दशकों बाद भी बरकरार है चुनाव चिन्हों की अहमियत

नारियल, तुरही, नेल कटर, छड़ी, अंगूर, कोट, प्रेसर कूकर, रोटी, टूथब्रश इत्यादि का जीवंत भारतीय लोकतंत्र में क्या काम? लेकिन ये चुनाव चिन्ह के रूप में आज भी प्रासंगिक हैं। 

चुनाव आयोग का कहना है कि प्रत्याशियों और पार्टी को पहचानने के लिए 'चुनाव चिन्ह' अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि देश में आज भी बड़ी संख्या में लोग मतपत्रों और इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर नाम नहीं पढ़ सकते।

दिल्ली में 70 सदस्यीय विधानसभा के लिए होने जा रहे चुनाव के चरम पर पहुंचने के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी में चुनाव चिन्ह लहरा कर मतदाताओं को आकर्षित करने का काम जोरों पर है।

कांग्रेस का हाथ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का कमल जाने पहचाने चिन्हों में से हैं। इसी तरह के चिन्हों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का हाथी और महज एक वर्ष पुरानी आम आदमी पार्टी (आप) का चुनाव चिन्ह झाड़ू भी लोकप्रिय हो चुका है।

लेकिन इसके अलावा और भी कई चिन्ह हैं जो रोजाना के काम में घरों में इस्तेमाल किए जाते हैं। असंख्य स्वतंत्र प्रत्याशियों, अप्रचारित राजनीतिक पार्टियों को आवंटित चुनाव चिन्हों में स्लेट, हैट, आटोरिक्शा, टेलीविजन, हैंड पंप, सिलाई मशीन, ब्लैक बोर्ड, गुब्बारा, पेन स्टैंड, पतंग आदि शामिल हैं।

राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल का चुनाव चिन्ह केतली है। लोक प्रिय समाज पार्टी बुजुर्गो की छड़ी के साथ वोट मांग रही है। समता संघर्ष पार्टी को मोमबत्ती चिन्ह मिला है।

कैमरा अखिल भारतीय हिंदू महासभा का चिन्ह है। कल्याणकारी जनतांत्रिक पार्टी का चिन्ह टेलीफोन है। और क्रिकेट के खुमार वाले देश में आदर्शवादी कांग्रेस पार्टी ने बैट्समैन को चुना है।

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बोधगया : विस्फोटों के बावजूद परवान चढ़ा पर्यटन

बिहार के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल और बौद्ध संप्रदाय के प्रसिद्ध तीर्थस्थल बोधगया में पर्यटन के मौसम पर आतंकवादियों द्वारा किए गए बम विस्फोटों का कोई असर नहीं पड़ा है। नवंबर के मध्य से ही देसी और विदेशी पर्यटकों की आमद यहां बढ़ गई है। 

महाबोधि मंदिर प्रबंध कार्यकारिणी समिति (बीटीएमसी) के पदाधिकारियों का कहना है कि हाल के दिनों में महाबोधि मंदिर के गुंबद में स्वर्ण अच्छादन होने के बाद पर्यटन में मंदिर का आकर्षण और बढ़ गया है। 

आंकड़ों के मुताबिक, 15 से 28 नवंबर तक 44 हजार से ज्यादा देसी पर्यटक और 15 हजार से ज्यादा विदेशी पर्यटकों ने महाबोधि मंदिर का भ्रमण किया। 

उल्लेखनीय है कि बीटीएमसी ने 15 नवंबर से मंदिर प्रवेश के लिए नि:शुल्क प्रवेश टिकट की सुविधा उपलब्ध कराई है। इसमें देसी और विदेशी श्रद्धालुओं के लिए अलग-अलग रंग का टिकट उपलब्ध है। 

बीटीएमसी को आशा है कि आने वाले दिनों में बौद्धों के काग्यू मोनलम और निगमा मोनलम सहित अन्य पूजा समारोह क आयोजन होना है, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं, श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या में और वृद्धि होगी। 

गौरतलब है कि महाबोधि मंदिर परिसर में जुलाई महीने में आतंकवादियों द्वारा किए गए श्रृंखलाबद्ध विस्फोट में दो बौद्ध भिक्षु घायल हो गए थे। 

बिहार की राजधानी पटना से मात्र 100 किलोमीटर दूर गया से सटे बोधगया में प्रतिवर्ष लाखों देसी और विदेशी पर्यटक आते हैं। मान्यता है कि बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे तपस्या कर रहे गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था। इस कारण इसे 'ज्ञानस्थली' भी कहा जाता है। बोधगया बौद्धधर्म के अनुयायियों के लिए काफी महत्वपूर्ण स्थान है। 

बोधिवृक्ष के पास ही महाबोधि मंदिर स्थापित है। कहा जाता है कि सम्राट अशोक ने सबसे पहले यहां एक छोटे से मंदिर का निर्माण करवाया था। वर्तमान महाबोधि मंदिर पांचवीं या छठी शताब्दी का बताया जाता है।

गौरतलब है कि वर्ष 2002 में यूनेस्को ने इस मंदिर परिसर को विश्व धरोहर घोषित किया है। महाबोधि मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूपों से मिलती-जुलती है। 

मंदिर के अंदर भगवान बुद्ध की पद्मासन मुद्रा में विराट मूर्ति है। कहा जाता है कि जहां भगवान बुद्ध की मूर्ति स्थापित है वहीं बुद्घ को ज्ञान प्राप्त हुआ था। ऐसे तो यह जगह बौद्ध संप्रदाय के लोगों के लिए प्रमुख है परंतु प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में सभी संप्रदाय के लोग यहां आते हैं। 

यहां घूमने आने के लिए नंवबर से फरवरी तक का उत्तम समय माना जाता है। इस कारण यहां के लोग इसे पर्यटन का मौसम मानते हैं।

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29 साल बाद भी हरे हैं जख्म

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 29 वर्ष पहले हुई गैस त्रासदी की भयावह दास्तां आज भी लोग नहीं भुला पाए हैं, क्योंकि उन्हें वे सुविधाएं हासिल ही नहीं हो सकी हैं जो जख्मों को सुखा सकें। अलबत्ता उन्हें लगता है कि वक्त गुजरने के साथ जख्म हरे होते जा रहे हैं। 

झीलों की नगरी भोपाल के लिए दो-तीन दिसंबर 1984 की रात काल बनकर आई थी। उस रात यूनियन कार्बाइड संयंत्र से रिसी जहरीली गैस ने तीन हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सुला दिया था, वहीं लाखों लोगों को बीमारियों का तोहफा दिया था। उसके बाद भी गैस का शिकार बने लोगों की मौत का सिलसिला जारी है। 

हादसे के 29 वर्ष गुजरने के बाद भी पीड़ितों को अब तक इंसाफ नहीं मिल पाया है। न तो मुआवजा मिला और न हीं वे स्वास्थ्य सुविधाएं जो उनके जीवन को कष्टों से मुक्ति दिला सकें। हाल यह है कि पीड़ितों का जख्म पहले के मुकाबले कम होने के बजाय कहीं बढ़ता जा रहा है। 

ग्रुप फॉर इंफार्मेशन एण्ड एक्शन की रचना ढींगरा कहती हैं कि गैस पीड़ित मर रहे हैं और सरकारें हैं कि वे उन्हें गैस पीड़ित मानने को तैयार नहीं है। सरकार लगातार आंकड़े छुपा रही है। वहीं आरोपियों को सरकार के रवैए के कारण ही सजा नहीं मिल पा रही है।

ग्रुप फॉर इंफार्मेशन एण्ड एक्शन के सतीनाथ षडंगी कहते हैं कि एक तरफ पीडितों को उनका हक नहीं मिला वहीं दूसरी ओर हजारों लोगों की जान लेने के दोषियों को सजा नहीं मिली है। वे तो राज्य सरकार पर आम लोगों के साथ अदालत को भी गुमराह करने की कोशिश कर रही है। 

भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के अब्दुल जब्बार का कहना है कि हादसे के समय से अब पीड़ितों की संख्या पांच गुना हो गई है। पीड़ितों को मुआवजे के नाम पर सिर्फ 50 हजार रुपये मिले हैं, जो पांच रुपये दिन होता है। सरकार की कार्यशैली का ही नतीजा है कि आज तक गुनहगारों को सजा नहीं मिल पाई है। 

एक तरफ जहां पीड़ितों को मुआवजा नहीं मिला, वहीं उन्हें स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए तरसना पड़ रहा है। गैस पीड़ितों के नाम पर कई अस्पताल खुले मगर वहां चिकित्सक तक नहीं हैं। गैस पीड़ित अब भी दुष्प्रभाव भुगत रहे हैं। बड़ी संख्या में नवजात शिशु भी विकलांग हो रहे हैं। वहीं यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास की बस्तियों के लोगों को पीने का पानी तक नहीं मिल पा रहा है। गुर्दा, हृदय रोग सहित अन्य बीमारियों के मरीजों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

पीड़ित एक बार फिर अपने हक की खातिर सोमवार और बुधवार को कई कार्यक्रम कर रहे हैं। उन्हें भरोसा है कि एक दिन आएगा जब उनकी बात सुनी जाएगी।

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..जब राजेंद्र बाबू गोखले से मिले

सन् 1910 का किस्सा है, राजेंद्र बाबू तब कलकत्ता में वकालत पढ़ रहे थे। यहां एक दिन उन्हें उस दौर के प्रसिद्ध वकील परमेश्वर लाल ने बुलाया था। वे कुछ समय पहले ही गोखलेजी (अग्रणी स्वतंत्रता संग्रामी गोपाल कृष्ण गोखले) से मिले थे। बातचीत में गोखलेजी ने उनसे कहा था कि वे यहां के दो-चार होनहार छात्रों से मिलना चाहते हैं। परमेश्वरजी ने सहज ही राजेंद्र बाबू का नाम सुझा दिया। 

राजेंद्र बाबू गोखलेजी से मिलने गए, अपने एक मित्र श्रीकृष्ण प्रसाद के साथ। सर्वेट्स ऑफ इंडिया सोसायटी की स्थापना अभी कुछ ही दिन पहले हुई थी। गोखलेजी उस काम के लिए हर जगह कुछ अच्छे युवकों की तलाश में थे। उन्हें यह जानकारी परमेश्वरजी से मिल गई थी कि ये बड़े शानदार विद्यार्थी हैं।

वकालत उन दिनों ऐसा पेशा था जो प्रतिष्ठा और पैसा एक साथ देने लगा था। इस धंधे में सरस्वती और लक्ष्मी जुड़वां बहनों की तरह आ मिलती थीं। कोई डेढ़ घंटे चली इस पहली ही मुलाकात में राजेंद्र बाबू से गोखले ने सारी बातों के बाद आखिर में कहा था, "हो सकता है तुम्हारी वकालत खूब चल निकले। बहुत रुपये कमा सको। बहुत आराम और ऐश-इशरत में दिन बिताओ। बड़ी कोठी, घोड़ा-गाड़ी इत्यादि दिखावट का सामान सब जुट जाए..और चूंकि तुम पढ़ने में अच्छे हो, तो इसलिए तुम पर वह दावा और भी अधिक है।"


गोखलेजी थोड़ा रुक गए थे। कुछ क्षणों के उस सन्नाटे ने भी राजेंद्र बाबू के मन में न जाने कितनी उथल-पुथल पैदा की होगी। वे फिर बोलने लगे : "मेरे सामने भी यही सवाल आया था, ऐसी ही उमर में। मैं भी एक साधारण गरीब घर का बेटा था। घर के लोगों को मुझसे बहुत बड़ी-बड़ी उम्मीदें थीं। उन्हें लगता था कि मैं पढ़कर तैयार हो जाऊंगा, रुपये कमाऊंगा और सबको सुखी बना सकूंगा, पर मैंने उन सबकी आशाओं पर पानी फेर कर देशसेवा का व्रत ले लिया। मेरे भाई इतने दुखी हुए कि कुछ दिनों तक तो वे मुझसे बोले तक नहीं। हो सकता है यही सब तुम्हारे साथ भी हो। पर विश्वास रखना कि सब लोग अंत में तुम्हारी पूजा करने लगेंगे।"


गोखले के मुख से मानो एक आकाशवाणी-सी हुई थी। बाद का किस्सा लंबा है। लंबी है राजेंद्र बाबू के मन में कई दिनों तक चले संघर्ष की कहानी और घर में मचे कोहराम की, रोने धोने की, बेटे के साधु बन जाने की आशंका की दास्तान। इस किस्से से ऐसा न मान लें हम लोग कि वे अगले ही दिन अपना सब कुछ छोड़ देशसेवा में उतर पड़े थे। गोखले खुद बड़े उदार थे। उन्होंने उस दिन कहा था कि "ठीक इसी समय उत्तर देना जरूरी नहीं है। सवाल गहरा है। फिर एक बार और मिलेंगे, तब अपनी राय बताना।"


अगले 10-12 बारह दिनों का वर्णन नहीं किया जा सकता। भाई साथ ही रहते थे। इनके व्यवहार में आ रहे बदलाव वे देख ही रहे थे। राजेंद्र बाबू ने कोर्ट जाना बंद कर दिया था। न ठीक से खाते-पीते, न किसी से मिलते-जुलते थे। फिर एक दिन हिम्मत जुटाई। एक पत्र, काफी बड़ा पत्र, भाई को लिखा और घर छोड़ने की आज्ञा मांगी। पत्र तो लिख दिया पर सीधे उन्हें देते नहीं बना। सो एक शाम जब भाई टहलने के लिए गए थे, तब उसे उनके बिस्तरे पर रख खुद भी बाहर टहलने चले गए।


भाई ने लौटकर पत्र देखा और अब खुद राजेंद्र बाबू को तलाशने लगे। जब वे बाहर कहीं मिल गए तो भाई बुरी तरह से लिपट कर रोने लगे। राजेंद्र बाबू भी अपने को रोक नहीं पाए। दोनों फूट-फूट कर रोते रहे। ज्यादा बातचीत की हिम्मत नहीं थी फिर भी तय हुआ कि कलकत्ता से गांव जाना चाहिए। मां, चाची और बहन को सब बताना होगा।


राजेंद्र बाबू को अब लग गया था कि देश-प्रेम और घर-प्रेम में घर का वजन ज्यादा भारी पड़ रहा है। वे इतनी आसानी से इस प्रेम बंधन को काट नहीं पाएंगे। गोखलेजी अभी वहीं थे। राजेंद्र बाबू एक बार और उनसे भेंट करने गए। सारी परिस्थिति बताई। गोखलेजी ने भी उन्हें पाने की आशा छोड़ दी। गांव पहुंचने का किस्सा तो और भी विचित्र है। चारों तरफ रोना-धोना। बची-खुची हिम्मत भी टूट गई थी। वे जैसे थे वैसे ही बन गए। फिर से लगा कि पुरानी जिंदगी पटरी पर वापस आने लगी है, पर उस दिन जो आकाशवाणी हुई थी, वह झूठी कैसे पड़ती?


वकालत राजेंद्र बाबू को आने वाले दिनों में, पांच-छह बरस बाद चंपारण ले गई। वहां उन पर, उनके जीवन पर नील का रंग चढ़ा। नील का रंग यानी गांधीजी के चम्पारण आंदोलन का रंग। यह रंग उन पर इतना चोखा चढ़ा कि फिर कभी उतरा ही नहीं।

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जन्मदिवस पर विशेष: सादगी पसंद थे डा. राजेंद्र प्रसाद

गणतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद सादगी पसंद, अत्यंत दयालु और निर्मल स्वभाव के महान व्यक्ति थे। देश और दुनिया उन्हें एक विनम्र राष्ट्रपति के रूप में उन्हें हमेशा याद करती है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' के अपने सिद्धांत का निर्वाह उन्होंने जीवन र्पयत किया। डॉ. राजेंद्र प्रसाद का जन्म 3 दिसंबर, 1884 को बिहार राज्य के सिवान जिले के जीरादेई में हुआ था। 

उनके पिता महादेव सहाय फारसी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के विद्वान थे, जबकि उनकी माता कमलेश्वरी देवी एक धार्मिक महिला थीं। वह अपने बेटों को 'रामायण' की कहानियां सुनाया करती थीं।

उस समय शिक्षा की शुरुआत फारसी से की जाती थी। प्रसाद जब पांच वर्ष के हुए, तब माता-पिता ने उन्हें फारसी सिखाने की जिम्मेदारी एक मौलवी को दी। इस प्रारंभिक पारंपरिक शिक्षण के बाद उन्हें 12 वर्ष की अल्पायु में आगे की पढ़ाई के लिए छपरा जिला स्कूल भेजा गया। उसी दौरान किशोर राजेंद्र का विवाह राजवंशी देवी से हुआ।

बाद में वे अपने बड़े भाई महेंद्र प्रसाद के साथ पढ़ाई के लिए पटना चले गए जहां उन्होंने टी.के. घोष अकादमी में दाखिला लिया। इस संस्थान में उन्होंने दो वर्ष अध्ययन किया। वर्ष 1902 में कोलकाता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्होंने पहला स्थान प्राप्त किया। इस उपलब्धि पर उन्हें 30 रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति से पुरस्कृत भी किया गया था। सन् 1915 में राजेंद्र बाबू ने कानून में मास्टर की डिग्री विशिष्टता के साथ हासिल की और इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक मिला था। कानून में ही उन्होंने डाक्टरेट भी किया। 

राजेंद्र तेजस्वी वह एक महान विद्वान थे। इस बात को उनकी उत्तरपुस्तिका पर लिखी परीक्षक की टिप्पणी, "परीक्षक की तुलना में परीक्षार्थी बेहतर है" बखूबी प्रमाणित करती है।

कानून की पढ़ाई से अधिवक्ता प्रसाद भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए और बिहार प्रदेश के एक बड़े नेता के रूप में उभरे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के समर्थक प्रसाद को ब्रिटिश प्रशासन ने 1931 के 'नमक सत्याग्रह' और 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान जेल में डाल दिया था।

1950 में जब भारत गणतंत्र बना तो प्रसाद को संविधान सभा द्वारा इसका प्रथम राष्ट्रपति बनाया गया। बतौर महामहिम प्रसाद ने गैर-पक्षपात और पदधारी से मुक्ति की परंपरा स्थापित की।

आजादी से पूर्व, 2 दिसंबर 1946 को वह अंतरिम सरकार में खाद्य एवं कृषि मंत्री बने और आजादी के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत को गणतंत्र राष्ट्र का दर्जा मिलने के साथ राजेंद्र बाबू देश के प्रथम राष्ट्रपति बने। वर्ष 1957 में वह दोबारा राष्ट्रपति चुने गए। इस तरह प्रेसीडेंसी के लिए दो बार चुने जाने वाले वह एकमात्र शख्सियत थे।

प्रसाद भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के महान नेता थे और भारतीय संविधान के शिल्पकार भी। राष्ट्रपति पद पर रहते हुए उन्होंने कई देशों की सभाद्वना यात्रा की। उन्होंने आण्विक युग में शांति बनाए रखने पर जोर दिया दिया था।

वर्ष 1962 में राजेंद्र बाबू को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से नवाजा गया। बाद में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और पटना के सदाकत आश्रम में जीवन बिताने लगे। 28 फरवरी, 1963 को बीमारी के चलते यह महान नेता इस नश्वर संसार से कूच कर गए।
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झड़ते बालों से न हो परेशान करें ये सरल उपाय

आजकल बाल झड़ने की समस्या आम हो गई है जिसको देखो वही इस समस्या से पीड़ित है| पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं इसकी ज्यादा शिकार हो रही हैं| बाल झड़ने के कई कारण हो सकते हैं कई बार किसी गंभीर रोग के कारण या महिलाओं में प्रसव होने के कारण बाल झड़ने लगते हैं| यदि आपके बाल झड़ते या टूटते हो और आप काले, घने व चमकीले बाल चाहते हैं तो आपको अपने बालों की अतिरिक्त देखभाल करने की आवश्यकता है। 

बाल झड़ने के कारण-

बाल झड़ने का एक मुख्य कारण स्ट्रेसफुल लाइफ भी है। आजकल लोगों पर काम का इतना ज्यादा बोझ है जिससे वे तनाव में आ जाते हैं। ऐसे में हमें बालों को झड़ने से बचाने के लिए तनाव से दूर रहना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि अधिक से अधिक खुशनुमा माहौल में रहें।

कई बार मौसम बदलने या फिर जगह बदलने के कारण भी बाल झड़ने लगते हैं, ऐसे में आपको अपने बालों की केयर करते रहनी चाहिए और बालों को सप्ताह में दो-तीन बार जरूर धोना चाहिए।कोई मेजर सर्जरी, इंफेक्शन और लंबे समय तक बीमार होने पर भी बाल गिरने लगते हैं। 

अगर अचानक हार्मोन लेवल चेंज हो गया है और आप किसी बीमारी से पीडि़त हैं तो उसका प्रभाव भी आपके बालों पर पड़ने की आशंका रहती हैं जिससे बाल कमजोर भी हो सकते हैं।

प्रेगनेंसी या फिर बच्चे के जन्म के बाद भी कुछ महिलाओं में कमजोरी आ जाती है और कमजोरी के कारण भी बाल गिरने लगते हैं। ऐसी स्थिति में चाहे बाल कम समय के लिए ही झड़ते हैं लेकिन फिर भी आप अपने बालों को पोषण देने के लिए हर्बल शैंपू का इस्ते़माल भी कर सकती हैं।

जो शैंपू झाग देता है, उसमें डिटर्जेंट जरूर होता है। हर्बल शैंपू भी इसका अपवाद नहीं है। महज शिकाकाई या रीठा की कुछ बूंदें डालने से चीजें नहीं बदलतीं। डिटर्जेंट्स से बचना है तो रीठा, शिकाकाई और मेहंदी का मिक्सचर घर में बनाकर लगाएं। 

कुछ इस तरह से टूटते बालों से बचा जा सकता है -

आपको बता दें कि बाल झड़ने के कई कारण होते हैं जैसे कि - सिर को गंदा रखने पर ज्यादा बाल झड़ते हैं, जबकि नियमित शैंपू करने पर कम। जो लोग खुले में ज्यादा नहीं जाते और ज्यादातर एसी में रहते हैं, वे हफ्ते में दो-तीन बार शैंपू करें। जो बाहर का काम करते हैं या जिन्हें पसीना ज्यादा आता है, उन्हें रोजाना बाल धोने चाहिए। 

तेल बालों को भारी और गंदा बनाता है। नहाने के बाद तेल लगाने का कोई फायदा नहीं है। तेल लगाने से बाल लंबे होने की बात भी गलत है। कई लोगों को लगता है कि तेल लगाकर बाल धोने से बाल मजबूत होते हैं, लेकिन यह सही नहीं है। हां, उनमें लुब्रिकेशन और चमक जरूर आ जाती है। 

बालों को मजबूत बनाने और टूटने से बचाने के लिए आपको सप्ताह में कम से कम दो बार बालों की जड़ों में आंवला, बादाम, ऑलिव ऑयल, नारियल का तेल, सरसो का तेल इत्यादि में से कोई एक लगाना चाहिए। इससे बालों का झड़ना, बाल पतले होना, डैंड्रफ, दोमुंहे बाल व उम्र से पहले बालों का सफेद होने जैसी प्रॉब्लम्स से निपटा जा सकता है।

बालों को झड़ने से बचाने के लिए आपको अपने बालों को धूप से बचाना चाहिए। जब भी आप बाहर धूप में जाएं तो अपने साथ छाता लेकर जाएं या फिर अपने बालों को कपड़े से पूरी तरह ढक लें।

कई शैंपू एक्स्ट्रा प्रोटीन होने का दावा करते हैं। इसी तरह प्रोटीन युक्त सीरम भी मार्केट में मिलते हैं। बाल धोने के दौरान शैंपू का प्रोटीन बालों के अंदर नहीं जाता। इसका काम बालों की बाहरी सतह यानी क्यूटिकल को साफ करना है। बालों को प्रोटीन की जरूरत है, लेकिन वह खुराक से मिलता है। 

कुछ लोग बालों में बार-बार कंधी करते हैं,ये सोचकर कि इससे बाल लंबे होंगे या फिर बाल सुलझें रहेंगे लेकिन आपको बता दें इससे भी कई बार बाल झड़ते है। आपको बालों को दिन में कम से कम 2-3 बार कंधी करें, इससे आपके बाल कम से कम उलझेंगे और बाल कम टूटेंगे। यानी बाल सुलझे भी रहेंगे और बालों के टूटने का डर भी खत्म।

शैंपू करने के बाद बहुत-से लोग कंडिशनर नहीं लगाते। उन्हें लगता है कि इससे बाल कमजोर हो जाते हैं। यह गलत है। कंडिशनर से बालों की चमक बनी रहती है और वे उलझते नहीं हैं। ध्यान रखें कि कंडिशनर सिर की सतह यानी त्वचा में न जाए। इससे बालों को नुकसान पहुंचता है। 

नजला-जुकाम से बाल टूटने की भ्रांति बहुत लोगों में होती है। असल में देखा गया है कि नजले-जुकाम आदि से पीड़ित लोग ज्यादातर दवाएं खाते रहते हैं और उनकी सेहत ठीक नहीं होती। इस वजह से कई बार बाल गिरने लगते हैं। नजला/जुकाम से बाल नहीं गिरते। 

अक्सर लोग सफेद बाल उखाड़ने से मना करते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि अगर एक बाल उखाड़ेंगे तो उसकी जड़ से दव निकलेगा, जो आसपास के बालों को भी सफेद कर देगा। यह गलत है। 

बालों को टूटने से बचाने के लिए आपको डाइट में प्रोटीन, आयरन, जिंक, सल्फर, विटामिन सी, के अलावा विटामिन बी से युक्त खाघ पदार्थ भरपूर मात्रा में लेने चाहिए।बालों को टाइट बांधना, हॉट रोलर्स व ब्लो ड्रायर व आयरन के ज्यादा इस्तेमाल करने से भी बाल डैमेज हो जाते हैं। इसीलिए कोशिश करें कि बालों को प्राकृतिक ही रहने दें और बालों पर बहुत ज्यादा एक्सेपेरिमेंट करने से बचें।

बालों को सही पोषण न मिलने से भी बाल झड़ने लगते हैं, ऐसे में बालों को झड़ने से बचाने के लिए समय-समय पर बालों में मेंहदी लगानी चाहिए या फिर बालों को पोषण देने के लिए दही भी लगा सकते हैं।

झड़ते बालों से बचने के लिए घरेलू नुस्खे-

झड़ते बालों से बचने के लिए रात में मेथी के बीजों को पानी में भिगो देना चाहिए। सुबह उठने पर इन्हे पीसकर लेप जैसा बना लेना चाहिए और फिर इस लेप को बालों पर लगाना चाहिए। ऐसा कुछ दिनों तक करने से रोगी के बाल झड़ना रुक जाते हैं। इसके अलावा बाल झड़ने बेर के पत्तों को पीसकर इसमें नींबू का रस मिलाकर सिर पर लगाने से बाल दोबारा उगने लगते हैं।

ताजा धनिये का रस या गाजर का रस बालों की जड़ों में लगाने से रोगी व्यक्ति के बाल झड़ने बंद हो जाते हैं। सिर में जिस जगह से बाल झड़ गये हैं उस जगह पर प्याज का रस लगाने से बाल दोबारा उग आते हैं।

खोपरे के तेल को मुलेठी, ब्राह्मी, मेहंदी के पत्ते डाल कर उबालें और ठंडा होने के बाद बोतल में भरकर रखें और नियमित रूप से बालों की मालिश करें। इससे बाल घने, काले, चमकीले तो होंगे ही साथ ही दिमाग को भी पोषण मिलेगा।

बाल झड़ते हैं तो गरम जैतून के तेल में एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर का पेस्ट बनाएं। नहाने से पहले इस पेस्ट को सिर पर लगा लें। 15 मिनट बाद बाल गरम पानी से सिर को धोएं। ऐसा करने पर कुछ ही दिनों बालों के झडऩे की समस्या दूर हो जाएगी।

दालचीनी और शहद के मिश्रण काफी कारगर रहता है। आयुर्वेद के अनुसार इनके मिश्रण से कई बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। त्वचा और शरीर को चमकदार और स्वस्थ बनाए रखने के लिए इनका उपयोग करना चाहिए।

गाजर को पीसकर लेप बना लें। फिर इस लेप को सिर पर लगाये और दो घंटे के बाद धो दें। ऐसा प्रतिदिन करने से बाल झड़ने बंद हो जाते हैं। गंजेपन को दूर करने के लिए रात को सोते समय नारियल के तेल में नींबू का रस मिलाकर सिर की मालिश करनी चाहिए।

आंवला, ब्राह्मी तथा भृंगराज को एकसाथ मिलाकर पीस लें। फिर इस मिश्रण को लोहे की कड़ाही में फूलने के लिए रखना चाहिए और सुबह के समय में इसको मसल कर लेप बना लेना चाहिए। इसके बाद इस लेप को 15 मिनट तक बालों में लगाएं। ऐसा सप्ताह में दो बार करने से बाल झड़ना रुक जाते हैं तथा बाल कुदरती काले हो जाते हैं।

रात को तांबे के बर्तन में पानी भरकर रखें। सुबह के समय उठते ही इस पानी को पी लें। इसके साथ ही आधा चम्मच आंवले के चूर्ण का सेवन भी करे। इससे कुछ ही समय में बालों के झड़ने का रोग ठीक हो जाता है।

गुड़हल के फूल तथा पोदीने की पत्तियों को एक साथ पीसकर थोड़े से पानी में मिलाकर लेप बना लें। इस लेप को सप्ताह में कम से कम दो बार आधे घण्टे के लिए बालों पर लगाना चाहिए। ऐसा करने से बाल झड़ना रुक जाते हैं तथा बाल सफेद भी नहीं होते हैं।

लगभग 80 ग्राम चुकन्दर के पत्तों के रस को सरसों के 150 ग्राम तेल में मिलाकर आग पर पकाएं। जब पत्तों का रस सूख जाए तो इसे आग पर से उतार लें और ठंडा करके छानकर बोतल में भर लें। इस तेल से प्रतिदिन सिर की मालिश करने से बाल झड़ने रुक जाते हैं तथा बाल समय से पहले सफेद भी नहीं होते हैं।

कलौंजी को पीसकर पानी में मिला लें। इस पानी से सिर को कुछ दिनों तक धोने से बाल झडना बंद हो जाते हैं तथा बाल घने भी होना शुरु हो जाते हैं।
नीम की पत्तियों और आंवले के चूर्ण को पानी में डालकर उबाल लें और सप्ताह में कम से कम एक बार इस पानी से सिर को धोएं। ऐसा करने से कुछ ही समय में बाल झड़ना बंद हो जाता है।

आधा कप शराब में थोड़े से प्याज के टुकड़े डालकर 1 दिन के लिए रख दें। फिर 1 दिन के बाद प्याज के टुकड़ों को शराब में से बाहर निकाल दें और सिर पर इसकी मालिश करें। इसे बाल झड़ना बन्द हो जाते हैं और सिर पर नए बाल भी उगना शुरू हो जाते हैं।

विश्व एड्स दिवस पर विशेष: नशे की सुई लेने वालों को एचआईवी का ज्यादा खतरा

भारत में एचआईवी संक्रमण में कमी आई है, लेकिन एक रिपोर्ट में कहा गया है कि इंजेक्शन के जरिए नशीले पदार्थो का सेवन करने वाले लोग एचआईवी या एड्स से सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (नेको) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की सामान्य जनसंख्या में एचआईवी का प्रसार 0.40 प्रतिशत है जबकि इंजेक्शन से नशे का सेवन करने वाले लोगों में इसका प्रसार 7.17 प्रतिशत है।

विशेषज्ञ इसका दोष मादक पदार्थ उपयोगकर्ताओं का गरीबी की हालत में गुजर-बसर करना और नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंसेज (एनडीपीएस) अधिनियम को देते हैं। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (एनएसीपी) तृतीय के तहत चलाई जा रही परियोजना 'हृदय' के कार्यक्रम अधिकारी फ्रांसिस जोसेफ ने बताया, "जो लोग इंजेक्शन के जरिए नशा करते हैं वे सामाजिक, चिकित्सकीय और कानूनी स्तर पर बड़े पैमाने पर उत्पीड़न का सामना करते हैं। यह स्थिति उन्हें एचाआईवी/एड्स की रोकथाम वाली सेवाओं का लाभ उठाने से वंचित कर देती है।" 

भारत के कई हिस्सों में इसके नुकसान को कम करने वाले कार्यक्रमों में बाधा के लिए उन्होंने एनडीपीएस अधिनियम को भी दोष दिया। उन्होंने कहा, "कानून में कुछ बदलावों की जरूरत है। विशेष रूप से जहां तक नशा करने वालों का संबंध है वहां इसे नरम होने की जरूरत है।" एक वरिष्ठ नेको अधिकारी के मुताबिक, एनडीपीएस अधिनियम अपने आप में कठोर है लेकिन इसमें नशा करने वालों से अलग तरह से व्यवहार करने का प्रावधान है लेकिन ये प्रावधान पुलिस के लिए नहीं है।

जोसेफ ने बताया कि यह तथ्य है कि भारत में अधिकतर नशा करने वाले गरीबी की पृष्ठभूमि से आते हैं और नासमझी के कारण अपनी सुई और सीरिंज साझा करते हैं जो एचआईवी संक्रमण फैलाते हैं। नेको के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, भारत में युवा आबादी के बीच एचआईवी संक्रमण में अनुमानित 57 प्रतिशत वार्षिक की कमी आई है। 2011 में एचआईवी संक्रमित लोगों की अनुमातित संख्या 20.8 लाख थी।
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उत्पन्ना एकादशी व्रत से मिलता है हजारों यज्ञों का फल

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है। अगहन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है| इस वर्ष उत्पन्ना एकादशी 29 नवम्बर दिन शुक्रवार को पड़ रही है| इस दिन भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करने का विधान है| 

उत्पन्ना एकादशी की व्रत विधि-

मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी के एक दिन पहले यानी दशमी तिथि को सायंकाल भोजन के बाद अच्छी प्रकार से दातुन करें ताकि अन्न का अंश मुँह में रह न जाए। रात के समय भोजन न करें, न अधिक बोलें। एकादशी के दिन सुबह 4 बजे उठकर सबसे पहले व्रत का संकल्प करें। इसके पश्चात शौच आदि से निवृत्त होकर शुद्ध जल से स्नान करें। 

इसके पश्चात धूप, दीप, नैवेद्य आदि सोलह चीजों से भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करें और रात को दीपदान करें। रात में सोए नहीं। सारी रात भजन-कीर्तन आदि करना चाहिए। जो कुछ पहले जाने-अनजाने में पाप हो गए हों, उनकी क्षमा माँगनी चाहिए। सुबह पुन: भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करें व योग्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर यथा संभव दान देने के पश्चात ही स्वयं भोजन करना चाहिए।

धर्म शास्त्रों के अनुसार इस व्रत का फल हजारों यज्ञों से भी अधिक है। रात्रि को भोजन करने वाले को उपवास का आधा फल मिलता है जबकि निर्जल व्रत रखने वाले का माहात्म्य तो देवता भी वर्णन नहीं कर सकते।

उत्पन्ना एकादशी की कथा- 

सतयुग में एक महा भयंकर दैत्य मुर हुआ करता था| दैत्य मुर ने इन्द्र आदि देवताओं पर विजय प्राप्त कर उन्हें, उनके स्थान से भगा दिया| तब इन्द्र तथा अन्य देवता क्षीर सागर भगवान श्री विष्णु के पास जाते हैं| देवताओं सहित सभी ने श्री विष्णु जी से दैत्य के अत्याचारों से मुक्त होने के लिये विनती की| इन्द्र देव के वचन सुनकर भगवान श्री विष्णु बोले -देवताओं मै तुम्हारे शत्रुओं का शीघ्र ही संकार करूंगा|

जब दैत्यों ने भगवान श्री विष्णु जी को युद्ध भूमि में देखा तो उन पर अस्त्रों-शस्त्रों का प्रहार करने लगे| भगवान श्री विष्णु मुर को मारने के लिये जिन-जिन शास्त्रों का प्रयोग करते वे सभी उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगे़ भगवान श्री विष्णु उस दैत्य के साथ सहस्त्र वर्षों तक युद्ध करते रहे़ परन्तु उस दैत्य को न जीत सके| अंत में विष्णु जी शान्त होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रियाकाश्रम में एक लम्बी गुफा में वे शयन करने के लिये चले गये|

दैत्य भी उस गुफा में चला गया, कि आज मैं श्री विष्णु को मार कर अपने सभी शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लूंगा| उस समय गुफा में एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई़ और दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी| दोनों में देर तक युद्ध हुआ| उस कन्या ने उसको धक्का मारकर मूर्छित कर दिया और उठने पर उस दैत्य का सिर काट दिया और वह दैत्य मृत्यु को प्राप्त हुआ|

उसी समय श्री विष्णु जी की निद्रा टूटी तो उस दैत्य को किसने मारा वे ऎसा विचार करने लगे| इस पर उक्त कन्या ने उन्हें कहा कि दैत्य आपको मारने के लिये तैयार था| तब मैने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इसका वध किया है| भगवान श्री विष्णु ने उस कन्या का नाम एकादशी रखा क्योकि वह एकादशी के दिन श्री विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुई थी इसलिए इस दिन को उत्पन्ना एकादशी के नाम से जाना जाता है|

लेह: प्राकृतिक खूबसूरती का अद्भुत नजारा

जम्मू और कश्मीर के उत्तर में हिमालय के हसीन वादियों की गोद में बसा 'लेह' बेहद सुंदर और आकर्षक स्थान है। सिंधु नदी के किनारे और 11000 फीट की ऊंचाई पर बसा लेह पर्यटकों को जमीं पर स्वर्ग का एहसास दिलाता है। धरती पर रहकर स्वर्ग के दर्शन करने हों तो लेह से बेहतर जगह शायद ही दूसरी हो। सुंदरता का अनोखा नजारा प्रस्तुत करता लेह रुई नुमा बादलों से ढ़का होता है। लगता है की मानो आसमान ने लेह को कम्बल से ढ़क् दिया हो। गगन चुंबी पर्वतों पर ट्रैकिंग का यहां अपना अलग ही मजा है। लेह में पर्वत और नदियों के अलावा भी कई ऐतिहासिक इमारतें मौजूद हैं। यहां बड़ी संख्या में खूबसूरत बौद्ध मठ हैं, जिनमें बहुत से बौद्ध भिक्षु रहतें हैं। 

सिंधु नदी के किनारे बसे इस प्राचीन शहर आधुनिकता को अपने अंदर समाहित कर चूका है। यहाँ हमेशा सैलानियों का जमावड़ा लगा रहता है। लगता है जैसे ये सैलानी यहीं के वासिंदे हों। लेह का बाजार बहुत चौडा है| कहा जता है कि आजादी से पहले अंग्रेज यहां पोलो खेला करते थे। यह एक छोटी सी शांति वाली जगह है। यहाँ लोग प्रकृति गोद में सुखद अनुभूति करतें हैं। लेह में सैलानी धूमने या कुछ विशेष देखने का उद्देश्य ले कर नहीं आते क्योंकि यह कोई बडा शहर नही है, यहां तो सैलानी जिदगी के कुछ दिन प्रक़ति की गोद में बिताने आतें हैं, शांति की तलाश में आतें हैं। 17वीं शताब्दी में बना लेह महल और बैद्व मठ दर्शनीय है। वैसे लेह का मुख्यत बाजार देखने लायक है। जहां सैलानियों को कशमीरी, लद्दाखी और तिब्बती कलाओं वाली ढ़ेरों चीजें सजी देखने को मिलती है। 

पहाडों से बर्फ खिसकने के कारण मई, जून में लद्दाख के रास्ते खतरनाक हो जाते हैं। जुलाई से अक्‍टूबर तक ही इस इलाके में यात्रा करना उपयुक्त होता है। यहां बारि‍श नही होती लेकिन ठंड काफी होती है। हां जुलाई और अगस्त में लेह नगर में ठंड नहीं होती। यहाँ स्थित कुछ स्थल अद्भुत हैं। जिन्हे सैलानी देखना पसंद करतें हैं, जिनमें शेय महल, पहाड़ी की चोटी को सुशोभित करता लद्दाख के प्रथम राजा हेचेन स्पेलगीगोन का यह महल। इस महल के अंदर एक मठ भी है। कॉपर गिल्ट से निर्मित महात्मा बुद्ध की तीन मंजिला मूर्ति यहां स्थापित है।

स्तोक महल यह महल लेह से 17 किमी दूर स्थित है। स्तोक महल में शाही परिवार के लोग रहते हैं। यहां एक आकर्षक संग्रहालय भी है जिसमें यहां के राजा-रानी की काफी दिलचस्प वस्तुएं रखी हुईं हैं।

थिकसी मठ यह मठ लेह के सभी मठों से आकर्षक और खूबसूरत है। यह मठ गेलुस्‍पा वर्ग से संबंधित है। वर्तमान में यहां लगभग 80 बौद्ध सन्यासी रहते हैं। अक्टूबर-नवम्बर के बीच यहां थिकसी उत्सव का आयोजन किया जाता है।

लेह महल राजा नामग्याल द्वारा बनवाया गया नौ मंजिला यह खूबसूरत महल 17 वीं शताब्दी के धरोहरों में से एक है। यह महल तिब्बती कारीगरी का बेहतरीन नमूना है। इस महल से जुड़े कई मंदिर भी हैं जो आमतौर पर बंद रहते हैं। इन मंदिरों को पुजारी सुबह और शाम के वक्त ही पूजा करने के लिए खोलता है। जामी मस्जिद-लेह बाजार के समीप 17 वीं शताब्दी में निर्मित जामी मस्जिद पर्यटकों को खूब लुभाती है। हरे और सफेद रंग की यह मस्जिद पर्यटकों के बीच आर्कषण का केन्‍द्र है।

हेमिस मठ पश्चिमी लेह से 53 किमी दूर यह विशाल और प्रसिद्ध मठ दुपका वर्ग से संबंधित है। जून में यहां हेमिस पर्व का आयोजन किया जाता है। यह पर्व दूर-दूर से बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकर्षित करता है।

शान्ति स्तूप लेह बाजार से 3 किमी दूर चंगस्पा गांव में स्थित सफेद पत्थर से निर्मित शान्ति स्तूप है। इसका उदघाटन 1983 में शान्ति पैगोड़ा दलाई लामा द्वारा किया गया था। इसके किनारे गिल्ट पेनल से सुसज्जित हैं जो महात्मा बुद्ध के जीवन को दर्शाते हैं।

लेह किला यह किला जोरावर सिंह ने बनवाया था। किले में तीन मंदिर है। यह किला अब सेना के कैम्प के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

बाजार, लेह का बाजार काफी आकर्षक होता है। लेह के बाजार की सैर अपने आप में अनोखा अनुभव है। यहां पर्यटक स्थानीय लोगों की दुकानों को बड़ी उत्सुकता के साथ देखते हैं। बाजार का सबसे आकर्षक नजारा पास के गांव की महिलाएं होती हैं,जो लाइन से बैठकर फल-सब्जियां बेचती हैं। 

ख़रीददारी के लिए लेह में आकर्षक बाजारों के अलावा डिस्ट्रिक हैन्डीकाफ्ट सेन्टर अच्छा विकल्प है। यहां लद्दाख की संस्कृति और परंपरा से जुड़ी चीजें खरीदी जा सकती हैं। यहां मिलने वाले सामानों में पशमीना शॉल सबसे अधिक लोकप्रिय है। यह शॉल बेहद गर्म और नर्म होती है। यहाँ के बाजारों कि दूसरा मुख्य सामान तिब्बती गलीचे होतें हैं। कारीगर बहुत ही खूबसूरत गलीचे बनातें हैं। यहां की थांग्का पेंटिंग पर्यटकों को खूब पसंद आती है। लेह से लकड़ी के सामान के साथ अन्य बहुत सी वस्‍तुएं भी खरीदी जा सकती हैं।

राम के लिए ही नहीं श्रीकृष्ण के लिए भी बंदरों ने बनाया था सेतु, जानिए कहाँ है वह

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जब लंका पर चढ़ाई करने जा रहे थे तो उस समय वानर सेना ने रामेश्वरम से लंका तक पत्थरों से एक सेतु का निर्माण किया था यह बात तो हर कोई जानता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि जब भगवान विष्णु ने द्वापर युग में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया था तो उस समय भी वानरो ने फिर से एक सेतु का निर्माण किया था यह बात शायद ही आपको पता हो| बंदरों द्वारा बनाया गया यह सेतु भगवान् श्रीकृष की नगरी मथुरा से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर काम्यवन में एक सरोवर पर बनाया गया था। इस सेतु को भी सेतुबंध रामेश्वरम नाम दिया गया| इस सरोवर के उत्तर दिशा में एक भगवान भोलेनाथ का मंदिर है जिसे रामेश्वरम के नाम से जाना जाता है| सरोवर के दक्षिण में एक टीले पर लंका भी बना हुआ। 

इस सेतु के बारे में कहा जाता है श्रीकृष्ण लीला के समय दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे । उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणामकर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे । बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे । भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे । गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई । वे भी भगवान श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं । कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी । उस समय ललिताजी ने कहा– हमने सुना है कि महापराक्रमी हनुमान जी ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था । परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं । 

ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थी । ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो । तुम कदापि राम नहीं थे । तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं । श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनु को तोड़कर सीता से विवाह किया था । पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया । फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका । पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा । मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ । पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी । किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं । 

ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं । यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं । श्रीरामचन्द्रजी सौ योजन समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे । आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं । ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया । देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये । श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया । सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की । आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं । इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है ।

आपको बता दें कि काम्यवन ब्रज के बारह वनों में से एक उत्तम वन है। काम्यवन के आस-पास के क्षेत्र में तुलसी जी की प्रचुरता के कारण इसे आदि वृन्दावन भी कहा जाता है। वृन्दा तुलसी जी का ही पर्याय है। श्रीवृन्दावन की सीमा का विस्तार दूर-दूर तक फ़ैला हुआ था, श्री गिरिराज, बरसाना, नन्दगाँव आदि स्थलियाँ श्री वृन्दावन की सीमा के अन्तर्गत ही मानी गयीं। महाभारत में वर्णित काम्यवन भी यही माना गया है, पाण्डवों ने यहाँ अज्ञातवास किया था। वर्तमान में यहाँ अनेक ऐसे स्थल मौजूद हैं जिससे इसे महाभारत से सम्बन्धित माना जा सकता है। पाँचों पाण्डवों की मूर्तियाँ, धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से धर्मकूप तथा धर्मकुण्ड भी यहाँ प्रसिद्ध है। यह स्थल राजस्थान राज्य के भरतपुर जिले के अन्तर्गत आता है। इसका वर्तमान नाम कामां है।

विष्णु पुराण के अनुसार यहाँ छोटे-बड़े असंख्य तीर्थ हैं। 84 तीर्थ, 84 मन्दिर, 84 खम्भे आदि राजा कामसेन ने बनवाये थे, जो यहाँ कि अमूल्य धरोहर हैं। यहाँ कामेश्वर महादेव, श्री गोपीनाथ जी, श्रीगोकुल चंद्रमा जी, श्री राधावल्लभ जी, श्री मदन मोहन जी, श्रीवृन्दा देवी आदि मन्दिर हैं। यद्यपि अनुरक्षण के अभाव में यहाँ के अनेक तीर्थ नष्ट भी होते जा रहे हैं फ़िर भी कुछ तीर्थ आज भी अपना गौरव और श्रीकृष्ण लीलाओं को दर्शाते हैं। कामवन को सप्तद्वारों के लिये भी जाना जाता है।

जाने अगहन मास को क्यों कहते हैं मार्गशीर्ष

हिन्दू धर्म के अनुसार वर्ष का नवां महीना अगहन कहलाता है| अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से भी जाना जाता है| क्या आपको पता है अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जाना जाता है? यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि अगहन मास को मार्गशीर्ष नाम से क्यों जानते हैं| 

आपको बता दें कि अगहन मास को मार्गशीर्ष कहने के पीछे भी कई तर्क हैं। भगवान श्रीकृष्ण की पूजा अनेक स्वरूपों में व अनेक नामों से की जाती है। इन्हीं स्वरूपों में से एक मार्गशीर्ष भी श्रीकृष्ण का ही एक रूप है।

अगहन मास को मार्गशीर्ष क्यों कहा जाता है? इस संबंध में शास्त्रों में कहा गया है कि इस माह का संबंध मृगशिरा नक्षत्र से है। ज्योतिष के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं जिसमें से एक है मृगशिरा नक्षत्र| इस माह की पूर्णिमा मृगशिरा नक्षत्र से युक्त होती है। इसी वजह से इस मास को मार्गशीर्ष मास के नाम से जाना जाता है| 

भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा था कि सभी महिनों में मार्गशीर्ष श्रीकृष्ण का ही स्वरूप है। मार्गशीर्ष मास में श्रद्धा और भक्ति से प्राप्त पुण्य के बल पर हमें सभी सुखों की प्राप्ति होती है। इस माह में नदी स्नान और दान-पुण्य का विशेष महत्व है। 

श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष मास की महत्ता गोपियों को भी बताई थी। उन्होंने कहा था कि मार्गशीर्ष माह में यमुना स्नान से मैं सहज ही सभी को प्राप्त हो जाऊंगा। तभी से इस माह में नदी स्नान का खास महत्व माना गया है।

मार्गशीर्ष में नदी स्नान के लिए तुलसी की जड़ की मिट्टी व तुलसी के पत्तों से स्नान करना चाहिए। स्नान के समय ऊँ नमो नारायणाय या गायत्री मंत्र का जप करना चाहिए।

अब तो ‘राख’ हो गया होगा सोने का महाखजाना!

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के डौंडि़याखेड़ा गांव में राजा राव रामबक्श सिंह किले में सोने के महाखजाना को धनतेरस के पूर्व न निकालने पर संत शोभन सरकार ने उसके ‘राख’ हो जाने की भविष्यवाणी की थी, तो फिर अब खुद खोदाई कर सोना निकालने की जिद क्यों की जा रही है? अब तो वह ‘राख’ हो गया होगा।

संत शोभन सरकार के सपने को सच मान कर केन्द्र सरकार ने आनन-फानन में एएसआई को किले की खोदाई कराने का निर्देश दिया था, एएसआई ने 18 अक्टूबर से खोदाई कार्य में जुटी भी। लेकिन करीब दो लाख रुपये खर्च करने के बाद एएसआई के हाथ टूटी चूडि़यां, कांच के टुकड़े और मिट्टी के बर्तनों के सिवाय कुछ नहीं मिला। खोदाई के दौरान ही संत शोभन सरकार के शिष्य स्वामी ओम जी महराज ने भविष्यवाणी की थी कि धनतेरस के पूर्व खोदाई पूर्ण कर सोना न निकाल पाए तो वह ‘राख’ हो जाएगा। तो फिर अब ओम जी या संत के अन्य नजदीकी खुद खोदाई कराने का प्रयास क्यों कर रहे हैं? यह एक बड़ा सवाल फिर लोगों के जेहन में गूंजने लगा है।

पिछले गुरुवार को ओम जी का अचानक जेसीबी मशीन और तमाम ग्रामीणों के साथ किला परिसर में पहुंचना और खोदाई की जिद करने से वहां तनाव की सिथति बन गई थी, लिहाजा प्रशासन को पुनः भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ा। संत शोभन सरकार के एक नजदीकी राजेन्द्र तिवारी ने बताया कि संत शोभन की ओर से केन्द्र व राज्य सरकार को पत्राचार कर खुद खोदाई कराने की इजाजत मांगी गई है, इजाजत मिलती है तो सोना निकाल कर देश को सौंपा जाएगा। 

तिवारी इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि संत ने धनतेरस के पूर्व सोना न निकाल पाने पर ‘राख’ हो जाने की भविष्यवाणी की थी। उल्टे वह कहते हैं कि संत की शर्त अस्वीकार करने पर ही एएसआई को सोना नहीं मिला, साथ ही जोड़ा कि जीएसआई की रिपोर्ट में 15 से 20 मीटर की गहराई में ‘धातु’ होने की पुष्टि हुई थी, मगर एजेंसी ने महज 15-20 फिट खोदाई कर काम बंद कर दिया।

एएसआई के एक अधिकारी पीके मिश्रा बताते हैं कि ‘किले की खोदाई में करीब दो लाख रुपये सरकार का खर्च हो चुका है और वहां कोई खास उपलब्धि नहीं मिली। उपजिला अधिकारी विजयशंकर दुबे बताते हैं कि पिछले गुरुवार को ओम जी द्वारा जेसीबी मशीन से खुद खोदाई का प्रयास करने से तनाव की स्थिति बन गई थी, जिससे किला परिसर में दोबारा डेढ़ सेक्शन पीएसी बल तैनात करना पड़ा है।

सच्चाई यह नहीं है कि संत की शर्त न मानने या धनतेरस के पूर्व न निकाल पाने पर सोना नहीं मिला। बल्कि सच यह है कि संत शोभन सरकार को उन्नाव और कानपुर इलाके में ग्रामीण आंख मूंद कर ‘भगवान’ का दर्जा देते थे, चूंकि अब पूरे देश में संत की किरकिरी हो चुकी है तो उनके अनुयायी इस कोशिश में लगे हैं कि संत की प्रतिष्ठा कायम रखने का यही एक तरीका है। 
वह यहां यह कहावत चरितार्थ कर रहे है कि ‘न नौ मन तेल होगा और न राधा नचेगी’ यानी कि सरकार खुद खोदाई की अनुमति नहीं देगी तो यह साबित हो जाएगा कि संत खोदाई करते तो सोने का महाखजाना जरूर मिलता।

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महिलाओं से लंबी होती है पुरुषों की नाक


समाज में नाक ऊंची होने की कहावतें तो आपने जरूर सुनी होंगी, और यह भी मानते होंगे कि अक्सर पुरुषों की ही नाक को खतरा होता है। लेकिन विज्ञान ने भी अब इस तथ्य को मान लिया है कि पुरुषों की नाक महिलाओं की नाक से बड़ी होती है।

अमेरिका के आयोवा विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मानव नाक पर अपने ताजा अध्ययन में इस बात का खुलासा किया है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि शोधकर्ताओं ने इसका संबंध मान-सम्मान से जोड़कर एकदम नहीं बताया है।

इस शोध में पाया गया कि महिलाओं की नाक पुरुषों की नाक के मुकाबले औसतन 10 प्रतिशत छोटी होती है। हालांकि यह शोध विशेष तौर पर यूरोपीय नागरिकों के लिए किया गया है, और इसके परिणाम यूरोपीय नागरिकों पर ही लागू होते हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक पुरुषों के शरीर में पतली मांसपेशियां अधिक होती हैं, जिसके कारण मांसपेशियों के उत्तकों के विकास के लिए अधिक ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इसीलिए पुरुषों की नाक बड़ी होती है, क्योंकि बड़ी नाक का मतलब है श्वसन के जरिए अधिक से अधिक ऑक्सिजन का रक्त के जरिए मांसपेशियों तक पहुंचना।

शोध में यह तथ्य भी उभरकर आया कि पुरुष और महिलाओं के नाक में यह अंतर 11 वर्ष की आयु में स्पष्ट होना शुरू हो जाता है। अमूमन यह अवस्था तरुणावस्था में प्रवेश करने की होती है। शारीरिक रूप से स्वस्थ पुरुषों में इस दौरान पतली मांसपेशियों का विकास तेजी से होता है, जबकि महिलाओं में मोटी मांसपेशियों का विकास होता है। इससे पहले हुए शोध बताते हैं कि पुरुष अपने शरीर का 95 प्रतिशत वजन तरुणाई के दौरान ही प्राप्त करते हैं, जबकि महिलाएं इस दौरान अपने वजन का 85 प्रतिशत हिस्सा विकसित करती हैं।

विज्ञान शोधों की पत्रिका 'अमेरिकी जर्नल ऑफ फीजिकल एंथ्रोपोलॉजी' में प्रकाशित शोध के मुख्य लेखक एवं यूआई दंत चिकित्सा महाविद्यालय में सहायक प्रवक्ता नैथन हॉल्टन के अनुसार, "शरीर और नाक के आकार के बीच संबंध पर साहित्य में पहले ही चर्चा हुई है। लेकिन यह अपने आप में पहला शोध है, जिसमें महिलाओं एवं पुरुषों में उनके शरीर के आकार के साथ उनकी नाक के आकार के बीच संबंध की पड़ताल की गई है।"

इस शोध के लिए हॉल्टन और उनकी टीम ने आयोवा विश्वविद्यालय की फेसियल ग्रोथ स्टडी में अध्ययनरत यूरोपीय मूल के तीन से 20 वर्ष की आयुवर्ग के 38 विद्यार्थियों को अपने अध्ययन में शामिल किया। शोध में शामिल किए गए प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य अंगों का लगातार मापन किया जाता रहा।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 11 वर्ष की अवस्था से पहले तक लड़के और लड़कियों की नाक का आकार एक था। लेकिन तरुणाई के साथ-साथ उनके नाक के आकार में अंतर आता गया। हाल्टन ने अपने शोध में कहा है, "यहां तक कि यदि पुरुष और महिला के शरीर का आकार एक ही हो, फिर भी पुरुष की नाक महिला की नाक से बड़ी होती है।"

उन्होंने यह भी कहा कि इस शोध के परिणाम यूरोपीय नागरिकों के साथ ही दूसरे समुदायों पर भी लागू हो सकते हैं, लेकिन अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी जब तक कि शोध के जरिए इस तरह के तथ्य प्राप्त न कर लिए जाएं।

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