‘द ग्रेट खली’ को भी पीछे छोड़ दिया इस महाबली कांस्टेबल ने, जानिए कैसे


वर्ष 2006 में अंडर टेकर को पराजित कर विश्व कुश्ती मुकाबलों में तहलका मचाने वाले ‘द ग्रेट खली’ का नाम कौन नहीं जानता। खली रोजाना 15 से 20 अंडे, चिकन, 1 किलो दूध, केले, सेब और कई तरह के फल और सब्जियां खाते हैं, लेकिन खली की तरह दिखने वाले हरियाणा के अंबाला जिले के गांव दनौरा निवासी 7 फीट 4 इंच लम्बे युवक राजेश कुमार उर्फ महाबली भीम 4 लीटर दूध, 4 किलो चिकन, 5 किलो फल, 40 अंडे, लगभग 40 चपाती रोजाना खाते हैं और हर दो-ढाई घंटे के बाद उन्हें डाइट की जरूरत पड़ती है। 7.4 फीट लंबे राजेश भी खली की तरह ही प्रतिदिन 6 घंटे एक्सरसाइज करते हैं।

आठ भाई-बहनों में राजेश से इतनी ज्यादा ऊंचाई किसी की नहीं है। राजेश की लंबाई उनके लिए फायदेमंद साबित हो रही है। कुछ समय पहले हरियाणा सरकार ने उन्हें पुलिस में नौकरी दी। दावा किया जा रहा है कि भारत में राजेश की लंबाई तीसरे नंबर पर है तथा पंजाब-हरियाणा का सबसे लंबा व्यक्ति है। 38 साल के राजेश 3 साल से यूएसए की WWE रेसलिंग की तैयारी कर रहे हैं। जालंधर से वह इसकी कोचिंग ले रहे थे। करीब एक साल पहले उन्हें हरियाणा पुलिस में कॉन्स्टेबल की जॉब मिल गई। 20 जनवरी को उन्हें हरियाणा पुलिस में एक साल पूरा हो जाएगा। फिलहाल वह ट्रेनिंग के साथ प्रैक्टिस भी कर रहे हैं।

दावा किया जा रहा है कि भारत में राजेश की लंबाई तीसरे नंबर पर है तथा पंजाब-हरियाणा का वह सबसे लंबा व्यक्ति है। राजेश बताते हैं कि महाबली खली उर्फ दलीप सिंह राणा को नाहन में मिलने के बाद उनकी रेसलिंग में जाने की दिलचस्पी बढ़ी। खुराक का खर्च वो अपनी नौकरी और जमीन से होने वाली आय से खुद उठाते हैं। राजेश का बेटा 10वीं क्लास में पढ़ता है और बेटी 7वीं क्लास में पढ़ती है। लंबाई की वजह से राजेश आम लोगों के बीच बिल्कुल अलग दिखाई देते हैं। यही देख कर उसकी ड्यूटी आम लोगों के बीच जागरूकता लाने वाले कैंपेन में ज्यादा लगाई जाती है, ताकि लोग उसे देखकर रुकें और उसकी बात सुनें। इन दिनों उनकी ड्यूटी हेल्मेट पहनने और सुरक्षित ड्राइविंग के प्रति लोगों को जागरूक करने की लगाई गई है।

'चुड़ैलों' का गांव

यूं तो आपने अंधविश्वास से जुड़े बहुत सारे अजीबो-गरीब किस्से सुने होंगे लेकिन एक ऐसा मामला सच में सकते में डालने वाला है। क्या आपने चुड़ैलों के गांव के बारे में कभी सुना है? अगर नहीं सुना तो बता दें कि अफ्रीकी देश घाना में इस तरह के 6 गांव हैं, जो चुड़ैलों के गांव के नाम से प्रसिद्ध हैं। इन गांवों में ऐसी महिलाएं रहती हैं, जिन्हें डायन या चुड़ैल कहकर समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है।

इन औरतों को चुड़ैल या डायन घोषित करने की वजह भी बड़ी ही अजीब है। सांप काटने से किसी की मौत किसी व्यक्ति के नदी में डूबकर मर जाने की वजह से कई औरतों को चुड़ैल घोषित कर दिया गया। वह अंधविश्वास के कारण महिलाओं को चुड़ैल घोषित कर देते हैं। उन्हें जिंदा जला दिया जाता है और मानसिक और शरीरिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। इन सबसे बचने के लिए अपना गांव छोड़कर कहीं दूर चली जाती है।

हाल ही में म्यूनिख की फोटोग्राफर एन क्रिस्टिने वोएहर्ल ने इनकी कुछ तस्वीरें ली है। उनका कहना हैं कि चुड़ैलों के गांव में ये औरतें झोपड़ियां बना कर रहती हैं और आस-पास के खेतों में काम कर खाने का इंतजाम करती हैं। चुड़ैल घोषित की जा चुकी महिलाएं अगर जिंदा बच जाती हैं तो उन्हें अपना घर छोड़कर घाना में मौजूद चुड़ैलों के गांवों में जाना होता है।

आपको बता दें कि करीब-करीब पूरे पश्चिमी अफ्रीका में लोग जादू और चुड़ैलों पर विश्वास करते हैं। हर धर्म, हर जाति, शहर, गांव कहीं के भी हों, इन पर उनका विश्वास है। घाना में इस तरह के 6 गांव हैं, जिनमें गांबागा और गुशीगू प्रमुख हैं। गांव-परिवार छोड़कर चुड़ैलों के गांव में रहने वाली ये महिलाएं अपनी पहचान खो चुकी होती हैं। उनके परिवारिक सदस्य भी उनसे कोई रिश्ता नहीं रखते। वह समाज से पूरी तरह से अलग हो जाती है। इनकी संख्या 1500 के आसपास है।

इंडिया के सबसे एडवांस कमांडो, हाथ पैर बंधे होने पर भी तैर जाते हैं ये


भारतीय नौसेना के स्पेशल कमांडोज जिन्हें आम नज़रों से बचा कर रखा गया है। मार्कोस को जल, थल और हवा में लड़ने के लिए विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। समुद्री मिशन को अंजाम देने के लिए इन्हें महारत है। मार्कोस को दुनिया के बेहतरीन यूएस नेवी सील्स की तर्ज पर ट्रेंड किया जाता है। मार्कोस कमांडो बनने के लिए कड़े मुकाबले से गुजरना होता है। 20 साल उम्र वाले प्रति 10 हजार युवा सैनिकों में एक का सिलेक्शन मार्कोस के लिए होता है।

जानिए कैसे हुई इस कमांडो यूनिट की स्थापना


पाकिस्तान के साथ 1971 के युद्ध के बाद नौसेना में ऐसे कमांडो यूनिट की आवश्यकता महसूस की गई और तब नेवी ने कुछ खास अधिकारियों को इंडियन आर्मी और सिक्‍योरिटी फोर्सेज की ओर से शुरूआती ट्रेनिंग दिलवाई।1986 में नेवी ने एक मैरीटाइम स्‍पेशल फोर्स की योजना शुरू की। इसके बाद तीन आॅफिसर्स को पहले यूएस नेवी सील्‍स कमांडो और फिर ब्रिटिश स्‍पेशल एयर सर्विस के पास एक विशेष कार्यक्रम के तहत ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। इंडियन मैरिटाइम स्‍पेशल फोर्स की स्‍थापना फरवरी 1987 में हुई। इसका नाम वर्ष 1991 में आईएमएसएफ से बदलकर एमसीएफ कर दिया गया। मार्कोस अक्सर विषम परिस्थितियों में हीं बुलाये जाते हैं। मार्कोस कमांडो बनने के लिये 20 साल के युवा सैनिको को चुना जाता है जिन्हे कड़े परीक्षण से गुजरना होता है। करगिल युद्ध में भी मार्कोस कमांडो ने पाकिस्तान को बहुत नुकसान पहुंचाया था।

हाथ पैर बंधे होने पर भी तैरने में होते हैं माहिर-


मार्कोस भारतीय नौसेना के स्पेशल मरीन कमांडोज हैं। स्‍पेशल ऑपरेशन के लिए इंडियन नेवी के इन कमांडोज को बुलाया जाता है। ये कमांडो हमेशा आम नज़रों से बचकर रहते हैं। मार्कोस हाथ पैर बंधे होने पर भी तैरने में माहिर होते हैं। नौसेना के सीनियर अफसर की मानें तो परिवार वालों को भी उनके कमांडो होने का पता नहीं होता है। मार्कोस का मकसद आतंकियों को उन्हीं के तरीके से मारना, जवाबी कार्रवाई, मुश्किल हालात में युद्ध करना, लोगों को बंधकों से मुक्त कराना जैसे खास ऑपरेशनों को पूरा करना है।

ऐसा मक़बरा जहां जूते मारकर जियारत करते हैं लोग

वैसे किसी व्‍यक्ति के मरने के बाद चाहे वह अच्‍छा हो या बुरा, लोग उसे श्रद्धांजलि देने के लिए फूल ही चढ़ाते हैं, लेकिन उत्‍तर प्रदेश के इटावा जनपद में एक ऐसा भी शख्‍स हुआ है जिसकी कब्र पर फूल नहीं चढ़ाए जाते। बल्कि उसे जूते मारते हैं| यह सुनने में थोड़ा अजीब जरूर लग रहा होगा लेकिन यह सच है| ये कब्र भोलू सैय्यद की। यहां लोग फूल, अगरबत्‍ती से नहीं बल्कि जूतों से जियारत करते हैं और कब्र को जूतों से पीटकर मन्‍नत पूरी करते हैं।

इटावा से तकरीबन तीन किलोमीटर दूर इटावा-बरेली राजमार्ग पर है भोलू सैय्यद का यह 500 साल पुराना मकबरा। यहाँ के निवासियों का कहना है कि एक बार इटावा के बादशाह ने अटेरी के राजा के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। युद्ध के बाद में इटावा के बादशाह को पता चला कि इस युद्ध के लिए उसका दरबारी भोलू सैय्यद जिम्मेदार था।

इससे नाराज बादशाह ने ऐलान किया कि सैय्यद को इस दगाबाजी के लिए तब तक जूतों से पीटा जाए जब तक कि उसकी मौत न हो जाए। सैय्यद की मौत के बाद से ही उसकी कब्र पर जूते मारने की परंपरा चली आ रही है। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि इटावा-बरेली मार्ग पर अपनी तथा परिवार की सुरक्षित यात्रा के लिए सैय्यद की कब्र पर कम से कम पांच जूते मारना जरूरी है।

... इस तरह मोर पंख में समाहित हो गईं 33 करोड़ देवी-देवताओं की शक्तियां


मोर संसार का सबसे सुन्दर पक्षी माना जाता है। सनातन धर्म में मोर पंख को बहुत आदरणीय स्थान प्राप्त है। भारतीय संस्कृति में उसके महत्व को देखते हुए ही भारत सरकार ने भारतीय वन्य परिषद की अनुशंसा पर सन् 1962 में इसे राष्ट्रीय पक्षी घोषित किया। सभी शास्त्रों व ग्रंथो तथा वास्तु एवं ज्योतिष शास्त्र में मोर के पंखों का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है.मोर के पंख घर में रखने का बहुत महत्त्व है इसका धार्मिक प्रयोग भी है, इसे भगवान श्री कृष्ण ने अपने मुकुट पर स्थान दे कर सम्मान दिया| शास्त्रों के अनुसार मोर के पंखों में सभी देवी-देवताओं और सभी नौ ग्रहों का वास होता है। ऐसा क्यों होता है इसकी हमारे धर्म ग्रंथों में कथा है जो इस प्रकार है -

प्रचलित कथाओं के अनुसार, आदिकाल में संध्यासुर का नाम का एक दैत्य था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। उसने शिव से अतिवीर होने का वरदान भी लिया था। वर पाने के बाद उसे इतना अहंकार हुआ कि उसने विष्णु भक्तों को ही परेशान करना शुरु कर दिया और कई देवताओं को बंदी बना लिया। उसने भक्ति से इतनी शक्ति प्राप्त कर ली थी कि भगवान विष्णु भी उसका वध करने में समर्थ नहीं थे। कहते हैं जब देवतागण, दैत्यासुर के अत्याचार से बहुत दुःखी हो गए तो उन्होंने योगमाया को सहायता के लिए पुकारा योगमाया ने नवग्रहों और देवताओं के तेज से एक पक्षी की रचना की जिसे नाम दिया गया 'मोर'। इस 'दिव्य मोर' के पंखों में छिपकर अपनी शक्तियां बढ़ाईं और एक दिन मोर के साथ असुर पर आक्रमण कर दिया। संध्यासुर मोर के आगे टिक नहीं पाया और मोर के सामने घुटने टेक दिए। तभी से मोर पंख में नवग्रहों और तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की शक्ति समाहित हो गई।

घर में मोर पंख को रखने से शुभता का संचार होता है तथा सुख-समृद्धि और लक्ष्मी कृपा प्राप्त होती है। घर के वातावरण में मौजूद नकारात्मक शक्तियां नष्ट होती हैं और सकारात्मक शक्तियां सक्रिय होती हैं। सांप मोर पंख से भय खाते हैं क्योंकि मोर का प्रिय आहार है सांप। अत: सांप उस स्थान में नहीं जाते जहां उन्हें मोर या मोर पंख दिखाई देते हैं। जो व्यक्ति सदैव अपने पास मोर पंख रखता है उस पर कोई अमंगल नहीं मंडराता। मोर पंख से बने पंखे को घर के अंदर ऊपर से नीचे फहराने से घर की आसपास की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। मोर पंख को सिर पर धारण करने से विद्या लाभ प्राप्त होता है।

काल-सर्प के दोष को भी दूर करने की इस मोर के पंख में अद्भुत क्षमता है। काल-सर्प वाले व्यक्ति को अपने तकिये के खौल के अंदर 7 मोर के पंख सोमवार रात्री काल में डालें तथा प्रतिदिन इसी तकिये का प्रयोग करे। और अपने बैड रूम की पश्चिम दीवार पर मोर के पंख का पंखा जिसमे कम से कम 11 मोर के पंख तो हों लगा देने से काल सर्प दोष के कारण आयी बाधा दूर होती है। बच्चा जिद्दी हो तो इसे छत के पंखे के पंखों पर लगा दे ताकि पंखा चलने पर मोर के पंखो की भी हवा बच्चे को लगे धीरे-धीरे हठ व जिद्द कम होती जायेगी।

जहां साक्षात रूप में मदिरा पान करते है भगवान काल भैरव

उज्जैन: हमारे देश में अनेक ऐसे मंदिर है जिनके रहस्य आज तक अनसुलझे है। महाकाल की नगरी उज्जैन में भी एक ऐसा ही मंदिर है काल भैरव मंदिर| इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है की यहाँ पर भगवान काल भैरव साक्षात रूप में मदिरा पान करते है। इस मंदिर में जैसे ही शराब से भरे प्याले काल भैरव की मूर्ति के मुंह से लगाते है तो देखते ही देखते वो शराब के प्याले खाली हो जाते है। यह मंदिर सदियों पुराना है लेकिन इसका जीर्णोद्धार करीब 1000 वर्ष पहले परमार कालीन राजाओं ने करवाया था। यहां होने वाली इस चमत्कारिक घटना को देखने देश-विदेश से भक्त आते हैं।

बताया जाता है कि कालभैरव का यह मंदिर लगभग छह हजार साल पुराना है। यह एक वाम मार्गी तांत्रिक मंदिर है। वाम मार्ग के मंदिरों में माँस, मदिरा, बलि, मुद्रा जैसे प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। प्राचीन समय में यहाँ सिर्फ तांत्रिको को ही आने की अनुमति थी। वे ही यहाँ तांत्रिक क्रियाएँ करते थे। कालान्तर में ये मंदिर आम लोगों के लिए खोल दिया गया। कुछ सालो पहले तक यहाँ पर जानवरों की बलि भी चढ़ाई जाती थी। लेकिन अब यह प्रथा बंद कर दी गई है। पहले बलि के बाद भगवान को बलि का मांस प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता था लेकिन केवल भगवान भैरव को केवल मदिरा का भोग लगाया जाता है। काल भैरव को मदिरा पिलाने का सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। यह कब, कैसे और क्यों शुरू हुआ, यह कोई नहीं जानता।

मंदिर में काल भैरव की मूर्ति के सामने झूलें में बटुक भैरव की मूर्ति भी विराजमान है। बाहरी दिवरों पर अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित है। सभागृह के उत्तर की ओर एक पाताल भैरवी नाम की एक छोटी सी गुफा भी है| कहते है की बहुत सालो पहले एक अंग्रेज अधिकारी ने इस बात की गहन तहकीकात करवाई थी की आखिर शराब जाती कहां है। इसके लिए उसने प्रतिमा के आसपास काफी गहराई तक खुदाई भी करवाई थी। लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। उसके बाद वो अंग्रेज भी काल भैरव का भक्त बन गया।

स्कंद पुराण में इस जगह के धार्मिक महत्व का जिक्र है। इसके अनुसार, चारों वेदों के रचियता भगवान ब्रह्मा ने जब पांचवें वेद की रचना का फैसला किया, तो उन्हें इस काम से रोकने के लिए देवता भगवान शिव की शरण में गए। ब्रह्मा जी ने उनकी बात नहीं मानी। इस पर शिवजी ने क्रोधित होकर अपने तीसरे नेत्र से बालक बटुक भैरव को प्रकट किया। इस उग्र स्वभाव के बालक ने गुस्से में आकर ब्रह्मा जी का पांचवां मस्तक काट दिया। इससे लगे ब्रह्म हत्या के पाप को दूर करने के लिए वह अनेक स्थानों पर गए, लेकिन उन्हें मुक्ति नहीं मिली। तब भैरव ने भगवान शिव की आराधना की। शिव ने भैरव को बताया कि उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर ओखर श्मशान के पास तपस्या करने से उन्हें इस पाप से मुक्ति मिलेगी। तभी से यहां काल भैरव की पूजा हो रही है।

दुनिया के प्रसिद्ध अंडरवाटर होटल

आप दुनिया के बहुत से होटलों व रिजॉर्ट्स में ठहर चुके होंगे, जहां सारी आधुनिक सुविधाएं मौजूद होती हैं। लेकिन आज हम आपको दुनिया के कुछ ऐसे होटलों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो समुद्र के अंदर बने हुए हैं। समुद्र के अंदर बने ये होटल अपने-आप में बेहद खास हैं। प्रकृति प्रेमियों को ये होटल पसंद आ सकते हैं। यहां समुद्र के अंदर जिंदगी का मजा लिया जा सकता है। यहां ठहरना किसी रोमांच से कम नहीं हो सकता।

1. मान्टा रिजॉर्ट (The Manta Resort, Pemba Island, Zanzibar)

मान्टा रिजॉर्ट समुद्र में कई फीट अंदर बना हुआ है। यह अफ्रीका का पहला अंडरवाटर होटल। तीन मंजिला ये होटल किसी आइलैंड से कम नहीं लगता। कई सारी सुविधाओं से लैस इस होटल के कमरे छोटे-छोटे हैं। इस होटल में खूबसूरत मछलियों, वाटर डेक के साथ रात रात गुजारने का मौका मिलता है होटल के कमरे से समुद्र के अंदर का नजारा ठहरने वालों को बेहद आकर्षित करता है। इसकी गहराई 13 फीट है।

2. पोजेडॉन अंडरवाटर, फिजी (The Poseidon Underwater Resort, Fiji)

इस होटल की गहराई 40 फीट है। फिजी के इस खूबसूरत से अंडरवाटर होटल में कुल 22 गेस्ट रूम, एक रेस्टोरेंट और बार भी है। इसके अलावा लाइब्रेरी, कॉन्फ्रेंस रूम, बैंकेट हॉल और स्पा की भी सुविधा मौजूद है। होटल के बाहर के नेचर पर्यटकों को खासतौर से पसंद आता है। ये होटल पांच हजार एकड़ के क्षेत्र में पानी से घिरा है। होटल के रूम के बाहर ब्लू व्हेल्स, बॉटल नोज डॉल्फिन्स और रंग-बिरंगी क्लाउनफिश देखने को मिल सकती है।

3. क्रिसेंट हाइड्रोपोलिस, दुबई( Crescent Hydropolis, Dubai)

क्रिसेंट हाइड्रोपोलिस बहुत ही महंगा और कई सारी सुविधाओं से लैस दुबई का मशहूर अंडरवाटर होटल है। जहां ज्यादातर सेलिब्रिटीज और शाही परिवार ही ठहरते हैं। कमरों से लेकर डाइनिंग एरिया, मीटिंग हॉल और इनडोर गेमिंग एरिया तक सभी कुछ ग्लास से बना हुआ है। इसी कारण समुद्र के अंदर मौजूद मछलियों और अन्य जीवों को आसानी से देखा जा सकता है। हरे कुछए और हॉक्सबिल भी देखने को मिल सकते हैं।

4. द शिमाओ वंडरलैंड, चीन (The Shimao Wonderland, China)

इसे गुफा होटल भी कहा जाता है। इसे ब्रिटेन की डिजाइनिंग फर्म एटकिन्स ने डिजाइन किया है। ये होटल चीन की सोंगजियांग में थियानमेंशन पहाड़ों के बीच स्थित है। 19 मंजिला यह होटल पानी के 100 मीटर अंदर मौजूद है। इसमें 380 कमरे हैं।

5. हुवाफेन फुशी (Huvafen Fushi)

पानी के अंदर बने इस होटल से समुद्र का नजारा बहुत ही खूबसूरत दिखता है। हुवाफेन फुशी मालदीव का मशहूर होटल है। इस होटल की खास बात ये है कि इसका निर्माण पानी के अंदर बेहद खूबसूरत तरीके से किया गया है। इतना ही नहीं, इस होटल के बाहरी हिस्से को भी बेहतरीन तरीके से डिजाइन किया गया है। होटल में इनडोर स्टेडियम से लेकर स्पा तक की सुविधाएं मौजूद हैं।

भोपाल गैस त्रासदी: अपनों को अंतिम विदाई तक नहीं दे सके कई परिवार

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की हाउसिंग बोर्ड कालोनी में रहने वाली कुसुम बाई की आंखें अपने दिवंगत पति जयराम को याद कर आज भी डबडबा जाती हैं। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसी गैस ने उन पर ऐसा कहर ढाया कि उन्हें पति का शव तक नहीं मिला। वह जयराम की तस्वीर निहारते सिर्फ यादों के सहारे जी रही हैं। गैस त्रासदी की ऐसी पीड़िताएं और भी हैं।

जहरीली गैस से अपनों को खोने वाले हजारों परिवार हैं, जिन्हें अपनों के शव तक नसीब नहीं हुए। भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी। यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) गैस रिसी और वह जिस ओर बढ़ी, वहां तबाही मचाती रही। कुसुम बाई बताती हैं कि वह हादसे की रात सो रही थीं, उनके पति ने उन्हें जगाया और कहा, “पूरा भोपाल भागा जा रहा है और तुम हो कि सो रही हो।”

कुसुम ने जैसे ही पति की बात सुनी, वह भी घर से निकल पड़ी। वह बताती हैं कि जहरीली गैस के कारण उनकी आंखों में जलन हो रही थी, फिर भी भागे जा रही थीं। उस रात जिसे जहां रास्ता दिख रहा था, वह भागे जा रहा था। सड़कों पर लोग गिरे हुए थे। बच्चों और महिलाओं की चीख-पुकार से पूरा माहौल मातमी हो गया था। उसी भगदड़ में कुसुम पति से बिछुड़ गईं। काफी खोजा, मगर पति कहीं नहीं मिले।

कुछ ऐसा ही दुख मेवा बाई का है। उसने भी अपने पति किशन को हादसे की रात खो दिया। वह बताती हैं कि उनके पति स्टेशन के पास फर्नीचर बनाने का काम करते थे। जब गैस रिसी तब वह दुकान पर थे। उन्होंने अपनी जान बचाने की बजाय घर आकर उन्हें जगाया। मेवा बाई जागीं और अपने बच्चों के साथ सुरक्षित स्थान की तलाश में भागीं। इसी दौरान वह पति बिछुड़ गईं।

उनके पति का आज तक कहीं कोई सुराग नहीं लगा है। भोपाल ग्रुप फॉर इंफोरमेशन एंड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा बताती हैं कि प्रशासनिक आंकड़ा हकीकत से मेल नहीं खाता। बताया गया कि हादसे की रात ढाई से तीन हजार लोगों की मौत हुई, लेकिन यह सच्चाई से कहीं दूर है। पहले सात दिन तो हाल यह रहा कि प्रशासन अनगिनत शवों का अंतिम संस्कार करने की स्थिति में नहीं था। आखिरकार शवों की सामूहिक अंत्येष्टि करनी पड़ी और सैकड़ों शव नर्मदा नदी में बहा दिए गए। यही कारण रहा कि हजारों लोगों को अपने परिजनों के शव नसीब नहीं हो सके।

हर धर्म में अंतिम संस्कार का विधान है, मगर गैस पीड़ित हजारों परिवार ऐसे हैं जो अपनों को अंतिम विदाई तक नहीं दे सके। उन्हें 30 वर्ष बाद भी इस बात का मलाल है।

भोपाल गैस त्रासदी: ऐसा दर्द जिसको याद कर कांप जाती है रूह

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास की बस्तियों में अब भी हादसे के जख्म बरकरार हैं, हर घर से मरीज के कराहने की आवाज आसानी से सुनी जा सकती है मगर यहां की महिलाएं उस दर्द को सह रही हैं, जिसे वे बयां तक नहीं कर सकती। भोपाल में अब से 30 वर्ष पहले दो-तीन दिसंबर 1984 की रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसो सायनाइड (मिक) गैस रिसी थी, इस गैस से हजारों लोग मौत की आगोश में समा गए थे। बीमारियों की वजह से मौत का सिलसिला तो अब भी जारी है।

गैस पीड़ितों में सबसे ज्यादा मरीज आंख, गुर्दे, हृदय, कैंसर, ट्यूमर, त्वचा के हैं। केंद्र सरकार के अधीन आने वाले भोपाल स्मारक अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र के अलावा राज्य सरकार के छह अस्पतालों में आने वाले ज्यादातर मरीज इन्हीं रोगों से संबंधित होते हैं। इनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा होती है। गैस पीड़ितों की बस्ती में ऐसे घरों की कमी नहीं है जहां महिलाएं बीमारियों के साथ उस दर्द को झेल रही हैं जो उन्हें अपनों को मिली बीमारियों के चलते है। वे इस दर्द को बयां नहीं करती, इसे तो सिर्फ उनके चेहरे पर छाई उदासी से पढ़ा जा सकता है। वे आंसू भी अकेले में बहा देती हैं क्योंकि वे नहीं चाहती कि उनके इस दर्द का कोई भागीदार बने।

जेपी नगर में रहने वाली हाजरा बी अब लगभग 60 वर्ष की हो गई हैं, मगर गैस हादसे की रात को याद कर रो पड़ती हैं। वह कहती हैं कि उनकी तो खुशहाल दुनिया ही उस रात उजड़ गई। तीन बच्चे हैं जो बीमारी का शिकार हैं, पति भी चल बसा, एक नातिन जो सात वर्ष की है, अपंग है। उन्हें सांस की बीमारी है और आंखों के ऑपरेशन के बाद भी साफ दिखाई नहीं देता। वह बताती हैं कि उन्हें गैस हादसे ने वह दर्द दिया है, जिसकी याद कर उनकी रूह कांप जाती है, मगर किसी से कह नहीं सकती। अकेले में रो लेतीं हैं और उस घड़ी को कोसती हैं जब यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से गैस रिसी थी।

गैस हादसे ने शीला देवी की जिंदगी को भी जख्मों से भर दिया। वह खुद सांस की रोगी हैं और उनकी एक बेटी ज्योति तो कई बीमारियों से जूझ रही है। वह बताती है कि 45 वर्ष की ज्योति का शरीर फूल जाता है और उसे खून की कमी है। वह अस्पतालों के चक्कर लगाती रहती हैं, मगर कोई सुधार नहीं हो रहा है। वह ज्योति की शादी करना चाहती थी, मगर गैस के चलते मिली बीमारियों से वे उसका घर नहीं बसा पाई। भोपाल ग्रुप फॉर इन्फार्मेशन एण्ड एक्शन की सदस्य रचना ढींगरा कहती हैं कि गैस के दुष्प्रभाव ने महिलाओं को बीमारियां दी हैं मगर उसके बावजूद वे अपनी जिम्मेदारी व जवाबदारी को निभाने में पीछे नहीं रहती हैं।

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार का कहना है कि गैस के दुष्प्रभाव ने महिलाओं को ऐसे रोग दिए हैं, जिसने उनकी जिंदगी को बेरंग कर दिया है। महिलाओं को कैंसर, सांस, ट्यूमर जैसी घातक बीमारियां हैं और उन्हें वह इलाज नहीं मिल पा रहा है जिसकी उन्हें जरुरत है। वे मरीजों का वर्गीकरण न होने पर भी चिंता जताते हैं। भोपाल गैस राहत व पुनर्वास विभाग के आयुक्त आर.ए. खंडेलवाल का कहना है कि राज्य सरकार हर वर्ष गैस पीड़ितों के उपचार पर 90 करोड़ रुपये खर्च करती है। हर वर्ग के बेहतर इलाज के लिए सरकार की ओर से प्रयास किए गए हैं। केंद्र सरकार के बीएमएचआरसी में तीन लाख 86 हजार गैस पीड़ितों के स्मार्ट कार्ड बनाए जा चुके हैं। राज्य सरकार के अस्पतालों का भी कंप्यूटराईजेशन किया जा चुका है, लिहाजा मरीजों को बिना परेशानी के इलाज मिल रहा है।

खंडेलवाल बताते हैं कि राज्य सरकार के गैस पीड़ितों के अस्पतालों में प्रतिदिन लगभग चार हजार मरीज आते हैं, उनका बेहतर इलाज मुहैया कराया जाता है। सामान्य और गंभीर मरीजों को उनकी जरूरत के मुताबिक सुविधाएं इन अस्पतालों में उपलब्ध है। भोपाल गैस हादसे ने हजारों परिवारों के जीवन को मुसीबतों से भर दिया है और इन मुसीबतों का पहाड़ अगर किसी पर टूट है तो उनमें महिलाएं कहीं ज्यादा है।

…यहाँ झूले पर झूलती हैं मां

अभी तक आपने कई मंदिरों के दर्शन किये होंगे लेकिन आज हम आपको एक ऐसे मंदिर के दर्शन कराने जा रहे हैं जहाँ झूले में झूलती हैं मां| उत्तराखंड के रानीखेत माल रोड में घने जंगल के बीच सुरम्य स्थल पर स्थित मां झूला देवी का प्राचीन मंदिर श्रद्धालुओं की अटूट आस्था का केन्द्र है। मान्यता है कि झूला देवी मां के आशीर्वाद कई लोगों के लिए बेहतर फलीभूत हुआ है। मंदिर की स्थापना करीब 700 साल पहले मानी जाती है।

जनश्रुतियों के अनुसार, लगभग 700 साल पहले चौबटिया क्षेत्र के घनघोर जंगल में बड़ी संख्या में चीते, बाघ, शेर व अन्य जंगली जानवरों का वास था। उस दौर में क्षेत्र के ग्रामीण इनके आतंक से बेहद दुखी हो गए। ग्रामीणों व उनके मवेशियों पर आए दिन हमला होने लगा। इसके बाद दुखी ग्रामीणों ने मां की भक्ति की। इस भक्ति से खुश होकर मां देवी ने पिलखोली निवासी एक व्यक्ति को सपने में दर्शन दिए और दबी मूर्ति के बारे में बताया। उस जगह खुदाई में ग्रामीणों को आकर्षक मूर्ति मिली। उसी स्थान पर मां का मंदिर बनाकर मूर्ति स्थापित की गई और कहते हैं कि तब से पूजा-अर्चना शुरू हुई, तो जंगली जानवरों के आतंक से ग्रामीण मुक्त हुए।

झूले के पीछे मान्यता है कि एक बार सावन माह में मां ने एक व्यक्ति को फिर स्वप्न में बच्चों की भांति झूले में झूलने की इच्छा जताई। तो ग्रामीणों ने एक झूला तैयार कर मां की मूर्ति उसमें स्थापित कर दी। तभी से मंदिर झूला देवी मां के नाम से विख्यात हो गया। मंदिर से जुड़े लोग बताते हैं कि यह मंदिर लगभग 14वीं सदी का है। आज भी रात को बाघ व गुलदार मंदिर के इर्द-गिर्द विचरण करते हैं, किंतु माता की कृपा से कोई नुकसान नहीं पहुंचाते।

कितने जागरूक हैं हम?

‘एक्वायर्ड इम्युनो डेफिशियेन्सी सिन्ड्रोम’ (एड्स) के बारे में आज शायद ही ऐसा कोई होगा जो इससे अनभिज्ञ हो| एड्स के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए सरकार और समाजसेवी संस्था समय-समय पर इससे सम्बंधित अभियान चला रही हैं, लेकिन जो सबसे दुःख की बात है वह यह है कि सरकार व समाजसेवी संस्थाओं द्वारा चलाये गए इन अभियानों के बाद भी लोग अनजान बने हुए हैं| हर साल की तरह आज (1 दिसंबर 2015) भी ‘विश्व एड्स दिवस’ दुनियाभर में मनाया जा रहा है|

‘विश्व एड्स दिवस’ के अवसर पर सरकार विभिन्न स्थानों पर समारोह आयोजित कर लोगों में जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रही है| लेकिन अगर देखा जाये तो एक सच ये भी है कि आज भी हमारे देश में, हमारे शहर में और हमारे गाँव में एड्स के चक्रवात में फँसे लोगों की स्थिति बेहतर नहीं है|

आखिर क्यों कतराते हैं लोग

हमारे देश में जो लोग एड्स से पीड़ित हैं वह इस बात को स्वीकार करने से कतराते हैं| जिसका मुख्य कारण है ‘भेदभाव’| कहीं न कहीं, आज भी एचआईवी पॉजीटिव व्यक्तियों के प्रति भेदभाव की भावना रखी जाती है| अगर एड्स पीड़ित व्यक्ति के प्रति सद्भावना का भाव रखा जाये तो इस स्थिति में सुधार लाया जा सकता है| लेकिन ये तभी हो सकता है जब देश का हर नागरिक इसके प्रति जागरूक हो और अपना अहम योगदान देने के लिए तात्पर्य हो|

निम्न वर्ग में एड्स पीड़ितों की संख्या अधिक

बात अगर जागरूकता की करे तो ये कहना गलत नहीं होगा कि उच्च वर्ग की अपेक्षा निम्न वर्ग में इसके प्रति लोग कम जागरूक हैं| निम्न वर्ग के लोगों में अभी भी जानकारी का अभाव है| इसलिए भी इस वर्ग में ‘एचआईवी पॉजीटिव’ लोगों की संख्या अधिक है| जबकि बहुत सी संस्थाएँ निम्न वर्ग के लोगों में इस बात के प्रति जागरूकता अभियान चला रही हैं|

कई बार ऐसा होता है कि लोगों को इस बारे में जानकारी होती है लेकिन वह किसी तरह की कोई सावधानी नहीं बरतना चाहते| जिन कारणों से ‘एड्स’ होता है उससे बचने के बजाए अनदेखा कर जाते हैं| वहीँ कई लोग असुरक्षित यौन संबंध और संक्रमित रक्त के कारण एड्स की चपेट में आते हैं|

एड्स के खिलाफ कार्य कर रही कई सरकारी संस्थाएँ

‘एड्स’ के खिलाफ आज देश में कई समाज सेवी और सरकारी संस्थाएँ कार्य कर रही हैं| इनका उद्देश्य लोगों को जागरूक करना, एड्स से पीड़ित लोगों को समाज में उचित स्थान दिलाना व उनका उपचार कराना है| इन संस्थानों में से कुछ ‘फेमेली प्लानिंग एसोसिएशन ऑफ इंडिया’, ‘विश्वास’, ‘भारतीय ग्रामीण महिला संघ’ और ‘मध्यप्रदेश वॉलेन्ट्री हेल्थ एसोसिएशन आदि है| इन संस्थानों का मुख्य उद्देश्य ‘एचआईवी मुक्त समाज’ का निर्माण करना है| संस्थानों का मानना है कि एड्स की वजह से फैले भेदभाव को कम करने के लिए ‘एचआईवी कानून’ की बेहद जरुरी है|

जीत हार के तंज कसने पर प्रधान समर्थकों में चली लाठियां, हुआ पथराव

हैदरगढ़: उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के लोनीकटरा थाना क्षेत्र के अंतर्गत इलियासपुर गांव में चुनावी रंजिश के चलते दो प्रत्याशियों के समर्थक के बीच जमकर लाठी-डंडे चले। मारपीट में तीन लोग जख्मी हो गए। घायल तीन समर्थकों को गंभीर अवस्था में जिला चिकित्सालय रेफर किया गया है। पुलिस ने दोनों पक्ष की शिकायत पर तेरह के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की है।

लोनीकटरा थाना क्षेत्र के ग्राम इलियासपुर मौजूदा प्रधान नन्हा प्रसाद वर्मा इस बार फिर मैदान में वहीं उनके खिलाफ भगौती वर्मा ने भी प्रधानी के लिए नामांकन कर दावेदारी ठोंकी है। मंगलवार देर रात भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित पुत्र अमर सिंह, ललित वर्मा, देशबंधु, रज्जन लाल, गिरिजा शंकर, राम कुमार आदि अपने पक्ष में वोट मांग रहे थे। इसी दौरान नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक भी वहां वोट मांगने पहुंचे। एक दूसरे पर हारने और जीतने की बात को लेकर छींटा कसी शुरू हो गई। देखते ही देखते दोनों पक्षों में संघर्ष शुरू हो गया। दोनों पक्षों से लाठियां चलीं तो जमकर पथराव हुआ।

इस वारदात में भगौती प्रसाद वर्मा के समर्थक अंकित व ललित गंभीर रूप से घायल हो गए। वहीं नन्हा प्रसाद वर्मा के समर्थक प्रदीप व अवधेश घायल हुए। मामला थाने पहुंचा तो पुलिस ने घायलों को उपचार के लिए भेजा जहां से अंकित व ललित को सीएचसी से जिला अस्पताल रेफर किया गया है।

थानाध्यक्ष अरूण द्विवेदी ने बताया कि घायल अंकित के पिता अमर सिंह की तहरीर पर अमरदीप वर्मा, धीरज कुमार, जगन्नाथ, अवधेश, चंद्र नारायण और प्रदीप पटवा पर मारपीट का मुकदमा दर्ज किया गया है। वहीं दूसरे पक्ष से प्रदीप की तहरीर पर अमर सिंह, अंकित, देशबंधु, तेज बहादुर, गिरजाशंकर, सार्जन लाल व राम कुमार के खिलाफ भी इसी धारा में मुकदमा दर्ज किया गया है। द्विवेदी ने कहा सभी 13 ग्रामीणों के खिलाफ शांति भंग की धाराओं में कार्रवाई की गई है और मौके की जांच कर आगे की कार्रवाई की जाएगी।

बिहार का सोनपुर का मेला, इससे बड़ा नहीं है पशु बाजार

प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर लगने वाला सोनपुर पशु मेला एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है| यह मेला भले ही पशु मेला के नाम से विख्यात है लेकिन इस मेले की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सूई से लेकर हाथी तक की खरीदारी की जा सकती है| इस वर्ष यह मेला 23 नवम्बर से शुरू होगा और 24 दिसम्बर को खत्म होगा| 

बिहार के सारण और वैशाली जिले की सीमा पर गंगा और गंडक नदी के संगम पर ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व वाले सोनपुर में विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला (हरिहर क्षेत्र मेला) शुरू हो गया। एक महीने तक चलने वाले इस मेले की पहचान ऐसे तो सबसे बड़े पशु मेले की रही है, परंतु मेले में आमतौर पर सभी प्रकार के सामान मिलते हैं। मेले में जहां देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं के क्रय-विक्रय के लिए पहुंचते हैं, वहीं विदेशी सैलानी भी यहां खिंचे चले आते हैं।

मेला प्रारंभ होते ही देश के विभिन्न क्षेत्रों के लोग पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए पहुंचते हैं। पूरा मेला परिसर सज-धज कर तैयार है। मेले के इतिहास के विषय में बताया जाता है कि इस मेले का प्रारंभ मौर्य काल के समय हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य सेना के लिए हाथी खरीदने के लिए यहां आते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में भी सोनपुर मेला क्रांतिकारियों के लिए पशुओं की खरीदारी के लिए पहली पसंद रही।

सोनपुर के बुजुर्गो के अनुसार वीर कुंवर सिंह जनता को अंगेजी हुकूमत से संघर्ष के लिए जागरुक करने के लिए और अपनी सेना की बहाली के लिए यहां आए व यहां से घोड़ों की खरीदारी भी की थी। सोनपुर निवासी 78 वर्षीय बृजनंदन पांडेय कहते हैं कि इस मेले में हाथी, घोड़े, ऊंट, कुत्ते, बिल्लियां और विभिन्न प्रकार के पक्षियों सहित कई दूसरे प्रजातियों के पशु-पक्षियों का बाजार सजता है। यह मेला केवल पशुओं के कारोबार का बाजार ही नहीं, बल्कि परंपरा और आस्था का भी मिलाजुला स्वरूप है।

इस मेले से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भगवान विष्णु के भक्त हाथी (गज) और मगरमच्छ (ग्राह) के बीच कोनहारा घाट पर संग्राम हुआ था। जब गज कमजोर पड़ने लगा तो उसने अपने अराध्य को पुकारा और भगवान विष्णु ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन सुदर्शन चक्र चलाकर दोनों के बीच युद्ध का अंत किया था।

इसी स्थान पर हरि (विष्णु) और हर (शिव) का हरिहर मंदिर भी है जहां प्रतिदिन सैकड़ों भक्त श्रद्धा से पहुंचते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान राम ने सीता स्वयंवर में जाते समय किया था। बुजुर्ग बताते हैं कि पूर्व में मध्य एशिया से व्यापारी पर्शियन नस्ल के घोड़ों, हाथी और ऊंट के साथ यहां आते थे। इस मेले की विशेषता है कि यहां सभी पशुओं का अलग-अलग बाजार लगता है।

धीरे-धीरे इस मेले में पशुओं की संख्या कम होती जा रही है। बिहार पर्यटन विभाग के प्रधान सचिव बी़ प्रधान भी कहते हैं कि सोनपुर मेले में पशुओं की संख्या कम होना चिंता का विषय है। पशुओं के प्रति लोगों की दिलचस्पी कम होती जा रही है। इस वजह से पशुओं की संख्या बढ़ाने के लिए प्रशासन भी अपने स्तर से बहुत कुछ नहीं कर पा रहा है। प्रधान कहते हैं कि मेले के इतिहास को जीवित रखने के लिए विभाग ने असम, पश्चिम बंगाल समेत दूसरे राज्यों से पशुओं को मंगवाने की कोशिश की है। वे कहते हैं कि मेले के परंपरागत और ग्रामीण स्वरूप बनाए रखते हुए हर साल इसे आधुनिक और आकर्षक रूप प्रदान करने के प्रयास किए जाते हैं।

मेले की धार्मिक, एतिहासिक और पौराणिक महता को देखते हुए और इसे पर्यटन एवं दुनिया के मानचित्र पर लाने के लिए वेबसाइट के साथ-साथ अन्य प्रचार माध्यमों से प्रचार-प्रसार करवाया जा रहा है। इस मेले में नौटंकी, पारंपरिक संगीत, नाटक, जादू, सर्कस जैसी चीजें भी लोगों के मनोरंजन के लिए होती हैं। सोनपुर बिहार की राजधानी पटना से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सोनपुर पहुंचने के लिए सड़क का जरिया सबसे सुगम माना जाता है। सोनपुर में ठहरने के लिए टूरिस्ट विलेज बने हुए हैं जो उचित दर पर उपलब्ध हैं।