नवरात्रि के तीसरे दिन होती है माँ चंद्रघंटा की स्तुति

भगवती दुर्गा की तीसरी शक्ति का नाम है चंद्रघंटा | नवरात्रि के तीसरे दिन आदि-शक्ति माँ दुर्गा के तृतीय स्वरूप माँ चंद्रघंटा की पूजा की जाती है| माँ का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है, इसी लिए इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। माँ चन्द्रघण्टा अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं । इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल है, इनके दस हाथ हैं। दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र सुशोभित रहते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए उद्यत रहने वाली है। इनके घंटे की भयानक चडंध्वनि से दानव, अत्याचारी, दैत्य, राक्षस डरते रहते हैं। चंद्रघंटा की कृपा से साधक को अलौकिक दर्शन होते हैं, दिव्य सुगन्ध और विविध दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं । माँ चन्द्रघंटा की कृपा से साधक के इनकी अराधना सद्य: फलदायी है। इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत: भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । इनका वाहन सिंह है, अत: इनका उपासक सिंह की तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है। इनके घंटे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बाधादि से रक्षा करती है । दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी इनका स्वरूप दर्शक और अराधक के लिए अत्यंत सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण रहता है ।

माँ चंद्रघंटा का उपासना मंत्र- 

समस्त भक्त जनों को देवी चंद्रघंटा की वंदना करते हुए कहना चाहिए ” या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता. नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:”.. अर्थात देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है. इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्राप्त होती है.


देवी चंद्रघंटा की पूजन विधि-


माँ चंद्रघंटा की जो व्यक्ति श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है| मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, इनके घंटे की ध्वनि सदैव भक्तों की प्रेत-बाधा आदि से रक्षा करती है तथा उस स्थान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है|

तीसरे दिन की पूजा का विधान भी लगभग उसी प्रकार है जो दूसरे दिन की पूजा का है. इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर माता के परिवार के देवता, गणेश, लक्ष्मी, विजया, कार्तिकेय, देवी सरस्वती एवं जया नामक योगिनी की पूजा फिर देवी चन्द्रघंटा उसके बाद भगवान शंकर और ब्रह्मा की पूजा करते हैं|


माँ भगवती चन्द्रघंटा का ध्यान-

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्।

सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥

मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्।

खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥

पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।

मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥

प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्।

कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥



माँ भगवती चन्द्रघंटा का स्तोत्र पाठ-

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्।

अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥

चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्।

धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥

नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्।

सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥



माँ भगवती चन्द्रघंटा का कवच मंत्र -

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने।

श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥

बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं।

स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥

कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥

नवरात्रि के चौथे दिन होती है माँ कूष्मांडा की पूजा

भगवती दुर्गा की चौथी शक्ति का नाम है माँ कूष्मांडा| दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा जी की पूजा का विधान है| अपनी मन्द हंसी से अण्ड अर्थात ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारंण इन्हें कूष्माण्डा देवी के नाम से जाना जाता है। संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कूम्हडे को कहा जाता है, कूम्हडे की बलि इन्हें प्रिय है, इस कारण से भी इन्हें कूष्माण्डा के नाम से जाना जाता है। जब सृष्टि नहीं थी और चारों ओर अंधकार ही अंधकार था तब माँ कूष्मांडा ने ब्रह्माण्ड की रचना की थी। इसलिए माँ भगवती कूष्मांडा को आदिशक्ति और आदिस्वरुपा भी कहा जाता है| माँ आदिस्वरुपा का निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में निवास करती हैं। सूर्यलोक में निवास करने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। देवी कुष्मांडा की सवारी सिंह है|

माँ कूष्मांडा का उपासना मंत्र-

"कुत्सित: कूष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत: संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा"

माँ कूष्मांडा की कथा -

माँ कुष्मांडा जिनका मुखमंड सैकड़ों सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ अत: यह देवी कूष्माण्डा के रूप में विख्यात हुई| इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सूर्य मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं| माँ कूष्मांडा अष्टभुजाओं वाली हैं| माँ कुष्मांडा के हाथों में क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, चक्र तथा गदा है. देवी के आठवें हाथ में बिजरंके (कमल फूल का बीज) का माला शोभायमान है , यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला हैइसलिए इन्हें अष्टभुजा देवी के नाम से जाना जाता है|

देवी कुष्मांडा की पूजन विधि-

नवरात्रि के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की पूजा की जाती है। साधक इस दिन अनाहत चक्र में अवस्थित होता है। अतः इस दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करते हैं| जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें नवरात्रि के चतुर्थ दिन देवी कूष्माण्डा की विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को अनहत चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए| इस तरह से जो साधक साधना करते हैं माँ कूष्माण्डा उन्हें सफलता अवश्य प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है|

नवरात्रि के चौथे दिन भी सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करते हैं फिर माँ भगवती के परिवार में शामिल सभी देवी देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं| इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करते हैं| पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर माँ भगवती को प्रणाम करते हैं| उसके पश्चात भगवान् भोलेनाथ और परम पिता की पूजा करते हैं| इस दिन जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है|


माँ भगवती कुष्मांडा का स्तोत्र पाठ-

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।



माँ भगवती कुष्मांडा का ध्यान-

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्।

सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्वनीम्॥

भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्।

कमण्डलु, चाप, बाण, पदमसुधाकलश, चक्र, गदा, जपवटीधराम्॥

पटाम्बर परिधानां कमनीयां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्।

मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल, मण्डिताम्॥

प्रफुल्ल वदनांचारू चिबुकां कांत कपोलां तुंग कुचाम्।

कोमलांगी स्मेरमुखी श्रीकंटि निम्ननाभि नितम्बनीम्॥



माँ भगवती कुष्मांडा का स्तोत्र पाठ-

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दरिद्रादि विनाशनीम्।

जयंदा धनदा कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥

जगतमाता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्।

चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥

त्रैलोक्यसुन्दरी त्वंहिदुःख शोक निवारिणीम्।

परमानन्दमयी, कूष्माण्डे प्रणमाभ्यहम्॥



माँ भगवती कुष्मांडा का कवच मंत्र- 

हंसरै में शिर पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्।

हसलकरीं नेत्रेच, हसरौश्च ललाटकम्॥

कौमारी पातु सर्वगात्रे, वाराही उत्तरे तथा,पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम।

दिगिव्दिक्षु सर्वत्रेव कूं बीजं सर्वदावतु॥

इस नवरात्र किस रंग के कपडे पहनना आपके लिए शुभ होगा

क्ति करने से हर मनोकामना पूरी होती है। मां दुर्गा की विशेष कृपा प्राप्त करने के लिए आपका पहनावा कैसा हो? कौन सी राशी के लोग किस रंग जका कपडा पहने ? जानिएं अपनी राशि के अनुसार किस रंग का पहनावा आपके लिए विशेष फलदायी रहेगा।

मेष राशि:- मेष राशि वाले इस नवरात्रि पर्व पर शक्ति आराधना के लिए आप अपनी राशि और ग्रह के अनुसार लाल और पीले रंग के वस्त्र धारण करें, क्योंकि शास्त्र के अनुसार,आपकी राशि का स्वामी मंगल है। जिससे आपको राशि के ग्रह और शक्ति की कृपा का पूरा लाभ मिलेगा और साथ ही रक्त संबंधी रोगों में फायदा भी मिलेगा|

वृष राशि:- वृष राशि वाले नवरात्रि के नौ दिनों में धन संपत्ति और हर तरह का सुख प्राप्त करने के लिए अपनी राशि के देवता शुक्रदेव और महागौरी मां को प्रसन्न करें। शुक्रदेव और महागौरी की प्रसन्नता से नवरात्रि में ही इसके लिए सफेद और पिंक कलर के कपड़े पहनें, आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी।

मिथुन राशि:- मिथुन राशि वाले लोग नवरात्रि पर्व पर देवी चंद्रघण्टा और राशि स्वामी बुध को प्रसन्न करने के लिए हरे रंग के कपड़े पहनें। आपकी राशि का स्वामी बुध है। बुध बुद्धि का प्रतीक है। बौद्धिक कार्यो में बुधदेव की कृपा प्राप्त होगी और आपके कार्यों में रूकावटें नहीं आएंगी।

कर्क राशि:- कर्क राशि वाले लोगों को चंद्रमा सर्वाधिक प्रभावित करता है। चंद्र को मन का देवता माना गया है। मन शांत रखने के लिए माता की भक्ति के साथ ही चंद्र के प्रिय रंग सफेद और हरे रंग की ड्रेस पहनें। जिससे राशि स्वामी चंद्रमा की कृपा होगी।

सिंह राशि:- शास्त्रों के अनुसार सूर्यदेव की राशि है सिंह। नवरात्रि में माँ भगवती की आराधना के साथ यश और मान-सम्मान प्राप्त करने के लिए पीले रंग के कपड़े पहनें। पीला रंग सूर्यदेव की कृपा दिलाने वाला है। इससे आप सूर्य के समान तेजस्वी हो जाएंगे और आर्थिक लाभ की प्राप्ति होगी।

कन्या- कन्या राशि का स्वामी बुध है, अत: इस राशि के लोगों को इस नवरात्रि सफेद और हरे रंग की ड्रेस पहनना चाहिए।आपकी राशि की देवी भुवनेश्वरी देवी भी खुश होंगी और साथ ही हर कार्य में सफलता प्राप्त होगी।

तुला राशि :- तुला राशि वाले धन लाभ के लिए अपने राशि स्वामी शुक्र के अनुसार सफेद और हल्के रंग के कपड़े पहनें। माता की भक्ति और इन रंगों के प्रभाव से आपको ऐश्वर्य और धन की प्राप्ति होगी।

वृश्चिक- वृश्चिक राशि वालों को इस नवरात्रि पर्व में लाल और केसरीया वस्त्र पहनना चाहिए, जिससे इस राशि के अधिपति देवता मंगल देव और मां शैलपुत्री प्रसन्न होंगी| ऐसा करने से आपको सकारात्मक ऊर्जा मिलती रहेगी और आप स्वस्थ्य रहेंगे।

धनु राशि:- धनु राशि वालों को राशि स्वामी गुरु के अनुसार पीले रंग के कपड़े पहनना चाहिए। इससे मां दुर्गा तो प्रसन्न होगी ही, साथ ही गुरु भी फायदा पहुंचाएगा। जो व्यक्ति अविवाहित हैं उनके विवाह के योग बनेंगे। धन प्राप्त होगा।

मकर राशि:- मां काली की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए मकर राशि वाले व्यक्तियों को गहरे और नीले रंग के कपड़े पहनने चाहिए। इस राशि का स्वामी शनि है और नीले रंग पहनने वालों को शनि विशेष फल प्रदान करता है। नवरात्रि में माता की भक्ति के साथ शनि भी होगा, परेशानियां दूर होंगी।

कुंभ राशि:- इस राशि का स्वामी शनि है और इन्हें मां कालरात्रि की आराधना करनी चाहिए। इन्हें खुश करने के लिए नवरात्रि में आप नीले, काले, गहरे रंग के वस्त्र धारण करें| शनि देव को काला रंग अतिप्रिय है। मां कालरात्री भी गहरे रंग से प्रसन्न होती हैं।

मीन राशि:- मीन राशि वाले लोग केसरिया, पीले या हल्के रंग के परिधान धारण करें| इस राशि का स्वामी गुरु है और यह रंग इनका प्रिय है। यह रंग मां लक्ष्मी बहुत पसंद है और इनका उपयोग करने वालों को वे धन और समृद्धि प्रदान करती हैं। पीले कपड़े पहनने से अविवाहित युवाओं के लिए विवाह के योग बनेंगे।

नवरात्रि में कलश स्थापित करने की विधि और शुभ मुहूर्त

यह नवरात्रि पर्व शक्ति की शक्तियों को जगाने का आह्वान है ताकि हम पर देवी की कृपा हो और हम शक्ति-स्वरूपा से सुख-समृद्धि का आशीर्वाद अर्जित कर सकें। हम सभी संकट, रोग, दुश्मन व प्राकृतिक-अप्राकृतिक आपदाओं से बच सकें। हमारे शारीरिक तेज में वृद्धि हो, मन निर्मल हो। हमें सपरिवार दैवीय शक्तियों का लाभ मिल सकें।

माँ भगवती दुर्गा की आराधना का पवित्र पर्व नवरात्रि का प्रारंभ 28 सितंबर, बुधवार से हो रहा है। नवरात्री के प्रथम दिन माता दुर्गा की प्रतिमा तथा घट की स्थापना की जाती है। इसके बाद ही नवरात्रि उत्सव का प्रारंभ होता है। हम आपको बता दें कि नवरात्रि में घट स्थापना की विधि तथा शुभ मुहूर्त क्या है |
आप पवित्र स्थान की मिट्टी से वेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूं बोएं। फिर उनके ऊपर अपनी शक्ति के अनुसार बनवाए गए सोने, तांबे अथवा मिट्टी के कलश की विधिपूर्वक स्थापित करें। कलश के ऊपर सोना, चांदी, तांबा, मिट्टी, पत्थर या चित्रमयी माँ दुर्गा की मूर्ति की प्रतिष्ठा करें।

नवरात्रि व्रत के आरंभ में स्वस्तिक वाचन-शांतिपाठ करके संकल्प करते हैं और सबसे पहले श्रीगणेश की पूजा अर्चना कर मातृका, लोकपाल, नवग्रह व वरुण का सविधि पूजन करते हैं | फिर मुख्य मूर्ति का षोडशोपचार पूजन करते हैं| माँ भगवती की आराधना-अनुष्ठान में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का पूजन तथा मार्कण्डेयपुराणान्तर्गत निहित श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ नौ दिनों तक प्रतिदिन करते हैं|

नवरात्रि के पांचवे दिन होती है स्कन्दमाता की पूजा

भगवती दुर्गा की पांचवी शक्ति का नाम स्कन्दमाता है| नवरात्री के पांचवे दिन इन्हीं की पूजा की जाती है| इस दिन साधक का मन विशुध्द चक्र में होता है। स्कन्द कुमार (कार्तिकेय) की माता होने के कारण दुर्गा जी के इस पांचवे स्वरूप को स्कंद माता नाम प्राप्त हुआ है| इनके विग्रह में स्कन्द जी बालरूप में माता की गोद में बैठे हैं। स्कन्द मातृस्वरूपिणी देवी की चार भुजायें हैं, ये दाहिनी ऊपरी भुजा में भगवान स्कन्द को गोद में पकडे हैं और दाहिनी निचली भुजा जो ऊपर को उठी है, उसमें कमल पकडा हुआ है। माँ का वर्ण पूर्णतः शुभ्र है और कमल के पुष्प पर विराजित रहती हैं। इसी से इन्हें पद्मासना की देवी और विद्यावाहिनी दुर्गा देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन भी सिंह है|

माँ स्कंदमाता सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी हैं| इनकी उपासना करने से साधक अलौकिक तेज की प्राप्ति करता है | यह अलौकिक प्रभामंडल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता है| एकाग्रभाव से मन को पवित्र करके माँ की स्तुति करने से दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ होता है|

स्कन्द माता के उपासना मंत्र-

“सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया. शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी.
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।सिंहासना गता नित्यं पद्माश्रि तकरद्वया |


स्कन्द माता की कथा-

दुर्गा पूजा के पांचवे दिन देवताओं के सेनापति कुमार कार्तिकेय की माता की पूजा होती है| कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनत-कुमार, स्कन्द कुमार के नाम से पुकारा गया है| माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नज़र आती हैं| माता का पांचवा रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है| जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है तब माता अपने भक्तों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती हैं| देवी स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं और मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है|

स्कन्द माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही महेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है| देवी स्कंदमाता पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं| माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है| जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं|

स्कन्दमाता की पूजन विधि- 

कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से अगर हम दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध चक्र की साधना का होता है| इस चक्र का भेदन करने के लिए पहले मां की विधिपूर्वक पूजा करते हैं| पूजन के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रक्रिया को उसी प्रकार से शुरू करते हैं जैसे अब तक के चार दिनों में किया है | देवी की पूजा के पश्चात भगवन भोले नाथ और ब्रह्मा जी की पूजा करते हैं | देवी स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करने से देवी की कृपा प्राप्त होती है| देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है| वात, पित्त, कफ जैसी बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को स्कंदमाता की पूजा करनी चाहिए और माता को अलसी चढ़ाकर प्रसाद में रूप में ग्रहण करना चाहिएइ

स्कन्दमाता का ध्यान-

वन्दे वांछित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा स्कन्दमाता यशस्वनीम्।।
धवलवर्णा विशुध्द चक्रस्थितों पंचम दुर्गा त्रिनेत्रम्।
अभय पद्म युग्म करां दक्षिण उरू पुत्रधराम् भजेम्॥
पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानांलकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल धारिणीम्॥
प्रफुल्ल वंदना पल्ल्वांधरा कांत कपोला पीन पयोधराम्।
कमनीया लावण्या चारू त्रिवली नितम्बनीम्॥

स्कन्दमाता का स्तोत्र पाठ-

नमामि स्कन्दमाता स्कन्दधारिणीम्।
समग्रतत्वसागररमपारपार गहराम्॥
शिवाप्रभा समुज्वलां स्फुच्छशागशेखराम्।
ललाटरत्नभास्करां जगत्प्रीन्तिभास्कराम्॥
महेन्द्रकश्यपार्चिता सनंतकुमाररसस्तुताम्।
सुरासुरेन्द्रवन्दिता यथार्थनिर्मलादभुताम्॥
अतर्क्यरोचिरूविजां विकार दोषवर्जिताम्।
मुमुक्षुभिर्विचिन्तता विशेषतत्वमुचिताम्॥
नानालंकार भूषितां मृगेन्द्रवाहनाग्रजाम्।
सुशुध्दतत्वतोषणां त्रिवेन्दमारभुषताम्॥
सुधार्मिकौपकारिणी सुरेन्द्रकौरिघातिनीम्।
शुभां पुष्पमालिनी सुकर्णकल्पशाखिनीम्॥
तमोन्धकारयामिनी शिवस्वभाव कामिनीम्।
सहस्त्र्सूर्यराजिका धनज्ज्योगकारिकाम्॥
सुशुध्द काल कन्दला सुभडवृन्दमजुल्लाम्।
प्रजायिनी प्रजावति नमामि मातरं सतीम्॥
स्वकर्मकारिणी गति हरिप्रयाच पार्वतीम्।
अनन्तशक्ति कान्तिदां यशोअर्थभुक्तिमुक्तिदाम्॥
पुनःपुनर्जगद्वितां नमाम्यहं सुरार्चिताम्।
जयेश्वरि त्रिलोचने प्रसीद देवीपाहिमाम्॥

स्कन्दमाता का कवच-


ऐं बीजालिंका देवी पदयुग्मघरापरा।
हृदयं पातु सा देवी कार्तिकेययुता॥
श्री हीं हुं देवी पर्वस्या पातु सर्वदा।
सर्वांग में सदा पातु स्कन्धमाता पुत्रप्रदा॥
वाणंवपणमृते हुं फ्ट बीज समन्विता।
उत्तरस्या तथाग्नेव वारुणे नैॠतेअवतु॥
इन्द्राणां भैरवी चैवासितांगी च संहारिणी।
सर्वदा पातु मां देवी चान्यान्यासु हि दिक्षु वै॥

चमत्कारिक नवदुर्गा प्रश्नावली चक्र से जाने अपने सवालों के जवाब

नवरात्रि का पर्व आज (बुधवार) से प्रारंभ हो चुका है| इसके लिए हर भक्त अपने तरीके से माँ की आराधना करता है। नवरात्रि के शुभ अवसर पर हम आपके लिए नवदुर्गा प्रश्नावली चक्र लाएं हैं। इस चमत्कारिक चक्र के माध्यम से आप अपने जीवन की समस्त परेशानियों व सवालों का हल आसानी से पा सकते हैं।


नवदुर्गा प्रश्नावली चमत्कारिक चक्र के उपयोग की विधि-

जिस किसी भक्त को अपने सवालों का जवाब या परेशानियों का हल जानना है वो पहले पांच बार ऊँ ऐं ह्लीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जप करने के बाद 1 बार इस मंत्र का जप करें-

या देवी सर्वभूतेषु मातृरुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।


इस मंत्र का जाप करने के बाद भक्त आंखें बंद करके अपना सवाल पूछें और माता दुर्गा का स्मरण करते हुए प्रश्नावली चक्र पर कर्सर घुमाते हुए रोक दें। जिस कोष्ठक (खाने) पर कर्सर रुके, उस कोष्ठक में लिखे अंक के अनुसार नीचे लिखे फलादेश को ही अपने अपने प्रश्न का उत्तर समझें।

1- धन का लाभ होगा एवं मान-सम्मान भी मिलेगा।

2- धन हानि अथवा अन्य प्रकार का अनिष्ट होने की आशंका है।

3- किसी अभिन्न मित्र से मिलन होगा, जिससे मन प्रसन्न होगा।

4- कोई व्याधि अथवा रोग होने की आशंका है, अत: कार्य अभी टाल देना ही आपके लिए अच्छा रहेगा।

5- धैर्य रखिए जो भी कार्य आपने सोचा है, उसमें आपको सफलता मिलेगी|

6- कुछ दिन के लिए कार्य को स्थगित कर दें| किसी से कलह अथवा कहासुनी हो सकती है|

7- आपका अच्छा समय शुरु हो गया है। अतिशीघ्र ही सुंदर एवं स्वस्थ पुत्र होने के योग हैं। इसके अतिरिक्त आपकी अन्य मनोकामनाएं भी पूर्ण होंगी।

8- विचार पूरी तरह त्याग दें| इस कार्य में मृत्यु भी होने की आशंका है।

9- देश समाज अथवा सरकार की दृष्टि में सम्मान बढ़ेगा। आपका सोचा हुआ कार्य अच्छा है।

10- अपना कार्य आरंभ करें, अपेक्षित लाभ प्राप्त होगा|

11- जिस कार्य के बारे में सोच रहे हैं, उसमें हानि होने की सम्भावना है|

12- मनोकामना पूर्ण होगी और पुत्र से भी आपको विशेष लाभ मिलेगा।

13- कार्य में आ रही बाधाएं दूर करने के लिए शनिदेव की उपासना करें|

14- चिंता न करें, अच्छा समय शुरु हो गया है, सुख-संपत्ति प्राप्त होगी।

15- आर्थिक तंगी के कारण ही आपके घर में सुख-शांति नहीं है। धैर्य एवं संयम रखें, एक माह बाद स्थितियां बदलने लगेंगी।

राशि के अनुसार जाने माँ भगवती को प्रसन्न करने का उपाय

आज से नवरात्रि पर्व का आरंभ हो चुका है| इस नवरात्रि में माँ भगवती को प्रसन्न करने के लिए अपनी राशि के अनुसार जानिए माँ के स्वरूपों की पूजा अर्चना में क्या-क्या करना चाहिए-

मेष राशि:- मेष राशि वाले भक्तों को माँ भगवती की पंच्व्ह्वी शक्ति स्कंद माता की विशेष उपासना करनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती या दुर्गा चालीसा का पाठ करना चाहिए। क्योंकि स्कंदमाता करुणामयी हैं, जो वात्सल्यता का भाव रखती हैं।

वृष राशि:- वृष राशि के लोग महागौरी स्वरूप की उपासना करने से विशेष फल प्राप्त होते हैं। माँ को प्रसन्न करने के लिए ललिता सहस्र नाम का पाठ करना चाहिए। क्योंकि महागौरी जन-कल्याणकारी हैं। अविवाहित कन्याओं को आराधना से उत्तम वर की प्राप्ति होती है।

मिथुन राशि:- मिथुन राशि वाले भक्तों को देवी-यंत्र स्थापित कर माँ भगवती ब्रह्मचारिणी की उपासना करनी चाहिए। माँ ब्रम्ह्चारिणी को प्रसन्न करने के लिए तारा कवच का प्रतिदिन पाठ करें। क्योंकि मां ब्रह्मचारिणी ज्ञान प्रदाता, विद्या के अवरोध दूर करती हैं।

कर्क राशि:- कर्क राशि वाले भक्तों को माँ भगवती के प्रथम स्वरुप माँ शैलपुत्री की पूजा-उपासना करनी चाहिए। माँ को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी सहस्रनाम का पाठ करें। क्योंकि माँ शैलपुत्री अभय दान प्रदान करती हैं।

सिंह राशि:- सिंह राशि वाले भक्तों को माँ कूष्मांडा की साधना विशेष फलदायी है| इसलिए माँ को प्रसन्न करने के लिए दुर्गा मंत्र का जाप करें। क्योंकि माँ कुष्मांडा बलि प्रिया हैं, अत: साधक नवरात्र की चतुर्थी को आसुरी प्रवृत्तियों यानि बुराइयों का बलिदान देवी चरणों में निवेदित करना चाहिए|

कन्या राशि:- कन्या राशि वाले भक्तों कोप माँ ब्रम्ह्चारिणी की पूजा अर्चना करना चाहिए। माँ को प्रसन्न करने के लिए लक्ष्मी मंत्रों का साविधि जाप करें। क्योंकि माँ ज्ञान प्रदान करती हुई विद्या मार्ग के अवरोधों को दूर करती हैं। विद्यार्थियों हेतु देवी की साधना फलदायी है।

तुला राशि:- तुला राशि वाले भक्तों को महागौरी की पूजा- अर्चना से विशेष फल प्राप्त होते हैं। माँ को प्रसन्न करने के लिए काली चालीसा या सप्तशती के प्रथम चरित्र का पाठ करें क्योंकि जन-कल्याणकारी हैं। अविवाहित कन्याओं को आराधना से उत्तम वर की प्राप्ति होती है।

वृश्चिक राशि:- वृश्चिक राशि वाले भक्तों को स्कंदमाता की पूजा अर्चना करनी चाहिए| माँ को प्रसन्न करने के लिए दुर्गा सप्तशती का पाठ करें क्योंकि माँ वात्सल्य भाव रखती हैं।

धनु राशि:- धनु राशि वाले भक्तों को देवी चंद्रघंटा की उपासना करनी चाहिए| माँ को प्रसन्न करने के लिए संबंधित मंत्रों का यथाविधि अनुष्ठान करें। क्योंकि घंटा प्रतीक है उस ब्रह्मनाद का, जो साधक के भय एवं विघ्नों को अपनी ध्वनि से समूल नष्ट कर देता है।

मकर राशि:- मकर राशि वाले लोगों के लिए कालरात्रि की पूजा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। माँ को प्रसन्न करने के लिए नर्वाण मंत्र का जाप करें। क्योंकि माँ अंधकार में भक्तों का मार्गदर्शन और प्राकृतिक प्रकोप, अग्निकांड आदि का शमन करती हैं। माँ शत्रुओं का संहार करने वाली होती हैं।

कुंभ राशि:- कुंभ राशि वाले व्यक्तियों के लिए कालरात्रि की उपासना लाभदायक है | आप माँ को प्रसन्न करने के लिए देवी कवच का पाठ करें। अंधकार में भक्तों का मार्गदर्शन और प्राकृतिक प्रकोपों का शमन करती हैं और शत्रुओं का विनास करती हैं|

मीन राशि:- मीन राशि के जातकों को माँ चंद्रघंटा की उपासना करनी चाहिए। माँ को प्रसन्न करने के लिए हरिद्रा की माला से यथासंभव बगलामुखी मंत्र का जाप करें। घंटा उस ब्रह्मनाद का प्रतीक है, जो साधक के भय एवं विघ्नों को अपनी ध्वनि से समूल नष्ट कर देता है।

नवरात्रि के छठवें दिन होती है माँ कात्यायनी की पूजा

भगवती दुर्गा की छठवीं शक्ति का नाम है माँ कात्यायनी| एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ॠषि थे उनके पुत्र महर्षि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से, विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए।कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं| कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया| कुछ समय के पश्चात जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा,विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था। महर्षि कात्यायन ने इनकी पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं। इस वर्ष नवरात्र के छठवें (रविवार) दिन की होनी है इसी दिन माँ कात्यायनी जी की पूजा होनी होगी|

माँ कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना से सभी संकटों का विनाश होता है, देवी कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं| देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है| इनका वर्ण स्वर्ण के समान चमकीला है। इनकी चार भुजायें हैं, इनका दाहिना ऊपर का हाथ अभय मुद्रा में है, नीचे का हाथ वरदमुद्रा में है। बांये ऊपर वाले हाथ में तलवार और निचले हाथ में कमल का फूल है और इनका वाहन सिंह है।इस दिन साधक का मन 'आज्ञा चक्र' में स्थित रहता है|

देवी कात्यायनी का मंत्र-

चन्द्रहासोज्जवलकरा शाईलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी।।
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

माँ कात्यायनी की कथा-

माँ कात्यायनी जी के संदर्भ में एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार एक समय कत नाम के प्रसिद्ध ॠषि हुए तथा उनके पुत्र ॠषि कात्य हुए, उन्हीं के नाम से प्रसिद्ध कात्य गोत्र से, विश्वप्रसिद्ध ॠषि कात्यायन उत्पन्न हुए थे| देवी कात्यायनी जी देवताओं ,ऋषियों के संकटों को दूर करने लिए महर्षि कात्यायन के आश्रम में उत्पन्न होती हैं| महर्षि कात्यायन जी ने देवी पालन पोषण किया था| जब महिषासुर नामक राक्षस का अत्याचार बहुत बढ़ गया था, तब उसका विनाश करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने अपने अपने तेज़ और प्रताप का अंश देकर देवी को उत्पन्न किया था और ॠषि कात्यायन ने भगवती जी कि कठिन तपस्या, पूजा की इसी कारण से यह देवी कात्यायनी कहलायीं| महर्षि कात्यायन जी की इच्छा थी कि भगवती उनके घर में पुत्री के रूप में जन्म लें| देवी ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार की तथा अश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेने के पश्चात शुक्ल सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिनों तक कात्यायन ॠषि ने इनकी पूजा की, दशमी को देवी ने महिषासुर का वध किया ओर देवों को महिषासुर के अत्याचारों से मुक्त किया|

देवी कात्यायनी की पूजन विधि-

आज के दिन साधक का मन आज्ञाचक्र में स्थित होता है। योगसाधना में आज्ञाचक्र का महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए माँ कात्यायनी जी की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को आज्ञा चक्र में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए| इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कात्यायनी सभी प्रकार के भय से मुक्त करती हैं| माँ कात्यायनी की भक्ति से मनुष्य को अर्थ, कर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है| नवरात्रि के छठवें दिन सर्वप्रथम कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा अर्चना करते हैं फिर माता के परिवार में शामिल सभी देवी देवताओं की पूजा करते हैं, जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं| इनकी पूजा के पश्चात देवी कात्यायनी जी की पूजा कि जाती है| देवी की पूजा के पश्चात महादेव और परम पिता की पूजा करनी चाहिए. श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए|

देवी कात्यायनी का ध्यान-

वन्दे वांछित मनोरथार्थ चन्द्रार्घकृत शेखराम्।
सिंहरूढ़ा चतुर्भुजा कात्यायनी यशस्वनीम्॥
स्वर्णाआज्ञा चक्र स्थितां षष्टम दुर्गा त्रिनेत्राम्।
वराभीत करां षगपदधरां कात्यायनसुतां भजामि॥
पटाम्बर परिधानां स्मेरमुखी नानालंकार भूषिताम्।
मंजीर, हार, केयूर, किंकिणि रत्नकुण्डल मण्डिताम्॥
प्रसन्नवदना पञ्वाधरां कांतकपोला तुंग कुचाम्।
कमनीयां लावण्यां त्रिवलीविभूषित निम्न नाभिम॥

देवी कात्यायनी का स्तोत्र पाठ -

कंचनाभा वराभयं पद्मधरा मुकटोज्जवलां।
स्मेरमुखीं शिवपत्नी कात्यायनेसुते नमोअस्तुते॥
पटाम्बर परिधानां नानालंकार भूषितां।
सिंहस्थितां पदमहस्तां कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥
परमांवदमयी देवि परब्रह्म परमात्मा।
परमशक्ति, परमभक्ति,कात्यायनसुते नमोअस्तुते॥

देवी कात्यायनी का कवच-

कात्यायनी मुखं पातु कां स्वाहास्वरूपिणी।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्य सुन्दरी॥
कल्याणी हृदयं पातु जया भगमालिनी॥

माँ कत्यानी की आरती-

जै अम्बे जै जै कात्यायनी~
जै जगदाता जग की महारानी~~

बैजनाथ स्थान तुम्हारा~
वहां वरदाती नाम पुकारा~~

कई नाम है कई धाम है~
यह स्थान भी तो सुखधाम है~~

हर मंदिर में जोत तुम्हारी~
कहीं योगेश्वरी महिमा न्यारी~~

हर जगह उत्सव होते रहते~
हर मंदिर में भक्त है कहते~~

कात्यायनी रक्षक काया की~
ग्रन्थी काटे मोह माया की~~

झूठे मोह से छुङाने वाली~
अपना नाम जपाने वाली~~

ब्रहस्पतिवार को पूजा करियों~
ध्यान कात्यायनी का धरियों~~

हर संकट को दूर करेगी~
भण्डारे भरपूर करेगी~~

जो भी मां को चमन पुकारें~
कात्यायनी सब कष्ट निवारे~~

शनि के अस्त होने से किन-किन राशियों को होगा लाभ

कठोर न्यायाधीश कहे जाने वाले शनि देव के कोप से सभी भलीभांति परिचित हैं क्योंकि शनि देव बुरे कर्मों का न्याय बड़ी कठोरता से करते हैं। शनि की बुरी नजर किसी भी राजा को रातों-रात भिखारी बना सकती है और यदि शनि शुभ फल देने वाला हो जाए तो कोई भी भिखारी राजा के समान बन सकता है।26 सितम्बर को शाम पांच बजे से शनि अस्त हो गया है और अब शनि 30 अक्टूबर 2011 तक अस्त ही रहेगा।

आपको बता दें कि शनि की स्थिति से सभी राशियों पर सीधा-सीधा प्रभाव पड़ता है। शनि के अस्त होने से कुछ राशियों को लाभ मिलेगा, लेकिन राशियों के लिए अशुभ रहेगा| सूर्य पुत्र शनि अत्यंत धीमी गति से चलने वाला ग्रह है। यह एक राशि में ढाई वर्ष तक रहता है। शनि देव के कोप से बचने के लिए इनकी आराधना करना अति आवश्यक है।

जानिए शनि के अस्त होने से किन राशियों को होगा लाभ और किन को हानि-

ज्योतिष के अनुसार, शनि के अस्त होने से कन्या, वृश्चिक, कुंभ और मिथुन राशि के लोगों को लाभ होगा और इस राशि के लोगों को शनि दोषों से हो रहे नुकसान में कमी आएगी। इनके लिए शनि का अस्त होना उत्तम है। इसके साथ साथ तुला, धनु, मीन और कर्क राशि के जातकों के लिए शनि का अस्त होना शुभ संकेत है। आपके बिगड़े कार्य बनेंगे। वहीँ सिंह, मकर, वृष और मेष के लिए शनि के अस्त होने पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। इन लोगों के समय पहले जैसा ही रहेगा।

कुण्डली के अनुसार शनि का प्रभाव-

ज्योतिष के अनुसार जिस जातक की कुण्डली में सूर्य की राशि में शनि हो उस व्यक्ति को जीवनभर कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

जिस व्यक्ति की कुंडली में चार, आठ या बाहरवें भाव में शनि है तो उस व्यक्ति को शनि की कृपा प्राप्त होती है।

शनि नीच राशिस्थ, अस्त वक्री होकर व्यक्ति को सदैव दुख और कष्ट ही देता है।

शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी है। मेष राशि में नीच व तुला राशि में उच्च का शनि माना गया है।

शनि के कोप से बचने के उपाय-

प्रतेक दिन महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।

भगवान भोलेनाथ का पूजन करें और प्रत्येक दिन शिवलिंग पर जल चढ़ाएं।

शनि के प्रभाव से बचने के लिए आप शनिवार का व्रत रखें और काले उड़द, काले तिल, तेल, लोहे के बर्तन आदि, काली गाय, काले कपड़े का दान करें|

पीपल की पूजा करें, जल चढ़ाएं एवं परिक्रमा करें साथ ही गरीबों को भोजन कराएँ|

शनि मंत्र-

शनि के प्रभाव से बचने के लिए "शन्नो देवीरभिष्ट्यऽआपो भवंतु पीतये। शंय्योर भिस्त्रवन्तु न:" का जाप करे|

वृहस्पतिवार व्रत की विधि, कथा और आरती


||  वृहस्पतिवार व्रत की विधि ||

- ब्रहस्पति देवता का व्रत इस दिन रखा जाता है|
- दिन में केवल एक ही बार भोजन किया जाता है|
- इस दिन पीले वस्त्र धारण करके शंकर भगवन पर पीले उर्द और चने की दाल चढ़ानी चाहिएऔर वृहस्पतिवार कथा सुनकर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए|
- इस व्रत के करने से विद्या, धन, पुत्र तथा अक्षय सुख प्राप्त होता है|
- इस दिन केले के वृक्ष की सादर पूजा करनी चाहिए|




|| वृहस्पतिवार व्रत कथा  ||


प्राचीन समय की बात है– एक बड़ा प्रतापी तथा दानी राजा था, वह प्रत्येक गुरुवार को व्रत रखता एवं पूजन करता था| यह उसकी रानी को अच्छा न लगता न वह व्रत करती और न ही किसी को एक पैसा दान में देती राजा को भी ऐसा करने से मना किया करती| एक समय की बात है कि राजा शिकार खेलने वन को चले गए| 

घर पर रानी और दासी थी|  उस समय गुरु वृहस्पति साधु का रुप धारण कर राजा के दरवाजे पर भिक्षा मांगने आए| साधु ने रानी से भिक्षा मांगी तो वह कहने लगी, हे साधु महाराज| मैं इस दान और पुण्य से तंग आ गई हूँ| आप कोई ऐसा उपाय बताएं, जिससे यह सारा धन नष्ट हो जाये और मैं आराम से रह सकूं| 
साधु रुपी वृहस्पति देव ने कहा, हे देवी| तुम बड़ी विचित्र हो| संतान और धन से भी कोई दुखी होता है, अगर तुम्हारे पास धन अधिक है तो इसे शुभ कार्यों में लगाओ, जिससे तुम्हारे दोनों लोक सुधरें| परन्तु साधु की इन बातों से रानी खुश नहीं हुई| उसने कहा, मुझे ऐसे धन की आवश्यकता नहीं, जिसे मैं दान दूं तथा जिसको संभालने में ही मेरा सारा समय नष्ट हो जाये|
साधु ने कहा, यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है तो जैसा मैं तुम्हें बताता हूं तुम वैसा ही करना| वृहस्पतिवार के दिन तुम घर को गोबर से लीपना, अपने केशों को पीली मिट्टी से धोना, केशों को धोते समय स्नान करना, राजा से हजामत बनाने को कहना, भोजन में मांस मदिरा खाना, कपड़ा धोबी के यहाँ धुलने डालना| इस प्रकार सात वृहस्पतिवार करने से तुम्हारा समस्त धन नष्ट हो जायेगा| इतना कहकर साधु बने वृहस्पतिदेव अंतर्धान हो गये|
साधु के कहे अनुसार करते हुए रानी को केवल तीन वृहस्पतिवार ही बीते थे कि उसकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई| भोजन के लिये परिवार तरसने लगा| एक दिन राजा रानी से बोला, हे रानी| तुम यहीं रहो, मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहां पर मुझे सभी जानते है| इसलिये मैं कोई छोटा कार्य नही कर सकता| ऐसा कहकर राजा परदेश चला गया|  वहां वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता| इस तरह वह अपना जीवन व्यतीत करने लगा|
इधर, राजा के बिना रानी और दासी दुखी रहने लगीं| एक समय जब रानी और दासियों को सात दिन बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, हे दासी| पास ही के नगर में मेरी बहन रहती है| वह बड़ी धनवान है तू उसके पास जा और कुछ ले आ ताकि थोड़ा-बहुत गुजर-बसर हो जाए|  
दासी रानी की बहन के पास गई| उस दिन वृहस्पतिवार था| रानी की बहन उस समय वृहस्पतिवार की कथा सुन रही थी|  दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया| जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला तो वह बहुत दुखी हुई| उसे क्रोध भी आया|  दासी ने वापस आकर रानी को सारी बात बता दी| सुनकर, रानी ने अपने भाग्य को कोसा|
उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी, परन्तु मैं उससे नहीं बोली, इससे वह बहुत दुखी हुई होगी|  कथा सुनकर और पूजन समाप्त कर वह अपनी बहन के घर गई और कहने लगी, हे बहन|  मैं वृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी|  तुम्हारी दासी गई परन्तु जब तक कथा होती है, तब तक न उठते है और न बोलते है, इसीलिये मैं नहीं बोली| कहो, दासी क्यों गई थी|
रानी बोली, बहन| हमारे घर अनाज नहीं था| ऐसा कहते-कहते रानी की आंखें भर आई| उसने दासियों समेत भूखा रहने की बात भी अपनी बहन को बता दी|  रानी की बहन बोली, बहन देखो|  वृहस्पतिदेव भगवान सबकी मनोकामना पूर्ण करते है| देखो, शायद तुम्हारे घर में अनाज रखा हो|  यह सुनकर दासी घर के अन्दर गई तो वहाँ उसे एक घड़ा अनाज का भरा मिल गया| उसे बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसे एक एक बर्तन देख लिया था|
उसने बाहर आकर रानी को बताया|  दासी रानी से कहने लगी, हे रानी, जब हमको भोजन नहीं मिलता तो हम व्रत ही तो करते है, इसलिये क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ ली जाये, हम भी व्रत किया करेंगे|  दासी के कहने पर रानी ने अपनी बहन से वृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा, उसकी बहन ने बताया, वृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का से विष्णु भगवान का केले की जड़ में पूजन करें तथा दीपक जलायें, पीला भोजन करें तथा कथा सुनें, इससे गुरु भगवान प्रसन्न होते है, मनोकामना पूर्ण करते है|  व्रत और पूजन की विधि बताकर रानी की बहन अपने घर लौट आई|
रानी और दासी दोनों ने निश्चय किया कि वृहस्पतिदेव भगवान का पूजन जरुर करेंगें|  सात रोज बाद जब वृहस्पतिवार आया तो उन्होंने व्रत रखा|  घुड़साल में जाकर चना और गुड़ बीन लाईं तथा उसकी दाल से केले की जड़ तथा विष्णु भगवान का पूजन किया| अब पीला भोजन कहाँ से आए| दोनों बड़ी दुखी हुई| परन्तु उन्होंने व्रत किया था इसलिये वृहस्पतिदेव भगवान प्रसन्न थे| एक साधारण व्यक्ति के रुप में वे दो थालों में सुन्दर पीला भोजन लेकर आए और दासी को देकर बोले, हे दासी, यह भोजन तुम्हारे लिये और तुम्हारी रानी के लिये है, इसे तुम दोनों ग्रहण करना|  दासी भोजन पाकर बहुत प्रसन्न हुई| उसने रानी को सारी बात बतायी|
उसके बाद से वे प्रत्येक वृहस्पतिवार को गुरु भगवान का व्रत और पूजन करने लगी| वृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास धन हो गया, परन्तु रानी फिर पहले की तरह आलस्य करने लगी|  तब दासी बोली, देखो रानी, तुम पहले भी इस प्रकार आलस्य करती थी, तुम्हें धन के रखने में कष्ट होता था, इस कारण सभी धन नष्ट हो गया| अब गुरु भगवान की कृपा से धन मिला है तो फिर तुम्हें आलस्य होता है|
बड़ी मुसीबतों के बाद हमने यह धन पाया है, इसलिये हमें दान-पुण्य करना चाहिये| अब तुम भूखे मनुष्यों को भोजन कराओ, प्याऊ लगवाओ, ब्राहमणों को दान दो, कुआं-तालाब-बावड़ी आदि का निर्माण कराओ, मन्दिर-पाठशाला बनवाकर ज्ञान दान दो, कुंवारी कन्याओं का विवाह करवाओ अर्थात् धन को शुभ कार्यों में खर्च करो, जिससे तुम्हारे कुल का यश बढ़े तथा स्वर्ग प्राप्त हो और पित्तर प्रसन्न हों|  दासी की बात मानकर रानी शुभ कर्म करने लगी|  उसका यश फैलने लगा|
एक दिन रानी और दासी आपस में विचार करने लगीं कि न जाने राजा किस दशा में होंगें, उनकी कोई खोज खबर भी नहीं है| उन्होंने श्रद्घापूर्वक गुरु (वृहस्पति) भगवान से प्रार्थना की कि राजा जहाँ कहीं भी हो, शीघ्र वापस आ जाएं|
उधर, राजा परदेश में बहुत दुखी रहने लगा| वह प्रतिदिन जंगल से लकड़ी बीनकर लाता और उसे शहर में बेचकर अपने दुखी जीवन को बड़ी कठिनता से व्यतीत करता| एक दिन दुखी हो, अपनी पुरानी बातों को याद करके वह रोने लगा और उदास हो गया|
उसी समय राजा के पास वृहस्पतिदेव साधु के वेष में आकर बोले, हे लकड़हारे| तुम इस सुनसान जंगल में किस चिंता में बैठे हो, मुझे बतलाओ| यह सुन राजा के नेत्रों में जल भर आया| साधु की वंदना कर राजा ने अपनी संपूर्ण कहानी सुना दी|  महात्मा दयालु होते है, वे राजा से बोले, हे राजा तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिदेव के प्रति अपराध किया था, जिसके कारण तुम्हारी यह दशा हुई\  अब तुम चिन्ता मत करो भगवान तुम्हें पहले से अधिक धन देंगें| देखो, तुम्हारी पत्नी ने वृहस्पतिवार का व्रत प्रारम्भ कर दिया है. 
अब तुम भी वृहस्पतिवार का व्रत करके चने की दाल व गुड़ जल के लोटे में डालकर केले का पूजन करो, फिर कथा कहो या सुनो, भगवान तुम्हारी सब कामनाओं को पूर्ण करेंगें| साधु की बात सुनकर राजा बोला, हे प्रभो. लकड़ी बेचकर तो इतना पैसा पाई नहीं बचता, जिससे भोजन के उपरांत कुछ बचा सकूं| मैंने रात्रि में अपनी रानी को व्याकुल देखा है|  मेरे पास कोई साधन नही, जिससे उसका समाचार जान सकूं|  फिर मैं कौन सी कहानी कहूं, यह भी मुझको मालूम नहीं है|
साधु ने कहा, हे राजा, मन में वृहस्पति भगवान के पूजन-व्रत का निश्चय करो| वे स्वयं तुम्हारे लिये कोई राह बना देंगे| वृहस्पतिवार के दिन तुम रोजाना की तरह लकड़ियां लेकर शहर में जाना| तुम्हें रोज से दुगुना धन मिलेगा जिससे तुम भलीभांति भोजन कर लोगे तथा वृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी आ जायेगा| जो तुमने वृहस्पतिवार की कहानी के बारे में पूछा है, वह इस प्रकार है - 

वृहस्पतिदेव की कहानी - 


प्राचीनकाल में एक बहुत ही निर्धन ब्राहमण था. उसके कोई संन्तान न थी. वह नित्य पूजा-पाठ करता, उसकी स्त्री न स्नान करती और न किसी देवता का पूजन करती| इस कारण ब्राहमण देवता बहुत दुखी रहते थे|
भगवान की कृपा से ब्राहमण के यहां एक कन्या उत्पन्न हुई| कन्या बड़ी होने लगी|  प्रातः स्नान करके वह भगवान विष्णु का जप करती|  वृहस्पतिवार का व्रत भी करने लगी|  पूजा पाठ समाप्त कर पाठशाला जाती तो अपनी मुट्ठी में जौ भरके ले जाती और पाठशाला के मार्ग में डालती जाती|  लौटते समय वही जौ स्वर्ण के हो जाते तो उनको बीनकर घर ले आती|  एक दिन वह बालिका सूप में उन सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी कि तभी उसकी मां ने देख लिया और कहा, कि हे बेटी, सोने के जौ को फटकने के लिये सोने का सूप भी तो होना चाहिये|
दूसरे दिन गुरुवार था|  कन्या ने व्रत रखा और वृहस्पतिदेव से सोने का सूप देने की प्रार्थना की|  वृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली| रोजाना की तरह वह कन्या जौ फैलाती हुई पाठशाला चली गई| पाठशाला से लौटकर जब वह जौ बीन रही थी तो वृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला. उसे वह घर ले आई और उससे जौ साफ करने लगी, परन्तु उसकी मां का वही ढंग रहा|
एक दिन की बात है, कन्या सोने के सूप में जब जौ साफ कर रही थी, उस समय उस नगर का राजकुमार वहां से निकला| कन्या के रुप और कार्य को देखकर वह उस पर मोहित हो गया| राजमहल आकर वह भोजन तथा जल त्यागकर उदास होकर लेट गया|
राजा को जब राजकुमार द्घारा अन्न-जल त्यागने का समाचार ज्ञात हुआ तो अपने मंत्रियों के साथ वह अपने पुत्र के पास गया और कारण पूछा. राजकुमार ने राजा को उस लड़की के घर का पता भी बता दिया|  मंत्री उस लड़की के घर गया| मंत्री ने ब्राहमण के समक्ष राजा की ओर से निवेदन किया|  कुछ ही दिन बाद ब्राहमण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गया|
कन्या के घर से जाते ही ब्राहमण के घर में पहले की भांति गरीबी का निवास हो गया| एक दिन दुखी होकर ब्राहमण अपनी पुत्री से मिलने गये|  बेटी ने पिता की अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा ब्राहमण ने सभी हाल कह सुनाया| कन्या ने बहुत-सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया| लेकिन कुछ दिन बाद फिर वही हाल हो गया. ब्राहमण फिर अपनी कन्या के यहां गया और सभी हाल कहातो पुत्री बोली, हे पिताजी,
आप माताजी को यहाँ लिवा लाओ|  मैं उन्हें वह विधि बता दूंगी, जिससे गरीबी दूर हो जाए|  ब्राहमण देवता अपनी स्त्री को साथ लेकर अपनी पुत्री के पास राजमहल पहुंचे तो पुत्री अपनी मां को समझाने लगी, हे मां, तुम प्रातःकाल स्नानादि करके विष्णु भगवन का पूजन करो तो सब दरिद्रता दूर हो जाएगी|  परन्तु उसकी मां ने उसकी एक भी बात नहीं मानी. वह प्रातःकाल उठकर अपनी पुत्री की बची झूठन को खा लेती थी|
एक दिन उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया, उसने अपनी माँ को एक कोठरी में बंद कर दिया. प्रातः उसे स्नानादि कराके पूजा-पाठ करवाया तो उसकी माँ की बुद्घि ठीक हो गई|
इसके बाद वह नियम से पूजा पाठ करने लगी और प्रत्येक वृहस्पतिवार को व्रत करने लगी.. इस व्रत के प्रभाव से मृत्यु के बाद वह स्वर्ग को गई. वह ब्राहमण भी सुखपूर्वक इस लोक का सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुआ| इस तरह कहानी कहकर साधु बने देवता वहाँ से लोप हो गये|
धीरे-धीरे समय व्यतीत होने पर फिर वृहस्पतिवार का दिन आया. राजा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया उसे उस दिन और दिनों से अधिक धन मिला. राजा ने चना, गुड़ आदि लाकर वृहस्पतिवार का व्रत किया| उस दिन से उसके सभी क्लेश दूर हुए|  परन्तु जब अगले गुरुवार का दिन आया तो वह वृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया इस कारण वृहस्पति भगवान नाराज हो गए|
उस दिन उस नगर के राजा ने विशाल यज्ञ का आयोजन किया था तथा अपने समस्त राज्य में घोषणा करवा दी कि सभी मेरे यहां भोजन करने आवें|  किसी के घर चूल्हा न जले| इस आज्ञा को जो न मानेगा उसको फांसी दे दी जाएगी|
राजा की आज्ञानुसार राज्य के सभी वासी राजा के भोज में सम्मिलित हुए लेकिन लकड़हारा कुछ देर से पहुंचा, इसलिये राजा उसको अपने साथ महल में ले गए|  जब राजा लकड़हारे को भोजन करा रहे थे तो रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जिस पर उसका हारलटका हुआ था|  उसे हार खूंटी पर लटका दिखाई नहीं दिया|  रानी को निश्चय हो गया कि मेरा हार इस लकड़हारे ने चुरा लिया है| उसी समय सैनिक बुलवाकर उसको जेल में डलवा दिया|
लकड़हारा जेल में विचार करने लगा कि न जाने कौन से पूर्वजन्म के कर्म से मुझे यह दुख प्राप्त हुआ है और जंगल में मिले साधु को याद करने लगा|  तत्काल वृहस्पतिदेव साधु के रुप में प्रकट हो गए और कहने लगे, अरे मूर्ख,  तूने वृहस्पति देवता की कथा नहीं की, उसी कारण तुझे यह दुख प्राप्त हुआ हैं|  अब चिन्ता मत कर, वृहस्पतिवार के दिन जेलखाने के दरवाजे पर तुझे चार पैसे पड़े मिलेंगे, उनसे तू वृहस्पतिवार की पूजा करना तो तेर सभी कष्ट दूर हो जायेंगे|
अगले वृहस्पतिवार उसे जेल के द्घार पर चार पैसे मिले| राजा ने पूजा का सामान मंगवाकर कथा कही और प्रसाद बाँटा|  उसी रात्रि में वृहस्पतिदेव ने उस नगर के राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा| तूने जिसे जेल में बंद किया है, उसे कल छोड़ देना वह निर्दोष है, राजा प्रातःकाल उठा और खूंटी पर हार टंगा देखकर लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी तथा राजा के योग्य सुन्दर वस्त्र-आभूषण भेंट कर उसे विदा किया|
गुरुदेव की आज्ञानुसार राजा अपने नगर को चल दिया| राजा जब नगर के निकट पहुँचा तो उसे बड़ा ही आश्चर्य हुआ नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब और कुएं तथा बहुत-सी धर्मशालाएं, मंदिर आदि बने हुए थे| राजा ने पूछा कि यह किसका बाग और धर्मशाला है, तब नगर के सब लोग कहने लगे कि यह सब रानी और दासी द्घारा बनवाये गए है|  राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया कि उसकी अनुपस्थिति में रानी के पास धन कहां से आया होगा|
जब रानी ने यह खबर सुनी कि राजा आ रहे है तो उसने अपनी दासी से कहा, हे दासी, देख, राजा हमको कितनी बुरी हालत में छोड़ गये थे|  वह हमारी ऐसी हालत देखकर लौट न जाएं, इसलिये तू दरवाजे पर खड़ी हो जा|  रानी की आज्ञानुसार दासी दरवाजे पर खड़ी हो गई और जब राजा आए तो उन्हें अपने साथ महल में लिवा लाई, तब राजा ने क्रोध करके अपनी तलवार निकाली और पूछने लगा, बताओ, यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ है|  तब रानी ने सारी कथा कह सुनाई|
राजा ने निश्चय किया कि मैं रोजाना दिन में तीन बार कहानी कहा करुंगा और रोज व्रत किया करुंगा|  अब हर समय राजा के दुपट्टे में चने की दाल बंधी रहती तथा दिन में तीन बार कथा कहता| 
एक रोज राजा ने विचार किया कि चलो अपनी बहन के यहां हो आऊं. इस तरह का निश्चय कर राजा घोड़े पर सवार हो अपनी बहन के यहां चल दिया|  मार्ग में उसने देखा कि कुछ आदमी एक मुर्दे को लिये जा रहे है|  उन्हें रोककर राजा कहने लगा, अरे भाइयो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन लो, वे बोले, लो, हमारा तो आदमी मर गया है, इसको अपनी कथा की पड़ी है, परन्तु कुछ आदमी बोले, अच्छा कहो, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगें|  राजा ने दाल निकाली और कथा कहनी शुरु कर दी|  जब कथा आधी हुई तो मुर्दा हिलने लगा और जब कथा समाप्त हुई तो राम-राम करके वह मुर्दा खड़ा हो गया|
राजा आगे बढ़ा| उसे चलते-चलते शाम हो गई| आगे मार्ग में उसे एक किसान खेत में हल चलाता मिला|  राजा ने उससे कथा सुनने का आग्रह किया, लेकिन वह नहीं माना|  राजा आगे चल पड़ा| राजा के हटते ही बैल पछाड़ खाकर गिर गए तथा किसान के पेट में बहुत जो दर्द होने लगा|
उसी समय किसान की मां रोटी लेकर आई| उसने जब देखा तो अपने पुत्र से सब हाल पूछा| बेटे ने सभी हाल बता दिया. बुढ़िया दौड़-दौड़ी उस घुड़सवार के पास पहुँची और उससे बोली, मैं तेरी कथा सुनूंगी, तू अपनी कथा मेरे खेत पर ही चलकर कहना| राजा ने लौटकर बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा कही, जिसके सुनते ही बैल खड़े हो गये तथा किसान के पेट का दर्द भी बन्द हो गया| 
राजा अपनी बहन के घर पहुंच गया|  बहन ने भाई की खूब मेहमानी की. दूसरे रोज प्रातःकाल राजा जागा तो वह देखने लगा कि सब लोग भोजन कर रहे है|  राजा ने अपनी बहन से जब पूछा, ऐसा कोई मनुष्य है, जिसने भोजन नहीं किया हो|  जो मेरी वृहस्पतिवार की कथा सुन ले. बहन बोली, हे भैया यह देश ऐसा ही है यहाँ लोग पहले भोजन करते है, बाद में कोई अन्य काम करते है|  फिर वह एक कुम्हार के घर गई, जिसका लड़का बीमार था| 
उसे मालूम हुआ कि उसके यहां तीन दिन से किसीने भोजन नहीं किया है| रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिये कुम्हार से कहा|  वह तैयार हो गया| राजा ने जाकर वृहस्पतिवार की कथा कही, जिसको सुनकर उसका लड़का ठीक हो गया, अब तो राजा को प्रशंसा होने लगी|   एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, हे बहन. मैं अब अपने घर जाउंगा, तुम भी तैयार हो जाओ|  राजा की बहन ने अपनी सास से अपने भाई के साथ जाने की आज्ञा मांगी| 
सास बोली हां चली जा मगर अपने लड़कों को मत ले जाना, क्योंकि तेरे भाई के कोई संतान नहीं होती है|  बहन ने अपने भाई से कहा, हे भइया|  मैं तो चलूंगी मगर कोई बालक नहीं जायेगा|  अपनी बहन को भी छोड़कर दुखी मन से राजा अपने नगर को लौट आया| राजा ने अपनी रानी से सारी कथा बताई और बिना भोजन किये वह शय्या पर लेट गया|  रानी बोली, हे प्रभो, वृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है, वे हमें संतान अवश्य देंगें|
उसी रात वृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में कहा, हे राजा, उठ, सभी सोच त्याग दे|  तेरी रानी गर्भवती है|  राजा को यह जानकर बड़ी खुशी हुई, नवें महीन रानी के गर्भ से एक सुंदर पुत्र पैदा हुआ, तब राजा बोला, हे रानी|  स्त्री बिना भोजन के रह सकती है, परन्तु बिना कहे नहीं रह सकती, जब मेरी बहन आये तो तुम उससे कुछ मत कहना|
रानी ने हां कर दी, जब राजा की बहन ने यह शुभ समाचार सुना तो वह बहुत खुश हुई तथा बधाई लेकर अपने भाई के यहां आई, रानी ने तब उसे आने का उलाहना दिया, जब भाई अपने साथ ला रहे थे, तब टाल गई, उनके साथ न आई और आज अपने आप ही भागी-भागी बिना बुलाए आ गई, तो राजा की बहन बोली, भाई, मैं इस प्रकार न कहती तो तुम्हारे घर औलाद कैसे होती|
वृहस्पतिदेव सभी कामनाएं पूर्ण करते है, जो सदभावनापूर्वक वृहस्पतिवार का व्रत करता है एवं कथा पढ़ता है अथवा सुनता है और दूसरों को सुनाता है, वृहस्पतिदेव उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते है, उनकी सदैव रक्षा करते है|
जो संसार में सदभावना से गुरुदेव का पूजन एवं व्रत सच्चे हृदय से करते है, उनकी सभी मनकामनाएं वैसे ही पूर्ण होती है, जैसी सच्ची भावना से रानी और राजा ने वृहस्पतिदेव की कथा का गुणगान किया, तो उनकी सभी इच्छाएं वृहस्पतिदेव जी ने पूर्ण की|  अनजाने में भी वृहस्पतिदेव की उपेक्षा न करें, ऐसा करने से सुख-शांति नष्ट हो जाती है इसलिये सबको कथा सुनने के बाद प्रसाद लेकर जाना चाहिये, हृदय से उनका मनन करते हुये जयकारा बोलना चाहिये| 

|| अथ ब्रहस्पति की आरती  ||
जय जय आरती राम तुम्हारी। राम दयालु भक्त हितकारी॥
जनहित प्रगटे हरि व्रतधारी। जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी॥
द्रुपदसुता को चीर बढ़ायो। गज के काज पयादे धायो॥
दस सिर छेदि बीस भुज तोरे। तैंतीसकोटि देव बंदी छोरे॥
छत्र लिए सर लक्ष्मण भ्राता। आरती करत कौशल्या माता॥
शुक शारद नारदमुनि ध्यावैं। भरत शत्रुघन चँवर ढुरावैं॥
राम के चरण गहे महावीरा। ध्रुव प्रहलाद बालिसुर वीरा॥
लंका जीति अवध हरि आए। सब संतन मिलि मंगल गाए॥
सीय सहित सिंहासन बैठे। रामानन्द स्वामी आरती गाएँ ॥

सोमवार व्रत की कथा

   || सोमवार के व्रत के नियम ||

- आमतौर पर सोमवार का व्रत तीसरे पहर तक होता है|
- व्रत में अन्न या फल का कोई नियम नहीं है |
- भोजन केवल एक ही बार किया जाता है|
- व्रतधारी को गौरी- शंकर की पूजा करनी चाहिए|
- तीसरे पहर, शिव पूजा करके, कथा कह सुनकर भोजन करना चाहिए|


|| साधारण सोमवार व्रत की कथा ||

एक नगर में एक शेठ रहता था| उसे धन एश्वर्य की कोई कमी न थी फिर भी वह दुखी था क्योंकि उसके कोई पुत्र न था| पुत्र प्राप्ति के लिए वह प्रत्येक सोमवार को व्रत रखता था तथा पूरी श्रद्धा के साथ शिवालय में जाकर भगवन गौरी-शंकर की पूजा करता था| उसके भक्तिभाव से दयामयी पार्वती जी द्रवित हो गई और एक दिन अच्छा अवसर देखकर उन्होंने शंकर जी से विनती की,"स्वामी ! यह नगर शेठ आपका परमभक्त है, नियमित रूप से आपका व्रत रखता है, फिर भी पुत्र के आभाव से पीड़ित है| कृपया इसकी कामना पूरी करें|"


दयालू पार्वती की ऐसी इच्छा को सुनकर भगवन शंकर ने कहा, पार्वती ! यह संसार, कर्मभूमि है| इसमें जो करता है, वह वैसा ही भरता है | इस साहूकार के भाग्य में पुत्र सुख नहीं है| शंकर के इंकार से पार्वती जी निराश नहीं हुई | उन्होंने शंकर जी से तब तक आग्रह करना जरी रखा जब तक कि वे उस साहूकार को पुत्र सुख देने को तैयार नहीं हो गए|


भगवन शंकर ने पार्वती से कहा- तुम्हारी इच्छा है इसलिए मै इसे एक पुत्र प्रदान करता हूँ लेकिन उसकी आयु केवल 12 वर्ष होगी| संयोग से नगर शेठ गौरी- शंकर संवाद सुन रहा था| समय आने पर नगर शेठ को सर्व सुख संपन्न पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई| सब और खुशियाँ मनाई गईं| नगर शेठ को बधाइयाँ दी गई| लेकिन नगर शेठ की उदासी में कोई कमी नहीं आई, क्योंकि वह जानता था, कि वह पुत्र केवल 12 वर्ष के लिए प्राप्त हुआ है| उसकी बाद काल इसे मुझसे छीन लेगा| इतने पर भी सेठ ने सोमवार का व्रत और गौरी शंकर का  पूजन हवन यथाविधि पहले की तरह ही जारी रखा| 


जब बालक ग्यारह वर्ष का हो गया तो वह पूर्ण युवा जैसा लगने लगा, फलतः सभी चाहने लगे कि उसका विवाह कर दिया जाए| नगर सेठानी का भी यही आग्रह था | किन्तु नगर सेठ पुत्र के विवाह के लिए तैयार नहीं हुआ| उसने अपने साले को बुलवाकर आदेश दिया कि वह पर्याप्त धन लेकर पुत्र सहित काशी के लिए कूच करे और रास्ते में भजन तथा दान- दक्षिणा देता हुआ काशी पहुंचकर सर्व विद्या में पूर्ण बनाने का प्रयास करे| मामा भांजे काशी के लिए रवाना हुए| हर पड़ाव पर वे यज्ञ करते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और दान- दक्षिणा देकर दीनहीनों को संतुष्ट करते इसी प्रकार वह काशी की ओर बढ़ रहे थे कि एक नगर में उनका पड़ाव पड़ा था और उस दिन उस नगर के राजा की कन्या का विवाह था, बारात आ चुकी थी, किंतु वर पक्ष वाले भयभीत थे, क्योंकि उनका वर एक आँख से काना था, उन्हें एक सुन्दर युवक की आवश्यकता थी| गुप्तचरों से राजा को जब सेठ के पुत्र के रूप गुण की चर्चा का पता चला तो उन्होंने विवाह के पूरा होने तक लड़का यदि दूल्हा बना रहेगा तो वे उन दोनों को बहुत धन देंगे और उनका अहसान भी मानेंगे| नगर सेठ का लड़का इस बात के लिए राजी हो गया| कन्या पक्ष के लोगों ने राजा की पुत्री के भाग्य की बहुत सराहना की कि उसे इतना सुन्दर वर मिला| जब सेठ का पुत्र विदा होने लगा तो उसने राजा की पुत्री की चुनरी पर लिख दिया कि तुम्हारा विवाह मेरे साथ हुआ है| मै राजा का लड़का न होकर नगर सेठ का पुत्र हूँ और विद्याअध्ययन के लिए काशी जा रहा हूँ| राजा का लड़का तो काना है| राजा की लडकी ने अपनी चुनरी पर कुछ लिखा हुआ देखा तो  उसे पढ़ा और विदा के समय काने लड़के के साथ जाने से इंकार कर दिया फलतः राजा की बारात खाली हाथ लौट गई| नगर सेठ का पुत्र काशी जाकर पूरी श्रद्धा और भक्ति से विद्याध्ययन में जुट गया| उसके  मामा ने यज्ञ और दान पुण्य का काम जारी रखा| जिस दिन लड़का पूरे 12 वर्ष का हो गया उस दिन भी और दिनों की भांति यज्ञादि हो रहे थे| तभी उसकी तबियत ख़राब हुई| वह भवन के अन्दर ही आकर एक कमरे में लेट गया| थोड़ी देर में मामा पूजन करने को उसे लेने आया तो उसे मरा देखा उसे अत्यंत दुःख हुआ और वह बेहोश हो गया| जब उसे होश आया तो उसने सोचा मै अगर रोया चिल्लाया तो पूजन में विघ्न पड़ेगा| ब्रह्मण लोग भोजन त्याग कर चल देंगे| अतः उसने धैर्य धारण कर समस्त कार्य निपटाया| और उसके बाद जो उसने रोना शुरू किया तो उसे सुनकर सभी का  ह्रदय विदीर्ण होने लगा| सौभाग्य से उसी समय, उसी रास्ते से गौरी-शंकर जा रहे थे| गौरी के कानों में वह करुण क्रंदन पहुंचा तो उनका वात्सल्य से पूर्ण ह्रदय करुणा से भर गया| सही स्थित का ज्ञान होने पर उन्होंने शंकर भगवान से आग्रह किया कि वे बालक को पुनः जीवन प्रदान कर  दें| शंकर भगवान को पार्वती जी की प्रार्थना स्वीकार करनी पड़ी| नगर सेठ का इकलौता लाल पुनः जीवित हो गया| शिक्षा समाप्त हो चुकी थी|  मामा भांजे दोनों वापिस अपने नगर के लिए रवाना हुए रास्ते में पहले की तरह दान दक्षिणा देते उसी नगर में पहुंचे जहाँ राजा की कन्या के साथ लड़के का विवाह हुआ था, तो ससुर ने लड़के को पहचान लिया| अत्यंत आदर सत्कार के साथ उसे महल में ले गया| शुभ मुहूर्त निकल कर कन्या और जामाता को पूर्ण दहेज़ के साथ विदा किया| नगर सेठ का लड़का पत्नी के साथ जब अपने घर पहुंचा तो पिता को यकीन ही नहीं आया| लड़के के  माता- पिता अपनी हवेली पर चढ़े बैठे थे| उनकी प्रतिज्ञा थी कि वहां से तभी उतरेंगे जब उनका लड़का स्वयं अपने हाथ से उन्हें नीचे उतारेगा, वरना ऊपर से ही छलांग लगाकर आत्महत्या कर लेंगे| पुत्र अपनी पत्नी के साथ हवेली की छत पर गया| जहाँ जाकर माँ बाप के सपत्नीक चरण स्पर्श किए| पुत्र और पुत्र वधु को देखकर नगर सेठ और सेठानी को अत्यंत हर्ष हुआ| सबने मिलकर उत्सव मनाया| 


10 सितम्बर, आत्महत्या निषेध दिवस पर विशेष: जीवन है अनमोल...


नई दिल्ली। दुनियाभर में एक ओर जहां विभिन्न तरह की बीमारियां हर साल लाखों लोगों की जान ले लेती हैं। वहीं ऐसे लाखों लोग भी हैं जो किन्हीं वजहों से अपने खुद के जीवन के दुश्मन बन जाते हैं और आत्महत्या जैसा कदम उठाकर समाज की संरचना, सोच और सरोकारों पर नए सिरे से बहस को जन्म देते हैं। लोगों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने और इसके प्रति जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से डब्ल्यूएचओ ने विश्वभर में 10 सितम्बर को विश्व आत्महत्या निषेध दिवस की शुरुआत की।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक विश्व में हर साल करीब 10 लाख लोग वाह्य एवं आंतरिक कारणों के चलते आत्महत्या करते हैं। औसतन हर 40 मिनट पर आत्महत्या से एक मौत और प्रत्येक तीन मिनट पर इसकी कोशिश की जाती है।विश्व आत्महत्या निषेध दिवस के इस अभियान में गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) आत्महत्या निषेध अंतर्राष्ट्रीय संगठन (आईएएसपी) महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 50 से अधिक देशों के पेशेवर और स्वयंसेवक आत्महत्या रोकथाम के प्रयासों में अपनी सेवाएं देते आ रहे हैं।

आत्महत्या के संदर्भ में यदि भारत की बात करें तो यहां आत्महत्या के आंकड़े काफी भवायह हैं। डब्ल्यूएचओ की मानें तो भारत में हर साल करीब एक लाख लोग आत्महत्या करते हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार भारत में जाहिर तौर पर आत्महत्या की रोकथाम के लिए एक राष्ट्रीय योजना की जरूरत है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक वर्ष 2009 में देश में 127151 लोगों ने आत्महत्या की। इनमें से 68.7 फीसदी लोगों की उम्र 15 से 44 वर्ष के बीच थी। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक देश में प्रत्येक दिन आठ आत्महत्याएं गरीबी की वजह से, 73 आत्महत्याएं बीमारियों से, नौ आत्महत्याएं दिवालिया घोषित होने पर हुईं।

इसके अलावा 82 आत्महत्याएं पारिवारिक समस्याओं के चलते, 10 आत्महत्याएं प्रेम सम्बंधों में नाकामी की वजह से, छह परीक्षा में असफल होने पर, सात बेरोजगारी की वजह से, 128 आत्महत्याएं 0 से 29 आयु वर्ग के बीच, 119 30 से 44 आयु वर्ग के बीच और 101 आत्महत्याएं 45 वर्ष उम्र के लोगों ने की। आत्महत्या करने वालीं 125 से अधिक महिलाओं में 69 गृहणियां थीं जबकि एक दिन में 223 पुरुषों ने आत्महत्या की।

स्वास्थ्य पेशे से जुड़े लोग आत्महत्या को नितांत निजी और जातीय मामला भी मानते हैं। वे आत्मघाती व्यवहार के लिए कई व्यक्तिगत और सामाजिक कारकों जैसे तलाक, दहेज, प्रेम सम्बंध, वैवाहिक अड़चन, अनुचित गर्भधारण, विवाहेतर सम्बंध, घरेलू कलह, कर्ज, गरीबी, बेरोजगारी और शैक्षिक समस्या को उत्तरदायी ठहराते हैं।

वहीँ मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कुछ लोगों का मानना है कि आत्महत्या की प्रवृत्ति रोकी नहीं जा सकती क्योंकि आत्महत्या की वजह ज्यादातर सामाजिक एवं व्यक्ति के परिवेश से जुड़ी होती है जिस पर व्यक्ति का बहुत ही कम नियंत्रण होता है।

शिक्षकों को 5 सितंबर को सम्मान बाकी दिन अपमान


भारत  में शिक्षक दिवस के मौके पर राष्ट्रपति और राज्यपाल  बेहतर अध्यापन के लिए कई शिक्षकों का सम्मान करती है, ताकि शिक्षक और भी अच्छे ढंग से बच्चों को ज्ञान प्रदान कर सकें, लेकिन शिक्षक दिवस पर मिलने वाले केंद्र सरकार और राज्य सरकार से सम्मान के लिए उच्चाधिकारियों के समक्ष अपनी उपलब्लियां गिनवाना आज शिक्षकों की मजबूरी बन गई है। अच्छे शिक्षक होने के बावजूद भी बिना सोर्स के सम्मानित हो पाना बहुत ही मुश्किल है|


शिक्षक वो होता है जो हमें ज्ञान प्रदान कर एक काबिल इंसान बना देता है| इनको धन्यवाद देने के लिए एक दिन है, जो 5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में जाना जाता है। दरअसल, भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति 1952-1962 तथा द्वितीय राष्ट्रपति 13 मई 1962 से 13 मई 1967 तक रहे डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन से एक बार उनके शिष्यों ने उनका जन्मदिन मनाने की अनुमति मांगी, तो उन्होंने कहा कि मुझे ख़ुशी होगी यदि आप  5 सितंबर को ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाएं|


शिक्षक दिवस’ कहने-सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है लेकिन इसका महत्त्व बहुत कम ही लोग समझते हैं| शिक्षक दिवस का मतलब यह नहीं कि साल में एक दिन बच्चों के द्वारा अपने शिक्षक को भेंट में दिया गया एक गुलाब का फूल या कोई भी उपहार हो और यह शिक्षक दिवस मनाने का सही तरीका भी नहीं है। वास्तव में शिक्षक दिवस मानने का मूल मकसद शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा देने और भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षकों के महत्व के प्रति जागरुकता लाना है।




हर साल शिक्षक दिवस आते ही राष्ट्रपति या राज्यपाल से सम्मान पाने के लिए शिक्षकों में उम्मीदें जग जाती हैं। भारत देश में सम्मान के लिए शिक्षकों को खुद ही अपनी उपलब्धियों को विभागीय अधिकारियों के सामने गिनवाना पड़ता है| ऐसा इसलिए शासन अपने अधिकारियों की नजरों को योग्य-अयोग्य शिक्षकों का चयन करने के काबिल नहीं मानता| शिक्षकों को उपलब्धियां गिनवाकर सम्मान की दौड़ में शामिल होना पड़ता है, जिससे वह सम्मान किसी अपमान से कम नहीं लगता।शायद इसीलिए कई बार शिक्षक की छोटी-मोटी गलती होने पर अधिकारी उन पर तुरंत कार्रवाई कर देते हैं|


अगर देखा जाये तो शिक्षकों  के ऊपर  घर-घर जाकर जनगणना, मलेरिया, कुष्ट और अन्य बीमारियों के रोगियों को खोजने की जिम्मेदारी भी शिक्षकों के कंधे डाल दी जाती है। क्या वास्तव में शिक्षकों की नियुक्ति इन्ही कार्यो के लिए हुई है|