तब हाथ में तलवार लेकर चलते थे हरकारे

आजकल हमें डाकघर में बहुत कम चीजें रोमांचक लगती हैं, लेकिन तकरीबन सौ साल पहले कभी डाक एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जोखिम भरा काम हुआ करता था और हरकारे को हाथ में तलवार या भाला साथ लेकर चलना पड़ता था। उस समय डाक लाने, ले जाने के लिए रेल और हवाई सेवा उपलब्ध नहीं थी।

भारत में पहली जन डाक सेवा 1774 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने आरंभ की थी। राजा-महाराजाओं की अपनी निजी डाक व्यवस्था हुआ करती थी। उनका शासन स्पष्टत: संचार से बेहतरीन साधनों के कारण प्रभावशाली था जिसमें डाक को हाथों हाथ हरकारे या घुड़सवार द्वारा आगे भेजा जाता था। जब इब्नबतूता ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में भारत की यात्रा की तो उसने मोहम्मद बिन तुगलक की देश भर में हरकारों की संगठित प्रणाली देखी।

इब्नबूतता ने लिखा, "हर मील की दूरी पर हरकारा होता है और हर तीन मील के बाद आबादी वाला गांव होता है जिसके बाहर तीन पहरेदारों की सुरक्षा में बक्से होते थे, जहां से हरकारे कमर कसकर चलने के लिए तैयार रहते थे। प्रत्येक हरकारे के पास करीब दो क्यूबिक लंबा चाबुक होता है और उसके सिर पर छोटी-घंटियां होती हैं।"

"जब भी कोई हरकारा शहर से निकलता है तो उसके एक हाथ में चाबुक होता है जिसे वह लगातार फटकारता रहता है। इस प्रकार वह सबसे नजदीकी करकारे के पास पहुंचता है। जब वह वहां पहुंचता है तो अपना चाबुक फटकारता है जिसे सुनकर दूसरा हरकारा बाहर आता है और उससे डाक लेकर अगले हरकारे की ओर भागता है। इसी कारण सुल्तान अपनी डाक इतने कम समय में प्राप्त कर लेते हैं।"

नि:संदेह यह प्रणाली सम्राट की सुविधा के लिए बनाई गई थी और इसे बाद में परवर्ती मुगल बादशाहों द्वारा कुछ परिवर्तन के साथ जारी रखा गया। भिजवाने के लिए अपनी निजी डाक प्रणाली स्थापित की थी, लेकिन वारेन हेस्टिंग्स के प्रशासन के दौरान महाडाकपाल की नियुक्ति की गई। अब आम लोग भी अपने पत्रों पर फीस देकर सेवा का लाभ उठा सकते थे।

तब पत्रों को चमड़े के थैलों में डालकर हरकारों की कमर पर लादा जाता था, जिन्हें आठ मील के पड़ाव पर बदला जाता था। रात के समय हरकारों के साथ मशालवाले भी होते थे। जंगली इलाकों में जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए डुग्गी और ढोलक बजाने वालों को साथ रखा जाता था।

जिन स्थानों में बाघों का खतरा होता था, वहां हरकारों को तीर-कमानों से लैस किया जाता था, लेकिन उनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था और हरकारा अक्सर मनुष्यभक्षी बाघ का शिकार हो जाया करता था। हजारीबाग जिले में (जिससे गुजरकर डाक कोलकाता से इलाहाबाद भेजी जाती थी।) ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यभक्षी बाघ भारी संख्या में पाए जाते थे।

आदिवासियों को खास तौर से हरकारा बनाया जाता था जिनमें से अधिकांश स्वभाव से जीववादी थे। वे जंगली जानवरों या भटकते हुए अपराधियों का सामना करने के लिए तैयार थे लेकिन पेड़-पौधों में छुपी बैठी किसी बुरी आत्मा से बचने के लिए वे मीलों चलने के लिए तैयार थे।

डाक की डकैती आम बात थी। 1808 ई. में कानपुर और फतेहगढ़ के बीच औसतन सप्ताह में एक बार डाक लूटी जाती थी। हरकारे को रास्ते में मिलने वाले डाकू को भी पछाड़ना होता था। हरकारे को महीने में बारह रुपये का वेतन मिलता था जो उन दिनों भी बहुत अधिक नहीं होता था। अत: उसके साहस और ईमानदारी के गुण प्रशंसनीय थे। हरकारा कभी भी डाक को लेकर चंपत नहीं होता था यद्यपि इसमें अक्सर मूल्यवान सामान और पंजीकृत वस्तुएं हुआ करती थीं। 

1822 ई. में घुड़सवारों का स्थान हरकारों ने ले लिया, क्योंकि वे सस्ते पड़ते थे। घुड़सवार रखने से घोड़ों और आदमियों दोनों को खिलाना पड़ता था। हैरानी की बात यह है कि घोड़ों को कोलकाता से मेरठ जाने में बारह दिन लगते थे जबकि हरकारा वहां दस दिन में ही पहुंच जाया करता था क्योंकि वह रास्ते को कम-से-कम पड़ावों पर रुककर पार करता था। नि:संदेह हरकारे अब भी इस्तेमाल किए जाते हैं, क्योंकि डाकगाड़ी को केवल मुख्य राजमार्गो पर ही ले जाया जा सकता है।

1904 ई. में तिब्बत में यंगहजबेंड के अभियान के बाद अंग्रेजों ने सिक्किम से होते हुए भारत और ल्हासा के बीच डाक प्रणाली स्थापित कर दी। यहां भारत-तिब्बती सीमावर्ती जनजातियों के हरकारे होते थे जो बर्फीले मार्गो और तेज नदियों जिन्हें केवल याक की खाल की डोंगी पर चढ़कर या रस्सियों से बने कठिन रास्तों से ही पार किया जा सकता था। हिमालयी भालुओं, बर्फीले क्षेत्र के भेड़ियों और संभवत: खतरनाक हिम मानव के रोमांचक अनुभवों से गुजरते हुए ये हरकारे डाक पहुंचाते थे।

लेकिन अब भी देश के दूरदराज के क्षेत्रों में, अलग-थलग पड़े पर्वतीय क्षेत्रों में, जहां रास्ते नहीं बने हैं वहां डाक पैदल ही भेजी जाती है ओर डाकिया अक्सर प्रतिदिन पांच से छह मील चलता है। सच है कि वह अब भागता नहीं है और कभी-कभार किसी गांव में अपने मित्र के पास हुक्का गुड़गुड़ाने के लिए रुक जाता है, लेकिन वह डाक प्रणाली के उन शुरुआती प्रवर्तकों भारत के हरकारों की याद दिलाता है।

पर्दाफाश से साभार 

नाम बदलने से मतलब सिद्ध नहीं होता

पुरानी बात है। किसी बालक के मां-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, "भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है। 

आचार्य ने उसे समझाया कि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मो से धार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मो से कोई पापी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?

पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा कि अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परंतु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता, तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।

पापक सुंदर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शवयात्रा के दर्शन हुए। पूछा कि कौन है यह? उत्तर मिला, "धनपाली।" पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!

और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?

पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक या विकर्षण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक भी; धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी; पंथक राह भूलते हैं, अपंथक भी; जन्म का अंधा नाम नयनसुख; जन्म का दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता निर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपना कर्म सुधारूंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है।

पर्दाफाश से साभार 

जाने हार्ट अटैक के सामान्य लक्षण और प्रारंभिक उपचार

दिल का दौरा वह स्थिति है जब किसी व्यक्ति की धमनी में अवरोध आ जाता है और रक्त प्रवाह रुक जाता है। यदि रक्त प्रवाह को जल्दी से बहाल नहीं किया जाता तो ऑक्सीजन और पोषक तत्वों के अभाव में दिल की माँसपेशियों को इस तरह नुकसान हो सकता है कि उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। इससे हार्ट भी फेल हो सकता है और रोगी की मृत्यु भी हो सकती है| 

ऐसी स्थिति में जब किसी व्यक्ति को हार्ट अटैक होता है यानी दिल का दौरा पड़ता है, तो उसे बचाने के लिए आपके पास सिर्फ कुछ ही मिनट होते हैं। ऐसे में हार्ट-अटैक से संबंधित ‘फर्स्ट-एड’ की जानकारी हम सभी को होनी चाहिए। 

हार्ट अटैक के सामान्य लक्षण-

रोगी को छाती के मध्य भाग में दवाब, बैचेनी, भयंकर दर्द, भारीपन और जकडन महसूस होती है। यह हालत कुछ समय रहकर समाप्त हो जाती है लेकिन कुछ समय बाद ये लक्षण फ़िर उपस्थित हो सकते हैं। इसके अलावा छाती के अलावा शरीर के अन्य भागों में भी बेचैनी महसूस होती है। भुजाओं ,कंधों, गर्दन, कमर और जबडे में भी दर्द और भारीपन महसूस होता है।

छाती में दर्द होने से पहिले रोगी को सांस में कठिनाई और घुटन के लक्षण हो सकते हैं। अचानक जोरदार पसीना होना, उल्टी होना और चक्कर आने के लक्षण भी देखने को मिलते हैं। कभी-कभी बिना दर्द हुए दम घुटने जैसा महसूस होता है।

हार्ट अटैक में प्राथमिक उपचार-

यदि किसी को दिल का दौर (हार्ट अटैक) पड़ता है तो मरीज को चैन से लिटा दें मेडिकल सहायता मिलने से पहले ऐसे व्यक्ति को एस्पिरिन की टेबलेट चूसने को दें| एस्प्रीन चूसने से दिल के दौरे में मृत्यु दर 15 प्रतिशत तक कम हो जाती है क्योंकि एस्पिरिन से खून पतला हो जाता है और खून का थक्का घुल जाने से खून अवरूद्ध रक्तवाहिका से गुजर जाता है। सबसे अच्छा तो यह है कि एस्पिरिन की आधी गोली को चूरा करके इसे जबान के नीचे रख लिया जाए ताकि ये जल्दी से खून में घुल जाए। वहीँ, जिन लोगों को पेट का अल्सर हो, और जिन्हें एस्पिरिन से एलर्जी हो, उन्हें एस्पिरिन नही दी जानी चाहिए|

जैसे ही पता चले कि मरीज को दिल का दौरा पड़ा है तत्काल उसकी छाती पर हथेली रखकर पंपिंग करते हुए दबाएँ। एक दो बार पंपिंग एक्शन के बाद धड़कन फिर से बहाल हो जाती है। ऐसा तब करें जब मरीज को सांस लेने में तकलीफ हो रही हो तो| 

वहां मौजूद लोगों को फौरन यथास्थिति बताकर एम्बुलेंस बुलवायें| अस्पतालों के आपात चिकित्सालयों को फोन करें। हो सके तो डाक्टरों को पहले ही सूचित करें कि आप एक दिल के मरीज को लेकर आ रहे हैं। 

यदि मरीज को सांस लेने में तकलीफ हो रही हो तो उसे तत्काल कृत्रिम श्वास देने की व्यवस्था करें। मरीज का तकिया हटा दें और उसकी ठोड़ी पकड़ कर ऊपर उठा दें। इससे श्वास नलिका का अवरोध कम हो सकेगा। 

मरीज की नाक को दो उँगलियों से दबाकर रखें और मुँह से कृत्रिम साँस दें। नथुने दबाने से मुँह से दी जा रही साँस सीधे फेफड़ों तक जा सकेगी। लंबी साँस लेकर अपना मुँह मरीज के मुँह पर चिपका दें। मरीज के मुँह में धीमे-धीमे साँस छोड़ें। दो या तीन सेकंड में मरीज के फेफड़ों में हवा भर जाएगी। यह भी देख लें कि साँस देने पर मरीज की छाती ऊपर नीचे हो रही है या नहीं। कृत्रिम श्वास तब तक देते रहें जब तक अस्पताल से मदद नहीं पहुँच जाती। यदि मरीज अपने आप साँस लेने लगे तो कृत्रिम श्वास देना बंद कर दें।

इस तरह महात्मा शेखसादी ने माना खुदा का अहसान


उर्दू भाषा के महान कवि महात्मा शेखसादी पैदल यात्रा किया करते थे। अपनी यात्रा के कुछ संस्मरण उन्होंने लिखे जो बोधप्रद और आज भी प्रासंगिक हैं। पेश है उनकी दास्तान उन्हीं की जुबानी :


एक बार मैं सफर करता हुआ गांव की एक मस्जिद में रुका। मेरे पैरों में कांटे लग गए थे। पैसे की तंगी के कारण जूता नहीं खरीद सका था। जब मैं कांटे निकाल रहा था तो मुझे बड़ा कष्ट और मानसिक वेदना हो रही थी। सोचता था कि मेरी क्या जिंदगी है कि मुझे जूता तक मयस्सर नहीं हो सका। इतने में ही एक मुसाफिर वहां आया। उसके एक टांग नहीं थी और वह बगल में लकड़ी लगाकर चल रहा था।

उसको देखते ही मैं अपनी तकलीफ भूल गया। मैंने भगवान को धन्यवा
द दिया कि ऐ खुदा, तूने मुझे जूते नहीं दिए, किंतु पैर तो दिए। इसके तो पैर भी नहीं हैं।

इंसानियत :

एक बार जब मैं शहर दमिश्क में रह रहा था, वहां बहुत जोर का अकाल पड़ा। आकाश से एक बूंद पानी न टपका। नदियां सूख गईं। पेड़ फकीरों की तरह कंगाल हो गए। ऐसी दशा हो गई कि न तो पहाड़ों पर सब्जी दिखाई देती थी, न बागों में हरी डालियां। खेत टिड्डियों ने चाट डाले थे। आदमी डिड्डियों को खा गए थे। इन्हीं दिनों मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया। उसकी हड्डियों पर केवल खाल बाकी रह गई थी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह बड़ा धनवान और अमीर आदमी था। उसके पास सवारी के लिए बीसों घोड़े और रहने के लिए आलीशान हवेलियां थीं। पचासों नौकर थे।

मैंने उससे पूछा, "तुम्हारी यह हालत कैसे हो गई?" वह बोला, "आपको क्या इस देश का हाल मालूम नहीं है?" कितनी मुसीबतें और आफतें आई हुई हैं। कितना भयंकर अकाल पड़ा हुआ है। हजारों आदमी भूख से मर गए हैं।

मैंने कहा, "तुमको इस मुसीबत से क्या मतलब?" तुम इतने अमीर हो कि अगर ऐसे सैकड़ों अकाल भी पड़ें तो तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।"

वह बोला, "आपका कहना सच है, मगर इंसान वहीं है, जो दूसरों के दुख को अपना दुख समझे। जब मैं लोगों को फाका करते देखता था, तो मेरे मुंह में खाने का एक टुकड़ा नहीं उतरता था। इसलिए मैंने अपनी सारी जायदाद और सामान बेचकर गरीबों और फकीरों में बांट दिया। शेख सादी, इस बात को याद रखो कि उस तंदुरुस्त आदमी का सुख नष्ट हो जाता है, जिसके पास बीमार बैठा हो।"

सबसे बड़ा धर्म :

बसरा शहर में एक बड़ा ईश्वर-भक्त और सत्यवादी मनुष्य रहता है। मैं जब वहां पहुंचा तो उसके दर्शनों के लिए गया। कुछ और यात्री भी मेरे साथ थे। उस व्यक्ति ने हममें से प्रत्येक का हाथ चूमा और बड़े आदर के साथ सबको बैठा कर तब खुद बैठा। किंतु उसने हमसे रोटी की बात नहीं पूछी।

वह रात भर माला जपता रहा, सोया नहीं और हमें भूख के कारण नींद नहीं आई। सुबह हुई तो फिर वह हमारे हाथ चूमने लगा।

हमारे साथ एक मुंहफट यात्री भी था। वह उस ईश्वर-भक्त पुरुष से बोला, "अगर तुम हमें रात को रोटी खिला देते और रातभर आराम से सोते तो तुम्हें भजन करने से भी अधिक पुण्य मिलता, क्योंकि भूखे मनुष्य को रोटी खिलाने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।"

पर्दाफाश से साभार 

इस तरह बुद्ध की शरण में आया अंगुलिमाल

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता और उनकी माला बनाकर पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही लोगों के प्राण सूख जाते थे। 

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जाएं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी, पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगा। जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, "क्यों भाई, सामने के पेड़' से चार पत्ते तोड़ लाओगे?" अंगुलिमाल के लिए यह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

"बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लेकर आए हो, वहीं इन्हें लगा आओ।" अंगुलिमाल बोला, "यह कैसे हो सकता है?" बुद्ध ने कहा, "भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?" इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और उस दिन से अपना धंधा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया।

पर्दाफाश से साभार 

इस तरह एक गुलाम को मिला भगवान की मूर्ति बनाने का इनाम

बात यूनान की है। वहां एक बार बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की बहुत ही सुंदर मूर्ति थी। अपोलो को यूनानी अपना भगवान मानते हैं। वहां राजा और रानी प्रदर्शनी देखने आए। उन्हें वह मूर्ति बड़ी अच्छी लगी। राजा ने पूछा, "यह किसने बनाई है?"

सब चुप। किसी को यह पता नहीं था कि इस मूर्ति को बनाने वाला कौन है। थोड़ी देर में ही सिपाही एक लड़की को पकड़ लाए। उन्होंने राजा से कहा, "इसे पता है कि यह मूर्ति किसने बनाई है, पर बताती नहीं।"

राजा ने उससे बार-बार पूछा, लेकिन उसने बताया नहीं। तब राजा ने गुस्से में कहा, "इसे जेल में डाल दो।" यह सुनते ही एक नौजवान सामने आया। राजा के पैरों में गिरकर बोला, "आप मेरी बहन को छोड़ दीजिए। कसूर इसका नहीं, मेरा है। मुझे दंड दीजिए। यह मूर्ति मैंने बनाई है।"


राजा ने पूछा, "तुम कौन हो?" उसने कहा, "मैं गुलाम हूं।" उसके इतना कहते ही लोग उत्तेजित हो उठे। एक गुलाम की इतनी हिमाकत कि भगवान की मूर्ति बनाए! वे उसे मारने दौड़े।


राजा बड़ा कलाप्रेमी था। उसने लोगों को रोका और बोला, "तुम लोग शांत हो जाओ। देखते नहीं, मूर्ति क्या कह रही है? वह कहती है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं।"


राजा ने बड़े आदर से कलाकार को इनाम देकर विदा किया।

पर्दाफाश से साभार 

जब फकीर को मिला अल्लाह का घर

एक फकीर था। वह भीख मांगर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।

एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, "आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।"

फकीर ने पूछा, "भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?"


उस आदमी ने कहा, "अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि वह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।" फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा, "यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?"


इतना सुनकर फकीर ने कहा, "अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गए, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!" फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अंतिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।

राम की धरती को भूली भाजपा की दूसरी पीढ़ी!


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजपोशी कराकर आम चुनाव से पहले पूरे देश में हिंदुत्व की लहर पैदा करना चाहते हैं, लेकिन लगता है भारतीय जनता पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं ने फिलहाल राम की जन्मभूमि अयोध्या को ज्यादा तूल न देने और राम मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने का मन बना लिया है। 

भाजपा की दूसरी पंक्ति के प्रमुख नेताओं, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने विवादों से बचने के लिए अयोध्या से दूरी बना ली है और शायद यही वजह है कि ये तीनों नेता महंत नृत्यगोपाल दास की ओर से न्यौता मिलने के बाद भी अयोध्या नहीं पहुंचे हैं। 

अयोध्या में मणिरामदास की छावनी में चल रहे अमृत महोत्सव में रामजन्म भूमि न्यास के कार्यकारी अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास की महंती के 50 वर्ष पूरे होने पर कई नामी-गिरामी संतों को न्यौता भेजा गया है। 

मोदी, शिवराज सिंह और राजनाथ को भी नृत्यगोपाल दास की तरफ से निमंत्रण दिया गया है। नरेंद्र मोदी ने जहां व्यस्तता का हवाला देकर कार्यक्रम में शामिल होने से पहले ही इंकार कर दिया है, वहीं शिवराज भी अभी तक इस कार्यक्रम में शिरकत करने नहीं पुहंचे हैं। सूत्रों के मुताबिक, शिवराज के भी इस कार्यक्रम में आने की उम्मीद कम ही है। वहीं, राजनाथ के आने का भी कोई कार्यक्रम अभी तक नहीं बन पाया है।

18 जून से शुरू अमृत महोत्सव 22 जून तक चलेगा। इस प्रतिष्ठित कार्यक्रम में अब तक योगगुरुबाबा रामदेव, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के अध्यक्ष अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया सरीखे लोग शामिल हो चुके हैं, वहीं अगले दो दिनों में योगी आदित्यनाथ के अलावा दक्षिण के कई संत इस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले हैं। विहिप के सूत्र बताते हैं कि कार्यक्रम के बहाने ही नरेंद्र मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन इनमें से एक भी नेता अभी तक अयोध्या नहीं पहुंचा है। ऐसा लगता है कि अटल-आडवाणी युग की समाप्ति के बाद भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में अयोध्या आने या राम मंदिर मुद्दे को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया है।

विहिप के एक नेता ने कहा, "ऐसा लगता है कि मोदी यहां आकर किसी विवाद को हवा नहीं देना चाहते।" उधर, विहिप ने ऐलान किया है कि संसद के मानसून सत्र में कानून के माध्यम से राम मंदिर निर्माण की बाधा दूर नहीं हुई तो मंदिर निर्माण को लेकर पूरे देश में बड़ा और निर्णायक आंदोलन खड़ा किया जाएगा।इस बीच विहिप के उत्तर प्रदेश मीडिया प्रभारी शरद शर्मा ने कहा कि महंत नृत्यगोपाल दास की तरफ से मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां आने का न्यौता दिया गया है। इसके अलावा दक्षिण के कई संत भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि इस वर्ष 25 अगस्त से 13 सितंबर तक संत-धर्माचार्य अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा करेंगे। इसके तहत 84 कोस में आने वाले पांच जिलों- फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा, बस्ती और अकबरपुर की परिक्रमा की जाएगी। इसके बाद 25 सितंबर से 16 अक्टूबर तक पांच कोस की परिक्रमा होगी, जिसमें समस्त रामभक्त राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेंगे। इस कार्यक्रम में पूरे देश के रामभक्त एकत्र होंगे।

पर्दाफाश से साभार 


छुट्टियों में बच्चे अब नहीं जाते मामा के घर

बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां हो गई हैं। इसी के साथ स्कूल बंद होने से बच्चों को पढ़ाई की 'टेंशन' से भी मुक्ति मिल गई है। बदलते वक्त के साथ अब ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामा के यहां सैर सपाटा करने या घूमने जाते हैं। अब तो प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में भी उन्हें किताबों में सिर खपाना पड़ रहा है।

अब वे दिन गए जब गर्मियों की छुट्टियां होने की कल्पना मात्र से ही बच्चे चहक उठते थे। छुट्टियां शुरू होने से पहले ही बच्चे घूमने-फिरने व मौज मस्ती की योजना बनाने में मशगूल रहते थे।अधिकांशत: बच्चे छुट्टियों में मामा के घर जाना अधिक पसंद करते थे। गांव-देहात की बात करें तो मामा के गांव से निकलने वाली नदी या तालाब में घंटों तैरने का मौका मिलता था।

फिर आम के बगीचे में धमा चौकड़ी मचती थी।दिन भर की भागदौड़ व खेलकूद के बाद रात में नानी से परी कथाएं तथा धार्मिक कहानियां सुनना बच्चों को पसंद होता था।गर्मियों की छुट्टियों में सगे-संबंधियों के यहां जाने की एक प्रकार से परंपरा सी थी। छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने से बच्चों के रिश्ते नातों व उनकी अहमियत को करीब से जानने समझने का मौका मिलता है। अब वक्त बदल गया है। आज के हाईटेक युग में बच्चों की मानसिकता व कार्यशैली पर व्यस्तता का बुरा असर पड़ा है।

प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों में कोई उत्साह नहीं देखा जाता है। स्थिति यह है कि वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही उन्हें अगली कक्षा की पुस्तकें लाकर थमा दी जाती हैं।दो-दो तीन-तीन ट्यूशन लगा दिए जाते हैं सो अलग। कइयों को तो जबरन कोचिंग सेंटर भेजा जाता है। कई मामले तो ऐसे भी देखे गए जिसमें बच्चोंकी इच्छा गर्मियों की छुट्टियों में बाहर घूमने-फिरने की रहती है,लेकिन अभिभावकों के डर से वे अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर पाते हैं। बच्चों के दिमाग पर प्रतिस्पर्धा का भूत इस कदर सवार रहता है कि कहीं जाने पर भी 8-10 दिनों में ही वापस आ जाते हैं। शहरी बच्चों की स्थिति तो यह है कि यदि वहां कंप्यूटर,वीडियो गेम या फिर अन्य सुविधाएं नहीं हैं तो वे बोरियत महसूस करने लगते हैं।

शहरी क्षेत्र के बच्चों में समर कैंप ज्वाइन करने का नया चलन शुरू हो गया है।शहर में जगह-जगह स्थापित समर कैम्पों में बच्चों के मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध रहते हैं यहां उन्हें मनोरंजन के साथ कई कलाएं सिखाई जाती हैं कई लड़कियां गर्मियों के इस मौसम में पाककला,सिलाई,बुनाई,कढ़ाई,मेहंदी,चित्रकला, ब्यूटीपार्लर आदि का कोर्स कर लेती हैं तो कई संगीत की बारीकियों के अलावा गायन सीखती हैं। इस बदलावने रिश्तों की अहमियत कम कर दी है।रिश्ते अब अंकल-आंटी तक सिमट गए हैं। छुट्टियों में सगे संबंधियों के यहां जाने से वे रिश्तों को काफी करीब से जानते वसमझते थे। इसी के साथ उनमें रिश्तों के अनुरूप सम्मान देने व उनका आदर करने का भाव भी पैदा होता था।लेकिन अब समय बदल गया है।

धर्मनगरी की सैर

धर्मनगरी के नाम से विख्यात विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक वाराणसी हमेशा से पर्यटकों का पसंदीदा स्थल रहा है। यहां गंगा नदी के घाट, मंदिर और प्राचीन संस्कृति हर पर्यटक का मन मोह लेती है। गर्मी की छुट्टियां बिताने की योजना बना रहे लोगों के लिए वाराणसी की सैर करना आनंददायक अनुभव होगा।

वाराणसी को बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित है। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्व से अटूट रिश्ता है। यह शहर सैकड़ों वर्षो से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र रहा है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में हुए।

धर्मनगरी में कई दर्शनीय और पौराणिक स्थल हैं जो देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी तरफ आकृष्ट करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिग में से माना जाता है। इसके अलावा अन्नपूर्णा मंदिर, साक्षी गणेश मंदिर, विशालाक्षी मंदिर, संकट मोचन मंदिर और लोलार्क कुंड व दुर्गा कुंड का भक्तिमय माहौल पर्यटकों को बहुत भाता है।

वाराणसी का जिक्र बिना इसके घाटों के अधूरा है। यहां गंगा नदी पर लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग चार मील लंबे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है, जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में स्थित है।

दशाश्वमेध घाट पर हर रोज सुबह और शाम को होने वाली गंगा आरती का दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। सैकड़ों की संख्या में रोज साधु-संत, पुजारी और स्थानीय लोग और पर्टयक गंगा आरती में हिस्सा लेते हैं। वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है। वाराणसी से करीब 10 किलोमीटर दूर सारनाथ है, जहां भगवान गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन किया था। वाराणसी हिंदुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिए भी पवित्र तीर्थ है। इसे 23वें र्तीथकर पाश्र्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है।

वाराणसी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय स्थित है, जो देश के प्रसिद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में शामिल हैं। यहां पर करीब छह पांच सितारा होटल और दर्जनों धर्मशालाएं हैं, जहां पर्यटक वाराणसी प्रवास के दौरान ठहरते हैं। वाराणसी लगभग देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल और हवाई यातायात से जुड़ा है। 

पर्दाफाश से साभार

जब बापू ने खुद एक लड़के के लिए बनाई रजाई

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया ओर बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, "तू रात को यहीं सोता है?"

लड़के ने जवाब दिया, "हां बापू।" "रात को ओढ़ता क्या है?" बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आए। बा से दो पुरानी साड़ियां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोली बनाई, अखबार के कागज और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, "इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?"

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, "बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।"

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, "सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।"

पर्दाफाश से साभार

खरीददारी में माताएं सबसे अच्छी सलाहकार

एक सर्वेक्षण में पता चला है कि महिलाओं को खरीददारी करते समय सबसे अच्छी सलाह उनकी मां ही दे सकती है। पश्चिमी लंदन के अक्सब्रिज स्थित एक खरीददारी केन्द्र 'चाइम' ने यह सर्वेक्षण कराया था।

महिलाओं ने पाया कि खरीददारी करते समय जब बात यह पूछने की आती है कि वास्तव में उन पर यह पोशाक कैसी लग रही है, तब उस समय उनकी माताएं ही उन्हें सबसे अच्छी सलाह देती हैं। इस अध्ययन में पाया गया कि खरीददारी करते समय महिलाओं को उनके प्रेमी या पति से बेहतर उनकी माताएं अच्छी सलाह देती हैं।

करीब 2000 महिलाओं में से 70 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि खरीददारी के दौरान उनके प्रेमी या पति से बेहतर सलाह उनकी माताएं देती हैं, जबकि 56 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि उनके साथी उन्हें बेहतर सलाह देते हैं। 

पर्दाफाश 

एक दृष्टिहीन ने 'अंधेरी दुनिया' को दिए थे ज्ञानचक्षु

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि का निर्माण करने के लिए लुई ब्रेल जगत प्रसिद्ध हैं। फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल ज्ञान के चक्षु बन गए। ब्रेल लिपि के निर्माण से नेत्रहीनों की पढ़ने की कठिनाई को मिटाने वाले लुई स्वयं भी नेत्रहीन थे। लुई ने अपनी सारी सीमाओं को ताक पर रखकर जिंदगी की मांग को सर आखों पर बिठाया और वह कर दिखाया जिससे आज अनगिनत आंख वालों को भी मानवता के माने समझने की रोशनी मिल रही है। लुई ब्रेल का जन्म चार जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से गांव कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।

एक दिन काठी के लिए लकड़ी को काटने में इस्तेमाल किया जाने वाला चाकू अचानक उछलकर इस नन्हे बालक की आंख में जा लगी और बालक की आंख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जड़ी-बूटी लगाकर उसकी आंख पर पट्टी कर दी गई। बालक लुई की आंख के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद इस बालक को दूसरी आंख से भी कम दिखलाई देने लगी। उसके पिता साइमन की साधनहीनता के चलते बालक की आंख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका।

पिता ने चमड़े का उद्योग लगाया था, जिसमें उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी दूसरी आंख की रोशनी भी एक दुर्घटना में गंवा दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में हुई, जहां एक लोहे का सूजा लुई की आंख में घुस गया। यह बालक मगर कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से जूझने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। लुई ने हार नहीं मानी। पादरी बैलेंटाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस 10 वर्षीय बालक को 'रायल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड्स' में दाखिला मिल गया। वर्ष 1821 में बालक लुई को पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत्त कैप्टन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिए ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकते थे। कैप्टन बार्बर का उद्देश्य युद्ध के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था।

इधर, बालक लुई का मष्तिष्क भी उसी तरह टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए पढ़ने की संभावना ढूंढ़ रहा था। उसने पादरी बैलेंटाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टन बार्बर से मुलाकात चाहता है। पादरी ने लुई की कैप्टन से मुलाकात की व्यवस्था कराई। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टन के द्वारा सुझाई गई कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किए। कैप्टन उस दृष्टिहीन बालक का आत्मविश्वास देखकर दंग रह गए। अंतत: पादरी बैलेंटाइन के इस शिष्य के द्वारा बताए गए संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।

लुई ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किए और अंतत: 1829 में छह बिंदुओं पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुए। लुई ब्रेल के आत्मविश्वास की अभी और परीक्षा बाकी थी, इसलिए उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि उसका माखौल उड़ाया गया। लुई ने सरकार से प्रार्थना की कि उसके द्वारा ईजाद की हुई लिपि को दृष्टिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी बात नजरअंदाज कर दी गई। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत लुई 43 वर्ष की अवस्था में जीवन की लड़ाई हार गए। उनका देहांत 6 जनवरी 1952 को हुआ।

उनके द्वारा अविष्कृत ब्रेल लिपि उनकी मृत्यु के बाद दृष्ठिहीनों के बीच लगातार लोकप्रिय होती गई। लुई की मृत्यु के बाद शिक्षा शास्त्रियों ने उनके किए कार्य की गंभीरता को समझा और अपने दकियानूसी विचारों से बाहर निकालकर इस लिपि को मान्यता देने की सिफारिश की। लुई की मृत्यु के पूरे सौ साल बाद फ्रांस में 20 जून, 1952 का दिन उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस प्रकार एक राष्ट्र के द्वारा अपनी ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित किया गया। लुई द्वारा ईजाद लिपि अकेले फ्रांस के लिए न होकर संपूर्ण विश्व की दृष्टिहीन मानव जाति के लिए वरदान साबित हुई। 

पर्दाफाश से साभार