इस तरह हुआ द्रोणाचार्य का जन्म...?

महाभारत वह महाकाव्य है जिसके बारे में जानता तो हर कोई है लेकिन आज भी कुछ ऐसे चीजें हैं जिसे जानने वालों की संख्या कम है| क्या आपको पता है गुरु द्रोणाचार्य का जन्म कैसे हुआ था? हुआ कुछ यूँ कि एक बार भरद्वाज मुनि गंगा स्नान को गए थे वहाँ पर उन्होंने घृतार्ची नामक एक अप्सरा को गंगा स्नान कर निकलते हुये देख लिया। उस अप्सरा को देख कर उनके मन में काम वासना जागृत हुई और उनका वीर्य स्खलित हो गया जिसे उन्होंने एक यज्ञ पात्र में रख दिया। 

कालान्तर में उसी यज्ञ पात्र से द्रोण की उत्पत्ति हुई। द्रोण अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, "वत्स! तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो।" द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, "हे गुरुदेव! आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा।" इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।

शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। उनके उस पुत्र के मुख से जन्म के समय अश्व की ध्वनि निकली इसलिये उसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पांचाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, "मित्र! मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।" इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, "तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं।"

अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये और कृपाचार्य के घर गुप्त रूप से रहने लगे। एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोण से राजकुमारों ने गेंद को कुएँ से निकालने लिये सहायता माँगी। द्रोण ने कहा, "यदि तुम लोग मेरे तथा मेरे परिवार के लिये भोजन का प्रबन्ध करो तो मैं तुम्हारा गेंद निकाल दूँगा।" युधिष्ठिर बोले, "देव! यदि हमारे पितामह की अनुमति होगी तो आप सदा के लिये भोजन पा सकेंगे।" द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया।

इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये।

पर्दाफाश से साभार 

शेर की मांद में कर रहे थे सेक्स तभी.......

जिम्बाब्वे में एक प्रेमी जोड़े के साथ ऐसी घटना घटी जिसे सुनकर आप भी हैरान हो जायेंगे| यहाँ एक प्रेमी युगल जंगल घूमने गया था जंगल में घूमते-घूमते दोनों को एक शेर की मांद दिखाई दी| फिर क्या था फ़ौरन दोनों शेर की मांद की तरफ मुड़ गए वहां जाकर दोनों को सहवास करने की इच्छा हुई लेकिन हुआ वहीँ जो सोचा नहीं था| मिली खबर के मुताबिक, शराई मावेरा नाम की लड़की अपने प्रेमी के साथ जंगल में घूमने गई थी। वही दोनो ने शेर की गुफा देख सेक्स करने की सोची। उन्होंने शेर की मांद में अपना बिस्तर बना लिया। लेकिन उनकी यह सोच उनके लिए खतरनाक साबित हुई।

बताते हैं कि जब वह सेक्स कर रहे थे, उसी दौरान शेर अपनी मांद में आ धमका| मांद में प्रेमी जोड़े को देखकर शेर ने उन पर हमला कर दिया। हमले में लड़की की मौके पर ही मौत हो गई, जबकि लड़का भागने में कामयाब रहा। लेकिन यह क्या जब वह भागते भागते मुख्य सड़क पर पहुंचा तो लोगों ने उसे पागल बताते हुए पुलिस के हवाले कर दिया| क्योंकि लड़का नग्नावस्था में था| लड़का बार-बार कहता रहा ‌कि मेरी गर्लफ्रेंड खतरे में है, लेकिन जब तक पुलिस को मामला समझ में आता लड़की की मौत हो चुकी थी।

मनीषा कोइराला कैंसर को मात दे घर वापस लौटीं

बॉलीवुड अभिनेत्री मनीषा कोइराला गर्भाशय के कैंसर के इलाज के लिए 6 महीनो से अमेरिका में रह रहीं थीं। कैंसर के इस जानलेवा बीमारी को मात देने के बाद बुधवार की शाम मुंबई लौट आई। मनीषा कोइराला के चेहरे पर एक नयी चमक दिख रही थी। 

मनीषा के प्रबंधक सुब्रोतो घोष ने बताया कि मनीषा भारत पहुंच गई हैं और अब वह पूरी तरह स्वस्थ हैं। वह पहले की ही तरह सुंदर दिख रही हैं। घोष ने कहा कि यहां पहुंचने के बाद वह सीधा अंधेरी स्थित अपने घर गईं। जब डॉक्टरों ने उसके पूरी तरह स्वस्थ होने की घोषणा की तब उन्होंने इसे अपना पुनर्जन्म बताया। 

खबरों की मानें तो शादी के बाद से ही मनीषा और उनके पति के बीच अनबन रहती थी। मनीषा परेशान रहने लगीं थी और कई मौकों पर उन्‍हें ज्‍यादा शराब पीते देखा गया जिससे उन्‍हें कैंसर होने का खतरा बढ़ गया था। अब वह पूरी तरह से ठीक होने के बाद वापस अपने घर आ गई है।

राझणां: बनारस की खट्टी मीठी लव स्टोरी

बैनर : इरोज इंटरनेशनल
निर्माता : कृषिका लुल्ला
निर्देशक : आनंद एल. राय
संगीत : एआर रहमान
कलाकार : धनुष, सोनम कपूर, अभय देओल, मोहम्मद जीशान अय्यूब, स्वरा भास्कर

शुक्रवार को पर्दे पर मोस्ट 'राझणां' ने रिलीज हुई है फिल्म को उम्मीद से ज्यादा अच्छी प्रतिक्रियाएं मिली हैं। निर्देशक आनंद एल रॉय की फिल्म 'रांझणा' बनारस की पृष्ठ भूमि पर एक खट्टी मीठी लव स्टोरी है। रांझणा' कुंदन (धनुष) और जोया(सोनम) की प्रेम कहानी है। जोया बनारस की रहने वाली मुश्लिम परिवार की लड़की है। जोया को उनके पड़ोस में रहने वाला कुंदन ‘धनुष’ जो की हिन्दू है। एक तरफ प्‍यार करना शुरू कर देता है। इस बात का पता जब जोया के परिवार को लगता है तो वे उसको पढ़ने के लिए अलीगढ़ भेज देते हैं, और फिर आगे की पढ़ाई के लिए दिल्‍ली चली जाती है। दिल्‍ली पहुंचते ही जोया की जिन्‍दगी में अकरम ‘अभय देओल’ आता है। इस बीच जोया वापस बनारस लौटती है, और उसकी मुलाकात पुराने पागल प्रेमी से कुंदन से होती है। जोया कुंदन का इस्‍तेमाल कर अपने मां बाप को अकरम से शादी करवाने के लिए राजी करती है। इस दौरान कुछ घटनाक्रम घटते हैं, जो कहानी को रोमांचक बनाते हैं।

कुंदन का किरदार निभा रहे घनुष की अभिनय क्षमता दर्शकों की निगाह में हीरो बना देता है। रजनीकांत के दामाद धनुष ने अपनी पहली फिल्‍म में दिखा दिया कि उनमें काफी संभावनाएं हैं। वे बॉलीवुड में लम्‍बी पारी खेल सकते हैं। धनुष के संवादों की हिंदी डबिंग ठीक-ठाक हो गयी है। धनुष ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है। पूरी फिल्म में बेचारे आशिक की भूमिका उन्होंने अच्छी तरह से निभायी है। फिल्म में रोमांस और कॉमेडी दृश्‍यों को अच्छी तरह दर्शकों के सामने पेश किया गया है । यह फिल्म सोनम कपूर के लिए एक बड़ा मौका थी। 'आयशा' फिल्म की तरह सोनम कपूर इस फिल्म में भी सुंदर तो बहुत दिखी हैं लेकिन जज्बाती दृश्यों में उनकी कलई खुल जाती है। गेस्ट रोल में अभय देओल ने अपनी छवि के अनुरूप ही काम किया है। कुंदन को एकतरफा प्रेम करने वाली लड़की की भूमिका में स्वरा भास्कर और दोस्त के रूप में मोहम्‍मद जीशान अयूब अच्छे लगे हैं। जीशान इससे बड़ी भूमिका पाने की का‌बलियत रखते हैं। नाट्यकर्मी अरविंद गौड़ ने इस फिल्म से अपने फिल्मी अभिनय की पारी शुरू की है।

हिमांशु शर्मा की कहानी ताज़ा तरीन है और वाराणसी की झलक साफ़ नज़र आती है। स्क्रीनप्ले में अच्छा खासा हास्य है और भावनाओं को भी बेहतरीन तरीके से व्यक्त किया गया है। फिल्म के संबाद काफी रोचक हैं। फिल्म में एक प्यार की मासूमियत को दर्शाने की पूरी कोशिश की गई इसमें हिमांशु काफी हद तक कामयाब भी हुयें हैं। गाने इस फिल्म की खूबसूरती हैं। खूबसूरती इस बात में भी कि कोई भी गाना फिल्म की कहानी को नहीं रोकता है। सभी गाने दिल को छू लेने वालें हैं। पिया मिलेंगे, रांझणा हुआ, बनारसिया गाने सुनने में बेहद खूबसूरत लगते हैं। इरशाद कामिल ने हर सिचुएशन के लिए गाना लिखा है। एआर रहमान ने लिरिक्स और सिचुएशन के हिसाब से शानदार म्यूजिक तैयार किया है। कुल मिलाकर आनंद एल रॉय ने कहानी को एक जोरदार ढंग से दर्शकों के सामने पेश किया। फिल्म की कहानी, इसके गाने आपको बोर नहीं करेंगे।

The hottest & popular screen idols: Devon Ke Dev-Madadev's Mohit Raina, Ramayana's Ram Arun Govil

The face of the Indian television changed when the mythological serials were introduced to it. Amid high TRP race, still, the mythological soaps and the actors have been making waves. 

Be it the current hottest Mohit Raina who plays Lord Shiva in Life Ok’s Devon Ke Dev Mahadev or others.

Indian audience whole-heartedly accepted it. In fact, the people fell in love with the shows made a point to watch it; they use to make themselves available to watch these shows. The characters that played the roles of the Hindu Gods were recognized with their character names in real life and accorded a lot of respect and was loved by everyone.

‘Ramayan’, ‘Krishna’, ‘Jai Hanuman’ were among the most famous mythological serials. The characters who played the roles in the mythological series received huge admiration from the audience.

The most famous actors of these shows are Arun Govil, Sarvadaman D. Banerjee and Sanjay Khan.

Arun Govil who essayed the role of Hindu mythological God Ram, got very popular amongst the audience. In fact, still few recall him as the actor who played Ram.

Sarvadaman D. Banerjee is an another actor who shot to fame with a mythological serial that portrayed the story of lord Krishna, the actor played the role of the Hindu God ‘Krishna’ in it. 

Sanjay Khan is another name that became popular amongst the people for its role in ‘Jai Hanuman’. He played the role of Hindu god Hanuman.

Another most popular mythological character running these days is of Lord Shiva in the serial ‘ Devon K Dev..Mahadev’ actor Mohit Raina is receiving lot of appreciation, love and respect for his role.

Well, the popularity of television stars that were a part of the mythological series proves that whether its older generation or today’s both love to watch them.

जब भाई ने देखी बहन की अश्लील वीडियो तो.......

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में बड़ा ही अजीबो गरीब मामला प्रकाश में आया है| यहाँ एक लड़की जो घरों में घुस-घुसकर लड़कियों का पहले अश्लील एमएमएस बनाती और बाद में उसे मोबाइल की दुकानों पर बेच देती| 

सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक, यह मामला बाराबंकी के सफदरगंज थाना क्षेत्र का है| सूत्र बताते है कि यहाँ एक लड़की ने अपने ही पड़ोस में रहने वाली दूसरी लड़की की नहाते समय अश्लील वीडियो बना ली और उसके बाद उसे अपने दोस्तों और मोबाइल की दुकानों पर बेच दिया। बाजार में बिक रही उस अश्लील वीडियो क्लिप्स को जब लड़की के भाई ने देखा हक्का-बक्का रह गया।

लड़की के भाई ने इस मामले को लेकर सम्बंधित थाने में उस लड़की के खिलाफ मामला दर्ज करा दिया है| पीड़िता के भाई ने बताया है कि उसकी बहन का अश्लील एमएमएस बनाने वाली लड़की देह व्यापार करती है। वह इलाके में कई लड़कियों का अश्लील एमएमएस बना चुकी है। वह गांव में काफी अश्लीलता फैला रही है। उसने यह भी बताया यह लड़की वीडियो बनाकर मोबाइल की दुकानों पर अपलोड और डाउनलोड करने वालों से सौदा करती है। फिलहाल पुलिस अभी तक आरोपी लड़की को गिरफ्तार नहीं कर सकी|

केदारनाथ में पूजा-अर्चना करने जाना चाहते हैं संत

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में फंसे लोगों को सुरक्षित वापसी के लिए सुरक्षा बलों के संघर्ष के बीच साधु-संतों ने केदारनाथ जा कर पूजा-अर्चना करने की इच्छा जताई है। द्वारका के शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने पारंपरिक पूजा अर्चना के लिए उत्तराखंड सरकार से आपदा का शिकार हुए तीर्थ क्षेत्र में जाने देने की अनुमति मांगी है।


यहां कनखल में साधुओं की बैठक के बाद सरस्वती ने मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से उन्हें केदारनाथ जाने देने की अनुमति मांगी है। उन्होंने केदारनाथ महादेव की उखीमठ में अर्चना शुरू किए जाने का विरोध जताया। उखीमठ सर्दियों में शिव का स्थान होता है। एक साधु ने कहा, "गर्मियों में भगवान शिव को किसी दूसरे स्थान पर ले जाने का कोई प्रावधान नहीं है।" बादल फटने के बाद तीर्थ क्षेत्र में मलबा और गाद भर जाने से कपाट बंद कर दिए गए। सोमवार को केदारनाथ से प्रतिमा पूजा अर्चना के लिए उखीमठ लाई गई। 


नवंबर महीने में सर्दियां शुरू हो जाने के बाद भगवान शिव की पवित्र प्रतिमा केदारनाथ से उखीमठ लाई जाती है जहां उनकी इस अवधि में पूजा अर्चना की जाती है। मई के पहले सप्ताह में प्रतिमा फिर से केदारनाथ में स्थापित कर दी जाती है। यही समय होता है जब मंदिर के कपाट तीर्थयात्रियों के लिए खोल दिए जाते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से हजारों लाखों की तादाद में श्रद्धालु तीर्थयात्रा के लिए यहां पहुंचते हैं।


हिंदू चंद्र पंचांग के मुताबिक हर वर्ष कार्तिक मास के पहले दिन तीर्थ का कपाट बंद कर दिया जाता है और वैशाख में कपाट खोला जाता है। बंद रहने के दौरान तीर्थस्थल बर्फ से ढंका होता है और भगवान की पूजा उखीमठ में होती है। इस वर्ष केदारनाथ यात्रा 14 मई से शुरू हुई थी।

देसी 'आम' हुए 'खास'

छत्तीसगढ़ में मौसम ने देसी आम को खास बना दिया है। फसल कमजोर पड़ने से अचारी आम भी आम लोगों के पहुंच से दूर हो गए हैं। शुरुआती दौर में बौर देखकर प्रदेश के ज्यादातर जिलों में रिकार्ड उत्पादन की संभावना जताई जा रही थी, पर बार-बार बदलते मौसम ने आम की फसल को पूरी तरह से खराब कर डाला है। इस कारण इस वर्ष भी लोगों को आम का स्वाद लेना महंगा पड़ रहा है। प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में वसंत के आगमन के साथ ही उन्नत नस्ल के आम के पेड़ों पर लगे बौर से किसानों के चेहरे पर रौनक आ गई थी। वहीं देसी प्रजाति के आम के पेड़ों में भी बौर आने शुरू हो गए थे। उम्मीद की जाने लगी थी कि इस साल आम की फसल काफी अच्छी होगी, मगर मौसम ने पानी फेर दिया।

गौरतलब है कि पिछले चार साल से खराब मौसम के कारण छत्तीसगढ़ में आम की फसल कम हुई है। हवा-पानी के कारण भी समय-समय पर बौर झड़ गए, जिससे आम के रसीले खट्ठे-मीठे स्वाद से ज्यादातर लोग वंचित रह गए थे। इस वर्ष पेड़ों में बौर लगने के बाद बारिश नहीं होने के कारण बौर भी खराब हो गए थे। प्रदेश के जशपुर जिले में बड़ी संख्या में किसान आम की खेती करते हैं। देसी के साथ-साथ उन्नत प्रजाति के आम के बागान भी यहां बड़ी संख्या में लगाए गए हैं, जिसे इस वर्ष मौसम ने खराब कर दिया। इससे किसानों को लाखों रुपये का नुकसान होगा।

जिले में 4020 हेक्टेयर में आम के पौधे लगे हुए हैं, जिनसे 15678 किसान फसल लेते हैं। इस वर्ष आखरी समय में मौसम की बेरुखी से आम का फसल खराब हो गया है, जिससे 50 से 60 प्रतिशत उत्पादन में गिरावट आ गई। इसी तरह की स्थिति कुछ और जिलों में भी देखने को मिली हैं। महासमुंद, धमतरी, दुर्ग, बेमेतरा और कवर्धा में भी आम का उत्पादन लेनेवाले किसान हताश और निराश हैं।

प्रदेश के आम विक्रेताओं का कहना है कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष फसल अच्छी होने की संभावना थी और प्रदेश में खासकर जशपुर जिले के आम उत्पादक आम के पेड़ पर पर्याप्त बौर होने से संतुष्ट नजर आ रहे थे। फल झड़ जाने जाने के कारण आम के उत्पादक निराश नजर आ रहे हैं। 

कृषक सुनील पाटले ने बताया कि हाईब्रिड पेड़ के बौर पहले ही झड़ गए थे। यहां देसी के अलावा चौसा, लंगड़ा, दशहरी, फजलीह, बाम्बेग्रीन जैसी उन्नत प्रजातियों के आम का भी अच्छा उत्पादन होता है। देसी आम स्थानीय बाजार में खप जाते हैं। वहीं उन्नत प्रजाति के आम को रायपुर, बिलासपुर, झारसुगुड़ा, खरसिया सहित जगह अन्य जगहों में निर्यात किया जाता है। 

कृषकों के बागानों के साथ-साथ उद्यानिकी विभाग के बागानों में आम की फसल चौपट होने से जिले सहित अन्य राज्यों के लोगों को रसीले आमों का स्वाद नहीं मिल पाएगा। इस संबंध में उद्यान अधीक्षक सियाराम सिंह यादव कहते हैं कि इस वर्ष बेहतर मौसम के बाद भी आम की फसल 50 प्रतिशत कम हुई है। यही वजह है कि लोकल आम भी ज्यादा कीमतों पर बिक रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में, खासकर जशपुर क्षेत्र में जून-जुलाई में आम के फल की तोड़ाई होती है, जिससे यहां के किसानों को अच्छा भाव मिल जाता था। हाईब्रीड आम जहां चांपा, बिलासपुर, रायपुर, झारखंड ओडिशा के क्षेत्रों में जाते थे, वहीं आचार के लिए देसी आम की भी खूब मांग रहती है। इस समय जिस अनुपात में फल निकल रहा है वह पर्याप्त नहीं है। जिसके कारण दाम बढ़ गए हैं। जहां हाईब्रीड आम 40 से 80 रुपये किलो बिक रहे हैं, वहीं देसी आम 20 से 25 रुपये किलो बिक रहे हैं जो अन्य वर्षो की तुलना में काफी अधिक हैं।

pardaphash se saabhar

उत्तराखंड त्रासदी: दोस्त के शव के साथ गुजारे 7 दिन

चारधाम की यात्रा पर उत्तराखंड गए मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के बुजुर्ग पूरन सिंह उन चंद सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जो जीवित घर वापस लौट आए हैं। लेकिन पूरन सिंह की आंखें नम हैं। वह उस खौफनाक मंजर को भूला नहीं पा रहे हैं, जब उनके बचपन के दोस्त दरियाव सिंह उनसे हमेशा के लिए जुदा हो गए। 

पूरन सिंह ने फिर भी अपने दोस्त का साथ और हाथ नहीं छोड़ा। उन्होंने दरियाव सिंह के शव के साथ पहाड़ों पर सात दिन गुजारे। पूरन सिंह जैसे कई और लोग भी हैं, जिन्होंने उत्तराखंड की इस आपदा में अपनों को खो दिया है। 

राजगढ़ के सारंगपुर के पूरन व दरियाव (65 वर्ष) बचपन से दोस्त थे और दोनों ने एकसाथ केदारनाथ के दर्शन करने की योजना बनाई थी। जिस समय प्रकृति का यह कहर इलाके पर बरसा, दोनों गौरीकुंड क्षेत्र में थे। तेज हवाओं के साथ बारिश हुई। पहाड़ ढहने लगे। 

पूरन बताते हैं कि उन्होंने किसी तरह पहाड़ पर शरण ली। वे तो किसी तरह बच गए, मगर उनका बचपन का दोस्त ठंड, भूख व प्यास के चलते साथ छोड़ गया। वे विषम हालात में पहाड़ पर अपने दोस्त दरियाव सिंह के शव के साथ पड़े रहे। उसके बाद सेना की मदद से उन्हें व दरियाव के शव को हरिद्वार लाया गया। 

पूरन सिंह को इस बात का अफसोस है कि वह पूण्य कमाने केदारनाथ गए थे, मगर घर लौटे दोस्त का शव लेकर। यह अकेले पूरन की कहानी नहीं है, बाल्कि मध्य प्रदेश के कई परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने अपनों को खोया है। जबलपुर के जे. पी. जाट और उनकी पत्नी की आंखों से आंसू थम नहीं रहे हैं। दोनों ने अपनी बेटी को जो खो दिया है। वे बताते हैं कि बेटी, दामाद व नाती के साथ वे उत्तराखंड गए थे। बाढ़ में उनकी बेटी बह गई तो दामाद उसकी खोज में लगा है। वे तो अपने साथ नाती को लेकर लौट आए हैं। 

राज्य सरकार ने आपदा में फंसे लोगों को घर तक लौटाने के लिए बोईंग विमान का इंतजाम किया है। सोमवार को इस विमान से 331 यात्री भोपाल व इंदौर पहुंचे हैं। इन सभी को सड़क मार्ग से उनके घरों तक भेजा गया है। उत्तराखंड से यात्रा कर सकुशल लौटे यात्री बाढ़ व पहाड़ ढहने की घटना को याद कर सिहर जाते हैं, वे सवाल भी कर रहे हैं कि आखिर भगवान के दरबार में ऐसा क्यों हुआ।

पर्दाफाश से साभार 

फलने से पहले ही बर्बाद हुए किन्नौर के सेब


पिछले सप्ताह मौसम के कहर का हिमाचल प्रदेश के सेब पर भी काफी बुरा असर पड़ा। इस प्राकृतिक आपदा में लगभग आधे किन्नौरी सेब नष्ट हो गए। किन्नौर के लोकप्रिय लाल और स्वर्णिम सेब अपनी मिठास, रंग, रस और टिकाऊपन के लिए विख्यात हैं।

बागवानी मंत्री विद्या स्टोक्स ने मंगलवार को कहा, "पूरे किन्नौर में हुई बर्बादी चौंकाने वाली है। सूचना के मुताबिक कुछ क्षेत्रों में पूरा बागीचा ही समाप्त हो गया है।"स्टोक्स ने कहा कि बागवानी विशेषज्ञ जिला मुख्यालय रेकांग पियो पहुंच चुके हैं। वे जल्द ही वास्तविक नुकसान का अनुमान लगाने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच जाएंगे।

वे उत्पादकों को क्षतिग्रस्त बागीचे के पुनरुद्धार में भी मदद करेंगे। स्टोक्स खुद भी सेब उत्पादक हैं। उन्होंने कहा कि 50 से 60 फीसदी तक सेब की फसल को नुकसान पहुंचा है। किन्नौर में सेब का उत्पादन 10 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर होता है। जिले में प्रमुख सेब क्षेत्र सांग्ला और पूह प्रखंड में हैं, जो सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक किन्नौर में साधारण तौर पर 20 किलो वाली लगभग 20 लाख पेटियों का उत्पादन होता है, जो राज्य की कुल उपज का छह से सात फीसदी है। रेकांग पीयो के बागवानी विकास अधिकारी जगत नेगी ने कहा, "राज्य के अन्य हिस्सों की तरह हमें इस मौसम में किन्नौर से भी 25 से 30 लाख पेटियों के उत्पादन की उम्मीद थी। लेकिन अब यह 15 लाख पेटियों से अधिक नहीं होगा।"

उन्होंने कहा कि 16 से 18 जून तक हुई भारी बारिश से सांग्ला घाटी में अचानक बाढ़ आ गई और वहां भूस्खलन के कारण समूचा बागीचा नष्ट हो गया। नेगी ने कहा कि अधिक ऊंचाइयों पर भी बेमौसम भारी बर्फबारी के कारण सेब के पेड़ नष्ट हो गए। पूह में बेमौसम बर्फबारी और मूसलाधार बारिश के कारण फसल को नुकसान पहुंचा। इसी तरह सेब के कई अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए। अधिकारियों ने कहा कि बारिश से प्रभावित हुए क्षेत्रों के दौरे पर पहुंचे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह बर्बादी को देखकर स्तब्ध रह गए। लाहौल-स्पीति के सेब के फसल हालांकि इस प्राकृतिक विनाश से लगभग बचे रहे गए हैं।

पर्दाफाश 

..यहाँ के लखपति मांगते हैं भीख

अभी तक आपने यही सुना होगा की भिखारी ही भीख मांगते है लेकिन एक ऐसी खबर सुनकर आप हैरान हो जायेंगे| खबर है मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की जहाँ भिखारी नहीं बल्कि करोड़पति भीख मांगते नज़र आते हैं| यह सुनकर आपको आश्चर्य जरुर हुआ होगा लेकिन यह सच है| 

दरअसल, बैतूल जिले में एक गाँव है रानाडोंगरी| इस गाँव की खास बात यह है कि इनके पास सारीसुख सुविधाएं होने की बावजूद यह लोग भीख मांगते हैं| बताया जाता है कि वसदेवा जाति के लोगों में भीख मांगने का पुश्तैनी रिवाज है। घर का मुखिया अपनी वंश परंपरा को निभाने के लिए भिखारी बनता है। 

इस जाति के लोगों का यह मानना है कि इनका मानना है कि अगर ये भीख नहीं मांगेंगे तो इनके पूर्वज और देवता नाराज हो जाएंगे। महिलाएं घर में बच्चों और जानवरों की देखभाल करती हैं और पुरूष दीपावली के बाद भगवान की पूजा करके भीख मांगने के लिए घर से निकल पड़ते हैं और बरसात आते- आते पुनः घर वापस लौट आते हैं| 

उसके बाद ये लोग 'हरदूलाल बाबा' की पूजा करते हैं। इस बाबा का मंदिर गांव के मध्य में है। चैत्र के महीने में आखिरी मंगलवार के दिन गांव की सभी महिलाएं हाथ में कटोरा लेकर पांच घरों से भीख मांगकर अनाज इकट्ठा करती हैं। इसके बाद हरदूलाल बाबा के मंदिर के पास भीख में प्राप्त अनाज से भोजन बनाती हैं और बाबा को भोग लगाती हैं। पूजा के बाद सभी लोग इसी प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इस दिन किसी के घर भोजन नहीं बनता है।

.यहाँ लॉटरी के लिए देवी-देवताओं की नहीं 'लट्ठ' की होती है पूजा!

नॉम पेन (कम्बोडिया)| मनचाही मुराद पाने के लिए लोग देवी- देवताओं की पूजा करते हैं लेकिन कंबोडिया के पुरसात प्रांत में लोग लॉटरी लगने के लिए किसी देवी- देवताओं की पूजा नहीं लट्ठ की पूजा करते हैं यह सुनकर आपको हैरानी जरुर हुई होगी लेकिन यह सच है| 

प्राप्त जानकारी के अनुसार, पुरसात प्रांत के प्रे यींग गांव में लॉटरी लगने और मनचाही मुरादें पूरी करने के लिए लोग 13 मीटर लंबे एक लट्ठ की पूजा करने के साथ-साथ यहां प्रसाद भी चढ़ाते हैं। 

इस चमत्कारी लट्ठ के बारे में गाँव के मुखिया कहते हैं कि यह लट्ठ एक माह तालाब से मिटटी निकालने के दौरान मिला| मुखिया यह भी बताते हैं कि कुछ लोगों ने चमत्कारी लट्ठ को हुआ तो उनकी लॉटरी लग गई| 

अब यहाँ लोग अपनी मनचाही मुराद पाने के लिए किसी देवी- देवता की नहीं बल्कि इस लट्ठ की पूजा करते है| इतना ही नहीं कुछ अन्धविश्वासी लोग तो इसके ऊपर टेलकम पाउडर छिड़क देते हैं उनका मानना है कि टेलकम पाउडर छिड़कने से लट्ठ पर भाग्यशाली नंबर उभरकर आ जायेगा| कुछ लोग अपनी बीमारी को दूर करने के लिए उस तालाब का पानी पीते हैं और उसका कीचड़ शरीर में लगाते हैं जिस तालाब से यह लट्ठ मिला था|

...यहाँ दो रूपों में पूजे जाते हैं हनुमान

कुंभ नगरी के नाम से पूरी दुनिया में विख्यात इलाहाबाद संगम के किनारे रामभक्त हनुमान का एक अनूठा मन्दिर है जहाँ बजरंग बली की लेटी हुई प्रतिमा की पूजा की जाती हैं| इसके पीछे हनुमान हनुमान के पुनर्जन्म की कथा जुड़ी हुई है| पौराणिक कथाओं के मुताबिक, लंका विजय के बाद भगवान् राम जब संगम स्नान कर भारद्वाज ऋषि से आशीर्वाद लेने प्रयाग आए तो उनके सबसे प्रिय भक्त हनुमान इसी जगह पर शारीरिक कष्ट से पीड़ित होकर मूर्छित हो गए| पवन पुत्र को मरणासन्न अवस्था में देख सीता जी ने उन्हें अपनी सुहाग के प्रतीक सिन्दूर से नई जिंदगी दी और हमेशा स्वस्थ और निरोग रहने का आशीर्वाद प्रदान किया| बजरंग बली को मिले इस नए जीवन को अमर बनाने के लिए 700 साल पहले कन्नौज के तत्कालिन राजा ने यहाँ यह मन्दिर स्थापित किया था| यहाँ स्थापित हनुमान की अनूठी प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल होने का दर्जा भी हासिल है और बजरंगबली यहाँ 2 रूपों मे पूजे जाते हैं|

आपको बता दें कि बजरंग बली की यहाँ दो रूपों में पूजा होती है| सुबह शिव रूप में उन्हे जल चढाया जाता है तो शाम को आकर्षक श्रृंगारकर भव्य आरती की जाती है| शक्ति के प्रतीक और शहर की सीमा पर होने की वजह से मन्दिर में लगी इस प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल भी कहा जाता है| यूँ तो यहाँ हर दिन देश के कोने- कोने से भक्त आते हैं लेकिन हमेशा निरोग रहने व अन्य कामनाओं को लेकर यहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं| 

इसके अलावा एक अन्य पौरानिंक कथा के अनुसार, एक बार एक व्यापारी हनुमान जी की भव्य मूर्ति लेकर जलमार्ग से चला आ रहा था। वह हनुमान जी का परम भक्त था। जब वह अपनी नाव लिए प्रयाग के समीप पहुँचा तो उसकी नाव धीरे-धीरे भारी होने लगी तथा संगम के नजदीक पहुँच कर यमुना जी के जल में डूब गई। कालान्तर में कुछ समय बाद जब यमुना जी के जल की धारा ने कुछ राह बदली। तो वह मूर्ति दिखाई पड़ी। उस समय मुसलमान शासक अकबर का शासन चल रहा था। उसने हिन्दुओं का दिल जीतने तथा अन्दर से इस इच्छा से कि यदि वास्तव में हनुमान जी इतने प्रभावशाली हैं तो वह मेरी रक्षा करेगें। 

यह सोचकर उनकी स्थापना अपने किले के समीप ही करवा दी। किन्तु यह निराधार ही लगता है। क्योंकि पुराणों की रचना वेदव्यास ने की थी। जिनका काल द्वापर युग में आता है। इसके विपरीत अकबर का शासन चौदहवीं शताब्दी में आता है। अकबर के शासन के बहुत पहले पुराणों की रचना हो चुकी थी। अतः यह कथा अवश्य ही कपोल कल्पित, मनगढ़न्त या एक समुदाय विशेष के तुष्टिकरण का मायावी जाल ही हो सकता है।

जो सबसे ज्यादा तार्किक, प्रामाणिक एवं प्रासंगिक कथा इसके विषय में जनश्रुतियों के आधार पर प्राप्त होती है, वह यह है कि रामावतार में अर्थात त्रेतायुग में जब हनुमानजी अपने गुरु सूर्यदेव से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करके विदा होते समय गुरुदक्षिणा की बात चली। भगवान सूर्य ने हनुमान जी से कहा कि जब समय आएगा तो वे दक्षिणा माँग लेंगे। हनुमान जी मान गए। किन्तु फिर भी तत्काल में हनुमान जी के बहुत जोर देने पर भगवान सूर्य ने कहा कि मेरे वंश में अवतरित अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम अपने भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ प्रारब्ध के भोग के कारण वनवास को प्राप्त हुए हैं। वन में उन्हें कोई कठिनाई न हो या कोई राक्षस उनको कष्ट न पहुँचाएँ इसका ध्यान रखना। 

सूर्यदेव की बात सुनकर हनुमान जी अयोध्या की तरफ प्रस्थान हो गए। भगवान सोचे कि यदि हनुमान ही सब राक्षसों का संहार कर डालेंगे तो मेरे अवतार का उद्देश्य समाप्त हो जाएगा। अतः उन्होंने माया को प्रेरित किया कि हनुमान को घोर निद्रा में डाल दो। भगवान का आदेश प्राप्त कर माया उधर चली जिस तरफ से हनुमान जी आ रहे थे। इधर हनुमान जी जब चलते हुए गंगा के तट पर पहुँचे तब तक भगवान सूर्य अस्त हो गए। हनुमान जी ने माता गंगा को प्रणाम किया। तथा रात में नदी नहीं लाँघते, यह सोचकर गंगा के तट पर ही रात व्यतीत करने का निर्णय लिया।

...यहाँ शनिदेव का होता है दुग्धाभिषेक

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुद्रष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है।

अभी तक आपने यही सुना होगा कि शनिदेव पर तेल या काला तिल ही चढ़ाया जाता है लेकिन मध्य प्रदेश के इंदौर में शनिदेव पर तेल नहीं बल्कि दूध चढ़ाया जाता है| यह सुनकर आपको अचम्भा जरुर लगा होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है| इंदौर के जूना में एक शनिदेव का ऐसा मंदिर है जहाँ शनि को तेल नहीं बल्कि उनका दुग्धाभिषेक किया जाता है| इतना ही नहीं यहां शनि देव को सुंदर वस्त्रों एवं मालाओं से भी सजाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मंदिर 700 वर्ष पुराना है। इस मंदिर में शनि देव की प्रतिमा के विषय में कथा है कि, शनि देव ने एक अंधे व्यक्ति को सपने में आकर अपनी प्रतिमा के विषय में बताया। जब वह व्यक्ति शनि देव द्वारा बताये गये स्थान पर पहुंचा तब उसकी आंखों की रोशनी लौट आयी और गांव वालों की मदद से प्रतिमा को मंदिर में लाया गया।

वही स्थानीय लोग शनिदेव का दूसरा चमत्कार यह बताते हैं कि प्रतिमा मंदिर में स्थापित करने के कुछ दिनों बाद शनि जयंती के दिन यह प्रतिमा अपने स्थान से हटकर दूसरे स्थान पर पहुंच गयी। वर्तमान में यह प्रतिमा उसी स्थान पर है। जहां पहले शनि की प्रतिमा स्थापित की गयी थी उस स्थान पर अब राम जी की प्रतिमा स्थापित है।

यहाँ के एक व्यक्ति ने बताया है कि इस मंदिर में प्रत्येक शनिवार, अमवस्या, ग्रहण और शनि जयंती के दिन बड़ी संख्या में लोग शनि देव के दर्शनों के लिए आते हैं। शनि जयंती के अवसर पर यहां एक हफ्ते का मेला लगता है और लोग शनि देव की पूजा अर्चना करके शनि दोष से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।

...यहाँ मां बनने के बाद होती है शादी

अगर आपसे कोई यह कहे कि मैंने एक ऐसी शादी देखी है जिसमें बच्चे को जन्म देने के बाद ही किसी लड़की की शादी होती है यह सुनकर आपको हैरानी जरुर होगी लेकिन यह सौ फीसदी सच है| यह खबर किसी गैर देश की नहीं है बल्कि अपने ही देश की है|

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी क्षेत्र में टोटोपाड़ा कस्बे में एक जनजाति रहती है 'टोटो' है। इस आदिम जनजाति की परंपरा और रहन सहन सब कुछ आनोखा है। यहां शादी का नियम बहुत ही अलग है। यहां विवाह से पहले लड़की का मां बनना अनिवार्य है।


इस जनजाति में लड़के को जो लड़की पसंद आती है उसे लड़का रात में लेकर चुपचाप भाग जाता है। इसके बाद लड़की एक साल तक उस लड़के के साथ उसके घर में रहती है। इस बीच लड़की मां बन जाती है तो उसे विवाह योग्य मान लिया जाता है फिर लड़का और लड़की के परिवार वाले मिलकार दोनों की शादी करवा देते हैं। 

इतना ही नहीं अगर कोई लड़का या लड़की शादी तोड़ना चाहे तो वह बहुत कठिन है| अगर कोई लड़का अथवा लड़की शादी तोड़ना चाहे तो उसे विशेष पूजा का आयोजन करना पड़ता है जो शादी से भी अधिक खर्चीला होता है। इसमें सूअर की बलि दी जाती है।

..यहाँ सूत बांधने से उतरता है ज्वर

एक ऐसा चमत्कारिक शिला जिसके चारों तरफ कच्चा धागा बांधकर यदि मन्नत माँगी जाए तो पुराना सा पुराना ज्वर ठीक हो जाता है| यह सुनकर आपको बड़ा अजीबो- गरीब लगा होगा| आप सोच रहे होंगे कि यदि ऐसा हो जाता तो डाक्टरों और हकीमों की क्या जरुरत| लेकिन यह सच है यह शिला ऊधमपुर जिले के टिकरी इलाके के दरयाबड में स्थित है| मान्यता है कि यह शिला एक दुल्हन की डोली है, जिसने अपने पति द्वारा एक ग्वाले से मजाक में लगाई शर्त को पूरा करने के लिए अपने प्राण त्यागकर डोली व दहेज सहित शिला रूप ले लिया था।


किंवदंती के मुताबिक, एक बारात इस इलाके से गुजर रही थी। दुल्हन को तेज प्यास लगने पर उसने पानी मांगा। पानी की बावली दूर पहाडी के नीचे थी। थके हुए दूल्हे व बारातियों में वहां से पानी लाने की हिम्मत न थी। इसी दौरान दूल्हे की नजर वहां बकरियां चरा रहे एक ग्वाले पर पडी, जो चोरी-छुपे दुल्हन को देख रहा था। उसने ग्वाले को बेवकूफ बनाकर पानी मंगवाने के लिए उसे अपने पास बुलाया और कहा कि यदि वह एक ही सांस में नीचे से पानी लेकर ऊपर आयेगा तो दुल्हन उसकी हो जाएगी।


सीधा-साधा ग्वाला उसकी बातों में आ गया। दूल्हे ने पानी लाने के लिए ग्वाले को दहेज के सामान में से एक गडवा निकाल कर दिया। तय शर्त के मुताबिक ग्वाला एक ही सांस में पानी लेकर ऊपर तो पहुंच गया, लेकिन पानी का गडवा दूल्हे को सौंपते ही उसके प्राण निकल गए।


दुल्हन को पानी पिलाने के बाद जब बारात चलने लगी, तो पति ने सारी बात अपनी पत्‍‌नी को बताई। जिसके मुताबिक अब वह ग्वाले की पत्‍‌नी बन चुकी है। इसके बाद दुल्हन ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके सती होते ही दुल्हन, ग्वाला व डोली शिला में तबदील हो गए। साथ ही दुल्हन का सारा दहेज भी पत्थर में बदल गया। इस घटना के बाद से ही इस शिला का नाम लाडा लाडी दा टक्क नाम पड़ा| इस पत्थर के चहरों तरफ सफ़ेद सूत बांधा नज़र आता है| खार ठीक होने के लिए मांगी गई मन्नत की निशानी है।


ग्रामीणों के मुताबिक, यहाँ सती हुई दुल्हन का वास माना जाता है| ग्रामीणों का कहना है कि यहाँ हर मन्नत पूरी हो जाती है लेकिन ज्वर के मामले में यह जगह सबकी आजमाई हुई है| बताते हैं कि जिस व्यक्ति का लम्बे समय तक बुखार नहीं टूटता है वह कच्चा धागा अपने सिर से लेकर पैरों तक नाप लेता है उसके बाद उस सिले के चारों तरफ लपेटकर मन्नत मांगता है| धागा बंधने के अगले दो दिन में बुखार जड़ से ख़त्म हो जाता है|

...यहाँ जन्म पर मातम व मौत पर मनाते हैं जश्न

आमतौर पर यही सुनते आ रहे है कि जब किसी के यहाँ बच्चे के जन्म होता है तो लोग ख़ुशी से झूम उठते हैं वहीँ, यदि किसी की मौत हो जाती है तो लोग मातम मनाते हैं| लेकिन राजस्थान में एक ऐसी जनजाति है जो ठीक इसके विपरीत करती है| दरअसल इस जनजाति में जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो लोग मातम मनाते हैं और जब कोई व्यक्ति मरता है तो लोग उत्सव मनाते हैं| यह सुनकर आपको हैरानी जरुर हो रही होगी लेकिन यह सच है|


प्राप्त जानकारी के अनुसार, यहाँ सतिया समुदाय के लोग सड़कों पर तम्बू बना कर रहते हैं| इस समुदाय के ज्यादातर लोग निरक्षर है और पुरुष शराब की अपनी लत के लिए कुख्यात हैं। वहीँ इस समुदाय की ज्यादातर महिलाएं देह व्यापार में लिप्त है| इस जनजाति की सबसे अनूठी बात यह है कि यदि यहाँ किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो लोग उसका अंतिम संस्कार बड़ी धूमधाम से मनाते है वहीँ, जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो लोग मातम मनाते हैं|


समुदाय का एक सदस्य झनक्या बताता है कि हमारे यहाँ जब किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो हम इस मौके पर नए कपड़े पहनते हैं और हम लोग एक दूसरे का मुंह मीठा कराते हैं व नाच गाना करते हैं वहीँ, दूसरा सदस्य बताता है कि मौत उनके लिए एक महान पल होता है क्योंकि इससे आत्मा शरीर की कैद से आजाद हो जाती है।

तब हाथ में तलवार लेकर चलते थे हरकारे

आजकल हमें डाकघर में बहुत कम चीजें रोमांचक लगती हैं, लेकिन तकरीबन सौ साल पहले कभी डाक एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जोखिम भरा काम हुआ करता था और हरकारे को हाथ में तलवार या भाला साथ लेकर चलना पड़ता था। उस समय डाक लाने, ले जाने के लिए रेल और हवाई सेवा उपलब्ध नहीं थी।

भारत में पहली जन डाक सेवा 1774 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने आरंभ की थी। राजा-महाराजाओं की अपनी निजी डाक व्यवस्था हुआ करती थी। उनका शासन स्पष्टत: संचार से बेहतरीन साधनों के कारण प्रभावशाली था जिसमें डाक को हाथों हाथ हरकारे या घुड़सवार द्वारा आगे भेजा जाता था। जब इब्नबतूता ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में भारत की यात्रा की तो उसने मोहम्मद बिन तुगलक की देश भर में हरकारों की संगठित प्रणाली देखी।

इब्नबूतता ने लिखा, "हर मील की दूरी पर हरकारा होता है और हर तीन मील के बाद आबादी वाला गांव होता है जिसके बाहर तीन पहरेदारों की सुरक्षा में बक्से होते थे, जहां से हरकारे कमर कसकर चलने के लिए तैयार रहते थे। प्रत्येक हरकारे के पास करीब दो क्यूबिक लंबा चाबुक होता है और उसके सिर पर छोटी-घंटियां होती हैं।"

"जब भी कोई हरकारा शहर से निकलता है तो उसके एक हाथ में चाबुक होता है जिसे वह लगातार फटकारता रहता है। इस प्रकार वह सबसे नजदीकी करकारे के पास पहुंचता है। जब वह वहां पहुंचता है तो अपना चाबुक फटकारता है जिसे सुनकर दूसरा हरकारा बाहर आता है और उससे डाक लेकर अगले हरकारे की ओर भागता है। इसी कारण सुल्तान अपनी डाक इतने कम समय में प्राप्त कर लेते हैं।"

नि:संदेह यह प्रणाली सम्राट की सुविधा के लिए बनाई गई थी और इसे बाद में परवर्ती मुगल बादशाहों द्वारा कुछ परिवर्तन के साथ जारी रखा गया। भिजवाने के लिए अपनी निजी डाक प्रणाली स्थापित की थी, लेकिन वारेन हेस्टिंग्स के प्रशासन के दौरान महाडाकपाल की नियुक्ति की गई। अब आम लोग भी अपने पत्रों पर फीस देकर सेवा का लाभ उठा सकते थे।

तब पत्रों को चमड़े के थैलों में डालकर हरकारों की कमर पर लादा जाता था, जिन्हें आठ मील के पड़ाव पर बदला जाता था। रात के समय हरकारों के साथ मशालवाले भी होते थे। जंगली इलाकों में जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए डुग्गी और ढोलक बजाने वालों को साथ रखा जाता था।

जिन स्थानों में बाघों का खतरा होता था, वहां हरकारों को तीर-कमानों से लैस किया जाता था, लेकिन उनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था और हरकारा अक्सर मनुष्यभक्षी बाघ का शिकार हो जाया करता था। हजारीबाग जिले में (जिससे गुजरकर डाक कोलकाता से इलाहाबाद भेजी जाती थी।) ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यभक्षी बाघ भारी संख्या में पाए जाते थे।

आदिवासियों को खास तौर से हरकारा बनाया जाता था जिनमें से अधिकांश स्वभाव से जीववादी थे। वे जंगली जानवरों या भटकते हुए अपराधियों का सामना करने के लिए तैयार थे लेकिन पेड़-पौधों में छुपी बैठी किसी बुरी आत्मा से बचने के लिए वे मीलों चलने के लिए तैयार थे।

डाक की डकैती आम बात थी। 1808 ई. में कानपुर और फतेहगढ़ के बीच औसतन सप्ताह में एक बार डाक लूटी जाती थी। हरकारे को रास्ते में मिलने वाले डाकू को भी पछाड़ना होता था। हरकारे को महीने में बारह रुपये का वेतन मिलता था जो उन दिनों भी बहुत अधिक नहीं होता था। अत: उसके साहस और ईमानदारी के गुण प्रशंसनीय थे। हरकारा कभी भी डाक को लेकर चंपत नहीं होता था यद्यपि इसमें अक्सर मूल्यवान सामान और पंजीकृत वस्तुएं हुआ करती थीं। 

1822 ई. में घुड़सवारों का स्थान हरकारों ने ले लिया, क्योंकि वे सस्ते पड़ते थे। घुड़सवार रखने से घोड़ों और आदमियों दोनों को खिलाना पड़ता था। हैरानी की बात यह है कि घोड़ों को कोलकाता से मेरठ जाने में बारह दिन लगते थे जबकि हरकारा वहां दस दिन में ही पहुंच जाया करता था क्योंकि वह रास्ते को कम-से-कम पड़ावों पर रुककर पार करता था। नि:संदेह हरकारे अब भी इस्तेमाल किए जाते हैं, क्योंकि डाकगाड़ी को केवल मुख्य राजमार्गो पर ही ले जाया जा सकता है।

1904 ई. में तिब्बत में यंगहजबेंड के अभियान के बाद अंग्रेजों ने सिक्किम से होते हुए भारत और ल्हासा के बीच डाक प्रणाली स्थापित कर दी। यहां भारत-तिब्बती सीमावर्ती जनजातियों के हरकारे होते थे जो बर्फीले मार्गो और तेज नदियों जिन्हें केवल याक की खाल की डोंगी पर चढ़कर या रस्सियों से बने कठिन रास्तों से ही पार किया जा सकता था। हिमालयी भालुओं, बर्फीले क्षेत्र के भेड़ियों और संभवत: खतरनाक हिम मानव के रोमांचक अनुभवों से गुजरते हुए ये हरकारे डाक पहुंचाते थे।

लेकिन अब भी देश के दूरदराज के क्षेत्रों में, अलग-थलग पड़े पर्वतीय क्षेत्रों में, जहां रास्ते नहीं बने हैं वहां डाक पैदल ही भेजी जाती है ओर डाकिया अक्सर प्रतिदिन पांच से छह मील चलता है। सच है कि वह अब भागता नहीं है और कभी-कभार किसी गांव में अपने मित्र के पास हुक्का गुड़गुड़ाने के लिए रुक जाता है, लेकिन वह डाक प्रणाली के उन शुरुआती प्रवर्तकों भारत के हरकारों की याद दिलाता है।

पर्दाफाश से साभार 

नाम बदलने से मतलब सिद्ध नहीं होता

पुरानी बात है। किसी बालक के मां-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, "भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है। 

आचार्य ने उसे समझाया कि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मो से धार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मो से कोई पापी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?

पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा कि अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परंतु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता, तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।

पापक सुंदर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शवयात्रा के दर्शन हुए। पूछा कि कौन है यह? उत्तर मिला, "धनपाली।" पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!

और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?

पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक या विकर्षण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक भी; धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी; पंथक राह भूलते हैं, अपंथक भी; जन्म का अंधा नाम नयनसुख; जन्म का दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता निर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपना कर्म सुधारूंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है।

पर्दाफाश से साभार 

जाने हार्ट अटैक के सामान्य लक्षण और प्रारंभिक उपचार

दिल का दौरा वह स्थिति है जब किसी व्यक्ति की धमनी में अवरोध आ जाता है और रक्त प्रवाह रुक जाता है। यदि रक्त प्रवाह को जल्दी से बहाल नहीं किया जाता तो ऑक्सीजन और पोषक तत्वों के अभाव में दिल की माँसपेशियों को इस तरह नुकसान हो सकता है कि उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। इससे हार्ट भी फेल हो सकता है और रोगी की मृत्यु भी हो सकती है| 

ऐसी स्थिति में जब किसी व्यक्ति को हार्ट अटैक होता है यानी दिल का दौरा पड़ता है, तो उसे बचाने के लिए आपके पास सिर्फ कुछ ही मिनट होते हैं। ऐसे में हार्ट-अटैक से संबंधित ‘फर्स्ट-एड’ की जानकारी हम सभी को होनी चाहिए। 

हार्ट अटैक के सामान्य लक्षण-

रोगी को छाती के मध्य भाग में दवाब, बैचेनी, भयंकर दर्द, भारीपन और जकडन महसूस होती है। यह हालत कुछ समय रहकर समाप्त हो जाती है लेकिन कुछ समय बाद ये लक्षण फ़िर उपस्थित हो सकते हैं। इसके अलावा छाती के अलावा शरीर के अन्य भागों में भी बेचैनी महसूस होती है। भुजाओं ,कंधों, गर्दन, कमर और जबडे में भी दर्द और भारीपन महसूस होता है।

छाती में दर्द होने से पहिले रोगी को सांस में कठिनाई और घुटन के लक्षण हो सकते हैं। अचानक जोरदार पसीना होना, उल्टी होना और चक्कर आने के लक्षण भी देखने को मिलते हैं। कभी-कभी बिना दर्द हुए दम घुटने जैसा महसूस होता है।

हार्ट अटैक में प्राथमिक उपचार-

यदि किसी को दिल का दौर (हार्ट अटैक) पड़ता है तो मरीज को चैन से लिटा दें मेडिकल सहायता मिलने से पहले ऐसे व्यक्ति को एस्पिरिन की टेबलेट चूसने को दें| एस्प्रीन चूसने से दिल के दौरे में मृत्यु दर 15 प्रतिशत तक कम हो जाती है क्योंकि एस्पिरिन से खून पतला हो जाता है और खून का थक्का घुल जाने से खून अवरूद्ध रक्तवाहिका से गुजर जाता है। सबसे अच्छा तो यह है कि एस्पिरिन की आधी गोली को चूरा करके इसे जबान के नीचे रख लिया जाए ताकि ये जल्दी से खून में घुल जाए। वहीँ, जिन लोगों को पेट का अल्सर हो, और जिन्हें एस्पिरिन से एलर्जी हो, उन्हें एस्पिरिन नही दी जानी चाहिए|

जैसे ही पता चले कि मरीज को दिल का दौरा पड़ा है तत्काल उसकी छाती पर हथेली रखकर पंपिंग करते हुए दबाएँ। एक दो बार पंपिंग एक्शन के बाद धड़कन फिर से बहाल हो जाती है। ऐसा तब करें जब मरीज को सांस लेने में तकलीफ हो रही हो तो| 

वहां मौजूद लोगों को फौरन यथास्थिति बताकर एम्बुलेंस बुलवायें| अस्पतालों के आपात चिकित्सालयों को फोन करें। हो सके तो डाक्टरों को पहले ही सूचित करें कि आप एक दिल के मरीज को लेकर आ रहे हैं। 

यदि मरीज को सांस लेने में तकलीफ हो रही हो तो उसे तत्काल कृत्रिम श्वास देने की व्यवस्था करें। मरीज का तकिया हटा दें और उसकी ठोड़ी पकड़ कर ऊपर उठा दें। इससे श्वास नलिका का अवरोध कम हो सकेगा। 

मरीज की नाक को दो उँगलियों से दबाकर रखें और मुँह से कृत्रिम साँस दें। नथुने दबाने से मुँह से दी जा रही साँस सीधे फेफड़ों तक जा सकेगी। लंबी साँस लेकर अपना मुँह मरीज के मुँह पर चिपका दें। मरीज के मुँह में धीमे-धीमे साँस छोड़ें। दो या तीन सेकंड में मरीज के फेफड़ों में हवा भर जाएगी। यह भी देख लें कि साँस देने पर मरीज की छाती ऊपर नीचे हो रही है या नहीं। कृत्रिम श्वास तब तक देते रहें जब तक अस्पताल से मदद नहीं पहुँच जाती। यदि मरीज अपने आप साँस लेने लगे तो कृत्रिम श्वास देना बंद कर दें।

इस तरह महात्मा शेखसादी ने माना खुदा का अहसान


उर्दू भाषा के महान कवि महात्मा शेखसादी पैदल यात्रा किया करते थे। अपनी यात्रा के कुछ संस्मरण उन्होंने लिखे जो बोधप्रद और आज भी प्रासंगिक हैं। पेश है उनकी दास्तान उन्हीं की जुबानी :


एक बार मैं सफर करता हुआ गांव की एक मस्जिद में रुका। मेरे पैरों में कांटे लग गए थे। पैसे की तंगी के कारण जूता नहीं खरीद सका था। जब मैं कांटे निकाल रहा था तो मुझे बड़ा कष्ट और मानसिक वेदना हो रही थी। सोचता था कि मेरी क्या जिंदगी है कि मुझे जूता तक मयस्सर नहीं हो सका। इतने में ही एक मुसाफिर वहां आया। उसके एक टांग नहीं थी और वह बगल में लकड़ी लगाकर चल रहा था।

उसको देखते ही मैं अपनी तकलीफ भूल गया। मैंने भगवान को धन्यवा
द दिया कि ऐ खुदा, तूने मुझे जूते नहीं दिए, किंतु पैर तो दिए। इसके तो पैर भी नहीं हैं।

इंसानियत :

एक बार जब मैं शहर दमिश्क में रह रहा था, वहां बहुत जोर का अकाल पड़ा। आकाश से एक बूंद पानी न टपका। नदियां सूख गईं। पेड़ फकीरों की तरह कंगाल हो गए। ऐसी दशा हो गई कि न तो पहाड़ों पर सब्जी दिखाई देती थी, न बागों में हरी डालियां। खेत टिड्डियों ने चाट डाले थे। आदमी डिड्डियों को खा गए थे। इन्हीं दिनों मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया। उसकी हड्डियों पर केवल खाल बाकी रह गई थी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह बड़ा धनवान और अमीर आदमी था। उसके पास सवारी के लिए बीसों घोड़े और रहने के लिए आलीशान हवेलियां थीं। पचासों नौकर थे।

मैंने उससे पूछा, "तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?" वह बोला, "आपको क्या इस देश का हाल मालूम नहीं है?" कितनी मुसीबतें और आफतें आई हुई हैं। कितना भयंकर अकाल पड़ा हुआ है। हजारों आदमी भूख से मर गए हैं।

मैंने कहा, "तुमको इस मुसीबत से क्या मतलब?" तुम इतने अमीर हो कि अगर ऐसे सैकड़ों अकाल भी पड़ें तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"

वह बोला, "आपका कहना सच है, मगर इंसान वहीं है, जो दूसरों के दुख को अपना दुख समझे। जब मैं लोगों को फाका करते देखता था, तो मेरे मुंह में खाने का एक टुकड़ा नहीं उतरता था। इसलिए मैंने अपनी सारी जायदाद और सामान बेचकर गरीबों और फकीरों में बांट दिया। शेख सादी, इस बात को याद रखो कि उस तंदुरुस्त आदमी का सुख नष्ट हो जाता है, जिसके पास बीमार बैठा हो।"

सबसे बड़ा धर्म :

बसरा शहर में एक बड़ा ईश्वर-भक्त और सत्यवादी मनुष्य रहता है। मैं जब वहां पहुंचा तो उसके दर्शनों के लिए गया। कुछ और यात्री भी मेरे साथ थे। उस व्यक्ति ने हममें से प्रत्येक का हाथ चूमा और बड़े आदर के साथ सबको बैठा कर तब खुद बैठा। किंतु उसने हमसे रोटी की बात नहीं पूछी।

वह रात भर माला जपता रहा, सोया नहीं और हमें भूख के कारण नींद नहीं आई। सुबह हुई तो फिर वह हमारे हाथ चूमने लगा।

हमारे साथ एक मुंहफट यात्री भी था। वह उस ईश्वर-भक्त पुरुष से बोला, "अगर तुम हमें रात को रोटी खिला देते और रातभर आराम से सोते तो तुम्हें भजन करने से भी अधिक पुण्य मिलता, क्योंकि भूखे मनुष्य को रोटी खिलाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।"

पर्दाफाश से साभार 

इस तरह बुद्ध की शरण में आया अंगुलिमाल

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता और उनकी माला बनाकर पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही लोगों के प्राण सूख जाते थे। 

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जाएं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी, पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगा। जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, "क्यों भाई, सामने के पेड़' से चार पत्ते तोड़ लाओगे?" अंगुलिमाल के लिए यह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

"बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लेकर आए हो, वहीं इन्हें लगा आओ।" अंगुलिमाल बोला, "यह कैसे हो सकता है?" बुद्ध ने कहा, "भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?" इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और उस दिन से अपना धंधा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया।

पर्दाफाश से साभार 

इस तरह एक गुलाम को मिला भगवान की मूर्ति बनाने का इनाम

बात यूनान की है। वहां एक बार बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की बहुत ही सुंदर मूर्ति थी। अपोलो को यूनानी अपना भगवान मानते हैं। वहां राजा और रानी प्रदर्शनी देखने आए। उन्हें वह मूर्ति बड़ी अच्छी लगी। राजा ने पूछा, "यह किसने बनाई है?"

सब चुप। किसी को यह पता नहीं था कि इस मूर्ति को बनाने वाला कौन है। थोड़ी देर में ही सिपाही एक लड़की को पकड़ लाए। उन्होंने राजा से कहा, "इसे पता है कि यह मूर्ति किसने बनाई है, पर बताती नहीं।"

राजा ने उससे बार-बार पूछा, लेकिन उसने बताया नहीं। तब राजा ने गुस्से में कहा, "इसे जेल में डाल दो।" यह सुनते ही एक नौजवान सामने आया। राजा के पैरों में गिरकर बोला, "आप मेरी बहन को छोड़ दीजिए। कसूर इसका नहीं, मेरा है। मुझे दंड दीजिए। यह मूर्ति मैंने बनाई है।"


राजा ने पूछा, "तुम कौन हो?" उसने कहा, "मैं गुलाम हूं।" उसके इतना कहते ही लोग उत्तेजित हो उठे। एक गुलाम की इतनी हिमाकत कि भगवान की मूर्ति बनाए! वे उसे मारने दौड़े।


राजा बड़ा कलाप्रेमी था। उसने लोगों को रोका और बोला, "तुम लोग शांत हो जाओ। देखते नहीं, मूर्ति क्या कह रही है? वह कहती है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं।"


राजा ने बड़े आदर से कलाकार को इनाम देकर विदा किया।

पर्दाफाश से साभार 

जब फकीर को मिला अल्लाह का घर

एक फकीर था। वह भीख मांगर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।

एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, "आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।"

फकीर ने पूछा, "भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?"


उस आदमी ने कहा, "अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि वह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।" फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा, "यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?"


इतना सुनकर फकीर ने कहा, "अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गए, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!" फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अंतिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।

राम की धरती को भूली भाजपा की दूसरी पीढ़ी!


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजपोशी कराकर आम चुनाव से पहले पूरे देश में हिंदुत्व की लहर पैदा करना चाहते हैं, लेकिन लगता है भारतीय जनता पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं ने फिलहाल राम की जन्मभूमि अयोध्या को ज्यादा तूल न देने और राम मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने का मन बना लिया है। 

भाजपा की दूसरी पंक्ति के प्रमुख नेताओं, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने विवादों से बचने के लिए अयोध्या से दूरी बना ली है और शायद यही वजह है कि ये तीनों नेता महंत नृत्यगोपाल दास की ओर से न्यौता मिलने के बाद भी अयोध्या नहीं पहुंचे हैं। 

अयोध्या में मणिरामदास की छावनी में चल रहे अमृत महोत्सव में रामजन्म भूमि न्यास के कार्यकारी अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास की महंती के 50 वर्ष पूरे होने पर कई नामी-गिरामी संतों को न्यौता भेजा गया है। 

मोदी, शिवराज सिंह और राजनाथ को भी नृत्यगोपाल दास की तरफ से निमंत्रण दिया गया है। नरेंद्र मोदी ने जहां व्यस्तता का हवाला देकर कार्यक्रम में शामिल होने से पहले ही इंकार कर दिया है, वहीं शिवराज भी अभी तक इस कार्यक्रम में शिरकत करने नहीं पुहंचे हैं। सूत्रों के मुताबिक, शिवराज के भी इस कार्यक्रम में आने की उम्मीद कम ही है। वहीं, राजनाथ के आने का भी कोई कार्यक्रम अभी तक नहीं बन पाया है।

18 जून से शुरू अमृत महोत्सव 22 जून तक चलेगा। इस प्रतिष्ठित कार्यक्रम में अब तक योगगुरुबाबा रामदेव, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के अध्यक्ष अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया सरीखे लोग शामिल हो चुके हैं, वहीं अगले दो दिनों में योगी आदित्यनाथ के अलावा दक्षिण के कई संत इस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले हैं। विहिप के सूत्र बताते हैं कि कार्यक्रम के बहाने ही नरेंद्र मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन इनमें से एक भी नेता अभी तक अयोध्या नहीं पहुंचा है। ऐसा लगता है कि अटल-आडवाणी युग की समाप्ति के बाद भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में अयोध्या आने या राम मंदिर मुद्दे को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया है।

विहिप के एक नेता ने कहा, "ऐसा लगता है कि मोदी यहां आकर किसी विवाद को हवा नहीं देना चाहते।" उधर, विहिप ने ऐलान किया है कि संसद के मानसून सत्र में कानून के माध्यम से राम मंदिर निर्माण की बाधा दूर नहीं हुई तो मंदिर निर्माण को लेकर पूरे देश में बड़ा और निर्णायक आंदोलन खड़ा किया जाएगा।इस बीच विहिप के उत्तर प्रदेश मीडिया प्रभारी शरद शर्मा ने कहा कि महंत नृत्यगोपाल दास की तरफ से मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां आने का न्यौता दिया गया है। इसके अलावा दक्षिण के कई संत भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि इस वर्ष 25 अगस्त से 13 सितंबर तक संत-धर्माचार्य अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा करेंगे। इसके तहत 84 कोस में आने वाले पांच जिलों- फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा, बस्ती और अकबरपुर की परिक्रमा की जाएगी। इसके बाद 25 सितंबर से 16 अक्टूबर तक पांच कोस की परिक्रमा होगी, जिसमें समस्त रामभक्त राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेंगे। इस कार्यक्रम में पूरे देश के रामभक्त एकत्र होंगे।

पर्दाफाश से साभार 


छुट्टियों में बच्चे अब नहीं जाते मामा के घर

बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां हो गई हैं। इसी के साथ स्कूल बंद होने से बच्चों को पढ़ाई की 'टेंशन' से भी मुक्ति मिल गई है। बदलते वक्त के साथ अब ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामा के यहां सैर सपाटा करने या घूमने जाते हैं। अब तो प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में भी उन्हें किताबों में सिर खपाना पड़ रहा है।

अब वे दिन गए जब गर्मियों की छुट्टियां होने की कल्पना मात्र से ही बच्चे चहक उठते थे। छुट्टियां शुरू होने से पहले ही बच्चे घूमने-फिरने व मौज मस्ती की योजना बनाने में मशगूल रहते थे।अधिकांशत: बच्चे छुट्टियों में मामा के घर जाना अधिक पसंद करते थे। गांव-देहात की बात करें तो मामा के गांव से निकलने वाली नदी या तालाब में घंटों तैरने का मौका मिलता था।

फिर आम के बगीचे में धमा चौकड़ी मचती थी।दिन भर की भागदौड़ व खेलकूद के बाद रात में नानी से परी कथाएं तथा धार्मिक कहानियां सुनना बच्चों को पसंद होता था।गर्मियों की छुट्टियों में सगे-संबंधियों के यहां जाने की एक प्रकार से परंपरा सी थी। छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने से बच्चों के रिश्ते नातों व उनकी अहमियत को करीब से जानने समझने का मौका मिलता है। अब वक्त बदल गया है। आज के हाईटेक युग में बच्चों की मानसिकता व कार्यशैली पर व्यस्तता का बुरा असर पड़ा है।

प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों में कोई उत्साह नहीं देखा जाता है। स्थिति यह है कि वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही उन्हें अगली कक्षा की पुस्तकें लाकर थमा दी जाती हैं।दो-दो तीन-तीन ट्यूशन लगा दिए जाते हैं सो अलग। कइयों को तो जबरन कोचिंग सेंटर भेजा जाता है। कई मामले तो ऐसे भी देखे गए जिसमें बच्चोंकी इच्छा गर्मियों की छुट्टियों में बाहर घूमने-फिरने की रहती है,लेकिन अभिभावकों के डर से वे अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर पाते हैं। बच्चों के दिमाग पर प्रतिस्पर्धा का भूत इस कदर सवार रहता है कि कहीं जाने पर भी 8-10 दिनों में ही वापस आ जाते हैं। शहरी बच्चों की स्थिति तो यह है कि यदि वहां कंप्यूटर,वीडियो गेम या फिर अन्य सुविधाएं नहीं हैं तो वे बोरियत महसूस करने लगते हैं।

शहरी क्षेत्र के बच्चों में समर कैंप ज्वाइन करने का नया चलन शुरू हो गया है।शहर में जगह-जगह स्थापित समर कैम्पों में बच्चों के मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध रहते हैं यहां उन्हें मनोरंजन के साथ कई कलाएं सिखाई जाती हैं कई लड़कियां गर्मियों के इस मौसम में पाककला,सिलाई,बुनाई,कढ़ाई,मेहंदी,चित्रकला, ब्यूटीपार्लर आदि का कोर्स कर लेती हैं तो कई संगीत की बारीकियों के अलावा गायन सीखती हैं। इस बदलावने रिश्तों की अहमियत कम कर दी है।रिश्ते अब अंकल-आंटी तक सिमट गए हैं। छुट्टियों में सगे संबंधियों के यहां जाने से वे रिश्तों को काफी करीब से जानते वसमझते थे। इसी के साथ उनमें रिश्तों के अनुरूप सम्मान देने व उनका आदर करने का भाव भी पैदा होता था।लेकिन अब समय बदल गया है।

धर्मनगरी की सैर

धर्मनगरी के नाम से विख्यात विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक वाराणसी हमेशा से पर्यटकों का पसंदीदा स्थल रहा है। यहां गंगा नदी के घाट, मंदिर और प्राचीन संस्कृति हर पर्यटक का मन मोह लेती है। गर्मी की छुट्टियां बिताने की योजना बना रहे लोगों के लिए वाराणसी की सैर करना आनंददायक अनुभव होगा।

वाराणसी को बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित है। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्व से अटूट रिश्ता है। यह शहर सैकड़ों वर्षो से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र रहा है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में हुए।

धर्मनगरी में कई दर्शनीय और पौराणिक स्थल हैं जो देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी तरफ आकृष्ट करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिग में से माना जाता है। इसके अलावा अन्नपूर्णा मंदिर, साक्षी गणेश मंदिर, विशालाक्षी मंदिर, संकट मोचन मंदिर और लोलार्क कुंड व दुर्गा कुंड का भक्तिमय माहौल पर्यटकों को बहुत भाता है।

वाराणसी का जिक्र बिना इसके घाटों के अधूरा है। यहां गंगा नदी पर लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग चार मील लंबे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है, जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में स्थित है।

दशाश्वमेध घाट पर हर रोज सुबह और शाम को होने वाली गंगा आरती का दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। सैकड़ों की संख्या में रोज साधु-संत, पुजारी और स्थानीय लोग और पर्टयक गंगा आरती में हिस्सा लेते हैं। वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है। वाराणसी से करीब 10 किलोमीटर दूर सारनाथ है, जहां भगवान गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन किया था। वाराणसी हिंदुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिए भी पवित्र तीर्थ है। इसे 23वें र्तीथकर पाश्र्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है।

वाराणसी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय स्थित है, जो देश के प्रसिद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में शामिल हैं। यहां पर करीब छह पांच सितारा होटल और दर्जनों धर्मशालाएं हैं, जहां पर्यटक वाराणसी प्रवास के दौरान ठहरते हैं। वाराणसी लगभग देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल और हवाई यातायात से जुड़ा है। 

पर्दाफाश से साभार

जब बापू ने खुद एक लड़के के लिए बनाई रजाई

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया ओर बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, "तू रात को यहीं सोता है?"

लड़के ने जवाब दिया, "हां बापू।" "रात को ओढ़ता क्या है?" बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आए। बा से दो पुरानी साड़ियां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोली बनाई, अखबार के कागज और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, "इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?"

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, "बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।"

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, "सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।"

पर्दाफाश से साभार

खरीददारी में माताएं सबसे अच्छी सलाहकार

एक सर्वेक्षण में पता चला है कि महिलाओं को खरीददारी करते समय सबसे अच्छी सलाह उनकी मां ही दे सकती है। पश्चिमी लंदन के अक्सब्रिज स्थित एक खरीददारी केन्द्र 'चाइम' ने यह सर्वेक्षण कराया था।

महिलाओं ने पाया कि खरीददारी करते समय जब बात यह पूछने की आती है कि वास्तव में उन पर यह पोशाक कैसी लग रही है, तब उस समय उनकी माताएं ही उन्हें सबसे अच्छी सलाह देती हैं। इस अध्ययन में पाया गया कि खरीददारी करते समय महिलाओं को उनके प्रेमी या पति से बेहतर उनकी माताएं अच्छी सलाह देती हैं।

करीब 2000 महिलाओं में से 70 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि खरीददारी के दौरान उनके प्रेमी या पति से बेहतर सलाह उनकी माताएं देती हैं, जबकि 56 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि उनके साथी उन्हें बेहतर सलाह देते हैं। 

पर्दाफाश 

एक दृष्टिहीन ने 'अंधेरी दुनिया' को दिए थे ज्ञानचक्षु

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि का निर्माण करने के लिए लुई ब्रेल जगत प्रसिद्ध हैं। फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल ज्ञान के चक्षु बन गए। ब्रेल लिपि के निर्माण से नेत्रहीनों की पढ़ने की कठिनाई को मिटाने वाले लुई स्वयं भी नेत्रहीन थे। लुई ने अपनी सारी सीमाओं को ताक पर रखकर जिंदगी की मांग को सर आखों पर बिठाया और वह कर दिखाया जिससे आज अनगिनत आंख वालों को भी मानवता के माने समझने की रोशनी मिल रही है। लुई ब्रेल का जन्म चार जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से गांव कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।

एक दिन काठी के लिए लकड़ी को काटने में इस्तेमाल किया जाने वाला चाकू अचानक उछलकर इस नन्हे बालक की आंख में जा लगी और बालक की आंख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जड़ी-बूटी लगाकर उसकी आंख पर पट्टी कर दी गई। बालक लुई की आंख के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद इस बालक को दूसरी आंख से भी कम दिखलाई देने लगी। उसके पिता साइमन की साधनहीनता के चलते बालक की आंख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका।

पिता ने चमड़े का उद्योग लगाया था, जिसमें उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी दूसरी आंख की रोशनी भी एक दुर्घटना में गंवा दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में हुई, जहां एक लोहे का सूजा लुई की आंख में घुस गया। यह बालक मगर कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से जूझने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। लुई ने हार नहीं मानी। पादरी बैलेंटाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस 10 वर्षीय बालक को 'रायल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड्स' में दाखिला मिल गया। वर्ष 1821 में बालक लुई को पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत्त कैप्टन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिए ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकते थे। कैप्टन बार्बर का उद्देश्य युद्ध के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था।

इधर, बालक लुई का मष्तिष्क भी उसी तरह टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए पढ़ने की संभावना ढूंढ़ रहा था। उसने पादरी बैलेंटाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टन बार्बर से मुलाकात चाहता है। पादरी ने लुई की कैप्टन से मुलाकात की व्यवस्था कराई। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टन के द्वारा सुझाई गई कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किए। कैप्टन उस दृष्टिहीन बालक का आत्मविश्वास देखकर दंग रह गए। अंतत: पादरी बैलेंटाइन के इस शिष्य के द्वारा बताए गए संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।

लुई ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किए और अंतत: 1829 में छह बिंदुओं पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुए। लुई ब्रेल के आत्मविश्वास की अभी और परीक्षा बाकी थी, इसलिए उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि उसका माखौल उड़ाया गया। लुई ने सरकार से प्रार्थना की कि उसके द्वारा ईजाद की हुई लिपि को दृष्टिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी बात नजरअंदाज कर दी गई। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत लुई 43 वर्ष की अवस्था में जीवन की लड़ाई हार गए। उनका देहांत 6 जनवरी 1952 को हुआ।

उनके द्वारा अविष्कृत ब्रेल लिपि उनकी मृत्यु के बाद दृष्ठिहीनों के बीच लगातार लोकप्रिय होती गई। लुई की मृत्यु के बाद शिक्षा शास्त्रियों ने उनके किए कार्य की गंभीरता को समझा और अपने दकियानूसी विचारों से बाहर निकालकर इस लिपि को मान्यता देने की सिफारिश की। लुई की मृत्यु के पूरे सौ साल बाद फ्रांस में 20 जून, 1952 का दिन उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस प्रकार एक राष्ट्र के द्वारा अपनी ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित किया गया। लुई द्वारा ईजाद लिपि अकेले फ्रांस के लिए न होकर संपूर्ण विश्व की दृष्टिहीन मानव जाति के लिए वरदान साबित हुई। 

पर्दाफाश से साभार

फैशन में है खूबसूरत दांतो का चलन

किशोर हों या वयस्क, किसी भी उम्र के लोग अब से पहले दंत चिकित्सकों के पास जाने से कतराते थे। दांतों में दर्द या जबड़ों की समस्या ही लोगों को दंत चिकित्सक के पास जाने को मजबूर करती थी। लेकिन अब चलन बदल गया है। लोग अपने दांतों की खूबसूरती को लेकर सजग हो चुके हैं और स्वस्थ, चमकदार मुस्कुराहट के लिए नियमित रूप से दंत चिकित्सक के पास जाते हैं।

'स्माइल स्टूडियो' में स्माइल डिजाइनर का काम करने वाली एकता चड्ढा ने कहा, "खूबसूरत और स्वस्थ दांतों की चाहत रखने वालों की संख्या पहले से बढ़ी है।" सेवेन हिल्स हॉस्पीटल में प्रोस्थोडोनटिस्ट एवं इंप्लेंटोलोजिस्ट शिखा गिरी कहती हैं, "आमतौर पर कलाकार या मशहूर हस्तियां ही अपने दांतों को खूबसूरत बनाने के लिए चिकित्सा पद्धितियां अपनाया करते थे। लेकिन अब यह चलन फैशन और सिनेमा जगत तक ही सीमित नहीं रह गया है।"

गिरी ने बताया, "हमारे यहां हर तरह के लोग आते हैं, जो अपने दांतों को खूबसूरत बनाना चाहते हैं। व्यवसायी, एयर होस्टेस, वकील, डॉक्टर और यहां तक कि गृहणियां और किशोर उम्र के लड़के-लड़कियां भी हमारे यहां आते हैं।" दांतों की कॉस्मेटिक सर्जरी की कीमत 1,000 रुपये से शुरू होती है और 150,000 रुपये से ऊपर भी जा सकती है। ज्यादातर लोग सफेद और चमकदार दांतों के लिए क्लिनिक आते हैं।

गिरी ने कहा, "दांतों की ब्लीचिंग के लिए हर बार 8,800 रुपये का खर्च आता है। कितने समय पर ब्लीचिंग करानी चाहिए यह इस पर निर्भर करता है कि आप चाय, काफी कितनी ज्यादा पीते हैं। सामान्य तौर पर एक से ढाई साल में दांतों की ब्लीचिंग कराने की आवश्यकता पड़ती है।"

दांतों को खूबसूरत बनाने का चलन महानगरों के अलावा मध्यम और छोटे शहरों में भी बढ़ा है। मैसूर के कोलंबिया एशिया हॉस्पिटल के परामर्शदाता सहित कुमार शेट्टी कहते हैं कि दातों के उपचार के लिए आने वाली ज्यादातर महिलाएं होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस तरफ रुचि लेने लगे हैं।

क्या बाढ़ खतरे की ओर बढ़ रहा उत्तर प्रदेश?

उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में पिछले कुछ दिनों से लगातार हो रही बारिश और नदियों के जलस्तर में वृद्धि को देखते हुए लगता है कि राज्य भीषण बाढ़ संकट का सामना कर सकता है।

राज्य के करीब 32 जिलों में बाढ़ का खतरा है। पिछले साल मानसून के दौरान 398 लोगों की जान गई थी। कुछ अधिकारियों का कहना है कि पिछले साल की स्थिति से कुछ नहीं सीखा गया।

आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, बाढ़ राहत और रोकथाम से संबंधित कार्य पूरा करने के लिए 15 जून की तिथि निर्धारित किए जाने के बावजूद राज्य सरकार ने नदियों के बांधों को मजबूत बनाने के लिए मंजूर 725 करोड़ रुपये की राशि में से बहुत कम राशि खर्च की।

एक अधिकारी ने बताया कि सिंचाई विभाग ने अब तक केवल 29.35 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। उन्होंने बताया कि पश्चिमी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में नदियों के बांध टूट गए हैं।

एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा कि मानसून की पहली ही बारिश के बाद स्थिति गंभीर है। केवल ईश्वर ही जानता है कि यदि बारिश तेज हुई तो आगे क्या स्थिति होगी।

उन्होंने बताया कि सिंचाई विभाग को अग्रिम भुगतान के तौर पर 183.57 करोड़ रुपये दिए गए थे, जिनमें से करीब 150 करोड़ रुपये का अब तक इस्तेमाल नहीं किया गया।

सिंचाई विभाग की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि श्रीनगर तथा बलिया सहित कई इलाकों में मरम्मत के कार्य या तो जल्दबाजी में किए गए या नहीं किए गए। इससे हजारों लोगों की जान खतरे में पड़ सकती है।

सिंचाई विभाग के एक अन्य अधिकारी ने कहा कि यदि पिछले कुछ दिनों की बारिश से यह स्थिति है तो आगे क्या होगा, इसे लेकर मैं डरा हुआ हूं।

हर साल सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती, गोरखपुर, महराजगंज, सहारनपुर, बांदा तथा हमीरपुर जिले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इस मौसम के दौरान गंगा, यमुना, बेतवा, घाघरा तथा सरयू नदी में पानी का स्तर अक्सर ऊंचा हो जाता है।

खतरे को भांपते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने धीमी गति से मरम्मत कार्यो के लिए अधिकारियों को फटकार लगाई है। साथ ही दवाओं का स्टॉक रखने और खतरे वाले स्थानों पर प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी के कर्मचारियों की तैनाती करने के निर्देश दिए गए हैं।  राज्य सरकार ने मंगलवार को मुख्य सचिव के नेतृत्व में बाढ़ प्रबंधन समूह का गठन किया है। 

पर्दाफाश से साभार

लखनऊ की शान और पहचान खतरे में

60 फिट ऊंचा रूमी दरवाजा जो कि लखनऊ का हस्ताक्षर भवन है आज इस दरवाजे में एक दरार पड़ जाने के कारण इसका अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। यह दरवाजा अपनी सुरूचिपूर्ण बनावट के लिए हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरे विष्व में मषहूर है। इसमें सन्देह नहीं कि लखनऊ की नाजुक मिट्टी में ढला हुआ ये सुविख्यात दरवाजा अपने प्रभावशाली स्थापत्य और मजबूती के कारण बड़ी बड़ी ऐतिहासिक इमारतों से टक्कर लेता है। नवाब आसफुद्दौला ने सन् 1784 ई. में रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना षुरू किया था। यह इमारतें सन् 1791 में बनकर तैयार हुईं। सच बात यह है कि जब रूमी दरवाजा बन रहा था उस वक्त अवध में अकाल पड़ा हुआ था इसलिए भूखों को रोटी देने की गरज से आसफुद्दौला ने इन इमारतों की विस्त्रत योजना बनायी थी। सवाल ये नहीं था कि नवाब अपनी प्रजा को भोजन दान नहीं कर सकते थे कारण इस बात का था कि तब का आदमी भीख मांगकर या बिना मेहनत के रोटी खाना हराम समझता था। अच्छे अच्छो ने हाथ लगाकर रूमी दरवाजे को जमीन पर खड़ा किया था उस दौर में करीब 22 हजार लोगों ने इस योजना के अन्र्तगत काम किया था। अवध वास्तु कला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किष गेटवे भी कहा जाता है। कहा जाता है कि लखनऊ का यह प्रसिद्ध षाही द्वार ‘कान्सटिनपोल‘ के एक प्राचीन दुर्ग द्वार की नकल पर बनवाया गया था। यही कारण है कि 19 वीं सदी में लोग इसे कुस्तुनतुनिया कहकर पुकारा करते थे। आज इसी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में एक दरार पड़ गयी है। जिसका कारण दरवाजे से गुजरने वाले बड़े साधन या फिर दरवाजे के नीचे बिछी पाइप लाइन हो सकती है। इस दरार के पड़ने से शाही दरवाजे का अस्तित्व खतरे की तरफ जा रहा है। देश- विदेश से आने वाले हजारों दर्षक इस दरवाजे को देखने के लिए आते हैं उन पर इस दरवाजे में पड़ी दरार का क्या प्रभाव पड़ेगा।

गाय नहीं घोड़े की प्रजाति है नील गाय

जंगल में रहने वाली नील गाय के बारे में आपने जरूर सुना होगा। आपको यह भी पता होगा कि शेर और बाघों का यह अच्‍छा आहार है। लेकिन क्‍या आपको पता है नील गाय, गाय नहीं बल्कि घोड़े की प्रजाति की होती है। जीहां वैज्ञानिकों के मुताबिक नील गाय उसी श्रेणी के जानवरों में गिनी जाती है, जिसमें गधे व घोड़े और चित्‍तीदार घोड़े गिने जाते हैं। नील गाय 'गाय' की नहीं यह घोड़े की श्रेणी में आती है। जन्तु विज्ञान ने इसे घोड़े के पेरिसोडेक्टाइला गण में रखा है। इस गण के सदस्यों के पाद लम्बे होते हैं। यह शाकाहारी और तेज दौड़ने वाले स्तनधारी होते हैं। इनके पाद पर खुरदार विशम अंगुलियां होती हैं। जब ये चलते हैं तो इनकी एक ही उंगली भूमि से स्पर्श करती है। इनके दांत पूर्णतया विकसित होते हैं। नील गाय के केनाइन दांत अल्प विकसित होते हैं, जबकि बैल या गाय आदि के पूर्ण विकसित होते हैं। नील गाय गाय और बैल की भांति जुगाली नहीं करती है। यह एक दिवाचर प्राणी है जो दिन और रात दोनों समय भोजन की तलाष में रहती है। उत्तर प्रदेश में इस समय नील गायों की संख्‍या लगभग 1 लाख 75 हजार के करीब है। नील गाय संरक्षित पशु के अंतर्गत आती है। नील गायों के शिकार का प्रतिबंध है इसको मारना कानूनन अपराध है। मारने वाला अपराधी की श्रेणी में आता है। लेकिन वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 शासन के द्वारा राजपत्रित अधिकारी, जिलाधिकारी, एसडीएम, तहसीलदार की आज्ञा से नील गाय को मारा जा सकता है।