र आ रहे थे, भीड़ इतनी थी कि लोगों को समझ में ही नहीं आ रहा था कि किस ओर जाएं। हजरतगंज से विशेश्र्वरनाथ रोड तक तो इतनी भीड़ थी कि लोगों को थोड़ी दूर जाने में ही घंटों लग जाते थे| आसपास के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों लोग काफी उत्साहित थे, सड़कों पर ढोल-नगाड़े के साथ जश्न का माहौल था| मिठाई की दुकान हो या दूध की दुकान हर तरफ आजादी का जश्न का माहौल था। मुफ्त में मिठाई व दूध बांटा जा रहा था|

भीड़ के बीच किसी के हाथ में अखबार दिख जाता तो लोग उसे पढ़ने के लिए टूट पड़ते। अंग्रेज क्या कह गए कांग्रेस से? लोग इस विचार में डूबे थे कि कहीं फिर से अंग्रेजों का खेल शुरू न हो जाये? 

अगर देखा जाये तो यह चर्चाएं भी आम थीं। मुस्लिम टीले वाली मस्जिद में अल्लाह से देश को आजादी मिलने का शुक्रिया अदा करने कर रहे थे| इस मौके पर ईसाई भी पीछे नहीं रहे उन्होंने भी कई आयोजन चर्च में किये। इस दिन कैसरबाग बारादरी में ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन ने झंडा फहराया था। राजा विशेश्र्वर दयाल सेठ ने भी पायनियर हाउस में झंडारोहण किया था। इसी दिन शाम को छह बजे अमीनाबाद पार्क में मीटिंग भी हुई थी लिहाजा शाम होते ही भीड़ उधर बढ़ चली। हर रास्ते रोशनी से जगमगा गए थे| गोमती में महिलाएं और बच्चे स्वतंत्रता की देवी को दीप अर्पित कर रहे थे|

आज़ादी की वह पहली सुबह कोई भूलकर भी भुला नहीं सकता| सभी दिलों में उमंग और उत्साह था, चहूँ और देशभक्ति की भावना का उफान था| इतने सालों में आज़ादी का जश्न मनाने के तरीकों में बहुत बदलाव आया है, लेकिन बहुत ख़ास थी आज़ादी की वो पहली सुबह|

स्वतंत्रता दिवस विशेष: बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी

'बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मदार्नी वह तो झांसी वाली रानी थी' कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की यह पंक्तियां आज भी बुंदेलों की जुबान पर हैं। स्वतंत्रता दिवस या आजादी की बात हो और रानी झांसी का जिक्र न आए, ऐसा हो ही नहीं सकता।

सन् 1857 के विद्रोह (प्रथम स्वतंत्रता संग्राम) में फिरंगी सेना की चूल्हे हिला देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यह बात अलग है कि आजादी की लड़ाई का हिस्सा बना बुंदेलखण्ड आज खुद की 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई में अलग-थलग पड़ा हुआ है।

यह विश्व विदित है कि ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सन् 1857 में भड़के विद्रोह में वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारीबाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबले करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था, लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं स्वीकार की थी।

अंग्रेजों को आभास भी नहीं था कि 19 साल की उम्र में कदम रखने वाली रानी झांसी के सामने उसके सैनिकों को मुंह की खानी पड़ेगी। 21 नवम्बर, 1853 को राजा बाल गंगाधर राव की मौत के बाद सात मार्च, 1854 को अंग्रेजों ने झांसी रियासत को अपने कब्जे में ले लिया था, तमाम प्रयासों के बाद भी फिरंगियों ने जब रानी झांसी को राज्य वापस करने से इंकार कर दिया तो उनके सामने युद्ध के अलावा कोई चारा नहीं बचा। रानी झांसी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर अंग्रेजी सेना के खिलाफ युद्ध में कूद पड़ीं।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के इस युद्ध में बांदा के नवाब अली बहादुर ने रक्षाबंधन में रानी झांसी द्वारा भेजी गई 'राखी' की कीमत अपनी सेना झांसी की मदद में भेज कर अदा की थी। चार अप्रैल, 1858 को नाना भोपटकर की सलाह पर रात को जब रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ बिठूर की ओर रवाना हुईं तब वह अपनी ही रियासत के राजनीतिक अभिकर्ता मालकम की गद्दारी का शिकार हुईं और अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हो गईं।

झांसी की रानी की निर्भीकता और बहादुरी को देखकर ही अंग्रेज अधिकारी जनरल ह्यूरोज ने चार जून, 1858 को कहा था कि 'नो स्टूअर्स इफ वन परसेंट ऑफ इंडियन वुमेन बिकम सो मैड ऐज दिस गर्ल इज, वी विल हैव टू लीव आल दैट वी हैव इन दिस कंट्री (अगर भारत की एक फीसदी महिलाएं इस लड़की की तरह आजादी की दीवानी हो गईं तो हम सबको यह देश छोड़कर भागना पड़ेगा)।' अंग्रेज अधिकारी की यह बात सही साबित हुई और उन्हें यह देश छोड़कर जाना ही पड़ा। लेकिन, आजादी की लड़ाई का हिस्सा बनने वाले इस बुंदेलखण्ड के अब हालात क्या हैं?

बुंदेलखण्ड के इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली बताते हैं, "आजादी की जंग में रानी लक्ष्मीबाई और उनकी महिला सेनापति झलकारीबाई ने ब्रिटिश हुकूमत की चूल्हे हिलाकर रख दी थीं। इन दोनों वीरांगनाओं ने युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया, लेकिन फिरंगियों की दासता नहीं स्वीकार की थी।"

झांसी किले के उन्नाव गेट के नया पुरा मुहल्ला में रहने वाले बुजुर्ग मोहन मास्टर खुद के झलकारीबाई का वंशज होने का दावा करते हुए बताते हैं, "रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध कौशल से ही अंग्रेजों को एक भारतीय नारी और बुंदेली माटी की ताकत का अहसास हुआ था।"

इसी उन्नाव गेट के अंदर रहने वाले मनसुख दास जतारिया को मलाल है कि यदि मालकम ने गद्दारी न की होती तो रानी लक्ष्मीबाई बिठूर पहुंच कर बच सकती थीं। महोबा के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बासुदेव चौरसिया कहते हैं, "रानी झांसी जैसी शूरवीरों की शहादत को सहेज कर रख पाना आज की पीढ़ी के लिए बड़ा मुश्किल काम है, बुंदेलखण्ड में झांसी का किला अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता और रानी लक्ष्मीबाई की बहादुरी का प्रत्यक्ष गवाह है।"

बांदा के बुजुर्ग पत्रकार राजकुमार पाठक का कहना है, "आजादी का जश्न हर साल मनाकर सरकार सरकारी परम्परा का निर्वहन करती है, 15 अगस्त या 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराना ही असली आजादी नहीं है।"

वह कहते हैं, "देश में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो दो वक्त की रोटी को तरस रहा है और कुछ ही लोग हैं जो आराम से जिंदगी गुजार रहे हैं।" वह सवाल करते हैं, "क्या रानी लक्ष्मीबाई, सरदार भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, मंगल पांड़े, रामप्रसाद बिस्मिल, नेता जी सुभाशचंद्र बोस जैसे दीवाने इसी आजादी की कल्पना कर शहीद हुए होंगे?"

फिल्म अभिनेता और बुंदेलखण्ड कांग्रेस के अध्यक्ष राजा बुंदेला कहते हैं, "बुंदेलखण्ड के लिए आजादी बेमानी है, बुंदेलों को सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक व मानसिक रूप से अब तक आजादी नहीं मिली, यह इलाका आजद देश में अपनी 'आजादी' और 'अस्तित्व' की लड़ाई लड़ रहा है।"

वह कहते हैं, "अंग्रेजों के जमाने में कम से कम इतना तो था कि भूख से तड़प कर कोई आत्महत्या नहीं करता था, यहां तो 'पलायन' और 'आत्महत्या' का अनवरत सिलसिला जारी है, इसे कैसे आजादी माना जा सकता है?"

कई क्रांतिकारियों को इसी चंदर नगर गेट पर दी गई थी फांसी

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आलमबाग में स्थित यह इमारत आज चंदरनगर गेट के नाम से जानी जाती है। आपको बता दें कि यह चंदर नगर गेट वास्तव में आलमबाग कोठी का दरवाजा है। यह कोठी लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम आलम आरा (आजम बहू) के लिए बनवाई थी।लेकिन बाद में यह कोठी आजादी की लड़ाइयों में उजड़ गई| फाटक अब भी बाकी है।

यह चंदर नगर गेट आजादी की लड़ाई का एक अहम हिस्सा रहा है। अगर हम बुद्धिजीवियों की माने तो रेजीडेंसी सीज होने के बाद अंग्रेज आलमबाग के रास्ते शहर में प्रवेश कर रहे थे। यहां मौलवी अहमद उल्लाह शाह और अंग्रेजों के बीच युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजों की हार हुई। बताते हैं सर हेनरी हैवलॉक यहीं बीमार हुए थे, जिनकी मृत्यु दिलकुशा में हुई थी| मौत के बाद उन्हें यहीं दिलकुशा के करीब स्थित कब्रिस्तान में दफन किया गया था।

प्रथम स्वाधीनता संग्राम के अंतिम पड़ाव में अंग्रेजों ने इसी फाटक को किले के रूप में प्रयोग किया और कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गई। इसके बाद से इसे फांसी दरवाजा के नाम से जाना जाने लगा था|

बंदूक ही नहीं कलम से भी लड़ी गई थी स्वतंत्रता की जंग

 
देश को आज़ादी दिलाने के लिए आज़ादी के मतवालों ने एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी| इस लड़ाई के परिणाम स्वरुप 15 अगस्त, 1947 को भारत को पूर्ण स्वतंत्रता मिली| इस लड़ाई की ख़ास बात यह रही कि यह लड़ाई सिर्फ बंदूक ही नहीं बल्कि कलम के सहारे भी लड़ी गयी|

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के प्रारम्भ में दो घटनाएं ऐसी घटीं, जिनसे देश के आगामी सौ वर्षो का इतिहास तय हो गया| पहली घटना मेरठ में घटी| मंगल पांडे नामक सिपाही ने धर्म की रक्षा में बंदूक तानी नहीं, बल्कि बंदूक न छूने की कसम खाई| सैद्धांतिक मतभेद में, शस्त्रविहीन आग्रह या अवज्ञा का यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में किया गया विद्रोह था। दूसरी घटना में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ तलवार उठा ली|

विद्रोह किसी भी हुकूमत को पसंद नहीं हो सकता। ब्रिटिश सरकार भी इन दोनों घटनाओं को कुचलने के लिए जो कर सकती थी, वह उसने किया| दमन की इस प्रक्रिया में जो रक्तपात हुआ, वह रक्तबीज बनकर पूरे देश में फैल गया। इस तरह कभी सूर्यास्त न होने वाले ब्रिटिश साम्राज्य पर अंधकार का पसरना शुरू हो गया| विरोध के स्वर जब फूटते हैं तो गूंजने के लिए उन्हें काव्य के धरातल की जरूरत होती है| स्वरों की इस जरूरत को लोककवि, स्थानीय कवि, महाकवि और शायरों ने पूरा किया|

ब्रिटिश साम्राज्य के दुर्भाग्य से यही समय रिकार्डिग कम्पनी और छापाखाने के उद्गम और विकास का था। लोककवियों से लेकर महाकवियों तक के विषय तय थे। मातृभूमि की वंदना, हुकूमत का विरोध, और शहीद-स्तुति| अगर जयशंकर प्रसाद लिखते-

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती

स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।

तो गीतकार, कवि प्रदीप ने लिखा-

आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है।

स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय सुभद्रा कुमारी चौहान की अमर रचना 'खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी' अपने मूल रूप में बुंदेले हरबोलों के बुंदेली लोकगीत में मिलती है| खूबई लड़ी रे मर्दानी खूबई जूझी रे मर्दानी। बा झांसी वारी रानी अपने सिपाहियन को लड्डू खबावें, आपइ पिये ठंडा पानी बा झांसी वारी रानी|

प्रभात फेरियों का चलन जोर पकड़ रहा था| छोटे बड़े सभी शहरों में सुबह प्रयाण गीत गाती टोलियां घूमती थीं| सुबह लोग गाते-

माता के वीर सपूतों की आज कसौटी होना है, देखें कौन निकलता पीतल कौन निकलता सोना है|

इसका जवाब शाम को कोई सरफिरा देता था-

मैं माता का पूत कसौटी का कोई पत्थर ले आए, मुझसे ऐसी रेख खिचेगी जिससे सोना भी शरमाए|

किसी ने लिख दिया-

गले बांधे कफनियां हो-शहीदों की टोली निकली|

वर्ष 1913 में गदर पार्टी नामक क्रांतिकारी संगठन बना। संगठन का मुखपत्र 'गदर' नाम से प्रकाशित होने लगा। इसी समय कलकत्ते में अलीपुर बम कांड में वरिष्ठ नेता वारिंद्र घोष, विचारक और संत अरविंद घोष, नरेन्द्र नाथ बख्शी इत्यादि की गिरफ्तारियां हुईं।

काकोरी रेल डकैती में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, राजेन्द्र लाहिड़ी पकड़े गए| बिस्मिल ने फांसी पर चढ़ते हुए कहा-

मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे|

बाकी न मैं रहूं न मेरी आरज़ू रहे|

अशफाक उल्ला ने मरते-मरते लोगों को नसीहत दी-

"बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा।

गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।।

मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।

तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।"

फांसी पर चढ़ने से पहले भगतसिंह गा रहे थे-

मेरी हवा में रहेगी ख़्याल की बिजली

ये मुश्ते ख़ाक है फ़ानी रहे, रहे न रहे।।

स्वतंत्रता आंदोलन में, देश के सभी बुद्धिजीवी किसी ने किसी तरह जुड़े थे, अधिकांश उस समय कै़दखानों की शोभा बन गए थे| आगरा जेल, इस तरह के जमावड़े का अच्छा उदाहरण था| शैदा, अहमक, जमररुध, उस्मान, रघुपति सहाय 'फिराक', कृष्णकांत, मालवीय, रामनाथ 'असीर' और महावीर त्यागी जैसे कवि, लेखक और शायर वहां क़ैद थे| देशप्रेम के नियमित मुशायरे आगरा जेल में होने लगे, बाद में तराना-ए-क़फस शीर्षक से इन रचनाओं का संग्रह कृष्णकांत मालवीय के संपादकत्व में प्रकाशित हुआ|

इन सब रचनाओं के बीच 'जन गण मन अधिनायक जय हे' (रविन्द्रनाथ टैगोर), 'वंदे मातरम्' (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय) और झंडावंदन 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा' (श्यामलाल पार्षद) हमारी आन बान और शान का प्रतीक बन गए| वंदेमातरम का उपयोग बलिदान मंत्र की तरह होने लगा| इसे गाते हुए या कहते हुए फांसी पर चढ़ना, चलन हो गया था, लोकप्रियता की दृष्टि से वंदे मातरम् इन तीनों में विशिष्ट था|

'सन्यासी विद्रोह' पूर्वी बंगाल में हुकूमत के खिलाफ आंदोलन था| सन्यासी विद्रोह, पर आधारित उपन्यास 'आनंद मठ' में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने वंदे मातरम गीत का उपयोग किया था| बंकिम बाबू ने यह गीत 1876 में लिखा था। उपन्यास प्रकाशन का समय 1880-82 माना गया| संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से सजी इस रचना की लोकप्रियता का पहला उदाहरण वर्ष 1902 में सामने आया, जब कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसका संगीत बनाया और सस्वर पाठ किया| फ्रांस की किसी 'पाथे' ग्रामोफोन कम्पनी के तत्वावधान में बना यह रिकॉर्ड प्रसारित किया गया जिसके बाद यह प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया|

एक तरफ अरविन्द घोष जैसे संत का नाम इससे जुड़ा तो दूसरी तरफ विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर जैसे महान संगीतज्ञ ने इसकी धुन बनाई। एक ही गीत की इतनी धुनें शायद ही कभी बनी हों| रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर ए आर रहमान तक ने इसकी कितनी धुनें बनाई और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से लेकर लता मंगेशकर व ए आर रहमान सहित कितने गायक इसे गाकर गौरवान्वित हुए|

कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1885 में हो गई थी, इसके अधिवेशनों एवं सम्मेलनों में वंदे मातरम् नियमित रूप से गाया जाने लगा था| कभी इसे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गाया तो कभी विष्णु दिगम्बर पुलुस्कर ने| पुरानी 'देवदास' फिल्म के संगीत निर्देशक 'तिमिर बरन भट्टाचार्य' ने इसकी धुन सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के लिए बनाई थी| इस धुन को ब्रिटिश बैंड ने भी बजाया और आजाद हिन्द फौज की रेडियो सर्विस सिंगापुर से नियमित प्रसारण होता था|

बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में सिने संगीत प्रचार के सशक्त माध्यम की तरह अस्तित्व में आया| वर्ष 1940 में एक फिल्म बनी 'बंधन', जिसमें कवि प्रदीप का लिखा गीत चल-चल रे नौजवान बहुत लोकप्रिय हुआ| स्वतंत्रता से पहले बनी फिल्मों में मात्र यही गीत ऐसा मिलता है, जिससे ब्रिटिश सरकार हैरान हो गई थी| कवि प्रदीप ने इसे बाम्बे टाकीज के अहाते में एक पेड़ की छांव में बैठकर लिखा और इस आग उगलने वाले ओजस्वी गीत को फिल्म की संगीत निर्देशक जोड़ी सरस्वती देवी एवं रामचंद्र पाल को धुन बनाने के लिए दे दिया| दोनों मिलकर कई दिनों तक सिर खपाते रहे पर कोई नतीजा नहीं निकला| एक दिन फिल्म के नायक अशोक कुमार ने स्टूडियो में हारमोनियम उठाया और पहली पंक्ति स्वरबद्ध हो गई|

इसके बाद अशोक कुमार भी लाचार हो गए| अंत में वह अपनी बहन सती देवी मुखर्जी के पास गए, जिन्होंने उसका पूरा संगीत तैयार किया| कड़ी सेंसरशिप की आंखों में धूल झोंककर यह गीत फिल्म में आ गया और सारे देश में धूम मचाने लगा, देश के युवकों ने इसे अपने मन की आवाज माना| पंजाब और सिंध के युवकों ने तो असेंबली में इसे वंदे मातरम् की जगह राष्ट्रगीत बनाए जाने का प्रस्ताव रखवा दिया| गांधीवादी महादेव भाई देसाई ने इस गीत की तुलना उपनिषद् मंत्रों से की| सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेता बलराज साहनी उन दिनों बीबीसी लंदन में कार्यरत थे| उन्होंने इसे वहां से प्रसारित करवाया|

सिने जगत में स्वतंत्रता आंदालन से जुड़ी जो हस्तियां उल्लेखनीय हैं, उनमें कवि प्रदीप के साथ गीतकार इंदीवर (बड़े अरमान से रखा है बलम तेरी कसम-मल्हार) और संगीत निर्देशक अनिल विश्वास (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है) प्रमुख हैं| क्रांतिकारी विचारधारा अपनाने वाले अनिल दा ने 12 वर्ष की अल्पायु में ही पिस्तौल रखना शुरू कर दिया था| इतना ही नहीं, किशोरावस्था में ही भूमिगत जीवन की आदत हो गई थी|

झांसी के श्यामलाल राय, इंदीवर के नाम से फिल्मों में गीत लिखते रहे| वर्ष 1942 में 'अरे किरायेदार कर दे मकान खाली' सरकारी विरोध में लिखी कविता मानी गई (इसकी सजा किरायेदार ने मकान मालिक को दी) और उन्हें आगरा जेल में एक साल रखा गया| पैत्रिक संपत्ति राष्ट्र को समर्पित कर बम्बई आये इंदीवर ने शेष जीवन फिल्मी गीतकार के रूप में बिताया| निरंतर योगदान के लिए कवि प्रदीप अपने अन्य साथियों की तुलना में विशिष्ट और अलग दिखते हैं| 'चल चल रे नौजवान' (बंधन) गीत धूम तो मचाया लेकिन प्रदीप को फिल्मों में स्थायित्व दिया किस्मत के गीत ने (दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है)| प्रतिष्ठा में थोड़ी बहुत कसर जो बाकी थी, उसे 'ऐ मेरे वतन के लोगों' ने पूरी कर दी|

'ऐ मेरे वतन के लोगों' गीत के साथ थोड़ा बहुत विवाद और इतिहास जुड़ा है| लता जी तब तक सार्वजनिक प्रदर्शन से इंकार करती थीं लेकिन कवि प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया यह गीत चीन आक्रमण के बाद लाल क़िले में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने गाया| नेहरू जी गदगद हो गए थे और गीत के भाव उन्हें रुला गए| शुरू में यह गीत आशा भोंसले को गाना था| संगीत निर्देशक सी रामचन्द्र व लता मंगेशकर में अनबन चल रही थी| प्रदीप जी के व्यक्तिगत अनुरोध पर लताजी भी इसमें शामिल होने तैयार हो गईं।|अब आशा एवं लता दोनों की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड होना था लेकिन रिकॉर्डिग तारीख पर आशा जी को समय न होने के कारण लता जी ने अकेले यह गीत गाया|

लखनऊ में पहली बार यहाँ फहराया गया था तिरंगा

दुनिया में कुछ ही ऐसे ही शहर होगें जिनकी पहचान एक नहीं कई रूपों में की जाती है। उन शहरों में शामिल है अपना शहरे-ए-लखनऊ। लखनऊ शहर अपनी तहजीब, नजाकत और नफासत के लिए जाना जाता है। दूसरी ओर इसे लोग बागों का शहर व शफूगों का शहर और अब इसे स्मारकों का शहर भी कहा जाता है। अवध की सभ्यता विशेषकर लखनऊ का सांस्कृतिक परिवेश पूरे विश्व के लिए कौतुहल का विषय रहा है। लखनऊ के अमीनाबाद स्थित अमीनुद्दौला पार्क जिसे अब झंडे वाला पार्क के नाम से जानते हैं| क्या आपको पता है कि इसे झंडे वाला पार्क क्यों कहा जाता है?

दरअसल जनवरी 1928 में क्रांतिकारियों ने पहली बार राष्ट्रीय ध्वज अमीनुद्दौला पार्क में ही फहराकर अंग्रेजी हुकूमत को ललकारा था| उसी दिन से यह अमीनुद्दौला पार्क झंडे वाला पार्क के नाम से जाना जाने लगा| अवध के चतुर्थ बादशाह अमजद अली शाह के समय में उनके वजीर इमदाद हुसैन खां अमीनुद्दौला को पार्क वाला क्षेत्र भी मिला था, तब इसे इमदाद बाग कहा जाता था|

इससे पहले ब्रिटिश शासनकाल में वर्ष 1914 में अमीनाबाद का पुनर्निर्माण कराया गया चारों तरफ सड़कें निकाली गई बीच में जो जगह बची उसमें एक पार्क का निर्माण कराया गया| जिसका नाम अमीनुद्दौला पार्क का नाम दिया गया| लेकिन आजादी के मतवालों ने यहाँ पहली बार झंडा फहराया तब से यह पार्क झंडे वाला पार्क कहलाया जाने लगा|

18 अप्रैल 1930 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश हुकूमत के नमक कानून को तोड़कर नमक बनाया| इतना ही नहीं अगस्त 1935 को क्रांतिकारी गुलाब सिंह लोधी भी उस जुलूस में शामिल हुए, जो पार्क में झंडा फहराना चाहते थे। जिस समय झंडारोहण कार्यक्रम होने जा रहा था उस समय अंग्रेजी सैनिकों ने पार्क को चारो तरफ से घेर लिया| लेकिन आज़ादी के मतवाले गुलाब सिंह लोधी ने सैनिकों से बिना डरे पार्क में घुस गए और एक पेड़ पर चढ़कर राष्ट्रीय ध्वज फहरा दिया| उसी समय एक सैनिक ने लोधी को गोलियों से भून दिया और वह शहीद हो गए थे।

रुठे इंद्रदेव को मनाने के लिए महिलाओं ने चलाया हल

आसमान से बरस रही आग और उससे तप रही धरती और उस पर खड़ी किसान की फसल बिना पानी के सूख रही है। सावन के महीने की शुरुआत भी हो चुकी है, लेकिन बारिस होने के आसार लोगों को अभी तक नही लग रहे है। इन्द्र को प्रसन्न करने के लिये ग्रामीण क्षेत्र में टोने टोकटा करने का दौर भी जारी है। इसी दौर में हैदरगढ़ क्षेत्र के इलियासपुर गाँव की महिलाओं ने बारिस के लिए खेतों में हल चलाया| 

ऐसी मान्यता है कि महिलाओं के हल चलाने पर इंद्र देवता खुश होते हैं और बारिश होती है। हल चलाने के दौरान महिलाएं ही यहां सबकुछ करती हैं। वह बैल बनकर हल खींचती हैं और हल की मुठिया भी पकड़ती हैं। बाकी महिलाएं हल के पीछे-पीछे गीत के माध्यम से भगवान से बारिश करने की प्रार्थना करती हैं, जिससे किसान खेती कर सकें।

सूखे को लेकर होने वाले इस टोटके की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें पुरुष हिस्सा नहीं लेते हैं। हल को बांधने से लेकर चलाने तक का सारा काम महिलाएं खुद ही करती हैं। इस प्रथा को लेकर बुजुर्ग महिलाएं कहती हैं कि यह काफी पहले से चली आ रही है और गांव वालों की इस प्रथा में गहरी आस्था है। पुरुष किसान भी मानते हैं कि महिलाओं के हल चलाने से इंद्र भगवान खुश होकर अच्छी बारिश करेंगे।

समस्त कष्टों से मुक्ति दिलाता है महामृत्युंजय मंत्र

सनातन धर्म में श्रावण का महीना अत्यंत पवित्र माना जाता है। श्रावण मास को मासोत्तम मास भी कहा जाता है। इस मास की पूर्णमासी के दिन श्रवण नक्षत्र का योग होने के कारण इस मास का नाम श्रावण मास या सावन पड़ा। ऎसा माना जाता है कि देवताओं व दानवों के बीच समुद्र मंथन भी श्रावण मास में ही हुआ था। पौराणिक कथा के अनुसार देवी पार्वती ने भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए श्रावण मास में निराहार रहकर कठोर तप किया था, इसीलिए भगवान शंकर को श्रावण मास अत्यंत प्रिय है।

श्रावण मास में महामृत्युंजय मंत्र का जप करना परम फलदायक है। महामृत्युंजय मंत्र के जप व उपासना के तरीके आवश्यकता के अनुरूप होते हैं। अधिकतर लोग इसे आपदा, बीमारी में रक्षा और मरणासन्न व्यक्ति की जान बचाने के लिए प्रयोग में लाता है। लेकिन सावन मास में हर तरह की उपासना के लिए इस मंत्र का जप किया जाता है।

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।


इस मंत्र को संपुटयुक्त बनाने के लिए इसका उच्चारण इस प्रकार किया जाता है…

ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ


जप से पूर्व निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

जो भी मंत्र जपना हो उसका जप उच्चारण की शुद्धता से करें। एक निश्चित संख्या में जप करें। पूर्व दिवस में जपे गए मंत्रों से, आगामी दिनों में कम मंत्रों का जप न करें। यदि चाहें तो अधिक जप सकते हैं| मंत्र का उच्चारण होठों से बाहर नहीं आना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तो धीमे स्वर में जप करें। जप काल में धूप-दीप जलते रहना चाहिए। रुद्राक्ष की माला पर ही जप करें।

माला को गौमुखी में रखें। जब तक जप की संख्या पूर्ण न हो, माला को गौमुखी से बाहर न निकालें। जप काल में शिवजी की प्रतिमा, तस्वीर, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र पास में रखना अनिवार्य है।महामृत्युंजय के सभी जप कुशा के आसन के ऊपर बैठकर करें। जप काल में दुग्ध मिले जल से शिवजी का अभिषेक करते रहें या शिवलिंग पर चढ़ाते रहें। महामृत्युंजय मंत्र के सभी प्रयोग पूर्व दिशा की तरफ मुख करके ही करें।

जिस स्थान पर जपादि का शुभारंभ हो, वहीं पर आगामी दिनों में भी जप करना चाहिए। जपकाल में ध्यान पूरी तरह मंत्र में ही रहना चाहिए, मन को इधर-उधर न भटकाएं। जपकाल में आलस्य व उबासी को न आने दें।

..यहां आकर प्रकृति की गोद में बिताइए चैन के कुछ पल

प्रकृति की गोद में चैन के कुछ पल बिताने की सोच रहे हैं तो एक बार आप उत्तर भारत का छोटा कश्मीर कहे जाने वाले उत्तराखंड राज्य के हिल स्टेशन पिथौरागढ़ घूम आइए| यहाँ आकर आप शहरी भाग-दौड़, गर्मी और उमस भरे माहौल को भूल जाएँगे। यहाँ की हरी-भरी वादियों में आकर आपको हर वह चीज मिलेगी जो कश्मीर में मिल सकती है। पिथौरागढ़ के आस पास बहुत सी झीलें, हरी-भरी पहाड़ियाँ और ऊँचे-नीचे घुमावदार रास्ते मन को एक नजर में ही भा जाते हैं। ठंडी हवाओं के झोंके दिल्ली की गर्मी को भुला देते हैं। मन करता है कि यहीं बस जाएँ। रंगबिरंगे फूल-पत्तियाँ, हरी-हरी नर्म, मुलायम घास की ऊँची-नीची परत पर नंगे पैर चलने से तन और मन दोनों को ताजगी मिलती है। 

खूबसूरती और रोमांच का अद्भुत संगम पिथौरागढ़ हिमालय की गोद में बसा छोटा सा हिल स्टेशन है। यह उत्तराखंड का छोटा कश्मीर माना जाता है। 1960 में इसे अल्मोड़ा जिले से अलग कर पिथौरागढ़ नाम दिया गया। इसके उत्तर की तरफ चीन और पूरब की तरफ नेपाल की सीमा है। इसके उत्तर की तरफ चीन और पूरब की तरफ नेपाल की सीमा है। पिथौरागढ़ के उत्तरी भाग की जनसंख्या बेहद कम है और यहां बर्फ से ढंकी चोटियां हैं- जैसे नंदा देवी, त्रिशूल, राजरंभा, पंचचुली, नंदखट वगैरह। इसके साथ ही इन चोटियों के नीचे बेहद ही खूबसूरत पहाड़, घास का मैदान और ग्लेशियर यहां के दृश्य को मनोहारी बनाते हैं। 

यहां खूबसूरत ग्लेशियर जैसे मिलाम ग्लेशियर, रैलम ग्लेशियर, नैमिक और सुंदर डुंगा प्रमुख हैं।पिथौरागढ़ आने वाले पर्यटकों के लिए यह किसी खजाने से कम नहीं है। बोटानिस्ट, धार्मिक लोग और पर्वतारोही इस जगह को ज्यादा पसंद करते हैं। प्रसिद्ध मानसरोवर यात्रा के बीच में पिथौरागढ़ भी आता हैं। यह जगह ट्रेकर्स के लिए एडवेंचर और खुशियों से भरा रास्ता है। छोटे से गांव में बसी यह घाटी कुंमाऊं के चांद राजा के राज्य का महत्वपूर्ण हिस्सा थी। इसे सौर घाटी के नाम से जाना जाता था। यहां के घने जंगलों में जंगली फूल और जानवरों की कई प्रजातियां जैसे मोर, हाथी, बाघ, मस्क डियर और स्नो लेपर्ड वगैरह पाई जाती हैं। पिथौरागढ़ के मुख्य पर्यटक स्थल हैं स्नेक टेम्पल, त्रिपुरा देवी मंदिर, कोटेश्वर की गुफा मंदिर और चौकरी का चाय बागान। 

पिथौरागढ़ के आसपास कई ऐसी जगह हैं, जहां आप घूम सकते हैं। चंदक- घाटी के उत्तरी दिशा में पिथौरागढ़ से लगभग सात किलोमीटर दूर पहाड़ों पर बसा है- चंदक। यहां बस से पहुंचा जा सकता है। यहां से आप हिमालय के आसपास की सारी खूबसूरती देख सकते हैं। चारों तरफ फैली घाटियों का भी आनंद ले सकते हैं। थल केदार- पिथौरागढ़ से 16 किलोमीटर दूर यहां शिव जी का प्रसिद्ध मंदिर है। इसके अलावा कपिलेश्वर मंदिर, गुफा मंदिर, उल्का देवी मंदिर, कैलाश आश्रम, हनुमान मंदिर वगैरह भी देखने लायक हैं। गंगोलीहट- यह एक धार्मिक स्थल है जहां प्रसिद्ध महाकाली मंदिर है। कहा जाता है गुरु शंकराचार्य द्वारा इस शक्ति पीठ को बनाया गया था। 

यहाँ का 'अबूत पर्वत' पहाड़ों का सौंदर्य देखने का प्रमुख स्थल है। यहाँ से घाटी की मनोहारी झाँकी देखने को मिलती है। लोहाघाट से 45 किमी की दूरी पर स्थित देवीधारा का वराशी मंदिर मशूहर जगह है। यहाँ रक्षा बंधन के दिन हर साल दो पक्षों में परंपरागत एक दूसरे पत्थर फेंकने के खेल का आयोजन किया जाता है। यहाँ से सात किमी की दूरी पर स्थित वाणासुर का किला यहाँ के मशहूर पर्यटक स्थलों में से हैं।

पिथौरागढ़ से पांच किलोमीटर की दूरी पर छोटी पर खूबसूरत जगह है चंदग। माना जाता है देवी ने यहां के दो दैत्यों चंड और मुंड का संहार किया था। महाराजा के पार्क को उन सैनिकों की याद में बनाया गया है जो कश्मीर में शहीद हो गए थे। छोटे से पहाड़ के ऊपर खूबसूरत कामाख्या देवी हैं। चारों तरफ से घाटियों से घिरा यह मंदिर अद्भुत नजारा प्रस्तुत करता है। यह जगह साहसिक खेल जैसे रॉक क्लाइमबिंग, रिवर राफ्टिंग के लिए प्रसिद्ध है। 

सड़क मार्ग से दिल्ली से पिथौरागढ़ की दूरी 496 किलोमीटर है। गाजियाबाद, गजरौला, मोरादाबाद, रामपुर, बिलासपुर, रुद्रपुर, हल्द्वानी, काठगोदाम, भीमताल, पदमपुरी, शिलालेख, चिल्का चाइना आदि रास्ते में पड़ते हैं। यहाँ आकर ठहरने की समस्या नहीं है। दिल्ली, अल्मोड़ा और नैनीताल से यहाँ के लिए नियमित बस सेवाएँ हैं।

अर्जी पढ़कर देवता मनोकामना करते हैं पूर्ण, भक्त चढ़ाते हैं घण्टी

अपनी अलौकिक छटा के कारण पर्यटकों के बीच प्रसिद्ध उत्तराखण्ड धार्मिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। यहां के पावन तीर्थो के कारण ही इसे देव भूमि पुकारा जाता है और यहां के विशेष मंदिर और उनकी कथाएं पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। अल्मोड़ा जिले में दुनिया का अपने आप में ऐसा ही एक अनोखा चित्तई स्थित गोलू देव का मन्दिर है। 

इसके बारे में कहा जाता है कि दुनिया में किसी मन्दिर में इतनी घंटियां नहीं चढ़ायी गयी हैं, जितने अकेले गोलू देव के मंदिर में मौजूद हैं। वहीं इस मंदिर में भगवान का फरियादी की अर्जी पढ़कर मनोकामना पूर्ण करना भी इसे बेहद खास बनाता है। इस मंदिर की मान्यता न सिर्फ देश बल्कि विदेशों तक में है। इसलिए यहां दूर-दूर से सैलानी और श्रद्धालु आते हैं। 

इस मंदिर में प्रवेश करते ही यहां अनगिनत घंटियां नजर आने लगती हैं। कई टनों में मंदिर के हर कोने-कोने में दिखने वाले इन घंटे-घंटियों की संख्या कितनी है, ये आज तक मन्दिर के लोग भी नहीं जान पाए। आम लोगों में इसे घंटियों वाला मन्दिर भी पुकारा जाता है, जहां कदम रखते ही घंटियों की पक्तियां शुरू हो जाती हैं। 

दरअसल यहां मन्नते पूरीं होने पर घंटियां चढ़ाने की परम्परा है और ये घंटियां इस बात की भी तस्दीक करती हैं कि यहां कितने भारी पैमाने पर लोगों की मन्नतें पूरी होती हैं। खास बात है कि इन घंटियों को मन्दिर प्रशासन गलाकर, बेचकर या फिर दूसरे कार्यो में इस्तेमाल नहीं करता। बल्कि इसे भगवान की धरोहर मानकर सहेजा जाता रहा है। मंदिर प्रांगण में जो घंटियां नजर आती हैं, असल में उनकी संख्या और भी ज्यादा है, जिन्हें क्रमवार निकाल कर सुरिक्षत रखा जाता है, जिससे मंदिर में और घंटे-घंटियां लगाने की जगह बनी रही। 

गोलू देवता को उत्तराखण्ड में न्याय का देवता कहा जाता है। इनके बारे में यह मान्यता है कि जिसको कहीं पर भी न्याय नहीं मिले वह इनके दरबार में अर्जी लगाये तो उससे तुरन्त न्याय मिल जाता है। यही वजह है कि मंदिर में अर्जियां लगाने की भी परम्परा है। कोने-कोने से आये श्रद्धालु अपनी मनोकामना पूर्ण करने के लिए बड़ी संख्या में अर्जियां लिखकर यहां टांग जाते हैं, जिन्हें मन्दिर में देखा जा सकता है। 

कहा जाता है कि इन अर्जियों को पढ़कर गोलू देवता मनोकामना पूर्ण करते हैं और श्रद्धा स्वरूप भक्त यहां घंटियां चढ़ाते हैं। यही वजह है कि इस मन्दिर को कई लोग अर्जियों वाला मन्दिर भी पुकारते हैं।

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