कई शुभ संयोगों के साथ इस बार 10 दिन की होगी नवरात्रि


नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

आपको बता दें की इस बार की चैत्र नवरात्रि 10 दिन की होंगी। तिथियों की घटत-बढ़त के कारण ऐसा होगा। नवरात्र पर्व 23 मार्च से शुरू होकर 1 अप्रैल तक रहेगा। इस दौरान शुभ संयोग भी खूब रहेंगे।

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार का कहना है कि चैत्र नवरात्र का आरंभ देवी के वार यानी शुक्रवार से हो रहा है। ऐसे में ये देवी आराधना करने वाले साधकों के लिए विशेष फलदायी रहेंगे। खरीदारी व नवीन कार्यो के लिए भी ये नवरात्र श्रेयस्कर रहेंगे। उन्होंने यह भी बताया है कि नवरात्र के दौरान 29, 30 व 31 मार्च को छोड़कर हर दिन विशेष संयोग भी बन रहे हैं।

आखिर एक दिन क्यों बढ़ा-

आपको बता दें कि 27 मार्च को सूर्योदय पूर्व 5.29 से पंचमी तिथि शुरू होगी। यह अगले दिन 28 मार्च को सुबह 8.08 बजे तक रहेगी। इस कारण मंगलवार व बुधवार दोनों ही दिन सूर्योदय काल में पंचमी तिथि रहेगी। दोनों ही दिन पांचवीं देवी स्कंध माता की आराधना की जाएगी।

इस नवरात्रि के श्रेष्ठ संयोग-

23 मार्च : सर्वार्थसिद्धि व अमृत सिद्धि योग

24 मार्च : संपूर्ण दिन सर्वार्थसिद्धि योग

25 मार्च : सर्वार्थसिद्धि व राजयोग

26 मार्च : संपूर्ण दिन रवियोग

27 व 28 मार्च : सर्वार्थसिद्धि योग

1 अप्रैल : रविपुष्य योग, सर्वार्थसिद्धियोग व रवियोग

चैत्र नवरात्रि का महत्व :- 

वैदिक ग्रंथों में वर्णन हैं कि जीव व जीवन का आश्रय, इस वसुधा को बचाएँ रखने के लिए युगों से देव व दानवों में ठनी रहीं। देवता जो कि परोपकारी, कल्याणकारी, धर्म, मर्यादा व भक्तों के रक्षक है। वहीं दानव अर्थात्‌ राक्षस इसके विपरीत हैं। इसी क्रम में जब रक्तबीज, महिषासुर आदि दैत्य वरदानी शक्तियों के अभिमान में अत्याचार कर जीवन के आश्रय धरती को और फिर इसके रक्षक देवताओं को भी पीड़ित करने लगे तो देवगणों ने एक अद्भुत शक्ति का सृजन कर उसे नाना प्रकार के अमोघ अस्त्र प्रदान किए। जो आदि शक्ति माँ दुर्गा के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हुईं।

नवरात्रि व्रत की कथा-

नवरात्रि व्रत की कथा के बारे प्रचलित है कि पीठत नाम के मनोहर नगर में एक अनाथ नाम का ब्राह्यण रहता था। वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दर कन्या थी। अनाथ, प्रतिदिन दुर्गा की पूजा और होम किया करता था, उस समय सुमति भी नियम से वहाँ उपस्थित होती थी। एक दिन सुमति अपनी साखियों के साथ खेलने लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और पुत्री से कहने लगा कि हे दुष्ट पुत्री! आज प्रभात से तुमने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मै किसी कुष्ठी और दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूँगा। पिता के इस प्रकार के वचन सुनकर सुमति को बड़ा दुःख हुआ और पिता से कहने लगी कि ‘मैं आपकी कन्या हूँ। मै सब तरह से आधीन हूँ जैसी आप की इच्छा हो मैं वैसा ही करूंगी। रोगी, कुष्ठी अथवा और किसी के साथ जैसी तुम्हारी इच्छा हो मेरा विवाह कर सकते हो। होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है। मनुष्य न जाने कितने मनोरथों का चिन्तन करता है, पर होता है वही है जो भाग्य विधाता ने लिखा है। अपनी कन्या के ऐसे कहे हुए वचन सुनकर उस ब्राम्हण को अधिक क्रोध आया। तब उसने अपनी कन्या का एक कुष्ठी के साथ विवाह कर दिया और अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुत्री से कहने लगा कि जाओ-जाओ जल्दी जाओ अपने कर्म का फल भोगो। सुमति अपने पति के साथ वन चली गई और भयानक वन में कुशायुक्त उस स्थान पर उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।उस गरीब बालिका कि ऐसी दशा देखकर भगवती पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रकट होकर सुमति से कहने लगी की, हे दीन ब्रम्हणी! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम जो चाहो वरदान माँग सकती हो। मैं प्रसन्न होने पर मनवांछित फल देने वाली हूँ। इस प्रकार भगवती दुर्गा का वचन सुनकर ब्रह्याणी कहने लगी कि आप कौन हैं जो मुझ पर प्रसन्न हुईं। ऐसा ब्रम्हणी का वचन सुनकर देवी कहने लगी कि मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूँ। तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद द्वारा चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ कर जेलखाने में कैद कर दिया था। उन लोगों ने तेरे और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया था। इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न ही जल पिया इसलिए नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया।हे ब्रम्हाणी ! उन दिनों में जो व्रत हुआ उस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर तुम्हे मनोवांछित वस्तु दे रही हूँ। ब्राह्यणी बोली की अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके मेरे पति के कोढ़ को दूर करो। उसके पति का शरीर भगवती की कृपा से कुष्ठहीन होकर अति कान्तियुक्त हो गया।

साधकों के लिए श्रेष्ठ है चैत्र मास की नवरात्रि-

यह नवरात्रि पर्व शक्ति की शक्तियों को जगाने का आह्वान है, ताकि हम पर देवी की कृपा हो, और हम शक्ति-स्वरूपा से सुख-समृद्धि का आशीर्वाद अर्जित कर सकें। हम सभी संकट, रोग, दुश्मन व प्राकृतिक-अप्राकृतिक आपदाओं से बच सकें। हमारे शारीरिक तेज में वृद्धि हो, मन निर्मल हो। हमें सपरिवार दैवीय शक्तियों का लाभ मिल सकें।

चैत्र नवरात्रि पर्व पर माँ भगवती का आह्वान कर दुष्टात्माओं का नाश करने हेतु उन्हें जगाया जाता है। प्रत्येक नर-नारी जो हिन्दू धर्म की आस्था से जुडे हैं वे किसी-न-किसी रूप में देवी की उपासना करते ही है। फिर चाहे व्रत, उपवास,मंत्र,जप, अनुष्ठान या दान कर्म ही क्यों ना हो, अपनी-अपनी श्रद्धा, सामर्थ्य व भक्तिनुसार उपासक यह कर्म करते हैं।

माँ के दरबार में दोनों ही नवरात्रि चैत्र व शारदीय नवरात्रि में धूमधाम रहती है। आश्विन माह की नवरात्रि में जगह-जगह गरबों की, जगह-जगह देवी प्रतिमा स्थापित करने की प्रथा है। चैत्र नवरात्रि में घरों में देवी प्रतिमा व घटस्थापना की जाती है। हिंदू मतानुसार इसी दिन से नव वर्ष का आरंभ माना गया है।

आखिर क्यों बांधते है मौली या कलावा

आपने हमेशा यह देखा होगा कि कैसी भी पूजा हो उसमें पंडित या पुरोहित लोगों को मौली या कलावा बांधते हैं क्या आप जानते हैं कि आखिर यह मौली या कलावा क्यों बांधा जाता है| अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर पंडित या पुरोहित क्यों बांधते हैं मौली या कलावा|

तो आइये जाने आखिर क्यों बांधा जाता है मौली या कलावा- 

मौली का अर्थ है सबसे ऊपर जिसका अर्थ सिर से भी लिया जाता है। त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है जिन्हें चन्द्र मौली भी कहा जाता है। शास्त्रों का मत है कि हाथ में मौली बांधने से त्रिदेवों और तीनों महादेवियों की कृपा प्राप्त होती है। महालक्ष्मी की कृपा से धन सम्पत्ति महासरस्वती की कृपा से विद्या-बुद्धि और महाकाली की कृपा से शाक्ति प्राप्त होती है।

इसके आलावा हिन्दू वैदिक संस्कृति में मौली को धार्मिक आस्था का प्रतीक माना जाता है। किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करते समय या नई वस्तु खरीदने पर हम उसे मौली बांधते है ताकि वह हमारे जीवन में शुभता प्रदान करे। मौली कच्चे सूत के धागे से बनाई जाती है। यह लाल रंग, पीले रंग, या दो रंगों या पांच रंगों की होती है। इसे हाथ गले और कमर में बांधा जाता है।

हम किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत मौली बांधकर ही करते है। शरीर की संरचना का प्रमुख नियंत्रण हाथ की कलाई में होता है, अतः यहां मौली बांधने से व्यक्ति स्वस्थ रहता है। ऐसी भी मान्यता है कि इसे बांधने से बीमारी अधिक नहीं बढती है। पुराने वैद्य और घर परिवार के बुजुर्ग लोग हाथ, कमर, गले व पैर के अंगूठे में मौली का उपयोग करते थे, जो शरीर के लिये लाभकारी था।

ब्लड प्रेशर, हार्ट एटेक, डायबीटिज और लकवा जैसे रोगों से बचाव के लिये मौली बांधना हितकर बताया गया है। मौली शत प्रतिशत कच्चे धागे (सूत) की ही होनी चाहिये। आपने कई लोगों को हाथ में स्टील के बेल्ट बांधे देखा होगा। कहते है रक्तचाप के मरीज को यह बैल्ट बांधने से लाभ होता है। स्टील बेल्ट से मौली अधिक लाभकारी है। मौली को पांच सात आंटे करके हाथ में बांधना चाहिये।

मौली को किसी भी दिन बांध सकते है, परन्तु हर मंगलवार और शनिवार को पुरानी मौली को उतारकर नई मौली बांधना उचित माना गया है। उतारी हुई पुरानी मौली को पीपल, आंकडे या बड के पेड की जड में डालना चाहिये। 

जानिये आखिर सोमवार ही क्यों हैं भगवान शंकर का दिन

हिन्दू धर्म में प्रत्येक दिन देवताओं के लिए बंटे होते हैं जैसे सोमवार भगवान शिव का है, मंगलवार हनुमान जी का है और शनिवार न्यायधीश कहे जाने वाले शनिदेव का है| क्या आपको पता है कि आखिर सोमवार ही क्यों भगवान शंकर को मिला है? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं-

आपको बता दें कि पुराणों में सोम का अर्थ चंद्रमा होता है और चंद्रमा भगवान शिव के शीश पर मुकुटायमान होकर अत्यन्त सुशोभित होता है। भगवान शंकर ने जैसे कुटिल, कलंकी, कामी, वक्री एवं क्षीण चंद्रमा को उसके अपराधी होते हुए भी क्षमा कर अपने शीश पर स्थान दिया वैसे ही भगवान् हमें भी सिर पर नहीं तो चरणों में जगह अवश्य देंगे। यह याद दिलाने के लिए सोमवार को ही लोगों ने शिव का वार बना दिया।

इसके अलावा सोम का अर्थ सौम्य होता है। इस सौम्य भाव को देखकर ही भक्तों ने इन्हें सोमवार का देवता मान लिया। सहजता और सरलता के कारण ही इन्हें भोलेनाथ कहा जाता है।

अथवा सोम का अर्थ होता है उमा के सहित शिव। केवल कल्याणरी शिव की उपासना न करके साधक भगवती शक्ति की भी साथ में उपासना करना चाहता है क्योंकि बिना शक्ति के शिव के रहस्य को समझना अत्यन्त कठिन है। इसलिए भक्तों ने सोमवार को शिव का वार स्वीकृत किया। 

त्रेतायुग से हो रहा है भगवान शंकर का जलाभिषेक

शास्त्रों में शिव के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। शिव ने विषपान किया तो नीलकंठ कहलाए, गंगा को सिर पर धारण किया तो गंगाधर पुकारे गए। भूतों के स्वामी होने से भूतभावन भी कहलाते हैं। कोई उन्हें भोलेनाथ तो कोई देवाधि देव महादेव के नाम से पुकारता है| हिन्दू धर्म में भगवान शिव को मृत्युलोक देवता माने गए हैं। शिव को अनादि, अनंत, अजन्मा माना गया है यानि उनका कोई आरंभ है न अंत है। शिव के इन सभी रूप और सभी नामों का स्मरण मात्र ही हर भक्त के सभी दु:ख और कष्टों को दूर कर हर इच्छा और सुख की पूर्ति करने वाला माना गया है।

भगवान शंकर को जलाभिषेक किया जाता है यह हर कोई जानता है क्या आपको पता है कि भगवान शंकर को कब से जलाभिषेक की शुरुआत की गई ? अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि भगवान शंकर को त्रेतायुग से जलाभिषेक किया जा रहा है|

भगवान शिव के रूप-

इसके अलावा आपको भगवान शिव के रूपों के बारे में बताते हैं जिसका पुराणों में वर्णन किया गया है| तो आइये जाने शिव के कौन- कौन से रूप हैं| 

महाकाल-

भगवान शिव का एक रूप है महाकाल| इस रूप में शिव को विनाशक के रूप में जाना जाता है| लोगों का मानना है शिव अपने भक्तों के अंदर बुराई और गलत सोच को खत्म करते हैं। इसलिए शिव को कृपालु भी कहा जाता है।

अर्धनारीश्वर-

हिमालय में कैलाश सबसे ऊंचा पर्वत है। शिव हमेशा मां शक्ति (पार्वती) के साथ रहते थे। कभी उनसे अलग नहीं होते। क्योंकि शिव बिना शक्ति और शक्ति बिना शिव का कोई अर्थ नहीं। कहते हैं पार्वती और भगवान शिव दोनों एक ही थे। तभी शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा जाता है।

नटराज-

नृत्य देवता कहे जाने वाले नटराज भी शिव का ही एक रूप हैं। भगवान शिव को मूर्तिकला के जरिए कई रूपों में पेश किया जाता है। शिव के दोनों हाथ में जीवन और मृत्यु का संतुलन है। 

नीलकंठ-

नीलकंठ उन्हें इसलिए कहा जाता है क्योंकि नीलकंठ भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भगवान शंकर ने विष का पान कर लिया था जिसकी वजह से उनका कंठ नीला हो गया है|

पशुपतिनाथ-

उनके लंबे, घुंघराले बाल भगवान वायु और हवा का प्रतीक है, जिनसे सारे जीवों को सांस लेने के लिए हवा मिलती है। इसलिए भगवान शिव को सभी जीव-जंतुओं की जीवनरेखा माना जाता है। इसलिए उन्हें ‘पशुपतिनाथ‘ कहा जाता हैं।

त्रियम्बकेश्वर महादेव-

शिव की इसी जटा से पवित्र नदी गंगा की धारा निकलती है और यही जल हर मनुष्य तक पहुंचता है। भगवान शिव के तीसरे नेत्र के कारण उन्हें त्रियम्बका देवता भी कहा जाता हैं। 

रूद्र-

गले में पड़ी 108 दानों की रूद्राक्ष माला इस बात का प्रतीक है कि इस संसार को बनाने में 108 तत्वों का इस्तेमाल किया गया है। इसीलिए भगवान को ‘रूद्र‘ के नाम से भी जाना जाता है। 

सोलह सोमवार व्रत विधि और कथा


यह उपवास सप्ताह के प्रथम दिवस सोमवार को रखा जाता है| यह व्रत सोम यानि चंद्र या शिवजी के लिये रखा जाता है।

सोलह सोमवार व्रत विधि-

सोमवार का व्रत साधारणतया दिन के तीसरे प्रहर तक होता है । व्रत में फलाहार या पारायण का कोई खास नियम नहीं है किन्तु यह आवश्यक है कि दिन और रात में केवल एक ही समय भोजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत में भगवान शंकर तथा पार्वतीजी का पूजन करना चाहिए । सोमवार के व्रत तीन प्रकार के हैं साधारण प्रति सोमवार, सौम्य प्रदोष और सोलह सोमवार, पूजाविधि तीनों की एक जैसी है । शिव पूजन के पश्‍चात् कथा सुननी चाहिए ।

सोलह सोमवार के दिन आप भक्तिपूर्वक व्रत करें, आधा सेर गेहूं के आंटे के तीन अंगा बनाकर घी, गुड, दीप, नैवेद्य, बेलपत्र, जनेऊ, चन्दन, अक्षत, पुष्प आदि से प्रदोष काल में शंकर जी का पूजन करें, आंटे का एक अंगा शिव जी को अर्पित करें और दूसरा प्रसाद स्वरुप बांटे और स्वयं भी ग्रहण करें, सत्रहवें सोमवार के दिन पाँव भर गेहूं के आंटे की बाटी बनाकर, घी और गुड का चूरमा बनाकर भगवान को भोग लगायें और खुद भी खाएं|

सोमवार व्रत कथा-

एक नगर में एक बहुत धनवान साहूकार रहता था, जिसके घर में धन की कमी नहीं थी । परन्तु उसको एक बहुत बड़ा दुःख था कि उसके कोई पुत्र नहीं था । वह इसी चिन्ता में दिन-रात लगा रहता था । वह पुत्र की कामना के लिये प्रत्येक सोमवार को शिवजी का व्रत और पूजन किया करता था तथा सायंकाल को शिव मन्दिर में जाकर के शिवजी के सामने दीपक जलाया करता था । उसके उस भक्तिभाव को देखकर एक समय श्री पार्वती जी ने शिवजी महाराज से कहा कि महाराज, यह साहुकार आप का अनन्य भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा से करता है । इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए ।

शिवजी ने कहा- "हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है । जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है । उसी तरह इस संसार में जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल भोगते हैं।" पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- "महाराज! जब यह आपका अनन्य भक्त है और इसको अगर किसी प्रकार का दुःख है तो उसको अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को दूर करते हैं । यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा तथा व्रत क्यो करेंगे?"

पार्वती जी का ऐसा आग्रह देख शिवजी महाराज कहने लगे- "हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है इसी चिन्ता में यह अति दुःखी रहता है । इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर देता हूँ । परन्तु यह पुत्र केवल १२ वर्ष तक जीवित रहेगा । इसके पश्‍चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा । इससे अधिक मैं और कुछ इसके लिए नही कर सकता ।" यह सब बातें साहूकार सुन रहा था । इससे उसको न कुछ प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ । वह पहले जैसा ही शिवजी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा । कुछ काल व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवे महीने में उसके गर्भ से अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई । साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नही की और न ही किसी को भेद ही बताया । जब वह बालक ११ वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए कहा तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करूंगा । अपने पुत्र को काशी जी पढ़ने के लिए भेजूंगा । फिर साहूकार ने अपने साले अर्थात् बालक के मामा को बुला करके उसको बहुत सा धन देकर कहा तुम उस बालक को काशी जी पढ़ने के लिये ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते जाओ ।

वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते जा रहे थे । रास्ते में उनको एक शहर पड़ा । उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दुसरे राजा का लड़का जो विवाह कराने के लिये बारात लेकर आया था वह एक ऑंख से काना था । उसके पिता को इस बात की बड़ी चिन्ता थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें । इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा तो मन में विचार किया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाये । ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और मामा से बात की तो वे राजी हो गये फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहना तथा घोड़ी पर चढा दरवाजे पर ले गये और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया । फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के से करा लिया जाय तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों का और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत कुछ धन दूंगा तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया । परन्तु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्दड़ी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक ऑंख से काना है और मैं काशी जी पढ़ने जा रहा हूँ । लड़के केजाने के पश्‍चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्दड़ी पर ऐसा लिखा हुआ पाया तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है । मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है । वह तो काशी जी पढ्ने गया है । राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी ।

उधर सेठ का लड़का और उसका मामा काशी जी पहुंच गए । वहॉं जाकर उन्होंने यज्ञ करना और लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया । जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा- "मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है"। मामा ने कहा- "अन्दर जाकर सो जाओ।" लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर में उसके प्राण निकल गए । जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना- पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा । अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त कर ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे । जब उन्होने जोर- जोर से रोने की आवाज सुनी तोपार्वती जी कहने लगी- "महाराज! कोई दुखिया रो रहा है इसके कष्ट को दूर कीजिए । जब शिव- पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा था । पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से हुआ था । शिवजी कहने लगे- "हे पार्वती! इस बालक को और आयु दो नहीं तो इसके माता-पिता तड़प- तड़प कर मर जायेंगे।" पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन वरदान दिया और शिवजी महाराज की कृपा से लड़का जीवित हो गया । शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत को चले गये ।

तब वह लड़का और मामा उसी प्रकार यज्ञ करते तथा ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर चल पड़े । रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था । वहां पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिर की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदर पूर्वक लड़की और जमाई को विदा किया । जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि मैं पहले तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूँ । जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जायेंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण खो देंगे । इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र आ गया है तो उनको विश्‍वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथपुर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ रहने लगे । इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।

सोलह सोमवार व्रत की दूसरी कथा-

मृत्युलोक में भ्रमण करने की इच्छा करके एक समय श्री भूतनाथ भगवान महादेव जी माता पार्वती के साथ पधारे, वहां भ्रमण करते-करते विदर्भ देशांतर्गत अमरावती नाम की अति रमणीक नगरी में पहुंचे । अमरावती नगरी अमरापुरी के सदृश सब प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी । उसमें वहां के महाराज का बनाया हुआ अति रमणीक शिवजी का मन्दिर बना था । उसमे भगवान शंकर भगवती पार्वती के साथ निवास करने लगे । एक समय माता पार्वती ने प्राणपति को प्रसन्न देख के मनोविनोद करने की इच्छा से बोली- "हे महाराज! आज तो हम तुम दोनों चौसर खेलेंगे । शिवजी ने प्राणप्रिया की बात को मान लिया और चौसर खेलने लगे । उस समय इस स्थान पर मन्दिर का पुजारी ब्राह्मण मन्दिर में पूजा करने को आया । माताजी ने ब्राह्मण से प्रश्‍न किया कि पुजारी जी बताओ इस बाजी में दोनों में किसकी जीत होगी । ब्राह्मण बिना विचरे ही शीघ्र बोल उठा कि महादेवजी की जीत होई । थोड़ी देर में बाजी समाप्त हो गई और पार्वती जी की विजय हुई । अब तो पार्वती जी ब्राह्मण को झूठ बोलने के अपराध के कारण श्राप देने को उद्यत हुई । तब महादेव जी ने पार्वती जी को बहुत समझाया परन्तु उन्होंने ब्राह्मण को कोढ़ी होने का श्राप दे दिया । कुछ समय बाद पार्वती जी के श्रापवश पुजारी के शरीर में कोढ़ पैदा हो गया । इस कारण पुजारी अनेक प्रकार से दुखी रहने लगा । इस तरह्के कष्ट भोगते हुए जब बहुत दिन हो गये तो देवलोक की अप्सरायें शिवजी की पूजा करने उसी मन्दिर में पधारी और पुजारी के कोढ़ के कष्ट को देख बड़े दयाभाव से उससे रोगी होने का कारण पूचने लगीं- "पुजारी ने निःसंकोच सब बातें उनसे कह दीं।" वे अप्सरायें बोलीं -"हे पुजारी! अब तुम अधिक दुखी मत होना भगवान् शिवजी तुम्हारे कष्ट को दूर कर देंगे । तुम सब बातों में श्रेष्ठ षोडश सोमवार का व्रत भक्त भाव से किया करो । पुजारीजी अप्सराओं से हाथ जोड़कर विनम्र भाव से षोडश सोमवार व्रत की विधि पूछने लगा । अप्सरायें बोली कि जिस दिन सोमवार हो उस दिन भक्ति के साथ व्रत करे स्वच्छ वस्त्र पहने आधा सेर गेहूँ का आटा ले उसके तीन अंगा बनावे और घी, गुड़, दीप, नैवेद्य, पुंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ जोड़ा, चन्दन, अक्षत, पुष्पादि के द्वारा प्रदोष काल में भगवान् शंकर का विधि से पूजन करे तत्पश्‍चात् अंगों में से एक शिवजी को अर्पण करें बाकी दो को शिवजी की प्रसादी समझकर उपस्थित जनों में बांट दें और आप भी प्रसाद पावें । इस विधि से सोलह सोमवार व्रत करे । तत्पश्‍चात् सत्रहवे सोमवार के दिन पावसेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनावे तदनुसार घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और शिवजी का भोग लगाकर उपस्थित भक्तों में बांटे पीछे आप सकुटुम्ब प्रसादी लें तो भगवान शिवजी की कृपा से उसके मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । ऐसा कहकर अप्सरायें स्वर्ग को चली गयीं । ब्राह्मण ने यथाविधि षोडश सोमवार व्रत किया तथा भगवान् शिवजी की कृपा से रोग मुक्त होकर आनन्द से रहने लगा । कुछ दिन बाद जब फिर शिवजी और पार्वती उस मन्दिर में पधारे, तब ब्राह्मण को निरोग देख पार्वतीजी ने ब्राह्मण से रोग-मुक्त होने का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने सोलह सोमवार व्रत की कथा कह सुनाई । तब तो पार्वती जी ने अति प्रसन्न हो ब्राह्मण से व्रत की विधि पूछ कर व्रत करने को तैयार हुई । व्रत करने के बाद उनकी मनोकामना पूर्ण हुई तथा उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय स्वयं माता के आज्ञाकारी हुए परन्तु कार्तिकेय जी को अपने यह विचार परिवर्तन का रहस्य जानने की इच्छा हुई और माता से बोले- "हे माताजी! आपने ऐसा कौन- सा उपाय किया जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हुआ । तब पार्वतीजी ने वही षोडश सोमवार व्रत कथा उनको सुनाई । स्वामी कार्तिकजी बोले कि इस व्रत को मैं भी करूंगा क्योंकि प्रियमित्र ब्राह्मण बहुत दुःखी दिल से परदेस गया है । हमें उससे मिलने की बहुत इच्छा है । कार्तिकेयजी ने भी इस व्रत को किया और उनका प्रिय मित्र मिल गया । मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेयजी से पूछा तो वे बोले-"हे मित्र ! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार का व्रत किया था । अब तो ब्राह्मण मित्र को भी अपने विवाह की बड़ी इच्छा हुई । कार्तिकेयजी से व्रत की विधि पूछी और यथाविधि व्रत किया । व्रत के प्रभाव से जब वह किसी कार्यवश विदेश गया तो वहां के राजा की लड़की का स्वयंवर था । राजा ने प्रण किया था कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रृङ्गारित हथिनी माला डालेगी मैं उसी के साथ अपनी प्यारी पुत्री का विवाह कर दुंगा । शिवजी की कृपा से ब्राह्मण भी स्वयंवर देखने की इच्छा से राजसभा में एक ओर बैठ गया । नियत समय पर हथिनी आई और उसने जयमाला उस ब्राह्मण के गले में डाल दी । राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम से कन्या का विवाह उस ब्राह्मण के साथ कर दिया गया ब्राह्मण को बहुत- सा धन और सम्मान देकर सन्तुष्ट किया । ब्राह्मण सुन्दर राजकन्या पाकर सुख से जीवन व्यतीत करने लगा । एक दिन राजकन्या ने अपने पति से प्रश्‍न किया । हे प्राणनाथ! आपने ऐसा कौन-सा भारी पुण्य किया जिसके प्रभाव से हथिनी ने सब राजकुमारों को छोड़ कर आपको वरण किया? ब्राह्मण बोला-"हे प्राणप्रिये! मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथनानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी स्वरूपवान पत्नी की प्राप्ति हुई है । व्रत की महिमा को सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्‍चर्य हुआ और वह भी पुत्र की कामना करके व्रत करने लगी । शिवजी की दया से उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा और विद्वान पुत्र उत्पन्न हुआ । माता-पिता दोनों उस देव पुत्र को पाकर अति प्रसन्न हुए और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे । जब पुत्र समझदार हुआ तो एक दिन अपने माता से प्रश्‍न किया कि है मां तुमने कौन सा व्रत एवं तप किया है जो मेरे जैसा पुत्र तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न हुआ । माता ने पुत्र का प्रबल मनोरथ जान करके अपने किए हुए सोलह सोमवार व्रत को विधि के सहित पुत्र को बताया । पुत्र ने ऐसे सरल व्रत को और सब तरह के मनोरथ पूर्ण करने वाला सुना तो वह भी इस व्रत को राज्याधिकार पाने की इच्छा से हर सोमवार को यथा विधि व्रत करने लगा । उसी समय एक देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उसको राजकन्या के लिए वरण किया । राजा ने अपनी पुत्री का विवाह ऐसे सर्वगुण सम्पन्न ब्राह्मण युवक के साथ करके बड़ा सुख प्राप्त किया । वृद्ध राजा के दिवंगत हो जाने पर यही ब्राह्मण बालक गद्दी पर बिठाया गया, क्योंकि दिवंगत राजा के कोई पुत्र नहीं था । राज्य का उत्तराधिकारी होकर भी वह ब्राह्मण पुत्र अपने सोलह सोमवार के व्रत को करता रहा । जब सत्रहवा सोमवार आया तो विप्र पुत्र ने अपनी प्रियतमा से सब पूजन सामग्री लेकर शिवपूजा के लिये शिवालय में चलने को कहा । परन्तु प्रियतमा ने उसकी आज्ञा की परवाह न की । दास दासियों द्वारा सब सामग्रियां शिवालय भिजवा दीं और आप नहीं गई । जब राजा ने शिवजी का पूजन समाप्त किया, तब एक आकाशवाणी राजा के प्रति हुई राजा ने सुना कि हे राजा! अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे नहीं तो तेरा सर्वनाश कर देगी, आकाशवाणी को सुनकर राजा के आश्‍चर्य का ठिकाना नहीं रहा और तत्काल ही मंत्रणागृह में आकर अपने सभासदों को बुलाकर पूछने लगा कि हे मन्त्रियों! मुझे आज शिवजी की वाणी हुई है कि राजा तू अपनी इस रानी को निकाल दे नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी । राजसभाये, मन्त्री आदि सब बड़े विस्मय और दुःख में डूब गये क्योंकि जिस कन्या के कारण राज मिला है राजा उसी को निकालने का जाल रच रहा है, यह कैसे हो सकेगा? अन्त में राजा ने उसे अपने यहां से निकाल दिया । रानी दुःखी ह्रदय भाग्य को कोसती हुई नगर के बाहर चली गई । बिना पदत्राण फटे वस्त्र पहने भूख से दुखी धीरे-धीरे चल कर एक नगर में पहुंची । वहां एक बुढ़िया सूत कात कर बेचने को जाती थी । रानी की करुण दशा देख बोली चल तू मेरा सूत बिकवा दे । मै वृद्ध हूँ, भाव नहीं जानती हूँ। ऐसीबात बुढ़िया की सुन रानी ने बुड़िया के सिर से सूत की गठरी उतार कर अपने सर पर रख ली, थोड़ी देर बाद आंधी आइ और बुढ़िया का सूत पोटली के सहित उड़ गया । बेचारी बुढ़िया पछताती रह गई और रानी को अपने साथ से दूर रहने को कह दिया । अब रानी एक तेली के घर गई, तो तेली के सब मटके शिवजी के प्रकोप के कारण उसी समय चटक गये । ऐसी दशा देख तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया । इस प्रकार रानी अत्यन्त दुःख पाती हुई एक नदी के तट पर गई तो नदी का समस्त जल सूख गया । तत्पश्‍चात् रानी एक वन में गई, वहां जाकर सरोवर में सीढ़ी से उतरकर पानी पीने को गई उसके हाथ का जल मे स्पर्श होते ही सरोवर का नीलकमल के समान जल असंख्य कीड़ामय गंदा हो गया । रानी ने भाग्य पर दोषारोपण करते हुए उस जल को पी करके पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करना चाहा, वह रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उस पेड़ के पत्ते तत्काल ही गिर जाते । वन सरोवर जल की ऐसी दशा देखकर गऊ चराते ग्वालों ने अपने गुसाईं जी से जो उस जंगल मे स्थित मन्दिर में पुजारी थे कही । गुसाईं जी आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुसाईं के पास ले गये । रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देख गुसाईं जान गए कि यह अवश्य ही कोई विधि की गति की मारी कुलीन स्त्री है । ऐसा सोच कर पुजारी जी ने रानी से कहा कि है पुत्री मैं तुमको अपनी पुत्री के समान रक्खूंगा । तुम मेरे आश्रम में ही रहो मैं तुम को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दूंगा । गुसाईं के ऐसे वचन सुनकर रानी को धीरज हुआ और आश्रम में रहनी लगी । परन्तु आश्रम में रानी जो भोजन बनाती उसमें कीड़े पड़ जाते, जल भरके लाती उसमें कीड़े पड़ जाते । अब तो गुसाईं जी भी दुःखी हुए और रानी से बोले कि हे बेटी! तुम्हारे उपर कौन से देवता का कोप है, जिससे तुम्हारी ऐसी दशा है? पुजारी की बात सुन रानी ने शिवजी महाराज के पूजन वहिष्कार करने की कथा सुनाई तो पुजारी शिवजी महाराज की अनेक प्रकार से स्तुति करते हुए रानी से बोले कि देवी तुम सब मनोरथों के पूर्ण करने वाले सोलह सोमवार व्रत को करो उसके प्रभाव से अपने कष्ट से मुक्त हो सकोगी । गुसाईं की बात सुनकर रानी ने सोलह सोमवार व्रत को विधिवत सम्पन्न किया और सत्रहवे सोमवार को पूजन के प्रभाव से राजा के ह्रदय में विचार उत्पन्न हुआ कि रानी को गए बहुत समय व्यतीत हो गया न जाने कहां- कहां भटकती होगी, ढूंढना चाहिए । यह सोच रानी को तलाश करने के लिए चारों दिशाओं में दूत भेजे । वे दूत रानी को देखते हुए पुजारी के आश्रम में पहूँचे वहॉं रानी को पाकर पुजारी से रानी को मांगने लगे, परन्तु पुजारी ने उनसे मना कर दिया । तो दूत चुपचाप लौटे और आकर महाराज के सन्मुख रानी का पता बतलाया । रानी का पता पाकर राजा स्वयं पुजारी के आश्रम में गये और पुजारी से प्रार्थना करने लगे कि महाराज! जो देवी जी आपके आश्रम में रहती हैं वह मेरी पत्‍नी है । शिवजी के कोप से मैंने उसको त्याग दिया था अब इस पर से शिव का प्रकोप शांत हो गया है । इसलिये मैं इन्हें लेने आया हूँ । आप इनको मेरे साथ जाने की आज्ञा दे दीजिए । गुसाईं जी ने राजा के वचन को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी । गुसाईं जी की आज्ञा पाकर रानी प्रसन्न होकर राजा के साथ महल में आई, नगर में अनेक प्रकार के बधावे बजने लगे । नगर निवासियों ने नगर के दरवाजे तथा नगर को तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से सजाया । घर-घर में मंगल गान होने लगे, पंडितों ने विविध वेद मंत्रों का उच्चारण करके अपनी राज राजी का स्वागत किया । ऐसी अवस्था में रानी ने पुनः अपनी राजधानी में प्रवेश किया, महाराज ने अनेक तरह से ब्राह्मणों को दानादि देकर संतुष्ट किया । याचकों को धन-धान्य दिया । नगरी में स्थान-स्थान पर सदाव्रत खुलवाये । जहॉं भूखों लोगो को भोजन मिलता था । इस प्रकार से राजा शिवजी की कृपा का पात्र हो राजधानी में रानी के साथ अनेक तरह के सुखों का भोग करते सोमवार व्रत करने लगा । विधिवत् शिव पूजन करते हुए, इस लोक में अनेकानेक सुखों को भोगने के पश्‍चात शिवपुरी को पधारे, ऐसे ही जो मनुष्य मनसा वाचा कर्मणा द्वारा भक्ति सहित सोलह सोमवार का व्रत पूजन इत्यादि विधिवत् करता है वह इस लोक में समस्त सुखों को भोगकर अन्त में शिवपुरी को प्राप्त होता है । यह व्रत सब मनोरथों को पूर्ण करने वाला है ।

॥इति सोलह सोमवार व्रत कथा॥


सोमवार व्रत की आरती-

आरती करत जनक कर जोरे। बड़े भाग्य रामजी घर आए मोरे॥
जीत स्वयंवर धनुष चढ़ाये। सब भूपन के गर्व मिटाए॥
तोरि पिनाक किए दुइ खण्डा। रघुकुल हर्ष रावण मन शंका॥
आइ सिय लिये संग सहेली। हरषि निरख वरमाला मेली॥
गज मोतियन के चौक पुराए। कनक कलश भरि मंगल गाए॥
कंचन थार कपूर की बाती। सुर नर मुनि जन आए बराती।
फिरत भांवरी बाजा बाजे। सिया सहित रघुबीर विराजे॥
धनि-धनि राम लखन दोउ भाई। धनि दशरथ कौशल्या माई॥
राजा दशरथ जनक विदेही। भरत शत्रुघन परम सनेही॥
मिथिलापुर में बाजत बधाई दास मुरारी स्वामी आरती गाई॥

जाने शनि पर क्यों चढ़ाते है तेल

कठोर न्यायाधीश कहे जाने वाले शनि देव के कोप से सभी भलीभांति परिचित हैं क्योंकि शनि देव बुरे कर्मों का न्याय बड़ी कठोरता से करते हैं। शनि की बुरी नजर किसी भी राजा को रातों-रात भिखारी बना सकती है और यदि शनि शुभ फल देने वाला हो जाए तो कोई भी भिखारी राजा के समान बन सकता है।

आपको पता ही होगा कि सूर्यपुत्र शनि की आराधना करने के लिए शनिवार के दिन तेल के साथ काली तिल, जौ और काली उड़द, काला कपड़ा ये सब चढ़ाने से शनि की साढ़ेसाती में होने वाले दुष्प्रभावों से बचना संभव हो जाता है। लेकिन क्या आपको यह पता है कि सूर्य पुत्र शनि पर तेल क्यों चढाते हैं अगर नहीं पता है तो आज हम आपको बताते हैं कि आखिर सूर्य पुत्र शनि पर तेल क्यों चढाते हैं|

तो आइये जाने सूर्य पुत्र शनि पर क्यों तेल चढाते हैं-

आपको बता दें कि शनि पर तेल चढ़ाने के धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों महत्व है। शनि की नाराजी श्रम से दूर की जा सकती है, लेकिन उस श्रम के लिए हमारे शरीर में शक्ति, स्वास्थ्य और सामथ्र्य रहे, इसके लिए शनि को तेल चढ़ा कर प्रसन्न किया जाता है। 

पुराणों में शनि को तेल चढ़ाने के पीछे कई भिन्न-भिन्न कथाएं हैं। मुख्यत: ये सारी कथाएं रामायण काल और विशेष रूप से भगवान हनुमान से जुड़ी हैं। अलग-अलग कथाओं में शनि को तेल चढ़ाने की चर्चा है लेकिन सार सभी का यही है। शनि नीले रंग का क्रूर माना जाने वाला ग्रह है, जिसका स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उसने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीड़ित शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा तथा शनिवार को मुझपर तेल चढ़ाएगा उसका मैं कल्याण करुंगा। धार्मिक महत्व के साथ ही इसका वैज्ञानिक आधार भी है। 

धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि शनिवार को तेल लगाने या मालिश करने से सुख प्राप्त होता है। उक्त वाक्य और शनि को तेल चढ़ाने का सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को त्वचा, दांत, कान, हड्डियों और घुटनों में स्थान दिया गया है। उस दिन त्वचा रुखी, दांत, कान कमजोर तथा हड्डियों और घुटनों में विकार उत्पन्न होता है। तेल की मालिश से इन सभी अंगों को आराम मिलता है। अत: शनि को तेल अर्पण का मतलब यही है कि अपने इन उपरोक्त अंगों की तेल मालिश द्वारा रक्षा करो। दांतों पर सरसो का तेल और नमक की मालिश। कानों में सरसो तेल की बूंद डालें। त्वचा, हड्डी, घुटनों पर सरसो के तेल की मालिश करनी चाहिए। शनि का इन सभी अंगों में वास माना गया है, इसलिए तेल चढ़ाने से वे हमारे इन अंगों की रक्षा करते हैं और उनमें शक्ति का संचार भी करते हैं। 

चैत्र नवरात्रि कल से, जानिए कलश स्थापना मुहूर्त और विधि

नवरात्रि का अर्थ होता है, नौ रातें। हिन्दू धर्मानुसार यह पर्व वर्ष में दो बार आता है। एक शरद माह की नवरात्रि और दूसरी बसंत माह की| इस पर्व के दौरान तीन प्रमुख हिंदू देवियों- पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों श्री शैलपुत्री, श्री ब्रह्मचारिणी, श्री चंद्रघंटा, श्री कुष्मांडा, श्री स्कंदमाता, श्री कात्यायनी, श्री कालरात्रि, श्री महागौरी, श्री सिद्धिदात्री का पूजन विधि विधान से किया जाता है | जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं।

आपको बता दें की इस बार की चैत्र नवरात्रि 10 दिन की होंगी। तिथियों की घटत-बढ़त के कारण ऐसा होगा। नवरात्र पर्व 23 मार्च से शुरू होकर 1 अप्रैल तक रहेगा। इस दौरान शुभ संयोग भी खूब रहेंगे।

हमारे ज्योतिषाचार्य आचार्य विजय कुमार का कहना है कि चैत्र नवरात्र का आरंभ देवी के वार यानी शुक्रवार से हो रहा है। ऐसे में ये देवी आराधना करने वाले साधकों के लिए विशेष फलदायी रहेंगे। खरीदारी व नवीन कार्यो के लिए भी ये नवरात्र श्रेयस्कर रहेंगे। उन्होंने यह भी बताया है कि नवरात्र के दौरान 29, 30 व 31 मार्च को छोड़कर हर दिन विशेष संयोग भी बन रहे हैं।

इस बार नवरात्रि में राम जन्म पर महामुहूर्त का संयोग है| राम नवमी एक अप्रैल को राम जन्मोत्सव मनेगा। चैत्र नवरात्र की पूर्णता की तिथि महानवमी के साथ सुकर्मा योग व कौलवकरण होने से यह दिन विशेष शुभ होगा। 

घट स्थापना मुहूर्त-

नवरात्र में तिथि वृद्धि सुखद संयोग माना जाता है। प्रतिपदा तिथि रात 10 बजकर 2 मिनट तक रहेगी। नवरात्र पूजन का प्रारंभ घट स्थापना से होता है। घट स्थापना प्रात: काल 6 बजकर 30 मिनट से लेकर 7 बजकर 30 मिनट तक, द्विस्वभाव लग्न मीन में एवं दोपहर 12 बजकर 5 मिनट से लेकर 12 बजकर 50 मिनट तक अभिजीत काल में किया जाना उचित है। दोपहर बाद घट स्थापना एवं देवी पूजन प्रारंभ करने से गृह भंग एवं यश हानि होती है। 

घट स्थापना विधि-

आचार्य विजय कुमार ने कहा है कि नवरात्र पूजन में कई लोग घट व नारियल स्थापना उन्होंने कलश स्थापना की सही विधि घट सही तरीके से न करने से शुभ की जगह अशुभ फल प्राप्त होता है।

आपको बता दें कि मंदिर के उत्तर पूर्व दिशा के मध्य में स्थित ईशान कोण में मिट्टी या धातु के पात्र में साख लगाएं। इसके बाद पात्र में घट (कलश) की स्थापना करें। घट धातु का ही होना चाहिए, तांबे या पीतल धातु का शुभ होता है। घट को मौली बांधे, उसमें जल, चावल, पंचरतनी, चुटकी भर तुलसी की मिट्टी, स्र्वोष्धी, तिलक, फूल व द्रूवा व सिक्के डाल कर आम के नौ पत्ते रख कर उस पर चावल से भरे दोने से ढक सभी देवी-देवताओं का ध्यान कर उनका आह्वान करें।

इसके बाद चावलों के ऊपर नारियल का मुख अपनी और इस तरह रखें कि उसे देखने पर साधक की नजरें सीधे मुख पर पड़े। शास्त्रों में वर्णित श्लोक के मुताबिक 'अधोमुखं शत्रु विवर्धनाय, ऊ‌र्ध्वस्य वस्त्रं बहुरोग वृध्यै। प्राचीमुखं वित विनाशनाय, तस्तमात् शुभम संमुख्यम नारीकेलम' के अनुसार स्थापना के दौरान नारियल का मुख नीचे रखने से शत्रु बढ़ते हैं, ऊपर रखने से रोग में वृद्धि, पूर्व दिशा में करने से धन हानि होती है। इसलिए नारियल का मुख अपनी तरफ रख ही उसकी स्थापना करनी चाहिए। नारियल जिस तरफ से पेड़ पर लगा होता है, वह उसका मुख वह होता और उसका ठीक उल्टा हिस्सा नुकीला होता है। 

फिर आओ प्यारी गौरैया


घर के आंगन से लेकर दालान चहचहाने वाली गौरैया ने अब घर आना ही छोड़ दिया है। आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ ने इन नन्हें प्यारे पक्षियों का घर में आना जाना बंद कराया, तो वहीं कीट-नाशक के इस्तेमाल ने खेतों से इनके आशियाने को छीन लिया। इससे इस छोटी प्यारी से चिड़िया के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो गया है। इनके कम नजर आने से यह बात से साफ हो जाती है कि इनकी संख्या में तेजी से घट रही है।


घरों को अपनी चीं..चीं से चहकाने वाली गौरैया अब दिखाई नहीं देती । इस छोटे आकार वाले खूबसूरत पक्षी का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे बचपन से इसे देखते बड़े हुआ करते थे । अब स्थिति बदल गई है । गौरैया के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफी कम कर दी है और कहीं..कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती ।

पहले यह चिड़िया जब अपने बच्चों को चुग्गा खिलाया करती थी तो इंसानी बच्चे इसे बड़े कौतूहल से देखते थे । लेकिन अब तो इसके दर्शन भी मुश्किल हो गए हैं और यह विलुप्त हो रही प्रजातियों की सूची में आ गई है ।पक्षी विज्ञानी हेमंत सिंह के मुताबिक गौरैया की आबादी में 60 से 80 फीसदी तक की कमी आई है । यदि इसके संरक्षण के उचित प्रयास नहीं किए गए तो हो सकता है कि गौरैया इतिहास की चीज बन जाए और भविष्य की पीढ़ियों को यह देखने को ही न मिले ।

ब्रिटेन की ‘रॉयल सोसायटी ऑफ प्रोटेक्शन आफ बर्डस’ ने भारत से लेकर विश्व के विभिन्न हिस्सों में अनुसंधानकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर गौरैया को ‘रेड लिस्ट’ में डाला है ।आंध्र विश्वविद्यालय द्वारा किए गए अध्ययन के मुताबिक गौरैया की आबादी में करीब 60 फीसदी की कमी आई है । यह हृास ग्रामीण और शहरी..दोनों ही क्षेत्रों में हुआ है ।पश्चिमी देशों में हुए अध्ययनों के अनुसार गौरैया की आबादी घटकर खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है ।गौरैया पर मंडरा रहे खतरे के कारण ही सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद मोहम्मद ई दिलावर जैसे लोगों के प्रयासों से आज दुनियाभर में 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मानाया जाता है, ताकि लोग इस पक्षी के संरक्षण के प्रति जागरूक हो सकें । 

दिलावर द्वारा शुरू की गई पहल पर ही आज बहुत से लोग गौरैया बचाने की कोशिशों में जुट रहे हैं ।सिंह के अनुसार आवासीय हृास, अनाज में कीटनाशकों के इस्तेमाल, आहार की कमी और मोबाइल फोन तथा मोबाइल टॉवरों से निकलने वाली सूक्ष्म तरंगें गौरैया के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं ।उन्होंने कहा कि लोगों में गौरैया को लेकर जागरूकता पैदा किए जाने की जरूरत है क्योंकि कई बार लोग अपने घरों में इस पक्षी के घोंसले को बसने से पहले ही उजाड़ देते हैं । कई बार बच्चे इन्हें पकड़कर पहचान के लिए इनके पैर में धागा बांधकर इन्हें छोड़ देते हैं । इससे कई बार किसी पेड़ की टहनी या शाखाओं में अटक कर इस पक्षी की जान चली जाती है ।

इतना ही नहीं कई बार बच्चे गौरैया को पकड़कर इसके पंखों को रंग देते हैं जिससे उसे उड़ने में दिक्कत होती है और उसके स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ता है ।पक्षी विज्ञानी के अनुसार गौरैया को फिर से बुलाने के लिए लोगों को अपने घरों में कुछ ऐसे स्थान उपलब्ध कराने चाहिए जहां वे आसानी से अपने घोंसले बना सकें और उनके अंडे तथा बच्चे हमलावर पक्षियों से सुरक्षित रह सकें। 

भगवान शिव को चढ़ाएं शमी का फूल, पूरी होंगी सभी मुरादें

धर्म शास्त्रो में भगवान शिव को जगत पिता बताया गया हैं, क्योकि भगवान शिव सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म हैं। हिंदू संस्कृति में शिव को मनुष्य के कल्याण का प्रतीक माना जाता हैं। शिव शब्द के उच्चारण या ध्यान मात्र से ही मनुष्य को परम आनंद प्रदान करता हैं। भगवान शिव भारतीय संस्कृति को दर्शन ज्ञान के द्वारा संजीवनी प्रदान करने वाले देव हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में होते हुवे भी शिवलिंग के रूप में साकार मूर्ति की पूजा होती हैं।

आज हम आपको बताते हैं कि शिवलिंग पर कौन सा पुष्प चढ़ाना चाहिए और वह कितना पुण्य देने वाला है| शास्त्रों ने कुछ फूलों के चढाने से मिलने वाले फल का महत्व बतलाया है | वैसे भी पूजा में कुदरती सामग्रियों के चढ़ावे का महत्व है। जिनमें अनेक तरह-तरह के पेड़-पौधों के पत्ते, फूल और फल शामिल होते हैं। शास्त्रों में भगवान शिव पर फूल चढाने का बहुत अधिक महत्व बताया गया है| 

एक फूल शिव पर चढ़ाना से सोने के दान के बराबर फल देता है वो है आक के फूल को चढाने से मिल जाता है , हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है जिस तरह पापो के नाश के लिए शिव पर बिल्व पत्र से शिव खुश होते है|

हजार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हजार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तो के बराकर एक नीलकमल, हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हजार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है। 

इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए एक शमी का पुष्प चढ़ाएं क्योंकि यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है| 

अगर लड़कियां देखें यह सपने तो समझो..

हर सपना कुछ-न कुछ कहता है। कुछ सपने निराशा देते हैं, तो कुछ जीवन में खुशियों की लहर भर देते हैं। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो उसकी पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ उसका मन और उसकी पाँचों कर्मेंद्रियाँ अपनी-अपनी क्रियाएँ करना बंद कर देती हैं और व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह शांत रहता है। उस अवस्था में व्यक्ति को एक अनुभव होता है, जो उसके जीवन से संबंधित होता है। उसी अनुभव को स्वप्न कहा जाता है|

आज हम आपको लड़कियों के सपनों के बारे में बताते हैं-

आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि लड़कियों को खास तरह के सपने आते हैं जिनमें भविष्य का कोई संकेत छुपा होता है। ऐसे सपनों को देखकर पता चल जाता है कि कब किस्मत बदलने वाली है| 

आपको बता दें की जब कोई लड़की अपने सपने में सुंदर चिडिय़ा देखती है तो उसके प्रेम संबंध को विवाह में बदलने में अधिक समय नहीं लगता और उसका होने वाला जीवनसाथी भी शीघ्र ही धनी हो जाता है। इसके अलावा जब कोई कुंवारी कन्या अपने सपने में किसी मूर्तिकार को देखती है तो समझ जाइए कि उस लड़की को जल्द ही उसका मनचाहा वर मिलेगा|

अगर किसी लड़की को सपने में अनार दिखाई दे तो संतान के साथ धन लाभ भी होता है। वहीँ, स्वप्न में यदि कोई युवती किसी सहेली के दिए हुए कंगन पहनती है तो उसका शीघ्र ही विवाह हो जाता है।


जो युवती स्वप्न में कस्तूरी व चंदन अपने शरीर पर लगाती है उसकी मान, प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है तथा मनचाही जगह ट्रांसफर हो जाता है। यदि कोई विवाहित स्त्री स्वप्न में छोटे बच्चे की स्वेटर आदि बुनती है तो उसे शीघ्र ही संतान सुख मिलता है। 

हिन्दू नववर्ष का संवत् 23 मार्च से

हिंदू पंचांग में नववर्ष का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी 'गुड़ी पड़वा' से माना जाता है जो कि इस बार 23 मार्च को पड़ रहा है| हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है| करीब एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना की थी| इस दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है| हिन्दू परम्परा के अनुसार इस दिन को 'नव संवत्सर' या 'नव संवत' के नाम से भी जाना जाता है|

हिंदू पंचांग के मुताबिक, इस वर्ष 22 मार्च 2012 को शाम 7 बजकर 10 मिनट पर विक्रम संवत् 2069 का प्रारंभ होगा| इस वर्ष का राजा और मंत्री दोनों ही शुक्र है| 23 मार्च 2012 को इस धरा की 1955885113वीं वर्षगांठ है| इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की थी इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए साल का आरम्भ मानते हैं| हिन्दू पंचांग का पहला महीना चैत्र होता है| यही नहीं शक्ति और भक्ति के नौ दिन यानी कि नवरात्रि स्थापना का पहला दिन भी यही है| ऐसी मान्यता है कि इस दिन नक्षत्र शुभ स्थिति में आ जाते हैं और किसी भी नए काम को शुरू करने के लिए यह मुहूर्त शुभ होता है|

क्यों मनाते हैं 'गुड़ी पड़वा'-

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या नववर्ष आरम्भ होता है| 'गुड़ी' का अर्थ होता है 'विजय पताका'| कहा जाता है कि शालिवाहन नामक एक कुम्हार के लड़के ने मिट्टी के सैनिकों का निर्माण किया और उनकी एक सेना बनाकर उस पर पानी छिड़कर उनमें प्राण फूंक दिए| उसने इस सेना की सहायता से शक्तिशाली शत्रुओं को पराजित किया| इसी विजय के प्रतीक के रूप में 'शालिवाहन शक' का प्रारंभ हुआ| महाराष्ट्र में यह पर्व 'गुड़ी पड़वा' के रूप में मनाया जाता है| कश्मीरी हिन्दुओं के लिए नववर्ष एक महत्वपूर्ण उत्सव की तरह है|

इसी तिथि से प्रारंभ होता है विक्रम संवत्-

भारतीय इतिहास में जनप्रिय और न्यायप्रिय शासकों की जब भी बात चलेगी तो वह उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नाम के बगैर पूरी नहीं हो सकेगी। उनकी न्यायप्रियता के किस्से भारतीय परिवेश का हिस्सा बन चुके हैं। विक्रमादित्य का राज्य उत्तर में तक्षशिला जिसे वर्तमान में पेशावर (पाकिस्तान) के नाम से जाना जाता हैं, से लेकर नर्मदा नदी के तट तक था। उन्होंने यह राज्य मध्य एशिया से आये एक शक्तिशाली राजा को परास्त कर हासिल किया था। राजा विक्रमादित्य ने यह सफलता मालवा के निवासियों के साथ मिलकर गठित जनसमूह और सेना के बल पर हासिल की थी| विक्रमादित्य की इस विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के तमाम ऋणों को माफ करने का ऐलान किया तथा नए भारतीय कैलेंडर को जारी किया, जिसे विक्रम संवत नाम दिया गया|

इतिहास के मुताबिक, अवन्ती (वर्तमान उज्जैन) के राजा विक्रमादित्य ने इसी तिथि से कालगणना के लिए 'विक्रम संवत्' का प्रारंभ किया था, जो आज भी हिंदू कालगणना के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है| कहा जाता है कि विक्रम संवत्, विक्रमादित्य प्रथम के नाम पर प्रारंभ होता है जिसके राज्य में न तो कोई चोर हो और न ही कोई अपराधी या भिखारी था| 

वहीँ, अगर ज्योतिष की माने तो प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है| विभिन्न ग्रह इस संवत् के राजा, मंत्री और स्वामी होते हैं| इन ग्रहों का असर वर्ष भर दिखाई देता है| सिर्फ यही नहीं समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को 'आर्य समाज' स्थापना दिवस के रूप में चुना था|

संस्कृति से जोड़ता है विक्रम संवत्-

गुलामी के बाद अंग्रेजों ने हम पर ऐसा रंग चढ़ाया ताकि हम अपने नववर्ष को भूल उनके रंग में रंग जाए| उन्ही की तरह एक जनवरी को ही नववर्ष मनाये और हुआ भी यही लेकिन अब देशवासियों को यह याद दिलाना होगा कि उन्हें अपना भारतीय नववर्ष विक्रमी संवत बनाना चाहिए, जो आगामी 23 मार्च को है|

वैसे अगर देखा जाये तो विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति से जोड़ता है| भारतीय संस्कृति से जुड़े सभी समुदाय विक्रम संवत् को एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं और इसका अनुसरण करते हैं| दुनिया का लगभग हर कैलेण्डर सर्दी के बाद बसंत ऋतु से ही प्रारम्भ होता है| यही नहीं इस समय प्रचलित ईस्वी सन बाला कैलेण्डर को भी मार्च के महीने से ही प्रारंभ होना था| आपको बता दें कि इस कैलेण्डर को बनाने में कोई नयी खगोलीय गणना करने के बजाए सीधे से भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) में से ही उठा लिया गया था|

12 महीनों के नाम-

ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी द्वारा 365/366 दिन में होने वाली सूर्य की परिक्रमा को वर्ष और इस अवधि में चंद्रमा द्वारा पृथ्वी के लगभग 12 चक्कर को आधार मानकर कैलेण्डर तैयार किया और क्रम संख्या के आधार पर उनके नाम रखे गए हैं| हिंदी महीनों के 12 नाम हैं चैत्र, बैशाख, ज्‍येष्‍ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्‍गुन| 

चुनाव व प्रत्‍याशी किन्‍नर.........................

जब छोटा था तो दादी बताया करती थी, श्रीराम जी वनवास को जा रहे थे तो लोग उन्‍हें अयोध्‍या की सीमा तक छोड्ने आयेा समझदार तो विलाप कर उन्‍हें विदा कर लौट गए लेकिन कुछ न घर लौटे न घाट। श्री राम की बाट जोहते रहे, बाद में यही बन गए किन्‍नर। 
चुनाव के दौरान ऐसे ही एक किन्‍नर प्रत्‍याशी से सवाल पूछा,
सवाल...आप चुनाव क्‍यों लड् रहे है.
............

जवाब......हम औरों...की तरह सिर्फ खडे् नहीं हैं। हम तो नाच रहे हैं, गा रहे हैं, लोगों का दिल बहला रहे हैं। गैरों को अपना बना रहे हैं, वोट दो तो अच्‍छा, वर्ना अपने घर खुश रहो बच्‍चा।


सवाल........ समाज में आपकी इमेज जिस तरह की है उससे लगता है कि लोग आपको वो देंगे....


जवाब........ कम से कम हमारी विरादरी के लोग तिहाड् तो नहीं जाते है, केवल ''तू जी तूजी नहीं करते....., हम तो 'सबजी सबजी' के हिमायती हैं। हम खेल में घोटालों का खेल नहीं खेलते। वे बेल कराते हैं हम दिलों का मेल कराते हैं, जरा एक बार अपने दिल पर हाथ रखकर इमानदारी से बताइये, अब तक जिन्‍हें वोट दे रहे थे क्‍या वे सारे के सारे अपनी बात को, वादों को करने वाले मर्द निकले....नहीं न। तो फिर हमे आजमाने में क्‍या एतराज.....


सवाल..... आपका चुनावी नारा क्‍या है...


जवाब..... जो हमसे टकरायेगा, हम जैसा हो जाएगा...


....................................वैसे इस बार यूपी विधानसभा चुनाव में कुल 4938 किन्‍नर मतदाता भी अपने मतों का प्रयोग करेंगे। इस चुनाव में गाजियाबाद से किन्‍नर प्रत्‍याशी राष्‍ट्रीय विकलांग पार्टी से धौलाना विधानसभा किन्‍नर मोर्चा की राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष शोभा बुआ को प्रत्‍याशी बनाया है। वहीं अयोध्‍या से गुलशन उ र्फ विन्‍दू किन्‍नर मैदान में हैं। इसके समर्थन में तमाम किन्‍नरों ने प्रचार किया है। किन्‍नर गुलशन उ र्फ बिन्‍दू का कहना है, कि वह अयोध्‍यावासियों के सहयोग से विधानसभा पहुंचेगी। ऐसा इसलिए कि राम के असली भक्‍त तो किन्‍नर समुदाय ही हैं। इन किन्‍नरों ने ही राम के लिए 14 वर्ष तक अयोध्‍या राज्‍य की सीमा पर प्रतीक्षा की थी......साभार प्रेमचन्‍द्र श्रीवास्‍तव
 

भगवान भोले शंकर की उपासना का पर्व है महाशिवरात्रि

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भारत पर्वों का देश है यह तो हम सब जानते हैं और यह पर्व ज्यादातर हमारी भक्ति और ईश्वर की स्तुति पर निर्भर होते हैं| भगवान शिव को शीघ्र प्रसन्न होने वाला देव कहा गया है| महाशिवरात्रि भगवान शिव की आराधना का पर्व है। हिंदुओं के इस प्रमुख पर्व को फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था, इसीलिए इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया। अपार सुंदरी गौरा को अर्द्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाच्चों से घिरे रहते हैं। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत-तारिणी पावन गंगा तथा माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। आपको बता दें कि इस बार शिवरात्रि 20 फरवरी दिन सोमवार (फाल्गुण मास की रयोदशी तिथि) को है|

महाशिवरात्रि का यह पावन व्रत सुबह से ही शुरू हो जाता है। इस व्रत के दिन भगवान शिवलिंग दर्शन के लिए हजारों की संख्या में शिव भक्त आते है| सभी शिवालयों में महाशिवरात्रि के दिन बेल, धतूरा और दूध का अभिषेक किया जाता है| शिवरात्रि मात्र एक व्रत नहीं है, और न ही यह कोई त्यौहार है. सही मायनों में देखा जायें, तो यह एक महोत्सव है इस दिन देवों के देव भगवान भोलेनाथ का विवाह हुआ था| उसकी खुशी में यह पर्व मनाया जाता है| शिवलिंग पर बेल-पत्र आदि चढ़ाकर पूजन करते हैं। इस पर्व पर रात्रि जागरण का विशेष महत्व है।

ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य देव भी इस समय तक उत्तरायण में आ चुके होते हैं तथा ऋतु परिवर्तन का यह समय अत्यंत शुभ कहा गया है। शिव का अर्थ है कल्याण, शिव सबका कल्याण करने वाले हैं। महाशिवरात्रि शिव की प्रिय तिथि है। अतः प्रायः ज्योतिषी शिवरात्रि को शिव आराधना कर कष्टों से मुक्ति पाने का सुझाव देते हैं।

महाशिवरात्रि की व्रत विधि-

शिवपुराणके अनुसार व्रती पुरुष को महाशिवरात्रि के दिन प्रातःकाल उठकर स्न्नान-संध्या आदि कर्मसे निवृत्त होनेपर मस्तकपर भस्मका त्रिपुण्ड्र तिलक और गलेमें रुद्राक्षमाला धारण कर शिवालयमें जाकर शिवलिंगका विधिपूर्वक पूजन एवं शिवको नमस्कार करना चाहिये। तत्पश्चात्‌ उसे श्रद्धापूर्वक महाशिवरात्रि व्रतका इस प्रकार संकल्प करना चाहिये-

शिवरात्रिव्रतं ह्यतत्‌ करिष्येऽहं महाफलम्‌।
निर्विघ्नमस्तु मे चात्र त्वत्प्रसादाज्जगत्पते॥

महाशिवरात्रि के प्रथम प्रहर में संकल्प करके दूध से स्नान तथा `ओम हीं ईशानाय नम:’ का जाप करें। द्वितीय प्रहर में दधि स्नान करके `ओम हीं अधोराय नम:’ का जाप करें। तृतीय प्रहर में घृत स्नान एवं मंत्र `ओम हीं वामदेवाय नम:’ तथा चतुर्थ प्रहर में मधु स्नान एवं `ओम हीं सद्योजाताय नम:’ मंत्र का जाप करें।

पूजा सामग्रीः- 

सुगंधित पुष्प, बिल्वपत्र, धतूरा, भाँग, बेर, आम्र मंजरी, जौ की बालें,तुलसी दल, मंदार पुष्प, गाय का कच्चा दूध, ईख का रस, दही, शुद्ध देशी घी, शहद, गंगा जल, पवित्र जल, कपूर, धूप, दीप, रूई, मलयागिरी, चंदन, पंच फल पंच मेवा, पंच रस, इत्र, गंध रोली, मौली जनेऊ, पंच मिष्ठान्न, शिव व माँ पार्वती की श्रृंगार की सामग्री, वस्त्राभूषण रत्न, सोना, चाँदी, दक्षिणा, पूजा के बर्तन, कुशासन आदि।


भगवान भोलेनाथ को बिल्वपत्र चढ़ाने का मंत्रः-

नमो बिल्ल्मिने च कवचिने च नमो वर्म्मिणे च वरूथिने च
नमः श्रुताय च श्रुतसेनाय च नमो दुन्दुब्भ्याय चा हनन्न्याय च नमो घृश्णवे॥

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनम्‌ पापनाशनम्‌। अघोर पाप संहारं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुधम्‌। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्‌॥
अखण्डै बिल्वपत्रैश्च पूजये शिव शंकरम्‌। कोटिकन्या महादानं बिल्व पत्रं शिवार्पणम्‌॥
गृहाण बिल्व पत्राणि सपुश्पाणि महेश्वर। सुगन्धीनि भवानीश शिवत्वंकुसुम प्रिय।


महाशिवरात्रि व्रत की कथा-

एक बार पार्वती ने भगवान शिवशंकर से पूछा, 'ऐसा कौन सा श्रेष्ठ तथा सरल व्रत-पूजन है, जिससे मृत्यु लोक के प्राणी आपकी कृपा सहज ही प्राप्त कर लेते हैं?'

उत्तर में शिवजी ने पार्वती को 'शिवरात्रि' के व्रत का विधान बताकर यह कथा सुनाई- 'एक गाँव में एक शिकारी रहता था। पशुओं की हत्या करके वह अपने कुटुम्ब को पालता था। वह एक साहूकार का ऋणी था, लेकिन उसका ऋण समय पर न चुका सका। क्रोधवश साहूकार ने शिकारी को शिवमठ में बंदी बना लिया। संयोग से उस दिन शिवरात्रि थी।

शिकारी ध्यानमग्न होकर शिव संबंधी धार्मिक बातें सुनता रहा। चतुर्दशी को उसने शिवरात्रि की कथा भी सुनी। संध्या होते ही साहूकार ने उसे अपने पास बुलाया और ऋण चुकाने के विषय में बात की। शिकारी अगले दिन सारा ऋण लौटा देने का वचन देकर बंधन से छूट गया।

अपनी दिनचर्या की भाँति वह जंगल में शिकार के लिए निकला, लेकिन दिनभर बंदीगृह में रहने के कारण भूख-प्यास से व्याकुल था। शिकार करने के लिए वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढँका हुआ था। शिकारी को उसका पता न चला।

पड़ाव बनाते समय उसने जो टहनियाँ तोड़ीं, वे संयोग से शिवलिंग पर गिरीं। इस प्रकार दिनभर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए।

एक पहर रात्रि बीत जाने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने पहुँची। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, 'मैं गर्भिणी हूँ। शीघ्र ही प्रसव करूँगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाऊँगी, तब तुम मुझे मार लेना।' शिकारी ने प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई।

कुछ ही देर बाद एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया। तब उसे देख मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, 'हे पारधी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूँ। कामातुर विरहिणी हूँ। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूँ। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊँगी।'

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार शिकार को खोकर उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, 'हे पारधी! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊँगी। इस समय मुझे मत मार।'

शिकारी हँसा और बोला, 'सामने आए शिकार को छोड़ दूँ, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूँ। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।'

उत्तर में मृगी ने फिर कहा, 'जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी, इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान माँग रही हूँ। हे पारधी! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूँ।'

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्व करेगा।

शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,' हे पारधी भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूँ। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊँगा।'

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, 'मेरी तीनों पत्नियाँ जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएँगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूँ।'

उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेमभावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।'