मां बगलामुखी का शक्तिशाली मंत्र


नई दिल्ली: माँ बगलामुखी की साधना करने वाला साधक सर्वशक्ति सम्पन्न हो जाता है| यह मंत्र विधा अपना कार्य करने में सक्षम हैं| मंत्र का सही विधि द्वारा जाप किया जाए तो निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है| बगलामुखी मंत्र के जाप से पूर्व बगलामुखी कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए| देवी बगलामुखी पूजा अर्चना सर्वशक्ति सम्पन्न बनाने वाली सभी शत्रुओं का शमन करने वाली तथा मुकदमों में विजय दिलाने वाली होती है|

माँ बगलामुखी मंत्र —-विनियोग –श्री ब्रह्मास्त्र-विद्या बगलामुख्या नारद ऋषये नम: शिरसि।त्रिष्टुप् छन्दसे नमो मुखे। श्री बगलामुखी दैवतायै नमो ह्रदये।ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। स्वाहा शक्तये नम: पाद्यो:।ऊँ नम: सर्वांगं श्री बगलामुखी देवता प्रसाद सिद्धयर्थ न्यासे विनियोग:।

मंत्र ॐ ह्रीं बगलामुखी सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्ववां कीलय बुद्धि विनाशय ह्रीं ओम् स्वाहा।

इन छत्तीस अक्षरों वाले मंत्र में अद्‍भुत प्रभाव है। इसको एक लाख जाप द्वारा सिद्ध किया जाता है। अधिक सिद्धि हेतु पाँच लाख जप भी किए जा सकते हैं। जप की संपूर्णता के पश्चात् दशांश यज्ञ एवं दशांश तर्पण भी आवश्यक है। बगलामुखी साधना की सावधानियां :-

बगलामुखी साधना के दौरान पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अत्यधिक आवश्यक है। इस क्रम में स्त्री का स्पर्श, उसके साथ किसी भी प्रकार की चर्चा या सपने में भी उसका आना पूर्णत: निषेध है। अगर आप ऐसा करते हैं तो आपकी साधना खण्डित हो जाती है। किसी डरपोक व्यक्ति या बच्चे के साथ यह साधना नहीं करनी चाहिए। बगलामुखी साधना के दौरान साधक को डराती भी है। साधना के समय विचित्र आवाजें और खौफनाक आभास भी हो सकते हैं इसीलिए जिन्हें काले अंधेरों और पारलौकिक ताकतों से डर लगता है, उन्हें यह साधना नहीं करनी चाहिए।

साधना से पहले आपको अपने गुरू का ध्यान जरूर करना चाहिए। मंत्रों का जाप शुक्ल पक्ष में ही करें। बगलामुखी साधना के लिए नवरात्रि सबसे उपयुक्त है। उत्तर की ओर देखते हुए ही साधना आरंभ करें। मंत्र जाप करते समय अगर आपकी आवाज अपने आप तेज हो जाए तो चिंता ना करें। जब तक आप साधना कर रहे हैं तब तक इस बात की चर्चा किसी से भी ना करें। साधना करते समय अपने आसपास घी और तेल के दिये जलाएं।

साधना में जरूरी श्री बगलामुखी का पूजन यंत्र चने की दाल से बनाया जाता है। अगर सक्षम हो तो ताम्रपत्र या चांदी के पत्र पर इसे अंकित करवाए। बगलामुखी यंत्र एवं इसकी संपूर्ण साधना यहां देना संभव नहीं है। किंतु आवश्‍यक मंत्र को संक्षिप्त में दिया जा रहा है ताकि जब साधक मंत्र संपन्न करें तब उसे सुविधा रहे।

जादू टोना नाशक मंत्र

यदि आपको लगता है कि आप किसी बुरु शक्ति से पीड़ित हैं, नजर जादू टोना या तंत्र मंत्र आपके जीवन में जहर घोल रहा है, आप उन्नति ही नहीं कर पा रहे अथवा भूत प्रेत की बाधा सता रही हो तो देवी के तंत्र बाधा नाशक मंत्र का जाप करना चाहिए।

ॐ ह्लीं श्रीं ह्लीं पीताम्बरे तंत्र बाधाम नाशय नाशय

आटे के तीन दिये बनाये व देसी घी ड़ाल कर जलाएं। कपूर से देवी की आरती करें। रुद्राक्ष की माला से 7 माला का मंत्र जप करें। मंत्र जाप के समय दक्षिण की और मुख रखें।

नवरात्रि के प्रथम दिन करें माँ शैलपुत्री की पूजा


नई दिल्ली| मां दुर्गा शक्ति की उपासना का पर्व चैत्र नवरात्र के पहले दिन माता शैलपुत्री की पूजा की जाती है| इस वर्ष चैत्र नवरात्रि का आरंभ 8 अप्रैल से हैं| मां दुर्गा अपने प्रथम स्वरूप में शैलपुत्री के रूप में जानी जाती हैं| शैलपुत्री पर्वतराज हिमालय की पुत्री हैं| इसी वजह से मां के इस स्वरूप को शैलपुत्री कहा जाता है।

माँ भगवती शैलपुत्री का वाहन वृषभ है, उनके दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल का पुष्प है| इस स्वरूप का पूजन नवरात्री के प्रथम दिन किया जाता है| सभी देवता, राक्षस, मनुष्य आदि इनकी कृपा-दृष्टि के लिए लालायित रहते हैं| किसी एकांत स्थान पर मृत्तिका से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं और उस पर कलश स्थापित करें | मूर्ति स्थापित कर, कलश के पीछे स्वास्तिक और उसके युग्म पा‌र्श्व में त्रिशूल बनाएं| माँ शैलपुत्री के पूजन से योग साधना आरंभ होती है| जिससे नाना प्रकार की उपलब्धियां प्राप्त होती हैं |

शैलपुत्री पूजा विधि-

चैत्र नवरात्र पर कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की पूजा शुरू की जाती है| पहले दिन माँ दुर्गा के पहले स्वरूप शैलपुत्री की पूजा होती है| दुर्गा को मातृ शक्ति यानी स्नेह, करूणा और ममता का स्वरूप मानकर हम पूजते हैं| माँ शैलपुत्री की पूजा में सभी तीर्थों, नदियों, समुद्रों, नवग्रहों, दिक्पालों, दिशाओं, नगर देवता, ग्राम देवता सहित सभी योगिनियों का कलश पर विराजने के लिए प्रार्थना कर आवाहन किया जाता है | कलश में सात प्रकार की मिट्टी, सुपारी, मुद्रा सादर भेट किया जाता है और पंच प्रकार के पल्लव से कलश को सुशोभित किया जाता है|

कलश के नीचे सात प्रकार के अनाज और जौ बोये जाते हैं जिन्हें दशमी तिथि को काटा जाता है और इससे सभी देवी-देवता की पूजा होती हैI “जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी, दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नामोस्तुते” मंत्र से पुरोहित यजमान के परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर जयंती डालकर सुख, सम्पत्ति एवं आरोग्य का आर्शीवाद देते हैं|

कलश स्थापना के बाद देवी दु्र्गा जिन्होंने दुर्गम नामक प्रलयंकारी असुर का संहार कर अपने भक्तों को उसके त्रास से यानी पीड़ा से मुक्त कराया उस देवी का आह्वान किया जाता है कि ‘हे मां दुर्गे’ हमने आपका स्वरूप जैसा सुना है उसी रूप में आपकी प्रतिमा बनवायी है आप उसमें प्रवेश कर हमारी पूजा अर्चना को स्वीकार करें| माँ देवी दुर्गा ने महिषासुर को वरदान दिया था कि तुम्हारी मृत्यु मेरे हाथों हुई है इस हेतु तुम्हें मेरा सानिध्य प्राप्त हुआ है अत: मेरी पूजा के साथ तुम्हारी भी पूजा की जाएगी इसलिए देवी की प्रतिमा में महिषासुर और उनकी सवारी शेर भी साथ होता है|

माँ दुर्गा की प्रतिमा पूजा स्थल पर बीच में स्थापित की जाती है और उनके दोनों तरफ यानी दायीं ओर देवी महालक्ष्मी, गणेश और विजया नामक योगिनी की प्रतिमा रहती है और बायीं ओर कार्तिकेय, देवी महासरस्वती और जया नामक योगिनी रहती है तथा भगवान भोले नाथ की भी पूजा की जाती है| प्रथम पूजन के दिन “शैलपुत्री” के रूप में भगवती दुर्गा दुर्गतिनाशिनी की पूजा फूल, अक्षत, रोली, चंदन से होती है|इस प्रकार दुर्गा पूजा की शुरूआत हो जाती है प्रतिदिन संध्या काल में देवी की आरती के समय “जग जननी जय जय” और “जय अम्बे गौरी” के गीत भक्तजनो को गाना चाहिए|

शैलपुत्री मंत्र-

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृतशेखराम्।

वृषारूढ़ा शूलधरां यशस्विनीम्॥

माँ शैलपुत्री का ध्यान :-

वन्दे वांछितलाभाय चन्द्रर्धकृत शेखराम्।

वृशारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्वनीम्॥

पूणेन्दु निभां गौरी मूलाधार स्थितां प्रथम दुर्गा त्रिनेत्राम्॥

पटाम्बर परिधानां रत्नाकिरीटा नामालंकार भूषिता॥

प्रफुल्ल वंदना पल्लवाधरां कातंकपोलां तुग कुचाम्।

कमनीयां लावण्यां स्नेमुखी क्षीणमध्यां नितम्बनीम्॥

माँ शैलपुत्री का स्तोत्र पाठ-

प्रथम दुर्गा त्वंहिभवसागर: तारणीम्।

धन ऐश्वर्यदायिनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यम्॥

त्रिलोजननी त्वंहि परमानंद प्रदीयमान्।

सौभाग्यरोग्य दायनी शैलपुत्री प्रणमाभ्यहम्॥

चराचरेश्वरी त्वंहिमहामोह: विनाशिन।

मुक्तिभुक्ति दायनीं शैलपुत्री प्रमनाम्यहम्॥

माँ शैलपुत्री का कवच-

ओमकार: मेंशिर: पातुमूलाधार निवासिनी।

हींकार: पातु ललाटे बीजरूपा महेश्वरी॥

श्रींकारपातुवदने लावाण्या महेश्वरी ।

हुंकार पातु हदयं तारिणी शक्ति स्वघृत।

फट्कार पात सर्वागे सर्व सिद्धि फलप्रदा॥

चैत्र नवरात्रि आज से शुरू, जानिए कलश स्थापना का मुहूर्त एवं पूजन व‌िध‌ि

हमारे वेद, पुराण व शास्त्र साक्षी हैं कि जब-जब किसी आसुरी शक्तियों ने अत्याचार व प्राकृतिक आपदाओं द्वारा मानव जीवन को तबाह करने की कोशिश की तब-तब किसी न किसी दैवीय शक्तियों का अवतरण हुआ। इसी प्रकार जब महिषासुरादि दैत्यों के अत्याचार से भू व देव लोक व्याकुल हो उठे तो परम पिता परमेश्वर की प्रेरणा से सभी देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन किया जो आदि शक्ति मां जगदंबा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं। उन्होंने महिषासुरादि दैत्यों का वध कर भू व देव लोक में पुनःप्राण शक्ति व रक्षा शक्ति का संचार कर दिया। शक्ति की परम कृपा प्राप्त करने हेतु संपूर्ण भारत में नवरात्रि का पर्व बड़ी श्रद्धा, भक्ति व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इस वर्ष चैत्र नवरात्रि 8 अप्रैल से प्रारम्भ हो रहे हैं| माता पर श्रद्धा व विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के लिये यह दिन विशेष रहेगा| इस बार नवरात्रि पूरे नौ दिन के होंगे| 

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

नव दुर्गा-

नव दुर्गा- श्री दुर्गा का प्रथम रूप श्री शैलपुत्री हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण ये शैलपुत्री कहलाती हैं। नवरात्र के प्रथम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इसके आलावा श्री दुर्गा का द्वितीय रूप श्री ब्रह्मचारिणी का हैं। यहां ब्रह्मचारिणी का तात्पर्य तपश्चारिणी है। इन्होंने भगवान शंकर को पति रूप से प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। अतः ये तपश्चारिणी और ब्रह्मचारिणी के नाम से विख्यात हैं। नवरात्रि के द्वितीय दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। श्री दुर्गा का तृतीय रूप श्री चंद्रघंटा है। इनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। नवरात्रि के तृतीय दिन इनका पूजन और अर्चना किया जाता है। इनके पूजन से साधक को मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है। श्री दुर्गा का चतुर्थ रूप श्री कूष्मांडा हैं। अपने उदर से अंड अर्थात् ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कूष्मांडा देवी के नाम से पुकारा जाता है। नवरात्रि के चतुर्थ दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। श्री कूष्मांडा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

श्री दुर्गा का पंचम रूप श्री स्कंदमाता हैं। श्री स्कंद (कुमार कार्तिकेय) की माता होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। नवरात्रि के पंचम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है। इनकी आराधना से विशुद्ध चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वतः प्राप्त हो जाती हैं। श्री दुर्गा का षष्ठम् रूप श्री कात्यायनी। महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर आदिशक्ति ने उनके यहां पुत्री के रूप में जन्म लिया था। इसलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं। नवरात्रि के षष्ठम दिन इनकी पूजा और आराधना होती है। श्रीदुर्गा का सप्तम रूप श्री कालरात्रि हैं। ये काल का नाश करने वाली हैं, इसलिए कालरात्रि कहलाती हैं। नवरात्रि के सप्तम दिन इनकी पूजा और अर्चना की जाती है। इस दिन साधक को अपना चित्त भानु चक्र (मध्य ललाट) में स्थिर कर साधना करनी चाहिए। श्री दुर्गा का अष्टम रूप श्री महागौरी हैं। इनका वर्ण पूर्णतः गौर है, इसलिए ये महागौरी कहलाती हैं। नवरात्रि के अष्टम दिन इनका पूजन किया जाता है। इनकी उपासना से असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं। श्री दुर्गा का नवम् रूप श्री सिद्धिदात्री हैं। ये सब प्रकार की सिद्धियों की दाता हैं, इसीलिए ये सिद्धिदात्री कहलाती हैं। नवरात्रि के नवम दिन इनकी पूजा और आराधना की जाती है।

नवरात्रि का महत्व एवं मनाने का कारण –

नवरात्रि काल में रात्रि का विशेष महत्‍व होता है| देवियों के शक्ति स्वरुप की उपासना का पर्व नवरात्र प्रतिपदा से नवमी तक, निश्चित नौ तिथि, नौ नक्षत्र, नौ शक्तियों की नवधा भक्ति के साथ सनातन काल से मनाया जा रहा है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की । तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। नवरात्रि के नौ दिनों में आदिशक्ति माता दुर्गा के उन नौ रूपों का भी पूजन किया जाता है जिन्होंने सृष्टि के आरम्भ से लेकर अभी तक इस पृथ्वी लोक पर विभिन्न लीलाएँ की थीं। माता के इन नौ रूपों को नवदुर्गा के नाम से जाना जाता है। नवरात्रि के समय रात्रि जागरण अवश्‍य करना चाहिये और यथा संभव रात्रिकाल में ही पूजा हवन आदि करना चाहिए। नवदुर्गा में कुमारिका यानि कुमारी पूजन का विशेष अर्थ एवं महत्‍व होता है।कहीं-कहीं इन्हें कन्या पूजन के नाम से भी जाना जाता है| जिसमें कन्‍या पूजन कर उन्‍हें भोज प्रसाद दान उपहार आदि से कुमारी कन्याओं की सेवा की जाती है। आश्विन मास के शुक्लपक्ष कि प्रतिपद्रा से लेकर नौं दिन तक विधि पूर्वक व्रत करें। प्रातः काल उठकर स्नान करके, मन्दिर में जाकर या घर पर ही नवरात्रों में दुर्गाजी का ध्यान करके कथा पढ़नी चहिए। यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय का भोजन करें। इस व्रत में उपवास या फलाहार आदि का कोई विशेष नियम नहीं है। कन्याओं के लिये यह व्रत विशेष फलदायक है। कथा के अन्त में बारम्बार ‘दुर्गा माता तेरी सदा जय हो’ का उच्चारण करें ।

गुप्त नवरात्रि:-

हिंदू धर्म के अनुसार एक वर्ष में चार नवरात्रि होती है। वर्ष के प्रथम मास अर्थात चैत्र में प्रथम नवरात्रि होती है। चौथे माह आषाढ़ में दूसरी नवरात्रि होती है। इसके बाद अश्विन मास में प्रमुख नवरात्रि होती है। इसी प्रकार वर्ष के ग्यारहवें महीने अर्थात माघ में भी गुप्त नवरात्रि मनाने का उल्लेख एवं विधान देवी भागवत तथा अन्य धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। इनमें अश्विन मास की नवरात्रि सबसे प्रमुख मानी जाती है। इस दौरान पूरे देश में गरबों के माध्यम से माता की आराधना की जाती है। दूसरी प्रमुख नवरात्रि चैत्र मास की होती है। इन दोनों नवरात्रियों को क्रमश: शारदीय व वासंती नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त आषाढ़ तथा माघ मास की नवरात्रि गुप्त रहती है। इसके बारे में अधिक लोगों को जानकारी नहीं होती, इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं। गुप्त नवरात्रि विशेष तौर पर गुप्त सिद्धियां पाने का समय है। साधक इन दोनों गुप्त नवरात्रि में विशेष साधना करते हैं तथा चमत्कारिक शक्तियां प्राप्त करते हैं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्रह्मण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है।

अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

घट स्थापना मुहूर्त-

नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। नवरात्र के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ दैनिक पूजा भी बहुत सरल विधि से की जा सकती है| 
शुभ मूहूर्त
वैधृति योग- सुबह 10 बजकर 40 मिनट तक
घट स्थापना अभिजित मुहूर्त- दोपहर 12 बजकर 04 मिनट से 12 बजकर 54 मिनट तक
अमृत चौघडिया मूहूर्त- सुबह 10 बजकर 40 मिनट से 10 बजे 55 मिनट तक
शुभ चौघडिया मूहूर्त- दोपहर 12 बजकर 29 मिनट से 2 बजे 03 मिनट तक


घट स्थापना विधि-

नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है। आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें। इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े।

शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक ‘अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम’ के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है। 

पापमोचिनी एकादशी व्रत से होता है समस्त पापों का नाश


हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। हिन्दू धर्म में कहा गया है कि संसार में उत्पन्न होने वाला कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जिससे जाने अनजाने पाप नहीं हुआ हो। पाप एक प्रकार की ग़लती है जिसके लिए हमें दंड भोगना होता है। ईश्वरीय विधान के अनुसार पाप के दंड से बचा जा सकता हैं अगर पापमोचिनी एकादशी का व्रत रखें। पुराणों के अनुसार चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को पापमोचिनी एकादशी कहते हैं। इस बार यह एकादशी 3 अप्रैल को वैष्णव और 4 अप्रैल को स्मार्त दिन को पड़ रही है।

पापमोचिनी एकादशी की व्रत विधि-

पापमोचिनी एकादशी व्रत में भगवान विष्णु के चतुर्भुज रूप की पूजा की जाती है। जिस व्यक्ति को इस एकाद्शी का व्रत करना हो व इस व्रत का संकल्प करके इस व्रत का आरंभ नियम दशमी तिथि से ही प्रारम्भ करे| व्रत के दिन व्रत के सामान्य नियमों का पालन करना चाहिए| इसके साथ ही साथ जहां तक हो सके व्रत के दिन सात्विक भोजन करना चाहिए| भोजन में उसे नमक का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए| इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को व्रत के दिन प्रातःकाल स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण कर माथे पर श्रीखंड चंदन अथवा गोपी चंदन लगाकर कमल अथवा वैजयन्ती फूल, फल, गंगा जल, पंचामृत, धूप, दीप, सहित लक्ष्मी नारायण की पूजा एवं आरती करें और और भगवान को भोग लगायें| इस दिन भगवान नारायण की पूजा का विशेष महत्व होता है| पूजा के पश्चात भगवान के सामने बैठकर भग्वद् कथा का पाठ अथवा श्रवण करें। एकादशी तिथि को जागरण करने से कई गुणा पुण्य मिलता है अत: रात्रि में भी निराहार रहकर भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें। द्वादशी के दिन प्रात: स्नान करके विष्णु भगवान की पूजा करें फिर ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करें पश्चात स्वयं भोजन करें। इस प्रकार पापमोचिनी एकादशी का व्रत करने से भगवान विष्णु अति प्रसन्न होते हैं तथा व्रती के सभी पापों का नाश कर देते हैं।

पापमोचनी एकादशी व्रत की कथा-

राजा मान्धाता ने एक बार लोमश ऋषि से पूछा कि मनुष्य जो जाने-अनजाने में पाप करता है उससे कैसे मुक्त हो सकता है? तब लोमश ऋषि ने राजा को एक कहानी सुनाई कि चैत्ररथ नामक सुन्दर वन में च्यवन ऋषि के पुत्र मेधावी ऋषि तपस्या में लीन थे। इस वन में एक दिन मंजुघोषा नामक अप्सरा की नजर ऋषि पर पड़ी तो वह उन पर मोहित हो गई और उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास करने लगी। कामदेव भी उस समय उधर से गुजर रहे थे कि उनकी नजऱ अप्सरा पर गई और वह उसकी मनोभावना को समझते हुए उसकी सहायता करने लगे। अप्सरा अपने प्रयास में सफल हुई और ऋषि की तपस्या भंग हो गई।

ऋषि शिव की तपस्या का व्रत भूल गए और अप्सरा के साथ रमण करने लगे। कई वर्षों के बाद जब उनकी चेतना जागी तो उन्हें एहसास हुआ कि वह शिव की तपस्या से विरक्त हो चुके हैं उन्हें तब उस अप्सरा पर बहुत क्रोध हुआ और तपस्या भंग करने का दोषी जानकर ऋषि ने अप्सरा को श्राप दे दिया कि तुम पिशाचिनी बन जाओ। श्राप से दु:खी होकर वह ऋषि के पैरों पर गिर पड़ी और श्राप से मुक्ति के लिए प्रार्थना करने लगी।

मेधावी ऋषि ने तब उस अप्सरा को विधि सहित चैत्र कृष्ण एकादशी (पापमोचिनी एकादशी) का व्रत करने के लिए कहा। भोग में निमग्न रहने के कारण ऋषि का तेज भी लोप हो गया था अत: ऋषि ने भी इस एकादशी का व्रत किया जिससे उनका पाप नष्ट हो गया। उधर अप्सरा भी इस व्रत के प्रभाव से पिशाच योनि से मुक्त हो गयी और उसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ तब वह पुन: स्वर्ग चली गई।

कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने में अखिलेश सरकार नाकाम, पुलिस हिरासत में हो रही मौतें

पिछले कुछ महीनो पर नज़र डालें तो साफ़ जाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के नाम पर जमकर खिलवाड़ हो रहा है। प्रदेश में अपराध का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है| यहाँ हिरासत में मौत आम बात हो गयी हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले में एक मामले को लेकर हिरासत में लिए गए 2 युवकों की कोतवाली परिसर में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। प्रताडऩा के कारण दोनों की मृत्यु का आरोप लगने पर 3 पुलिसकर्मियों को निलम्बित कर दिया गया।

पुलिस सूत्रों ने बताया कि मादक पदार्थों की तस्करी के आरोप में पूरनपुर कोतवाली की पुलिस सद्दाम तथा अकील नामक युवकों को कल रात पकड़कर लाई थी। दोनों आज सुबह संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाए गए। उन्होंने बताया कि कोतवाली पुलिस का कहना है कि सुबह तबीयत खराब होने पर सद्दाम और अकील को अस्पताल भेजा गया था, जहां दोनों की मौत हो गई। सूत्रों ने बताया कि मृतकों के परिजन ने पुलिस पर प्रताडऩा देकर दोनों युवकों की हत्या करने का आरोप लगाया है। उन्होंने बताया कि पुलिस अधीक्षक अनिल कुमार सिंह ने कोतवाली में तैनात इंस्पेक्टर शक्ति सिंह समेत 3 पुलिसकर्मियों को निलम्बित कर दिया है। मामले की जांच की जा रही है।

गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में यह कोई पहला मामला नहीं है जब पुलिस हिरासत में कैदियों की मौत हो रही है इससे पहले भी कई मामले इस तरह के आ चुके हैं लेकिन अखिलेश सरकार कार्यवाई करने के बजाय हाथ पर हाथ रखे हुए बैठी है।

क्यों मनाते हैं ‘अप्रैल फूल’ और कब हुई इसकी शुरुआत


दुनिया के कई देशों में 1 अप्रैल को ‘अप्रैल फूल डे’ के रूप में मनाया जाता है| कहीं-कहीं इसे ‘ऑल फूल्स डे’ भी कहा जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे को बेवकूफ बनाते हैं और जो बेवकूफ बन जाता है उसे ‘अप्रैल फूल’ कहकर चिढ़ाते हैं। वैसे तो एक अप्रैल को कोई आधिकारिक छुट्टी नहीं होती, लेकिन इसे स्पेशली एक ऐसे दिन मनाया जाता है जब एक दूसरे के साथ मजाक और सामान्य तौर पर मूर्खतापूर्ण हरकतें की जाती हैं|

आपको यह जानकर हैरानी होगी कि कुछ देशों जैसे न्यूजीलैंड, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में इस तरह के मजाक केवल दोपहर तक ही किए जाते हैं और अगर कोई दोपहर के बाद मजाक करने की कोशिश करता है तो उसे ‘अप्रैल फूल’ कहा जाता है। कहा जाता है कि ऐसा इसीलिये किया जाता है क्योंकि ब्रिटेन के अखबार जो अप्रैल फूल पर मुख्य पृष्ठ निकालते हैं वे ऐसा सिर्फ पहले (सुबह के) एडिशन के लिए ही करते हैं|

वहीं फ्रांस, आयरलैंड, इटली, दक्षिण कोरिया, जापान, रूस, नीदरलैंड, जर्मनी, ब्राजील, कनाडा और अमेरिका में मजाक का सिलसिला पूरे दिन चलता रहता है। फ्रांस और इटली में तो इस दिन कागज की मछली बनाकर उसे एक-दूसरे की पीठ पर चिपकाकर ‘अप्रैल फिश’ मनाने का प्रचलन है।

क्यों मनाते हैं ‘अप्रैल फूल’

बहुत से लोगो का मानना है कि ‘अप्रैल फूल’ की शुरुआत 17वीं सदी से शुरू हुई है लेकिन एक अप्रैल को ‘फूल्स डे ‘ के रूप मे माना जाना और लोगों के साथ हंसी मजाक करने का सिलसिला वर्ष 1564 के बाद फ्रांस में शुरू हुआ| इस परंपरा की शुरुआत की कहानी बड़ी ही मनोरंजक है|

दरअसल, वर्ष 1564 से पहले यूरोप के लगभग सभी देशों मे एक जैसा कैलेंडर प्रचलित था जिसमे हर नया वर्ष एक अप्रैल से शुरू होता था| उन दिनों एक अप्रैल को लोग न्यू ईयर की तरह सेलिब्रेट करते थे| इस दिन लोग एक दूसरे को न्यू ईयर गिफ्ट और शुभकामनाएं भेजते थे| वर्ष 1564 मे वहां के राजा चार्ल्स नवम (CHARLES1X) ने एक बेहतर कैलेंडर को अपनाने का आदेश दिया| इस नए कैलेंडर मे आज की तरह एक जनवरी को वर्ष का प्रथम दिन माना गया था| अधिकतर लोगो ने इस नए कैलेंडर को अपना लिया लेकिन कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्होंने नए कैलेंडर को अपनाने से इंकार कर दिया था|

ऐसे में जो लोग एक जनवरी को वर्ष का नया दिन न मानकर ‘एक अप्रैल’ को ही वर्ष का पहला दिन मानते थे, उन्हें नया कैलेंडर अपनाने वालो ने मूर्ख समझकर एक अप्रैल के दिन विचित्र प्रकार के मजाक और झूठे उपहार देने शुरू कर दिए| तभी से आज तक एक अप्रैल को लोग ‘फूल्स डे’ के रूप मे मनाते हैं|

कैसे बनाये ‘अप्रैल फूल डे’


एक अप्रैल के दिन अपने फ्रेंड्स, फेमिली मेम्बर्स, पति, पत्नी, गर्लफ्रेंड, ब्वॉयफ्रेंड एक दूसरे को बेवकूफ बनाने के लिए मोबाइल फोन, ईमल,गिफ्ट पैकेट्स का यूज करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते| बेवकूफ बनाने के लिए आकर्षक पैकिंग वाले डिब्बों में ईंट-पत्थर के टुकड़े या मिठाई की जगह आटे के लोने रखकर मूर्ख बनाए जा सकते हैं|

लड़के लड़कियां एक दूसरे को फोन पर शादी का ऑफर देकर, जॉब का ऑफर देकर बेवकूफ बना सकते हैं| अगर सभी को मूर्ख बना रहे है तो पत्रकारों को कैसे छोड़ दिया जाए| मीडिया के दफ्तरों में फोन पर झूठी सूचनाएं देकर पत्रकारों को आसानी से परेशान किया जा सकता है। पत्रकारों को फोन पर किसी स्थान पर पूल टूटने, किसी जीप के दुर्घटनाग्रस्त होने, कही प्रेस कांफ्रेंस की झूठी खबर देकर आसानी से अप्रैल फूल बनाया जा सकता है|

पत्रकारों के अलावा पुलिस वालों को भी झूठी सूचनाएं देकर इधर-उधर दौड़ाया जा सकता है, लेकिन ध्यान रखें की यह मजाक एक हद के भीतर ही हो जिससे कोई अनहोनी या फिर आत्मग्लानी देने वाली घटना ना घटे|

6 साल पहले गंगा में किया था बेटी का अंतिम संस्कार, आज वह वापस आ गई

शहडोल: कभी-कभी कुछ ऐसी घटनाये घट जाती है जिन पर यकीन करना मुश्किल होता है। ऐसी ही एक घटना हाल ही में मध्य प्रदेश के शहडोल में घटी है जहाँ गंगा में प्रवाहित की गई एक 12 वर्षीय लड़की छह साल बाद जिंदा मिली है। घटना आज से छह साल पहले की है, जब ब्यौहारी तहसील के कुंआ गांव निवासी झुरू कचेर की बेटी स्वाति एक रात खाना खाकर सो रही थी, तभी उसके पेट में अचानक असहनीय पीड़ा हुई और मुंह से झाग भी गिरने लगा। परिजनों ने आनन-फानन में गांव के ही एक डॉक्टर को दिखाया, जहां डॉक्टर ने बच्ची को मृत घोषित कर दिया। झुरू कचेर की एक ही बेटी थी, जिसकी मौत की खबर के बाद परिवार में पहाड़ सा टूट पड़ा।

स्वाति के मौत के बाद परिजनों ने उसे इलाहबाद में गंगा में प्रवाहित करने का फैसला किया और उसे वहां ले गए। वजन कम होने के कारण परिजन उसके शरीर में पत्थर बांध कर जल में प्रवाहित कर लौट आये, लेकिन वृंदावन के साधुओं की नजर जब बच्ची पर पड़ी तो उसे गंगा से निकाल कर डॉक्टर के पास ले गए, जहां उसकी सांसे चलती मिली और उसका इलाज करवाया तो स्वस्थ्य हो गई। स्वस्थ्य होने पर वो साधुओं के साथ ही रहने लगी। यहीं रहकर स्वाति ने कथावाचन सीख लिया। साधु-संतों ने स्वाति को 12 साल का संकल्प दिलाया है। इसके बाद ही वह अपने घर जा सकेगी।

फरवरी में उमरिया जिले के मुड़गुड़ी गांव के यादव परिवार में भागवत कथा थी। इसमें वृंदावन से बतौर कथावाचक स्वाति भी पहुंची। भागवत में स्वाति के बड़े पिता भी गए थे। स्वाति यहां अपने बड़े पिता नारेन्द्र कचेर को देखते ही पहचान गई। सूचना मिलते ही बच्ची के माता-पिता भी उसे देखने पहुंचे। बच्ची ने सभी को पहचान लिया। बीते दिनों होली के समय बच्ची के परिजन उसे घुमाने वृंदावन से अपने गांव लाए थे। इसके बाद वो वापस वृंदावन चली गई। बाद में गांव आकर स्वाति यहां आश्रम बनाना चाहती है।

आपको बता दें कि एक ऐसी ही घटना कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के बरेली में देखने को मिला था जहाँ एक युवक को उसके परिजनों ने मृत समझकर गंगा में बहा दिया था लेकिन 14 साल बाद वह युवक वापस अपने घर आ गया। उत्तर प्रदेश के बरेली के थाना क्षेत्र देबरनिया के भुड़वा नगला गाँव के कृषक नन्थू लाल का 23 वर्षीय पुत्र छत्रपाल को 14 वर्ष पूर्व खेत मे काम करते समय सर्पदंश से मौत हो गयी थी| छत्रपाल की मौत के बाद परिजनो ने अन्य सैकड़ो ग्रामीणो के साथ जाकर रामगंगा में छत्रपाल की लाश को जल समाधि देकर अंतिम संस्कार कर दिया ,लेकिन आज 14 बर्ष बाद मृतक छत्रपाल परिजनों के पास जिन्दा होकर अपने घर लौटा है इस चमत्कार से ग्रामीणो में उत्साह व छत्रपाल को देखने होड़ में आसपास के तमाम ग्रामीणो की भारी भीड़ उमड़ पड़ी है|

मृतक छत्रपाल को 14 वर्ष बाद जिन्दा देखकर उस के परिजनो व पत्त्नी बच्चो को तो अपार ख़ुशी के बाद चमत्कारी कर्तव्य देखकर पुरे परिवार में खुशियाँ ही खुशियाँ दिख रही है वही हजारो की तादायत में ग्रामीणो का हुजूम नन्थुलाल के घर के बाहर उमड़ पड़ा है| मृतक छत्रपाल को देखकर सभी ग्रामीण अचम्भितब हो कर देख रहे है कि आखिर मौत के बाद आँखों के सामने लाश का हुआ अंतिम संस्कार फिर यह चमत्कार की छत्रपाल जिन्दा होकर सामने खड़ा है यह भगवन की लीला क्या है जबकि छत्रपाल को डॉक्टरो ने मृतक घोषित किया और सभी ग्रामीणो ने मिलकर उसकी लाश का अंतिम संस्कार 14 वर्ष पूर्व कर दिया था|

आज वही छत्रपाल उन्ही ग्रामीणो व परिवार के लोगो के सामने जिन्दा खड़ा हुआ है और अब छत्रपाल के पिता, पत्नी, भाई, माँ तमाम परिजन व ग्रामीण अपने-अपने तरीके से छत्रपाल के साथ पूर्व जीवन में बीती घटनाओ को पूछ-पूछ कर जीवित छत्रपाल की परीक्षा ले रहे है और मृतक छत्रपाल है कि हर सवालों का जवाब स्पष्ट रूप से देता चला जा रहा है| छत्रपाल के गुरु सपेरो ने पिछली जिंदगी भुला कर छत्रपाल को नया जीवन देकर उसका नाम भी नया रखते हुए रूपकिशोर नाम रख दिया है|

नन्थुलाल के पुत्र छत्रपाल को जिन जिन्दा कर के घर पर लाने वाले गुरु सपेरे हरिसिंह को नन्थुलाल का परिवार ही नहीं तमाम ग्रामीण भी उन्हें भगवान रूपी इंसान मानने के लिये मजबूर हैं| वही चमत्कारी सपेरा भी निस्वार्थ समाज सेवा करते हुए तमाम मरे हुए लोगो को जिन्दा कर के अपने साथ लिये घूम रहा है| अपनी इस कला का प्रदर्शन करते हुए अपने साथ अन्य लाये हुए चेलो को भी इसी प्रकार जिन्दा कर अपना शिष्य बनाने की बात कह रहे है सपेरे हरिसिंह भी आपबीती सुनते हुए बताते है कि वह भी सांप के डसने से मर गये थे और उनके परिजनो ने सामजिक रीतिरिवाजो के अनुसार उनकी लाश को भी परिजनो ने गंगा में बहा दिया था हरिसिंह की लाश बहती हुई बंगाल जा पहुँची वहाँ एक महात्मा ने हरीसिंह की लाश देखकर उसे जिन्दा कर दिया और अपना शिष्य बना लिया हरिसिंह भी अपने गुरु का परम शिष्य बन गया और गुरु सेवा करते-करते हरिसिंह ने भी बंगाल के अपने गुरु से सारी गुरु विद्या सीख ली और आज उसी गुरु विद्या से समाज सेवा करते हुए सर्पदश से मरे हुए लोगो को जीवन दान देकर अपने जीवन को सार्थक बना रहा है|

जड़ी बूटियों के ज्ञानी सपेरे हरिसिंह लाइलाज बीमारियो को फ्री सेवा भाव से ही ठीक कर देते है| सांप के काटने से मर चुके दर्जनो लोगो को इन्होने जीवन दान देकर उनके परिजनों को बगैर कीमत वसूले सौप है आज वो परिवार जिनके परिजन मृत्यु को प्राप्त हो चुके है और उन युवकों को सपेरे गुरु ने जिन्दा कर के उनके परिजनो को सौपा है वह लोग उनको अपना गुरु मानते हुए भगवान रूपी इंसान मान रहे है| सपेरे हरिसिंह का कहना है कि वह सांप के काटे का इलाज फ्री करते हुए बीन बजाकर सापो की लीला दिखाते हुए साधू-सन्यासी व ब्रम्ह्चर्य जीवन व्यतीत कर रहे है| निस्वार्थ भाव से जड़ी बूटियों के माध्यम से लोगो का फ्री इलाज भी कर देते है संपर्क के लिये इन्होने अपना मोबाइल नंबर भी लोगो को दे रखा है-8941943751 .

मौत के बाद छत्रपाल को जीवन दान देकर सपेरा हरीसिंह अपने कबीलो की परंपरा को बताते हुए बोले की जिन्दा किया हुआ इंसान कम से कम बारह वर्ष तक हमारे साथ रहता है उसके बाद वह अपनी वा पूर्व परिजनो की मर्जी से अपने घर जा सकता है नहीं तो वह जीवन भर हमारे साथ रहे और हमारी तरह बीन बजाये और गुरु शिक्षा ग्रहण करते हुए साधू रूपी जीवन जिये भगवान रूपी सपेरे दावा करते है कि सांप का काटा हुआ इंसान मर जाये और उसके नाक, कान, मुँह से खून नहीं निकला हो तो हम दस दिन एक महीना बाद भी उसे जिन्दा कर लेते है इसी प्रकार जिन्दा किये हुए कई लोग आज अपने परिवार के साथ जिंदगिया जी रहे है| इस काम का हम लोग किसी से कोई रुपया पैसा नहीं लेते है|

हरिसिंह सपेरे बताते है कि सांप के काटे का इलाज सबसे आसान है इस इलाज में इस्तमाल लाने वाला मुख्य यंत्र साइकिल में हवा डालने वाला पम्प होता है इसी पम्प से हम मरे हुए लोगो को पुनः जीवन दान देते है सपेरे हरी सिंह अपने कबीलो के साथ ग्राम शरीफ नगर इटौआ में अपने डेरो समेत रुके है थे और साथ में पड़ोस के गाँव भड़वा नगला के नन्थुलाल का मृतक बेटा भी था अचानक मृतक छत्रपाल की याददाश्त आ गयी और वह स्थानीय लोगो को बताने लगा कि मै पड़ौस के गाँव भड़वा के नन्थुलाल का पुत्र हूँ 14 वर्ष पूर्व साँप के काटे जाने से मौत हो गयी थी सपेरे गुरु हरिसिंह ने अपनी विद्या से मुझे जीवित कर लिया|

इस चमत्कार भरी कहानी सुनते ही पूरे क्षेत्र में अफरा तफरी मच गयी और खबर आग की तरह फैलते हुई पड़ौसी गांव भड़वा नगला के नन्थुलाल तक पहुँच गयी फिर तो ग्रामीण क्या परिजन क्या हजारो की तादात में लोगो का हुजूम सपेरो के काफिलो की तरफ उमड़ पड़ा और होड़ सी मच गयी उस मृतक युवक को जिन्दा देखने के लिये जो 14 वर्ष पूर्व मर गया था आज वह जिन्दा कैसे हो गया है इन तमाम सवालो का जवाब खोजने में लगे लोगो में चर्चा की मुख्य वजह तो थी ही वही मृतक के परिजन भी अन्य ग्रामीणो के साथ सपेरो के डेरे पर पहुँच गये और अपने खोये हुए लाल को पहचानने में जरा सी भी देरी नहीं की और तमाम मिन्नतो और खेरो खुशमात से सपेरो को अपने घर नन्थुलाल ले आया|

ऐसा आपने फ़िल्मी कहानियो में देखा होगा पर यहाँ यह हकीकत है कि पूरा गाँव इस कहानी को चमत्कार मान रहा है कला हो या चमत्कार या फिर जड़ीबूटियों की ताकत पर गुरु सपेरा हरिसिंह किसी भी चमत्कारी से कम नहीं।

क्रांतिकारी पत्रकार थे गणेश शंकर विद्यार्थी

लखनऊ: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन पत्रकारों ने अपनी लेखनी को हथियार बनाकर आजादी की जंग लड़ी थी उनमें गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम अग्रगण्य है। आजादी की क्रांतिकारी धारा के इस पैरोकार ने अपने धारदार लेखन से तत्कालीन ब्रिटिश सत्ता को बेनकाब किया और इस जुर्म के लिए उन्हें जेल तक जाना पड़ा। सांप्रदायिक दंगों की भेंट चढ़ने वाले वह संभवत: पहले पत्रकार थे। उनका जन्म 26 अक्टूबर, 1890 को उनके ननिहाल प्रयाग (इलाहाबाद) में हुआ था। इनके पिता का नाम जयनारायण था। पिता एक स्कूल में अध्यापक थे और उर्दू व फारसी के जानकार थे। विद्यार्थी जी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। पिता के समान ही इन्होंने भी उर्दू-फारसी का अध्ययन किया।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण वह एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, लेकिन उनका स्वतंत्र अध्ययन जारी रहा। विद्यार्थी जी ने शिक्षा ग्रहण करने के बाद नौकरी शुरू की, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों से नहीं पटने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़ दी। पहली नौकरी छोड़ने के बाद विद्यार्थी जी ने कानपुर में करेंसी आफिस में नौकरी की, लेकिन यहां भी अंग्रेज अधिकारियों से उनकी नहीं पटी। इस नौकरी को छोड़ने के बाद वह अध्यापक हो गए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी उनकी योग्यता के कायल थे। उन्होंने विद्यार्थी जी को अपने पास 'सरस्वती' में बुला लिया। उनकी रुचि राजनीति की ओर पहले से ही थी। एक ही वर्ष के बाद वह 'अभ्युदय' नामक पत्र में चले गए और फिर कुछ दिनों तक वहीं पर रहे। सन 1907 से 1912 तक का उनका जीवन संकट में रहा। उन्होंने कुछ दिनों तक 'प्रभा' का भी संपादन किया था। अक्टूबर 1913 में वह 'प्रताप' (साप्ताहिक) के संपादक हुए। उन्होंने अपने पत्र में किसानों की आवाज बुलंद की।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं पर विद्यार्थी जी के विचार बड़े ही निर्भीक होते थे। विद्यार्थी जी ने देशी रियासतों द्वारा प्रजा पर किए गए अत्याचारों का तीव्र विरोध किया। पत्रकारिता के साथ-साथ गणेश शंकर विद्यार्थी की साहित्य में भी अभिरुचि थी। उनकी रचनाएं 'सरस्वती', 'कर्मयोगी', 'स्वराज्य', 'हितवार्ता' में छपती रहीं। 'शेखचिल्ली की कहानियां' उन्हीं की देन है। उनके संपादन में 'प्रताप' भारत की आजादी की लड़ाई का मुखपत्र साबित हुआ। सरदार भगत सिंह को 'प्रताप' से विद्यार्थी जी ने ही जोड़ा था। विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा 'प्रताप' में छापी, क्रांतिकारियों के विचार व लेख 'प्रताप' में निरंतर छपते रहते थे।

महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरुआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वह स्वभाव से उग्रवादी विचारों के समर्थक थे। विद्यार्थी जी के 'प्रताप' में लिखे अग्रलेखों के कारण अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेजा, जुर्माना लगाया और 22 अगस्त 1918 में 'प्रताप' में प्रकाशित नानक सिंह की 'सौदा ए वतन' नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व 'प्रताप' का प्रकाशन बंद करवा दिया।

आर्थिक संकट से जूझते विद्यार्थी जी ने किसी तरह व्यवस्था जुटाई तो 8 जुलाई 1918 को फिर इसकी की शुरुआत हो गई। 'प्रताप' के इस अंक में विद्यार्थी जी ने सरकार की दमनपूर्ण नीति की ऐसी जोरदार खिलाफत कर दी कि आम जनता 'प्रताप' को आर्थिक सहयोग देने के लिए मुक्त हस्त से दान करने लगी। जनता के सहयोग से आर्थिक संकट हल हो जाने पर साप्ताहिक 'प्रताप' का प्रकाशन 23 नवंबर 1990 से दैनिक समाचार पत्र के रूप में किया जाने लगा। लगातार अंग्रेजों के विरोध में लिखने से इसकी पहचान सरकार विरोधी बन गई और तत्कालीन दंडाधिकारी मि. स्ट्राइफ ने अपने हुक्मनामे में 'प्रताप' को 'बदनाम पत्र' की संज्ञा देकर जमानत की राशि जप्त कर ली। कानपुर के हिंदू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी भी शहीद हो गए। उनका पार्थिव शरीर अस्पताल में पड़े शवों के बीच मिला था। 

...यहां देवी-देवता भी खेलते हैं होली!

होली का त्योहार यूं तो पूरे भारत वर्ष में धूमधाम से मनाया जाता है, पर छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में पारम्परिक होली का अंदाज कुछ जुदा है। लोग यहां होली देखने दूर-दूर से आते हैं। यहां होली में होलिका दहन के दूसरे दिन पादुका पूजन व ‘रंग-भंग’ नामक अनोखी और निराली रस्म होती है। इसमें सैकड़ों की संख्या में लोग हिस्सा लेते हैं। मान्यता है कि होलिका दहन स्थल के राख से मंडई में मां दंतेश्वरी आमंत्रित देवी-देवताओं तथा पुजारी व सेवादारों के साथ होली खेलती हैं। इस मौके पर फागुन मंडई के अंतिम रस्म के रूप में विभिन्न ग्रामों से मेले में पहुंचे देवी-देवताओं को विधिवत विदाई भी दी जाती है। यहां का जनसमुदाय इस पारम्परिक आयोजन का जमकर लुत्फ उठाता है।

इस पारम्परिक आयोजन के बारे में मां दंतेश्वरी मंदिर के सहायक पुजारी हरेंद्र नाथ जिया ने बताया कि यहां विराजमान सती सीता की प्राचीन प्रतिमा लगभग सात सौ साल पुरानी है। एक ही शिला में बनी इस प्रतिमा को राजा पुरुषोत्तम देव ने यहां स्थापित किया था। तब से यहां फागुन मंडई के दौरान होलिका दहन और देवी-देवताओं के होली खेलने की परम्परा चली आ रही है। सात सौ साल पुरानी इस प्रतिमा को एक पुलिया निर्माण के चलते फिलहाल एक शनि मंदिर में रखा गया था। अब इस सीता की प्रतिमा की विधिवत स्थापना पुजारी हरेंद्र नाथ जिया व पं. रामनाथ दास ने वैदिक मंत्रोचार के साथ किया। प्रतिमा स्थल पर ऐतिहासिक फागुन मंडई के दौरान आंवरामार रस्म के बाद होलिका दहन की जाती है। यहां जनसमूह की उपस्थिति में बाजा मोहरी की गूंज के बीच प्रधान पुजारी जिया बाबा द्वारा होलिका दहन की रस्म अदा की जाती है। इसे देखने सैकड़ों की संख्या में ग्रामीण मौजूद रहते हैं।

यहां के फागुन मंडई में आंवरामार रस्म के बाद सती सीता स्थल पर होलिका दहन की जाती है। यहां गंवरमार रस्म में गंवर (वनभैंसा) का पुतला तैयार किया जाता है। इसमें प्रयुक्त बांस का ढांचा तथा ताड़-फलंगा धोनी में प्रयुक्त ताड़ के पत्तों से होली सजती है। मंदिर के प्रधान पुजारी पारम्परिक वाद्ययंत्र मोहरी की गूंज के बीच होलिका दहन की रस्म पूरी करते हैं। पूरे देश में जहां होली के अवसर पर रंग-गुलाल खेलकर अपनी खुशी का इजहार किया जाता है, वहीं बस्तर में होली के अवसर पर मेले का आयोजन कर सामूहिक रूप से हास-परिहास करने की प्रथा आज भी विद्यमान है।

इतिहासकारों का कहना है कि बस्तर के काकतीय राजाओं ने इस परम्परा की शुरुआत माड़पाल ग्राम में होलिका दहन से की थी। तब से यह परम्परा जारी है। इन इलाकों में होलिका दहन का कार्यक्रम भी अनूठा है। माड़पाल, नानगूर तथा ककनार में आयोजित किए जाने वाले होलिका दहन कार्यक्रम इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि काकतीय राजवंश के उत्तराधिकारियों द्वारा आज भी सर्वप्रथम ग्राम माढ़पाल में सर्वप्रथम होलिका दहन किया जाता है, इसके बाद ही अन्य स्थानों पर होलिका दहन का कार्यक्रम आरम्भ होता है। माढ़पाल में होलिका दहन की रात छोटे रथ पर सवार होकर राजपरिवार के सदस्य होलिका दहन की परिक्रमा भी करते हैं, जिसे देखने के लिए हजारों की संख्या में वनवासी एकत्रित होते हैं। इस अनूठी परम्परा की मिसाल आज भी कायम है।

आखिर क्यों मनाई जाती है होली


होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्योहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन भी कहते है। दूसरे दिन, जिसे धुरड्डी, धुलेंडी, धुरखेल या धूलिवंदन कहा जाता है, लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाये जाते हैं, और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। इस बार रंगो का यह त्यौहार 23 व 24 मार्च को पड़ रहा है|

आखिर क्यों मनाई जाती है होली-

रंगों से भरा रंगीला त्योहार, बच्चे, वृद्ध, जवान, स्त्री-पुरुष सभी के ह्रदय में जोश, उत्साह, खुशी का संचार करने वाला पर्व है। इसके एक दिन पहले वाले सायंकाल के बाद भद्ररहित लग्न में होलिका दहन किया जाता है। इस अवसर पर लकडियां, घास-फूस, गोबर के बुरकलों का बडा सा ढेर लगाकर पूजन करके उसमें आग लगाई जाती है। वैदिक काल में इस पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधपके अन्न को यज्ञ में दान करके प्रसाद लेने का विधान समाज में व्याप्त था। अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पडा। वैसे होलिकोत्सव को मनाने के संबंध में अनेक मत प्रचलित है। कुछ लोग इसको अग्निदेव का पूजन मानते हैं, तो कुछ इसे नवसंम्बवत् को आरंभ तथा बंसतांमन का प्रतीक मानते हैं। इसी दिन प्रथम पुरुष मनु का जन्म हुआ था। अतः इसे मंवादितिथि भी कहते हैं।

एक कथा के अनुसार इस पर्व का संबंध प्रहलाद से है। हिरण्यकश्यपु ने प्रहलाद को मारने के लिए अनेक उपाय किए पर वह मारा नहीं। हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था। इसलिए हिरण्यकश्यपु ने इस वरदान का लाभ उठाकर लकडियों के ढेर में आग लगवाई। फागुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलाष्टक मनाया जाता है । इसी के साथ होली उत्सव मनाने की शुरु‌आत होती है। होलिका दहन की तैयारी भी यहाँ से आरंभ हो जाती है। इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा वसंतागम के उपलक्ष्य में किया हु‌आ यज्ञ भी माना जाता है। वैदिक काल में इस होली के पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से होली का प्रचलन हु‌आ।

सबसे ज्यादा प्रचलित हिरण्यकश्यप की कथा है, जिसमें वह अपने पुत्र प्रहलाद को जलाने के लि‌ए बहनहोलिका को बुलाता है। जब होलिका प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठती हैं तो वह जल जाती है और भक्त प्रहलाद जीवित रह जाता है। तब से होली का यह त्योहार मनाया जाने लगा है। होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है। कहा जाता है कि फागुन पूर्णिमा – होली के दिन जो लोग चित्त को एकाग्र करके हिंडोले (झूला) में झूलते हु‌ए भगवान विष्णु के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुंठ को जाते हैं।

भविष्य पुराण के अनुसार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा था कि हे राजन! फागुन पूर्णिमा – होली के दिन सभी लोगों को अभयदान देना चाहि‌ए, ताकि सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे और अट्टहास करते हु‌ए यह होली का त्योहार मना‌ए। इस दिन अट्टहास करने, किलकारियाँ भरने तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश होता है।

होली – होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-

अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥

होलिका दहन-

होली पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है। यह दहन सदैव उस समय करना चाहि‌ए जब भद्रा लग्न न हो। ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है। इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है। होलिका दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहि‌ए। ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। दूसरी ओर होलिया का यह त्योहार न‌ई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है।

होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है, जिसे होली – भस्म कहा जाता है, उसे शरीर पर लगाना चाहि‌ए। होली की राख लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥

ऐसा माना जाता है कि होली की जली हु‌ई राख घर में समृद्धि लाती है। साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है।

दुनिया में होली के अनेकों रंग

रंगों का त्यौहार 'होली' का पर्व शुरु हो गया है| होलिका रुपी सामाजिक बुराई और आपसी द्वेष को जड़ से मिटाने का त्यौहार है 'होली'| यह त्यौहार सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के अनेक देशों में धूम-धाम से मनाया जाता है| ये जानकार आपको आश्चर्य होगा कि होली भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों में पूरे उत्साह के साथ मनाया जाता है| इस अवसर पर कई दिनों तक समारोह आयोजित किये जाते हैं और आधिकारिक रूप से होली के आगमन की सूचना दी जाती है|

पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका में भारतीय परंपरा के अनुरूप होली मनाई जाती है| प्रवासी भारतीय दुनिया के जिन-जिन कोनों में जाकर बसे हैं वहां पर होली मनाने की परंपरा है| जिस तरह से भारत में कई प्रकार से होली मनाई जाती है ठीक वैसे ही दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अगल-अलग तरह से होली मनाने का प्रावधान है| कैरिबियाई देशों में लोग इस त्यौहार का बेसब्री से इन्तजार करते हैं|

19वीं सदी के आखिरी और 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय लोग कैरिबियाई देश गए थे| इस दौरान गुआना और सुरिनाम जैसे देशों में बड़ी संख्या में भारतीय जा बसे, जिससे वहां की मिट्टी से भी भारतीय त्यौहारों और रस्मों-रिवाजों की महक आने लगी और लोग धीरे-धीरे इसके रंग में रंगने लगे| वैसे होली को लेकर गुआना में एक अलग ही क्रेज है| गुआना के गांवों में इस अवसर पर विशेष तरह के समारोहों का आयोजन होता है| यहां पर संगीत, नाच-गाना और सांस्कृतिक उत्सवों के जरिए होली मनाई जाती है| यही नहीं अन्य देशों में भी वैसे ही होली मनाई जाती है जैसे कि भारत में|

इसके साथ ही इटली, फ्रांस और अमेरिका में भी होली की धूम होती है| इटली में लोग मूर्तियों का निर्माण करते हैं| इसके बाद इन मूर्तियों को रथ में रखकर जुलूस निकालते हैं| जब ये जुलूस मुख्य चौक पर पहुंचता है तो वहां रखी सूखी लकड़ियों को रथ में रखकर उसमे आग लगा दी जाती है| इस दौरान लोग एक-दूसरे को रंग लगाते हैं और नाच-गाना करते हैं|

इसी तरह फ्रांस में घास से बनी मूर्ति को लोग पूरे शहर में गाजे-बाजे के साथ घूमाते हैं| इसके बाद एक निश्चित स्थान पर पहुंचने पर वह भद्दे शब्द बोलते हुए मूर्ति में आग लगा देते हैं| ऐसा कहा जाता है कि यहां के लोग जिस मूर्ति में आग लगाते हैं वह बुराई की देवी होती है जिसे वह जड़ से खत्म करने के लिए आग के हवाले करते हैं| जर्मनी में भी होली का क्रेज किसी अन्य देश से कम नहीं है| यहां पर होली कुछ अलग तरीके से मनाई जाती है| लोग पेड़ों को काटकर उसके आस-पास घास का ढेर लगा देते हैं| इसके बाद उसमे आग लगाकर परिक्रमा करते हैं| लोग एक-दूसरे के कपड़ों में ठप्पे लगाने के साथ रंग खेलते हैं|

इस तरह होली का त्यौहार सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है| बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाने वाली होली का त्यौहार हमारे संपूर्ण जीवन में रच बस गया है| इस पर्व पर रंग की तरंग में छाने वाली मस्ती वातावरण में आनंद भर देती है और दिल झूमकर इसके रंग में सराबोर हो जाता है|

जानिए क्यों डालते हैं जलती होली में धान या गेंहूँ


लखनऊ: होली बसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन कहते है। होलिका दहन में एक परंपरा जो बरसों से चली आ रही है वह है जलती होली में नया अन्न या धान डालने की| क्या आप जानते हैं कि आखिर जलती होली में धान या नया अन्न क्यों डाला जाता है अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं|

आपको बता दें कि इस परंपरा का कारण हमारे देश का कृषि प्रधान होना है। होलिका के समय खेतों में गेहूं और चने की फसल आती है। ऐसा माना जाता है कि इस फसल के धान के कुछ भाग को होलिका में अर्पित करने पर यह धान सीधा नैवैद्य के रूप में भगवान तक पहुंचता है। होलिका में भगवान को याद करके डाली गई हर एक आहूति को हवन में अर्पित की गई आहूति के समान माना जाता है।

इसके अलावा यह भी मान्यता है कि इस तरह से नई फसल के धान को भगवान को नैवैद्य रूप में चढ़ा कर और फिर उसे घर में लाने से घर हमेशा धन-धान्य से भरा रहता है। इसलिए होलिका में धान डालने की परंपरा बनाई गई। आज भी हमारे देश के कई क्षेत्रों में इस परंपरा का अनिवार्य रूप से निर्वाह किया जाता है। इसलिए याद रहे जब भी आप होलिका दहन में जाएँ तो अपने साथ धान या फिर नया अन्न जरुर लेकर जाएँ|

अश्लील और द्विअर्थी होली गीतों से संस्कृति हो रही दूषित

लखनऊ: एक समय था जब वसंत पंचमी के दिन ही होलिका स्थापित करने के बाद जोगीरा और होली गीतों की मदमस्त राग से वातावरण ओत-प्रोत हो जाता था। तब के होली गीतों में राग-विहाग, सुर लय ताल, साहित्य, विनम्रता, सौम्यता एवं संस्कारित संदेश हुआ करते थे, मगर अफसोस कि अब ऐसा नहीं है। 'होली खेले रघुबीरा अवध में..,' 'गौरा संग लिए शिवशंकर खेलत फाग..,' 'आज बिरज में होरी रे रसिया..,' जैसे कर्णप्रिय होली गीतों पर देर रात तक थिरकते लोग प्रेम एवं मस्ती के सागर में विभोर हो जाया करते थे। अब ऐसे मदमस्त गीत सुनाई नहीं देते। इनका स्थान ले लिया है अश्लील और द्विअर्थी गानों ने।

होली आज अश्लीलता का पर्याय बन गई है। बीच में कुछ फिल्मी होली गीत भी आए जो लोगों की जुबान पर चढ़े तो आज तक नहीं उतरे। जैसे- फिल्म 'सिलसिला' का यह गीत 'रंग बरसे भीगे चुनरवाली, रंग बरसे..' फिल्म 'मदर इंडिया' का गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग बरसे..' और 'कोहिनूर' का गाना 'तन रंग लो जी, मन रंग लो जी' तथा फिल्म 'कटी पतंग' का गाना 'आज न छोड़ेंगे बस हमजोली, खेलेंगे हम होली'.. लेकिन आज के बदलते परिवेश में संस्कारित होली गीतों के मस्ती के सागर में अश्लीलता एवं फूहड़ता का ऐसा प्रदूषण फैल गया है कि इससे समाज का प्रबुद्ध वर्ग मर्माहत है।

वरिष्ठ नागरिकों के मुताबिक आज की होली का स्वरूप तो आंखों से देखा नहीं जाता, गीत परिवार में सुनने लायक नहीं रहे। अपने पुराने दिनों को याद करते हुए ये लोग कहते हैं कि सभी एक साथ मिलकर होली मनाते थे। बुजुर्गों का कहना है कि एक वक्त था जब वास्तव में होली दुश्मनी भुलाकर गले मिलने का पर्व था, अब तो होली के बहाने लोग दुश्मनी निकालने लगे हैं। पहले होली गीतों में देवर-भाभी संवाद-'अखियां त हउवे जैसे ठाकुर जी बुझालें नकिया सुगनवा के ठोर, अस मन करेला की छर देना छींट देतीं, लेइ लेत बबुआ बटोर' जैसे संवाद हुआ करते थे वहीं आज के परिवेश में 'धीरे से रंगवा डालू रे देवरा भीतरा लगेला पाला रे' तथा 'छोड़ब ना तो के पतरकी, चाहे चली लाठी भाला..' आदि बेसिर-पैर और द्विअर्थी संवादों से युक्त होली गीत संस्कृति को दूषित कर रहे हैं।

होलिका दहन 23 को, जानिए क्या है शुभ समय

होली का त्यौहार हमारी पौराणिक कथाओं में श्रद्धा विश्वास और भक्ति का त्यौहार माना गया है तथा साथ ही होली के दिन किये जाने वाले अद्‌भूत प्रयोगों से मानव अपने जीवन में आने वाले संकटों से मुक्ति भी पा सकता है। होली हर वर्ष फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को मनायी जाती है तथा भद्रारहित समय में होली का दहन किया जाता हैं। इस बार होलिका दहन 23 मार्च दिन बुधवार को है| आपको बता दें कि प्रदोष व्यापिनी फाल्गुन पूर्णिमा के दिन भ्रद्रारहित काल में होलिका दहन किया जाता हैं|

होलिका दहन में आहुतियाँ देना बहुत ही जरुरी माना गया है इसलिए याद रहे कि होलिका दहन में आहुतियाँ जरुर दें| होलिका दहन होने के बाद होलिका में जिन वस्तुओं की आहुति दी जाती है, उसमें कच्चे आम, नारियल, भुट्टे या सप्तधान्य, चीनी के बने खिलौने, नई फसल का कुछ भाग है. सप्त धान्य है, गेंहूं, उडद, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर आदि है|

पूजन विधि -

ध्यान रहे होलिका दहन से पहले होली की पूजा की जाती है| जिस वक्त आप होली की पूजा कर रहे हों उस समय आपका मुख पूर्व या उतर दिशा की ओर होना चाहिए उसके पश्चात निम्न सामग्रियों का प्रयोग करना चाहिए| एक लोटा जल, माला, रोली, चावल, गंध, पुष्प, कच्चा सूत, गुड, साबुत हल्दी, मूंग, बताशे, गुलाल, नारियल आदि का प्रयोग करना चाहिए| इसके अलावा नई फसल के धान्यों जैसे- पके चने की बालियां व गेंहूं की बालियां भी सामग्री के रुप में रखी जाती है| इसके बाद होलिका के पास गोबर से बनी ढाल रख दें|

होलिका दहन मुहुर्त समय में जल, मोली, फूल, गुलाल तथा गुड आदि से होलिका की पूजा करें| गोबर से बनाई गई ढाल की चार मालाएं अलग से घर लाकर सुरक्षित रख लें इसमें से एक माला पितरों के नाम की, दूसरी हनुमान जी के नाम की, तीसरी शीतला माता के नाम की तथा चौथी अपने घर- परिवार के नाम की होती है|

होली – होलिका पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-

अहकूटा भयत्रस्तैः कृता त्वं होलि बालिशैः ।
अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम्‌ ॥

होलिका दहन के पश्चात उसकी जो राख निकलती है, जिसे होली – भस्म कहा जाता है, उसे शरीर पर लगाना चाहि‌ए। होली की राख लगाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहि‌ए :-

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रम्हणा शंकरेण च ।
अतस्त्वं पाहि माँ देवी! भूति भूतिप्रदा भव ॥

ऐसा माना जाता है कि होली की जली हु‌ई राख घर में समृद्धि लाती है। साथ ही ऐसा करने से घर में शांति और प्रेम का वातावरण निर्मित होता है।

शुभ मुहूर्त-

होली पूजन के पश्चात होलिका का दहन किया जाता है। यह दहन सदैव उस समय करना चाहि‌ए जब भद्रा लग्न न हो। ऐसी मान्यता है कि भद्रा लग्न में होलिका दहन करने से अशुभ परिणाम आते हैं, देश में विद्रोह, अराजकता आदि का माहौल पैदा होता है। इसी प्रकार चतुर्दशी, प्रतिपदा अथवा दिन में भी होलिका दहन करने का विधान नहीं है। होलिका दहन के दौरान गेहूँ की बाल को इसमें सेंकना चाहि‌ए। ऐसा माना जाता है कि होलिका दहन के समय बाली सेंककर घर में फैलाने से धन-धान्य में वृद्धि होती है। दूसरी ओर होलिया का यह त्योहार न‌ई फसल के उल्लास में भी मनाया जाता है।

तो आइए जाने इस वर्ष क्या है शुभ मुहूर्त-

ज्योतिषियों की माने तो उनका कहना है कि इस बार 22 मार्च को किया जाना था लेकिन इस दिन भद्रा 3.12 बजे से शुरू होकर मध्यरात्रि पश्चात अगले दिन 4.11 बजे तक रहेगी। यह सूर्योदय के पूर्व है, इसलिए 4.11 बजे के बाद होलिका दहन के बाद 23 को धुलेंडी मनाई जा सकती है।