कैसे हुई शिवलिंग और पार्वती भग की पूजा की उत्पत्ति

नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शन्कराय च मयस्करय च नमः शिवाय च शिवतराय च।। ईशानः सर्वविध्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रम्हाधिपतिर्ब्रम्हणोधपतिर्ब्रम्हा शिवो मे अस्तु सदाशिवोम।। तत्पुरषाय विद्म्हे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।। 

भगवान शिव को सभी विद्याओं के ज्ञाता होने के कारण जगत गुरु भी कहा गया है। भोले शंकर की आराधना से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। शिव की आराधना किसी भी रूप में की जा सकती है। शिव अनादि तथा अनंत हैं। धर्म शास्त्रो में भगवान शिव को जगत पिता बताया गया हैं, क्योकि भगवान शिव सर्वव्यापी एवं पूर्ण ब्रह्म हैं। हिंदू संस्कृति में शिव को मनुष्य के कल्याण का प्रतीक माना जाता हैं। शिव शब्द के उच्चारण या ध्यान मात्र से ही मनुष्य को परम आनंद प्रदान करता हैं। जिस तरह निराकार रूप में केवल ध्यान करने से भोले शंकर प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार साकार रूप में श्रद्धा से शिवलिंग की उपासना से भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न किया जाता है। 

शिवलिंग जो कि भगवान शंकर का प्रतीक है| उनके निश्छल ज्ञान और तेज़ का यह प्रतिनिधित्व करता है। ‘शिव’ का अर्थ है – ‘कल्याणकारी’। ‘लिंग’ का अर्थ है – ‘सृजन’। सर्जनहार के रूप में उत्पादक शक्ति के चिन्ह के रूप में लिंग की पूजा होती है। स्कंद पुराण में भी लिंग का अर्थ लय लगाया गया है। लय ( प्रलय) के समय अग्नि में सब भस्म हो कर शिवलिंग में समा जाता है और सृष्टि के आदि में लिंग से सब प्रकट होता है। लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और ऊपर प्रणवाख्य महादेव स्थित हैं। क्या आप जानते हैं शिवलिंग और पार्वती भग की पूजा की उत्पत्ति कैसे हुई? 

धर्म शास्त्रों के अनुसार, दारू नाम का एक वन था , वहां के निवासियों की स्त्रियां उस वन में लकड़ी लेने गईं , महादेव शंकर जी नंगे कामियों की भांति वहां उन स्त्रियों के पास पहुंच गये ।यह देखकर कुछ स्त्रियां व्याकुल हो अपने-अपने आश्रमों में वापिस लौट आईं , परन्तु कुछ स्त्रियां उन्हें आलिंगन करने लगीं। उसी समय वहां ऋषि लोग आ गये। महादेव जी को नंगी स्थिति में देखकर कहने लगे कि -‘‘हे वेद मार्ग को लुप्त करने वाले तुम इस वेद विरूद्ध काम को क्यों करते हो ?‘‘ 

यह सुन शिवजी ने कुछ न कहा ,तब ऋषियों ने उन्हें श्राप दे दिया कि – ‘‘तुम्हारा यह लिंग कटकर पृथ्वी पर गिर पड़े‘‘ उनके ऐसा कहते ही शिवजी का लिंग कट कर भूमि पर गिर पड़ा और आगे खड़ा हो अग्नि के समान जलने लगा , वह पृथ्वी पर जहां कहीं भी जाता जलता ही जाता था जिसके कारण सम्पूर्ण आकाश , पाताल और स्वर्गलोक में त्राहिमाम् मच गया , यह देख ऋषियों को बहुत दुख हुआ । इस स्थिति से निपटने के लिए ऋषि लोग ब्रह्मा जी के पास गये , उन्हें नमस्ते कर सब वृतान्त कहा , तब – ब्रह्मा जी ने कहा – आप लोग शिव के पास जाइये। 

शिवजी ने इन ऋषियों को अपनी शरण में आता हुआ देखकर बोले – हे ऋषि लोगों ! आप लोग पार्वती जी की शरण में जाइये। इस ज्योतिर्लिंग को पार्वती के सिवाय अन्य कोई धारण नहीं कर सकता। यह सुनकर ऋषियों ने पार्वती की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया। तब पार्वती ने उन ऋषियों की आराधना से प्रसन्न होकर उस ज्योतिर्लिंग को अपनी योनि में धारण किया। तभी से ज्योतिर्लिंग पूजा तीनों लोकों में प्रसिद्ध हुई तथा उसी समय से शिवलिंग व पार्वतीभग की प्रतिमा या मूर्ति का प्रचलन इस संसार में पूजा के रूप में प्रचलित हुआ।

शहीद होने के बाद भी 45 वर्षों से सरहद पर कर रहा है ड्यूटी!

सोचिए क्या कोई सैनिक मृत्यु पश्चात भी अपनी ड्यूटी कर सकता है ? क्या किसी मृत सैनिक की आत्मा, अपना कर्तव्य निभाते हुए देश की सीमा की रक्षा कर सकती है ? आप सब को यह सवाल अजीब से लग सकते है, आप सब कह सकते है की भला ऐसा कैसे मुमकिन है ? पर सिक्किम के लोगो और वहां पर तैनात सैनिको से अगर आप पूछेंगे तो वो कहेंगे की ऐसा पिछले 45 सालो से लगातार हो रहा है। उन सबका मानना है की पंजाब रेजिमेंट के जवान हरभजन सिंह की आत्मा पिछले 45 सालो से लगातार देश की सीम की रक्षा कर रही है। सैनिको का कहना है की हरभजन सिंह की आत्मा, चीन की तरफ से होने वाले खतरे के बारे में पहले से ही उन्हें बता देती है। और यदि भारतीय सैनिको को चीन के सैनिको का कोई भी मूवमेंट पसंद नहीं आता है तो उसके बारे में वो चीन के सैनिको को भी पहले ही बता देते है ताकि बात ज्यादा नहीं बिगड़े और मिल जुल कर बातचीत से उसका हल निकाल लिया जाए। आप चाहे इस पर यकीं करे या ना करे पर खुद चीनी सैनिक भी इस पर विश्वास करते है इसलिए भारत और चीन के बीच होने वाली हर फ्लैग मीटिंग में हरभजन सिंह के नाम की एक खाली कुर्सी लगाईं जाती है ताकि वो मीटिंग अटेंड कर सके।

हरभजन सिंह का जन्म 30 अगस्त 1946 को, जिला गुजरावाला जो कि वर्तमान में पाकिस्तान में है, हुआ था। हरभजन सिंह 24वीं पंजाब रेजिमेंट के जवान थे, जो की 1966 में आर्मी में भारत हुए थे। पर मात्र 2 साल की नौकरी करके 1968 में, सिक्किम में, एक दुर्घटना में मारे गए। दो दिन की तलाशी के बाद भी जब उनका शव नहीं मिला तो उन्होंने खुद अपने एक साथी सैनिक के सपने में आकर अपनी शव की जगह बताई। सवेरे सैनिकों ने बताई गई जगह से हरभजन का शव बरामद अंतिम संस्कार किया। हरभजन सिंह के इस चमत्कार के बाद साथी सैनिकों की उनमें आस्था बढ़ गई और उन्होंने उनके बंकर को एक मंदिर का रूप दे दिया। हालांकि जब बाद में उनके चमत्कार बढ़ने लगे और वो विशाल जन समूह की आस्था का केंद्र हो गए तो उनके लिए एक नए मंदिर का निर्माण किया गया जो की बाबा हरभजन सिंह मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर गंगटोक में जेलेप्ला दर्रे और नाथुला दर्रे के बीच, 13000 फीट की ऊंचाई पर स्तिथ है। पुराना बंकर वाला मंदिर इससे 1000 फीट ज्यादा ऊंचाई पर स्तिथ है। मंदिर के अंदर बाबा हरभजन सिंह की एक फोटो और उनका सामान रखा है। बाबा हरभजन सिंह अपनी मृत्यु के बाद से लगातार ही अपनी ड्यूटी देते आ रहे है। इनके लिए उन्हें बाकायदा तनख्वाह भी दी जाती है, उनकी सेना में एक रेंक है, नियमानुसार उनका प्रमोशन भी किया जाता है।

यहां तक की उन्हें कुछ साल पहले तक 2 महीने की छुट्टी पर गांव भी भेजा जाता था। इसके लिए ट्रैन में सीट रिजर्व की जाती थी, तीन सैनिकों के साथ उनका सारा सामान उनके गांव भेजा जाता था और दो महीने पूरे होने पर फिर वापस सिक्किम लाया जाता था। जिन दो महीने बाबा छुट्टी पर रहते थे उस दरमियान पूरा बॉर्डर हाई अलर्ट पर रहता था, क्योकि उस वक्त सैनिकों को बाबा की मदद नहीं मिल पाती थी, लेकिन बाबा का सिक्किम से जाना और वापस आना एक धार्मिक आयोजन का रूप लेता जा रहा था, जिसमें की बड़ी संख्या में जनता इकट्ठी होने लगी थी। कुछ लोगों इस आयोजन को अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला मानते थे इसलिए उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया क्योंकि सेना में किसी भी प्रकार के अंधविश्वास की मनाही होती है। लिहाजा सेना ने बाबा को छुट्टी पर भेजना बंद कर दिया। अब बाबा साल के बारह महीने ड्यूटी पर रहते है। मंदिर में बाबा का एक कमरा भी है, जिसमें प्रतिदिन सफाई करके बिस्तर लगाए जाते है। बाबा की सेना की वर्दी और जूते रखे जाते हैं। कहते है की रोज सफाई करने पर उनके जूतों में कीचड़ और चद्दर पर सलवटें पाई जाती हैं।

बाबा हरभजन सिंह का मंदिर सैनिको और लोगो दोनों की ही आस्थाओ का केंद्र है। इस इलाके में आने वाला हर नया सैनिक सबसे पहले बाबा के धोक लगाने आता है। इस मंदिर को लेकर यहाँ के लोगो में एक अजीब सी मान्यता यह है की यदि इस मंदिर में बोतल में भरकर पानी को तीन दिन के लिए रख दिया जाए तो उस पानी में चमत्कारिक औषधीय गुण आ जाते है। इस पानी को पीने से लोगो के रोग मिट जाते है। इसलिए इस मंदिर में नाम लिखी हुई बोतलों का अम्बार लगा रहता है। यह पानी 21 दिन के अंदर प्रयोग में लाया जाता है और इस दौरान मांसाहार और शराब कआ सेवन निषेध होता है। बाबा का बंकर, जो की नए मंदिर से 1000 फ़ीट की ऊंचाई पर है, लाल और पीले रंगो से सज़ा है। सीढ़िया लाल रंग की और पिलर पीले रंग के। सीढ़ियों के दोनों साइड रेलिंग पर नीचे से ऊपर तक घंटिया बंधी है। बाबा के बंकर में कॉपिया रखी है। इन कॉपियों में लोग अपनी मुरादे लिखते है ऐसा माना जाता है की इनमे लिखी गई हर मुराद पूरी होती है।

श्रद्धा व उल्लास का पर्व है बसंत पंचमी


बसंत पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है| माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसंत ऋतु का आरंभ होता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। बसंत को ऋतुओं का राजा कहा गया है क्योंकि इस समय पंच-तत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। बसंत ऋतु आते ही आकाश एकदम स्वच्छ हो जाता है, अग्नि रुचिकर तो जल पीयूष के सामान सुखदाता और धरती उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता। इस ऋतु के आते ही हवा अपना रुख बदल देती है जो सुख की अनुभूति कराती है| धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं वहीँ शिशिर की प्रताड़ना से तंग निर्धन सुख की अनुभूत करने लगते हैं| सच में! प्रकृति तो मानों उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना! पुनर्जन्म जो हो जाता है उसका। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्ल्व, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षणा बना देता है।

प्राचीनकाल से इसे ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है। जो शिक्षाविद भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं, वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए वसंत पंचमी का है। चाहे वे कवि हों या लेखक, गायक हों या वादक, नाटककार हों या नृत्यकार, सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और मां सरस्वती की वंदना से करते हैं। बसंत पंचमी को सभी शुभ कार्यों के लिए अत्यंत शुभ मुहूर्त माना गया है। गृह प्रवेश के लिए बसंत पंचमी को पुराणों में भी अत्यंत श्रेयस्कर माना गया है। बसंत पंचमी को अत्यंत शुभ मुहूर्त मानने के पीछे अनेक कारण हैं। यह पर्व अधिकतर माघ मास में ही पड़ता है। माघ मास का भी धार्मिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इस माह में पवित्र तीर्थों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। दूसरे इस समय सूर्यदेव भी उत्तरायण होते हैं।

क्या कहते हैं मिथक बसंत पंचमी हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की याद दिलाता है। यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर श्रीराम को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी उस शिला को पूजते हैं, जहां श्रीराम आकर बैठे थे।

वहीं शबरी माता का मंदिर भी है। ये दिन हमें पृवीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध है। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृवीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृवीराज को संदेश दिया। ‘‘चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान‘‘- पृवीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। कहा जाता है कि उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृवीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। (1192 ई) यह घटना भी बसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

कामदेवपूजन का भी दिन प्राचीन काल में बसंत ऋतु का स्वागत करने के लिए माघ महीने के पांचवे दिन एक बड़ा जश्न मनाया जाता था जिसमें विष्णु और कामदेव की पूजा होती है। भारत और भारतीयता से प्रेम करने वाले, इस दिन और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। जो महत्व सैनिकों के लिए अपने शस्त्रों और विजयादशमी का है, जो विद्वानों के लिए अपनी पुस्तकों और व्यास पूर्णिमा का है, जो व्यापारियों के लिए अपने तराजू, बाट, बहीखातों और दीपावली का है, वही महत्व कलाकारों के लिए बसंत पंचमी का है। सर्वश्रेष्ठ ऋतुबसंत, बेशक ऋतुराज यानी सर्वश्रेष्ठ ऋतु है। इस समय पंचतत्व – जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। अपना मोहक रूप दिखाते हैं। आकाश स्वच्छ वायु सुहावनी, अग्नि (सूर्य) रुचिकर तो जल पीयूष के समान सुखदाता और धरती तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है।

ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता। धनी जहां प्रकिृत के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने के सुख की अनुभूति करने लगते हैं। बसंत में प्रति प्यारी व उन्मादी हो जाती है। उसका पुनर्जन्म जो हो जाता है। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवागत, नवपल्ल्व, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षण बना देता है।

बसंत पंचमी का महत्व-

बसंत पंचमी पर न केवल पीले रंग के वस्त्र पहने जाते हैं, अपितु खाद्य पदार्थों में भी पीले चावल पीले लड्डू व केसर युक्त खीर का उपयोग किया जाता है, जिसे बच्चे तथा बड़े-बूढ़े सभी पसंद करते है। अतः इस दिन सब कुछ पीला दिखाई देता है और प्रकृति खेतों को पीले-सुनहरे रंग से सजा देती है, तो दूसरी ओर घर-घर में लोग के परिधान भी पीले दृष्टिगोचर होते हैं। नवयुवक-युवती एक -दूसरे के माथे पर चंदन या हल्दी का तिलक लगाकर पूजा समारोह आरम्भ करते हैं। तब सभी लोग अपने दाएं हाथ की तीसरी उंगली में हल्दी, चंदन व रोली के मिश्रण को माँ सरस्वती के चरणों एवं मस्तक पर लगाते हैं, और जलार्पण करते हैं। धान व फलों को मूर्तियों पर बरसाया जाता है। गृहलक्ष्मी फिर को बेर, संगरी, लड्डू इत्यादि बांटती है। इस ऋतु को फूलों का मौसम भी कहा जा सकता है| इस समय ना तो ठण्ड होती है और ना ही गरमी होती है| इस समय तक आमों के वृक्षों पर आम के लिए मंजरी आनी आरम्भ हो जाती है| जिन व्यक्तियों को डायबिटीज, अतिसार, रक्त विकार की समस्या है उन्हें आम की मंजरी के सेवन से इन समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है| इसलिए वसंत पंचमी के दिन आम की मंजरी अथवा आम के फूलों को हाथों पर मलना चाहिए| इससे उन्हें उपरोक्त समस्याओं से मुक्ति मिल सकती है|

बसंत पंचमी की कथा-

सृष्टि के प्रारंभिक काल में भगवान विष्णु की आज्ञा से ब्रह्मा ने जीवों, खासतौर पर मनुष्य योनि की रचना की। अपनी सर्जना से वे संतुष्ट नहीं थे। एक दिन वह अपनी बनाई हुई सृष्टि को देखने के लिए धरती पर भ्रमण करने के लिए आए| ब्रह्मा जी को अपनी बनाई सृष्टि में कुछ कमी का अहसास हो रहा था, लेकिन वह समझ नहीं पा रहे थे कि किस बात की कमी है| उन्हें पशु-पक्षी, मनुष्य तथा पेड़-पौधे सभी चुप दिखाई दे रहे थे| तब उन्हें आभास हुआ कि क्या कमी है| वह सोचने लगे कि ऎसा क्या किया जाए कि सभी बोले, गाएं और खुशी में झूमे| ऎसा विचार करते हुए ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डल से जल लेकर कमल पुष्पों तथा धरती पर छिड़का| जल छिड़कने के बाद श्वेत वस्त्र धारण किए हुए एक देवी प्रकट हुई| इस देवी के चार हाथ थे| एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ में कमल, तीसरे हाथ में माला तथा चतुर्थ हाथ में पुस्तक थी| ब्रह्मा जी ने देवी को वरदान दिया कि तुम सभी प्राणियों के कण्ठ में निवास करोगी| सभी के अंदर चेतना भरोगी, जिस भी प्राणी में तुम्हारा वास होगा वह अपनी विद्वता के बल पर समाज में पूज्यनीय होगा| ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम्हें संसार में देवी भगवती के नाम से जाना जाएगा| ब्रह्मा जी ने देवी सरस्वती को वरदान देते हुए कहा कि तुम्हारे द्वारा समाज का कल्याण होगा इसलिए समाज में रहने वाले लोग तुम्हारा पूजन करेगें| इसलिए प्राचीन काल से वसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा की जाती है अथवा कह सकते हैं कि इस दिन को सरस्वती के जन्म दिवस के रुप में मनाया जाता है|

‘प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु’

अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है।

इसी दिन शबरी की कुटिया में पधारे थे भगवान श्रीराम

बसंत पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है| माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसंत ऋतु का आरंभ होता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। बसंत को ऋतुओं का राजा कहा गया है क्योंकि इस समय पंच-तत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। बसंत ऋतु आते ही आकाश एकदम स्वच्छ हो जाता है, अग्नि रुचिकर तो जल पीयूष के सामान सुखदाता और धरती उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता। इस ऋतु के आते ही हवा अपना रुख बदल देती है जो सुख की अनुभूति कराती है|

बसंत पंचमी हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की याद दिलाता है। यह हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर श्रीराम को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरों वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। बसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी उस शिला को पूजते हैं, जहां श्रीराम आकर बैठे थे। वहीं शबरी माता का मंदिर भी है।

क्यों उम्रदराज लड़कियों की ओर आकर्षित हो रहे लड़के?


हमारे चारों तरफ एक मकड़ जाल सा बुना हुआ है यानी हमारे तार एक-दूसरे से बुने हुए हैं। कहीं कोई एक टूट जाए तो दूसरा उसे जोड़े रखता है। इसी तर्ज पर आज के लड़कों ने अपनी दुनिया बनाने की सोच रखी है। पिछले कुछ समय से देखा गया है कि कम उम्र के लड़के अपने से बड़ी उम्र की लड़िकयों की ओर आकर्षित हो रहे हैं और उन्हें जीवनसाथी भी बना रहे हैं।

शादी या प्रेम के मामले में लड़कों की जिम्मेदार साथी की चाहत होती है। चूंकि आधुनिक युग में चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल रहता है और महिलाएं भी इसका हिस्सा रहती हैं। ऐसे में बड़े उम्र की महिलाओं का जिम्मेदार होना स्वाभाविक है और यही वजह है कि लड़के उन्हें पसंद करने लगे हैं ताकि कोई परेशानी होने पर वह उनकी जिम्मेदारी निभा सकें।

अक्सर देखा गया है कि पारिवारिक या आर्थिक कारणों से बड़ी उम्र की महिलाएं शादीशुदा नहीं होतीं और जीवन के तमाम संघर्ष अकेले ही करती हैं। जाहिर है ऐसे हालात उन्हें आत्मविासी बना देते हैं और इसीलिए लड़के उनपर भरोसा करते हैं।

अक्सर बड़ी उम्र की महिलाएं स्वतंत्र, नौकरी पेशा और पूरी तरह से आत्मनिर्भर होती हैं। वे शादी के बाद पतियों की लाइफ में कोई हस्तक्षेप नहीं करती। ऐसे में पति अपने परिवार के प्रति बेफिक्र होकर अपने काम पर मन लगाता है। ऐसी महिलाएं भी लड़कों को खूब भाती हैं।

बड़ी उम्र की महिलाएं आम तौर पर अपने रिश्तों, कर्तव्यों और नौकरी के प्रति काफी ईमानदार होती हैं और एक रिलेशनिशप में आपको और क्या चाहिए? रिश्तों को लेकर बड़ी उम्र की महिलाओं का नजरिया एकदम साफ रहता है। उन्हें जिस्मानी या दिमागी या इमोशनल संबंधों को संभालना बखूबी आता है और इसलिए मर्द ऐसी महिलाओं को ज्यादा तवज्जो देते हैं। हर मर्द अपनी प्रेमिका या पत्नी में अपनी मां को देखना चाहता है जो कि निस्वार्थ भाव से उसे प्यार करती है। एक परिपक्व महिला में यह गुण पूर्ण रूप से होते हैं।

बड़ी उम्र की महिलाओं की लाइफ अमूमन सेट हो चुकी होती है, उनका करियर सेट होता है और जीवन में अब उन्हें क्या पाना है इसलिए भी लड़के ऐसी महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे हैं।

खलनायकी को नया आयाम देने वाले प्राण के जन्मदिन पर विशेष




”वो आवाज़ का जादू या गर्मी हो लहजे की, वो अन्दाज़ निराला हो या चमक हो चेहरे की, हम किसको करेँ याद और किसको भुलाएँ, तुम्हेँ देखते हैँ जितना, उतना तुम्हेँ चाहेँ” किसी की कही लाईनें प्राण साहब पर खूब जमती हैं। हिन्दी फिल्मों के जाने-माने अभिनेता प्राण का जिक्र आते ही आंखों के सामने एक ऐसा आकृति उभर कर आती है जो अपने हर किरदार में जान डाल देता था। हर किरदार उसके अभिनय से के रंग में नहा कर हकीकत का रूप लेकर खड़ा हो जाता है। हिन्दी फिल्मों के एक लोकप्रिय खलनायक और शानदार चरित्र अभिनेता प्राण की संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली को लोग कभी नहीं भूल सकते। सैकड़ों फिल्मों में अपने दमदार और ‘कातिलाना’ अभिनय से नकारात्मक भूमिका में भी प्राण फूंकने वाले अभिनेता प्राण का आज जन्मदिन है।

प्राण का जन्म 12 फरवरी 1920 को दिल्ली में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी कॉन्ट्रेक्टर थे और व्यापक दौरे किया करते थे। फील्ड में रहा करते थे। लिहाजा प्राण का सबसे ज्यादा लगाव अपनी मां से था। मां ने उनका काफी ख्याल रखा। उनकी एक लाड़ले बेटे की तरह देखरेख की। प्राण का पढ़ाई में मन ज्यादा नहीं लगता था। पढ़ाई उन्होंने मैट्रिक तक की। उसके बाद वे पढ़े नहीं। बतौर फोटोग्राफर लाहौर में अपना करियर शुरु करने वाले प्राण को 1940 में ‘यमला जट’ नामक फिल्म में पहली बार काम करने का अवसर मिला। उसके बाद प्राण ने पीछे नहीं देखा।

इसके बाद प्राण ने ‘चौधरी’ और फिर ‘खजांची’ में काम कियाजल्द ही प्राण लाहौर फिल्म उद्योग में खलनायक के तौर पर स्थापित हो गए। यह वह दौर था जब फिल्म जगत में अजित, के एन सिंह जैसे खलनायक मौजूद थे। प्राण 1942 में बनी ‘खानदान’ में नायक बन कर आए और इस फ़िल्म इनकी नायिका बनी नूरजहां। वर्ष 1947 में भारत आजाद हो गया। प्राण लाहौर से मुंबई आ गए। यहां उन्हें काफी संघर्ष करने के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘जिद्दी’ मिली। अभिनय का सफर शुरू हो गया। 350 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय करने वाले प्राण साहब एक ‘राम और श्याम’ के खलनायक का ऐसा किरदार निभाया जिसे देख कर हर कोई उनसे घृणा करने लगे। ‘उपकार’ के मंगल चाचा की भूमिका भी है, जिसे दर्शकों का बेइंतहा प्यार और सम्मान मिला। वहीँ जंजीर में प्राण ने दोस्ती की एक नयी मिशाल पेश की। उपकार, आँसू बन गये फूल और 1973 में प्राण को बेईमान फिल्म में सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के लिये फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया।

दर्शकों के बीच दमदार अभिनय की छाप छोड़ने वाले प्राण के बारे में बहुत कम लोगों को पता है कि वह अभिनेता नहीं, बल्कि एक फोटोग्राफर बनना चाहते थे, लेकिन भाग्य ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था। प्राण की फिल्मों में आने की कोई योजना नहीं थी। हुआ यूं कि एक बार लेखक मोहम्मद वली ने प्राण को एक पान की दुकान पर खड़े देखा, उस समय वह पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ के निर्माण की योजना बना रहे थे। पहली ही नजर में वली ने यह तय कर लिया कि वह अपनी इस फिल्म में प्राण को लेंगे, फिर क्या था.. उन्होंने प्राण को फिल्म के लिए राजी कर लिया। फिल्म ‘यमला जट’ 1940 में प्रदर्शित हुई और काफी हिट भी रही और इसके बाद तो प्राण ने फिर कभी पलटकर नहीं देखा। प्राण ने 1948 से 2007 तक सहायक अभिनेता के तौर पर काम किया, वह बॉलीवुड के ऐसे अभिनेता हैं, जिन्हें मुख्यत: खलनायक की भूमिका के लिए जाना जाता है।

प्राण ने शुरुआत में 1940 से 1947 तक नायक के रूप में फिल्मों में अभिनय किया। इसके अलावा खलनायक की भूमिका 1942 से 1991 तक जारी रखी। इसके बाद प्राण ने कई और पंजाबी फिल्मों में काम किया और लाहौर फिल्म जगत में सफल खलनायक के रूप में स्थापित हो गए। लाहौर फिल्म उद्योग में एक नकारात्मक अभिनेता की छवि बनाने में कामयाब हो चुके प्राण को हिंदी फिल्मों में पहला ब्रेक 1942 में फिल्म ‘खानदान’ से मिला। इस फिल्म की नायिका नूरजहां थीं। देश के बंटवारे के बाद प्राण ने लाहौर छोड़ दिया और मुंबई आ गए। लाहौर में प्राण तब तक फिल्म जगत का एक प्रतिष्ठित नाम बन चुके थे और नामचीन खलनायकों में शुमार हो गए थे, लेकिन हिंदी फिल्म जगत में उनकी शुरुआत आसान नहीं रही। मुंबई में उन्हें भी किसी नवोदित कलाकार की तरह ही संघर्ष करना पड़ा।

प्राण ने 18 अप्रैल 1945 को शुक्ला आहलुवालिया से शादी की। उनके तीन बच्चे हैं। दो लड़के अरविंद व सुनील और एक लड़की पिंकी है, जिनके साथ वह मुंबई आए। आज की तारीख में उनके परिवार में 5 पोते-पोतियां और 2 पड़पोते भी हैं। खेलों के प्रति प्राण का प्रेम सभी को पता है। 50 के दशक में उनकी अपनी फुटबॉल टीम ‘डायनॉमोस फुटबॉल क्लब’ काफी लोकप्रिय रही है। हास्य अभिनेता किशोर कुमार और महमूद के साथ वाली उनकी कई फिल्में भी काफी पसंद की गईं। किशोर कुमार के साथ फिल्म ‘नया अंदाज’, ‘आशा’, ‘बेवकूफ’, ‘हाफ टिकट’, ‘मन मौजी’, ‘एक राज’, ‘जालसाज’ जैसी यादगार फिल्में हैं तो महमूद के साथ ‘साधु और शैतान’ व ‘लाखों में एक’ काफी चर्चित रहीं। नब्बे दशक की शुरुआत से वह फिल्मों में अभिनय के प्रस्ताव को बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य के चलते अस्वीकार करने लगे, लेकिन वह करीबी अमिताभ बच्चन के घरेलू बैनर की फिल्म ‘मृत्युदाता’ और ‘तेरे मेरे सपने’ में नजर आए।

तिरछे होंठो से शब्दों को चबा-चबा कर बोलना ,सिगरेट के धुंओं का छल्ले बनाना और चेहरे के भाव को पल -पल बदलने में निपुण प्राण ने उस दौर में खलनायक को भी एक अहम पात्र के रूप में सिने जगत में स्थापित कर दिया । खलनायकी को एक नया आयाम देने वाले प्राण के पर्दे पर आते ही दर्शको के अंदर एक अजीब सी सिहरन होने लगती थी। प्राण की अभिनीत भूमिकाओं की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जितनी भी फिल्मों मे अभिनय किया उनमें हर पात्र को एक अलग अंदाज में दर्शकों के सामने पेश किया । रुपहले पर्दे पर प्राण ने जितनी भी भूमिकाएं निभायी उनमें वह हर बार नये तरीके से संवाद बोलते नजर आये। खलनायक का अभिनय करते समय प्राण उस भूमिका में पूरी तरह डूब जाते थे ।

प्राण अकेले ऐसे अभिनेता हैं, जिन्होंने कपूर खानदान की हर पीढ़ी के साथ काम किया। चाहे वह पृथ्वीराज कपूर हो, राजकपूर, शम्मी कपूर, शशि कपूर, रणधीर कपूर, राजीव कपूर, करिश्मा कपूर, करीना कपूर। सदी के खलनायक प्राण की जीवनी भी लिखी जा चुकी है। उसका शीर्षक ‘प्राण एंड प्राण’ रखा गया है। पुस्तक का यह शीर्षक इसलिए रखा गया है कि प्राण की ज्यादातर फिल्मों में उनका नाम सभी कलाकारों के पीछे लिखा हुआ आता था। कभी-कभी उनके नाम को इस तरह पेश किया जाता था ‘अबव ऑल प्राण’। प्राण सिकंद को सन् 2001 में भारत सरकार ने कला क्षेत्र में पद्मभूषण से सम्मानित किया। फिल्म ‘उपकार’ (1967), ‘आंसू बन गए फूल’ (1969) और ‘बेईमान’ (1972) के लिए प्राण को सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। 1997 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से भी नवाजा गया। सन् 2013 में उन्हें फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहेब फाल्के सम्मान भी प्रदान किया गया।

जीवन के आखिरी सालों में प्राण व्हील चेयर पर आ गए थे। सन् 1998 में प्राण में दिल का दौरा पड़ा था। उस समय वह 78 साल के थे, फिर भी मौत को उन्होंने पटकनी दे दी थी, लेकिन 12 जुलाई, 2013 को वह हम सबको अलविदा कह गए। प्राण भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन अपने दमदारा अभिनय के कारण वह हमेशा दर्शकों के जेहन में जिंदा रहेंगे।

बसंत पंचमी के दिन क्यों होती है कामदेव की पूजा

बसंत पंचमी हिन्दुओं का एक प्रमुख त्यौहार है| माघ महीने की शुक्ल पंचमी से बसंत ऋतु का आरंभ होता है। बसंत का उत्सव प्रकृति का उत्सव है। सतत सुंदर लगने वाली प्रकृति बसंत ऋतु में सोलह कलाओं से खिल उठती है। बसंत को ऋतुओं का राजा कहा गया है क्योंकि इस समय पंच-तत्व अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। बसंत ऋतु आते ही आकाश एकदम स्वच्छ हो जाता है, अग्नि रुचिकर तो जल पीयूष के सामान सुखदाता और धरती उसका तो कहना ही क्या वह तो मानों साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाता।

इस ऋतु के आते ही हवा अपना रुख बदल देती है जो सुख की अनुभूति कराती है| धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं वहीँ शिशिर की प्रताड़ना से तंग निर्धन सुख की अनुभूत करने लगते हैं| सच में! प्रकृति तो मानों उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना! पुनर्जन्म जो हो जाता है उसका। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्ल्व, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षणा बना देता है।

श्रीमद्भगवदगीता के अनुसार श्री कृष्ण ने खुद कोवसंत माना है। कहा जाता है कि इस ऋतु में भगवान श्री कृष्ण स्वयं भूलोक पर प्रत्यक्ष रूप से प्रकट होते हैं। लेकिन आप जानते है कि इस दिन कमादेव की भी पूजा की जाती है। हां जी यह सच है। जानिए ऐसा क्यों है।

वसंत पंचमी के दिन माता सरस्वती के साथ-साथ कामदेव और रति की भी पूजा की जाती है। इसका मुख्य कारण है आपके दांपत्य जीवन में हमेशा सुखमय बना रहा। कामदेव और माता रति को गृहस्थ जीवन में प्रेम, सुख, समृद्धि और शांति का प्रतीक माना जाता हैं, क्योंकि जहां ये तीनों गुण विद्यमान होते हैं, उनके गृहस्थ जीवन के सफल होने की संभावना उतनी ही ज्यादा होती है। इसी कारण बंसत पंचमी को तीनों देवी-देवताओं की पूजा की जाती हैं। जिससे कि समृद्धि, प्रेम और ज्ञान की प्राप्ति हो सकें।

ये हैं हनुमान जी के 5 सगे भाई….

क्या आपको पता है भगवान श्रीराम के भक्त हनुमान जी के अन्य भाई भी थे। यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि भक्तो में सबसे बड़े भक्त हनुमान जी महाराज के कितने भाई बहन थे। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार हनुमान जी महाराज के सगे 5 भाई थे। ‘उन पांचों के सुन्दर नारी अमित बाल बच्चा महतारी’ पांचों भाई विवाहित थे उनके बच्चे भी थे इस बात का विस्तार से उल्लेख ‘ब्रह्मांडपुराण’ में मिलता है।

ब्रह्मांडपुराण के अनुसार, वानर राज केसरी के 6 पुत्र थे। इनमें सबसे बड़े हनुमान जी थे उनके बाद क्रमशः मतिमान, श्रुतिमान, केतुमान, गतिमान, धृतिमान थे। इन सभी की संतान भी थीं। जिससे इनका वंश वर्षों तक चला। इसी ग्रंथ में उल्लेख है कि बजरंगबली के पिता केसरी ने अंजना से विवाह किया था। केसरी वानर राज थे।

‘ब्रह्मांडपुराण’ में ल‍िखा है कि केसरी ने कुंजर की पुत्री अंजना को पत्नी के रूप में स्वीकार किया। अंजना रूपवती थीं। इन्हीं के गर्भ से प्राणस्वरूप वायु के अंश से हनुमान का जन्म हुआ। इसी प्रसंग में हनुमान के अन्य भाइयों के बारे में बताया गया है।

वहीं, राम चरितमानस में कहा गया है कि भगवान श्रीराम भी हनुमान जी के भाई थे। कथा के अनुसार, राजा दशरथ की तीन रानियां थीं लेकिन संतान सुख के अभाव के कारण दशरथ जी दुःखी थे। गुरु वशिष्ठ की आज्ञा से दशरथ जी ने श्रृंग ऋषि को पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए आमंत्रित किया गया। यज्ञ के सम्पन्न होने पर अग्निकुंड से दिव्य खीर से भरा हुआ स्वर्ण पात्र हाथ में लिए अग्नि देव प्रकट हुए और दशरथ से बोले, ‘‘देवता आप पर प्रसन्न हैं। यह दिव्य खीर अपनी रानियों को खिला दीजिए। इससे आपको चार दिव्य पुत्रों की प्राप्ति होगी।

राजा दशरथ शीघ्रता से अपने महल में पहुंचे। उन्होंने खीर का आधा भाग महारानी कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे भाग का आधा भाग रानी सुमित्रा को दिया इसके बाद जो शेष बचा वह कैकयी को दे दिया। सबसे अन्त में प्रसाद मिलने से कैकयी ने क्रोध में भरकर दशरथ को कठोर शब्द कहे। उसी समय भगवान शंकर की प्रेरणा से एक चील वहाँ आयी और कैकयी की हथेली पर से प्रसाद उठाकर अंजन पर्वत पर तपस्या में लीन अंजनी देवी के हाथ में रख दिया। प्रसाद ग्रहण करने से अंजनी भी राजा दशरथ की तीन रानियों की तरह गर्भवती हुई।

समय आने पर दशरथ के घर राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। दूसरी और अंजनी ने श्री हनुमानजी को जन्म दिया। इस तरह प्रगट हुए संकट और दुःखों को दूर करने वाले राम और हनुमान। एक ही खीर से राम और हनुमान का जन्म होने से दोनों भाई माने जाते हैं।

जानिए महिलाओं को क्यों नहीं पहनना चाहिए सोना

भारत एक ऐसा देश है जहां पर कई धर्म है। इन धर्मों में कई तरह के रीति-रिवाज और परंपराए है। खासतौर में हिंदू धर्म में। हिंदू धर्म में एक चीज सबसे अलग है वो है किसी महिला का सोलह श्रृंगार। जो पूरी दुनिया में भी प्रसिद्ध है। परंपराओं की दृष्टि से तो इनके महत्व रोचक हैं। लड़कियों व स्त्रियों के पायलों की छुन-छुन किसको नहीं प्रिय लगती। जब कोई लड़की या स्त्री पायल पहनकर चलती है तो पायलों से निकलने वाली ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं लगती है। लेकिन आप जानते है कि महिलाए अपने पैरों में सोने की बनी हुई पायल या बिछिया नहीं पहन सकती है। इसके पीछे क्या कारण है।

मान्यता है कि सोने के बने आभूषणों की तासीर गर्म होती है जबकि चांदी की तासीर शीतल होती है। इसी कारण आयुर्वेद के अनुसार माना जाता है कि मनुष्य का सिर ठंडा और पैर गर्म रहना चाहिए। यही वजह है कि सिर पर सोना और पैरों में चांदी के आभूषण ही धारण करने चाहिए। इससे सिर से उत्पन्न ऊर्जा पैरों में और चांदी से उत्पन्न ठंडक सिर में जाएगी। इससे सिर ठंडा व पैर गर्म रहेंगे।

आपको पता है पैरों में चांदी से बनी चीजें पहनने से आप कई बीमारियों से बच भी जाते है। चांदी की पायल पहनने से पीठ, एड़ी, घुटनों के दर्द और हिस्टीरिया रोगों से राहत मिलती है। सिर और पांव दोनों में सोने के आभूषण पहनने से मस्तिष्क और पैर दोनों में समान गर्म ऊर्जा प्रवाहित होगी, जिससे इंसान रोगग्रस्त हो सकता है। वहीँ, वास्तु के अनुसार, पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है इसके अलावा दैवीय शक्तियां अधिक सक्रिय हो जाती है यह भी इसका एक कारण हो सकता है| इसके अलावा पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है।

मौनी अमावस्या आज, जानिए इस दिन क्यों रखते हैं मौन

नई दिल्ली: किसी भी महीने की अमावस्या जब सोमवार को होती है, तो उसे सोमवती अमावस्या कहते है| हिन्दू ग्रंथों में माघ मास को बेहद पवित्र माना जाता है। माघ मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहते हैं। ग्रंथों में ऐसा उल्लेख है कि इसी दिन से द्वापर युग का शुभारंभ हुआ था। दुख दरिद्र और सभी को सफलता दिलाने वाली मौनी अमावस्या 08 जनवरी दिन सोमवार को पड़ रही है। इस बार अमावस्या सोमवार के दिन पड़ने से सोने पर सुहागा से कम नहीं है।

माघ मास की अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है| इस दिन सूर्य तथा चन्द्रमा गोचरवश मकर राशि में आते हैं| ऐसा माना गया है कि इस दिन सृष्टि के निर्माण करने वाले मनु ऋषि का जन्म भी माना जाता है| लोगों का यह भी मानना है कि इस दिन ब्रह्मा जी ने मनु महाराज तथा महारानी शतरुपा को प्रकट करके सृष्टि की शुरुआत की थी, इसलिए भी इस अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाता है|

मौनी अमावस्या में स्नान करने की विधि-

माघ मास की अमावस्या जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं। यह योग पर आधारित महाव्रत है । मान्यताओं के अनुसार इस दिन पवित्र संगममें देवताओं का निवास होता है इसलिए इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस मास को भी कार्तिक के समान पुण्य मास कहा गया है। गंगा तट पर इस करणभक्त जन एक मास तक कुटी बनाकर गंगा सेवन करते हैं। इस दिन व्यक्ति विशेष को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान, पुण्य तथा जाप करने चाहिए| यदि किसी व्यक्ति की सामर्थ्य त्रिवेणी के संगम अथवा अन्य किसी तीर्थ स्थान पर जाने की नहीं है तब उसे अपने घर में ही प्रात: काल उठकर दैनिक कर्मों से निवृत होकर स्नान आदि करना चाहिए अथवा घर के समीप किसी भी नदी या नहर में स्नान कर सकते हैं क्योंकि पुराणों के अनुसार इस दिन सभी नदियों का जल गंगाजल के समान हो जाता है| स्नान करते हुए मौन धारण करें और जाप करने तक मौन व्रत का पालन करें| इस दिन व्यक्ति प्रण करें कि वह झूठ, छल-कपट आदि की बातें नहीं करेगें|

इस दिन क्यों रखा जाता है मौन-

विद्वानों के अनुसार इस दिन व्यक्ति विशेष को मौन व्रत रखना चाहिए| मौन व्रत का अर्थ है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखना चाहिए| धीरे-धीरे अपनी वाणी को संयत करके अपने वश में करना ही मौन व्रत है| कई लोग इस दिन से मौन व्रत रखने का प्रण करते हैं | वह व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि कितने समय के लिए वह मौन व्रत रखना चाहता है|

प्रत्येक मनुष्य के अंदर तीन प्रकार का मैल होता है| कर्म का मैल, भाव का मैल तथा अज्ञान का मैल| इन तीनों मैलों को त्रिवेणी के संगम पर धोने का महत्व है| त्रिवेणी के संगम पर स्नान करने से व्यक्ति के अंदर स्थित मैल का नाश होता है और उसकी अन्तरआत्मा स्वच्छ होती है, इसलिए व्यक्ति को इस दिन मौन व्रत धारण करके ही स्नान करना चाहिए क्योंकि ऐसा माना जाता है कि त्रिवेणी के संगम में मौनी अमावस्या के दिन स्नान करने से सौ हजार राजसूय यज्ञ के बराबर फल की प्राप्ति होती है अथवा इस दिन संगम में स्नान करना और अश्वमेघ यज्ञ करना दोनों के फल समान है|

मौनी अमावस्या की कथा-

प्राचीन समय में कांचीपुरी में देवस्वामी नाम का ब्राह्मण रहता था| उसकी पत्नी का नाम धनवती था| देवस्वामी की आठ संताने थी| सात पुत्र और एक पुत्री थी| उसकी पुत्री का नाम गुणवती था| ब्राह्मण ने अपने सातों पुत्र के विवाह के बाद अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तलाश में अपने सबसे बडे़ पुत्र को भेजा| उसी दौरान किसी ज्योतिषी ने कन्या की कुण्डली देखकर कहा कि विवाह समाप्त होते ही वह विधवा हो जाएगी| इससे देवस्वामी तथा अन्य सदस्य चिन्तित हो गये| देवस्वामी ने गुणवती के वैधव्य दोष के निवारण के बारे में ज्योतिषी से पूछा तब उसने कहा कि सिंहल द्वीप में सोमा नाम की धोबिन रहती है| सोमा का पूजन करने से गुणवती के वैधव्य दोष का निवारण हो सकता है| आप किसी भी प्रकार सोमा को विवाह होने से पहले यहाँ बुला लें| यह सुनने के पश्चात गुणवती और उसका सबसे छोटा भाई सिंहल द्वीप की ओर चल दिए| सिंहल द्वीप सागर के मध्य स्थित था| दोनों बहन-भाई सागर तट पर एक वृक्ष के नीचे सागर को पार करने की प्रतीक्षा में बैठ गए| दोनों को सागर पार करने की चिन्ता थी उसी वृक्ष के ऊपर एक गिद्ध ने अपना घोंसला बना रखा था| उस घोंसले में गिद्ध के बच्चे रहते थे जब शाम को गिद्ध अपनी पत्नी के साथ घोंसलें में लौटा तब उसके बच्चों ने बताया कि इस वृक्ष के नीचे बहन-भाई सुबह से भूखे-प्यासे बैठे हैं| जब तक वह दोनों खाना नहीं खाएंगें, हम भी भोजन ग्रहण नहीं करेगें|

गिद्ध ने दोनों बहन-भाइयों को भोजन कराया तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा तब उन्होंने सारा वृतांत सुनाया| सारी बातें जानने के बाद गिद्ध ने उन्हें सिंहल द्वीप पर पहुंचाने का अश्वासन दिया| अगले दिन सुबह ही गिद्ध ने दोनों को सिंहल द्वीप पहुंचा दिया| सिंहल द्वीप पर आने के बाद दोनों बहन-भाइयों ने सोमा धोबिन के घर का काम करना शुरु कर दिया| सारे घर की साफ सफाई तथा घर के अन्य कार्य दोनों बहन-भाई बहुत ही सफाई से करने लगे| सुबह सोमा जब उठती तब उसे हैरानी होती कि कौन यह सब कम कर रहा है| सोमा ने अपनी पुत्रवधु से पूछा तब उसने बडे़ ही चतुराई से कहा कि हम करते हैं और कौन करेगा| सोमा को अपनी बहु की बातों पर विश्वास नहीं हुआ और उसने उस रात जागने का निर्णय किया| तब सोमा ने देखा कि गुणवती अपने छोटे भाई के साथ सोमा के घर का सारा कार्य निबटा रही है| सोमा उन दोनों से बहुत प्रसन्न हुई और उनके ऎसा करने का कारण पूछा तब उन्होंने गुणवती के विवाह तथा उसके वैधव्य की बात बताई|

सोमा ने गुणवती को आशीर्वाद दिया, लेकिन दोनों बहन-भाई सोमा से अपने साथ विवाह में चलने की जिद करने लगे| सोमा उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गई और अपनी पुत्रवधु से कहा कि यदि परिवार में किसी कि मृत्यु हो जाती है तब उसका अंतिम संस्कार ना करें, मेरे घर आने की प्रतीक्षा करें| गुणवती का विवाह होने लगा| विवाह समाप्त होते ही गुणवती के पति का देहांत हो गया| सोमा ने अपने अच्छे कर्मों के बल पर गुणवती के मरे हुए पति को अपने आशीर्वाद से दोबारा जीवित कर दिया, लेकिन ऎसा करने पर सोमा के सभी अच्छे कर्म समाप्त हो गये और सिंहल द्वीप पर रहने वाले उसके परिवार के सदस्यों का देहान्त हो गया|

सोमा ने वापस अपने घर जाते हुए रास्ते में ही अपने संचित कर्मों को फिर से एकत्रित करने की बात सोची और रास्ते में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा की और पीपल के वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की| ऎसा करने पर उसके परिवार के मृतक सदस्य दोबारा जीवित हो गये, सोमा को उसके नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा का फल मिल गया|

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स्त्रियां क्यों पहनती हैं पायल और बिछिया ?

लड़कियों व स्त्रियों के पायलों की छुन-छुन किसको नहीं प्रिय लगती। जब कोई लड़की या स्त्री पायल पहनकर चलती है तो पायलों से निकलने वाली ध्वनि किसी संगीत से कम नहीं लगती है। क्या कभी आपने सोचा है कि स्त्रियाँ पायल और बिछिया क्यों पहनती हैं? आखिर क्या वहज थी जब स्त्रियों को पायल व बिछिया पहनना पड़ा? इसके पीछे क्या कारण है? यदि आपके भी मन में कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे हैं तो आज आपको बताते हैं कि आखिर स्त्रियाँ पायल व बिछिया क्यों पहनती हैं|

प्राचीनकाल में स्त्रियों व लड़कियों को पायल एक संकेत मात्र के लिए पहनाया जाता था| जब घर के सदस्य के साथ बैठे होते थे तब यदि पायल पहने स्त्री की आवाज आती थी तो वह पहले से सतर्क हो जाते थे ताकि वह व्यवस्थित रूप से आने वाली उस महिला का स्वागत कर सकें| पायल की वजह से ही सभी को यह एहसास हो जाता है कि कोई महिला उनके आसपास है अत: वे शालीन और सभ्य व्यवहार करें। ऐसी सारी बातों को ध्यान में रखते हुए लड़कियों के पायल पहनने की परंपरा लागू की गई।

वहीँ, वास्तु के अनुसार, पायल की आवाज से घर में नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव कम हो जाता है इसके अलावा दैवीय शक्तियां अधिक सक्रिय हो जाती है यह भी इसका एक कारण हो सकता है| इसके अलावा पायल की धातु हमेश पैरों से रगड़ाती रहती है जो स्त्रियों की हड्डियों के लिए काफी फायदेमंद है। इससे उनके पैरों की हड्डी को मजबूती मिलती है।

बिछिया जिसे हिंदू और मुस्लमान दोनों धर्म की महिलाएं पहनती है। कई लोग तो इसे सिर्फ शादी का प्रतीक चिंह ही मानते है, लेकिन क्या आप जानते है कि इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी है। शायद ही आपको यह बात पता हो कि इसे पहनने का सीधा संबंध उनके गर्भाशय से है। विज्ञान में माना जाता है कि पैरों के अंगूठे की तरफ से दूसरी अंगुली में एक विशेष नस होती है जो गर्भाशय से जुड़ी होती है। यह गर्भाशय को नियंत्रित करती है और रक्तचाप को संतुलित कर इसे स्वस्थ रखती है।

बिछिया के दबाव से रक्तचाप नियमित और नियंत्रित रहती है और गर्भाशय तक सही मात्रा में पहुंचती रहती है। यह बिछिया अपने प्रभाव से धीरे-धीरे महिलाओं के तनाव को कम करती है, जिससे उनका मासिक-चक्र नियमित हो जाता है। साथ ही इसका एक और फायदा है। इसके अनुसार बिछिया महिलाओं के प्रजनन अंग को भी स्वस्थ रखने में भी मदद करती है। बिछिया महिलाओं के गर्भाधान में भी सहायक होती है।

वहीं शास्त्रों में कहा गया है कि दोनों पैरों में चांदी की बिछिया पहनने से महिलाओं को आने वाली मासिक चक्र नियमित हो जाती है। इससे महिलाओं को गर्भ धारण में आसानी होती है। चांदी विद्युत की अच्छी संवाहक मानी जाती है। धरती से प्राप्त होने वाली ध्रुवीय उर्जा को यह अपने अंदर खींच पूरे शरीर तक पहुंचाती है, जिससे महिलाएं तरोताज़ा महसूस करती हैं।

जानिए रावण को कैसे मिली थी सोने की लंका

रामायण के अनुसार, लंकापति रावण के पास सोने की लंका थी। क्या आपको पता है रावण को सोने की लंका कैसे मिली थी। यदि नहीं तो आज हम आपको बताते हैं कि रावण को सोने की लंका कैसे मिली थी। शास्त्रों के अनुसार, एक दिन कुबेर महान समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे। रावण आदि ने जब उनका वह वैभव देखा तो रावण के मन में भी कुबेर की तरह समृद्ध बनने की चाह पैदा हुई। तब रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा ये दोनों तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे।

एक हजार वर्ष पूर्व होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्रि में आहूति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्मजी बहुत संतुष्ट हुए उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका। सबको पृथक-पृथक वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा पुत्रों मैं तुम सब प्रसन्न हूं। वर मांगों और तप से निवृत हो जाओ। एक अमरत्व छोड़कर जो जिसकी इच्छा हो मांग लो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इ'छा से जिन सिरों की आहूति दी है वे सब तुम्हारे शरीर में जुड़ जाएंगे। तुम इ'छानुसार रूप धारण कर सकोगे। रावण ने कहा हम युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होंगे-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर और भूतों से मेरी कभी पराजय न हो। तुमने जिन लोगों का नाम लिया। इनमें से किसी से भी तुम्हे भय नहीं होगा।केवल मनुष्य से हो सकता है।

उनके ऐसा कहने पर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-मनुष्य मेरा क्या कर लेंगे, मैं तो उनका भक्षण करने वाला हूं। इसके बाद ब्रह्मजी ने कुंभकर्ण से वरदान मांगने को कहा। उसकी बुद्धि मोह से ग्रस्त थी। इसलिए उसने अधिक कालतक नींद लेने का वरदान मांगा। विभीषण ने बोला मेरे मन में कोई पाप विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रम्हास्त्र के प्रयोग विधि स्फुरित हो जाए। राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारा मन अधर्म में नहीं लग रहा है। इसलिए तुम्हें अमर होने का भी वर दे रहा हूं। इस तरह वरदान प्राप्त कर लेने पर रावण ने सबसे पहले लंका पर ही चढ़ाई की और कुबेर से युद्ध जीतकर लंका को कुबेर से बाहर दिया।

जानिए रावण की मौत के बाद मंदोदरी ने किससे साथ किया था विवाह

मंदोदरी रामायण के पात्र, पंच-कन्याओं में से एक हैं जिन्हें चिर-कुमारी कहा गया है। मंदोदरी मयदानव की पुत्री थी। उसका विवाह लंकापति रावण के साथ हुआ था। हेमा नामक अप्सरा से उत्पन्न रावण की पटरानी जो मेघनाथ की माता तथा मयासुर की कन्या थी। अतिकाय व अक्षयकुमार इसके अन्य पुत्र थे। रावण को सदा यह अच्छी सलाह देती थी और कहा जाता है कि अपने पति के मनोरंजनार्थ इसी ने शतरंज के खेल का प्रारंभ किया था। क्या आपको पता है लंकापति रावण की मृत्यु के पश्चात मंदोदरी ने किसके साथ विवाह कर लिया था।

कुछ ही लोगों को ही पता होगा की रावण की मौत के बाद मंदोदरी ने किससे शादी की। मेघनाद की पत्नी सुलोचना अपने पति की देह के साथ सती हो गई लेकिन अद्भुत रामायण के हिसाब से मंदोदरी ने सती न होते हुए अपने देवर विभीषण से शादी कर ली थी। एक किंवदती के अनुसार रावण और मंदोदरी का विवाह मंडोर में हुआ था। मंडोल, जोधपुर( राजस्थान) के पास स्थित है। जोधपुर शहर में ही रावण का मंदिर है। स्थानीय मान्यता के अनुसार मंडोल, रावण का ससुराल है।

रावण की मृत्यु के बाद उसके वंशज यहां बस गए थे। रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी ने रावण के भाई विभीषण से विवाह किया था। मंदोदरी बहुत सुंदर थी। वहीँ, दूसरी पौराणिक कथाओं के अनुसार समय-समय पर समझाने वाली रावण की पत्नी मंदोदरी उत्तर प्रदेश के मेरठ की रहने वाली थीं। इस जनपद को पहले मयनगर कहा जाता था, जहां एक दैत्य मय की पुत्री से रावण ने विवाह किया था।