इमाम हुसैन की शहादत की याद है मुहर्रम

दुनिया के विभिन्न धर्मो के बहुत से त्योहार खुशियों का इजहार करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी त्योहार हैं जो हमे सच्चाई और मानवता के लिए दी गई शहादत की याद दिलाते हैं। ऐसा ही त्योहार है मुहर्रम, जो पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मनाया जाता है। यह हिजरी संवत का प्रथम मास है। मुहर्रम एक महीना है जिसमें दस दिन इमाम हुसैन का शोक मनाया जाता है। इसी महीने में मुसलमानों के आदरणीय पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलही वसल्लम ने पवित्र मक्का से पवित्र नगर मदीना में हिजरत किया था।

रसूल मोहम्मद साहब की वफात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार का समय आया जब 60 हिजरी में हमीद मावीय के पुत्र याजीद राज सिंहासन पर बैठे। सिंहासन पर बैठते ही याजीद ने मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर मेरी आज्ञाओं का पालन करने और इस्लाम के सिद्धांतों को ध्यान में लाने के लिए कहो। यदि वह न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाए। 

वलीद पुत्र अतुवा ने 25 या 26 रजब 60 हिजरी को रात्रि के समय हजरत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनको यजीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन ने वलीद से कहा, "मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी, खुदा रसूल को न मानने वाले, यजीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता।" इसके बाद इमाम हुसैन साहब मक्का शरीफ पहुंचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें। लेकिन वहां पर भी इमाम हुसैन साहब को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। शाम को बादशाह यजीद ने अपने सैनिकों को यात्री बना कर हुसैन का कत्ल करने भेज दिया। 

हजरत इमाम हुसैन को पता चल गया कि यजीद ने गुप्त रूप से सैनिकों को मुझे कत्ल करने के लिए भेजा है। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहां पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए कि मक्का में किसी प्रकार का खून-खराबा न हो, इमाम हुसैन ने हज की एक उप प्रथा जिसको इस्लामिक रूप से उमरा कहते हैं, अदा किया। हजरत हुसैन इसके बाद अपने परिवार सहित इराक की ओर चले गए। 

मुहर्रम मास की 2 तारीख 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुंचे और 9 तारीख तक यजीद की सेना को इस्लामिक सिद्धांतों को समझाया। लेकिन हजरत इमाम हुसैन की बातों का यजीद की फौज पर कोई असर नहीं हुआ। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हजरत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन साहब को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को आसुर की रात कहा जाता है।

हजरत इमाम हुसैन साहब ने उस पूरी रात अपने परिवार तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यजीद के सेनापति उमर बिल साद ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। इसके बाद लड़ाई शुरू हो गई। 

सुबह नमाज से असर तक इमाम हुसैन के सब साथी जंग में मारे गए। इमाम हुसैन मैदान में अकेले रह गए। खेमे में शोर सुनकर इमाम साहब खेमे में गए तो देखा कि उनका 6 महीने का बच्चा अली असगर प्यास से बेहाल है। हजरत इमाम हुसैन ने अपने बच्चे को अपने हाथों में उठा लिया और मैदाने कर्बला में ले आए।

हजरत इमाम हुसैन साहिब ने यजीद की फौजों से कहा कि बच्चे को थोड़ा सा पानी पिला दो किंतु यजीद की फौजों की तरफ से एक तीर आया और बच्चे के गले पर लगा और बच्चे ने बाप के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद तीन दिन से भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन साहब का कत्ल कर दिया गया। हजरत इमाम हुसैन ने इस्लाम पर तथा मानवता पर अपनी जान कुर्बान की जो अमर है।

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हर घर से रिश्ता चाहते हैं 'पेड़ वाले बाबा'

विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में जाकर छात्रों का मानवीय विषयों एवं प्रकृति की ओर ध्यान खींचना और वृक्ष को अपनी बेटी मानते हुए हर घर के सामने एक पेड़ लगाकर उस घर से दिली रिश्ता जोड़ना 'पेड़ वाले बाबा' के जीवन का उद्देश्य है। बाबा अपनी मुहिम में कुछ हद तक सफल भी हुए हैं। उनकी इस लगन के लिए राज्यपाल बी.एल. जोशी ने उन्हें सम्मानित भी किया है। 

पेड़ वाले बाबा के नाम से प्रसिद्ध आचार्य चंद्रभूषण तिवारी की जीवन यात्रा की कहानी बड़ी ही मर्मस्पर्शी है। उत्तर प्रदेश में देवरिया जिले के एक छोटे से गांव भंटवा तिवारी में पैदा हुए इस शख्स ने एक ऐसी मुहिम शुरू करने का फैसला किया, जिससे उनकी जिंदगी बदल गई। अब तिवारी राजधानी और सूबे के अन्य हिस्सों में पेड़ वाले बाबा के नाम से मशहूर हैं। आचार्य चंद्रभूषण तिवारी उर्फ पेड़ वाले बाबा ने बातचीत में अपने जीवन के उन पहलुओं को भी सामने रखा, जिससे आम आदमी कुछ सीख सकता है।

तिवारी ने कहा कि गांव के जिस स्कूल में पढ़ता था वहां हर शनिवार बालसभा होती थी। मैं भी उसमें हिस्सा लेता था। बाद में मैं अपने गांव में भी बालसभा कराने लगा। इस दौरान मैं लोगों को आम, जामुन और कटहल के पौधे भी देता था। इस काम से गांव में प्रशंसा मिली। भटवां तिवारी गांव में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के बाद तिवारी लखनऊ आ गए। लखनऊ विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक की उपाधि हासिल की। फिर बीएड किया और उन्हें केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक की नौकरी मिल गई। 

बकौल तिवारी, "लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान मैं राजधानी की झुग्गी-झोपड़ियों में बच्चों के बीच चला जाता था। राजधानी में घर-घर जाकर बच्चों के लिए पुराने कपड़े दान के तौर पर ले आता था। गरीब-बेसराहा बच्चे काफी खुश होते थे।" तिवारी बताते हैं कि वर्ष 1995 उनके जीवन में निर्णायक साबित हुआ। वह ओडिशा में केंद्रीय विद्यालय में तैनात थे। लखनऊ के गरीब बच्चों ने उन्हें चिट्ठी लिखी। बच्चों ने लिखा था, "अंकल आप कब आओगे, खिलौने और मिठाई कब लाओगे। किताबें कब मिलेंगी।" पत्र पढ़ने के बाद तिवारी ने नौकरी छोड़ लखनऊ आने का फैसला किया।

नौकरी छोड़ने के बाद शुरू हुई पेड़ वाले बाबा की असली कहानी। लखनऊ आने पर उन्होंने बच्चों से मुलाकात की। फिर उनका जीवन बच्चों और वृक्षों को समर्पित हो गया। राजधानी में सालेहनगर, सेक्टर एम 1 आशियाना, औरंगाबाद रेलवे क्रॉसिंग के पास और हनीमैन चौराहे के पास तिवारी ने चार स्कूल खोल रखे हैं। इन स्कूलों में गरीब बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा देते हैं।

तिवारी बताते हैं कि हर घर से दान लेने के बदले वहां एक वृक्ष लगाकर रिश्ता जोड़ने की मुहिम की वजह से ही वह कब तिवारी से पेड़ वाले बाबा बन गए, पता नहीं चला। आज लोग उन्हें पेड़ वाले बाबा के नाम से पुकारते हैं। तिवारी ने बताया कि अखबारों के माध्यम से ही उनके कार्यो की गूंज सूबे के राज्यपाल बी.एल. जोशी तक पहुंची। जोशी ने खुद उन्हें बुलवाया और सम्मानित किया। तिवारी ने कहा, "जब राजभवन से फोन आया तो मुझे विश्वास नहीं हुआ, लेकिन वहां जाने के बाद उन्होंने मेरे काम की बहुत प्रशंसा की और पांच हजार रुपये भी दिए।"
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आधुनिक भारत के निर्माता थे चाचा नेहरू

बच्चों के बीच चाचा नेहरू के नाम से मशहूर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने स्वतंत्र भारत का जो स्वरूप आज हमारे सामने मौजूद है, उसकी आधारशिला रखी थी। आधुनिक भारत के निर्माण की राह बनाने के साथ ही उन्होंने देश के भावी सामाजिक स्वरूप का खाका भी खींचा था। दुनिया के पटल पर भारत आज अपने जिन मूल्यों आदर्शो के लिए जाना पहचाना जाता है, उसे स्वरूप प्रदान करने का श्रेय एक हद तक नेहरू को दिया जा सकता है।

उनके बारे में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था, "जवाहर लाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वह एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे, जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएं चिरस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता संग्राम के योद्धा के रूप में वह यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका अंशदान अभूतपूर्व था।" नेहरू का जन्म कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यह परिवार 18वीं शताब्दी के आरंभ में इलाहाबाद आ गया था। इलाहाबाद में बसे इसी परिवार में उनका जन्म 14 नवंबर 1889 को हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित मोतीलाल नेहरू और माता का नाम श्रीमती स्वरूप रानी था। 

उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। 15 वर्ष की उम्र में 1905 में नेहरू इंग्लैंड के हैरो स्कूल में भेजे गए। हैरो में दो वर्ष तक रहने के बाद नेहरू केंब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज पहुंचे जहां उन्होंने तीन वर्ष तक अध्ययन कर विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त की। कैम्ब्रिज छोड़ने के बाद लंदन के इनर टेंपल में दो वर्ष बिताकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई की।

भारत लौटने के चार वर्ष बाद मार्च 1916 में नेहरू का विवाह कमला कौल के साथ हुआ। कमला दिल्ली में बसे कश्मीरी परिवार की थीं। दोनों की अकेली संतान इंदिरा प्रियदर्शिनी का जन्म 1917 में हुआ। 1929 में लाहौर अधिवेशन में नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए थे। 27 मई 1964 को प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए निधन होने तक नेहरू अपने देशवासियों का आदर्श बने रहे। 

भारतीय इतिहास के परिप्रेक्ष्य में नेहरू का महžव उनके द्वारा आधुनिक जीवन मूल्यों और भारतीय परिस्थतियों के लिए अनुकूलित विचारधाराओं के आयात और प्रसार के कारण है। धर्मनिरपेक्षता और भारत की जातीय तथा धार्मिक विभिन्नताओं के बावजूद देश की मौलिक एकता पर जोर देने के अलावा नेहरू भारत को वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी विकास के आधुनिक युग में ले जाने के प्रति भी सचेत थे। 

अपने देशवासियों में निर्धनों तथा अछूतों के प्रति सामाजिक चेतना की जरूरत के प्रति जागरुकता पैदा करने और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति सम्मान पैदा करने का भी कार्य उन्होंने किया। उन्हें अपनी एक उपलब्धि पर विशेष गर्व था कि उन्होंने प्राचीन हिंदू सिविल कोड में सुधार कर अंतत: उत्तराधिकार तथा संपत्ति के मामले में विधवाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार प्रदान करवाया।

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चाहते हैं अनंत सुख की प्राप्ति तो रखें प्रबोधिनी एकादशी व्रत

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रबोधिनी एकादशी के नाम से जानते हैं| देव प्रबोधिनी एकादशी को देवोत्थान एकाद्शी या देव उठावनी एकादशी के नाम से जाना जाता है| प्रबोधिनी एकादशी के बारे में यह मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु चौमास यानी चार महीने के विश्राम के बाद उठते हैं| इसलिए इसे देव उठावनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है| इस तिथि के बाद ही शादी-विवाह आदि के शुभ कार्य शुरु होते है| इस वर्ष देव प्रबोधिनी एकादशी 11 नवम्बर दिन बुधवार को पड़ रही है| 

प्रबोधिनी एकादशी व्रत विधि-

इस वरात को करने वाले व्रतियों को चाहिए कि वह दशमी के दिन से ही मांस और प्याज तथा मसूर की दाल इत्यादि वस्तुओं का त्याग कर दें| दशमी तिथि की रात्रि को ब्रह्माचार्य का पालन करना चाहिए| प्रात: काल में लकडी की दातुन का प्रयोग नहीं करना चाहिए| फिर स्नान कर मंदिर में जाना चाहिए. गीता पाठ करना या गीता पाठ का श्रवण करना चाहिए| प्रभु के सामने यह प्रण करना चाहिए कि, मै, इस व्रत को पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करूंगा| व्रत के दिन "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय" इस द्वादश अक्षर के मंत्र का जाप करना चाहिए| एकादशी के दिन झाडू नहीं देनी चाहिए क्योकि इससे सूक्ष्म जीव मर जाते है| इस दिन भोग लगाने के लिये मूळी, आम, अंगूर, केला और बादाम का प्रयोग किया जा सकता है| द्वादशी के दिन ब्राह्माणों को मिष्ठान दक्षिणा से प्रसन्न कर परिक्रमा लेनी चाहिए| 

प्रबोधनी एकाद्शी व्रत कथा-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’

ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।

हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।

इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ (भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है ।

इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए । रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए ।

‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए, भगवान को अर्ध्य देना चाहिए । इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है ।

जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से, दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं । इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए ।

जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।
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बढ़ रही घरेलू नौकरानियों के साथ दुर्व्यवहार, हिंसा

गरीबी के कारण बरखा (कल्पित नाम) को मात्र 12 वर्ष की अवस्था में पश्चिम बंगाल से दिल्ली आकर घरेलू नौकरानी का काम अपनाना पड़ा। उसने जब पश्चिमी दिल्ली में एक चिकित्सक के घर खाना पकाने का काम शुरू किया तो उसे विश्वास था कि अब उसका जीवन बेहतर हो जाएगा।

लेकिन उसकी उम्मीदें तब धूमिल पड़ने लगीं, जब उसके मालिक ने उसे छोटी-छोटी गलतियों पर गाली देना और मारना-पीटना शुरू कर दिया। बरखा ने बताया कि वह मुझे बिना वजह मारता था और चिल्लाता था। मुझे गर्मियों की चिलचिलाती धूप में खड़े रहना पड़ता था। वे मुझे खाना तक नहीं देते थे और घर में ताला लगाकर बंद रखते थे। अंतत: बरखा एक दिन अपने अभिभावकों को फोन करने में कामयाब रही। तब कहीं जाकर बरखा के अभिभावकों द्वारा पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के बाद बरखा को 2012 में आजाद करवाया जा सका।

वास्तव में यह कहानी सिर्फ एक बरखा की नहीं है। राष्ट्रीय राजधानी में पुलिस के सामने पिछले एक वर्ष में घरेलू नौकरानियों के साथ दुर्व्यवहार एवं हिंसा के ऐसे 170 मामले सामने आ चुके हैं। उप्र के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सांसद धनंजय सिंह की दंत चिकित्सक पत्नी जागृति सिंह द्वारा अपनी नौकरानी राखी को पीट-पीटकर मार डालने की घटना ने पिछले दिनों राजधानी को हिलाकर रख दिया।

जागृति को अपनी 35 वर्षीय नौकरानी राखी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है। जागृति पर अपने दो अन्य नौकरों के साथ भी अक्सर मारपीट करने के आरोप हैं। इस मामले में सांसद धनंजय सिंह को भी साक्ष्य मिटाने एवं किशोर न्याय अधिनियम का उल्लंघन करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। दोनों इस समय पुलिस हिरासत में हैं।

राजधानी स्थित गैर सरकारी संगठन 'शक्ति वाहिनी' के प्रवक्ता ऋषिकांत के अनुसार, घरेलू नौकरानियों पर अत्याचार के मामलों में काफी वृद्धि हुई है। ऋषिकांत ने बताया कि इस तरह के मामलों में काफी तेजी आई है। समाज में हर पहलू से गिरावट आई है। ऋषिकांत के अनुसार, "इसका संबंध आर्थिक स्थिति से भी है। लोगों के पास तेजी से पैसा आ रहा है, जिसके कारण उनका गरीबों और उनके लिए काम करने वाले लोगों के प्रति रवैया बुरा होता जा रहा है।"

ऋषिकांत ने बताया कि इसी प्रकार 2006 में आठ से 12 वर्ष की आयु के बीच की तीन बच्चियों को बेहद बुरे हालात में फरीदाबाद के एक घर से आजाद करवाया गया था। पुलिस उपायुक्त एस. बी. एस. त्यागी ने बताया कि तीनों बच्चियां एक अभियंता के घर में काम करती थीं। मकान मालकिन कुंठित थी या बेहद तनाव में रहती थी, जिसके कारण वह तीनों बच्चियों के साथ बहुत निर्मम व्यवहार करती थी।

एक अन्य पुलिस अधिकारी ने बताया कि पिछले दशक में इस तरह के मामलों में तेजी आई है, तथा उनमें से अधिकतर मामलों में नाबालिग लड़कियां ही पीड़ित पाई गईं। दिल्ली में घरों में काम करने के लिए अमूमन पूर्वी राज्यों जैसे, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और झारखंड तथा आंध्र प्रदेश से भी बच्चियों को लाया जाता है। उनमें से अधिकांश बच्चियों को प्लेसमेंट एजेंसी के दलाल दिल्ली की चकाचौंध और नौकरी दिलाने का लालच दिखाकर लाते हैं। लेकिन दिल्ली लाकर ये दलाल उन्हें अमीरों के यहां बेच देते हैं।

दिल्ली पुलिस के अनुसार इस तरह गैर कानूनी तौर पर काम करने वाली एजेंसियों की संख्या हजारों में है। दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता राजन भगत ने बताया कि हमें जैसे ही इस तरह की प्लेसमेंट एजेंसी का पता लगता है, हम तत्काल उनके खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई करते हैं। पिछले दो महीनों में राजधानी में घरेलू नौकरानियों के साथ मारपीट के तीन मामले सामने आए हैं। इन सबके बावजूद देश में गृह सहायक कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक विशेष कानून तक नहीं है।

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....जब रेडियो पर बोले गांधी जी

महात्मा गांधी ने अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में लिखने और बोलने का काम बड़े पैमाने पर किया था। संपूर्ण गांधी वांग्मय के लगभग 100 खंड उनके लेखन, उद्बोधन और चिंतन की गहराई के उदाहरण हैं। गांधीजी जो लिखते या जो बोलते वह कितनी तेजी से पूरे भारत में फैल जाता और उसका किस-किस पर कैसा-कैसा असर पहुंचता, इसे भी हम सब अच्छी तरह जानते हैं। उनका लिखा जनलेखन बन जाता और उनकी वाणी जन-जन की वाणी बन जाती।

लेकिन 12 नवंबर 1947 को गांधीजी ने अपने लिखने और बोलने के दो सशक्त माध्यमों के अलावा एक तीसरे माध्यम का पहली बार उपयोग किया था और वह था आकाशवाणी से प्रसारण। इससे पहले उन्होंने कभी भी इस माध्यम का प्रयोग नहीं किया था, और इसके बाद भी उन्होंने अपने जीवन में दोबारा इस माध्यम का उपयोग नहीं किया।

यह प्रसंग इसलिए उपस्थित हुआ कि विभाजन के शरणार्थी कुरुक्षेत्र में आ रहे थे और उनकी संख्या लगातार बढ़ रही थी। गांधीजी उनसे कुरुक्षेत्र जाकर ही मिलना चाहते थे। लेकिन किसी कारण से वहां नहीं जा सकते थे। तब उन्हें घनश्यामदास बिड़ला ने सुझाव दिया था कि आप क्यों नहीं रेडियो का उपयोग करते हैं। गांधीजी ने उनका सुझाव मानकर अपने जीवन में पहली और आखिरी बार आकाशवाणी भवन से रेडियो का उपयोग देश की जनता को संबोधित करने के लिए किया था।

इस संदेश में उन्होंने प्रारंभ में ही कहा था कि उन्हें यह माध्यम अच्छा नहीं लगता। इसलिए उन्होंने रेडियो का उपयोग इससे पहले करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी। प्रसारण के प्रारंभ में उन्होंने अपनी बात स्पष्ट करते हुए कहा था कि दुखियों के साथ दुख उठाना और उनके दुखों को दूर करना ही मेरे जीवन का काम रहा है। इसलिए गांधीजी को दूर बैठकर रेडियो पर भाषण देकर, अपनों के दुख में शामिल होना ठीक नहीं लगा था। उन्होंने इस माध्यम में यह कमी देखी थी।

फिर भी उन्होंने इसी माध्यम का उपयोग किया और इस तरह पहली बार प्रसारण की तकनीक को सीधे समाज के दुख-सुख से जोड़ दिया था। 12 नवंबर, 1947 के दिन दीपावली भी थी। एक तरफ खुशी का पर्व था तो दूसरी तरफ समाज के सामने विभाजन का दुख भी।

12 नवंबर की तिथि एक और घटना के लिए महत्वपूर्ण है। देश की पहली रेडियो उद्घोषक स्वतंत्रता सेनानी उषा मेहता को 1942 में इसी दिन ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ रेडियो प्रसारण के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था। देश के इस प्रथम रेडियो की शुरुआत डॉ. राममनोहर लोहिया की प्रेरणा से विट्ठलभाई झवेरी ने की थी। इसका संचालन उषा मेहता करती थीं।

बहरहाल, सन् 1997 में गांधीजी के इस ऐतिहासिक प्रसारण के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में दिल्ली की जन प्रसार नामक संस्था ने इस दिवस को जन प्रसारण दिवस की तरह मनाना प्रारंभ किया। इसके बाद आकाशवाणी ने भी इस दिन के महत्व को स्वीकार किया। तब से प्रतिवर्ष दिल्ली में आकाशवाणी अपने प्रांगण में एक सादगी भरा, किंतु भव्य आयोजन करती है।

इसलिए हमें इस आयोजन का ठीक संदर्भ भी समझ लेना चाहिए। आज 24 घंटे रेडियो चलता है, दूरदर्शन चलता है, टीवी, एफएम चलते हैं और हिंदी व अंग्रेजी के अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में निजी कंपनियों के चैनल भी हैं। इनमें 24 घंटे समाचार, राजनीति, खेल, फिल्म, घटना, दुर्घटना, फूहड़ मनोरंजन, नाच-गाना श्रोताओं एवं दर्शकों को परोसा जाता है और इसमें सबसे प्रधान होता है विज्ञापन यानी बाजार।

उदारीकरण के इस ताजा दूसरे दौर में यह प्रवृत्ति प्रसारण के इन माध्यमों पर और तेजी से पकड़ बढ़ाएगी। यह प्रवृत्ति समाज के दुख को भी एक खबर की तरह परोसती है। उसमें भी यह श्रेय लेती है कि इस खबर को आप तक हम सबसे पहले पहुंचा रहे हैं और बड़ी से बड़ी दुखद घटना के बीच में, पहले और उसके बाद तरह-तरह के विज्ञापन भी दिखाए जाते हैं।

जिनका सब लुट गया हो, उनकी खबरों के बीच ऐयाशी के सामान का विज्ञापन जले पर नमक की तरह छिड़का जाता है। स्वायत्त माने गए प्रसार भारती जैसे संगठन भी बाजार के दबाव के अलावा सत्तारूढ़ शासक दल के दबाव में काम करते हैं और प्राय: समाज के सुख-दुख को सामने रखने के बदले सरकार के गुणगान में व्यस्त रहते हैं।

ऐसी विचित्र स्थिति में यह बताना आवश्यक नहीं है कि गांधीजी से जुड़ा यह पावन प्रसंग, यह लोक प्रसारण दिवस हमें किस ढंग से मनाना होगा, कौन-कौन सी चिंताएं समाज के सामने रखनी होंगी। हम सब इस काम में अपनी शक्ति लगाएं तो हमें पूरा भरोसा है कि लगातार जनविरोधी होते जा रहे प्रसारणों का स्वरूप थोड़ा और बेहतर बन सकेगा।

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चाहते हैं धन-धान्य और ऐश्वर्य की प्राप्ति तो रखें अक्षय नवमी का व्रत

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को अक्षय नवमी रूप में मनाया जाता है, इसे आंवला नवमी भी कहते हैं| इस बार अक्षय नवमी 11 नवम्बर दिन सोमवार को पड़ रही है| इस दिन स्नान, पूजन, तर्पण तथा अन्नदान करने से हर मनोकामना पूरी होती है। कहते हैं कि अक्षय नवमी के दिन किया गया जप, तप, दान इत्यादि व्यक्ति को सभी पापों से मुक्त करता है तथा सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाला होता है| मान्यता है कि सतयुग का आरंभ भी इसी दिन हुआ था| इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करने का विधान है| धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आंवले के वृक्ष में सभी देवताओं का निवास होता है तथा यह फल भगवान विष्णु को भी अति प्रिय है|

अक्षय नवमी का महत्व- 

कार्तिक शुक्ल पक्ष की आंवला नवमी का धार्मिक महत्व बहुत माना गया है| एक बार भगवान विष्णु से पूछा गया कि कलियुग में मनुष्य किस प्रकार से पाप मुक्त हो सकता है। तब भगवान प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जो प्राणी अक्षय नवमी के दिन मुझे एकाग्र होकर ध्यान करेगा, उसे तपस्या का फल मिलेगा। यही नहीं शास्त्रों में ब्रह्म हत्या को घोर पाप बताया गया है। यह पाप करने वाला अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगता है, लेकिन अगर वह अक्षय नवमी के दिन स्वर्ण, भूमि, वस्त्र एवं अन्नदान करे और वह आंवले के वृक्ष के नीचे लोगों को भोजन कराए, तो इस पाप से मुक्त हो सकता है।

आंवला नवमी की तिथि को पवित्र तिथि माना गया है| इस दिन किया गया गौ, स्वर्ण तथा वस्त्र का दान अमोघ फलदायक होता है| इन वस्तुओं का दान देने से ब्राह्मण हत्या, गौ हत्या जैसे महापापों से बचा जा सकता है| चरक संहिता में इसके महत्व को व्यक्त किया गया है| जिसके अनुसार कार्तिक शुक्ल नवमी के दिन ही महर्षि च्यवन को आंवला के सेवन से पुनर्नवा होने का वरदान प्राप्त हुआ था|

अक्षय नवमी की पूजन विधि-

प्रात:काल स्नान कर आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है| पूजा करने के लिए आँवले के वृक्ष की पूर्व दिशा की ओर उन्मुख होकर शोड्षोपचार पूजन करें| दाहिने हाथ में जल, चावल, पुष्प आदि लेकर व्रत का संकल्प करें| 

अद्येत्यादि अमुकगोत्रोमुक (गोत्र का उच्चारण करें) ममाखिलपापक्षयपूर्वकधर्मार्थकाममोक्षसिद्धिद्वारा श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं धात्रीमूले विष्णुपूजनं धात्रीपूजनं च करिष्ये।

ऐसा संकल्प कर आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके ऊँ धात्र्यै नम: मंत्र से आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करके निम्नलिखित मंत्रों से आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें-

पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।

ते पिबन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।

ते पिवन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।

इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से सूत्रवेष्टन करें-

दामोदरनिवासायै धात्र्यै देव्यै नमो नम:।

सूत्रेणानेन बध्नामि धात्रि देवि नमोस्तु ते।।

इसके बाद कर्पूर या घृतपूर्व दीप से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें -


यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।

तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।

आंवले के वृक्ष के नीचे ब्राह्मण- भोजन भी कराना चाहिए और अन्त में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुम्हड़ा (कद्दू) लेकर उसके अंदर रत्न, सुवर्ण, रजत या रुपया आदि रखकर निम्न संकल्प करें-


ममाखिलपापक्षयपूर्वक सुख सौभाग्यादीनामुक्तरोत्तराभिवृद्धये कूष्माण्डदानमहं करिष्ये। 

तदनन्तर विद्वान तथा सदाचारी ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणासहित कुम्हड़ा दे दें और निम्न प्रार्थना करें-

कूष्णाण्डं बहुबीजाढयं ब्रह्णा निर्मितं पुरा।

दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितृणां तारणाय च।।

पितरों के शीतनिवारण के लिए यथाशक्ति कंबल आदि ऊर्णवस्त्र भी सत्पात्र ब्राह्मण को देना चाहिए। अगर घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे में या गमले में आंवले का पौधा लगा कर यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए|

अक्षय नवमी की कथा-

प्राचीन समय की बात है, काशी नगरी में एक वैश्य रहता था| वह बहुत ही धर्म कर्म को मानने वाला धर्मात्मा पुरूष था, किंतु उसके कोई संतान न थी| इस कारण उस वणिक की पत्नी बहुत दुखी रहती थी| एक बार किसी ने उसकी पत्नी को कहा कि यदि वह किसी बच्चे की बलि भैरव बाबा के नाम पर चढा़ए तो उसे अवश्य पुत्र की प्राप्ति होगी| स्त्री ने यह बात अपने पति से कही परंतु वणिक ने ऐसा कार्य करने से मना कर दिया, किंतु उसकी पत्नी के मन में यह बात घर कर गई तथा संतान प्राप्ति की इच्छा के लिए उसने किसी बच्चे की बली दे दी, परंतु इस पाप का परिणाम अच्छा कैसे हो सकता था अत: उस स्त्री के शरीर में कोढ़ उत्पन्न हो गया और मृत बच्चे की आत्मा उसे सताने लगी|


उस स्त्री ने यह बात अपने पति को बताई| हालाँकि पहले तो पति ने उसे खूब दुत्कारा लेकिन फिर उसकी दशा पर उसे दया भी आई| वह अपनी पत्नी को गंगा स्नान एवं पूजन के लिए कहता है, तब उसकी पत्नी गंगा के किनारे जा कर गंगा जी की पूजा करने लगती है| एक दिन माँ गंगा वृद्ध स्त्री का वेश धारण किए उस स्त्री के समक्ष आती है और उस सेठ की पत्नी को कहती है कि यदि वह मथुरा में जाकर कार्तिक नवमी का व्रत एवं पूजन करे तो उसके सभी पाप समाप्त हो जाएंगे| ऎसा सुनकर वणिक की पत्नी मथुरा में जाकर विधि विधान के साथ नवमी का पूजन करती है और भगवान की कृपा से उसके सभी पाप क्षय हो जाते हैं तथा उसका शरीर पहले की भाँति स्वस्थ हो जाता है, उसे संतान रूप में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है|

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रैलियों की इस रेस में जल्द ही कूदने वाली है मायावती

आगामी लोकसभा चुनाव में अहम साबित होने वाले देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में रैलियों की रेस अब और दिलचस्प होने वाली है। रैलियों की इस रेस में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष मायावती भी जल्द कूदने वाली हैं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस की चुनावी रैलियां पहले से शुरू हो चुकी हैं।

उप्र में फिलहाल भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के अलावा सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह के बीच रैलियों की रेस चल रही है। रैलियों में आने वाली भीड़ को लेकर तीनों पार्टियां अपनी पीठ थपथपा रही हैं। अब मायावती भी इसमें शामिल होने जा रही हैं। मायावती की उत्तर प्रदेश में होने वाली रैलियों का कार्यक्रम तय किया जा रहा है।

मायावती तकरीबन तीन माह बाद लखनऊ लौट रही हैं। 10 नवंबर को लखनऊ में पार्टी पदाधिकारियों व जोनल कोआर्डिनेटरों की अहम बैठक बुलाई गई है। बैठक में सूबे के राजनीतिक माहौल को देखते कुछ लोकसभा प्रत्याशियों को बदलने और मायावती की होने वाली रैलियों को लेकर मंथन हो सकता है।

बसपा सूत्रों के अनुसार पार्टी ने लगभग सभी लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी तय कर रखे हैं। मायावती की रैलियों का सिलसिला भी जल्द शुरू होगा। गौरतलब है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर बीते तीन माह से मायावती दिल्ली में ही हैं। पार्टी दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ रही है। पदाधिकारियों व जोनल कोआर्डिनेटरों के साथ होने वाली बैठक के बाद मायावती पार्टी के लोकसभा प्रत्याशियों से भी अलग-अलग मिलेंगी।

सूत्रों के मुताबिक मुजफ्फरनगर दंगे के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदले सियासी समीकरण को देखते हुए भी मायावती कुछ प्रत्याशियों को बदलने का फैसला कर सकती हैं। पदाधिकारियों के साथ बैठक के बाद प्रदेश में रैलियों की तिथि घोषित की जा सकती हैं।

उल्लेखनीय है कि बसपा के पास कुल 21 सांसद हैं, जिसमें 20 उत्तर प्रदेश से हैं। बसपा का सर्वाधिक फोकस सूबे की 80 सीटों पर ही है। पार्टी पिछले वर्ष विधानसभा चुनाव के बाद से ही लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है। मायावती के निर्देश पर पदाधिकारी व कार्यकर्ताओं के चुपचाप बूथ स्तर तक संगठन को मजबूत करने के लिए बूथ समितियों का गठन कर कैडर कैंप चल रहे हैं। मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम भी किया जा रहा है।

बसपा के प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर ने कहा, "10 नवंबर को राजधानी में होने वाली समीक्षा बैठक के दौरान मायावतीजी मौजूद रहेंगी। इस दौरान पार्टी के संगठनात्क कायरें की समीक्षा की जाएगी।"यह पूछे जाने पर कि क्या मायावती की रैलियों को लेकर भी कोई घोषणा हो सकती है, तो उन्होंने कहा, "10 नवंबर तक इंतजार कीजीए, रैलियों को लेकर जो भी कार्यक्रम बनेगा उसकी जानकारी खुद बहन जी देंगी।" 

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नमो के सहारे अवध में वापसी चाहती है भाजपा

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए अवध क्षेत्र हमेशा से महत्वपूर्ण रहा है, लेकिन पिछले कुछ समय से भाजपा को इस इलाके में नुकसान पहुंचा है। अवध क्षेत्र में आने वाली 17 लोकसभा सीटों में से सिर्फ एक सीट ही वर्तमान में भाजपा के पास है। नमो के सहारे भाजपा एक बार फिर इस इलाके में अपनी खोई ताकत हासिल करने में जुटी है।

राष्ट्रीयता, हिन्दुत्व और स्वयं सेवक संघ की जड़ें इस क्षेत्र में हमेशा से गहरी रही हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख, के. के. नायर जैसे लोगों की यह कर्मभूमि रही है। गोंडा में नानाजी का 'जय प्रभा ग्राम' आज भी कई प्रकल्पों के जरिए इस इलाके में सेवा कार्य चलाता है। हाल के कुछ वर्षो में इस क्षेत्र में भाजपा के गौरवशाली इतिहास को काफी नुकसान पहुंचा है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों में इस इलाके में अच्छा प्रदर्शन किया है।

अवध क्षेत्र की 17 लोकसभा सीटों में केवल एक लखनऊ ही भाजपा के पास है। इस इलाके में कुल 85 विधानसभा क्षेत्र आते हैं और भाजपा की कोशिश है कि मोदी की रैली के जरिए एक बार फिर यहां के कार्यकर्ताओं और जनता में पार्टी के प्रति उत्साह का संचार होगा। भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता विजय बहादुर पाठक ने कहा, "अवध क्षेत्र अटल बिहारी वाजपेयी और नानाजी देशमुख जैसे नेताओं की कर्मभूमि रही है। अलग-अलग समय में 17 में से 16 लोकसभा सीटों पर पार्टी विजय भी हासिल कर चुकी है। नरेंद्र मोदी की रैली के बाद पार्टी एक बार फिर वही इतिहास दोहराएगी।"

मोदी के लिए भी बहराइच काफी भाग्यशाली रहा है। इससे पूर्व वर्ष 2001 में उन्होंने यहां कार्यकर्ता सम्मेलन में बतौर राष्ट्रीय महामंत्री हिस्सा लिया था। मोदी का कद तब इतना बड़ा नहीं था। कार्यकर्ता सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद मोदी जब वापस लौटे थे, तभी उन्हें भाजपा ने केशुभाई पटेल की जगह गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था। 

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छठ पूजा: भगवान सूर्य की उपासना का महापर्व

दीपवाली के ठीक छह दिन बाद मनाए जाने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी को सूर्य षष्ठी का व्रत करने का विधान है। छठ पूजा का आयोजन आज बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि देश के हर कोने में किया जाता है दिल्ली, कलकत्ता, मुम्बई चेन्न्ई जैसे महानगरों में भी समुद्र किनारे जन सैलाब दिखाई देता है| इस पर्व की महत्ता इतनी है कि अगर घर का कोई सदस्य बाहर है तो इस दिन घर पहुँचने का पूरा प्रयास करता है। देश के साथ-साथ अब विदेशों में रहने वाले लोग अपने -अपने स्थान पर इस पर्व को धूम-धाम से मनाते हैं।

बिहार का प्रमुख लोकपर्व छठ इस वर्ष 6 नवम्बर दिन बुधवार को व्रतियों के 'नहाय-खाय' के साथ प्रारंभ होगा। छठ के अवसर पर व्रत रखने वाली महिलाएं जहां महापर्व की तैयारियों में जुट गई हैं वहीं, छठ बाजार भी सजने लगे हैं। बाजार में सूप, दउरा, आम की लकड़ी, चूल्हा और फलों की दुकानें सज चुकी हैं।

व्रत रखने वाली महिलाएं इस दिन स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी खाएंगी। इस दिन खाने में सेंधा नमक का ही प्रयोग किया जाता है। दूसरे दिन सोमवार को कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के मौके पर दिनभर व्रत रखने वाली महिलाएं उपवास कर शाम को विधि विधान से रोटी तथा गुड़ से बनी खीर का प्रसाद तैयार करेंगी और फिर सूर्य भगवान का स्मरण कर प्रसाद ग्रहण करेंगी। इस पूजा को 'खरना' कहा जाता है।

क्यों मनाते है छठ पूजा-

छठ पूजा का प्रारंभ आज से नहीं बल्कि महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। यह मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है।

छठ पूजा की विधि-

छठ पर्व तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है।

तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं, इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं| जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं| यही नही, तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।

पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर भी कहते हैं। यह गेहूं के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि।

पहले दिन महिलाएँ नहा धो कर अरवा चावल, लौकी और चने की दाल( जिनमे सेंधा नमक ही डाला जाता है) का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।

छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की खीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में खीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में खीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।

तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं, और सूप में पूजा के सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल, कम से कम पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-

काचि ही बांस कै बहन्गिया, बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया, ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया, जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा, ई भार छठी घाटे जाय


नदी किनारे जाकर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।

सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ्य देते हैं, लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद लेकर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।

छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।

रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली – बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां,
जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां ||

भैया दूज: भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक

दीपावली के साथ ही भाई-बहन के पावन प्रेम की प्रतीक भाई द्वितीया का अपना विशेष महत्व है। भारतीय बहनें इस पर्व पर भाई की मंगल कामना कर अपने को धन्य मानती हैं। भैयादूज हिन्दू समाज में भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का प्रतीक है| यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है| इस बार यह पर्व 5 नवम्बर दिन मंगलवार को मनाया जायेगा| भाई-बहन के पवित्र रिश्तों के प्रतीक के पर्व को हिन्दू समुदाय के सभी वर्ग के लोग हर्ष उल्लास से मनाते हैं| इस पर्व पर जहां बहनें अपने भाई की दीर्घायु व सुख समृद्धि की कामना करती हैं तो वहीं भाई भी सगुन के रूप में अपनी बहन को उपहार स्वरूप कुछ भेंट देने से नहीं चूकते| इस पर्व पर बहनें प्राय: गोबर से मांडना बनाती हैं, उसमें चावल और हल्दी के चित्र बनाती हैं तथा सुपारी फल, पान, रोली, धूप, मिष्ठान आदि रखती हैं, दीप जलाती हैं। इस दिन यम द्वितीया की कथा भी सुनी जाती है|

भैयादूज की प्रथम कथा-

भविष्य पुराण में उल्लेखित यह द्वितीया की कथा सर्वमान्य एवं महत्वपूर्ण है, इसके अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा की दो संतानें थीं। उनमें पुत्र का नाम यमराज और पुत्री का नाम यमुना था। संज्ञा अपने पति सूर्य की उद्दीप्त किरणों को सहन नहीं कर सकने के कारण उत्तरी ध्रुव में छाया बनकर रहने लगी। इसी से ताप्ती नदी तथा शनिश्चर का जन्म हुआ। इसी छाया से सदा युवा रहने वाले अश्विनी कुमारों का भी जन्म हुआ है, जो देवताओं के वैद्य माने जाते हैं। उत्तरी ध्रुव में बसने के बाद संज्ञा (छाया) का यम तथा यमुना के साथ व्यवहार में अंतर आ गया। इससे व्यथित होकर यम ने अपनी नगरी यमपुरी बसाई। यमुना अपने भाई यम को यमपुरी में पापियों को दंड देते देख दु:खी होती, इसलिए वह गोलोक चली गई।

समय व्यतीत होता रहा। तब काफी सालों के बाद अचानक एक दिन यम को अपनी बहन यमुना की याद आई। यम ने अपने दूतों को यमुना का पता लगाने के लिए भेजा, लेकिन वह कहीं नहीं मिली। फिर यम स्वयं गोलोक गए जहां यमुनाजी की उनसे भेंट हुई। इतने दिनों बाद यमुना अपने भाई से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई। यमुना ने भाई का स्वागत किया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। इससे भाई यम ने प्रसन्न होकर बहन से वरदान मांगने के लिए कहा। तब यमुना ने वर मांगा कि- 'हे भैया, मैं चाहती हूं कि जो भी मेरे जल में स्नान करे, वह यमपुरी नहीं जाए।

भैयादूज की द्वितीय कथा-

एक राजा अपने साले के साथ चौपड़ खेला करता था। साला जीत जाता था। राजा ने सोचा कि भाई दूज पर यह बहन से टीका कराने आता है, इसलिए जीत जाता है। अतः राजा ने भाई दूज आने पर साले को आने से रोक दिया। साथ ही कड़ा पहरा लगा दिया कि वह न आ सके। जब भैया दूज पर भाई बहन के पास टीका कराने नहीं पहुंचा तो वह बहन बहुत दुःखी हुई।

तब भाई यमराज की कृपा से कुत्ते का रूप धारण कर राजा के कड़े पहरे के बावजूद बहन के यहां पहुंचा। बहन हाथ में टीका लेकर बैठी थी। कुत्ते को देखकर उसने प्रेम से अपना टीके से सना हाथ उसके माथे पर फेरा। कुत्ता वापस चला गया। लौटकर वह राजा से बोला—मैं भाई दूज का टीका करा आया, आओ अब खेलें। राजा बहुत चकित हुआ। तब साले ने पूरी बात सुनाई। राजा टीके के महत्व को मान गया और अपनी बहन से टीका कराने चला गया।

यह सुनकर यम चिंतित हो उठे और मन-ही-मन विचार करने लगे कि ऐसे वरदान से तो यमपुरी का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। भाई को चिंतित देख, बहन बोली- भैया आप चिंता न करें, मुझे यह वरदान दें कि जो लोग आज के दिन बहन के यहां भोजन करें तथा मथुरा नगरी स्थित विश्रामघाट पर स्नान करें, वे यमपुरी नहीं जाएं। यमराज ने इसे स्वीकार कर वरदान दे दिया। बहन-भाई मिलन के इस पर्व को अब भाई-दूज के रूप में मनाया जाता है।

भैयादूज में दान का महत्व -

भारतीय संस्कृति में प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान के साथ दान का विशेष महत्व है| दान में केवल मानव ही नही पशु पक्षी भी समिमलित होतें हैं, भाई दूज के दिन किसी निर्धन या विद्वान ब्रह्मण को भोजन करना चाहिए, साथ ही गाय,कुत्ता व पक्षियों को भी यथायोग्य भोजन दिया जाये| परिवार के सभी लोग सूर्य को जल दें, जो बहनें व्रत रखती हैं, वह दोपहर बाद भोजन कर सकती हैं, लेकिन जब तक भाई की आरती कर लें| भाई को चाहिए जी वो सामर्थ्य के अनुसार अपनी बहन को उपहार अवश्य दे और यदि बहन किसी संकट में है तो उसे दूर करने का प्रयास करे|

विनीत वर्मा की रिपोर्ट-

भैया दूज के दिन 'गोधन' कूटने की अनोखी परम्परा

हमारे देश में संस्कृति और परम्परा विविधताओं से भरी है। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को मनाए जाने वाले 'भैया दूज' को आमतौर पर 'गोधन' के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन उत्तर भारत के कई राज्यों में बहनें अपने भाइयों को 'शाप' देने की अनोखी परम्परा निभाती हैं। मान्यता है कि इस 'शाप' से भाइयों को मृत्यु का डर नहीं होता।

बिहार और झारखण्ड में गोधन के मौके पर बहनें भाइयों को खूब कोसती हैं और उन्हें गालियां भी देती हैं। यहां तक कि भाइयों को मर जाने का शाप भी देती हैं। इस दौरान विशेष पौधे 'रेंगनी' के कांटें को भी ये बहनें अपनी जीभ में चुभाती रहती हैं। इसे 'शापना' कहा जाता है। ऐसा बहनें सोकर उठने के तुरंत बाद करती हैं।

गोधन पूजा करने वाली महिलाएं सभी उम्र की होती हैं। हर साल गोधन पूजा करने वाली एक महिला ने बताया कि इस दिन मुहल्ले में एक घर के बाहर महिलाए सामूहिक रूप से गोबर से चौकोर आकृति बनाती हैं, जिसमें यम और यमी की गोबर से ही प्रतिमा बनाई जाती है। इसके अतिरिक्त सांप, बिच्छु आदि की आकृति भी बनाई जाती है। महिलाएं पहले इसकी पूजा करती हैं और फिर इन्हें डंडे से कूटा जाता है।

उन्होंने बताया कि आकृति के भीतर चना, ईंट, नारियल, सुपारी और वह कांटा भी रख दिया जाता है, जिसे बहनें अपनी जीभ में चुभाकर भाइयों को कोसती हैं। इस दौरान महिलाएं गीत और भजन भी गाती हैं। इनहें कूट लेने के बाद उसमें डाले गए चने को निकाल लिया जाता है और फिर सभी बहनें अपने-अपने भाइयों को तिलक लगाकर इसे खिलाती हैं। इस दौरान भाई अपनी बहनों को उपहार भी देते हैं।

महिलाओं का कहना है कि यह परम्परा काफी प्राचीन है, जिसे वे भी पूरी आस्था से मनाती हैं। बिहार के औरंगाबाद जिले के पंडित महादेव मिश्र कहते हैं कि इस परम्परा के पीछे मान्यता है कि द्वितीया के दिन भाइयों को गालियां और शाप देने से उन्हें यम (यमराज) का भी भय नहीं होता। गोधन को यम द्वितीया भी कहा जाता है।

उन्होंने बाताया, प्राचीन काल में एक राजा के बेटे की शादी थी। राजा ने अपनी विवाहित पुत्री को भी बुलाया था। दोनों भाई-बहनों में अपार स्नेह था। बहन जब भाई की बारात में शामिल होने जा रही थी तो उसने लोगों को यह कहते हुए सुना कि चूंकि राजा की बेटी ने अपने बेटे को कभी गाली नहीं दी, इसलिए वह बारात के दौरान ही मर जाएगा।

इसके बाद बारात निकलने के रास्ते में बहन ने अपने भाई को खूब गालियां दी और रास्ते में जो भी सांप-बिच्छू दिखाई दिए, उन्हें मारती और आंचल में डालती चली गई। जब वह घर लौटी तो उसके भाई के प्राण लेने के लिए यमराज उनके घर आए हुए थे, लेकिन यमराज ने जब भाई-बहन का प्रेम देखा तो वे राजा के बेटे का प्राण लिए बगर ही यमपुरी लौट गए।

उन्होंने कहा कि यम द्वितीया के दिन जो भी बहन अपने भाई को शाप और गाली देगी, उस भाई को मृत्यु का भय नहीं रहता। तभी से बहनें गोधन पूजा के रूप में यह परम्परा मनाती आ रही हैं। इस दिन सभी घरों में मीठा पकवान बनता है और पूरा परिवार मीठा भोजन ही करता है। 

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बुंदेलखंड में जमघट से शुरू होती है गोवर्धन पूजा

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में हर तीज-त्योहार मनाने के कुछ अलग ही रिवाज हैं। प्रकाश पर्व दीपावली के दूसरे दिन जमघट से दो अलग-अलग मान्यताओं के साथ गोवर्धन पूजा की शुरुआत होती है, अपने को भगवान श्रीकृष्ण का वंशज बताने वाले ग्वालवंशी 'गोवर्धन पर्वत' और किसान वर्ग 'गोबर धन' के रूप में एक पखवाड़े तक पशुओं के गोबर से बने टीले की पूजा करते हैं।

वैसे, उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखंड में हर तीज-त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं, लेकिन रीति-रिवाज और मान्यताएं कुछ अलग हैं। अब आप प्रकाश पर्व दीपावली के दूसरे दिन जमघट से एक पखवाड़ा तक चलने वाली गोवर्धन पूजा को ही ले लीजिए। इस पूजा में भी दो अलग-अलग मान्यताएं जुड़ी हुई हैं।

अपने को भगवान श्रीकृष्ण का वंशज बताने वाले ग्वालवंशी (यादव) पशुओं के गोबर से बने टीले को गोवर्धन पर्वत और किसान वर्ग इस टीले की पूजा गोबर-धन के रूप में करते हैं। गांव-देहातों में इसे गोधन दाई के नाम से पुकारते हैं।

बुंदेलखंड में गोवर्धन पूजा को लेकर दो अलग-अलग मान्यताएं हैं, पहली मान्यता के बारे में बांदा जिले के पनगरा में रहने वाले ग्वालवंशी लाला यादव का कहना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने जमघट के दिन अपनी उंगली में गोवर्धन पर्वत उठा कर गोकुलवासियों की रक्षा की थी, तभी से पशुओं के गोबर का पर्वत (गोधन दाई) बनाकर इसकी एक पखवाड़ा तक पूजा की जाने लगी है।

दूसरी मान्यता के बारे में गड़ाव गांव के बुजुर्ग किसान काशी प्रसाद तिवारी का कहना है कि पशुओं का गोबर किसान का सबसे बड़ा धन है, इसलिए किसान गोबर-धन की पूजा करता है। सबसे खास बात यह है कि गोवर्धन पर्वत में इस्तेमाल किए गए गोबर को एक पखवाड़ा बाद हर किसान अपने खेत में फेंककर अच्छी फसल की मन्नत मांगते हैं। इस दौरान किसान अपने पशुओं का गोबर पड़ोसियों को मुफ्त में नहीं देते।