अगर संतान होने में आ रही बाधाएँ तो रखें पुत्रदा एकादशी व्रत

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। पुत्रदा एकादशी का व्रत पौष माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है| इस बार पुत्रदा एकादशी चार जनवरी यानि की बुधवार को है|

पुत्रदा एकादशी व्रत की विधि-

इस एकादशी के दिन भगवान नारायण की पूजा की जाती है| सुबह स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करने के पश्चात श्रीहरि का ध्यान करना चाहिए| सबसे पहले धूप दीप आदि से भगवान् नारायण की पूजा अर्चना की जाती है, उसके बाद फल- फूल, नारियल, पान सुपारी लौंग, बेर आंवला आदि व्यक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार भगवान् नारायण को अर्पित करते हैं| पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा आदि सुनने के पश्चात फलाहार किया जाता है|

पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व- 

इस व्रत के नाम के अनुसार ही इस व्रत का फल है| जिन व्यक्तियों के संतान होने में बाधाएं आती हैं उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत बहुत ही शुभफलदायक होता है| इसलिए संतान प्राप्ति के लिए इस व्रत को व्यक्ति विशेष को अवश्य रखना चाहिए, जिससे उन्हें मनोवांछित फल की प्राप्ति हो|

पुत्रदा एकादशी व्रत कथा-

युधिष्ठिर बोले: श्रीकृष्ण ! कृपा करके पौष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का माहात्म्य बतलाइये । उसका नाम क्या है? उसे करने की विधि क्या है ? उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: राजन्! पौष मास के शुक्लपक्ष की जो एकादशी है, उसका नाम ‘पुत्रदा’ है ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को नाम-मंत्रों का उच्चारण करके फलों के द्वारा श्रीहरि का पूजन करे । नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा नींबू, जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषत: आम के फलों से देवदेवेश्वर श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए । इसी प्रकार धूप दीप से भी भगवान की अर्चना करे ।

‘पुत्रदा एकादशी’ को विशेष रुप से दीप दान करने का विधान है । रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए । जागरण करनेवाले को जिस फल की प्राप्ति होति है, वह हजारों वर्ष तक तपस्या करने से भी नहीं मिलता । यह सब पापों को हरनेवाली उत्तम तिथि है ।

चराचर जगतसहित समस्त त्रिलोकी में इससे बढ़कर दूसरी कोई तिथि नहीं है । समस्त कामनाओं तथा सिद्धियों के दाता भगवान नारायण इस तिथि के अधिदेवता हैं ।

"पूर्वकाल की बात है, भद्रावतीपुरी में राजा सुकेतुमान राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम चम्पा था । राजा को बहुत समय तक कोई वंशधर पुत्र नहीं प्राप्त हुआ । इसलिए दोनों पति पत्नी सदा चिन्ता और शोक में डूबे रहते थे । राजा के पितर उनके दिये हुए जल को शोकोच्छ्वास से गरम करके पीते थे । ‘राजा के बाद और कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो हम लोगों का तर्पण करेगा …’ यह सोच सोचकर पितर दु:खी रहते थे ।

एक दिन राजा घोड़े पर सवार हो गहन वन में चले गये । पुरोहित आदि किसीको भी इस बात का पता न था । मृग और पक्षियों से सेवित उस सघन कानन में राजा भ्रमण करने लगे । मार्ग में कहीं सियार की बोली सुनायी पड़ती थी तो कहीं उल्लुओं की । जहाँ तहाँ भालू और मृग दृष्टिगोचर हो रहे थे । इस प्रकार घूम घूमकर राजा वन की शोभा देख रहे थे, इतने में दोपहर हो गयी । राजा को भूख और प्यास सताने लगी । वे जल की खोज में इधर उधर भटकने लगे । किसी पुण्य के प्रभाव से उन्हें एक उत्तम सरोवर दिखायी दिया, जिसके समीप मुनियों के बहुत से आश्रम थे । शोभाशाली नरेश ने उन आश्रमों की ओर देखा । उस समय शुभ की सूचना देनेवाले शकुन होने लगे । राजा का दाहिना नेत्र और दाहिना हाथ फड़कने लगा, जो उत्तम फल की सूचना दे रहा था । सरोवर के तट पर बहुत से मुनि वेदपाठ कर रहे थे । उन्हें देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ । वे घोड़े से उतरकर मुनियों के सामने खड़े हो गये और पृथक् पृथक् उन सबकी वन्दना करने लगे । वे मुनि उत्तम व्रत का पालन करनेवाले थे । जब राजा ने हाथ जोड़कर बारंबार दण्डवत् किया,तब मुनि बोले : ‘राजन् ! हम लोग तुम पर प्रसन्न हैं।’

राजा बोले: आप लोग कौन हैं ? आपके नाम क्या हैं तथा आप लोग किसलिए यहाँ एकत्रित हुए हैं? कृपया यह सब बताइये ।

मुनि बोले: राजन् ! हम लोग विश्वेदेव हैं । यहाँ स्नान के लिए आये हैं । माघ मास निकट आया है । आज से पाँचवें दिन माघ का स्नान आरम्भ हो जायेगा । आज ही ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है,जो व्रत करनेवाले मनुष्यों को पुत्र देती है ।

राजा ने कहा: विश्वेदेवगण ! यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो मुझे पुत्र दीजिये।

मुनि बोले: राजन्! आज ‘पुत्रदा’ नाम की एकादशी है। इसका व्रत बहुत विख्यात है। तुम आज इस उत्तम व्रत का पालन करो । महाराज! भगवान केशव के प्रसाद से तुम्हें पुत्र अवश्य प्राप्त होगा ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: युधिष्ठिर ! इस प्रकार उन मुनियों के कहने से राजा ने उक्त उत्तम व्रत का पालन किया । महर्षियों के उपदेश के अनुसार विधिपूर्वक ‘पुत्रदा एकादशी’ का अनुष्ठान किया । फिर द्वादशी को पारण करके मुनियों के चरणों में बारंबार मस्तक झुकाकर राजा अपने घर आये । तदनन्तर रानी ने गर्भधारण किया । प्रसवकाल आने पर पुण्यकर्मा राजा को तेजस्वी पुत्र प्राप्त हुआ, जिसने अपने गुणों से पिता को संतुष्ट कर दिया । वह प्रजा का पालक हुआ । 

इसलिए राजन्! ‘पुत्रदा’ का उत्तम व्रत अवश्य करना चाहिए । मैंने लोगों के हित के लिए तुम्हारे सामने इसका वर्णन किया है । जो मनुष्य एकाग्रचित्त होकर ‘पुत्रदा एकादशी’ का व्रत करते हैं, वे इस लोक में पुत्र पाकर मृत्यु के पश्चात् स्वर्गगामी होते हैं। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है ।

भगवान शंकर आखिर क्यों कहलाते हैं कालों के काल - 'महाकाल

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। न उनका जन्म हुआ है, न वह मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान शिव अवतार न होकर साक्षात ईश्वर हैं। भगवान शिव को कई नामों से पुकारा जाता है। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| वे महाकाल भी कहे जाते हैं और कालों के काल भी।

शिव की साकार यानि मूर्तिरुप और निराकार यानि अमूर्त रुप में आराधना की जाती है। शास्त्रों में भगवान शिव का चरित्र कल्याणकारी माना गया है। उनके दिव्य चरित्र और गुणों के कारण भगवान शिव अनेक रूप में पूजित हैं।

आखिर क्यों भगवान शंकर को कालों के काल कहा जाता है, आइये जाने-

आपको बता दें कि देवाधी देव महादेव मनुष्य के शरीर में प्राण के प्रतीक माने जाते हैं| आपको पता ही है कि जिस व्यक्ति के अन्दर प्राण नहीं होते हैं तो उसे शव का नाम दिया गया है| भगवान् भोलेनाथ का पंच देवों में सबसे महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है|

भगवान शिव को मृत्युलोक का देवता माना जाता है| आपको पता होगा कि भगवान शिव के तीन नेत्रों वाले हैं| इसलिए त्रिदेव कहा गया है| ब्रम्हा जी सृष्टि के रचयिता माने गए हैं और विष्णु को पालनहार माना गया है| वहीँ, भगवान शंकर संहारक है| यह केवल लोगों का संहार करते हैं| भगवान भोलेनाथ संहार के अधिपति होने के बावजूद भी सृजन का प्रतीक हैं। वे सृजन का संदेश देते हैं। हर संहार के बाद सृजन शुरू होता है। 

इसके आलावा पंच तत्वों में शिव को वायु का अधिपति भी माना गया है। वायु जब तक शरीर में चलती है, तब तक शरीर में प्राण बने रहते हैं। लेकिन जब वायु क्रोधित होती है तो प्रलयकारी बन जाती है। जब तक वायु है, तभी तक शरीर में प्राण होते हैं। शिव अगर वायु के प्रवाह को रोक दें तो फिर वे किसी के भी प्राण ले सकते हैं, वायु के बिना किसी भी शरीर में प्राणों का संचार संभव नहीं है।

आखिर क्यों रखती हैं लड़कियां सोमवार व्रत

भारतीय संस्कृति में व्रत-उपवासों का बड़ा महत्व है। व्रत कामनापूर्ति और ईश्वर के प्रति सर्मपण का प्रतीक होते है। आप भी यह देखते होंगे कि ज्यादातर लड़कियां सोमवार का व्रत रखती है क्या आपको पता है यह व्रत क्यों रखा जाता है अगर नहीं तो हम आपको बताते हैं कि आखिर लड़कियां क्यों सोमवार व्रत रखती हैं|

आपको बता दें कि ज्यादातर लड़कियां भगवान शंकर को अपना इष्ट देव मानती हैं और उन्ही पर बहुत अधिक आस्था रखती हैं| लड़कियाँ अक्सर इच्छित वर की प्राप्ति के लिए भगवान भोलेनाथ को ही मनाती है। कहा जाता है कि भगवान भोलेनाथ बहुत ही दयालु हैं, जो लडकियों पर कृपा कर उन्हें इच्छित वर देते है।

सोमवार व्रत के नियम- 

-आमतौर पर सोमवार का व्रत तीसरे पहर तक होता है|
- व्रत में अन्न या फल का कोई नियम नहीं है |
- भोजन केवल एक ही बार करती है|
- व्रतधारी को गौरी- शंकर की पूजा करनी चाहिए|
- तीसरे पहर, शिव पूजा करके, कथा कह सुनकर भोजन करना चाहिए|

आइये जाने भगवान शिव के 108 नाम व उनके अर्थ

शास्त्रों में शिव के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ कहलाए, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर पुकारे गए। भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। शिव के इन सभी रूप और सभी नामों का स्मरण मात्र ही हर भक्त के सभी दु:ख और कष्टों को दूर कर हर इच्छा और सुख की पूर्ति करने वाला माना गया है।

आज आपको हम भगवान भोलेनाथ के 108 नामों के बारे में बताते हैं, इतना ही नहीं नामों के साथ- साथ उन सभी नामों का अर्थ भी बताते हैं तो आइये जाने भगवान शिव के कौन- कौन से नाम हैं-

1 शिव - कल्याण स्वरूप

2 महेश्वर - माया के अधीश्वर

3 शम्भू - आनंद स्वरूप वाले

4 पिनाकी- पिनाक धनुष धारण करने वाले

5 शशिशेखर- सिर पर चंद्रमा धारण करने वाले

6 वामदेव- अत्यंत सुंदर स्वरूप वाले

7 विरूपाक्ष- भौंडी आँख वाले

8 कपर्दी - जटाजूट धारण करने वाले

9 नीललोहित - नीले और लाल रंग वाले

10 शंकर - सबका कल्याण करने वाले

11 शूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले

12 खटवांगी -खटिया का एक पाया रखने वाले

13 विष्णुवल्लभ- भगवान विष्णु के अतिप्रेमी

14 शिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वाले

15 अंबिकानाथ - भगवति के पति

16 श्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वाले

17 भक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वाले

18 भव - संसार के रूप में प्रकट होने वाले

19 शर्व - कष्टों को नष्ट करने वाले

20 त्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामी

21 शितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वाले

22 शिवाप्रिय - पार्वती के प्रिय

23 उग्र - अत्यंत उग्र रूप वाले

24 कपाली - कपाल धारण करने वाले

24 कामारी - कामदेव के शत्रुअंधकार

26 सुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वाले

27 गंगाधर - गंगा जी को धारण करने वाले

28 ललाटाक्ष - ललाट में आँख वाले 

29 कालकाल - काल के भी काल

30 कृपानिधि - करूणा की खान

31 भीम - भयंकर रूप वाले

32 परशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वाले

33 मृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वाले

34 जटाधर - जटा रखने वाले

35 कैलाशवासी - कैलाश के निवासी

36 कवची - कवच धारण करने वाले

37 कठोर - अत्यन्त मजबूत देह वाले

38 त्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वाले

39 वृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वाले

40 वृषभारूढ़ - बैल की सवारी वाले

41 भस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वाले

42 सामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वाले

43 स्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वाले

44 त्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वाले

45 अनीश्वर -जिसका और कोई मालिक नहीं है

46 सर्वज्ञ - सब कुछ जानने वाले

47 परमात्मा - सबका अपना आपा

48 सोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वाले

49 हवि - आहूति रूपी द्रव्य वाले

50 यज्ञमय - यज्ञस्वरूप वाले

51 सोम - उमा के सहित रूप वाले 

52 पंचवक्त्र अर्थात जो पांच मुख वाले

53 सदाशिव - नित्य कल्याण रूप वाल

54 विश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वर

55 वीरभद्र -बहादुर होते हुए भी शांत रूप वाले

56 गणनाथ - गणों के स्वामी

57 प्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वाले

58 हिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वाले

59 दुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वाले

60 गिरीश - पहाड़ों के मालिक

61 गिरिश -कैलाश पर्वत पर सोने वाले

62 अनघ -पापरहित

63 भुजंगभूषण - साँप के आभूषण वाले

64 भर्ग - पापों को भूंज देने वाले

65 गिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वाले

66 गिरिप्रिय - पर्वत प्रेमी

67 कृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वाले

68 पुराराति- पुरों का नाश करने वाले

69 भगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्न

70 प्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपति

71 मृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वाले

72 सूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वाले

73 जगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वाले

74 जगद्गुरू - जगत् के गुरू

75 व्योमकेश - आकाश रूपी बाल वाले

76 महासेनजनक - कार्तिकेय के पिता

77 चारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वाले

78 रूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वाले

79 भूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामी

80 स्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वाले

81 अहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वाले

82 दिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वाले

83 अष्टमूर्ति - आठ रूप वाले

84 अनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वाले

85 सात्त्विक - सत्व गुण वाले

86 शुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वाले

87 शाश्वत - नित्य रहने वाले

88 खण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वाले

89 अज - जन्म रहित

90 पाशविमोचन- बंधन से छुड़ाने वाले

91 मृड - सुखस्वरूप वाले

92 पशुपति - पशुओं के मालिक

93 देव - स्वयं प्रकाश रूप

94 महादेव -देवों के भी देव

95 अव्यय- खर्च होने पर भी न घटने वाले

96 हरि - विष्णुस्वरूप

97 पूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वाले

98 अव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वाले

99 दक्षाध्वरहर- दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वाल

100 हर - पापों व तापों को हरने वाले

101 भगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वाले

102 अव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वाले

103 सहस्राक्ष- अनंत आँख वाले

104 सहस्रपाद- अनंत पैर वाले

105 अपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वाले

106 अनंत- देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहित

107 तारक - सबको तारने वाला

108 परमेश्वर- सबसे परे ईश्वर

घर के बाहर क्यों बनाए जाते हैं पैरों के निशान

आपने ज्यादातर घरों में एक चीज जरूर देखी होगी वह है किसी के घर के प्रवेश द्वार पर रंगोली या कुमकुम से पैरों के निशान बने| क्या आपको पता है यह पैरों के निशान क्यों बनाये जाते हैं, अगर नहीं तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि हिन्दू धर्म व संस्कृति में घर के बाहर रंगोली बनाना अति आवश्यक होता है क्योंकि कुमकुम या रंगोली से बने पैरों के निशान शुभ शगुन माना जाता है|

आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि शास्त्रों के अनुसार यह पैरों के निशान माता लक्ष्मी के माने जाते हैं, देवी के पैरों के निशान मुख्य द्वार के पास जमीन पर लगाना चाहिए। अगर घर के बाहर कुमकुम के छोटे-छोटे पैर बारह महीने बने रहें तो इसके भी अनेक लाभ होते हैं|

आपको बता दें कि अगर आपके घर के बाहर देवी लक्ष्मी के चरणों के निशान बने हैं तो इससे सभी देवी-देवताओं की शुभ दृष्टि हमारे घर और सदस्यों पर सदैव बनी रहती है। इसके आलावा अशुभ ग्रहों का बुरा प्रभाव भी कम होता है। इतना ही नहीं आपके घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगेगी और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है। 

इसलिए अगर आपके घर के बाहर माता लक्ष्मी के पैरों के निशान नहीं बने हैं तो आप भी बना लें क्योंकि इससे पॉजिटिव ऊर्जा मिलती है|

आइये जाने मकर संक्रांति पर क्यों खाते हैं खिचड़ी

मकर संक्रान्ति हिन्दुओं के प्रमुख पर्व के रूप में मनाया जाता है| पौष मास में सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के अवसर पर इस पर्व को मनाया जाता है| इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है और दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं|

मकर संक्रान्ति का आध्यात्मिक रूप से भी विशेष महत्व है| क्या आपको पता है की इस दिन लोग खिचड़ी क्यों खाते हैं अगर नहीं तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि मकर संक्राति के मौके पर नये चावल की खिचड़ी बनाकर सूर्य देव एवं कुल देवता को प्रसाद स्वरूप भेट करने की परंपरा है। लोग इस दिन एक दूसरे के घर खिचड़ी भेजते हैं और सुख शांति की कामना करते हैं। इस प्रथा के पीछे एक कारण यह है कि भारत कृषि प्रधान देश है। कृषि का आधार सूर्य देव को माना गया है। इसलिए सूर्य का आभार प्रकट करने के लिए नये धान से पकवान एवं खिचड़ी बनाकर सूर्य देवता को भोग लगाते हैं। 

खिचड़ी तो आप लोग हर दिन बनाकर खाते हैं लेकिन मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी का स्वाद अनुपम होता है। मकर संक्राति की खिचड़ी नये चावल, उड़द की दाल, मटर, गोभी, अदरक, पालक एवं अन्य तरह की सब्जियों को मिलाकर तैयार की जाती है। इस खिचड़ी में आस्था का स्वाद भी मिला होता है जो अन्य दिनों की खिचड़ी में नहीं होता है। आपको पता है इस तरह सब्जियों को मिलाकर खिचड़ी बनाने की परम्परा की शुरूआत करने वाले बाबा गोरखनाथ थे। ऐसी मान्यता है कि बाबा गोरखनाथ भगवान शिव के अंश हैं। इसलिए इनके द्वारा शुरू की गयी परम्परा लोग श्रद्धापूर्वक निभाते चले आ रहे हैं।

किसी कार्य के शुभारंभ से पहले क्यों फोड़ते हैं नारियल


आपको पता होगा की कोई भी होम हो, कथा हो पूजा हो या फिर विवाह हो नारियल की पूर्ण आहुति के बिना संपन्न नहीं होता है। क्या आपको पता है कि आखिर किसी भी होम या पूजा में नारियल क्यों तोड़ते हैं अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिरकार कथा या पूजा या किसी भी कार्य का शुभारंभ करने से पहले नारियल फोडऩा जरूरी क्यों होता है?

आपको बता दें कि नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। पूजा में हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि नारियल तोड़ने का कारण अनिष्ट शक्तियों के संचार पर अंकुश लगाना उन्हें प्रसन्न करना। इसलिए प्रथम नारियल फोडकर स्थान देवता का आवाहन कर वहां की स्थानीय अनिष्ट शक्तियों को नियंत्रित करने की उनसे प्रार्थना की जाती है। प्रार्थना द्वारा स्थान देवता के आवाहन से उनकी कृपा स्वरूप नारियल-जल के माध्यम से स्थान देवता की तरंगें सभी दिशाओं में फैलती हैं। इससे कार्यस्थल में प्रवेश करने वाली कष्टदायी स्पंदनों की गति पर अंकुश लगाना संभव होता है। 

माना जाता है इससे उस परिसर में स्थान-देवता की सूक्ष्म-तरंगोंका मंडल तैयार होता है व समारोह निर्विघ्न संपन्न होता है।

नारियल का एक उपयोग देवी या देवता के स्थान पर फोड़ने में होता है, फोड़ने में ऎसी कुशलता होनी चाहिए चाहिए कि रस छलककर पूरा का पूरा देवता के चरणों पर पड़े, कहीं अन्यत्र नहीं। यह फोड़ना आसान नही होता।

हर समस्या का समाधान है नींबू


हर मनुष्य की कोई न कोई समस्या जरुर होती है| अगर आप भी किसी समस्या या परेशानी को लेकर उलझे हुए हैं तो अब आपको उलझाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि किसी ने सच ही कहा है दुनिया में हर छोटी- बड़ी समस्या का हल निकाला जा सकता है। आपको बता दें कि हर समस्या या संकट का समाधान हो जाता है मां काली की पूजा से। भक्तों से शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में से एक हैं मां काली। माता अपने भक्तों के सभी कष्ट और क्लेश पलभर में दूर कर देती हैं। 

उपाय:-

किसी समस्या के निदान के लिए प्रतिदिन सुबह के समय स्नानादि करके मां काली के मंदिर जाएँ| मां काली को सात, ग्यारह या इक्कीस नींबूओं की माला बनाकर चढ़ाएं । उसके बाद मां के मस्तस्क पर गुलाब के फूल चढ़ाएं और लाल गुलाब की माला अर्पित करें। इसके बाद मां काली को गुड के प्रसाद का भोग लगाएं। ऐसा लगातार एक माह तक करने से आपके कष्ट जल्दी ही कम होने लगेंगे और आपका जीवन सुखी और समृद्धिशाली बना रहेगा|

अगर हो सके तो हमेशा मां काली के दर्शन करने जाएँ और मां काली को गुड का भोग लगायें|

अगर नहीं हो रही है शादी तो करो यह आसान उपाय


वर्तमान समय में योग्य युवक-युवती न मिलने के कारण शादी-विवाह में बहुत अड़चने आती हैं। कई बार विवाह योग्य उम्र निकल भी जाती है। अगर किसी विवाह योग्य लड़के या लड़की के विवाह में बार-बार कोई बाधा आ रही है तो कुछ उपाय दिए जा रहे हैं यह अपनाएं, निश्चित ही सकारात्मक फल मिलेगा| 

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि जिन लड़कों की शादी नहीं हो पा रही है, उन्हें धन की देवी मां लक्ष्मी की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि वे शुक्र की अधिष्ठात्री देवी हैं और शुक्र विवाह का कारक है। इसके अलावा जिन लड़कियों की शादी में देरी हो रही हो, उन्हें गौरी पूजा करनी चाहिए और माँ दुर्गा की प्रतिमा या चित्र के सामने ज्यादा-से-ज्यादा बार मां दुर्गा का स्त्रोत-पाठ करना चाहिए। 

इसके अलावा अगर आप चाह रहें कि आपकी चट मंगनी पट विवाह हो जाये तो आप एक आसान उपाय करें जिससे आपकी चट मंगनी पट विवाह हो जायेगा| उपाय यह है कि जल्दी शादी के लिए हर सोमवार को किसी प्राचीन शिव मंदिर में जाकर शिवलिंग पर दो मुखी रूद्राक्ष के साथ बिल्वपत्र चढ़ाएं। 

इसके अलावा धतूरे के वृक्ष में रविवार से शुरू कर 40 दिन तक अनुष्ठान करें। 40 दिन के अंदर विवाह हो जाएगा। अनुष्ठान यह है कि रविवार को सुबह उठकर वृक्ष के वृक्ष में जल चढ़ाएं, जल चढ़ाते समय 108 बार मंत्र ऊं घृणि: सूर्याय नम:, एवं 10 बार ऊं अर्काय नम: बोलकर सूर्य को प्रणाम करें। 

आखिर शिव मंदिर में क्यों होती है नंदी की मूर्ति

आप जब भी शिव मंदिर में भगवान भोलेनाथ के मंदिर में दर्शनों के लिए जाते हैं तो आपने देखा होगा कि देवाधि देव महादेव के साथ उनका बैल नंदी जरुर होता है| क्या आप जानते हैं कि भगवान भोलेनाथ के मंदिर में उनके सामने नंदी क्यों बैठाया जाता है और उसका मुंह शंकर की तरफ ही क्यों किया जाता है? अगर नहीं तो आज हम आपको बताते हैं|

आपको बता दें कि भगवान शंकर के मंदिर में उनके सामने उनकी सवारी नंदी को इसलिए स्थापित करते हैं क्योंकि शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ यानी मेहनत का प्रतीक है। अब सवाल यह बनता है कि नंदी शिवलिंग की ओर ही मुख करके क्यों बैठा होता है? जानते हैं दरअसल नंदी का संदेश है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है।

जिस प्रकार नंदी की नज़र भगवान शंकर की तरफ होती हैं उसी तरह हमारी नजर भी आत्मा की ओर होनी चाहिए| इस प्रकार हर मनुष्य को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। आपको बता दें कि भगवान शंकर की सवारी नंदी का इशारा यही होता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। 

बुरी नज़र से बचने के लिए क्यों बांधते हैं काला धागा

क्या आपको पता है कि छोटे बच्चों या लड़कियों की सुंदरता को किसी भी बुरी नजर न लगे इसके लिए उन्हें काला धागा क्यों बांधा जाता है| अगर नहीं पता है तो हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार बताते हैं कि बुरी नजर लगने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी हो सकते हैं।

आप भी जानते हैं कि हमारा शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है। यह पंच तत्व हैं- पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और आकाश। इन्हीं पंच तत्वों से मिलने वाली ऊर्जा ही हमारे शरीर का संचालन करती हैं। इनसे मिलने वाली ऊर्जा से ही हम सभी सुविधाओं को प्राप्त करते हैं। जब किसी इंसान की बुरी नजर हमारी सुविधाओं को लगती है तब इन पंच तत्वों से मिलने वाली संबंधित सकारात्मक ऊर्जा हम तक नहीं पहुंच पाती है। इसीलिए गले में काला धागा बांधा जाता है।

अगर हम बुरी नज़र से बचने के लिए काले धागे के प्रयोग की बात करें तो इसकी वैज्ञानिक मान्यता यह है कि काला रंग उष्मा का अवशोषक होता है। यह माना जाता है कि काला धागा बुरी नजर को या बुरा ऊर्जाओं को अवशोषित कर लेता है व उनका प्रभाव हम पर नहीं पडऩे देता है। यही वजह है कि बुरी नज़र से बचने के लिए काला धागा बांधा जाता है| इसके आलावा बुरी नज़र से बचने के लिए लोग काला टीका भी लागते है|

पूजा करते समय आखिर क्यों ढका जाता है सिर

अगर आप कहीं पूजा में या मंदिर जाते होंगे तो आपने देखा होगा कि लोग पूजा करते समय या पूजा में बैठते समय अपने सिर को ढक लेते हैं| क्या आपको पता है पूजा करते समय आखिर क्यों ढका जाता है सिर| 

आपको बता दें कि हमारी परंपरा में सिर को ढकना स्त्री और पुरुषों सबके लिए आवश्यक किया गया था। सभी धर्मों की स्त्रियां दुपट्टा या साड़ी के पल्लू से अपना सिर ढंककर रखती थी। इसीलिए मंदिर या किसी अन्य धार्मिक स्थल पर जाते समय या पूजा करते समय सिर ढकना जरूरी माना गया था। 

लेकिन सिर ढकने का एक वैज्ञानिक कारण भी है| दरअसल सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील भाग होता है। ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है। मौसम के मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों पर आते हैं। इसीलिये सिर को ढक लिया जाता है| 

इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है। इसलिए इन सब से बचने के लिए औरतें और पुरुष अपना सिर ढक लेते हैं| 

इसी कारण सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल था। इसके बाद धीरे-धीरे समाज की यह परंपरा बड़े लोगों को या भगवान को सम्मान देने का तरीका बन गई। साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि सिर के मध्य में सहस्त्रारार चक्र होता है। पूजा के समय इसे ढककर रखने से मन एकाग्र बना रहता है। इसीलिए नग्न सिर भगवान के समक्ष जाना ठीक नहीं माना जाता है। 

यह मान्यता है कि जिसका हम सम्मान करते हैं या जो हमारे द्वारा सम्मान दिए जाने योग्य है उनके सामने हमेशा सिर ढककर रखना चाहिए। इसीलिए पूजा के समय सिर पर और कुछ नहीं तो कम से कम रूमाल ढक लेना चाहिए। इससे मन में भगवान के प्रति जो सम्मान और समर्पण है उसकी अभिव्यक्ति होती है।

23 जनवरी को है मौनी अमावस्या

 किसी भी महीने की अमावस्या जब सोमवार को होती है, तो उसे सोमवती अमावस्या कहते है| हिन्दू ग्रंथों में माघ मास को बेहद पवित्र माना जाता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। दुख दरिद्र और सभी को सफलता दिलाने वाली मौनी अमावस्या 23 जनवरी दिन सोमवार को पड़ने जा रही है। इस बार अमावस्या सोमवार के दिन पड़ने से सोने पर सुहागा से कम नहीं है। इस दिन सूर्य और चंद्रमा मकर राशि में समान अंश पर होंगे। इसके बाद यह दुर्लभ संयोग के लिए 20 साल का इंतजार करना होगा। यानी 20 जनवरी 2036 को मौनी अमावस्या के साथ सोमवती अमावस्या के योग बनेंगे। 

मौनी अमावस्या का महत्व-

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सूर्य तथा चन्द्रमा गोचरवश मकर राशि में आते हैं| ऐसा माना गया है कि इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| लोगों का यह भी मानना है कि इस दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरुपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी, इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| 

मौनी अमावस्या में स्नान करने की विधि-

माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं। यह योग पर आधारित महाव्रत है । मान्यताओं के अनुसार इस दिन पवित्र संगममें देवताओं का निवास होता है इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस मास को भी कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। गंगा तट पर इस करणभक्त जन एक मास तक कुटी बनाकर गंगा सेवन करते हैं। इस दिन व्यक्ति विशेष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान, पुण्य तथा जाप करने चाहिए| यदि किसी व्यक्ति की सामर्थ्य त्रिवेणी के संगम अथवा अन्य किसी तीर्थ स्थान पर जाने की नहीं है तब उसे अपने घर में ही प्रात: काल उठकर दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करना चाहिए अथवा घर के समीप किसी भी नदी या नहर में स्नान कर सकते हैं क्योंकि पुराणों के अनुसार इस दिन सभी नदियों का जल गंगाजल के समान हो जाता है| स्नान करते हुए मौन धारण करें और जाप करने तक मौन व्रत का पालन करें| इस दिन व्यक्ति प्रण करें कि वह झूठ, छल-कपट आदि की बातें नहीं करेगें| 

इस दिन क्यों रखा जाता है मौन-

विद्वानों के अनुसार इस दिन व्यक्ति विशेष को मौन व्रत रखना चाहिए| मौन व्रत का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना चाहिए| धीरे-धीरे अपनी वाणी को संयत करके अपने वश में करना ही मौन व्रत है| कई लोग इस दिन से मौन व्रत रखने का प्रण करते हैं | वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि कितने समय के लिए वह मौन व्रत रखना चाहता है| 

प्रत्येक मनुष्य के अंदर तीन प्रकार का मैल होता है| कर्म का मैल, भाव का मैल तथा अज्ञान का मैल| इन तीनों मैलों को त्रिवेणी के संगम पर धोने का महत्व है| त्रिवेणी के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के अंदर स्थित मैल का नाश होता है और उसकी अन्तरआत्मा स्वच्छ होती है, इसलिए व्यक्ति को इस दिन मौन व्रत धारण करके ही स्नान करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी के संगम में मौनी अमावस्या के दिन स्नान करने से सौ हजार राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है अथवा इस दिन संगम में स्नान करना और अश्वमेघ यज्ञ करना दोनों के फल समान है|

मौनी अमावस्या की कथा-

प्राचीन समय में कांचीपुरी में देवस्वामी नाम का ब्राह्मण रहता था| उसकी पत्नी का नाम धनवती था| देवस्वामी की आठ संताने थी| सात पुत्र और एक पुत्री थी| उसकी पुत्री का नाम गुणवती था| ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्र के विवाह के बाद अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश में अपने सबसे बडे़ पुत्र को भेजा| उसी दौरान किसी ज्योतिषी ने कन्या की कुण्डली देखकर कहा कि विवाह समाप्त होते ही वह विधवा हो जाएगी| इससे देवस्वामी तथा अन्य सदस्य चिन्तित हो गये| देवस्वामी ने गुणवती के वैधव्य दोष के निवारण के बारे में ज्योतिषी से पूछा तब उसने कहा कि सिंहल द्वीप में सोमा नाम की धोबिन रहती है| सोमा का पूजन करने से गुणवती के वैधव्य दोष का निवारण हो सकता है| आप किसी भी प्रकार सोमा को विवाह होने से पहले यहाँ बुला लें| यह सुनने के पश्चात गुणवती और उसका सबसे छोटा भाई सिंहल द्वीप की ओर चल दिए| सिंहल द्वीप सागर के मध्य स्थित था| दोनों बहन-भाई सागर तट पर एक वृक्ष के नीचे सागर को पार करने की प्रतीक्षा में बैठ गए| दोनों को सागर पार करने की चिन्ता थी\ उसी वृक्ष के ऊपर एक गिद्ध ने अपना घोंसला बना रखा था| उस घोंसले में गिद्ध के बच्चे रहते थे\ जब शाम को गिद्ध अपनी पत्नी के साथ घोंसलें में लौटा तब उसके बच्चों ने बताया कि इस वृक्ष के नीचे बहन-भाई सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं| जब तक वह दोनों खाना नहीं खाएंगें, हम भी भोजन ग्रहण नहीं करेगें|

गिद्ध ने दोनों बहन-भाइयों को भोजन कराया तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा तब उन्होंने सारा वृतांत सुनाया| सारी बातें जानने के बाद गिद्ध ने उन्हें सिंहल द्वीप पर पहुंचाने का अश्वासन दिया| अगले दिन सुबह ही गिद्ध ने दोनों को सिंहल द्वीप पहुंचा दिया| सिंहल द्वीप पर आने के बाद दोनों बहन-भाइयों ने सोमा धोबिन के घर का काम करना शुरु कर दिया| सारे घर की साफ सफाई तथा घर के अन्य कार्य दोनों बहन-भाई बहुत ही सफाई से करने लगे| सुबह सोमा जब उठती तब उसे हैरानी होती कि कौन यह सब कम कर रहा है| सोमा ने अपनी पुत्रवधु से पूछा तब उसने बडे़ ही चतुराई से कहा कि हम करते हैं और कौन करेगा| सोमा को अपनी बहु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसने उस रात जागने का निर्णय किया| तब सोमा ने देखा कि गुणवती अपने छोटे भाई के साथ सोमा के घर का सारा कार्य निबटा रही है| सोमा उन दोनों से बहुत प्रसन्न हुई और उनके ऎसा करने का कारण पूछा तब उन्होंने गुणवती के विवाह तथा उसके वैधव्य की बात बताई|

सोमा ने गुणवती को आशीर्वाद दिया, लेकिन दोनों बहन-भाई सोमा से अपने साथ विवाह में चलने की जिद करने लगे| सोमा उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गई और अपनी पुत्रवधु से कहा कि यदि परिवार में किसी कि मृत्यु हो जाती है तब उसका अंतिम संस्कार ना करें, मेरे घर आने की प्रतीक्षा करें| गुणवती का विवाह होने लगा| विवाह समाप्त होते ही गुणवती के पति का देहांत हो गया| सोमा ने अपने अच्छे कर्मों के बल पर गुणवती के मरे हुए पति को अपने आशीर्वाद से दोबारा जीवित कर दिया, लेकिन ऎसा करने पर सोमा के सभी अच्छे कर्म समाप्त हो गये और सिंहल द्वीप पर रहने वाले उसके परिवार के सदस्यों का देहान्त हो गया| 

सोमा ने वापस अपने घर जाते हुए रास्ते में ही अपने संचित कर्मों को फिर से एकत्रित करने की बात सोची और रास्ते में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा की और पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की| ऎसा करने पर उसके परिवार के मृतक सदस्य दोबारा जीवित हो गये, सोमा को उसके नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल मिल गया|