जब विंध्या ने सूर्य का मार्ग रोका


स्कंद महापुराण के काशी खंड में एक कथा वर्णित है कि त्रैलोक्य संचारी महर्षि नारद एक बार महादेव के दर्शन करने के लिए गगन मार्ग से जा रहे थे। मार्ग मध्य में उनकी दृष्टि उत्तुंग विंध्याद्रि पर केंद्रित हुई। ब्रह्मा के मानस पुत्र देवर्षि नारद को देखकर विंध्या देवी अति प्रसन्न हुई। तत्काल उनका स्वागत कर विंध्या ने देवर्षि को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। दवेमुति नारद ने आह्लादित होकर विंध्या को आशीर्वाद दिया। 

इसके बाद विंध्या ने यथोचित सत्कार करके नारद को उचित आसन पर आसीन कराया। यात्रा की थकान दूर करने के लिए उनके चरण दबाते हुए विंध्या ने कहा, "देवर्षि। मैंने सुना है कि मेरु पर्वत अहंकार के वशीभूत हो सर्वत्र यह प्रचार कर रहा है कि वही समस्त भूमंडल का वहन कर रहा है। हिमवंत गौरीदेवी के पिता हैं। इस कारण से उनको गिरिराज की उपाधि उपलब्ध हो गई है।" 

"कहा जाता है कि हिमगिरी में रत्नभंडार है और वह स्वर्णमय है, परंतु मैं इस कारण उसे अधिक महत्व नहीं देती। यह भी माना जाता है कि हिमवान पर अधिक संख्या में महात्मा और ऋषि, मुनि निवास करते हैं। इस कारण से भी मैं उनका अधिक आदर नहीं कर सकती। उनसे भी अधिक उन्नत पर्वतराज इस भूमंडल पर अनेक हैं। आप ही बताइए, इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?"

देवर्षि मंदहास करके बोले, "मैं तुम लोगों के बल-सामथ्र्य के बाबत अधिक नहीं जानता, परंतु इतना बता सकता हूं कि इसका निर्णय भविष्य ही कर सकता है।" यह उत्तर देकर देवमुनि आकाश पथ पर अग्रसर हुए।

नारद का उत्तर सुनकर विंध्या देवी मन-ही-मन खिन्न हो गई और अपनी मानसिक शांति खोकर सोचने लगी, "ज्ञाति के द्वारा किए गए अपमान को सहन करने की अपेक्षा मृत्यु ही उत्तम है। मेरु पर्वत की प्रशंसा मैं सुन नहीं सकती।" इसके बाद ईष्र्या के वशीभूत हो विंध्या देवी सदा अशांत रहने लगी। क्रमश: निद्रा और आहार से वंचित हो वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती गई। 

प्रतिकार की भावना से प्रेरित हो वह सोचती रह गई। अंत में वह एक निश्चय पर आ गई, "सूर्य भगवान प्रतिदिन मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। मैं ग्रह एवं नक्षत्रों के मार्ग को अवरुद्ध करते हुए आकाश की ओर बढ़ती जाऊंगी। तब तमाशा देखूंगी, किसकी ताकत कैसी है?"

इस निश्चय पर पहुंचकर विंध्या देवी आकाश की ओर बढ़ चली। बढ़ते-बढ़ते उसने सूर्य के आड़े रहकर उनके मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। परिणामस्वरूप तीनों लोक सूर्य प्रकाश से वंचित रह गए और सर्वत्र अंधकार छा गया। समस्त प्राणी समुदाय तड़पने लगा। देवताओं ने व्याकुल होकर सृष्टिकर्ता से शिकायत की। 

ब्रह्मदेव को जब पता चला तो उन्होंने देवताओं को उपाय बताया, "पुत्रो, सुनो। इस समय विंध्या और मेरु पर्वत के बीच वैर हो गया है। इस कारण से विंध्या ने सूर्य के परिभ्रमण के पथ को रोक रखा है। इस समस्या का समाधान केवल महर्षि अगस्त्य ही कर सकते हैं। इस समय वे काशी क्षेत्र में विश्वेश्वर के प्रति तपस्या में निमग्न हैं। तपोबल में वे अद्वितीय हैं। 

एक बार उन्होंने लोक कंटक वातापि तथा इलवल का मर्दन कर जगत् की रक्षा की थी। इस भूमंडल पर कोई ऐसा व्यक्ति नहीं, जो उनसे भय न खाता हो। उस महानुभाव ने सागर को ही मथ डाला था। इसलिए तुम लोग उस महाभाग के आश्रय में जाकर उनसे प्रार्थना करो। तुम लोगों के मनोरथ की सिद्धि होगी।" 

ब्रह्मदेव के मुंह से उपाय सुनकर दवेता प्रसन्न हुए। वे उसी समय काशी नगरी पहुंचे। वहां पर देखा, महर्षि अगस्त्य अपनी पत्नी लोपामुद्रा समेत पर्ण-कुटी में तपस्या में लीन हैं। देवताओं ने भक्तिभाव से उन मुनि दम्पति को प्रणाम करके निवेदन किया, "महानुभाव! हम अपनी विपदा क्या बताएं? विंध्या पर्वत मेरु पर्वत के साथ शत्रु-भाव से उसका अपमान करने पर सन्नद्ध है। इसी आशय से उसने सूर्य पथ को रोक रखा है। विंध्या गगन की ओर गतिमान है। उसकी गति को रोकने की क्षमता केवल आप ही रखते हैं। आप कृपा करके सूर्य की परिक्रमा को यथावत् संपन्न करके तीनों लोकों की रक्षा कीजिए। यही मेरा आपसे सादर निवेदन है।" देवगुरु बृहस्पति ने प्रार्थना की।

महर्षि अगस्त्य ने देवताओं की विपदा पर दयार्द होकर उन्हें अभय प्रदान किया। जगत् के कल्याण के लिए महर्षि ने देवताओं को अभय तो प्रदान किया, परंतु उनका मन काशी नगरी तथा काशी के अधिष्ठाता देव विश्वेश्वर को छोड़ने को मानता न था। गंगा जी में स्नान किए बिना वे कभी पानी तक ग्रहण नहीं करते। विश्वेश्वर के दर्शन किए बिना वे पल-भर नहीं रह सकते। 

काशी को त्यागते हुए उनका मन विकल हो उठा। विवश होकर मन-ही-मन महादेव का स्मरण करते हुए सती समेत विंध्या देव ने दूर से ही महर्षि अगस्त्य को देखा। निकट आने पर उनके तमतमाए हुए मुखमंडल को देख विंध्या देवी नखशिख-र्पयत कांप उठी। अपना मस्तक झुकाकर मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनि को शांत करने के विचार से विनीत भाव से बोली, "महात्मा। आदेश दीजिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकती हूं?"

"विंध्या, तुम साधु प्रकृति की हो। स्थिर चित्त हो। मेरे स्वभाव से भी तुम भली-भांति परिचित हो। मैं दक्षिणापथ में जा रही हूं। तुम मेरे लौटने तक इसी प्रकार झुकी रहो। ऊपर उठने की चेष्टा न करो। यही मेरा आदेश है।" यह कहकर महर्षि अगस्त्य ने विंध्या को आशीर्वाद दिया और दक्षिण दिशा की ओर निकल पड़े।

दक्षिण में मुनि दम्पति ने पवित्र गोदावरी के तट पर अपना स्थिर निवास बनाया। किंतु विंध्या को इस बात का पता न था। वह इसी विखर से अपना समय काटने लगी कि महर्षि अगस्त्य शीघ्र ही लौट आनेवाले हैं।

समय बीतता गया, परंतु महर्षि नहीं लौटे। विंध्या ने जो अपना मस्तक झुकाया, उसे अगस्त्य की प्रतीक्षा में झुकाए ही रखा। फिर क्या था, पूर्व दिशा में सूर्योदय हुआ और पश्चिमी दिशा में सूर्यास्त होता रहा। समस्त दिशाएं सूर्य के आलोक से दमक उठीं। प्राणी-समुदाय हर्षोल्लास से नाच उठा। जगत् के कार्यकलाप यथावत् घटित होने लगे।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

जाने क्यों होती है मंदिर व मस्जिद की छत गुम्बदनुमा

जब भी आप मंदिर या मस्जिद गए होंगे तो एक चीज जरुर देखा होगा वह यह कि सभी मंदिर या मस्जिदों की छतें गुम्बद नुमा बनी होती हैं| क्या आपको पता है कि आखिर मंदिर या मस्जिद की छत गुम्बदनुमा क्यों बनाई जाती है? 

वास्तु विज्ञान के अनुसार, गुंबदनुमा छत अथवा पिरामिड के नीचे रहने से सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि गुम्बद या पिरामिड के नीचे उर्जा विभिन्न दिशाओं में बंटती नहीं है। उर्जा गुंबदनुमा छत की खोखली सतह से टकराकर सीधे मनुष्य के ऊपर पड़ती है। इससे ध्यान केन्द्रित होता और ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ती है। यही कारण है कि मंदिर व मस्जिद की छत गुम्बदाकार या पिरामिडनुमा होती है| आपने देखा होगा कि प्राचीन काल में ऋषि मुनि अपने कुटिया गुम्बदाकार ही बनाया करते थे इसकी वजह यही है| ताकि नकारात्मक उर्जा उनकी तपस्या में कोई विघ्न न डाल सके| 

वास्तु शास्त्र में यह भी कहा गया है कि पिरामिड नरात्मक उर्जा को सोख लेता है। वास्तु के इन्हीं नियमों को ध्यान में रखकर संभवतः मस्जिद और बौद्ध स्तूपों की छत को गुंबदनुमा बनाया गया होगा। 

जब अप्सरा को बनना पड़ा गरुड़ तो...


प्राचीन काल में महामुनि मरक डेय अपने अनुपम तपोबल के कारण तपस्वी श्रेष्ठ कहलाए। मुनि जैमिनी धर्मतत्वों के जिज्ञासु थे। एक बार उन्होंने मरक डेय के आश्रम में जाकर निवेदन किया, "मुनिवर, मैंने महर्षि व्यास के मुंह से समस्त पुराण, महाभारत, भागवत आदि इतिहास, समस्त श्रुति, स्मृति तथा धर्मशास्त्रों का श्रवण किया है। इस समय मेरे मन में जो शंकाएं हैं, उनका समाधान आपके मुंह से जानना चाहता हूं। मेरी शंकाओं का निवारण करके आप मुझे धन्य बनाइए।" 

"यतिवर, बताइए, आपकी कैसी शंकाएं हैं?" मरक डेय ने पूछा। जैमिनी मुनि ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा, "इस जगत् के कर्ताधर्ता भगवान ने मनुष्य का जन्म क्यों लिया? राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी पांच पतियों की पत्नी क्यों बनी? श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम ने किस कारण तीर्थ यात्राएं कीं? कुंती के पांच पुत्र पांडवों की ऐसी जघन्य मृत्यु क्यों हुई?"

मरक डेय ने कहा, "मुनिवर, मेरी तपस्या का समय हो चला है। विस्तार से ये सारे वृत्तांत सुनाने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं आपको एक उपाय बताता हूं। विध्याचल में पिंगाक्ष, निबोध, सुपत्र और सुमुख नाम के चार पक्षी हैं। ये चारों पक्षी द्रोण के पुत्र हैं, जो वेद और शास्त्रों में पारंगत हैं। उनसे तुम अपनी शंकाओं का निवारण कर सकते हैं।" इस पर जैमिनी ने विस्मय में आकर पूछा, "पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे हो सकते हैं। मानवों की भाषा का ज्ञान पक्षियों को कैसे हो सकता है?"

मरक डेय ने समझाया, "एक बार देवमुनि नारद ने वीणा वादन करते हुए भूलोक का संचार किया, फिर वहां से अमरावती नगर पहुंचे। महेंद्र ने नारद का समुचित रूप में स्वागत-सत्कार किया और उनको उचित आसन पर बिठाकर कहा, "देव मुनि! आपको विदित ही है कि देव सभा में रंभा, उर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका, घृताची, मित्तकेशी इत्यादि देव गणिक नर्तकियां हैं। आपके विचार से इनमें श्रेष्ठ कौन हैं? बताने की कृपा करें।"

नारद ने उन अप्सराओं को सम्बोधित कर पूछा, "हे देव गणिकाओं, तुम लोगों में से जो अधिक सुंदर, सरस-संलाप आदि विधाओं में श्रेष्ठ हैं, वही हमारे समक्ष नृत्य करे।" नारद का प्रश्न सुनकर सभी अप्सराएं मौन रहीं। तब इंद्र ने नारद से कहा, "देवर्षि, इन अप्सराओं में से आप ही स्वयं श्रेष्ठ सुंदरी का चयन करें।" इस पर नारद ने देव नर्तकियों से कहा, "तुम लोगों में जो नर्तकी दुर्वासा को मोह-जाल में बांध सकती है, वही मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ है।"

नारद के वचन सुनकर सभी देव नर्तकियां भयभीत हो मौन रह गईं, परंतु वपु नामक एक नर्तकी अपने स्थान से उठकर बोली, "मैं बड़ी कुशलतापूर्वक मुनि दुर्वास का तपोभंग कर सकती हूं।" वपु का दृढ़ निश्चय देख महेंद्र ने प्रसन्न होकर कहा, "हे मदवती, यदि तुम मुनि दुर्वासा के असाधारण तप में विघ्न पैदा कर सकोगी, तो मैं तुम्हें मुंहमांगा धन, संपत्ति अर्पित करूंगा।"

मुनि दुर्वासा हिमाचल प्रदेश में एक आश्रम बनाकर केवल वायु का सेवन करते हुए घोर तपस्या कर रहे थे। अप्सरा वपु दुर्वासा मुनि के आश्रम के एक कोस की दूरी पर वन-विहार करते मधुर संगीत का आलाप करने लगी। संगीत के माधुर्य पर मुग्ध हो मुनि दुर्वासा अपनी तपस्या बंद कर देव-कन्या के समीप पहुंचे। अपना तपोभंग करनेवाली देवांगना को देख क्रुद्ध हो दुर्वासा ने शाप दिया, "हे देव कन्ये, तुम मेरी तपस्या में विघ्न डालने के संकल्प से यहां पर आई हो, इसलिए तुम गरुड़ कुल में पक्षी बनकर जन्म धारण करोगी।"

अप्सरा वपु ने भयभीत होकर दुर्वासा से प्रार्थना की, "हे महामुनि, आप कृपया मेरा अपराध क्षमा करें।" वपु पर दया करके महर्षि दुर्वासा ने कहा, "तुम सोलह वर्ष तक पक्षी रूप में जीवित रहकर चार पुत्रों को जन्म दोगी, उसके बाद बाण से घायल होकर प्राण त्याग करके पूर्व रूप को प्राप्त होगी।" इस प्रकार शाप-विमोचन का वरदान देकर महर्षि अपने आश्रम को लौट गए।

अप्सरा वपु ने दुर्वासा के शाप के प्रभाव से गरुड़ वंश में एक पक्षी रूप में जन्म लिया और मंदपाल के पुत्र द्रोण से विवाह किया। सोलह वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। उसी काल में कौरव-पांडवों का युद्ध घटित हुआ। मादा कैक पक्षी उस महाभारत युद्ध को देखने गई और अकाश में उड़ रही थी। उस समय अर्जुन का एक बाण कैक पक्षी को लगा। परिणामस्वरूप द्रोण की पत्नी के पक्षी का गर्भ विच्छिन्न हुआ। पक्षी का देहांत हुआ और वह अप्सरा रूप को पाकर देवलोक पहुंची। लेकिन उसके अंडे गर्भ-विच्छेद के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। 

उस युद्ध में एक हाथी का घंटा कटकर उन अंडों पर गिरकर उनको ढंक लिया। अंडों से बच्चे निकले। उस समय उस मार्ग से मुनि शमीक आ निकले। मुनि उन पक्षी शावकों को मानवों की भाषा में वार्तालाप करते सुनकर मुनि ने उनसे पूछा, "तुम लोग कौन हो? तुम लोग अपना पूर्वजन्म वृत्तांत बता सकते हो?" इस पर पक्षियों ने कहा, "मुनिवर, प्राचीन काल में विपुल नामक एक तपस्वी थे। उनके सुकृत और तुंबुर नाम के दो पुत्र हुए। हम चारों सुकृत के पुत्र हुए। एक दिन इंद्र ने पक्षी के रूप में मेरे पिता के आश्रम में पहुंचकर मनुष्य का मांस मांगा। हमारे पिता ने हमें आदेश दिया कि हम पितृ-ऋण चुकाने के लिए पक्षी रूप में उपस्थित इंद्र का आहार बनें। हमने नहीं माना। इस पर हमारे पिता ने हमें पक्षी रूम में जन्म लेने का शाप दे दिया और स्वयं पची का आहार बनने के लिए तैयार हो गए। इंद्र ने प्रसन्न होकर हमारे पिता से कहा, 'महामुनि, आपकी परीक्षा लेने के लिए मैंने मनुष्य का मांस मांगा। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।' यह कहकर इंद्र देवलोक को चले गए।" 

इसके बाद हमने अपने पिता से कहा, "पिताजी, हम मानव देह की आसक्ति के कारण आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके। हम पर कृपा करके शाप से मुक्त कर दीजिए।" हमारे पिता ने अनुग्रह करके हमें शाप-मुक्त होने का उपाय बताया। 'पुत्रों, तुम लोग पक्षी रूप में ज्ञानी बनकर कुछ दिन विंध्याचल में निवास करो। महर्षि जैमिनी तुम्हारे पास आकर अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिए तुम लोगों से अभ्यर्थना करेंगे, तब तुम लोग मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे।' इस कारण हम पक्षी बन गए। पक्षियों का समाधन पाकर शमीक ने उन्हें समझाया, तुम लोग शीघ्र विंध्याचल में चले जाओ।"

मुनि शमीक के आदेशानुसार कंक पक्षी विंध्याचल में जाकर निवास करने लगे। "इसलिए हे जैमिनी! तुम विंध्याचल में जाकर उन पक्षियों से अपनी शंका का समाधान कर लो।" मरक डेय मुनि ने जैमिनी को उपाय बताया।

जैमिनी महर्षि विंध्याचल को गए। वहां पर उच्च स्वर में वेदों का पाठ करते पक्षियों को देख जैमिनी ने अपने चार प्रश्न उनसे पूछे। इस पर पक्षियों ने समझाया, "यतिवर, संसार में जब-जब पाप बढ़ जाते हैं, तब-तब पापियों को दंड देने के लिए भगवान मानव रूप में अवतरित हुआ करते हैं। प्राचीन काल में त्वष्ट प्रजापति के पुत्र त्रिशीर्ष का इंद्र ने अपने वज्रायुध से संहार किया। परिणामस्वरूप वे ब्रह्म-हत्या के अपराधी बने। इस कारण से इंद्र का दिव्य तेज चार भागों में विभाजित होकर यमराज, वायु तथा अश्विनी देवताओं में प्रवेश कर गया।" 

इतने में त्रिशीर्ष के पिता त्वष्ट प्रजापति ने अपने पुत्र की मृत्यु पर दु:खी होकर अपनी एक जटा काटकर होमकुंड में फेंक दिया। इस जटा से वृत्रासुर नामक एक राक्षस ने जन्म लिया। परंतु भूदेवी पाप के भार से विचलित हुई और देवनगर अमरावती में जाकर इंद्र से निवेदन किया, "मैं इस पाप का भार नहीं वहन कर सकत। आप इन पापियों से पृथ्वी को मुक्त कर दीजिए।"

इंद्र ने भूमाता को सांत्वना देकर भेज दिया। इसके बाद समस्त देवताओं को बुलाकर उन्हें भूलोक में मानवों के रूप में जन्म लेने का आदेश दिया। सभी देवता पृथ्वी पर राजवंशों में पैदा हुए।

उस समय इंद्र का दिव्य तेज यम और वायु रूपों में कुंती देवी के गर्भ से युधिष्ठिर और भीम के रूम में अवतरित हुए। इंद्र स्वयं अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुए।

इंद्र के ही दिव्य तेज का एक अंश अश्विनी देवताओं के रूप में माद्रि के गर्भ से नकुल और सहदेव के रूप में उत्पन्न हुए। इस घटना के थोड़े दिनों के बाद इंद्र की पत्नी शचीदेवी महाराजा द्रुपद के यहां अग्निकुंड से द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई। यही द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी पांचाली बन गई। पक्षियों के मुंह से अपनी शंकाओं का समाधान पाकर महर्षि जैमिनी परमांनदित हुए।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

श्री कृष्ण के मुरारी बनने का रहस्य


मनुष्य का जीवन मुख्यतः जन्म से शुरू होता है और मृत्यु पर जाकर रुक जाता है मनुष्यों के जीवन में कई उतार चढ़ाव आते है और जब तक जीवित रहता है इन्ही सब क्रिया कलापों के बीच में फंसा रहता है। मनुष्यों को केवल एक भय रहता है उसकी मृत्यु का। मृत्यु वैसे तो एक ऐसा कडुआ सच है जिससे कोई भी आजतक पार नहीं पाया है लेकिन फिर भी मृत्यु को जीतने का सदैव अथक प्रयास करता रहता है। पौराणिक कथाओं से भी इस बात की पुष्टि होती है कि केवल मनुष्य ही नहीं देवताओं और राक्षसों ने भी अमरत्व पाने के अथक चिंतन किया। राक्षसों ने भी मृत्यु प्र विजय पाने की लिए कई प्रयास किये, ताप किये। लए किन कभी भी सफल नहीं हुए।

वामन पुराण व भागवत पुराण के दसवें स्कंध में मुरासुर नामक एक राक्षस की कथा वर्णित है। कश्यप प्रजापति के एक पुत्र था 'मुर' नामक राक्षस। एक बार देवता व दानवों के बीच भयंकर संग्राम हुआ। उस युद्ध में अनगिनत राक्षस वीर हताहत हुए। उस वीभत्स दृश्य को मुरासुर ने देखा। तभी से वह मृत्यु भय से व्याकुल रहने लगा। आखिर में उसने सोचा कि तपस्या करके मृत्यु पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। उसने कई वर्षो तक ब्रह्मा की घोर तपस्या की। ब्रह्मा उसके सामने प्रकट हुए और वर मांगने को कहा।

मुरासुर ने प्रसन्न होकर कहा, भगवन! मुझ पर कृपा करके ऐसा वरदान दीजिए कि मैं जिसका भी स्पर्श करूं, चाहे वे मृत्यु भय से मुक्त ही क्यों न हों, उनकी तत्काल मृत्यु हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर उसकी इच्छा पूरी कर दी। इसके बाद मुरासुर के अहंकार की कोई सीमा न रही। वह तीनों लोकों में निर्भय घूमने लगा। देवताओं को ललकार कर युद्ध की चुनौती देने लगा। लेकिन तीनों लोकों के लोग विधाता के वरदान से परिचित थे, इसलिए मुरासुर से युद्ध करने का साहस कोई नहीं करता था।

एक बार मुरासुर सुरपुरी अमरावती पहुंचा और जोर से अट्टहास करते हुए ताल ठोककर सुरपति इंद्र को युद्ध के लिए ललकारा। इंद्र भयभीत हो कहीं छुप गए। इस पर मुरासुर ने देवताओं की कायरता की उपेक्षा की और अमरावती नगर में राजपथों का चक्कर लगाने लगा। इसके बाद उसने इंद्र भवन के पास जाकर चुनौती दी, देवताओं के कायर सम्राट! तुम मेरे साथ युद्ध करो, नहीं तो मेरा आधिपत्य स्वीकार कर मेरे दास बन जाओ। मेरा दास बनना स्वीकार नहीं है तो अमरावती छोड़कर कहीं और चले जाओ।इंद्र प्राणों के भय से अमरपुरी को छोड़ भूलोक में चले गए। इस पर मुरासुर ने इंद्र सदन पर अधिकार कर लिया और ऐरावत व वज्रायुद्ध को अपने अधीन कर लिया। अब वह देवलोक में अमर सुख प्राप्त करते हुए वैभव से अपना समय बिताने लगा।

उधर, पृथ्वीलोक में पहुंचकर इंद्र ने कालिंदी नदी के दक्षिण किनारे अपना निवास बना लिया। उन्हीं दिनों सूर्यवंशी सम्राट रघु सरयू नदी के तट पर यज्ञ कर रहे थे। मुरासुर ऐरावत पर सवार होकर पृथ्वी लोक का भ्रमण करते हुए अयोध्या के पास पहुंचा। यज्ञ में देवताओं को संतुष्ट करने के लिए आहुति देते देख मुरासुर क्रोध में आ गया और यज्ञ वाटिका के पास जाकर बोला, हमारे शत्रु देवताओं की पूजा करते हो। मैं इसे सहन नहीं कर सकता। तुम इसी वक्त या तो यज्ञ बंद करो या मेरे साथ युद्ध करने के लिए तैयार हो जाओ।

यह कार्य में लीन महर्षि वशिष्ट ने मुरासुर की चुनौती सुनकर कहा, हे असुरपति, मानव-मात्र से युद्ध करके आप कौन-सा यश लूटनेवाले हैं? युद्ध तो समान शक्ति और सामथ्र्य रखनेवालों के साथ होता है। जो अजेय हैं, उनसे युद्ध कीजिए। आपका यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। मृत्यु के देवता धर्मराज को युद्ध के लिए आमंत्रित कीजिए। वे किसी की परवाह नहीं करते और किसी को क्षमादान भी नहीं देते। यदि आप उनको पराजित कर सके तो समझ लीजिए कि आपने त्रिभुवन पर विजय पा ली है।

महर्षि वशिष्ट की बातें सुनकर मुरासुर उत्तेजित हो गया और वह सीधे यमलोक में घुस गया। उसने यमराज के पास युद्ध के लिए तैयार हो जाने का समाचार भेजा। यमजराज की मुरासुर को ब्रह्मा के लिए वरदान की बात सुन चुके थे, इसलिए उन्होंने डरकर बैकुंठ में जाकर विष्णु की शरण ली। विष्णु ने यमराज को समझाया, तुम एक काम करो, कोई युक्ति करके तुम मुरासुर को मेरे पास भेज दो फिर मैं उसे उचित सबक सिखाऊंगा।

विष्णु का आश्वासन पाकर यमराज यमपुरी पहुंचे। मुरासुर युद्ध के लिए तैयार होकर यमसभा के सामने पहुंचा और उसने आदेश दिया, "सुनो काल। तुम इसी क्षण से मारण होम को बंद करो। वरना मैं अभी तुम्हारा शरीर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।

यमराज भय कंपित हो विनयपूर्वक बोले, दानवराज! मैं आपके आदेश का पालन करने के लिए सदा तैयार रहूंगा लेकिन मैं क्या करूं? मुझे अपने प्रभु की आज्ञा का पालन करना पड़ता है। उनके आदेश का उल्लंघन मैं नहीं कर सकता। आप मुझे क्षमा करें।तुम्हारे प्रभु कौन हैं? वे कहां रहते हैं? मुरासुर ने गरजकर पूछा।उन्हें विष्णु कहते हैं। वे जगत के रक्षक हैं। क्षीर सागर में शयन किए रहते हैं। तो सुनो, मैं इसी वक्त तुम्हारे प्रभु के पास जाता हूं, लेकिन तुम्हें मैं सावधान कर देता हूं। मेरे लौटने तक तुम्हें किसी प्राणी का संहार नहीं करना चाहिए। समझे। दानवाधिपति! आप उनको पराजित कीजिए। यदि आप विजयी हुए तो मैं निश्चय ही आपके आदेश का पालन करूंगा। यमरोज ने उत्तर दिया।


मुरासुर विष्णु से लड़ने के लिए निकल पड़ा, लेकिन उस समय विष्णु के स्वरूप बने श्रीकृष्ण नरकासुर पर आक्रमण करने के लिए चले गए थे। यह समाचार मिलते ही मुरासुर नरकासुर की सहायता करने के लिए प्रागज्योतिषपुर पहुंचा। वहां जाकर मुरासुर ने प्रागज्योतिषपुर में चारों ओर रस्सों से नकर को कस दिया। श्रीकृष्ण ने उन रस्सों को काटकर अपने पांचजन्य का शंखनाद किया। शंख ध्वनि सुनकर मुरासुर चौंक उठा और कृष्ण से लड़ने के लिए युद्ध भूमि में आ पहुंचा। मुरासुर के पांच सिर थे। उसने कृष्ण को देखते ही क्रोध में आकर उस पर शूल का प्रहार किया। कृष्ण ने अपने खड्ग से शूल को काट डाला। इसके बाद दोनों के बीच घोर युद्ध हुआ। आखिर में कृष्ण ने रुष्ट हो मुरासुर पर अपने सुदर्शन चक्र का वार किया। एक ही वार में मुरासुर के पंचों सिर काटकर धरती पर लोटने लगे।

श्रीकृष्ण ने मुरासुर का संहार किया, इसलिए उस दिन से वे 'मुरारी' नाम से लोकप्रिय हुए।इस पूरे प्रसंग के लेखक आंध्र प्रदेश के कडपा निवासी हिंदी साहित्यकार हैं। यह कथा उनकी पुस्तक पौराणिक कथाएं के ली गयी है जो सस्ता साहित्य मंडल,नयी दिल्ली से प्रकाशित है।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

विधाता को भी बदलना पड़ा लेख



काल की महिमा अपरम्पार है। कोई निश्चित रूप से यह नहीं बता सकता कि किस घड़ी या पल में क्या घटित होने वाला है। ज्योतिष शास्त्र के महापंडित हालांकि भूत, भविष्य और वर्तमान की घटनाओं को राशि, नक्षत्र और दशाभुक्ति के आधार पर गुनकर फल निर्धारित करते हैं, परंतु पुराणों में कुछ ऐसी कथाओं का वर्णन है जब विधाता व यमराज को भी अपनी लिपि व लेख बदलने-सुधारने पड़े थे। 


कालचक्र के परिभ्रमण में घटित होने वाले कुछ ऐसे प्रसंग हैं जो देव, दानव व मानव समुदाय को विस्मय में डाल देते हैं। वैसे स्थल, गुण, विद्या और तपस्या का अपना महत्व होता है। इसी प्रकार ऋतु और मास का भी महात्म्य होता है। ऐसी ही एक कथा पद्मपुराण में माघ मास के महात्म्य पर भी वर्णित है। माघ मास का महात्म्य माधु पुराण में बताया गया है। यह कथा वशिष्ठ ने चक्रवर्ती राजा दिलीप को सुनाई थी।

प्राचीन काल में मृगश्रृंग नाम के एक महामुनि रहा करते थे। उनके एक पुत्र मृकंड थे। मृकंड के कोई संतान नहीं थी। पुराणों में कहा गया है 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' इसलिए वे चिंतित रहने लगे। पुत्र की प्राप्ति के लिए उन्होंने पुण्य नगरी काशी में जाकर तपस्या करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से वे काशी यात्रा पर चल पड़े। उस समय उनके साथ राष्ट्र विवर्धन नामक राजा भी निकल पड़े। उन्होंने रास्ते में यात्रियों को काशी का महात्म्य सुनाया।

दरिद्रस्य कुभार्यस्य कुपुत्रस्य कुरुपिणि।

येषां क्वपि गतिर्नास्ति तेषां वाराणसी गति:।।

अर्थात दरिद्र, दुष्ट पत्नीवाले गृहस्थ, दुष्ट पुत्रवाले पिता व कुरूपियों के लिए वाराणसी ही एकमात्र शरणस्थली है। काशी पहुंचकर मृकंड ने अपनी पत्नी के साथ एक वर्ष तक काशी के 64 घाटों में तीर्थ स्नान किया। विघ्नेश्वर, अन्नपूर्णा व विश्वेश्वर की पूजा की। उसके पश्चात डुडि विघ्नेश्वर की प्रतिमा के सामने मृकंड ने एक शिवलिंग की स्थापना की जो मृकंडीश्वर लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनकी पत्नी परुदृति ने मणिकर्णिकाघाट के पश्चिम में एक शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। गोमती और गोदावरी नदियों में भी तीर्थ स्नान करके अन्न-जल त्याग कर केवल वायु का सेवन करते हुए शिवजी के प्रति घोर तपस्या की। लेकिन इससे भी कोई प्रयोजन सिद्ध न होते देख मृकंड ने सूर्य को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की। 

देवता मृकंड के तप पर भयभीत हो शिवजी की शरण में गए। शिवजी ने अभयदान देकर देवताओं को वापस भेज दिया। मृकंड के सामने प्रकट होकर शिव ने पूछा, "मृकंड, मैं तुम्हारी भक्ति पर प्रसन्न हूं। बताओ, तुम्हें चरित्रहीन, चिरंजीवी पुत्र चाहिए या चरित्रवान 16 वर्ष की आयुवाला पुत्र।"

मृकंड, ने अपनी पत्नी की सलाह लेकर उत्तर दिया, "महादेव, हमें गुणशील, पुत्र ही प्रदान कीजिए।" महेश्वर 'तथास्तु' कहकर अदृश्य हो गए। मृकंड अपने नगर को लौट आए। उनकी पत्नी परुदृति ने नौ महीने के बाद एक पुत्र को जन्म दिया। महर्षि व्यास ने उस बालक का मरक डेय नामकरण किया।

मरक डेय दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। एक दिन देवमुनि नारद मृकंड मुनि के निवास पर महुंचे। अघ्र्य पाद्य पाकर नारद मुनि ने बालक मरक डेय को अपनी जांघ पर बिठाया। आपादमस्तक बालक को देखकर नारद ने कहा, "मुनिवर, आपके पुत्र के कर, चरण और कंठ पर मत्स्य रेखाएं हैं। वैसे यह बालक अत्यंत योगकारक है, लेकिन इसकी आयु केवल सोलह वर्ष है।" नारद के मुंह से यह बात सुनकर मरक डेय के माता-पिता दुखी हुए और वे बड़ी सावधानी से उस बालक का पालन पोषण करने लगे।

अपनी कथा को आगे बढ़ाते हुए वशिष्ठ महर्षि ने कहा, "हे चक्रवर्ती दिलीप! एक दिन हम सप्तर्षि-कश्यप, अत्रि, भरद्वाज, विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम और मैं मृकंड के आश्रम में गए। उस बालक को सबने 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया। बालक मरक डेय ने सभी महर्षियों के चरणों में साष्टांग दंडवत किया। जब वह मेरे पास आया तब मैंने उसे प्रणाम करने से मना किया। इस पर शेष महर्षियों ने मेरे वचन सुनकर आश्चर्य प्रकट किया।" 

महर्षि ने उन्हें समझाया, "आप सबने इस बालक को 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया लेकिन परमेश्वर ने इसको केवल सोलह वर्ष की अल्पायु प्रदान की है। ऐसी हालत में मैं इस बालक को 'चिरंजीवी भव' कहकर कैसे आशीर्वाद दे सकता हूं?"

इस पर ऋषियों ने आश्चर्य में आकर कहा, "आप ही बताइए, ऋषियों के आशीर्वाद कैसे व्यर्थ हो सकते हैं।" इसके बाद सब महर्षि परस्पर विचार करके मरक डेय को विधाता के पास ले गए। विधाता ने भी बालक को देख प्रसन्न हो 'चिरंजीवी' कहकर आशीर्वाद दिया। मैंने अपने मानस पिता से पूछा, "पिताश्री, आपने इस बालक को 'चिरंजीवी' कहकर आशीर्वाद दिया, महादेव ने तो इस बालक को केवल सोलह वर्ष की आयु प्रदान की है। इसकी आयु अब एक वर्ष में समाप्त होने वाली है।"

"वत्स, सुनो। शिवजी सर्वेश्वर हैं। उन्होंने ही विष्णु, गरुड़, प्रह्लाद, शुक महर्षि, हनुमान, राजा बलि, बाणासुर, ध्रुव, विभीषण और मुझे भी चिरंजीवी बनने का आशीर्वाद दिया था। उन्हीं की कृपा से मरक डेय भी चिरंजीवी हो सकता है।" 

यह कर कर ब्रह्मा ने शिवजी का ध्यान किया और कहा, "वत्स, महादेव भोला शंकर है। कोई भी उनकी स्तुति और ध्यान करके उनका अनुग्रह प्राप्त कर सकते हैं। तुम भूलोक में जाकर उनका ध्यान करो।"

ब्रह्मलोक से लौटकर मरक डेय ने अपने माता-पिता को प्रणाम किया। तब मरुदृति अपने अल्पायु पुत्र को देख रो पड़ी। मरक डेय ने समझाया, "जननी, आप चिंता न करें। मैं परमेश्वर के प्रति तपस्या करके उनको प्रसन्न कर वरदान प्राप्त करूंगा और चिरंजीवी होकर लौटूंगा। आप मुझे आज्ञा दीजिए।" इसके बाद अपने पिता के चरणों में प्रणाम करके मरक डेय ने उनकी अनुमति मांगी। 

तब मृकंड ने अपने पुत्र मरक डेय को समझाया, "पुत्र, महान व्यक्तियों का मानना है कि गोदावरी तट पर स्थित सिद्धि क्षेत्र में तपस्या करने पर शीघ्र ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसलिए तुम वहां जाकर महेश्वर की तपस्या करो। उस स्थल का महात्म्य वर्णनातीत है।" मरक डेय ने गोदावरी के तट पर पहुंचकर एक स्थान पर शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके परमेश्वर के प्रति ध्यान करना आरंभ किया।

एक दिन ब्रह्मा देवताओं व सप्तर्षियों को साथ लेकर कैलाश में पहुंचे। शिवजी के दर्शन उन्होंने निवेदन किया, "हे विश्वेश्वर, आपने मरक डेय को अल्पायु प्रदान की। मैंने व इन सात ऋषियों ने उसको 'चिरंजीवी भव' कहकर आशीर्वाद दिया है। कल उसकी सोलह वर्ष की आयु समाप्त होने वाली है। हमारे आशीर्वाद व्यर्थ जाएंगे। आप कृपा करके हमारे आशीर्वादों को सफल बनाने का अनुग्रह कीजिए।"

"आप लोग चिंता न करें। आप सबके आशीर्वाद को मैं सफल बनाऊंगा।" यों उन्हें समझाकर परमेश्वर ने सबको विदा कर दिया उसके पश्चात परमेश्वर पार्वती के साथ अपने नंदी वाहन पर आरूढ़ हो मरक डेय के समीप पहुंचे। मरक डेय शिवजी के ध्यान में मग्न थे। उसी समय न्यायपालक यमराज अपने महिष वाहन पर सवार हो वहां पहुंचे और अपने काल-पाश को मरक डेय पर फेंक दिया।

मरक डेय ने विचलित हुए बिना निवेदन किया, "महानुभाव, मैं परमेश्वर के ध्यान में शिवजी का स्तोत्र किए बिना अन्न-जल भी नहीं ग्रहण करता। कृपया आप मेरा व्रत भंग न करें। आप थोड़ी देर रुक जाइए।" लेकिन यमराज ने अट्टहास करके कहा, "तुम्हारी आयु समाप्त हो चुकी है। तुम अपने धर्मोपदेश मत दो। तुम नहीं जानते कि ब्रह्मा, विष्णु व महेश्वर भी काल के अधीन हैं।" यह कहकर यमराज ने मरक डेय के कंठ को लक्ष्य कर अपने पाश को फेंका। मरक डेय की पुकार सुनकर उसी समय पार्वती के साथ प्रवेश करके परमेश्वर ने यमराज के वक्ष पर जात मार दी। यमराज नीचे गिर गए। 

मरक डेय ने अपने नेत्र खोलकर देखा, सामने कैलाशपति परमेश्वर पार्वती समेत प्रत्यक्ष हैं और उनके साथ ब्रह्मा वगैरह देवता व प्रमथगण भी उपस्थित हैं। वह पुलकित हो प्रसन्नतावश पार्वती-परमेश्वर के चरणों पर गिर पड़े। तब उस आदि दंपत्ति ने मरक डेय को हाथ पकड़कर उठाया। मरक डेय ने विनीत भाव से हाथ जोड़कर शिव की स्तुति की और प्रार्थना की, "हे महादेव, मुझे एक कल्पांत तक बिना किसी प्रकार की जरा-व्याधि और मृत्यु के जीवित रहने का वरदान दीजिए।"

"वत्स, ब्रह्मा ने तुम्हें सात कल्पांत तक जीवित देखना चाहा है। मैं उनके संकल्प को सत्य प्रमाणित करना चाहता हूं।" यह कहकर वे पार्वती समेत अंतर्धान हो गए। इसके बाद घर लौटकर मरक डेय ने मृत्यु पर विजय पाकर चिरंजीवी होने का समाचार अपने माता-पिता को सुनाया। वे अपने मृत्युंजय पुत्र को देख परमानंदित हुए। एक दिन अपने माता-पिता की अनुमति लेकर मरक डेय तीर्थाटन पर चल पड़े। गंगा, यमुना, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, तुंग भद्रा आदि पुण्य नदियों में माघ स्नान करके पुण्य के भागी बने।

यह कहानी सुनाकर वशिष्ठ ने राजा दिलीप को समझाया, "यह सब माघ मास के तीर्थ स्नान का अनुपम फल है।"


पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार



इस तरह दिव्यदेवी को हुई मोक्ष की प्राप्ति

जीवन में आचरण और अनुशासन का महत्व सर्वाधिक है। समाज में सुख और शांति की स्थापना में ये गुण अहम भूमिका रखते हैं। मानव के चरित्र को आदर्शप्राय बनाने के लिए कुछ आचार सूत्रों का विधान किया गया है। माता-पिता, गुरु को देव बताया गया है। उनके उपदेशों और आदेशों का पालन करना कल्याणकारी निर्धारित किया गया है। ऐसे चरित्रों से सम्बंधित अनेक कहानियां पद्म पुराण में वर्णित हैं। 

भारतीय समाज में गुरु का स्थान गोविंद से भी ऊंचा है। सूर्य दिन में प्रकाश देता है, चंद्रमा रात को परंतु गुरु शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर, ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है। इससे उसका सारा जीवन आलोकित रहता है। इस कारण गुरु को पुराणों में एक तीर्थ बताया गया है। ऐसी ही एक गुरु तीर्थ कथा पढ़िए :

प्राचीन काल में भार्गव वंश में च्यवन नामक एक मुनि हुए थे। वे समस्त तीर्थो का सेवन करके नर्मदा नदी के तट पर पहुंचे। वहां पर चामर कैटभ नामक तीर्थ में स्नान करके समीप में स्थित एक वट वृक्ष की छाया में विश्राम करने के विचार से बैठ गए। वृक्ष पर कुछ पक्षी परस्पर वार्तालाप कर रहे थे। महर्षि पक्षियों की बोली का ज्ञान रखते थे, इसलिए वे बड़ी उत्सुकता के साथ उनका संवाद सुनने लगे। 

उस वृक्ष पर कुंजल नामक एक शुक रहा करता था। वह चिरंजीवी था। उसे चार पुत्र थे- उज्वल, समुज्वल, विज्वल, कपिंजल। वे अपने माता-पिता की सेवा करते उसी वृक्ष पर निवास करते थे। वे प्रतिदिन जंगलों, वनों तथा अन्य द्वीपों में जाकर फलों का संग्रह कर ले आते और अपने माता-पिता का पालन पोषण करके उनको प्रसन्न रखा करते थे।

एक दिन कुजल ने अपने ज्येष्ठ पुत्र उज्‍जवल को बुलाकर पूछा, "बेटा, आज तुम किस दिशा में गए, वहां की गई विशेषता हो, तो बताओ।"

"पिता जी, मैं प्रतिदिन फल लाने के लिए पल्क्ष द्वीप में जाया करता हूं। उस द्वीप का राजा दिवोदास है। उनकी पुत्री दिव्यदेवी अनुपम सुंदरी और शीलगुण संपन्न है। राजा ने अपनी पुत्री का विवाह योग्य वर के साथ करने का संकल्प किया और द्वीप सेनापति चित्रसेन के साथ दिव्यदेवी का विवाह निश्चय किया।"

विवाह की तैयारियां हो रही थीं कि दुर्भाग्यवश चित्रसेन का देहांत हुआ। राजा दिवोदास चिंता में डूब गए। उनकी समझ में न आया कि अब क्या किया जाय। उन्होंने राज पुरोहित को बुलाकर अपनी चिंता व्यक्त की और पूछा, "द्विजज्येष्ठ! मेरी कन्या के विवाह का निर्णय होने के पश्चात वर का निधन हो गया है। ऐसी स्थिति में कन्या का विवाह अन्य वर के साथ संपन्न करना धर्मसंगत है या नहीं? आप निर्णय करके बता दीजिए।"

इस पर राज पुरोहित ने धर्मशास्त्र का हवाला देते हुए कहा, "राजन! धर्मसूत्र बताते हैं कि वर का निर्णय होने के पश्चात भी यदि वह संन्यास ग्रहण करता है या भयंकर व्याधि से पीड़ित होता है अथवा अपराधी घोषित होता या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो ऐसे संदर्भो में वाग्दत्ता कन्या का विवाह अन्य वर के साथ संपन्न किया जा सकता है। केवल किसी कन्या का किसी युवक के साथ विवाह करने का निर्णय मात्र से वर को पतित्व प्राप्त नहीं होता। धर्माशास्त्रानुसार पाणिग्रहण संस्कार के साथ सप्तपद संपन्न होने पर ही वर को पतित्व की सिद्धि प्राप्त होती हैं। अत: आप अपनी कन्या का विवाह अन्य वर के साथ कर सकते हैं। यह शास्त्रसम्मत है।"

राज पुरोहित तथा अन्य वेदविदों की सलाह पाकर राजा दिवोदास ने इस बार अपनी पुत्री दिव्यदेवी का विवाह रूपसेन नामक युवक के साथ करने का निश्चय किया, परंतु आश्चर्य की बात है कि विवाह के समय ही रूपसेन काल का ग्रास बन गया। इस प्रकार दिव्यदेवी के विवाह के निर्णय के पश्चात एक-एक करके एक सौ एक वरों का निधन हो गया।

अंत में दिवोदास ने वेदविदों के निर्णयानुसार अपनी पुत्री को स्वयंवर का प्रबंध किया। स्वयंवर में आगत राजकुमार दिव्यदेवी के रूप लावण्य पर मोहित हो अपनी पत्नी बनाने के विचार से परस्पर लड़कर मर गए। राजा दिवोदास अपनी पुत्री के स्वयंवर के विफल हुए देख दुख में डूब गए। दिव्यदेवी शोक संतप्त हो विरागनी बनी और पर्वत की एक गुफा में तपस्या में लीन हो गई है। यह दृश्य मैंने प्रत्यक्ष स्पष्ट में देखा है। उनकी इस दुस्थिति का कारण क्या है, "मैं आपके श्रीमुख से जानना चाहता हूं।"

अपने पुत्र उज्ज्वल के मुंह से यह वृत्तांत सुनकर कुंजल ने दिव्यदेवी के पूर्वजन्म का वृतांत सुनाना आरंभ किया। "मेरे प्रिय पुत्र, सुनो। प्राचीन काल में पापहारिणी महानगरी वाराणसी में 'सुवीर' नामक एक वणिक श्रेष्ठ रहा करते थे। उनकी पत्नी 'चित्रा' दुराचारिणी, कलहप्रिय और परपुरुषगामिनी थी। उसके इस दुर्व्यवहार से रुष्ठ होकर सुवीर ने उसको अपने घर से निकाल दिया। चित्रा वारांगना बनकर देशाटन करते संपन्न परिवारों के अनेक युवकों और वीरों को प्रवंचित करती रही। साथ ही उनके साध्वी एवं सदाचारिणी गृहिणियों को प्रलोभन देकर पथभ्रष्ट किया और इस प्रकार उस दुष्टा ने अनेक युवकों को मोहजाल में फंसाकर एक सौ एक परिवारों का सर्वनाश कर दिया।"

संयोग्य की बात है, एक दिन उस पतिता चित्रा के घर एक क्षुधाग्रस्त सिद्ध पुरुष आ पहुंचा। उसके वस्त्र धूल धूसरित थे। उसका म्लान मुख मंडल देख चित्रा द्रवित हुई। स्नान भोजन कराकर उसका उपचार किया। इस पुण्य कार्य के कारण चित्रा अगले जन्म में दिव्यदेवी के नाम से राजा दिवोदास क पुत्री के रूप में पैदा हुई। इस जन्म में वह सुशीला होने के बावजूद भी पूर्वजन्म में एक सौ एक परिवारों का विनाश कारण बनी थी, परिणामस्वरूप उसे एक सौ एक पतियों की मृत्यु को देखना पड़ा।

"पुत्र, तुम्हारे मन में अब यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या उस दुष्टा को मुक्ति प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं? हां, है। अपने पति को वंचित एवं अपमानित करनेवाली गृहिणी को अपने पापों से मुक्त होने के लिए वेदविदों ने 'अशून्य शयन' नामक व्रत का विधान किया है। उस व्रत का आचरण करने पर वह अपने पापों से मुक्त हो सकती है। उसे निर्मल हृदय से विष्णु का ध्यान करना होगा। भौतिक क्लेशों से विमुक्त होने के लिए आत्म ज्ञान प्राप्त करना होगा। हे पुत्र, तुम इसी वक्त जाकर उस देव्येदेवी को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक उपदेश दे दो। वह मुक्ति लाभ कर सकती है। विलंब न करो।"

अपने पिता का आदेश पाकर ज्वल दिव्यदेवी की तपोभूमि गुफा के समीप पहुंचा। उसके दर्शन करके विनम्र भाव से पूछा, "देवी! तुम कौन हो? किसने तुम्हारा अहित किया है? इस गुफा में निवास करने का कारण क्या है?"

दिव्यदेवी ने अपना संपूर्ण वृत्तांत सुनाकर पूछा, "आपकी वाणी सुनकर मेरे मन को अपार शांति हुई। क्या मैं जान सकती हूं कि इस शुरू रूप को प्राप्त आप वास्तव में कौन हैं? सिद्ध हो, विद्याधर हो, यक्ष या गंधर्व हो या कोई देवता हो? मुझे स्पष्ट बताकर मेरा जन्म धन्य कीजिए।"

"मैं कोई सिद्ध, साध्य या गंधर्व नहीं हूं। एक पक्षी हूं। तुम्हें इस दुस्थिति से विमुक्त कराने के लिए मेरे पिताश्री का आदेश मानकर उनका संदेश बताने आया हूं। मेरे पिताजी ने आपको अशून्य शयन नामक व्रत, हरिनामशत, निर्मल ध्यान और आत्मज्ञान को तुम्हारी मुक्ति के हेतुभूत हैं, तुम्हें इन चारों तत्वों का उपदेश देने के हेतु भेजा है। सुनो, मैं उनका विधान बताता हूं।"

उज्‍जवल के मुंह से उपदेश पाकर दिव्यदेवी ने पवित्र आशय के साथ अशुन्य शयन का व्रत का आचरण किया। महाविष्णु के शत नाम का जाप किया। निर्मल विष्णु स्वरूप का ध्यान किया और अपने आत्मज्ञान का रहस्य जान लिया। इस प्रकार वह जीवनमुक्ति को प्राप्त हुई।

उज्‍जवल ने लौटकर अपने पिता को सारा वृत्तांत सुनाया। इस पर कुंजल ने उज्‍जवल को समझाया, "वत्स, आचार्य या गुरु के सान्निध्य से प्राप्त आत्मज्ञान मानव को महामानव बना देता है, इसीलिए हमारे देश में आचार्य को देवता सम बताया गया है।"

देखने को बहुत कुछ है नवाबों के शहर में

देश के प्रमुख ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ महत्वपूर्ण स्थान रखती है। नवाबों के शहर के नाम से मशहूर लखनऊ हमेशा से देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी तरफ खींचता रहा है। अपनी नजाकत के लिए दुनियाभर में मशहूर लखनऊ गर्मियों की छुट्टियां बिताने के लिए बेहतरीन जगह है। 


लखनऊ शहर अपनी खास नजाकत, तहजीब, बहुरंगी संस्कृति, दशहरी आम के बागों और चिकन कढ़ाई के काम के लिए जाना जाता है। लखनऊ उस क्षेत्र में स्थित है जिसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में 'अवध' के नाम से जाना जाता था। यहां के शिया नवाबों ने शिष्टाचार, खूबसूरत बाग-बगीचे, शायरी, संगीत और बढ़िया व्यंजनों को हमेशा संरक्षण दिया। मुगलकाल में नवाबों द्वारा बनवाई गई इमारतों और मकबरों की नक्काशी देखते ही बनती है।

यहां दर्जनों दर्शनीय स्थल हैं जो पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। प्रमुख दर्शनीय स्थलों में एक है बड़ा इमामबाड़ा, जिसका निर्माण आसफउद्दौला ने 1784 में करवाया था। यहां एक अनोखी भूल भुलैया है। इसके अलावा सआदत अली का मकबरा, जो अवध वास्तुकला का शानदार उदाहरण है। मकबरे की शानदार छत और गुंबद इसकी खासियत है।

बड़ा इमामबाड़ा के निकट 60 फीट ऊंचा रूमी दरवाजा है जिसे नवाब आसफउद्दौला ने 1783 बनवाया। अवध की वास्तुकला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किश गेटवे कहा जाता है। इसके अलावा घंटाघर, छोटा इमामबाड़ा, बनारसी बाग, पिच्चर गैलरी, मोती महल, चिड़ियाघर और रेजीडेंसी यहां के आकर्षक पर्यटन स्थल हैं।

लखनऊ शहर के बीच से गोमती नदी बहती है, जो लखनऊ की संस्कृति का हिस्सा है। यह नदी शहर को दो हिस्सों बांटती है। पिछले कुछ वर्षो में यहां राज्य सरकार द्वारा हजारों करोड़ रुपये की लागत से कई पार्क और स्मारक बनवाए गए जो अपनी अद्भुद खूबसूरती के लिए पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं। इनमें भीमराव अंबेडकर प्रेरणा स्थल, अंबेडकर पार्क, कांशीराम इको गार्डेन, भीमराव अंबेडकर गोमती पार्क प्रमुख हैं।

पुराने लखनऊ स्थित चौक इलाका चिकन के कारीगरों और बाजारों के लिए प्रसिद्ध है। यह इलाका चिकन कारीगरी वाली वस्तुओं की दुकानों व मिठाइयों की दुकानों की वजह से मशहूर है। यहां का अमीनाबाद दिल्ली के चांदनी चौक की तरह का बाजार है जो शहर के बीचोबीच स्थित है। यह थोक के सामान, महिलाओं की श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, आभूषण का बड़ा एवं पुराना बाजार है। दिल्ली के कनाट प्लेस की तरह लखनऊ का दिल है हजरतगंज जहां देर रात तक खूब चहल-पहल रहती है।

लखनऊ देश के लगभग सभी प्रमुख शहरों से रेल, हवाई और सड़क सेवा से जुड़ा है। लखनऊ आने के बाद पर्यटकों को रेलवे स्टेशन, हवाईअड्डे और बस स्टेशन से लगभग हर वक्त टैक्सियां उपलब्ध रहती हैं। टैक्सी और ऑटो रिक्शा के अलावा यहां सिटी बस सेवा भी है। शहर के हर कोने में सिटी बसें चलती हैं। 

महानगर बस सेवा की तरफ से पर्यटकों के लिए टूरिस्ट बसें चलाई जाती हैं जो लखनऊ के प्रमुख ऐतिहासिक और पर्यटक स्थलों की सैर कराती हैं। लखनऊ में ठहरने के लिए हर श्रेणी के होटल उपलब्ध हैं। यहां पर पांच सितारा होटल तीन हैं- होटल ताज, क्लार्क्‍स अवध और पिकैडली। इनके अलावा शानो-शौकत के साथ खरीदारी के लिए चार शॉपिंग मॉल भी हैं।

काल भी थर्राता है शिव के इस स्वरुप से


हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान भोलेनाथ के अनेक कल्याणकारी रूप और नाम की महिमा बताई गई है। भगवान शिव ने सिर पर चन्द्रमा को धारण किया तो शशिधर कहलाये| पतित पावनी मां गंगा को आपनी जटाओं में धारण किया तो गंगाधर कहलाये| भूतों के स्वामी होने के कारण भूतवान पुकारे गए| विषपान किया तो नीलकंठ कहलाये| इसी क्रम में शिव का एक अद्भुत स्वरूप है मृत्युञ्जय का। कहा जाता है की शिव के इस स्वरुप ले आगे काल भी पराजित हो जाता है| 

मृत्युञ्जय का अर्थ ही होता है मृत्यु को जीतने वाला| शास्त्रों के मुताबिक शिव का मृत्युञ्जय स्वरुप अष्टभुजाधारी है। सिर पर बालचन्द्र धारण किए हुए हैं। कमल पर विराजित हैं। ऊपर के हाथों से स्वयं पर अमृत कलश से अमृत धारा अर्पित कर रहें हैं। बीच के दो हाथों में रुद्राक्ष माला व मृगमुद्रा। नीचे के हाथों में अमृत कलश थामें हैं। 

महामृत्युञ्जय के मृत्यु को पराजित करने के पीछे शास्त्रों में कहा गया है कि यह स्वरुप आनंद, विज्ञान, मन, प्राण व वाक यानी शब्द, वाणी, बोल इन पांच कलाओं का स्वामी है। यही कारण है कि आनंद स्वरूप महामृत्युञ्जय शिव की उपासना से मिलने वाली प्रसन्नता से मौत ही मात नहीं खाती बल्कि निर्भय व निरोगी जीवन भी प्राप्त होता है। 

जब मनुष्य ने बढ़वाई अपनी आयु


बहुत पुराने समय की बात है। एक दिन भगवान का दरबार लगा था। भगवान सभी प्राणियों की आयु निश्चित करने बैठे थे। इस बीच मनुष्य, गधा, कुत्ता और उल्लू चारों एक साथ भगवान के सामने हाजिर हुए। भगवान ने चारों को चालीस-साल की आयु दे दी। 

मनुष्य को भगवान का यह निर्णय पसंद नहीं आया। उसे बुरा लगा। उसने सोचा, "मैं सब प्राणियों में श्रेष्ठ माना जाता हूं, फिर भी मेरी उम्र गधे, कुत्ते और उल्लू जैसे तुच्छ प्राणियों के बराबर ही क्यों? सचमुच भगवान के घर भी अंधेरे-ही-अंधेरे हैं।"

लेकिन उस समय वह कुछ बोला नहीं। कुछ दिनों के बाद मनुष्य भगवान के पास पहुंचा और कहने लगा, "भगवान, मुझे आपके सामने अपनी एक शिकायत रखनी है। उस दिन आपने मेरी, गधे की और उल्लू की आयु एक-सी निश्चित करके मनुष्य-प्राणी के साथ भारी अन्याय किया है। क्या हमारे और इन तुच्छ प्राणियों के बीच कोई अंतर ही नहीं है?" अतएव मेरी आपसे नम्र विनती है कि आप इस विषय में शांतिपूर्वक विचार करें।"

भगवान ने कहा, "अच्छी बात है।" भगवान ने गधे, कुत्ते और उल्लू से पूछ कर उनके जीवन में से बीस-बीस वर्ष कम करके मनुष्य की आयु में साठ वर्ष बढ़ा दिए और उसकी आयु सौ वर्ष की कर दी। लेकिन नतीजा क्या हुआ? मनुष्य अपनी जिंदगी शुरू के चालीस साल आदमी की तरह पूरे जोश और उत्साह के साथ बिताता है। उसके बाद बीस साल गधे की आयु के मिलते हैं। 

इस बीस सालों के बीच उसे लड़के-लड़की, बहू, नाती-पोती आदि के रूप में सारी गृहस्थी का भार गधे की तरह ढोना पड़ता है। फिर कुत्ते की आयु में से प्राप्त बीस साल मिलते हैं। इन बीस सालों में घर के दरवाजे के पास ही खटिया रहती है। वह उस पर बैठा-बैठा घरवालों को और बाहर वालों को आते-जाते देखता है और कुत्ते की तरह उन्हें घूरता रहता है। अस्सी साल पूरे होने पर मनुष्य के नसीब में उल्लू की आयु के बीस बरस लिखे रहते हैं। इसलिए वह दिन में उल्लू की तरह खुली आंख लिए अंधा की तरह बैठा रहता है और रात को उल्लू की भांति बिना सोए ही जागता रहता है।

गधे पर उसकी ताकत से ज्यादा बोझ लादकर और उसे डंडे से पीट-पीटकर मनुष्य गधे की अपनी जिंदगी के बैर का बदला लेता है। कुत्ते को दुत्कार-दुत्कार वह गधे की अपनी जिंदगी के बैर का बदला लेता है और उल्लू का तो मुंह देखना भी उसे नहीं सुहाता।

पर्दाफाश डॉट कॉम से साभार

देवर्षि ने सुनाया था मुक्ति का संदेश

हस्तिनापुर के जंगल-प्रदेश में दो साधक अपनी नैत्यिक साधना में लीन थे। उसी समय एक देवर्षि प्रकट हुए। देवर्षि को देखते ही दोनों साधक बोल उठे, "परमात्मन् आप देवलोक जा रहे हैं क्या? आप से प्रार्थना है कि लौटते समय प्रभु से पूछिए कि हमारी मुक्ति कब होगी?" 
यह सुनकर देवर्षि वहां से चले गए। एक महीने के बाद देवर्षि वहां फिर प्रकट हुए। उन्होंने प्रथम साधक के पास जाकर प्रभु का संदेश सुनाते हुए कहा, "प्रभु ने कहा है कि तुम्हारी मुक्ति पचास वर्ष बाद होगी।"

यह सुनते ही वह साधक अवाक् रह गया। उसने विचार किया, "मैंने दस वर्ष तक निरंतर तपस्या की, कष्ट सहे, भूखा-प्यासा रहा, शरीर को क्षीण किया, फिर भी मुक्ति में पचास वर्ष? मैं इतने दिन और नहीं रुक सकता।" निराश होकर, साधना को छोड़ वह अपने परिवार में वापस जा मिला। देवर्षि ने दूसरे साधक के पास जाकर कहा, "प्रभु ने मुझे बताया है कि तुम्हारी मुक्ति साठ वर्ष बाद होगी।"

साधक ने यह सुनकर बड़े संतोष से सांस ली। उसने सोचा, "जन्म-मरण की परंपरा मुक्ति की एक सीमा तो हुई। मैंने एक दशाब्दी तक निरंतर तपस्या की, कष्ट सहे, शरीर को क्षीण किया। संतोष है कि वह निष्फल नहीं गया।" इसके बाद वह और भी अधिक उत्साह से प्रभु के ध्यान में निमग्न हो गया| सच्चे हृदय से की गई साधना कभी निष्फल नहीं होती।पर्दाफाश डॉट कॉम से साभारhttp://hindi.pardaphash.com/news/--720821/720821.html




तो इसलिए स्त्रियाँ पहनती हैं पायल.....


लड़कियों व स्त्रियों के पायलों की छुन-छुन किसको नहीं प्रिय लगती| जब कोई लड़की या स्त्री पायल पहनकर चलती है तो पायलों से निकलने वाली ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं लगती है| क्या कभी आपने सोचा है कि यह स्त्रियाँ या लड़कियां पायल क्यों पहनती हैं? आखिर क्या वहज थी जब स्त्रियों को पायल पहनना पड़ा? इसके पीछे क्या कारण है? यदि आपके भी मन में कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे हैं तो आज आपको बताते हैं कि आखिर लड़कियां या स्त्रियाँ पायल क्यों पहनती हैं| 

प्राचीनकाल में स्त्रियों व लड़कियों को पायल एक संकेत मात्र के लिए पहनाया जाता था| जब घर के सदस्य के साथ बैठे होते थे तब यदि पायल पहने स्त्री की आवाज आती थी तो वह पहले से सतर्क हो जाते थे ताकि वह व्यवस्थित रूप से आने वाली उस महिला का स्वागत कर सकें| पायल की वजह से ही सभी को यह एहसास हो जाता है कि कोई महिला उनके आसपास है अत: वे शालीन और सभ्य व्यवहार करें। ऐसी सारी बातों को ध्यान में रखते हुए लड़कियों के पायल पहनने की परंपरा लागू की गई। 

वहीँ, वास्तु के अनुसार, पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है इसके अलावा दैवीय शक्तियां अधिक सक्रिय हो जाती है यह भी इसका एक कारण हो सकता है| इसके अलावा पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है। 

जानिए दाह संस्कार में चंदन की लकड़ी क्यों...?


भारत मान्यताओं और परम्पराओं का देश है| यहाँ तमाम तरह की परम्पराएँ है| इन परम्पराओं में एक हिन्दू मृतक का दाह संस्कार करते समय उसके मुख पर चंदन रखकर जलाने की परम्परा| यह परम्परा आज से नहीं बल्कि प्राचीन काल से ही चली आ रही है| क्या आप जानते हैं कि दाह संस्कार में चंदन या चंदन की लकड़ी क्यों लगती हैं यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि हिन्दू परम्परा में मृतक के दाह संस्कार करते समय चंदन की लकड़ी या चंदन रखकर जलाने की परम्परा क्यों है| 

आपको बता दें कि दाह संस्कार में चंदन की लकड़ी या चंदन रखकर जलाने की परम्परा की पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी है| चंदन को अत्यंत शीतल माना गया है| यही वजह है कि अपने दिमाग को शीतलता प्रदान करने के लिए लोग उसे घिसकर मस्तिक पर लगाते हैं| धार्मिक मान्यता है कि मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी रखकर दाह संस्कार करने से उसकी आत्मा को भी शांति मिलती है|

मृतक के शरीर पर चंदन की लकड़ी रखने का केवल धार्मिक कारण ही नहीं अपितु वैज्ञानिक कारण भी है| वह यह कि मृतक के शरीर में आग लगने से हड्डियों और मांस के जलने से दुर्गन्ध आती हैं ऐसे में शरीर के साथ- साथ जब चंदन की लकड़ी जलती है तो वह दुर्गन्ध को कम कर देती है| 

तो इसलिए गीता को कहते हैं श्रीमद्भगवद्‌गीता...?



श्रीमद्भगवद्‌गीता हिन्दू धर्म के पवित्रतम ग्रन्थों में से एक है। महाभारत के अनुसार कुरुक्षेत्र युद्ध में श्री कृष्ण ने गीता का सन्देश अर्जुन को सुनाया था। यह महाभारत के भीष्मपर्व के अन्तर्गत दिया गया एक उपनिषद् है । इसमें एकेश्वरवाद, कर्म योग, ज्ञानयोग, भक्ति योग की बहुत सुन्दर ढंग से चर्चा हुई है। इसमें देह से अतीत आत्मा का निरूपण किया गया है। क्या आपको पता है गीता को भगवद्गीता क्यों कहते हैं? 

आपको बता दें कि कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अठारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा। 

भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्मा विद्या। माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्मा विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है। गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।