क्यों उम्रदराज लड़कियों की ओर आकर्षित हो रहे लड़के?


हमारे चारों तरफ एक मकड़ जाल सा बुना हुआ है यानी हमारे तार एक-दूसरे से बुने हुए हैं। कहीं कोई एक टूट जाए तो दूसरा उसे जोड़े रखता है। इसी तर्ज पर आज के लड़कों ने अपनी दुनिया बनाने की सोच रखी है। पिछले कुछ समय से देखा गया है कि कम उम्र के लड़के अपने से बड़ी उम्र की लड़िकयों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और उन्हें जीवनसाथी भी बना रहे हैं।

शादी या प्रेम के मामले में लड़कों की जिम्मेदार साथी की चाहत होती है। चूंकि आधुनिक युग में चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल रहता है और महिलाएं भी इसका हिस्सा रहती हैं। ऐसे में बड़े उम्र की महिलाओं का जिम्मेदार होना स्वाभाविक है और यही वजह है कि लड़के उन्हें पसंद करने लगे हैं ताकि कोई परेशानी होने पर वह उनकी जिम्मेदारी निभा सकें।

अक्सर देखा गया है कि पारिवारिक या आर्थिक कारणों से बड़ी उम्र की महिलाएं शादीशुदा नहीं होतीं और जीवन के तमाम संघर्ष अकेले ही करती हैं। जाहिर है ऐसे हालात उन्हें आत्मविासी बना देते हैं और इसीलिए लड़के उनपर भरोसा करते हैं।

अक्सर बड़ी उम्र की महिलाएं स्वतंत्र, नौकरी पेशा और पूरी तरह से आत्मनिर्भर होती हैं। वे शादी के बाद पतियों की लाइफ में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। ऐसे में पति अपने परिवार के प्रति बेफिक्र होकर अपने काम पर मन लगाता है। ऐसी महिलाएं भी लड़कों को खूब भाती हैं।

बड़ी उम्र की महिलाएं आम तौर पर अपने रिश्तों, कर्तव्यों और नौकरी के प्रति काफी ईमानदार होती हैं और एक रिलेशनिशप में आपको और क्या चाहिए? रिश्तों को लेकर बड़ी उम्र की महिलाओं का नजरिया एकदम साफ रहता है। उन्हें जिस्मानी या दिमागी या इमोशनल संबंधों को संभालना बखूबी आता है और इसलिए मर्द ऐसी महिलाओं को ज्यादा तवज्जो देते हैं। हर मर्द अपनी प्रेमिका या पत्नी में अपनी मां को देखना चाहता है जो कि निस्वार्थ भाव से उसे प्यार करती है। एक परिपक्व महिला में यह गुण पूर्ण रूप से होते हैं।

बड़ी उम्र की महिलाओं की लाइफ अमूमन सेट हो चुकी होती है, उनका करियर सेट होता है और जीवन में अब उन्हें क्या पाना है इसलिए भी लड़के ऐसी महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे हैं।

खलनायकी को नया आयाम देने वाले प्राण के जन्मदिन पर विशेष




”वो आवाज़ का जादू या गर्मी हो लहजे की, वो अन्दाज़ निराला हो या चमक हो चेहरे की, हम किसको करेँ याद और किसको भुलाएँ, तुम्हेँ देखते हैँ जितना, उतना तुम्हेँ चाहेँ” किसी की कही लाईनें प्राण साहब पर खूब जमती हैं। हिन्दी फिल्मों के जाने-माने अभिनेता प्राण का जिक्र आते ही आंखों के सामने एक ऐसा आकृति उभर कर आती है जो अपने हर किरदार में जान डाल देता था। हर किरदार उसके अभिनय से के रंग में नहा कर हकीकत का रूप लेकर खड़ा हो जाता है। हिन्दी फिल्मों के एक लोकप्रिय खलनायक और शानदार चरित्र अभिनेता प्राण की संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली को लोग कभी नहीं भूल सकते। सैकड़ों फिल्मों में अपने दमदार और ‘कातिलाना’ अभिनय से नकारात्मक भूमिका में भी प्राण फूंकने वाले अभिनेता प्राण का आज जन्मदिन है।

प्राण का जन्म 12 फरवरी 1920 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी कॉन्ट्रेक्टर थे और व्यापक दौरे किया करते थे। फील्ड में रहा करते थे। लिहाजा प्राण का सबसे ज्यादा लगाव अपनी मां से था। मां ने उनका काफी ख्याल रखा। उनकी एक लाड़ले बेटे की तरह देखरेख की। प्राण का पढ़ाई में मन ज्यादा नहीं लगता था। पढ़ाई उन्होंने मैट्रिक तक की। उसके बाद वे पढ़े नहीं। बतौर फोटोग्राफर लाहौर में अपना करियर शुरु करने वाले प्राण को 1940 में ‘यमला जट’ नामक फिल्म में पहली बार काम करने का अवसर मिला। उसके बाद प्राण ने पीछे नहीं देखा।

इसके बाद प्राण ने ‘चौधरी’ और फिर ‘खजांची’ में काम कियाजल्द ही प्राण लाहौर फिल्म उद्योग में खलनायक के तौर पर स्थापित हो गए। यह वह दौर था जब फिल्म जगत में अजित, के एन सिंह जैसे खलनायक मौजूद थे। प्राण 1942 में बनी ‘खानदान’ में नायक बन कर आए और इस फ़िल्म इनकी नायिका बनी नूरजहां। वर्ष 1947 में भारत आजाद हो गया। प्राण लाहौर से मुंबई आ गए। यहां उन्हें काफी संघर्ष करने के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ मिली। अभिनय का सफर शुरू हो गया। 350 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय करने वाले प्राण साहब एक ‘राम और श्याम’ के खलनायक का ऐसा किरदार निभाया जिसे देख कर हर कोई उनसे घृणा करने लगे। ‘उपकार’ के मंगल चाचा की भूमिका भी है, जिसे दर्शकों का बेइंतहा प्यार और सम्मान मिला। वहीँ जंजीर में प्राण ने दोस्ती की एक नयी मिशाल पेश की। उपकार, आँसू बन गये फूल और 1973 में प्राण को बेईमान फिल्म में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिये फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया।

दर्शकों के बीच दमदार अभिनय की छाप छोड़ने वाले प्राण के बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि वह अभिनेता नहीं, बल्कि एक फोटोग्राफर बनना चाहते थे, लेकिन भाग्य ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। प्राण की फिल्मों में आने की कोई योजना नहीं थी। हुआ यूं कि एक बार लेखक मोहम्मद वली ने प्राण को एक पान की दुकान पर खड़े देखा, उस समय वह पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ के निर्माण की योजना बना रहे थे। पहली ही नजर में वली ने यह तय कर लिया कि वह अपनी इस फिल्म में प्राण को लेंगे, फिर क्या था.. उन्होंने प्राण को फिल्म के लिए राजी कर लिया। फिल्म ‘यमला जट’ 1940 में प्रदर्शित हुई और काफी हिट भी रही और इसके बाद तो प्राण ने फिर कभी पलटकर नहीं देखा। प्राण ने 1948 से 2007 तक सहायक अभिनेता के तौर पर काम किया, वह बॉलीवुड के ऐसे अभिनेता हैं, जिन्हें मुख्यत: खलनायक की भूमिका के लिए जाना जाता है।

प्राण ने शुरुआत में 1940 से 1947 तक नायक के रूप में फिल्मों में अभिनय किया। इसके अलावा खलनायक की भूमिका 1942 से 1991 तक जारी रखी। इसके बाद प्राण ने कई और पंजाबी फिल्मों में काम किया और लाहौर फिल्म जगत में सफल खलनायक के रूप में स्थापित हो गए। लाहौर फिल्म उद्योग में एक नकारात्मक अभिनेता की छवि बनाने में कामयाब हो चुके प्राण को हिंदी फिल्मों में पहला ब्रेक 1942 में फिल्म ‘खानदान’ से मिला। इस फिल्म की नायिका नूरजहां थीं। देश के बंटवारे के बाद प्राण ने लाहौर छोड़ दिया और मुंबई आ गए। लाहौर में प्राण तब तक फिल्म जगत का एक प्रतिष्ठित नाम बन चुके थे और नामचीन खलनायकों में शुमार हो गए थे, लेकिन हिंदी फिल्म जगत में उनकी शुरुआत आसान नहीं रही। मुंबई में उन्हें भी किसी नवोदित कलाकार की तरह ही संघर्ष करना पड़ा।

प्राण ने 18 अप्रैल 1945 को शुक्ला आहलुवालिया से शादी की। उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़के अरविंद व सुनील और एक लड़की पिंकी है, जिनके साथ वह मुंबई आए। आज की तारीख में उनके परिवार में 5 पोते-पोतियां और 2 पड़पोते भी हैं। खेलों के प्रति प्राण का प्रेम सभी को पता है। 50 के दशक में उनकी अपनी फुटबॉल टीम ‘डायनॉमोस फुटबॉल क्लब’ काफी लोकप्रिय रही है। हास्य अभिनेता किशोर कुमार और महमूद के साथ वाली उनकी कई फिल्में भी काफी पसंद की गईं। किशोर कुमार के साथ फिल्म ‘नया अंदाज’, ‘आशा’, ‘बेवकूफ’, ‘हाफ टिकट’, ‘मन मौजी’, ‘एक राज’, ‘जालसाज’ जैसी यादगार फिल्में हैं तो महमूद के साथ ‘साधु और शैतान’ व ‘लाखों में एक’ काफी चर्चित रहीं। नब्बे दशक की शुरुआत से वह फिल्मों में अभिनय के प्रस्ताव को बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य के चलते अस्वीकार करने लगे, लेकिन वह करीबी अमिताभ बच्चन के घरेलू बैनर की फिल्म ‘मृत्युदाता’ और ‘तेरे मेरे सपने’ में नजर आए।

तिरछे होंठो से शब्दों को चबा-चबा कर बोलना ,सिगरेट के धुंओं का छल्ले बनाना और चेहरे के भाव को पल -पल बदलने में निपुण प्राण ने उस दौर में खलनायक को भी एक अहम पात्र के रूप में सिने जगत में स्थापित कर दिया । खलनायकी को एक नया आयाम देने वाले प्राण के पर्दे पर आते ही दर्शको के अंदर एक अजीब सी सिहरन होने लगती थी। प्राण की अभिनीत भूमिकाओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों मे अभिनय किया उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया । रुपहले पर्दे पर प्राण ने जितनी भी भूमिकाएं निभायी उनमें वह हर बार नये तरीके से संवाद बोलते नजर आये। खलनायक का अभिनय करते समय प्राण उस भूमिका में पूरी तरह डूब जाते थे ।

प्राण अकेले ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने कपूर खानदान की हर पीढ़ी के साथ काम किया। चाहे वह पृथ्वीराज कपूर हो, राजकपूर, शम्मी कपूर, शशि कपूर, रणधीर कपूर, राजीव कपूर, करिश्मा कपूर, करीना कपूर। सदी के खलनायक प्राण की जीवनी भी लिखी जा चुकी है। उसका शीर्षक ‘प्राण एंड प्राण’ रखा गया है। पुस्तक का यह शीर्षक इसलिए रखा गया है कि प्राण की ज्यादातर फिल्मों में उनका नाम सभी कलाकारों के पीछे लिखा हुआ आता था। कभी-कभी उनके नाम को इस तरह पेश किया जाता था ‘अबव ऑल प्राण’। प्राण सिकंद को सन् 2001 में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में पद्मभूषण से सम्मानित किया। फिल्म ‘उपकार’ (1967), ‘आंसू बन गए फूल’ (1969) और ‘बेईमान’ (1972) के लिए प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1997 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से भी नवाजा गया। सन् 2013 में उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के सम्मान भी प्रदान किया गया।

जीवन के आखिरी सालों में प्राण व्हील चेयर पर आ गए थे। सन् 1998 में प्राण में दिल का दौरा पड़ा था। उस समय वह 78 साल के थे, फिर भी मौत को उन्होंने पटकनी दे दी थी, लेकिन 12 जुलाई, 2013 को वह हम सबको अलविदा कह गए। प्राण भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने दमदारा अभिनय के कारण वह हमेशा दर्शकों के जेहन में जिंदा रहेंगे।

बसंत पंचमी के दिन क्यों होती है कामदेव की पूजा

बसंत पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है| माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसंत ऋतु का आरंभ होता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। बसंत को ऋतुओं का राजा कहा गया है क्योंकि इस समय पंच-तत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। बसंत ऋतु आते ही आकाश एकदम स्वच्छ हो जाता है, अग्नि रुचिकर तो जल पीयूष के सामान सुखदाता और धरती उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता।

इस ऋतु के आते ही हवा अपना रुख बदल देती है जो सुख की अनुभूति कराती है| धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं वहीँ शिशिर की प्रताड़ना से तंग निर्धन सुख की अनुभूत करने लगते हैं| सच में! प्रकृति तो मानों उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना! पुनर्जन्म जो हो जाता है उसका। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्ल्व, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षणा बना देता है।

श्रीमद्भगवदगीता के अनुसार श्री कृष्ण ने खुद कोवसंत माना है। कहा जाता है कि इस ऋतु में भगवान श्री कृष्ण स्वयं भूलोक पर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं। लेकिन आप जानते है कि इस दिन कमादेव की भी पूजा की जाती है। हां जी यह सच है। जानिए ऐसा क्यों है।

वसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती के साथ-साथ कामदेव और रति की भी पूजा की जाती है। इसका मुख्य कारण है आपके दांपत्य जीवन में हमेशा सुखमय बना रहा। कामदेव और माता रति को गृहस्थ जीवन में प्रेम, सुख, समृद्धि और शांति का प्रतीक माना जाता हैं, क्योंकि जहां ये तीनों गुण विद्यमान होते हैं, उनके गृहस्थ जीवन के सफल होने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। इसी कारण बंसत पंचमी को तीनों देवी-देवताओं की पूजा की जाती हैं। जिससे कि समृद्धि, प्रेम और ज्ञान की प्राप्ति हो सकें।

ये हैं हनुमान जी के 5 सगे भाई….

क्या आपको पता है भगवान श्रीराम के भक्त हनुमान जी के अन्य भाई भी थे। यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि भक्तो में सबसे बड़े भक्त हनुमान जी महाराज के कितने भाई बहन थे। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार हनुमान जी महाराज के सगे 5 भाई थे। ‘उन पांचों के सुन्दर नारी अमित बाल बच्चा महतारी’ पांचों भाई विवाहित थे उनके बच्चे भी थे इस बात का विस्तार से उल्लेख ‘ब्रह्मांडपुराण’ में मिलता है।

ब्रह्मांडपुराण के अनुसार, वानर राज केसरी के 6 पुत्र थे। इनमें सबसे बड़े हनुमान जी थे उनके बाद क्रमशः मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान, धृतिमान थे। इन सभी की संतान भी थीं। जिससे इनका वंश वर्षों तक चला। इसी ग्रंथ में उल्लेख है कि बजरंगबली के पिता केसरी ने अंजना से विवाह किया था। केसरी वानर राज थे।

‘ब्रह्मांडपुराण’ में ल‍िखा है कि केसरी ने कुंजर की पुत्री अंजना को पत्नी के रूप में स्वीकार किया। अंजना रूपवती थीं। इन्हीं के गर्भ से प्राणस्वरूप वायु के अंश से हनुमान का जन्म हुआ। इसी प्रसंग में हनुमान के अन्य भाइयों के बारे में बताया गया है।

वहीं, राम चरितमानस में कहा गया है कि भगवान श्रीराम भी हनुमान जी के भाई थे। कथा के अनुसार, राजा दशरथ की तीन रानियां थीं लेकिन संतान सुख के अभाव के कारण दशरथ जी दुःखी थे। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से दशरथ जी ने श्रृंग ऋषि को पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए आमंत्रित किया गया। यज्ञ के सम्पन्न होने पर अग्निकुंड से दिव्य खीर से भरा हुआ स्वर्ण पात्र हाथ में लिए अग्नि देव प्रकट हुए और दशरथ से बोले, ‘‘देवता आप पर प्रसन्न हैं। यह दिव्य खीर अपनी रानियों को खिला दीजिए। इससे आपको चार दिव्य पुत्रों की प्राप्ति होगी।

राजा दशरथ शीघ्रता से अपने महल में पहुंचे। उन्होंने खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे भाग का आधा भाग रानी सुमित्रा को दिया इसके बाद जो शेष बचा वह कैकयी को दे दिया। सबसे अन्त में प्रसाद मिलने से कैकयी ने क्रोध में भरकर दशरथ को कठोर शब्द कहे। उसी समय भगवान शंकर की प्रेरणा से एक चील वहाँ आयी और कैकयी की हथेली पर से प्रसाद उठाकर अंजन पर्वत पर तपस्या में लीन अंजनी देवी के हाथ में रख दिया। प्रसाद ग्रहण करने से अंजनी भी राजा दशरथ की तीन रानियों की तरह गर्भवती हुई।

समय आने पर दशरथ के घर राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। दूसरी और अंजनी ने श्री हनुमानजी को जन्म दिया। इस तरह प्रगट हुए संकट और दुःखों को दूर करने वाले राम और हनुमान। एक ही खीर से राम और हनुमान का जन्म होने से दोनों भाई माने जाते हैं।

जानिए महिलाओं को क्यों नहीं पहनना चाहिए सोना

भारत एक ऐसा देश है जहां पर कई धर्म है। इन धर्मों में कई तरह के रीति-रिवाज और परंपराए है। खासतौर में हिंदू धर्म में। हिंदू धर्म में एक चीज सबसे अलग है वो है किसी महिला का सोलह श्रृंगार। जो पूरी दुनिया में भी प्रसिद्ध है। परंपराओं की दृष्टि से तो इनके महत्व रोचक हैं। लड़कियों व स्त्रियों के पायलों की छुन-छुन किसको नहीं प्रिय लगती। जब कोई लड़की या स्त्री पायल पहनकर चलती है तो पायलों से निकलने वाली ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं लगती है। लेकिन आप जानते है कि महिलाए अपने पैरों में सोने की बनी हुई पायल या बिछिया नहीं पहन सकती है। इसके पीछे क्या कारण है।

मान्यता है कि सोने के बने आभूषणों की तासीर गर्म होती है जबकि चांदी की तासीर शीतल होती है। इसी कारण आयुर्वेद के अनुसार माना जाता है कि मनुष्य का सिर ठंडा और पैर गर्म रहना चाहिए। यही वजह है कि सिर पर सोना और पैरों में चांदी के आभूषण ही धारण करने चाहिए। इससे सिर से उत्पन्न ऊर्जा पैरों में और चांदी से उत्पन्न ठंडक सिर में जाएगी। इससे सिर ठंडा व पैर गर्म रहेंगे।

आपको पता है पैरों में चांदी से बनी चीजें पहनने से आप कई बीमारियों से बच भी जाते है। चांदी की पायल पहनने से पीठ, एड़ी, घुटनों के दर्द और हिस्टीरिया रोगों से राहत मिलती है। सिर और पांव दोनों में सोने के आभूषण पहनने से मस्तिष्क और पैर दोनों में समान गर्म ऊर्जा प्रवाहित होगी, जिससे इंसान रोगग्रस्त हो सकता है। वहीँ, वास्तु के अनुसार, पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है इसके अलावा दैवीय शक्तियां अधिक सक्रिय हो जाती है यह भी इसका एक कारण हो सकता है| इसके अलावा पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है।

मौनी अमावस्या आज, जानिए इस दिन क्यों रखते हैं मौन

नई दिल्ली: किसी भी महीने की अमावस्या जब सोमवार को होती है, तो उसे सोमवती अमावस्या कहते है| हिन्दू ग्रंथों में माघ मास को बेहद पवित्र माना जाता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। दुख दरिद्र और सभी को सफलता दिलाने वाली मौनी अमावस्या 08 जनवरी दिन सोमवार को पड़ रही है। इस बार अमावस्या सोमवार के दिन पड़ने से सोने पर सुहागा से कम नहीं है।

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सूर्य तथा चन्द्रमा गोचरवश मकर राशि में आते हैं| ऐसा माना गया है कि इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| लोगों का यह भी मानना है कि इस दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरुपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी, इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है|

मौनी अमावस्या में स्नान करने की विधि-

माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं। यह योग पर आधारित महाव्रत है । मान्यताओं के अनुसार इस दिन पवित्र संगममें देवताओं का निवास होता है इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस मास को भी कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। गंगा तट पर इस करणभक्त जन एक मास तक कुटी बनाकर गंगा सेवन करते हैं। इस दिन व्यक्ति विशेष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान, पुण्य तथा जाप करने चाहिए| यदि किसी व्यक्ति की सामर्थ्य त्रिवेणी के संगम अथवा अन्य किसी तीर्थ स्थान पर जाने की नहीं है तब उसे अपने घर में ही प्रात: काल उठकर दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करना चाहिए अथवा घर के समीप किसी भी नदी या नहर में स्नान कर सकते हैं क्योंकि पुराणों के अनुसार इस दिन सभी नदियों का जल गंगाजल के समान हो जाता है| स्नान करते हुए मौन धारण करें और जाप करने तक मौन व्रत का पालन करें| इस दिन व्यक्ति प्रण करें कि वह झूठ, छल-कपट आदि की बातें नहीं करेगें|

इस दिन क्यों रखा जाता है मौन-

विद्वानों के अनुसार इस दिन व्यक्ति विशेष को मौन व्रत रखना चाहिए| मौन व्रत का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना चाहिए| धीरे-धीरे अपनी वाणी को संयत करके अपने वश में करना ही मौन व्रत है| कई लोग इस दिन से मौन व्रत रखने का प्रण करते हैं | वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि कितने समय के लिए वह मौन व्रत रखना चाहता है|

प्रत्येक मनुष्य के अंदर तीन प्रकार का मैल होता है| कर्म का मैल, भाव का मैल तथा अज्ञान का मैल| इन तीनों मैलों को त्रिवेणी के संगम पर धोने का महत्व है| त्रिवेणी के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के अंदर स्थित मैल का नाश होता है और उसकी अन्तरआत्मा स्वच्छ होती है, इसलिए व्यक्ति को इस दिन मौन व्रत धारण करके ही स्नान करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी के संगम में मौनी अमावस्या के दिन स्नान करने से सौ हजार राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है अथवा इस दिन संगम में स्नान करना और अश्वमेघ यज्ञ करना दोनों के फल समान है|

मौनी अमावस्या की कथा-

प्राचीन समय में कांचीपुरी में देवस्वामी नाम का ब्राह्मण रहता था| उसकी पत्नी का नाम धनवती था| देवस्वामी की आठ संताने थी| सात पुत्र और एक पुत्री थी| उसकी पुत्री का नाम गुणवती था| ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्र के विवाह के बाद अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश में अपने सबसे बडे़ पुत्र को भेजा| उसी दौरान किसी ज्योतिषी ने कन्या की कुण्डली देखकर कहा कि विवाह समाप्त होते ही वह विधवा हो जाएगी| इससे देवस्वामी तथा अन्य सदस्य चिन्तित हो गये| देवस्वामी ने गुणवती के वैधव्य दोष के निवारण के बारे में ज्योतिषी से पूछा तब उसने कहा कि सिंहल द्वीप में सोमा नाम की धोबिन रहती है| सोमा का पूजन करने से गुणवती के वैधव्य दोष का निवारण हो सकता है| आप किसी भी प्रकार सोमा को विवाह होने से पहले यहाँ बुला लें| यह सुनने के पश्चात गुणवती और उसका सबसे छोटा भाई सिंहल द्वीप की ओर चल दिए| सिंहल द्वीप सागर के मध्य स्थित था| दोनों बहन-भाई सागर तट पर एक वृक्ष के नीचे सागर को पार करने की प्रतीक्षा में बैठ गए| दोनों को सागर पार करने की चिन्ता थी उसी वृक्ष के ऊपर एक गिद्ध ने अपना घोंसला बना रखा था| उस घोंसले में गिद्ध के बच्चे रहते थे जब शाम को गिद्ध अपनी पत्नी के साथ घोंसलें में लौटा तब उसके बच्चों ने बताया कि इस वृक्ष के नीचे बहन-भाई सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं| जब तक वह दोनों खाना नहीं खाएंगें, हम भी भोजन ग्रहण नहीं करेगें|

गिद्ध ने दोनों बहन-भाइयों को भोजन कराया तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा तब उन्होंने सारा वृतांत सुनाया| सारी बातें जानने के बाद गिद्ध ने उन्हें सिंहल द्वीप पर पहुंचाने का अश्वासन दिया| अगले दिन सुबह ही गिद्ध ने दोनों को सिंहल द्वीप पहुंचा दिया| सिंहल द्वीप पर आने के बाद दोनों बहन-भाइयों ने सोमा धोबिन के घर का काम करना शुरु कर दिया| सारे घर की साफ सफाई तथा घर के अन्य कार्य दोनों बहन-भाई बहुत ही सफाई से करने लगे| सुबह सोमा जब उठती तब उसे हैरानी होती कि कौन यह सब कम कर रहा है| सोमा ने अपनी पुत्रवधु से पूछा तब उसने बडे़ ही चतुराई से कहा कि हम करते हैं और कौन करेगा| सोमा को अपनी बहु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसने उस रात जागने का निर्णय किया| तब सोमा ने देखा कि गुणवती अपने छोटे भाई के साथ सोमा के घर का सारा कार्य निबटा रही है| सोमा उन दोनों से बहुत प्रसन्न हुई और उनके ऎसा करने का कारण पूछा तब उन्होंने गुणवती के विवाह तथा उसके वैधव्य की बात बताई|

सोमा ने गुणवती को आशीर्वाद दिया, लेकिन दोनों बहन-भाई सोमा से अपने साथ विवाह में चलने की जिद करने लगे| सोमा उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गई और अपनी पुत्रवधु से कहा कि यदि परिवार में किसी कि मृत्यु हो जाती है तब उसका अंतिम संस्कार ना करें, मेरे घर आने की प्रतीक्षा करें| गुणवती का विवाह होने लगा| विवाह समाप्त होते ही गुणवती के पति का देहांत हो गया| सोमा ने अपने अच्छे कर्मों के बल पर गुणवती के मरे हुए पति को अपने आशीर्वाद से दोबारा जीवित कर दिया, लेकिन ऎसा करने पर सोमा के सभी अच्छे कर्म समाप्त हो गये और सिंहल द्वीप पर रहने वाले उसके परिवार के सदस्यों का देहान्त हो गया|

सोमा ने वापस अपने घर जाते हुए रास्ते में ही अपने संचित कर्मों को फिर से एकत्रित करने की बात सोची और रास्ते में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा की और पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की| ऎसा करने पर उसके परिवार के मृतक सदस्य दोबारा जीवित हो गये, सोमा को उसके नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल मिल गया|

अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें-
vineetverma@pardaphash.com

स्त्रियां क्यों पहनती हैं पायल और बिछिया ?

लड़कियों व स्त्रियों के पायलों की छुन-छुन किसको नहीं प्रिय लगती। जब कोई लड़की या स्त्री पायल पहनकर चलती है तो पायलों से निकलने वाली ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं लगती है। क्या कभी आपने सोचा है कि स्त्रियाँ पायल और बिछिया क्यों पहनती हैं? आखिर क्या वहज थी जब स्त्रियों को पायल व बिछिया पहनना पड़ा? इसके पीछे क्या कारण है? यदि आपके भी मन में कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे हैं तो आज आपको बताते हैं कि आखिर स्त्रियाँ पायल व बिछिया क्यों पहनती हैं|

प्राचीनकाल में स्त्रियों व लड़कियों को पायल एक संकेत मात्र के लिए पहनाया जाता था| जब घर के सदस्य के साथ बैठे होते थे तब यदि पायल पहने स्त्री की आवाज आती थी तो वह पहले से सतर्क हो जाते थे ताकि वह व्यवस्थित रूप से आने वाली उस महिला का स्वागत कर सकें| पायल की वजह से ही सभी को यह एहसास हो जाता है कि कोई महिला उनके आसपास है अत: वे शालीन और सभ्य व्यवहार करें। ऐसी सारी बातों को ध्यान में रखते हुए लड़कियों के पायल पहनने की परंपरा लागू की गई।

वहीँ, वास्तु के अनुसार, पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है इसके अलावा दैवीय शक्तियां अधिक सक्रिय हो जाती है यह भी इसका एक कारण हो सकता है| इसके अलावा पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है।

बिछिया जिसे हिंदू और मुस्लमान दोनों धर्म की महिलाएं पहनती है। कई लोग तो इसे सिर्फ शादी का प्रतीक चिंह ही मानते है, लेकिन क्या आप जानते है कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। शायद ही आपको यह बात पता हो कि इसे पहनने का सीधा संबंध उनके गर्भाशय से है। विज्ञान में माना जाता है कि पैरों के अंगूठे की तरफ से दूसरी अंगुली में एक विशेष नस होती है जो गर्भाशय से जुड़ी होती है। यह गर्भाशय को नियंत्रित करती है और रक्तचाप को संतुलित कर इसे स्वस्थ रखती है।

बिछिया के दबाव से रक्तचाप नियमित और नियंत्रित रहती है और गर्भाशय तक सही मात्रा में पहुंचती रहती है। यह बिछिया अपने प्रभाव से धीरे-धीरे महिलाओं के तनाव को कम करती है, जिससे उनका मासिक-चक्र नियमित हो जाता है। साथ ही इसका एक और फायदा है। इसके अनुसार बिछिया महिलाओं के प्रजनन अंग को भी स्वस्थ रखने में भी मदद करती है। बिछिया महिलाओं के गर्भाधान में भी सहायक होती है।

वहीं शास्त्रों में कहा गया है कि दोनों पैरों में चांदी की बिछिया पहनने से महिलाओं को आने वाली मासिक चक्र नियमित हो जाती है। इससे महिलाओं को गर्भ धारण में आसानी होती है। चांदी विद्युत की अच्छी संवाहक मानी जाती है। धरती से प्राप्त होने वाली ध्रुवीय उर्जा को यह अपने अंदर खींच पूरे शरीर तक पहुंचाती है, जिससे महिलाएं तरोताज़ा महसूस करती हैं।

जानिए रावण को कैसे मिली थी सोने की लंका

रामायण के अनुसार, लंकापति रावण के पास सोने की लंका थी। क्या आपको पता है रावण को सोने की लंका कैसे मिली थी। यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि रावण को सोने की लंका कैसे मिली थी। शास्त्रों के अनुसार, एक दिन कुबेर महान समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे। रावण आदि ने जब उनका वह वैभव देखा तो रावण के मन में भी कुबेर की तरह समृद्ध बनने की चाह पैदा हुई। तब रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा ये दोनों तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे।

एक हजार वर्ष पूर्व होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्रि में आहूति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्मजी बहुत संतुष्ट हुए उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका। सबको पृथक-पृथक वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा पुत्रों मैं तुम सब प्रसन्न हूं। वर मांगों और तप से निवृत हो जाओ। एक अमरत्व छोड़कर जो जिसकी इच्छा हो मांग लो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इ'छा से जिन सिरों की आहूति दी है वे सब तुम्हारे शरीर में जुड़ जाएंगे। तुम इ'छानुसार रूप धारण कर सकोगे। रावण ने कहा हम युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होंगे-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर और भूतों से मेरी कभी पराजय न हो। तुमने जिन लोगों का नाम लिया। इनमें से किसी से भी तुम्हे भय नहीं होगा।केवल मनुष्य से हो सकता है।

उनके ऐसा कहने पर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-मनुष्य मेरा क्या कर लेंगे, मैं तो उनका भक्षण करने वाला हूं। इसके बाद ब्रह्मजी ने कुंभकर्ण से वरदान मांगने को कहा। उसकी बुद्धि मोह से ग्रस्त थी। इसलिए उसने अधिक कालतक नींद लेने का वरदान मांगा। विभीषण ने बोला मेरे मन में कोई पाप विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रम्हास्त्र के प्रयोग विधि स्फुरित हो जाए। राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारा मन अधर्म में नहीं लग रहा है। इसलिए तुम्हें अमर होने का भी वर दे रहा हूं। इस तरह वरदान प्राप्त कर लेने पर रावण ने सबसे पहले लंका पर ही चढ़ाई की और कुबेर से युद्ध जीतकर लंका को कुबेर से बाहर दिया।

जानिए रावण की मौत के बाद मंदोदरी ने किससे साथ किया था विवाह

मंदोदरी रामायण के पात्र, पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा गया है। मंदोदरी मयदानव की पुत्री थी। उसका विवाह लंकापति रावण के साथ हुआ था। हेमा नामक अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाथ की माता तथा मयासुर की कन्या थी। अतिकाय व अक्षयकुमार इसके अन्य पुत्र थे। रावण को सदा यह अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसी ने शतरंज के खेल का प्रारंभ किया था। क्या आपको पता है लंकापति रावण की मृत्यु के पश्चात मंदोदरी ने किसके साथ विवाह कर लिया था।

कुछ ही लोगों को ही पता होगा की रावण की मौत के बाद मंदोदरी ने किससे शादी की। मेघनाद की पत्नी सुलोचना अपने पति की देह के साथ सती हो गई लेकिन अद्भुत रामायण के हिसाब से मंदोदरी ने सती न होते हुए अपने देवर विभीषण से शादी कर ली थी। एक किंवदती के अनुसार रावण और मंदोदरी का विवाह मंडोर में हुआ था। मंडोल, जोधपुर( राजस्थान) के पास स्थित है। जोधपुर शहर में ही रावण का मंदिर है। स्थानीय मान्यता के अनुसार मंडोल, रावण का ससुराल है।

रावण की मृत्यु के बाद उसके वंशज यहां बस गए थे। रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी ने रावण के भाई विभीषण से विवाह किया था। मंदोदरी बहुत सुंदर थी। वहीँ, दूसरी पौराणिक कथाओं के अनुसार समय-समय पर समझाने वाली रावण की पत्नी मंदोदरी उत्तर प्रदेश के मेरठ की रहने वाली थीं। इस जनपद को पहले मयनगर कहा जाता था, जहां एक दैत्य मय की पुत्री से रावण ने विवाह किया था।

वर्ष 2016 के व्रत एवं त्यौहार

नई दिल्ली: प्रत्येक वर्ष की तरह हम अपने पाठकों की सुविधा के लिए वर्ष 2016 के व्रत व त्यौहार की विषय सूची हर माह के रुप में दे रहे हैं। इसमें जनवरी 2016 से लेकर दिसंबर 2016 तक के सभी व्रत व त्यौहारो का वर्णन है। आइये जानें वर्ष 2016 के सम्पूर्ण व्रत एवं त्योहार –

जनवरी 2016

● 1 जनवरी (शुक्रवार) – नव वर्ष प्रारम्भ
● 5 जनवरी (मंगलवार) – सफला एकादशी व्रत
● 7 जनवरी (गुरुवार) – प्रदोष व्रत
● 8 जनवरी (शुक्रवार) – मासिक शिवरात्रि
● 9 जनवरी (शनिवार) – देवकार्ये अमावस्या
● 12 जनवरी (मंगलवार) – स्वामी विवेकानन्द जयंती
● 13 जनवरी (बुधवार) – लोहड़ी पर्व
● 14 जनवरी (गुरुवार) – मकर संक्रान्ति
● 16 जनवरी (शनिवार) – गुरु गोविन्द सिंह जयन्ती
● 20 जनवरी (बुधवार) – पुत्रदा एकादशी व्रत
● 21 जनवरी (गुरुवार) – प्रदोष व्रत
● 23 जनवरी (शनिवार) – नेताजी सुभाष जयन्ती
● 26 जनवरी (मंगलवार) – गणतंत्र दिवस
● 27 जनवरी (बुधवार) – तिलकुटा (सकट) चौथ

फरवरी 2016

● 1 फरवरी (सोमवार) – कालाष्टमी
● 4 फरवरी (गुरुवार) – षट्तिला एकादशी व्रत
● 6 फरवरी (शनिवार) – प्रदोष व्रत, मासिक शिवरात्रि व्रत
● 8 फरवरी (सोमवार) – सोमवती अमावस्या, देव पितृ अमावस्या
● 11 फरवरी (गुरुवार) – तिल चौथ
● 13 फरवरी (शनिवार) – बसन्त पंचमी, कुंभ संक्रान्ति
● 14 फरवरी (रविवार) – रथ सप्तमी
● 15 फरवरी (सोमवार) – भीष्माष्टमी
● 18 फरवरी (गुरुवार) – जया एकादशी व्रत
● 19 फरवरी (शुक्रवार) – भीष्म द्वादशी
● 20 फरवरी (शनिवार) – प्रदोष ब्रत
● 22 फरवरी (सोमवार) – माघी पूर्णिमा, रविदास जयन्ती
● 26 फरवरी (शुक्रवार) – चतुर्थी व्रत

मार्च 2016

● 2 मार्च (बुधवार) – जानकी जयंती
● 3 मार्च (गुरुवार) – समर्थ गुरु रामदास जयन्ती
● 4 मार्च (शुक्रवार) – महर्षि दयानंद सरस्वती जयन्ती
● 5 मार्च (शनिवार) – विजया एकादशी व्रत
● 6 मार्च (रविवार) – प्रदोष व्रत
● 7 मार्च (सोमवार) – महाशिवरात्रि व्रत
● 8 मार्च (मंगलवार) – पितृ कार्ये अमावस्या
● 9 मार्च (बुधवार) – देव कार्ये अमावस्या
● 10 मार्च (गुरुवार) – फुलैरा दूज, रामकृष्ण परमहंस जयंती
● 12 मार्च (शनिवार) – गणेश चतुर्थी
● 13 मार्च (रविवार) – याज्ञवल्क्य जयन्ती
● 14 मार्च (सोमवार) – मीन संक्रान्ति
● 16 मार्च (बुधवार) – होलाष्टकारंभ
● 19 मार्च (शनिवार) – आमलकी एकादशी
● 20 मार्च (रविवार) – प्रदोष व्रत
● 23 मार्च (बुधवार) – होलिका दहन
● 24 मार्च (गुरुवार) – धूलैंडी
● 28 मार्च (सोमवार) – रंग पंचमी
● 29 मार्च (मंगलवार) – एकनाथ षष्ठी व्रत
● 31 मार्च (गुरुवार) – शीतला अष्टमी

अप्रैल 2016

● 3 अप्रैल (रविवार) – पापमोचनी एकादशी व्रत
● 5 अप्रैल (मंगलवार) – प्रदोष व्रत, मासिक शिवरात्रि व्रत
● 7 अप्रैल (गुरुवार) – देवपितृ कार्ये अमावस्या
● 8 अप्रैल (शुक्रवार) – नवरात्रारंभ, झूलेलाल जयन्ती
● 9 अप्रैल (शनिवार) – मत्स्य जयन्ती, गणगोरी पूजा
● 12 अप्रैल (मंगलवार) – स्कंद षष्ठी
● 13 अप्रैल (बुधवार) – मेष संक्रान्ति 19/14
● 15 अप्रैल (शुक्रवार) – श्री राम नवमी
● 17 अप्रैल (रविवार) – कामदा एकादशी
● 19 अप्रैल (मंगलवार) – प्रदोष व्रत, महावीर जयन्ती
● 21 अप्रैल (गुरुवार) – पूर्णिमा व्रत
● 22 अप्रैल (शुक्रवार) – हनुमान जयंती
● 25 अप्रैल (सोमवार) – चतुर्थी व्रत
● 26 अप्रैल (मंगलवार) – अनुसूया जयन्ती

मई 2016

● 1 मई (रविवार) – मजदूर दिवस
● 3 मई (मंगलवार) – वरूथिनी एकादशी व्रत
● 4 मई (बुधवार) – प्रदोष व्रत
● 5 मई (गुरुवार) – मासिक शिवरात्रि व्रत
● 6 मई (शुक्रवार) – देवपितृ कार्ये अमावस्या
● 7 मई (शनिवार) – टैगोर जयन्ती
● 8 मई (रविवार) – शिवाजी जयंती, परशुराम जयंती
● 9 मई (सोमवार) – अक्षय तृतीया
● 11 मई (बुधवार) – आघ शंकराचार्य जयंती
● 12 मई (गुरुवार) – गंगोत्पत्ति, श्रीरामानुज जयंती
● 14 मई (शनिवार) – वृष संक्रान्ति
● 15 मई (रविवार) – सीमा नवमी
● 17 मई (मंगलवार) – मोहनी एकादशी व्रत
● 19 मई (गुरुवार) – प्रदोष व्रत
● 20 मई (शुक्रवार) – नृसिंह जयंती
● 21 मई (शनिवार) – कूर्म जयंती, बुद्ध पूर्णिमा
● 23 मई (सोमवार) – नारद जयन्ती
● 25 मई (बुधवार) – चतुर्थी व्रत चन्द्रोदय 22/16

जून 2016

● 1 जून (बुधवार) – अपरा एकादशी व्रत
● 2 जून (गुरुवार) – प्रदोष व्रत
● 3 जून (शुक्रवार) – मासिक शिव रात्रि व्रत
● 4 जून (शनिवार) – शनिश्चर जयन्ती, पितृ कार्ये अमावस्या, वट सावित्री व्रत
● 5 जून (रविवार) – देवकार्ये अमावस्या
● 7 जून (मंगलवार) – रमजान प्रारम्भ
● 12 जून (रविवार) – दुर्गाष्टमी, धूमावती जयन्ती
● 14 जून (मंगलवार) – मिथुन संक्रान्ति
● 15 जून (बुधवार) – गंगा दशहरा
● 16 जून (गुरुवार) – निर्जला एकादशी व्रत
● 17 जून (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत
● 20 जून (सोमवार) – कबीर जयन्ती
● 23 जून (गुरुवार) – चतुर्थी व्रत
● 30 जून (गुरुवार) – योगिनी एकादशी व्रत

जुलाई 2016

● 2 जुलाई (शनिवार) – प्रदोष व्रत
● 4 जुलाई (सोमवार) – सोमवती अमावस्या
● 6 जुलाई (बुधवार) – श्री जगदीश रथ यात्रा
● 10 जुलाई (रविवार) – स्कंध षष्ठी
● 13 जुलाई (बुधवार) – भड्डली नवमी
● 15 जुलाई (शुक्रवार) – देवशयनी एकादशी व्रत
● 16 जुलाई (शनिवार) – कर्क संक्रान्ति
● 17 जुलाई (रविवार) – प्रदोष व्रत
● 19 जुलाई (मंगलवार) – गुरु पूर्णिमा
● 24 जुलाई (रविवार) – नाग पंचमी
● 30 जुलाई (शनिवार) – कामिका एकादशी व्रत
● 31 जुलाई (रविवार) – प्रदोष व्रत

अगस्त 2016

● 1 अगस्त (सोमवार) – मासिक शिवरात्रि व्रत
● 2 अगस्त (मंगलवार) – देवपितृ कार्ये अमावस्या
● 5 अगस्त (शुक्रवार) – हरियाली तीज
● 6 अगस्त (शनिवार) – वरदचतुर्थी व्रत
● 7 अगस्त (रविवार) – नाग पंचमी
● 8 अगस्त (सोमवार) – कल्कि जयन्ती
● 9 अगस्त (मंगलवार) – शीतला षष्ठी,
● 10 अगस्त (बुधवार) – गोस्वामी तुलसीदास जयंती
● 14 अगस्त (रविवार) – पवित्रा एकादशी व्रत
● 15 अगस्त (सोमवार) – प्रदोष व्रत
● 18 अगस्त (गुरुवार) – पूर्णिमा व्रत, रक्षाबन्धन
● 23 अगस्त (मंगलवार) – हल षष्ठी
● 25 अगस्त (गुरुवार) – जन्माष्टमी व्रत
● 26 अगस्त (शुक्रवार) – गोगा नवमी
● 27 अगस्त (शनिवार) – अजा एकादशी व्रत
● 29 अगस्त (सोमवार) – प्रदोष व्रत

सितम्बर 2016

● 1 सितम्बर (गुरुवार) – देवपितृ कार्ये अमावस्या
● 4 सितम्बर (रविवार) – वाराहजयन्ती, हरतालिका तीज
● 5 सितम्बर (सोमवार) – गणेश चतुर्थी व्रत
● 6 सितम्बर (मंगलवार) – ऋषि पंचमी
● 7 सितम्बर (बुधवार) – सूर्य षष्ठी व्रत
● 8 सितम्बर (गुरुवार) – सन्तान सप्तमी
● 9 सितम्बर (शुक्रवार) – श्रीराधा अष्टमी
● 13 सितम्बर (मंगलवार) – जलझूलनी एकादशी व्रत
● 14 सितम्बर (बुधवार) – प्रदोष व्रत
● 15 सितम्बर (गुरुवार) – अनंत चतुर्दशी व्रत
● 16 सितम्बर (शुक्रवार) – पूर्णिमा व्रत
● 17 सितम्बर (शनिवार) – विश्वकर्मा पूजा
● 19 सितम्बर (सोमवार) – चतुर्थी व्रत
● 23 सितम्बर (शुक्रवार) – महालक्ष्मी व्रत
● 26 सितम्बर (सोमवार) – इन्दिरा एकादशी व्रत
● 28 सितम्बर (बुधवार) – प्रदोष व्रत
● 30 सितम्बर (शुक्रवार) – सर्वपितृ अमावस्या

अक्टूबर 2016

● 1 अक्टूबर (शनिवार) – नवरात्रारंभ, अग्रेसन जयंती
● 2 अक्टूबर (रविवार) – गांधी, शास्त्री जयंती
● 9 अक्टूबर (रविवार) – महाष्टमी
● 11 अक्टूबर (मंगलवार) – विजय दशमी
● 12 अक्टूबर (बुधवार) – पापांकुशा एकादशी व्रत
● 14 अक्टूबर (शुक्रवार) – प्रदोष व्रत
● 15 अक्टूबर (शनिवार) – शरद् पूर्णिमा
● 19 अक्टूबर (बुधवार) – करवा चौथ
● 21 अक्टूबर (शुक्रवार) – स्कंद षष्ठी
● 23 अक्टूबर (रविवार) – अहोई आठें
● 26 अक्टूबर (बुधवार) – रमा एकादशी व्रत
● 28 अक्टूबर (शुक्रवार) – धनतेरस, प्रदोष व्रत
● 29 अक्टूबर (शनिवार) – नरक चतुर्दशी
● 30 अक्टूबर (रविवार) – महालक्ष्मी पूजा
● 31 अक्टूबर (सोमवार) – गोवर्धन पूजा (अन्नकूट)

नवम्बर 2016

● 1 नवम्बर (मंगलवार) – भैया दूज (यमद्वितीय)
● 5 नवम्बर (शनिवार) – सौभाग्य पंचमी
● 8 नवम्बर (मंगलवार) – गोपाष्टमी
● 9 नवम्बर (बुधवार) – अक्षय नवमी
● 11 नवम्बर (शुक्रवार) – प्रबोधिनी एकादशी व्रत
● 12 नवम्बर (शनिवार) – प्रदोष व्रत
● 14 नवम्बर (सोमवार) – पूर्णिमा व्रत, गुरु नानक जयंती
● 17 नवम्बर (गुरुवार) – चतुर्थी व्रत
● 21 नवम्बर (सोमवार) – काल भैरवाष्टमी
● 25 नवम्बर (शुक्रवार) – उत्पत्ति एकादशी व्रत
● 26 नवम्बर (शनिवार) – प्रदोष व्रत
● 29 नवम्बर (मंगलवार) – देवपितृ अमावस्या

दिसम्बर 2016

● 5 दिसम्बर (सोमवार) – स्कंद षष्ठी
● 10 दिसम्बर (शनिवार) – मोक्षदा एकादर्शी व्रत
● 11 दिसम्बर (रविवार) – प्रदोष व्रत
● 13 दिसम्बर (मंगलवार) – दत्रात्रेय जयंती, पूर्णिमा व्रत
● 15 दिसम्बर (गुरुवार) – धनु संक्रान्ति
● 17 दिसम्बर (शनिवार) – चतुर्थी व्रत
● 24 दिसम्बर (शनिवार) – सफलता एकादशी व्रत
● 25 दिसम्बर (रविवार) – क्रिसमस डे (बड़ा दिन)
● 26 दिसम्बर (सोमवार) – प्रदोष व्रत
● 28 दिसम्बर (बुधवार) – पितृकार्ये अमावस्या
● 29 दिसम्बर (गुरुवार) – देवकार्ये अमावस्या

…यहाँ पेड़ पर उगते हैं पैसे!

लंदन: अभी तक आपने दादी-नानी से पेड़ पर पैसे उगने के किस्से खूब सुने होंगे लेकिन क्या कभी देखा है पैसों का पेड़। शायद नहीं न लेकिन यदि आपको पैसों का पेड़ देखना है तो बस इंग्लैण्ड आ जाइए और देखिए यहाँ पैसों का पेड़।

इंगलैंड में पैसों का एक पेड़ है जिसमें लोग सदियों से सिक्के गाड़ रहे हैं। इस पेड़ में करीब लाखों सिक्के लगे हुए हैं। अपनी इच्छाओं की पूर्ती के लिए ब्रिटेनवासी इस पेड़ में पैसे डालते थे। इस पेड़ की कहानी की शुरुआत सन 1700 से हुई। इसमें कई और दिलचस्प पहलू हैं।

इंगलैंड के स्कॉटिश द्वीप के पीक जिले में यह पेड़ स्थित है। गुड लक पाने की लालसा में लोग इस पेड़ के दर्शन करने आते हैं। एक मान्यता के अनुसार- त्यौहार एवं ख़ुशियों के मौके पर लोग इसमें सिक्के डालते थे ताकि मन की मुराद पूरी हो सके। क्रिसमस एवं अन्य बड़े मौकों पर लोग यहां अपनी खुशी के लिए सिक्के लाते हैं।

इस पेड़ में कई बहुमूल्य सिक्के भी है, जिनकी कीमत वर्तमान में अरबों रुपए हैं। इसमें कई देशों के सिक्के देखने को मिल जाएंगे। एक मान्यता के अनुसार इस पेड़ में देवों का वास है। इंगलैंड के अलावा अमेरिकियों को भी इस पेड़ के प्रति काफ़ी श्रद्धा है।

...यहां गिरा था देवी सती का दायां वक्ष (स्तन)

हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हालांकि देवी भागवत में जहां 108 और देवी गीता में 72 शक्तिपीठों का ज़िक्र मिलता है, वहीं तन्त्रचूडामणि में 52 शक्तिपीठ बताए गए हैं। देवी पुराण में ज़रूर 51 शक्तिपीठों की ही चर्चा की गई है। इन 51 शक्तिपीठों में से कुछ विदेश में भी हैं और पूजा-अर्चना द्वारा प्रतिष्ठित हैं।

51 शक्तिपीठों के सन्दर्भ में जो कथा है वह यह है राजा प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में माता जगदम्बिका ने जन्म लिया| एक बार राजा प्रजापति दक्ष एक समूह यज्ञ करवा रहे थे| इस यज्ञ में सभी देवताओं व ऋषि मुनियों को आमंत्रित किया गया था| जब राजा दक्ष आये तो सभी देवता उनके सम्मान में खड़े हो गए लेकिन भगवान शंकर बैठे रहे| यह देखकर राजा दक्ष क्रोधित हो गए| उसके बाद एक बार फिर से राजा दक्ष ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया इसमें सभी देवताओं को बुलाया गया, लेकिन अपने दामाद व भगवान शिव को यज्ञ में शामिल होने के लिए निमंत्रण नहीं भेजा| जिससे भगवान शिव इस यज्ञ में शामिल नहीं हुए।

नारद जी से सती को पता चला कि उनके पिता के यहां यज्ञ हो रहा है लेकिन उन्हें निमंत्रित नहीं किया गया है। इसे जानकर वे क्रोधित हो उठीं। नारद ने उन्हें सलाह दी कि पिता के यहां जाने के लिए बुलावे की ज़रूरत नहीं होती है। जब सती अपने पिता के घर जाने लगीं तब भगवान शिव ने मना कर दिया। लेकिन सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी जिद्द कर यज्ञ में शामिल होने चली गई। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष ने भगवान शंकर के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें करने लगे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ और वहीं यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। सर्वत्र प्रलय-सा हाहाकार मच गया। भगवान शंकर के आदेश पर वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया और अन्य देवताओं को शिव निंदा सुनने की भी सज़ा दी और उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। तब भगवान शिव ने सती के वियोग में यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए सम्पूर्ण भूमण्डल पर भ्रमण करने लगे। भगवती सती ने अन्तरिक्ष में शिव को दर्शन दिया और उनसे कहा कि जिस-जिस स्थान पर उनके शरीर के खण्ड विभक्त होकर गिरेंगे, वहाँ महाशक्तिपीठ का उदय होगा।

सती का शव लेकर शिव पृथ्वी पर विचरण करते हुए तांडव नृत्य भी करने लगे, जिससे पृथ्वी पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न होने लगी। पृथ्वी समेत तीनों लोकों को व्याकुल देखकर और देवों के अनुनय-विनय पर भगवान विष्णु सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को खण्ड-खण्ड कर धरती पर गिराते गए। जब-जब शिव नृत्य मुद्रा में पैर पटकते, विष्णु अपने चक्र से शरीर का कोई अंग काटकर उसके टुकड़े पृथ्वी पर गिरा देते। इस प्रकार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। इस तरह कुल 51 स्थानों में माता की शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। माना जाता जाता है शक्तिपीठ में देवी सदैव विराजमान रहती हैं। जो भी इन स्थानों पर मॉ की पूजा अर्चना करता है उसकी मनोकामना पूरी होती है।

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा का बज्रेश्वरी शक्तिपीठ मां का एक ऐसा धाम है जहां पहुंच कर भक्तों का हर दुख उनकी तकलीफ मां की एक झलक भर देखने से दूर हो जाती है। यह 52 शक्तिपीठों में से मां का वो शक्तिपीठ है जहां सती का दाहिना वक्ष गिरा था और जहां तीन धर्मों के प्रतीक के रूप में मां की तीन पिंडियों की पूजा होती है। मान्यता है कि यहां माता सती का दाहिना वक्ष गिरा था इसलिए बज्रेश्वरी शक्तिपीठ में मां के वक्ष की पूजा होती है। माता बज्रेश्वरी का यह शक्तिपीठ अपने आप में अनूठा और विशेष है क्योंकि यहां मात्र हिंदू भक्त ही शीश नहीं झुकाते बल्कि मुस्लिम और सिख धर्म के श्रद्धालु भी इस धाम में आकर अपनी आस्था के फूल चढ़ाते है। आ

ज कांगड़ा की प्रसिद्धि यहां स्थित बज्रेश्वरी देवी के मंदिर के कारण अधिक है। जिसे नगरकोट कांगड़े वाली देवी भी कहा जाता है। हजार वर्ष पूर्व यहां भी बड़ा ही भव्य और समृद्ध मंदिर था। मंदिर की हीरे-मोती, सोने-चांदी की संपदा की ख्याति दूर तक फैली थी। किंतु 1009 में महमूद गजनवी, 1337 में मुहम्मद बिन तुगलक तथा 1420 के आसपास सिकंदर लोदी ने आक्रमण कर यहां की संपदा लूट ली। आक्रांताओं के हर आक्रमण के बाद यह मंदिर पुन: निर्मित हुआ। किंतु भूकंप ने इसे फिर क्षतिग्रस्त कर दिया। उसके बाद 1920 में वर्तमान मंदिर निर्मित किया गया।मंदिर के गर्भगृह में पिंडी के रूप में देवी के दर्शन होते हैं।मान्यता है कि अपने सगे संबंधियों के साथ पीले वस्त्र धारण कर देवी की स्तुति करें तो पुत्र प्राप्ति की कामना पूर्ण होती है।

कहते हैं कि जब सतयुग में राक्षसों का वध करके माता विजय प्राप्त करके आई थीं तो सभी देवो ने माता की स्तुति की थी। उस दिन से मकर संक्रांति का पर्व यहां मनाया जाता है। बताते हैं कि जहां-जहां देवी के शरीर पर घाव आए, वहां -वहां देवताओं ने मिलकर घृत का लेप किया। जिससे माता के शरीर पर आए घाव ठीक हो गए थे। आज भी उसी परंपरा को जारी रखते हुए माता की पिंडी पर मक्खन का लेप किया जाता है।

बज्रेश्वरी मंदिर के वरिष्ठ पुजारी कहते हैं कि मंदिर में यह प्रथा आदि काल से चली आ रही है। घृत पर्व का प्रसाद चरम और जोड़ों के दर्द में सहायक होता है। मंदिर में घृत प्रसाद के तौर पर श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। मंदिर के इतिहास पर छपी किताब में भी इस परंपरा का जिक्र है। घृत मंडल पर्व पर माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया काफी पहले शुरू हो जाती है। स्थानीय और बाहरी लोगों द्वारा मंदिर में दान स्वरूप देसी घी पहुंचाया जाता है।

मंदिर प्रशासन इस घी को 101 बार ठंडे पानी से धोकर मक्खन बनाने के लिए मंदिर के पुजारियों की एक कमेटी का गठन करता है। पुजारियों की यही कमेटी मक्खन की पिन्नियां बनाती है और चौदह जनवरी को देर शाम माता की पिंडी पर मक्खन चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है जो सुबह तक जारी रहती है।

रावण के वध के पाप से मुक्ति के पाने के लिए भगवान राम ने यहां किया था यज्ञ


अहमदाबाद: गुजरात की राजधानी अहमदाबाद से करीब 100 किमी की दूरी पर एक ऐसा प्राचीन मंदिर जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने लंकापति रावण के वध के पाप से मुक्ति के पाने के लिए यज्ञ किया था, क्या आपको पता है यदि नहीं तो आज हम आपको उस प्राचीन मंदिर के बारे में बताते हैं| आपको बता दें अहमदाबाद से 100 किमी की दूरी पर मोढेरा में बहुत ही खूबसूरत प्राचीन सूर्य मन्दिर है। इस मन्दिर को 11वीं सदी में राजा भीमदेव सोलंकी ने बनवाया था।

यह सूर्य मंदिर पशुपवती नदी के तट पर स्थित है| इस मंदिर की ख़ास बात यह है कि इस मंदिर की पवित्रता और भव्यता का वर्णन स्कन्द और ब्रम्ह पुराण में भी देखने को मिलता है| आपको बता दें कि मोढेरा का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। मोढ़ लोग मोढेश्वरी माँ के आनुयाई है जो अंबे माँ के अठारह हाथ वाले स्वरूप की उपासना करते हैं। इस तरह मोढेरा मोढ़ वैश्य व मोढ़ ब्राह्मण की मातृभूमि है। इस स्थान पर बहुत से देवी-देवताओं के चरण पड़े हैं। मान्यता है कि इस स्थान पर ही यमराज (धर्मराज) ने 1000 साल तक तपस्या की थी जिनका तप देखकर इंद्र को अपने आसन का खतरा महसूस हुआ, लेकिन यमराज ने कहा कि वे तो शिव को प्रसन्न करने के लिए तप कर रहे हैं। शिव ने प्रसन्न होकर यमराज से कहा कि आज से इस स्थान का नाम तुम्हारे नाम यमराज (धर्मराज) पर धर्मारण्य होगा।

स्कंद पुराण और ब्रह्म पुराण के अनुसार भगवान राम भी इस स्थान पर आए थे। मान्यता अनुसार जब भगवान राम इस नगर में यज्ञ करने हेतु आए थे तब एक स्थानीय महिला रो रही थी। सभी ने रोने का कारण जानना चाहा, लेकिन महिला ने कहा कि मैं सिर्फ प्रभु श्रीराम को ही कारण बताऊँगी।

राम को जब यह पता चला तो उन्होंने उस महिला से कारण जानना चाहा। महिला ने बताया कि इस स्थान से यहाँ के मूल निवासी वैश्य, ब्राह्मण आदि पलायन करके चले गए हैं उन्हें वापस लाने का उपाय करें। तब श्रीराम ने इस नगर को पुनः बसाया व सभी पलायन किए हुए लोगों को वापस बुलाया और नगर की रक्षा का भार हनुमानजी को दिया। लेकिन धर्मारण्य की खुशियाँ ज्यादा दिनों तक न रह सकी। कान्यकुब्ज राजा कनोज अमराज ने यहाँ की जनता पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। धर्मारण्य की जनता ने राजा को समझाया कि हनुमानजी इस नगरी के रक्षक है आप उनके प्रकोप से डरें, लेकिन राज ने जनता की बात न मनी। राजा से त्रस्त होकर फिर कुछ लोग कठिन यात्रा कर रामेश्वर पहुँचे। जहाँ हनुमानजी से अनुरोध किया और धर्मारण्य कि रक्षा करने का प्रभु श्रीराम का वचन याद दिलाया। हनुमानजी ने वचन की रक्षा करते हुए राजा को सबक सिखाया और नगर की रक्षा की।

मोढेरा सूर्य मंदिर निर्माण-

यहां के राजा सोलंकी सूर्यवंशी माने जाते थे, जिस कारण उन्होंने यहां पर इस विशाल सूर्य मंदिर की स्थापना की थी सूर्य भगवान इनके कुलदेवता के रूप में पूजे जाते थे यह राजा इस मंदिर में वह अपने आद्य देवता की आराधना किया करते थे| यह मंदिर भारत के प्रमुख सूर्य मंदिरों की श्रेणी में आता है| मोढेरा का यह सूर्य मंदिर शिल्पकला का अदभुत उदाहरण प्रस्तुत करता है इस संपूर्ण मंदिर के निर्माण में अनेक महत्वपूर्ण बातों को देखा जा सकता है|

एक तो इस मंदिर के निर्माण में ईरानी शैली का उपयोग देखा जा सकता है, और दूसरा यह कि राजा भीमदेव ने इस मंदिर को दो हिस्सों में बनवाया था जिसके प्रथम भाग में गर्भगृह तथा द्वितीय भाग में सभामंडप है, मन्दिर का गर्भग्रह काफी बडा है| मंदिर के सभामंडप में 52 स्तंभ हैं जिन पर उत्कृष्ट कारीगरी की गई है इन स्तंभों पर देवी-देवताओं के चित्रों, रामायण, महाभारत के प्रसंगों को उकेरा गया है| इस मन्दिर का स्थापत्य बहुत ही उत्तम है मंदिर का निर्माण इस प्रकार से किया गया है कि सूर्योदय होने पर सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करती है इस मंदिर में विशाल कुंड स्थित है जिसे सूर्यकुंड तथा रामकुंड कहा जाता है|

संवत् 1356 में गुजरात के अंतिम राजपूत राजा करण देव वाघेला के अलाउदीन खिलजी से हारने के बाद मुगलों ने गुजरात पर कब्जा कर लिया। अलाउदीन खिलजी ने मोढेरा पर भी आक्रमण किया परन्तु यहाँ के उच्च वर्ग के लोग लड़ाई में भी पारंगत थे तो उन्होंने अलाउदिन खिलजी का डट के मुकाबला किया। लेकिन खिलजी के एक षड़यंत्र में वे फँस गए और मोढेरा पर खिलजी ने कब्जा कर नगर व सूर्य मंदिर को क्षति पहुँचाई।

वर्तमान धर्मारण्य (मोढेरा) में मातंगि के विशाल मन्दिर के अलावा कुछ नहीं है यहाँ के मूल निवासी अपना यह मूल स्थान छोड़ कर दूर बस गए हैं। मंदिर जीर्णोद्धार का कार्य माँ के भक्तों के सहयोग से प्रगति पर है। गुजरात के विकास के साथ ही यहाँ की सड़कों का भी विकास हुआ है जिस कारण यहाँ पहुँचना अब सुगम हो गया है।