इस रहस्‍यमयी किले में गायब हो गई थी पूरी की पूरी बारात!


भूत प्रेत के किसी तो आपने बहुत सुने होगे लेकिन एक ऐसा किस्सा शायद ही कहीं सुना होगा| हम बात कर रहे हैं चंदौली के हेतमपुर गाँव की| यहाँ का एक किला जो कभी तहखानों के लिए मशहूर था लेकिन आज लोगों के लिए दहशत का सबब है| रात का अँधेरा तो दूर दिन के उजाले में भी फटकना चाहता है| लोगों का कहना है कि जाने कि दीवार पर कोई साया हो, जो मौत का सबब बन जाए।
हेतमपुर गांव में लगभग पांच सौ वर्ष पुराना बादशाह हेतम खान का रहस्यमयी किला आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है। हेतम खान के इस किले को अब लोगों ने नया नाम दे दिया है वह भुलैनी कोट| यहाँ के लोग अब इस किले को भुलैनी कोट के नाम से पुकारते हैं| गांव के जलील अंसारी का बताते हैं कि सैकड़ो वर्ष पूर्व इस किले के बाहर से एक बारात गुजर रही थी। कुछ लोग किले से मोहित होकर भीतर चले गए और कहाँ लापता हो गए ये आज तक न पता चल पाया। गांव में शोर हो गया कि हेतम खान के रहस्यमयी किले में कुछ लोग गायब हो गए। तभी से ग्रामीणों ने ईंट पत्थर से इसके सुरंग वाले रास्तो को बंद कर दिया हैं।
जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित हेतमपुर गांव में बादशाह हेतम खां का लगभग पांच सौ वर्ष पुराना रहस्यमयी किला आज जीर्ण-शीर्ण हालत में है। यहाँ का आलम यह है की लोग इधर से गुजरने से भी डरते हैं| इस गाँव के एक बुजुर्ग नंदू राय का कहना है कि अफवाहों की वजह से ये किला रहस्यमयी बना है, लेकिन इस किले के भीतर उन्होंने बचपन के दिनों में एक बंद पड़ा कमरा देखा था। उस कमरे में काफी बड़ा ताला लगा हुआ है और आज भी उसी कमरे में बादशाह की अकूत संपत्ति बंद पड़ी है।
पहले लोग इधर आने से डरते थे लेकिन जब पुरातत्व विभाग ने इसे अपने कब्जे में लेकर इसकी मरम्मत करवाई तो दिन के उजाले में इसे देखने के लिए लोग आ जाते हैं लेकिन शाम होते ही किसी की यह मजाल नहीं की यहाँ फटक जाए| इस किले के बारे में यहाँ के जानकार दीपक सिंह बताते हैं कि यह इलाका पहले महाईच परगना के अंतर्गत आता था जो गाजीपुर जिले में पड़ता था। तत्कालीन मुख्यमंत्री कमला पति त्रिपाठी ने गंगा नदी के कारण आवागमन में हो रही दिक्कतों के वजह से इसे वाराणसी जिले से जोड़ दिया तो जिला के विभाजन के बाद यह किला चंदौली के अंतर्गत हो गया।
मुख्य रूप से हेतमपुर के किले को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं-
1 भुलैनी कोट:- किले की पूर्वी दीवार में उत्तर दिशा की तरफ चार मन्जिल वाली विशाल इमारत है। इस इमारत में पूरब दिशा में खुला तीस फुट उँचा किले का मुख्य दरवाजा है। इमारत के बाहर (पूरब) इमारत से देखने पर हेतम खाँ की सुरक्षा व्यवस्था की मजबूती को आंका जा सकता है। चारों मन्जिलों से सामने पूरब की तरफ दुष्मनों का सामना करने के लिए 34 छोटे-बड़े मोरचे के कंगूरों का निर्माण है। सम्भवतः इन कंगूरों से बन्दूकधारी, तोपची व तीरंदाज किसी प्रकार के हमलों का सामना करने के लिए मोरचा बनाते रहे होंगे। किले के अन्दर घुसने पर दोनों तरफ बड़े-बड़े बरामदे हैं। इन बरामदों की छत नीची है। इन बरामदों में घोड़े व हाथी बाधे जाते थे क्योंकि इनमें बड़े-छोटे कई हौद हैं। स्थानीय नागरिक संजय यादव बताते हैं कि बुजुर्ग कहा करते थें कि दरवाजे के बायें तरफ की गिरी छत के कारण वह मुख्य सुरंग भी बन्द हो गया जिससे भूमिगत मार्ग से चुनार, जमानियाँ, धानापुर एवं कमालपुर तक पहुँचा जा सकता था। सुरंग मोटी दीवाल में बनी आलमारी के पार्ष्व में इस प्रकार स्थित थी कि आम आदमी कुछ समझ न पाये, अगर वह सुरंग में चला भी जाए तो भ्रामक रास्तों में उलझ कर भटक जाए। किले के विषाल परिसर में बाहरी दीवार में जमीन से सटा एक बड़ा ताखा दिखाई देता है। इसी ताखे में झुककर प्रवेष करने पर दीवार के ही उत्तर में उपर की ओर बढ़ती हुई एक सीढ़ी मिलती है। इसी सीढ़ी से भूलैनी कोट की उपरी मंजिल पर जाया जाता है तथा बीच में दाहिनी तरफ या बायें बने ताखों व आलमारीयों से रास्ते बदल-बदल ही उपर पहुँचा जाता है। इसी भुल-भुलैया के कारण इस इमारत को भुलैनी कोट के नाम से जाना जाता है।
बिचली कोट:- किले के दक्षिण-मध्य में स्थित यह इमारत (कोट) पूरे किले की मुख्य इमारत है। इमारत का मुख उत्तर दिशा की तरफ है। भुलैनी कोट (इमारत) से किले के मैदान में प्रवेश करने पर दक्षिण दिशा में सामने की तरफ बिचली कोट दिखायी देती है। तीन मंजिले इस इमारत में वास्तुकला का उत्कर्ष देखा जा सकता है। इमारत के निर्माण में ईंट का उपयोग आंशिक रूप से हुआ है। यह इमारत पूरे किले से पाँच फिट उँची है अपर गढ़िया पर बनी है। छः अठपहले पटादार व नक्काशीदार खम्भों पर टिके विशाल बरामदे के तीनों तरफ बड़े-बड़े कमरे हैं। कमरे के द्वार बरामदे में खुले हैं।
भीतरी कोट:- यह कोट बिचली कोट के ठीक नीचे जमीन के अन्दर है। इसमें जाने के लिए सभी रास्ते बन्द हो चुके हैं फिर भी इसके अन्दर टहल चुके कुछ स्थानीय नागरिकों ने बताया कि बिचली कोट (इमारत) की भाति भीतरी कोट (इमारत) में भी भवन है। स्थानीय राजेश ने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी केदारनाथ उपाध्याय से सुना था कि वे मशाल के सहारे कोट (इमारत) के अन्दर अपने मित्रों के साथ घूसे थे तथा कोट (इमारत) के अन्दर तीन मंजिल व एक इमारत है इनके पूर्वी छोर के कमरों में लगभग 25-25 किलो0 के ताले लगे थें इनका अनुमान था कि इन कमरों में भारी मात्रा में धन-दौलत व हथियार होंगे। भीतरी कोट (इमारत) से किले के चारों दिशाओं में सुरंग बाहर की तरफ निकले हैं।
उत्तरी कोट:- यह दो मंजिला कोट (इमारत) किले के उत्तर की तरफ स्थित है। इसकी बनावट भुलैनी कोट (इमारत) से कुछ छोटा है। इस कोट (इमारत) में छोटा दरवाजा उत्तर की तरफ था। दरवाजे के सामने लगभग 2.5 एकड़ में स्थित गहरा तालाब है।
दक्षिणी कोट:- यह कोट (इमारत) किले के दक्षिण-पष्चिम कोने में है। इसी कोट में हेतम खाँ ने मथारूद्र (ब्राह्मण) व एक मुसलमान धोबी को चुनवा दिया था। इस दो मंजिल इमारत के मध्य कुआँ था जिससे पूरे किले में पानी की आपूर्ति होती थी। इसी कोट में उत्तरी कक्ष से एक चौड़ा रास्ता किले की चहारदीवारी पर जाता था इसी मार्ग से सैनिक आपने घोड़ों व तोपों के साथ किले की चहारदीवारी पर चढ़ते थे।

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अखंड सुहाग व पारस्परिक प्रेम का प्रतीक करवा चौथ

करवा चौथ भारत में मुख्यतः उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और गुजरात में मनाया जाता है। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाने वाला यह व्रत इस बार 2 नवम्बर दिन शुक्रवार को मनाया जायेगा| करवा चौथ का पर्व सुहागिन स्त्रियाँ मनाती हैं| पति की दीर्घायु और अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन चन्द्रमा की पूजा की जाती है| चंद्रमा के साथ- साथ भगवान शिव, पार्वती जी, श्रीगणेश और कार्तिकेय की पूजा की जाती है| करवाचौथ के दिन उपवास रखकर रात्रि समय चन्द्रमा को अर्ध्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है|

करवा चौथ की व्रत विधि- 

कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करक चतुर्थी व्रत स्त्रियां अखंड़ सौभाग्य की कामना के लिए करती हैं| इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है| इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागिन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं| पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवाचौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताज़गी एवं मिठास लाता है| करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है| सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दि जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है|

करवा चौथ व्रत की प्रक्रिया-

करवा चौथ में प्रयुक्त होने वाली संपूर्ण सामग्री को एकत्रित करें| व्रत के दिन प्रातः स्नानादि करने के पश्चात यह संकल्प बोलकर करवा चौथ व्रत का आरंभ करें- 'मम सुखसौभाग्य पुत्रपौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये करक चतुर्थी व्रतमहं करिष्ये। करवा चौथ का व्रत पूरे दिन बिना कुछ खाए पिए रहा जाता है| दीवार पर गेरू से फलक बनाकर पिसे चावलों के घोल से करवा चित्रित करें। इसे वर कहते हैं। चित्रित करने की कला को करवा धरना कहा जाता है। उसके बाद आठ पूरियों की अठावरी, हलुआ और पक्के पकवान बनाएं। उसके बाद पीली मिट्टी से गौरी बनाएं और उनकी गोद में गणेशजी बनाकर बिठाएं। ध्यान रहे गौरी को लकड़ी के आसन पर बिठाएं। चौक बनाकर आसन को उस पर रखें। गौरी को चुनरी ओढ़ाएं। बिंदी आदि सुहाग सामग्री से गौरी का श्रृंगार करें। उसके बाद जल से भरा हुआ लोटा रखें। वायना (भेंट) देने के लिए मिट्टी का टोंटीदार करवा लें। करवा में गेहूं और ढक्कन में शक्कर का बूरा भर दें। उसके ऊपर दक्षिणा रखें। रोली से करवा पर स्वस्तिक बनाएं। गौरी-गणेश और चित्रित करवा की परंपरानुसार पूजा करें। पति की दीर्घायु की कामना करें।

'नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संतति शुभाम्‌। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे॥' करवा पर 13 बिंदी रखें और गेहूं या चावल के 13 दाने हाथ में लेकर करवा चौथ की कथा कहें या सुनें। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ घुमाकर अपनी सासूजी के पैर छूकर आशीर्वाद लें और करवा उन्हें दे दें। तेरह दाने गेहूं के और पानी का लोटा या टोंटीदार करवा अलग रख लें। रात्रि में चन्द्रमा निकलने के बाद छलनी की ओट से उसे देखें और चन्द्रमा को अर्घ्य दें।इसके बाद पति से आशीर्वाद लें। उन्हें भोजन कराएं और स्वयं भी भोजन कर लें। पूजन के पश्चात आस-पड़ोस की महिलाओं को करवा चौथ की बधाई देकर पर्व को संपन्न करें।

नई ब्याहतायें न रखें व्रत-

जिन युवतियों की इस वर्ष शादी हुई है वे इस बार करवा चौथ का व्रत न रखें| पंडितों व ज्योतिषियों का मानना है कि इस वर्ष मलमास पड़ने से शुक्र के अस्त होने से नई ब्याहतायें दो नवम्बर को करवा चौथ का न तो व्रत रख सकती हैं और न ही चंद्रमा को अर्ध्य दे सकती हैं| ज्योतिषाचार्य विजय कुमार ने कहा है कि जिन युवतियों की इस बार शादी हुई है वे शादी के तीसरे वर्ष व्रत रख सकेंगी| 

करवा चौथ की कथा- 

इस पर्व को लेकर कई कथाएं प्रचलित है, जिनमें एक बहन और सात बहनों की कथा बहुत प्रसिद्ध है| बहुत समय पहले की बात है, एक लडकी थी, उसके साथ भाई थें, उसकी शादी एक राजा से हो गई| शादी के बाद पहले करवा चौथ पर वो अपने मायके आ गई| उसने करवा चौथ का व्रत रखा, लेकिन पहला करवा चौथ होने की वजह से वो भूख और प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी| वह बडी बेसब्री से चांद निकलने की प्रतिक्षा कर रही थी| 

उसके सातों भाई उसकी यह हालत देख कर परेशान हो गयें, वे सभी अपने बहन से बेहद स्नेह करते थें| उन्होने अपनी बहन का व्रत समाप्त कराने की योजना बनाई| और पीपल के पत्तों के पीछे से आईने में नकली चांद की छाया दिखा दी| बहन ने इसे असली चांद समझ लिया और अपना व्रत समाप्त कर, भोजन खा लिया| बहन के व्रत समाप्त करते ही उसके पति की तबियत खराब होने लगी| 

अपने पति की तबियत खराब होने की खबर सुन कर, वह अपने पति के पास ससुराल गई और रास्ते में उसे भगवान शंकर पार्वती देवी के साथ मिलें| पार्वती देवी ने रानी को बताया कि उसके पति की मृ्त्यु हो चुकी है, क्योकि तुमने नकली चांद को देखकर व्रत समाप्त कर लिया था|

यह सुनकर बहन ने अपनी भाईयों की करनी के लिये क्षमा मांगी| माता पार्वती ने कहा" कि तुम्हारा पति फिर से जीवित हो जायेगा, लेकिन इसके लिये तुम्हें, करवा चौथ का व्रत पूरे विधि-विधान से करना होगा| इसके बाद माता पार्वती ने करवा चौथ के व्रत की पूरी विधि बताई| माता के कहे अनुसार बहन ने फिर से व्रत किया और अपने पति को वापस प्राप्त कर लिया|

धर्म ग्रंथों में एक महाभारत से संबंधित अन्य पौराणिक कथा का भी उल्लेख किया गया है| इसके अनुसार पांडव पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी पर्वत पर चले जाते हैं व दूसरी ओर पांडवों पर कई प्रकार के संकटों से आन पड़ते हैं| यह सब देख द्रौपदी चिंता में पड़ जाती है वह भगवान श्री श्रीकृष्ण से इन सभी समस्याओं से मुक्त होने का उपाय पूछती हैं| श्रीकृष्ण द्रौपदी से कहते हैं कि यदि वह कार्तिक कृष्ण चतुर्थी के दिन करवा चौथ का व्रत रहे तो उसे इन सभी संकटों से मुक्ति मिल सकती है| भगवान कृष्ण के कथन अनुसार द्रौपदी विधि विधान सहित करवा चौथ का व्रत रखती हैं जिससे उनके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं|

सत्य, धर्म और शक्ति का प्रतीक है दशहरा

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है वह है मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है| आपको बता दें कि दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुई है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और माँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती है| इस वर्ष विजयादशमी (दशहरा) पर्व 24 अक्तूबर को मनाया जायेगा| 

विजयदशमी के दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है| प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे|इस दिन जगह- जगह मेले लगते हैं और रामलीला का आयोजन होता है इसके अलावा रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है| दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है| भारत कृषि प्रधान देश है| जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती| इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है| पूरे भारतवर्ष में यह पर्व विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न प्रकार से मनाया जाता है| महाराष्ट्र में इस अवसर पर सिलंगण के नाम से सामाजिक महोत्सव मनाया जाता है| इसमें शाम के समय सभी गांव वाले सुंदर-सुंदर नये वस्त्रों से सुसज्जित होकर गांव की सीमा पार कर शमी वृक्ष के स्वर्ण रूपी पत्तों को लूटकर अपने ग्राम में वापस आते हैं| फिर उस स्वर्ण रूपी पत्तों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है| इसके अलावा मैसूर का दशहरा देशभर में विख्‍यात है। मैसूर का दशहरा पर्व ऐतिहासिक, धार्मिक संस्कृति और आनंद का अद्भुत सामंजस्य रहा है| यहां विजयादशमी के अवसर पर शहर की रौनक देखते ही बनती है शहर को फूलों, दीपों एवं बल्बों से सुसज्जित किया जाता है सारा शहर रौशनी में नहाया होता है जिसकी शोभा देखने लायक होती है|

मैसूर दशहरा का आरंभ मैसूर में पहाड़ियों पर विराजने वाली देवी चामुंडेश्वरी के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना के साथ शुरू होता हे विजयादशमी के त्यौहार में चामुंडी पहाड़ियों को सजाया जाता है| पारंपरिक उत्साह एवं धूमधाम के साथ दस दिनों तक मनाया जाने वाला यह उत्सव देवी दुर्गा चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक होती है, यानी यह बुराई पर अ���्छाई की जीत का पर्व है| मैसूर के दशहरे का इतिहास मैसूर नगर के इतिहास से जुड़ा है जो मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है| इस पर्वो को वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार ने दशहरे का नाम दिया| वर्तमान में इस उत्सव की लोकप्रियता देखकर कर्नाटक सरकार ने इसे राज्योत्सव का सम्मान प्रदान किया है| यहाँ इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित किया जाता है और हाथियों का श्रृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। 

इस समय प्रसिद्ध मैसूर महल को दीपमालिकाओं से दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके साथ शहर में लोग टार्च लाइट के संग नृत्य और संगीत की शोभा यात्रा का आनंद लेते हैं। द्रविड़ प्रदेशों में रावण-दहन का आयोजन नहीं किया जाता है।

बात करते हैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के दशहरा की| हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा सबसे अलग पहचान रखता है। यहां का दशहरा एक दिन का नहीं बल्कि सात दिन का त्यौहार है। जब देश में लोग दशहरा मना चुके होते हैं तब कुल्लू का दशहरा शुरू होता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं। इसकी एक और खासियत यह है कि जहां सब जगह रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण का पुतला जलाया जाता है, कुल्लू में काम, क्रोध, मोह, लोभ और अहंकार के नाश के प्रतीक के तौर पर पांच जानवरों की बलि दी जाती है। कुल्लू के दशहरे का सीधा संबंध रामायण से नहीं जुड़ा है। बल्कि कहा जाता है कि इसकी कहानी एक राजा से जुड़ी है। यहां के दशहरे को लेकर एक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक साधु कि सलाह पर राजा जगत सिंह ने कुल्लू में भगवान रघुनाथ जी की प्रतिमा की स्थापना की उन्होंने अयोध्या से एक मूर्ति लाकर कुल्लू में रघुनाथ जी की स्थापना करवाई थी| कहते हैं कि राजा जगत सिंह किसी रोग से पीड़ित था अत: साधु ने उसे इस रोग से मुक्ति पाने के लिए रघुनाथ जी की स्थापना की तथा उस अयोध्या से लाई गई मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगा और उसने अपना संपूर्ण जीवन एवं राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया|

एक अन्य किंवदंती अनुसार जब राजा जगतसिंह, को पता चलता है कि मणिकर्ण के एक गाँव में एक ब्राह्मण के पास बहुत कीमती रत्न है तो राजा के मन में उस रत्न को पाने की इच्छा उत्पन्न होती है और व अपने सैनिकों को उस ब्राह्मण से वह रत्न लाने का आदेश देता है| सैनिक उस ब्राह्मण को अनेक प्रकार से सताते हैं अत: यातनाओं से मुक्ति पाने के लिए वह ब्राह्मण परिवार समेत आत्महत्या कर लेता है|

परंतु मरने से पहले वह राजा को श्राप देकर जाता है और इस श्राप के फलस्वरूप कुछ दिन बाद राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है| तब एक संत राजा को श्रापमुक्त होने के लिए रघुनाथजी की मूर्ति लगवाने को कहता है और रघुनाथ जी कि इस मूर्ति के कारण राजा धीरे-धीरे ठीक होने लगता है| राजा ने स्वयं को भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया तभी से यहाँ दशहरा पूरी धूमधाम से मनाया जाने लगा|

कुल्लू के दशहरे में अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं. सौ से ज़्यादा देवी-देवताओं को रंगबिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है| इस उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती है राजघराने के सब सदस्य देवी का आशीर्वाद लेने आते हैं| रथ यात्रा का आयोजन होता है| रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा तथा सीता व हिडिंबा जी की प्रतिमाओं को रखा जाता है, रथ को एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है जहाँ यह रथ छह दिन तक ठहरता है| उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं, रघुनाथ जी के इस पड़ाव सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है सातवे दिन रथ को बियास नदी के किनारे ले जाया जाता है जहाँ लंकादहन का आयोजन होता है तथा कुछ जानवरों की बलि दी जाती है|

यहाँ नहीं जलाया जाता है रावण का पुतला -

दशहरे के अवसर पर देशभर में रावण का पुतला जलाया जाता है, लेकिन हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के प्राचीन धार्मिक कस्बा बैजनाथ में दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि ऐसा करना दुर्भाग्य और भगवान शिव के कोप को आमंत्रित करना है। यहाँ लोगों का मानना है कि इस स्थान पर रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षो तपस्या की थी। इसलिए यहां उसका पुतला जलाकर उत्सव मनाने का अर्थ है शिव का कोपभंजन बनना।

13वीं शताब्दी में निर्मित बैजनाथ मंदिर के एक पुजारी ने कहा कि भगवान शिव के प्रति रावण की भक्ति से यहां के लोग इतने अभिभूत हैं कि वे रावण का पुतला जलाना नहीं चाहते।

पृथ्वी हरण....

बैकुंठ में श्रीमहाविष्णु का निवास है। उनके भवन में कोई अनाधिकार प्रवेश न करे, इसलिए जय और विजय नामक दो द्वारपाल हमेशा पहरा देते रहते हैं। एक बार सनक महामुनि के साथ कुछ अन्य मुनि श्रीमहाविष्णु के दर्शन करने उनके निवास पर पहुंचे। जय और विजय ने उन्हें महल के भीतर प्रवेश करने से रोका। इस पर मुनियों ने कुपित होकर द्वारपालों को श्राप दिया, "तुम दोनों इसी समय राक्षस बन जाओगे, लेकिन महाविष्णु के हाथों तीन बार मृत्यु को प्राप्त करने के बाद तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति होगी।" 

शाम का समय था। महर्षि कश्यप संध्या वंदन अनुष्ठान में निमग्न थे। उस समय महर्षि की पत्नी दिति वासना से प्रेरित हो स्वयं को सब प्रकार से अलंकृत कर अपने पति के समीप पहुंची। कश्यप महर्षि ने दिति को बहुविध समझाया, "देवी, मैं प्रभु की प्रार्थना और संध्या वंदन कार्य में प्रवृत्त हूं, इसलिए काम वासना की पूर्ति करने का यह समय नहीं है।" लेकिन दिति ने हठ किया कि उसकी इच्छा की पूर्ति इसी समय हो जानी चाहिए। 

अंत में विवश होकर कश्यप को दिति की इच्छी पूरी करनी पड़ी। दिति गर्भवती हुई। मुनि पत्नी दिति ने दो पुत्रों को जन्म दिया। जय ने हिरण्यक्ष के रूप में और विजय ने हिरण्य कशिपु के रूप में जन्म लिया। इन दोनों के जन्म से प्रजा त्रस्त हो गई। दोनों राक्षस भाइयों ने समस्त लोक को कंपित कर दिया। उनके अत्याचारों की कोई सीमा न रही। समस्त प्रकार के अनर्थो के वे कारणभूत बने।

कालांतर में हिरण्यक्ष व देवताअें के बीच भीषण युद्ध हुआ। युद्ध जब चरम सीमा पर पहुंचा तब हिरण्यक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लेकर समुद्र तल में पहुंचा। भूमि के अभाव में सर्वत्र केवल जल ही शेष रह गया। इस पर देवताओं ने श्री महाविष्णु के दर्शन करके प्रार्थना की कि वे पृथ्वी को यथास्थान रखें। उस वक्त ब्रह्मा के पुत्र स्वायंभुव मनु अपने पिता की सेवा कर रहे थे। अपने पुत्र की सेवाओं से खुश होकर ब्रह्मा ने मनु को सलाह दी, " हे पुत्र! तुम जगदंबा देवी की प्रार्थना करो। उनके आशीर्वाद प्राप्त करो। तुम अवश्य एक दिन प्रजापति बन जाओगे।"

स्वायंभुव ने ब्रह्मा के सुझाव पर जगदम्बा देवी को खुश करने के लिए कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या पर प्रसन्न होकर जगदम्बा प्रत्यक्ष हुई और कहा, "पुत्र! मैं तुम्हारी श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा और तपस्या पर प्रसन्न हूं। तुम अपना वांछित वर मांगो। मैं अवश्य तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति करूंगी।"

स्वायंभुव ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक जगदम्बा से निवेदन किया, "माते! मुझे ऐसा वर दीजिए जिससे मैं बिना किसी प्रकार के प्रतिबंध के सृष्टि की रचना कर सकूं।" जगदम्बा ने स्वायंभुव मनु पर अनुग्रह करके वर प्रदान किया।

स्वायंभुव अपने मनोरथ की सिद्धि पर प्रसन्न हो ब्रह्मा के पास लौट आए और बोले, "पिताजी! मुझे जगदम्बा का अनुग्रह प्राप्त हो गया है। आप मुझे आशीर्वाद देकर ऐसा स्थान बताइए जहां पर मैं सृष्टि-रचना कर सकूं।"

ब्रह्मदेव दुविधा में पड़ गए क्योंकि हिरण्यक्ष पृथ्वी को ढेले के रूप में लपेटकर अपने साथ जल में ले जाकर छिप गया था। ऐसी हालत में सृष्टि की रचना के लिए कहां पर वे उचित स्थान बता सकते थे। सोच-विचार कर वे इस निर्णय पर पहुंचे कि आदि महाविष्णु ही इस समस्या का समाधान कर सकते हैं। 

फिर क्या था, ब्रह्मदेव ने श्री महाविष्णु का ध्यान किया। ध्यान के समय ब्रह्मा ने दीर्घ निश्वास लिया, तब उनकी नासिका से निश्वास के भीतर से एक सूकर निकल आया। वह वायु में स्थित हो क्रमश: अपने शरीर का विस्तार करने लगा। देखते-देखते वह एक विशाल पर्वत के समान परिवर्तित हो गया। सूकर के उस बृहदाकार को देखकर खुद ब्रह्मा विस्मय में पड़ गए।

सूकर ने विशाल रूप धारण करने के बाद हाथी की तरह भयंकर रूप में चिंघाड़ा। उसकी ध्वनि समस्त लोगों में व्याप्त हो गई। मर्त्यलोक और सत्यलोक के निवासी समझ गए कि यह श्रीमहाविष्णु की माया है। सबने आदि महाविष्णु की लीलाओं का स्मरण किया। उसके बाद सूकर रूप को प्राप्त आदि विष्णु चतुर्दिक प्रसन्न दृष्टि प्रसारित कर पुन: भयंकर गर्जन कर जल में कूद पड़े। उस आघात को जल देवता वरुण देव सहन नहीं कर पाए। उन्होंने महाविष्णु से प्रार्थना की, "आदि देव, मेरी रक्षा कीजिए।" ये वचन कहकर वरुणदेव उनकी शरण में आ गए।

सूकर रूपधारी विष्णु जल के भीतर पहुंचे। पृथ्वी को अपने लम्बे दांतों से कसकर पकड़ लिया और उसे जल के ऊपर ले आए। महाविष्णु को पृथ्वी को उठा ले जाते देखकर हिरण्यक्ष ने उनका सामना किया। महाविष्णु ने क्रुद्ध होकर हिरण्यक्ष का वध किया। तब जल पर तैरते हुए पृथ्वी को जल के ऊपर अवस्थित किया फिर पृथ्वी को ग्रह बनाकर जल के मध्य उसे स्थिर किया। पृथ्वी इस रूप में अवतरित हुई जैसे जल के मध्य कमल-पत्र तिर रहा हो।

ब्रह्मदेव ने श्रीमहाविष्णु की अनेक प्रकार से स्तुति की। उसके बाद उन्होंने पृथ्वी पर सृष्टि-रचना के लिए अपने पुत्र स्वायंभुव को उचित स्थान का निर्देश किया। इस तरह निविघ्न सृष्टि-रचना संपन्न हुई।

नारद ने दिया विष्णु को श्राप कहा जब स्त्री बनेगी आपके परिहास का कारण तो...

त्रिलोक संचारी महर्षि नारद त्रिभुवनों का संचार करते हुए एक बार स्वर्णिम कांतियों से जाज्वल्यमान कल्याण नगर पहुंचे। वह नगर उद्यानों, अट्टालिकाओं, मंदिरों, सारस्वत गोष्ठियों और संगीत लहरियों से अत्यंत आह्लादमय था। उस नगर के राजा शीलनिधि प्रजावत्सल थे। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। उनके लक्ष्मी समान शीलवती नामक एक पुत्री थी। शीलवती के युक्त वयस्का होते ही राजा ने उसका विवाह करने के विचार से स्वयंवर की घोषणा की। स्वयंवर के दिन नारद उस नगर में पहुंचे। राजमहल की शोभ देखकर नारद विस्मय में आ गए। द्वारपालों से नारद के आगमन का समाचार सुनकर राजा ने आदरपूर्वक उनका स्वागत किया। श्रद्धा, भक्ति के साथ अघ्र्य-पाद्यों से उन्हें संतुष्ट किया और अपनी पुत्री को बुलाकर नारद का चरणाभिवंदन कराया। उस कन्या के अनुपम सौंदर्य पर देवर्षि नारद मुग्ध हो गए। उनका मन विचलित हुआ।

राजा ने नारद से पूछा, "महर्षि, मैंने अपनी पुत्री का स्वयंवर रचा है। आप तो त्रिकालज्ञ हैं। कृपया बताइए कि इस कन्या का भाग्य कैसा है? इसे कैसा वर प्राप्त होगा?"

"राजन्! आपकी पुत्री साक्षात् लक्ष्मी समान है। इस कन्या के साथ विवाह करने के लिए विष्णु के समान शोभायमान व्यक्ति ही आएंगे। आप चिंता न करें।" नारद इसके बाद पल भर भी वहां ठहर न सके। सीधे बैकुंठ में पहुंचे। विष्णु के दर्शन करके बोले, "हे जगद्रक्षक, लोक बांधव, कल्याणपुरी की राजकुमारी के सौंदर्य का वर्णन किन शब्दों में करूं। वाणी के बाहर की बात है। वह लक्ष्मी देवी जैसी रूपवती है। भुवन मोहिनी है। इसलिए वह आप जैसे लोकोत्तर विमुग्धकारी पुरुष को ही वरण करेगी। परंतु उस पर मेरा मन रीझ गया है। उस युवती को न पाने पर मैं कामदेव के बाणों को सहते जीवित नहीं रह सकता। इसलिए आपसे मेरा यही निवेदन है कि मुझ पर अनुग्रह करके आपके पीतांबर, मुकुट, रत्न खचित आभूषण आदि प्रदान करें। मेरे मनोरथ के सफल होते ही लौटा दूंगा।"

नारद के मानिसक वैकल्य पर श्रीमहाविष्णु ने मंद हास करके उनकी इच्छा की पूर्ति की। नारद ने प्रसन्नतापूर्वक विष्णु से प्राप्त वस्त्राभूषण तत्काल धारण किया। मन में सोचने लगे कि निश्चय ही राजकुमारी उनके कंठ में जयमाला डालकर वरण करेगी। इसी विश्वास से वे शीघ्र गति से स्वयंवर मंडप में पहुंचे और उचित आसन पर बैठ गए। लेकिन विष्णु की माया कुछ विचित्र थी। नारद को वह वेष-भूषा सुंदर लग रही थी। वे अपने को विष्णु रूप में पाकर अभिमान कर रहे थे, लेकिन प्रेक्षकों को उनका चेहरा वानर मुख जैसे प्रतीत हो रहा था।

उसी स्वयंवर में जगन्नाटक सूत्रधारी श्रीमहाविष्णु भी स्वयं पधारे और वे सभा मंडप में एक कोने में जा बैठे। स्वयंवर का कार्यक्रम आरंभ हुआ। राजकुमारी शीलवती अपने हाथ में जयमाला लेकर सभा मंडप में उपस्थित प्रत्येक राजा का अवलोकन करते आगे बढ़ी चली आ रही थी। नारद मन ही मन पुलकित होते हुए विचारने लगे कि उनके अतिरिक्त किसी और राजा को वरने की बात शीलवती सोच भी नहीं सकती। पर मजे की बात यह थी कि स्वयंवर मंडप में उपस्थित सभी राजकुमार नारद की ओर देख-देख मुस्करा रहे थे। पर उन्हें इस बात का भय था कि यह बात नारद से कह दें तो वे कहीं नाराज होकर शाप न दे बैठें। 

इसी समय राजकुमारी शीलवती नारद के समीप पहुंचकर उनको नख-शिख र्पयत निहारने लगी, तब नारद ने उल्लास में आकर कहा, "देखती क्या हो? जल्दी मेरे कंठ में वरमाला पहना दो।" लेकिन राजकुमारी मंद गति से आगे बढ़ गई। इस पर नारद एकदम हताश हो गए। इससे भी ज्यादा नारद के लिए संभ्रम और आश्चर्य की बात यह थी कि राजकुमारी ने आखिर एक कोने में साधारण वेष-भूषा में बैठे विष्णु के कंठ में जयमाला पहना दी। उसी समय विष्णु उस लक्ष्मी सदृश्य राजकुमारी शीलवती को अपने गरुड़ वाहन पर बिठाए बैकुंठ को चले गए।

नारद के आश्चर्य की कोई सीमा न रही। वे गुनगुनाने लगे, "मैंने सोचा था, निश्चय ही राजकुमारी मुझे वरण करेगी, लेकिन यह क्या हो गया? ऐसा कभी नहीं हो सकता था और न होना चाहिए था। समीप में खड़े दो शिवभक्तों ने ये बातें सुनीं। उन्हें अच्छा मजाक सूझा, वे बोले, "हे वानर मुखवाले। तुमने यह कैसे सोचा कि अनन्य रूपवती राजकुमारी इतने सुंदर राजकुमारों के होते तुमको वरण करेगी?"

इस पर नारद के क्रोध का पारा चढ़ गया। उन्होंने आवेश में आकर शिवभक्तों को शाप दे डाला, "तुम दोनों ने मेरा परिहास किया, इसलिए तुम दोनों भूलोक में राक्षस होकर जन्म धारण करोगे।" नारद का शाप सुनकर शिवभक्त विचलित नहीं हुए। उन्होंने सोचा कि शायद यही शिवेच्छा होगी। करनी को कौन टाल सकता है। यही विचार कर वे दोनों वहां से चुपचाप चले गए।

इतने मात्र से नारद का क्रोध शांत नहीं हुआ। वे सीधे बैकुंठ में गए। विष्णु को शीलवती के साथ प्रसन्न मुद्रा में विराजमान देख उनका क्रोध और भड़क उठा। उन्होंने विष्णु को दोष देते हुए शाप दिया, "मैंने आपसे प्रार्थना की थी। आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर मुझे यह स्वरूप प्रदान किया। मैंने जिस युवती को मन से वर लिया था, आपने उसका वरण करके भरी सभा में मेरा अपमान किया। इस वचन भंग के कारण आप भी एक स्त्री के कारण दुखी होकर परिहास का कारण बन जाएंगे। साथ ही मानव जन्म धारण करके विषाद में डूब जाएंगे। तब ऐसे ही वानर आपकी सहायता करेंगे।" यह शाप देकर नारद बैकुंठ से चले गए।

नारद का शाप सुनकर श्रीमहाविष्णु चिंतित नहीं हुए। इस शाप को भी ईश्वर की इच्छा मानकर आनंद के साथ अपने दिन बिताने लगे। इस बीच नारद महर्षि भगवत माया से मुक्त हो विवेक में आकर पछताने लगे। उन्हें अपनी करनी का बोध हुआ। वे पुन: बैकुंठ को लौट गए। विष्णु के चरण-स्पर्श करके पश्चातापपूर्ण स्वर में बोले, "भगवन, मैंने क्रोध में अंधे होकर आपको शाप दे डाला। आपने मेरे निंदापूर्ण वचनों को कैसे सहन कर लिया? मैं अपने इस दोष से कैसे मुक्त हो सकता हूं? आप अपने चक्रायुध से मेरा अंत कर दीजिए।" इस प्रकार नारद ने विलाप करते हुए श्रीमहाविष्णु की शरण मांगी।

विष्णु ने शांत स्वर में समझाया, "हे नारद, तुम चिंता न करो। जो कुछ घटित है शिवजी की इच्छा और संकल्प से होता है। कहावत भी है-शिवजी की इच्छा के बिना चींटी भी नहीं काटती। विश्व के कालचक्र को सदाशिव ही चलाते हैं। इसलिए तुम उनका ध्यान करो। वे सर्वश्रेष्ठ हैं, सर्वेश्वर हैं, वे आदि, मध्य और अंत से परे हैं। मैं ही नहीं, ब्रह्मा और इंद्र भी मोहजाल में फंसकर दुख भोगा करते हैं। अब अन्य लोगों की बात क्या कहा जाए।" इस प्रकार श्रीमहाविष्णु ने महर्षि नारद को अनेक प्रकार से समझाकर शांत किया। उन्हें शिव भक्ति और शिवजी के महात्म्य का उपदेश दिया।

स्वयं श्रीमहाविष्णु के मुंह से सदाशिव के महात्म्य का मर्म समझकर नारद अत्यंत संतुष्ट हुए। तब अपनी वीणा के तारों को झंकृत कर 'नारायण-नारायण', 'ऊँ नम:, सिद्धं नम:' गाते हुए अपनी यात्रा पर चल पड़े।

तो इस तरह हुई सृष्टि की रचना

एक बार मुनि क्रोष्टुकी ने महर्षि मरक डेय से पूछा, "महात्मा, हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं यह अद्भुत रहस्यों से पूर्ण है। मैं जानना चाहता हूं कि इसकी सृष्टि कैसे हुई?" 

मरक डेय ने कहा, "वत्स, 'नार' शब्द का अर्थ नीर या जल होता है। नार में अवतरित हुए परम पुरुष नारायण कहलाए। उन्हीं को हम भगवान भी कहते हैं।"
उन्होंने बताया कि महापद्मकल्प की समाप्ति पर सर्वत्र जलमय हो अंधकार छा गया। भगवान नारायण नार (जल) के मध्य योगनिद्रा में थे। वे जब निद्रा से जाग्रतावस्था में आए तब महर्लोक के निवासियों, महासिद्ध योगियों आदि ने उनकी स्तुति की। अपने भक्तों की स्तुति सुनकर भगवान नारायण उनके सामने वराह रूप में प्रकट हुए। प्रलयकाल में समस्त पृथ्वी जलमय हो गई थी। 

भगवान ने वराह रूप में पृथ्वी को जल से ऊपर उठाया और जल पर नाव की तरह पृथ्वी को ठहराया। तब जलमग्न पर्वत आदि को यथा प्रकार अवस्थित कर उनकी सृष्टि की। परिणामस्वरूप पांच पर्वो से ससमन्वित अविद्या का आविर्भाव हुआ। इसी को प्रकृति या माया कहते हैं। इसी माया के कारण महत्सर्ग, भूतसर्ग और त्वक्सर्ग नामक तीन इंद्रिय जन्य सर्ग उदित हुए। ये ही प्राकृत सर्ग कहलाते हैं।

तदनंतर ब्रह्मा के संकल्प मात्र से स्थावर, जंगम, निर्यक, देव, वाक नामक पांच सर्ग आविर्भूत हुए। इन्हें वैकारित सर्ग भी कहते हैं। इस क्रम में तीन प्राकृत सर्ग और पांच वैकारित सर्गो के सम्मेलन से काक कौमार नामक एक और सर्ग बना। इस प्रकार ब्रह्मा की सृष्टि नौ प्रकार से संपन्न हुई। सृष्टि का रहस्य समझकर क्रोष्टुकी परमानंदित हुए, उनके मन मे इन नव विश रचनाओं के विस्तृत विवरण जानने की जिज्ञासा हुई। 

मरक डेय ने सृष्टि का रहस्य विस्तार से समझाया, "जिज्ञासु मुनिवर, तपोगुण से युक्त स्त्रष्टा ब्रह्मा ने सर्वप्रथम अपने जघनों से दानवों का सृजन किया और तत्काल अपने शरीर को त्याग दिया। वही अंधकारयुक्त रात्रि बना। तदुपरांत विधाता ने अपने मुख से देवताओं की सृष्टि की। इस रचना के पश्चात स्रष्टा ने पुन: देह त्याग किया, वह दिन के रूप में परिवर्तित हुआ। इसी क्रम में एक भिन्न सत्वगुण मूलक शरीर धारण कर पितृ देवताओं का सृजन किया।

इस देह के त्यागते ही वह संध्या के रूप में प्रकट हुई। अंत में चतुर्मुख धारी ब्रह्मा ने रजोगुण प्रधान देह धारण किया, इस देह के त्यागते ही उसके भीतर से मनुष्य पैदा हुए। इस देह त्याग के साथ ज्योत्स्ना उदित हुई। इस कारण से राक्षसों को रात्रि के समय अधिक बल प्राप्त होता है और मनुष्यों को उदय काल में मंत्र शक्ति अधिक प्राप्त होती है। यही कारण है कि राक्षस रात्रिकाल में और मानव प्रभात काल में शत्रु संहार करने में अधिक समर्थ होते हैं।

"सुनो, ब्रह्मा की सृष्टि यहीं समाप्त नहीं हुई। इसके बाद विधाता के विविध अवयवों से यक्ष, किन्नर, गंधर्व, अप्सराएं, पशु, पक्षी, मृग, औषध, वनस्पति, लता-गुल्म, चर-अचर आदि भूत समुदाय का जन्म हुआ।

अंत में ब्रह्मा के दाएं मुख से यज्ञ, श्रौत, गायत्री, छंद, ऋग्वेद आदि का उदय हुआ। बाएं मुख से त्रिष्णुप छंद, पंच दशस्तोम, बृहत सामवेद, पश्चिम मुख से संपूर्ण सामदेव, जगती छंद, सप्त दश स्तोम, वैरूप आदि तथा उत्तर मुख से इक्कीस अधर्वणवेद, आप्तोर्यम, अनुष्ठुप छंद, वैराज का उद्भव हुआ। इस प्रकार ब्रह्मा के शरीर से समस्त प्रकार के स्थूल, सूक्ष्म, स्थावर, जंगम, अनुरूप, विकास, उनके अवशेष क्रम उत्पन्न हुए और पूर्व कल्पों की भांति सरस-विरस गुणों से प्रवर्धमान हुआ। से कार्य प्रत्येक कल्प में घटित होते हैं।

क्रोष्टुकी ने सृष्टि क्रम का विवरण प्राप्त कर महर्षि मरक डेय की अनेक प्रकार से स्तुति की, फिर भी उनकी जिज्ञासा बनी रही। महर्षि को प्रसन्न चित्त देख क्रोष्टुकी ने वर्णाश्रम धर्मो का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। इस पर मरक डेय ने सृष्टिक्रम के कुछ और रहस्य बताए।

"वत्स! स्त्रष्टा के समस्त अवयवों से हजारों मिथुन यानी दम्पति उत्पन्न हुए। उनका सौंदर्य अद्भुत था। वे रूप, यौवन और लावण्य में समान थे। वे प्रणय-द्वेष आदि गुणों से अतीत थे। नारियां रजोदोष से मुक्त थीं। यदि वे संतान की कामना रखते तो भगवान के नाम-स्मरण, देवताओं का ध्यान करके अपने संकल्प की सिद्धि कर लेते थे।" 

"उस काल में उनके कोई नगर, आवास गृह, नाम मात्र के लिए भी न थे। इसलिए वे पर्वत, नदी, समुद्र तथा सरोवरों में अपना समय व्यतीत करते थे। उनकी आयु चार हजार वर्ष की हुआ करती थी। उस युग के समाप्त होने पर युग धर्म के अतिक्रमण के कारण व ऊध्र्व लोक से भूलोक में पहुंच जाते। पुन: त्रेता युग में गृहों के रूप में प्रादुर्भूत कल्पतरुओं के आश्रम में पहुंच जाते। उनके पत्तों से उत्पन्न मधु का सेवन करते थे। परिणामस्वरूप कुछ समय बाद वे राग और द्वेष के वशीभूत हो दुर्व्यसनों के शिकार हो जाते। परस्पर शत्रुता के कारण गृहस्थ वृक्षों को काटकर अन्य प्रदेशों में गए और वहां पर नगर, गांव, गृह आदि बनाए।"

"प्राय: नगर दुर्ग, कंदक आदि से युक्त होते हैं। दुर्ग और कंदकों के बिना साधारण भवनोंवाले आवास स्थलों को नगर शाखाएं कहते हैं। कृषि कर्म करनेवाले शूद्रों के द्वारा निर्मित कराए गए गृह समुदाय को ग्राम मानते हैं। इस प्रकार अनेक योजनों दूरी तक नगर और गांव अपने निवास के लिए बसाते हैं। व्यापार और वाणिज्य से दूर केवल पशु, भेड़, बकरियों से युक्त पशु समुदाय वाले ग्राम को यादव पल्ली कहते हैं। अब तुम योजना का परिणाम भी जानने को उत्सुक होंगे। सुनो, एक बालिश्त या बित्ते के माने बारह इंच होता है। दो बालिश्त एक हाथ होता है। चार हाथ एक दंड कहलाता है। दो हजार दंड एक कोस होता है। दो कोस एक गण्यूति और दो गण्यूतियां मिलकर एक योजन होता है।

"पृथ्वी लोक में पहुंचकर मनुष्य अन्न के अभाव में केवल मधुपान से अपना जीवन बिताने लगे थे। ऐसी स्थिति में दैव योग से वर्षा हुई। वर्षा के कारण वृक्ष और पौधे फलों से लद गए। फलों का सेवन कर उस युग के मनुष्य सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे। कालांतर में उनमें राग-द्वेष उत्मन्न हुए। औषधियां नष्ट हो गईं। तब विधाता ने दयाद्र्र हो मेरू पर्वत को बछड़े के रूप में खड़ा करके भूदेवीरूपी गाय को दुहवा दिया। उसके भीतर से समस्त प्रकार के बीज उत्पन्न हुए। मनुष्य आनंद से नाच उठे।" 

"पृथ्वी को जोतकर मानव समुदाय ने बीज बोए। उन बीजों के कारण से पृथ्वी के गर्भ से गेहूं आदि सत्रह प्रकार के धान्य पैदा हुए। इन धान्यों को ग्राम औषधियां कहा गया। इन धान्यों के आहार के सेवन से वर्तमान युग में स्त्रियां रजस्वला होने लगीं। परिणामस्वरूप पुरुष और स्त्री के संयोग से संतान होने लगी।"

"इसी युग में ब्रह्मा ने मानव जाति को चार वर्णो में विभाजित किया। ब्रह्मा ने अपने मुख से उत्पन्न मनुष्यों को क्षत्रिय, जघनों से उत्पन्न मानवों को वैश्य तथा पादों से उत्पन्न मानव समुदाय को ब्राह्मण, वक्ष से उत्पन्न लोगों को शूद्र का नामकरण किया।

"अब उनके कर्मो का भी निर्धारण किया गया। वेद-सम्मत वैदिक धर्मो का आचरण करना ब्राह्मणों का कर्तव्य बताया गया। क्षत्रियों के लिए युद्ध और सुरक्षा कादायित्व सौंपा गया। कृषि कार्य वैश्य समुदाय को तथा शूद्रों को अग्रवर्णो की सेवा करना और कृषि कर्म का भार सौंपा गया।

"इस प्रकार वर्णाश्रम धर्मो की व्यवस्था करके समुचित रूप से उनका आचरण करनेवालों को क्रमश: ब्रह्मलोक, स्वर्गलोक, वायुलोक और गंधर्वलोक की प्राप्ति गया।

"वत्स क्रोष्टुकी, मैं समझता हूं कि अब तुम्हारी सारी शंकाओं का समाधान हो गया है।" यह कहकर मरक डेय महर्षि संध्या वंदन करने निकल पड़े।

तो इस तरह ब्राह्मण को मिली प्रेतों से मुक्ति


चतुर्विध पुरुषार्थो में धर्म का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है। धर्म किसी व्यक्ति, संप्रदाय, वर्ग, जाति, कुल, कुनबे या कबीले से जुड़ा हुआ नहीं होता। धर्म सार्वभौमिक होता है। मानव मात्र के लिए आचरण योग्य होता है। प्राचीन काल में धर्म पर बहुत अधिक चर्चा हुई। महर्षियों ने विस्तार से इसकी व्याख्या की है। स्कंद पुराण में धर्म सम्बंधी कई कथाएं कही गई हैं। पुराने समय में नैमिशारण्य में एक बार द्वादश वार्षिक 'सत्र योग' रचा गया। उस योग में देश के सारे ऋषि, मुनि और तपस्वी पहुंचे। उस संदर्भ में कई धार्मिक संगोष्ठियां भी हुईं। ऋषि-मुनि पुराण सुनकर आनंदित हुए। रोमहर्षण सूत महर्षि ने आगत तपस्वीवृंद को कृष्ण द्वैपायन से कही गई अनेक कथाएं सुनाईं। उस समय कुछ तपस्वियों ने महर्षि सूत से निवेदन किया, "महानुभव, आपने कई धार्मिक गूढ़ तत्वों का हमें उपदेश दिया, लेकिन हम उन्हें धारण नहीं कर पाए। कृपया धर्म संबंधी उपाख्यान हमें सरल भाषा में संक्षेप में समझाइए।"

इस पर सूत महर्षि ने धर्म सम्बंधी एक कथा सुनाई, पुराने समय में महाराजा चित्रकेतु ने धर्म का अर्थ जानने की उत्कंठा से महर्षि शौनक से प्रार्थना की। महर्षि ने सर्वलोक हितकारी धर्म का प्रवचन किया।

धर्म ही सदा व्यक्ति का साथ देता है। वही मानव-जीवन का एकमात्र आधार होता है। बंधु, बांधव, मित्र, हितैषी भी धर्मच्युत व्यक्ति का हित नहीं कर सकते और न साथ दे सकते हैं। धन, संपत्ति, पद और अधिकार के अभाव में भी धर्माचरण करनेवाला व्यक्ति सब जगह आदर-सम्मान और परलोक का पात्र हो जाता है। धर्माचरण विहीन व्यक्ति चाहे जितना भी बलवान, संपन्न और राजा ही क्यों न हो, वह सर्वत्र निंदा का पात्र बन जाता है और जीवन भर दुख भोगता है। वह कभी सुखी नहीं बन सकता।

इसीलिए शास्त्रों में बताया गया है :

नास्ति धर्मात्परं लाभो नास्ति धर्मात्परं धनम्।

नास्ति धर्मात्परं तीर्थ नास्ति धर्मात्परा गति:।।

अत: मानव को धर्म का मर्म समझकर उसका आचरण करना चाहिए, तभी वह सुख, शांति और सौभाग्य का पात्र बनकर सर्वत्र पूजा जाता है। इसके दृष्टांत के रूप में एक कहानी है :

कई शताब्दियों पूर्व अवंती नगर में धर्म स्वामी नाम का एक ब्राह्मण रहा करता था। उसका एकमात्र पुत्र शिवस्वामी थ। धर्मस्वामी के स्वर्गवासी होते ही शिवस्वामी तीर्थ यात्रा पर चल पड़ा। समस्त तीर्थो की यात्रा करके वह अवंती की ओर लौटा। अवंती के पास पहुंचते ही उसके मन में यह विचार आया कि गृहस्थी के बंधन में फंस जाने पर फिर उससे मुक्ति होना असंभव है। मैंने आर्यावर्त के समस्त तीर्थो की यात्रा की है। अब विंध्याचल के दक्षिण में स्थित पुण्य तीर्थो का सेवन करना चाहिए। यह संकल्प करके शिवस्वामी यात्रा के दौरान कई नगर, ग्राम, वन, उपवनों का दर्शन करते हुए विंध्याचल के गहन वन में पहुंचा।

विंध्याचल में सभी ओर सिंह, शार्दूलों के भयंकर गर्जन, पक्ष्यिों का कलरव, कंटकाकीर्ण दुर्गम पथ, दावानल, भूत-प्रेत व राक्षसों के विकट अटठहास सुनाई पड़े। भूख-प्यास से उसका शरीर शिथिल होता जा रहा था। भीषण ताप से उसकी देह झुलस रही थी। उस स्थान पर कंकालों का ढेर देखकर शिवस्वामी आपाद मस्तक कांप उठा।

वह मन ही मन पछताने लगा, "ओह! मैंने यह भूल की है। तिस पर पथ भ्रष्ट हो गया हूं। अब मैं इस विपदा से कैसे मुक्त हो सकता हूं।" इस प्रकार शिवस्वामी अपनी करनी पर पछता रहा था, तभी उसके सामने पांच विकराल भूत आकर खड़े हो गए। अचानक अपने सामने एक साथ पांच भूत-प्रेतों को देख शिवस्वामी निश्चेष्ट रह गया फिर साहस बटोरकर पूछा, "तुम लोग कौन हो? इस निर्जन वन में वास क्यों करते हो?"

"हम चाहे कोई भी हों, तम्हें क्या मतलब? अभी हम तुम्हारा भक्षण करने वाले हैं। अंतिम समय में अपने आराध्य देव का ध्यान करो।" "मैं सर्वभूतेश शिवजी का ही स्मरण करूंगा। मैंन सुना है कि व्याधि से पीड़ित व्यक्ति, दरिद्र और दावानल में फंसा व्यक्ति शिवजी के स्मरण मात्र से मृत्यु पर विजय पाते हैं। इसलिए उन्हीं पृत्युंजय का स्मरण करता हूं।"

उसी समय पांचों प्रेत शिवस्वामी को निगलने के लिए आगे बढ़े, लेकिन दूसरे ही क्षण प्रेतों के मुंहों में अग्नि ज्वालाएं दहकती सी प्रतीत हुईं। वे सब घबरा गए और प्रेतों ने शांत होकर पूछा, "महात्मा, आप कौन हैं? आपको यह तेज कैसे प्राप्त हुआ?"

शिवस्वामी ने अपना वृत्तांत सुनाकर पूछा, "तुम लोग कौन हो? इस अरण्य में शाल्मली वृक्ष का आश्रय लेकर यात्रियों का संहार क्यों करते हो? तुम्हें किस पापाचरण के कारण ये विकृत रूप प्राप्त हुए हैं?"

इस पर प्रेतों ने अपना परिचय दिया, "हम पांच प्रेतों के नाम इस प्रकार हैं-स्थूल देह, पीन मेढू, पतिवकत्र, कृश गात्र और दीर्घजिह्व। इस पर प्रत्येक प्रेत ने अपने कुकृत्य का परिचय दिया, "मेरा नाम स्थूल देह है। मैंने देव, ब्राह्मण, स्त्री, बालक, वृद्ध आदि का धन चुराकर उनके मांस भक्षण किया, इस प्रकार मुझे यह स्थूल देह प्राप्त हुआ है।"

दूसरे ने कहा, "मेरा नाम पीन मेढू है। मैंने अनेक स्त्रियों का सतीत्व लूटा, अनि विषय कर्म के कारण मैं कृशगात बन गया हूं। यौन रोगों से मेरा शरीर सदा जलता रहता है। उसी पाप का फल भोग रहा हूं।" तीसरे ने अपने कर्म का फल बताया, "मेरा नाम पूतिवकत्र है। मैं मिथ्याभाषी हूं। सदा सबकी निंदा और दूषण करता हूं। इस पाप के कारण सदा मेरे मुंह से पीब और रक्त बहता रहता है। मेरी जिह्वा दरुगध के आधिक्य से कीड़ों से भरी रहती है।"

इसके बाद चौथे प्रेत ने कहा, "मेरा नाम कृशगात्र है। पूर्व जन्म में मैं धनवान था, परंतु कंजूस था। मैंने अपनी पत्नी और बच्चों सही पोषण नहीं किया, उन्हें सताया। दान धर्म नहीं किया। अपने परिवार को कृश यानी दुर्बल करने के कारण इस जन्म में कृशगात्र बना।"

अंत में दीर्घ जिह्व ने अपनी कहानी सुनाई, "मैं पिछले जन्म में नास्तिक था। धर्म, सत्य, अहिंसा, लोक-परलोक की निंदा करते हुए कहा करता था-धर्म मिथ्या है। जो कुछ भोगना है, इस जन्म में भोगना है। पाप-पुण्य फरेब है। इस जिह्वा से मैंने जो वाचालता की, परिणामस्वरूप इस जन्म में दीर्घ जिह्व बन गया हूं।"

प्रेतों की कहानियां सुनकर शिवस्वामी ने अपने मन में विचार किया, "यम कहीं अन्यत्र नहीं हैं। मनुष्य का मन ही यम है। जो व्यक्ति अपनी आत्मा पर संयम रखता है, यम उसके दास बन जाते हैं।" यों विचार करके शिवस्वामी ने प्रेतों से पूछा, "तुम लोग अगर मेरा भक्षण करना चाहो तो कर लो, अन्यथा मुझे छोड़ दो, तो मैं अपने रास्ते चला जाऊंगा।"

इस पर पांचों प्रेतों ने एक स्वर मं कहा, "सिद्ध पुरुष, आप जैसे तेजस्वी पुरुष का हम भक्षण नहीं कर सकते। आप निर्विघ्न अपने पथ पर चले जाइए, लेकिन हमने सुना है कि साधु पुरुष अपकार करने वालों का उपकार करते हैं। हमें इस घोर संकट से उद्धार करने का कोई उपाय बताइए।"

"तुम्ही लोग बताओ, किस सत्कर्म के प्रभाव से तुम लोग इस प्रेत जन्म से मुक्तिलाभ कर सकते हो?" शिवस्वामी ने पूछा।

"तो सुनिए। विंध्याचल के दक्षिण में दंडकारण्य है। उसमें सर्वपाप हरण करने वाला 'विरज' नामक एक तीर्थ है। आप हमें लक्ष्य करके उस तीर्थ में तर्पण कीजिए।" यह कहकर सभी प्रेत अदृश्य हो गए।

शिवस्वामी ने माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन विरज क्षेत्र में पहुंचकर प्रेतों की मुक्ति का संकल्प करके तीर्थ स्नान किया। शिवरात्रि को उपवास और जागरण किया। प्रात: काल होते ही अपने पितरों को तर्पण व पिंड दान किया, उसके बाद प्रेतों का स्मरण करके श्राद्ध कर्म संपन्न किया।

प्रेतों ने दिव्य रूप धारण कर परलोक जाते हुए कृतज्ञता प्रकट की, "महात्मन्, आपके अनुग्रह से हम पाप-मुक्त हो स्वर्गगामी हो रहे हैं। आपकी मनोकामना सफल हो।"इसके बाद शिवस्वामी शेष समस्त तीर्थो की यात्रा करके अवंती नगर पहुंचे और धर्माचरण करते हुए आदर्श जीवन बिताने लगे।

महाराजा चित्रकेतु ने शौनक मुनि के मुंह से यह पुराण कथा सुनी और धर्म मार्ग पर राज्य शासन करने लगे। उनके राज्य में प्रजा सुखी और सम्पन्न बनी।

इस तरह हुआ महिषासुर का अंत

प्राचीन काल में देव और दानवों के बीच भंयकर युद्ध हुआ था। उस युद्ध में देवताओं ने राक्षसों का सर्वनाश किया। इस पर राक्षसों की माता दिति बहुत दुखी हुई और उसने अपनी माता से कहा, "मां, मेरे सभी पुत्र मेरी सौत के पुत्र देवताओं के हाथों मारे गए हैं। मैं इस दुख को कैसे सहन कर सकती हूं।" "बेटी, तुम रोओ मत। भगवान की इच्छा से ही यह अनर्थ घटित हुआ है। हम कर ही क्या सकते हैं? तुम तपस्या करो। तुम्हारे गर्भ से एक लोक प्रसिद्ध पुत्र का उदय होगा।" इस प्रकार समझाकर राक्षसों की नानी ने अपनी पुत्री दिति को वरदान दिया।

अपनी माता की सलाह पाकर दैत्यों की माता दिति सुपाश्र्चु नामक मुनि के आश्रम में गई। वहां पर दिति ने अनेक प्रकार के जंतुओं का रूप धरकर तप करना आरंभ किया। एक दिन दिति महिस रूप धरकर पांच अग्निहोत्रों (पंचाग्नि) के मध्य बैठकर घनघोर तपस्या में लीन हो गई। मुनि सुपाश्र्चु ने उस दृश्य को देखा। उस घृणित रूप पर रुष्ट होकर मुनि ने दिति को श्राप दिया, "तुम्हारे गर्भ से महिष रूपी पुत्र का जन्म होगा।" दिति विचलित हुए बिना तप में निमग्न हो गई।

एक दिन ब्रह्मा ने दिति के समक्ष प्रत्यक्ष होकर कहा, "तपस्विनी, मुनि के शाप पर तुम चिंता न करो। तुम्हारे गर्भ से पैदा होनेवाले पुत्र का आधा शरीर महिष की आकृति में होगा और शेष आधा शरीर मानवाकृति में होगा। वह बालक महान वीर बनेगा। वह अपने पराक्रम के बल पर इंद्र आदि देवताओं को हराकर यशस्वी होगा।" ब्रह्मा दिति को यह वरदान देकर अदृश्य हो गए।

कालांतर में दिति के गर्भ से महिषासुर का जन्म हुआ। समस्त राक्षसों ने उस बालक को घेरकर अनेक प्रकार से उसकी स्तुति की, "हे दानवोत्तम! देवताओं ने विष्णु का अनुग्रह पाकर हम सबको भगा दिया और स्वर्ग पर शासन कर रहे हैं, इसलिए आपसे हमारी यही प्रार्थना है कि आप देवताओं को युद्ध में पराजित कर स्वर्ग से उनको भगाकर स्वर्ग पर शासन कीजिए। हमारे राक्षस वंश की प्रतिष्ठा बनाए रखें।"

महिषासुर ने राक्षसों को आश्वासन दिया, "अगर आप सबका मुझ पर विश्वास है तो निश्चय ही आपकी मनोकामना पूरी होगी। लेकिन मेरी एक शर्त है-आप सबको मेरा साथ देना होगा।" राक्षसों ने एक स्वर में महिषासुर को सहयोग देने का वचन दिया।

महिषासुर ने कुछ समय बाद राक्षस-सेना का संगठन किया और स्वर्ग पर धावा बोल दिया। देव और दानवों के बीच एक सौ वर्ष तक भीषण युद्ध होता रहा। आखिर महिषासुर ने देवताओं को पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। राक्षसों के अत्याचारों से देवता तंग आ गए। जब उनके अत्याचारों को सहा न गया तब सब देवता परस्पर विचार-विमर्श कर के ब्रह्मा के पास आश्रय में गए। ब्रह्मा से निवेदन किया कि महिषासुर का संहार करके उन्हें स्वर्ग वापस दिला दें। 

ब्रह्मा ने अपनी असमर्थता जताई। देवता निराश हुए। वे सब एक पर्वत पर पहुंच कर उपाय सोचने लगे-कैसे राक्षसों का दमन किया जाए। ब्रह्मा ने सुझाव दिया कि शिवजी इस कार्य में सहायता कर सकते हैं। अत: हम सब उनके पास जाकर निवेदन करेंगे।

देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की कि वे देवताओं का प्रतिनिधित्व करें। ब्रह्मा ने देवताओं की प्रार्थना मान ली और उन सबको साथ लेकर शिवजी से भेंट करने के लिए कैलाश पहुंचे। शिवजी दवताओं की प्रार्थना सुनकर द्रवित हुए, उन्होंने कहा, "हम सब श्री महाविष्णु के आश्रय में जाकर उनसे निवेदन करेंगे। वे निश्चय ही इस कार्य में सहायता करेंगे।" अंत में सब लोग श्री महाविष्णु के दर्शन करने निकले।

देवताओं ने ब्रह्मा, शिवजी यथा विष्णु को महिषासुर के अत्याचारों का वृत्तांत सुनाया। शिवजी ने महिषासुर के अत्याचार सुनकर रौंद्र रूप धारण किया। उनके मुंह से एक तेज का आविर्भाव हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा और विष्णु के अंगों से तेज प्रकट हुए। आखिर सभी तेज एक रूप में समाहित हुए। शिवजी का तेज देह के प्रधान रूप को प्राप्त हुआ, विष्णु का तेज मध्य भाग, वरुण का तेज उरू और जांघ, भौम का तेज पृष्ठ भाग, ब्रह्मा का तेज चरण और अन्य देवताओं के तेज शेष अंगों की आकृति में रूपायित हुए। अंत में समस्त तेजों का सम्मिलित स्वरूप एक नारी की आकृति में प्रत्यक्ष हुआ। उस तेज स्वरूपिनी देवी की श्री महाविष्णु तथा शिवजी ने अपने-अपनी आयुध प्रदान किए। हिमवंत ने उसे एक सिंह भेंट किया।

वह देव स्वरूपिणी महिमा असुरमर्दनी तेज में देवताओं को साथ लेकर सिंह पर आरूढ़ हो निकल पड़ी। दानवराज महिषासुर के नगर के समीप पहुंचकर देवी ने सिंहनाद किया। उस ध्वनि को सुन दस दिशाएं हिल उठीं। पृथ्वी कंपित हुई। समुद्र कल्लोलित हो उठा। महिषासुर को गुप्तचरों के जरिए समाचार मिला कि देवी उसका संहार करने के लिए स्वर्ग द्वार तक पहुंच गई हैं। वह थोड़ा भी विचलित नहीं हुआ बल्कि देवी पर क्रुद्ध हो वतुरंगी सेना समेत देवी के साथ युद्ध करने के लिए निकल पड़ा।

देवी को स्वर्गद्वार पर आक्रमण के लिए तैयार देख हुंकार करके महिषासुर ने अपनी सेना को देवी की सेना पर धावा बोलने का आदेश दिया। देवी ने प्रचंड रूप धारण कर राक्षस सेना को तहस-नहस करना प्रारंभ किया। उनके विश्वास से अपार सेना वाहिनी अद्भुत हो महिषासुर के सैन्य दलों पर टूट पड़ी और अपने भीषण अस्त्र-शस्त्रों से दानव सेना को गाजर-मूली की तरह काटने लगी। देवी ने स्वयं देवताओं की सेना का नेतृत्व किया। अपने वाहन बने सिंह को तेज गति से शत्रु सेना की ओर बढ़ाते हुए दैत्यों का संहार करने लगी। 

देवी के क्रोध ने दावानल की तरह फैलकर दैत्य वाहिनी को तितर-बितर किया। युद्ध क्षेत्र लाशों से पट गया। उस भीषण दृश्य को देख राक्षस सेनापतियों के पैर उखड़ गए। वे भयभीत हो जड़वत अपने-अपने स्थानों पर खड़े रहे। महिषासुर ने देवी पर आक्रमण करने के लिए अपने सेनानायको को उकसाया। दैत्य राजा का हुंकार और प्रेरणा सभी सेनानायक एकत्र हो सामूहिक रूप से देवी का सामना करने के लिए सन्नद्ध हुए।

महिषासुर ने देवी के समक्ष पहुंचकर उनको युद्ध के लिए ललकारा। इस बीच दैत्य सेनापति साहस बटोरकर देवी पर आक्रमण के लिए एक साथ आगे बढ़े। देवी ने समस्त सेनापतियों का वध किया। सारी सेना को समूल नष्ट करके महिषासुर के समीप पहुंची और गरजकर बोली, "अरे दुष्ट! तुम्हारे पापों का घड़ा भर गया है। मैं तुम्हारे अत्याचारों का अंत करने आई हूं। मैं तुम्हारा संहार करके देवताओं की रक्षा करूंगी।" यह कहकर देवी ने महिषासुर को अपने अस्त्र से गिराया, उसके वक्ष पर भाला रखकर उसको दबाया तब अपने त्रिशूल से उसकी छाती को चीर डाला।

त्रिशूल के वार से महिषासुर बेहोश हो गया। फिर थोड़ी देर में वह होश में आया। उसने पुन: देवी के साथ गर्जन करते हुए भीषण युद्ध किया। देवी ने रौद्र रूप धारण कर अपने खड्ग से दैत्यराज महिषासुर का सिर काट डाला। अपने राजा का अंत देख शेष राक्षस सेनाएं चतुर्दिक पलायन कर गई। युद्ध क्षेत्र में देवी का रौद्र रूप देखते ही बनता था आकाश में सूर्य का अकलंक तेज चारों तरफ भासमान था। वे स्वयं देवी के क्रोध को शांत नहीं कर पाए। उन्होंने अपनी दृष्टि दैत्यराज महिषासुर के चरणों पर केंद्रित की।

देवताओं ने देवी का जयकार किया और विनम्र भाव से हाथ जोड़कर सदा उनकी रक्षा करते रहने का निवेदन किया। देवी ने आश्वासन दिया। दैत्यराज महिषासुर का मर्दन (संहार) करने के कारण दुर्गा महिषासुर मर्दनी कहलाई।

तो इस तरह द्रोपदी बनी पांच पांडवों की पत्नी

प्राचीनकाल में महामुनि मरक डेय अपने अनुपम तपोबल के कारण श्रेष्ठ तपस्वी कहलाए। मुनि जैमिनी धर्मतत्वों के जिज्ञासु थे। एक बार उन्होंने मरक डेय के आश्रम में जाकर निवेदन किया, "मुनिवर, मैंने महर्षि व्यास के मुंह से समस्त पुराण, महाभारत, भागवत, इतिहास आदि समस्त-श्रुति, स्मृति और धर्म शास्त्रों का श्रवण किया है। इस समय मेरे मन में जो शंकाएं हैं उनका समाधान आपके मुंह से जानना चाहता हूं। मेरी शंकाओं का निवारण करके मुझे धन्य बनाइए।" 

"यतिवर, बताइए, आपकी कैसी शंकाएं हैं?" मरक डेय ने पूछा। जैमिनी मुनि ने अत्यंत प्रसन्न होकर कहा, "इस जगत के कर्ता-धर्ता भगवान ने मनुष्य का जन्म क्यों लिया? राजा द्रुपद की पुत्री द्रौपदी पांच पतियों की पत्नी क्यों बनी? श्रीकृष्ण के भ्राता बलराम ने किस कारण तीर्थयात्राएं कीं? द्रौपदी के पांच पुत्र उप पांडवों की ऐसी जघन्य मृत्यु क्यों हुई?" 

मरक डेय ने कहा, "मुनिवर, मेरी तपस्या का समय हो चला है। विस्तार से ये वृत्तांत सुनाने के लिए मेरे पास समय नहीं है। मैं आपको एक उपाय बताता हूं। विंध्याचल में पिंगाक्ष, निवोध, सुपुत्र और सुमुख नाम के चार पक्षी हैं। ये चारों पक्षी दरोण के पुत्र हैं जो वेद और शास्त्रों में पारंगत हैं। उनसे तुम अपनी शंकाओं का निवारण कर सकते हो।" इस पर जैमिनी ने विस्मय में आकर पूछा, "पक्षी द्रोण के पुत्र कैसे हो सकते हैं? मानवों की भाषा का ज्ञान पक्षियों को कैसे हो सकता है?"

मरक डेय ने समझाया, "एक बार देवमुनि नारद ने वीणा-वादन करते हुए भूलोक का संचार किया, फिर वहां से अमरावती नगर पहुंचे। महेंद्र ने नारद का समुचित रूप में स्वागत-सत्कार किया और उनको उचित आसन पर बिठाकर कहा कि देव मुनि, आपको विदित ही है कि देव-सभा में रंभा, ऊर्वशी, तिलोत्तमा, मेनका, घृतांचि, डिश्रकेशी आदि देव गणिक, नर्तकियां हैं। आपके विचार से इनमें श्रेष्ठ कौन है? बताने की कृपा करें।"

नारद ने उन अप्सराओं को सम्बोधित कर पूछा, "हे देव गणिकाओं, तुम लोगों में से जो अधिक सुंदर, सरस-संलाप आदि विधाओं में श्रेष्ठ हैं, वही हमारे समक्ष नृत्य करें।" नारद का प्रश्न सुनकर सभी अप्सराएं मौन रहीं। तब इंद्र ने नारद से कहा, "देवर्षि, इन अप्सराओं में से आप ही स्वयं श्रेष्ठ सुंदरी का चयन करें।" इस पर नारद ने देव नर्तकियों से कहा, "तुम लोगों में जो नर्तकी दुर्वासा को मोह-जाल में बांध सकती है, वही मेरी दृष्टि में श्रेष्ठ है।"

नारद के वचन सुनकर सभी देव नर्तकियां भयभीत हो मौन रह गईं, लेकिन वपु नामक एक नर्तकी अपने स्थान से उठकर बोली, "मैं बड़ी कुशलतापूर्वक मुनि दुर्वासा का तपोभंग कर सकती हूं।" वपु का दृढ़ निश्चय देख महेंद्र ने प्रसन्न होकर कहा, "हे मदवती, यदि तुम मुनि दुर्वासा के असाधारण तप में विघ्न पैदा कर सकोगी तो मैं तुम्हें मुंहमांगा धन-संपत्ति अर्पित करूंगा।"

मुनि दुर्वासा हिमाचल प्रदेश में एक आश्रम बनाकर केवल वायु का सेवन करते हुए घोर तपस्या कर रहे थे। अप्सरा वपु दुर्वासा मुनि के आश्रम के एक कोस की दूरी पर वन-विहार करते मधुर संगीत का अलाप करने लगी। संगीत के माधुर्य पर मुग्ध हो मुनि दुर्वासा अपनी तपस्या बंद कर देव कन्या के समीप पहुंचे। अपना तपोभंग करनेवाली देवांगना को देख क्रुद्ध हो दुर्वासा ने श्राप दिया, "हे देव कन्ये, तुम मेरी तपस्या में विघ्न डालने के षड्यंत्र से यहां पर आई हो, इसलिए तुम गरुड़ कुल में पक्षी बनकर जन्म धारण करोगी।"

अप्सरा वपु ने भयभीत होकर दुर्वासा से प्रार्थना की, "हे महामुनि, आप कृपया मेरा अपराध क्षमा करें।" वपु पर दया करके महर्षि दुर्वासा ने कहा, "तुम सोलह वर्ष पक्षी रूप में जीवित रहकर चार पुत्रों को जन्म दोगी, तदनंतर बाण से घायल होकर प्राण त्याग करके पूर्व रूप को प्राप्त होगी।" इस प्रकार शाप-विमोचन का वरदान देकर महर्षि अपने आश्रम को लौट गए।

अप्सरा वपु ने दुर्वासा के शाप के प्रभाव से गरुड़वंश में केक पक्षी के रूप में जन्म लिया और मंदपाल के पुत्र द्रोण से विवाह किया। सोलह वर्ष की आयु में उसने गर्भ धारण किया। उसी काल में कौरव-पांडवों का युद्ध हुआ! मादा पक्षी उस महाभारत युद्ध को देखने गई। वह आकाश में उड़ रही थी, उस समय अर्जुन का एक बाण केक पक्षी को लगा। परिणामस्वरूप केक पक्षी का गर्भ विच्छिन्न हुआ। पक्षी का देहांत हुआ और वह अप्सरा रूप को पाकर देवलोक पहुंची। लेकिन उसके अंडे गर्भ-विच्छेद के कारण पृथ्वी पर गिर पड़े। 

उस युद्ध में एक हाथी का घंटा कटकर उस अंडों पर गिरा और अंडे ढक गए। अंडों से बच्चे निकले। उस समय मार्ग से मुनि शमीक आ निकले। मुनि उन पक्षी शावकों पर अनुकंपा करके अपने आश्रम में ले जाकर पालने लगे। पक्षी शावकों को मानवों की भाषा में वार्तालाप करते सुनकर मुनि ने उससे पूछा, "तुम लोग कौन हो? तुम क्या अपने पूर्व जन्म-वृत्तांत बता सकते हो?" 

इस पर पक्षियों ने कहा, "मुनिवर, प्राचीन काल में विपुल नामक एक तपस्वी थे। उनके सुकृत और तुंबुर नाम के दो पुत्र हुए। हम चारों सुकृत के पुत्र हुए। एक दिन इंद्र ने पक्षी के रूप में मेरे पिता के आश्रम में पहुंचकर मनुष्य का मांस मांगा। हमारे पिता ने हमें आदेश दिया कि हम पितृ-ऋण चुकाने के लिए पक्षी रूप में उपस्थित इंद्र का आहार बनें। हमने नहीं माना। इस पर हमारे पिता ने हमें पक्षी रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया और स्वयं पक्षी का आहार बनने के लिए तैयार हो गए। इंद्र ने प्रसन्न होकर हमारे पिता से कहा कि महामुनि, आपकी परीक्षा लेने के लिए मैंने मनुष्य का मांस मांगा। मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है।" यह कहकर इंद्र देवलोक को चले गए।

इसके बाद हमने अपने पिता से कहा, "पिताजी, हम मानव देह के प्रति आसक्ति के कारण आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सके। हम पर कृपा करके शाप से मुक्त कर दीजिए।" हमारे पिता ने अनुग्रह करके हमें शाप मुक्त होने का उपाय बताया, "पुत्रों, तुम लोग पक्षी रूप में ज्ञानी बनकर कुछ दिन विंध्याचल में निवास करो। महर्षि जैमिनी तुम्हारे पास आकर अपनी शंकाओं का निवारण करने के लिए तुम लोगों से अभ्यर्थना करेंगे, तब तुम लोग मेरे शाप से मुक्त हो जाओगे। इस कारण हम पक्षी बन गए।" पक्षियों का समाधान पाकर शमीक ने उन्हें समझाया, "तुम लोग शीघ्र विंध्याचल में चले जाओ।"

मुनि शमीक के आदेशानुसार केक पक्षी विंध्याचल में जाकर निवास करने लगे। इसलिए हे जैमिनी, तुम विंध्याचल में जाकर उन पक्षियों से अपनी शंका का समाधान कर लो। मरक डेय मुनि ने जैमिनी को उपाय बताया।

जैमिनी महर्षि विंध्याचल को गए। वहां पर उच्च स्वर में वेदाके का पाठ करते पक्षियों को देख जैमिनी ने अपने चार प्रश्न उनसे पूछा। इस पर पक्षियों ने समझाया, "यतिवर, संसार में जब-जब पाप बढ़ जाते हैं, तब-तब पापियों को दंड देने के लिए भगवान मानव रूप में अवतरित हुआ करते हैं। प्राचीन काल में त्वष्ट्र प्रजापति के पुत्र त्रिशीर्ष का इंद्र ने अपने वज्रायुध से संहार किया। परिणामस्वरूम वे ब्रह्म-हत्या के अपराधी बने। 

इस कारण से इंद्र का दिव्य तेज चार भागों में विभाजित होकर यमराज, वायु और अश्विनी देवताओं में प्रेवश कर गया। इतने में त्रिशीर्ष के पिता त्वष्ट्र प्रजापति ने अपने पुत्र की मृत्यु पर दुखी होकर अपनी एस जटा काटकर होम कुंड में फेंक दिया। इस जटा से वृत्रासुर नामक एक राक्षस ने जन्म लिया। बड़े होने पर वह सभी लोकों पर अधिकार करने लगा। 

इंद्र वृत्रासुर के आतंक से भयभीत होकर उससे मैत्री करके स्वर्ग पर शासन करते रहे। लेकिन भूदेवी पाप के भार से विचलित हुई और देवनगर अमरावती में जाकर इंद्र से निवेदन किया, "मैं इस पाप का भार नहीं वहन कर सकती। आन इन पापियों से पृथ्वी को मुक्त कर दीजिए।"

इंद्र ने भूमाता को सांत्वना देकर भेज दिया। इसके बाद समस्त देवताओं को बुलाकर उन्हें भूलोक में मानवों के रूप में जन्म लेने का आदेश दिया। सभी देवता पृथ्वी पर राजवंशों में पैदा हुए। उस समय इंद्र का दिव्य तेज यम और वायु रूपों में कुंती देवी के गर्भ से युधिष्ठिर और भीम के रूप में अवतरित हुए। इंद्र स्वयं अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुए। इंद्र के ही दिव्य तेज का एक अंश अश्विनी देवताओं के रूप में माद्रि के गर्भ से नकुल और सहदेव के रूप में उत्पन्न हुए। 

इस घटना के थोड़े दिनों के बाद इंद्र की पत्नी शची देवी महराजा द्रुपद के यहां अग्नि कुंड से द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई। द्रौपदी के पांच पति पांडव इंद्र के दिव्य तेज से उत्पन्न हुए थे। इसलिए द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी पांचाली बन गई। पक्षियों के मुंह से अपनी शंकाओं का समाधान पाकर महर्षि जैमिनी परमानंदित हुए।