पूर्व-उत्तर का स्वर्ग गोलपाड़ा

अगर आप असम जा रहे है तो गोलपाड़ा की खूबसूरती का आनंद अवश्य लें। गोलपाडा प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग कहा जाता है। इस जिले की स्थापना 1983 में की गई थी। पर्यटकों के लिए यहां पर बहुत कुछ है। यहां की ऐतिहासिक विरासतों और खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों को देखने के लिए पर्यटक खींचे चले आते हैं। यहां पंचरत्न, श्रीसुरया, तुर्केश्वरी और नालंगा पहाड़ियां हैं। पहाड़ियों के अलावा अनेक खूबसूरत नदियां भी हैं।

हूलूकुण्डा पहाड़ : यह गोलपाड़ा जिले में स्थित अत्यंत सुंदर पहाड़ी है। ब्रिटिश काल में यहां पर अनुमण्डलाधिकारी का दफ्तर था। इस पहाड़ से पूरे गोलपाड़ा का खूबसूरत और मनोहारी दृश्य देखा जा सकता है। यहां से विशेष रूप से ब्रह्मपुत्र नदी और नारायण सेतू का खूबसूरत दृश्य देखना, पर्यटकों को बहुत भाता है।

कुमरी बील : कुमरी बील गोलपाड़ा की उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित अत्यंत खूबसूरत प्राकृतिक झील है। यह गोलपाड़ा से 11 किमी दूर है। इस झील के पास ही नारायण सेतू और पगलाटेक मन्दिर भी है। झील से नारायण सेतू 1 किमी और पगलाटेक मन्दिर 5 किमी दूर है। पगलाटेक मन्दिर ऐतिहासिक विरासत है। यह बहुत खूबसूरत है। पर्यटक यहां पर वाटर स्पोर्ट्स का आनंद भी ले सकते हैं।

श्री श्रीसुरया पहाड़ : गोलपाड़ा से श्रीसुरया पहाड़ 16 किमी दूर है। गोलपाड़ा से इस पहाड़ तक जाने के रास्ते में मोरनोई और सैनिक स्कूल भी आते हैं। इस पहाड़ पर पर्यटक अनेक देवी-देवताओं की सुन्दर प्रतिमाएं देख सकते हैं। इन प्रतिमाओं में दुर्गा, गणेश, सूरज, चन्द्रमा और बुध्द की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। माघ-बिहू में पूर्णिमा के दिन यहां पर तीन दिन तक मेले का आयोजन भी किया जाता है।

देखधोवा : देखधोवा श्रीसुरया पहाड़ से 4 किमी दूर है। इसको पहाड़ सिंह के नाम से भी जाना जाता है। इसके पास ही ब्रह्मपुत्र नदी भी बहती है। ब्रह्मपुत्र देखने के बाद कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों तक आसानी से पहुंचते हैं। पास ही रायखासिनी पहाड़, नंदेश्वर देवालय और सैनिक स्कूल स्थित है।

बाराड़ा चिबनांग : मेघालय में स्थित बाराड़ा चिबनांग बहुत ही खूबसूरत स्थान है। यह गोलपाड़ा के बिल्कुल पास स्थित है। पिकनिक मनाने के लिए यह बेहद उम्दा और खूबसूरत स्थान माना जाता है।

श्रीसत्यान्य गौडिया मठ : श्रीमंत मठ के पास ही एक मठ है श्रीसत्यान्य गौडिया। यह तिलपाड़ा में ही है। इसका उद्धाटन श्री श्रीमद्भक्ति देईता माधव गोस्वामी महाराज ने किया था। श्रीमंत शंकर मठ : यह मठ मध्यकालीन वैष्णव संत श्रीमंत शंकर देव को समर्पित है। इसका निर्माण 11 फरवरी 1979 को पूरा हुआ था। मठ में शंकर देव की एक अस्थि भी रखी हुई है। इसको पूटा अस्थि के नाम से जाना जाता है। श्री शंकर देव का मठ गोलपाड़ा शहर के हृदय तिलपाड़ा में स्थित है।

सात संसार, इक मुनस्यारी

मुनस्यारी मैं कुदरत अपने आँचल में तमाम खूबसूरत नजारों के साथ अमूल्य पेड़-पौधे व तमाम जड़ी-बूटीओं को छुपाए हुए है, उत्तराखंड के जिले पिथौरागढ़ के एक हिस्से मुनस्यारी पर कुदरत खास मेहरबान है. इसकी इन्हीं खूबिओं की वजह से स्थानीय लोग मुनस्यारी के लिए ' सात संसार, इक मुनस्यारी' की कहावत का प्रयोग करते हैं. मुनस्यारी एक विस्तृत क्षेत्र है, जहाँ शंखधुरा, नानासैण, जेती, जल्थ, सुरंगी, शर्मेली व गोड़ीपार जैसे छोटे-छोटे गाँव हैं और इन्हीं गांवो के ठीक नीचे कल-कल करती गौरी गंगा नदी बहती है.

लोगों का मानना है कि इस नदी में गंधक का पानी है। यही वजह है कि इसके पानी में औषधीय गुण बताए जाते हैं और माना जाता है कि इसमें नहाने से त्वचा संबंधी तकलीफें दूर होती हैं।
यहां से हिमालय की सफेद ऊंची चोटियां बेहद साफ नजर आती हैं। साफ व सुहावने मौसम में यहां के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को देख पर्यटक पलक तक झपकना भूल जाते हैं। वैसे, मुनस्यारी उगते व डूबते सूरज के मोहक नजारों के लिए भी मशहूर है।
मुनस्यारी आने पर पर्यटक खलिया टॉप पर ना जाएं, यह तो नामुमकिन है। हालांकि यहां पहुंचने के लिए एकदम सीधी चढ़ाई चढ़ने की हिम्मत भी जुटानी होती है। वैसे, यहां पहुंचने के बाद पंचौली चोटियों को एकदम साफ देखा जा सकता है। ऐसा लगता है कि मानो ये चोटियां नहीं, बल्कि पांच चिमनियां हों। कहा जाता है कि स्वर्ग की ओर बढ़ने से पहले पांडवों ने आखिरी बार पंचौली में ही खाना बनाया था।
इनमें दिलचस्पी रखने वालों के लिए भी यह जगह बेहतरीन है। यहां आमतौर पर दिखाई देने वाले पक्षी विस्लिंग थ्रस, वेगटेल, हॉक कूकू, फॉल्कोन और सपर्ेंट ईगल वगैरह हैं। तो मुनस्यारी के जंगल शेर, चीते, कस्तूरी मृग और पर्वतीय भालू का घर कहे जाते हैं।
एक ओर जहां क्षेत्र की 'गौरी घाटी' ट्रेकिंग के लिए स्वर्ग कही जाती है, वहीं गौरी गंगा में रॉफ्टिंग के रोमांच को करीब से महसूस किया जा सकता है। इसके अलावा सर्दियों में यहां खलिया टॉप और बेतुलीधार पर पहुंच कर भी प्रकृति का भरपूर आनंद लिया जा सकता है। मुनस्यारी से मिलम, नामीक, रालम ग्लेशियर वगैरह काफी नजदीक हैं। इसके पास जोहार घाटी है, जो किसी समय तिब्बत के साथ व्यापार करने का रूट हुआ करता था। ध्यान रखें कि आज इस रूट पर आगे बढ़ने के लिए आपको पूर्व अनुमति लेनी होती है। अगर आप किसी व्यावसायिक ट्रैक समूह के साथ हैं, तो उनके पास पहले से ही अनुमति रहती है।
मुनस्यारी से 5 किमी पर कालामुनि डांडा में एक प्रसिध्द मां दुर्गा मंदिर है, जिसमें लोगों की गहरी श्रध्दा है। पर्यटक भी इस मंदिर में जरूर जाते हैं। नवरात्रों में यहां के उल्का देवी मंदिर में एक बहुत बड़ा मेला लगता है, जिसे मिलकुटिया का मेला कहा जाता है। यहां दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं। नौ दिन तक यहां सिर्फ ढोल, वाद्य यंत्र व नगाड़ों की भक्तिमय गूंज सुनाई देती है। दिल्ली से मुनस्यारी करीब 590 किमी दूर हैं, वहीं काठगोदाम से इसकी दूरी 314 किमी रह जाती है, जो यहां पहुंचने के लिए करीबी रेलवे स्टेशन भी है। यहां से आगे के लिए आपको बस व टैक्सी असानी से मिल जाती हैं। पिथौरागढ़ के नैनी सैनी में एक छोटा सा हवाई अड्डा है|

देवता का घर लोयांग

चीन में यह प्रचलित है कि यदि आप चीन के उत्थान और पतन की दास्तान से रूबरू होना चाहते हैं तो एक बार लोयांग शहर का रुख अवश्य कीजिए। चीन के हनान प्रांत के पश्चिमी हिस्से और पीली नदी के दक्षिणी तट पर बसे इस शहर की स्थापना ईसापूर्व 12 वीं सदी में हुई थी और यह चीन की आठ बड़ी प्रचीन राजधानियों में से एक है।
चीनी इतिहास का यह इकलौता ऐसा शहर है जिसे देवता की राजधानी के नाम से अभिहित किया गया है। लोयांग 13 राजवंशों की राजधानी रहा है यानी इस शहर को 1500 साल तक राजधानी होने का गौरव मिला है। लोयांग चीनी सभ्यता के अहम जन्मस्थानों में से एक रहा है। यहीं पर माओवाद और कंफ्यूशियसवाद का जन्म हुआ।

यह शहर चीन के शीर्ष पर्यटनस्थलों में से है जहां के चप्पे-चप्पे पर सांस्कृतिक धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। गौरतलब है कि चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा द्वारा चीन के आकर्षक शहरों को चुनने के लिए लिए चल रही ऑनलाइन प्रतियोगिता में लोयांग भी शामिल है। इस प्रतियोगिता में अपनी पसंद के सबसे आकर्षक चीनी शहरों के लिए दुनिया भर के नेटिजन सीआरआई द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता में ऑनलाइन मतदान में हिस्सा ले रहे हैं।

यहां मौजूद प्राचीन राजधानी के अवशेष, मंदिर, गुफाएं, मकबरे इसकी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध बनाते हैं। लुंगमन गुफा यहां मौजूद धरोहरों में सबसे खास है। इस गुफा स्थल को पहले 'यी नदी का द्वार' कहा जाता था। बाद में इसे लुगमन या ड्रैगन द्वार कहा जाने लगा।

इन बौद्ध गुफाओं पर कारीगरों ने उस समय काम करना शुरू किया जब उत्तरी वेइ के सम्राट ने दातोंग की जगह लोयांग को अपनी राजधानी बनाया। यहां मौजूद कारीगरी दातोंग की कारीगरी का ही विस्तार है। लुंगमेन में काम सात राजवंशों के कार्यकाल तक चला। यहां 1300 से ज्यादा गुफाएं, 40 छोटे पगोड़ा और करीब 100,000 बौद्ध प्रतिमाएं हैं जिनका ऊंचाई एक इंच से लेकर 57 फुट तक है। इन्हें चीन में बौद्ध संस्कृति की उत्कृष्ट धरोहर माना जाता है।

पईमा मंदिर चीन का प्रथम सरकारी बौद्ध मठ है जिसका निर्माण वहां बौद्ध धर्म की शुरुआत के बाद आधिकारिक तौर पर किया गया। इस शहर में रंग-बिरंगे पीयोनी या चंद्रपुष्प खिलते हैं और इसे पुष्प का साम्राज्य भी कहा जाता है। यह पुष्प शांति और समृद्धि के प्रतीक हैं। हर साल जब 15 अप्रैल से आठ मई तक चंद्रपुष्पों के पुष्पित-पल्लिवत होने का मौसम चरम पर होता है तो शहर में चंद्रपुष्प मेले का आयोजन होता है। विश्वप्रसिद्ध रेशम मार्ग यहीं से होकर गुजरता था।

दुनिया का सबसे सुन्दर कस्बा लाचुंग

मैदानी इलाको में रहने वालो को हमेशा गिरती बर्फ में रोमांस नज़र आता है। सिक्किम का लाचुंग ऐसी ही जगह है, यहाँ जब बर्फ गिरती है तो उसका नजारा मन मोहक होता है। युमथांग घाटी के इलाके की प्राकृतिक खूबसूरती मजे को और बढ़ा देती है।
सिक्किम की खूबसूरती के चर्चे तो पूरे विश्व में हैं। लेकिन आज हम बता रहे हैं उस जगह के बारे में जिसे सिक्किम में सबसे खूबसूरत कस्बा के रूप में जाना जाता है। इस कस्बा का नाम है लाचुंग। इसे यह नाम दिया था ब्रिटिश घुमक्कड जोसेफ डॉल्टन हुकर ने 1855 में प्रकाशित हुए द हिमालयन जर्नल में।
लाचुंग उत्तर सिक्किम में चीन की सीमा के काफी नजदीक है। लाचुंग समंदर से 9600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित है। यही नदियां ही आगे जाकर तीस्ता नदी में मिल जाती हैं। इतनी अधिक ऊंचाई पर ठण्ड तो साल भर होती है। बर्फ गिरते ही यहां की खूबसूरती को नया मुकाम मिल जाता है| लाचुंग को युमथांग घाटी के लिये बेस के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

पर्यटन स्थल

पहाडी की चोटी पर लाचुंग मोनेस्ट्री है।यहां ध्यान लगाने बैठें तो आप खुद को ही भूल जायेंगे।12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित न्यिंगमापा बौद्धों की इस मोनेस्ट्री की स्थापना 1806 में हुई थी। इसके सिवा लाचुंग में हथकरघा केन्द्र भी है जहां स्थानीय हस्तशिल्प का जायजा लिया जा सकता है। इस के पास ही शिंगबा रोडोडेंड्रन अभयारण्य है। सात-आठ हजार फुट से अधिक की ऊंचाई वाले हिमालयी पेडों को रंग देने वाले बुरांश के पेडों को यहां बेहद नजदीक से महसूस किया जा सकता है। यहां रोडोडेंड्रन की लगभग 25 तरह की किस्में हैं।
कंचनजंघा नेशनल पार्क भी इसी इलाके में आता है।युमथांग जीरो पॉइण्ट 15700 फुट से ऊपर है। उस ऊंचाई पर खडे होकर, जहां हवा भी थोडी झीनी हो जाती है, आगे का नजारा देखना एक दुर्लभ अवसर है।

कब-कहां-कैसे जाया जाये

लाचुंग जाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मई तक का है। अप्रैल-मई में यह घाटी फूलों से लकदक दिखाई देगी तो जनवरी-फरवरी में बर्फ से आच्छादित मिलेगा। हर मौसम की अलग खूबसूरती है यहाँ । लाचुंग गंगटोक से 117 किलोमीटर दूर है। गंगटोक से यह रास्ता जीप से पांच घण्टे में तय किया जा सकता है। लाचुंग से युमथांग घाटी 24 किलोमीटर आगे है, युमथांग तक जीपें जाती हैं। रस्ते में आप को फोदोंग, मंगन, सिंघिक व चुंगथांग जैसी स्थान भी मिलेंगे यहाँ के लिए जीपें गंगटोक से मिलती हैं।
जब से भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू हुआ इस इलाके में सैलानियों की आवाजाही भी बढी है। 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। यह इलाका लम्बे समय तक आम लोगों के लिये बन्द रहा है। हालात सामान्य होने के साथ ही सैलानी यहां फिर से आने लगे हैं। लिहाजा यहां कई होटल भी बने हैं। लाचुंग में सस्ते व महंगे दोनों तरह के होटल है।

बर्फ की चादर में लिपटा रूमानी सोलंग

मनाली घाटी का सोलंग नाला ऐसा स्थल है जो सैलानियों, साहसिक पर्यटन के शौकीनों, को बार-बार यहां आने का न्योता देता दिखता है। साल के हर मौसम में सोलंग का अलग अलग रंग होता है। गर्मियों में यहाँ बिछी हरियाली मन को शांति देती है, सर्दियों में लगता है कि बर्फ के देश आ गए हों। सोलंग नाले के पास बसी है सोलंग घाटी। ये नाला ही ब्यास नदी का उद्गम स्त्रोत माना जाता है। नाले के ऊपर ब्यास कुंड स्थित है। गर्मियों में सोलंग में आकाश में उड़ने वाले साहसिक खेलों का आयोजन होता है, और सर्दियों में यहां की बर्फानी ढलानों पर फिसलता रोमांच देखने लायक है। सोलंग में कई राष्ट्रीय शीतकालीन खेल आयोजित हो चुके हैं। सोलंग की ढलानें स्कीइंग के लिए दुनिया की लाजवाब प्राकृतिक ढलानों में शुमार की जाती हैं।

सोलंग से प्रकृति का प्यार
मनाली से सोलंग की दूरी 3 किलोमीटर है। समुद्र तल से 2480 मीटर की उंचाई पर स्थित सोलंग में प्रकृति की छटा देखने लायक है। रई, तोच्च तथा खनोर के फरफराते पेड़ वातावरण में रूमानी संगीत घोलते प्रतीत होते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में चांदी से चमकते पहाड़ हैं, जिनका सौंदर्य शाम की लालिमा में और भी निखर जाता है। मनाली से सोलंग आप टैक्सी, कार या दुपहिया वाहन द्वारा भी जा सकते है और सोलंग के रूमानी सौंदर्य को आत्मसात करके शाम को आप मनाली पहुंच सकते हैं। यहीं रुकना चाहें तो यहां रिजॉर्ट भी हैं। सर्दियों में यहां पर्वत श्रृंखलाएं बर्फ की सफेद चादर में लिपट जाती हैं तो यहां का द्रश्य ही बदल जाता है। जिधर नज़र दौड़ाएं, बर्फ ही बर्फ। जमीन पर बर्फ, दरख्तों पर बर्फ, नदी-नालों में तैरती बर्फ यही नहीं पहाड़ों से नागिन कि तरह लिपटी बर्फ अदभुत और शब्दों से परे होता है। सोलंग जब बर्फ से अपना श्रृंगार करता है तब इसका नैसर्गिक रूप देखते ही बनता है और इसी में बंध कर सैलानी यहां से वापस जाने का नाम नहीं लेते।

फूलों की मादक सुगंध

सोलंग में जब रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं तब मादकता चारो ओर बिखर जाती है। प्रकृति अपने कितने रूप बदल सकती है, यह हमें सोलंग आकर पता चलता है। मस्त हवा के झोंके, पंछियों का कलरव और दूर झरने का कोलाहल माहोल को जादुई बना देता है। यहाँ आकर ही पता चलता है की प्रकृति ने हमें कितने रंगों ने नवाजा है |
तो फिर किस बात का है इंतजार सोलंग में इस बार मनाईये अपनी छुट्टी |

महाकाल की नगरी: उज्जैन

उज्जैन : हिन्दुओं में मोक्ष प्राप्ति का सबसे आसन साधन है तीर्थ स्थल का भ्रमण करना| भारत के मध्य प्रदेश में स्थित प्राचीन नगरी उज्जैन देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक हैं, जो महाकाल सदा शिव के आशीर्वाद की छत्र-छाया में है| विंध्यपर्वतमाला के समीप एवं क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित 'महाकाल की नगरी' के नाम से विख्यात इस नगरी में आकर आप शिव कि भक्ति में खो जाएंगे| कथा पुरानो में कहा गया है कि जब देवताओं और राक्षसों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तब उसमें से कई अमूल्य चीजें निकली थीं। इस अमृत को पाने के लिए देवताओं और राक्षसों में बारह दिनों तक भीषण संघर्ष हुआ| इस दौरान अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी| उन्ही अमृत बूंदों में से एक बूंद से शिप्रा नदी का निर्माण हुआ जिसके तट पर स्थित है पवित्र नगरी उज्जैन| इस पवित्र नगरी को ‘कालिदास नगरी’ भी कहा जाता है|

चारों तरफ महादेव के भव्य मंदिरों से घिरे इस नगर में महाकालेश्वर मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, काल भैरव मंदिर जैसे कई प्राचीन मंदिर हैं| इसके अतिरिक्त बड़े गणेश मंदिर, हरसिध्दि देवी मंदिर, और भर्तृहरि की गुफा भी मौजूद है जहां जाकर आप अलोकिक शक्तियों को महसूस कर पाएंगे| भारत में कुम्भ का आयोजन प्रयास, नासिक, हरिध्दार और उज्जैन में किया जाता है। उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है और ऐसा भी कहा जाता है कि सिंहस्थ कुम्भ में स्नान करने से मोक्ष कि प्राप्ति होती है|

आकर्षण केंद्र-
महाकाल मंदिर- उज्जैन का खास आकर्षण यहां का महाकाल मंदिर है। यहां का ज्योतिर्लिग पुराणों में वर्णित द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक है। इसकी आस्था दूर-दूर तक फैली हुई है। यह मंदिर आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राणोजी सिंधिया के मुनीम रामचंद्र बाबा शेण बी ने बनवाया था, जिसके निर्माण में पुराने अवशेषों का उपयोग हुआ है| महाकालेश्वर का वर्तमान मंदिर तीन भागों में बंटा है। सबसे नीचे तलघर में महाकालेश्वर (मुख्य ज्योतिर्लिग), उसके ऊपर ओंकारेश्वर और सबसे ऊपर नाग चंदेश्वर मंदिर है। नाग चंदेश्वर मंदिर साल में सिर्फ एक बार खुलता है, नागपंचमी के अवसर पर। महाकालेश्वर की यह स्वयंभू मूर्ति विशाल और नागवेष्टित है। शिवजी के समक्ष नंदीगण की पाषाण प्रतिमा है। शिवजी की मूर्ति के गर्भगृह के द्वार का मुख दक्षिण की ओर है। तंत्र में दक्षिण मूर्ति की आराधना का विशेष महत्व है। पश्चिम की ओर गणेश और उत्तर की ओर पार्वती की मूर्ति है। शंकर जी का पूरा परिवार यहीं है।

द्वारकाधीश मंदिर- यहां के द्वारकाधीश मंदिर में श्रीकृष्ण की चांदी की भव्य प्रतिमा रखी हुई है। मंदिर का परिसर और वातावरण इतना सुन्दर है कि यहां दर्शनार्थियों की हमेशा भीड़ लगी रहती है| मंदिर के दरवाजे भी चांदी के हैं।

हरसिद्धि देवी मंदिर- हरसिद्धि देवी सम्राट विक्रमादित्य की परम आराध्य थीं। कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिद्धि को ग्यारह बार अपना मस्तक काटकर चढ़ाया और हर बार फिर मस्तक जुड़ गया। इस मंदिर में चार द्वार हैं, दक्षिण में एक बावड़ी है। इसी मंदिर में अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति भी है। मंदिर के बीच एक गुफा भी मौजूद है जहां साधक साधना करते हैं। मंदिर के समक्ष दो ऊंचे विशाल दीप स्तंभ हैं, जिन पर 726 दीपों के स्थान बनाए हुए हैं। नवरात्रि के समय यहां दीप जलाए जाते हैं, जिनका भव्य दृश्य इस मंदिर को आलोकित करता है।
अमृतजल शिप्रा- यह पवित्र नदी हरसिद्धि देवी और श्रीराम मंदिर के पीछे पूर्वी छोर पर बहती है। इसका गुणगान महाकवि कालिदास और बाणभट्ट ने अपने काव्य में किया है, पर आज की शिप्रा दयनीय हालत में है। भक्तगण इसकी स्वच्छता का बहुत कम ध्यान रखते हैं। शिप्रा तट पर विशाल घाट, कई मंदिर और छतरियां बनी हुई हैं| दूर-दूर तक अनेकों घाट बने हुए हैं जिनमें रामघाट, नृसिंह घाट, छत्री घाट, सिद्धनाथ घाट, गंगा घाट और मंगलनाथ घाट प्रसिद्ध हैं।

चिंतामणि मंदिर- नगर के बाहर छह किलोमीटर की दूरी पर चिंतामणि गणेशजी का मंदिर है। यह मंदिर हमेशा ही दर्शनार्थियों से भरा रहता है। इच्छापूर्ण और चिंताहरण गणेश जी के इस मंदिर में चैत्र मास में एक विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर यहां विशेष पूजा होती है। विवाह का पहला निमंत्रण चिंतामणि को देने की प्रथा यहां काफी लंबे समय से चली आ रही है। चिंतामणि से और आगे भर्तृहरि की गुफा है। कहते हैं गुफा से चारों धाम जाने के लिए मार्ग है, जो अब बंद कर दिया गया है।

काल भैरव मंदिर- यह मंदिर तकरीबन चार सौ वर्ष पुराना होगा। इसे राजा भद्रसेन ने बनवाया था। मंदिर में कालभैरव की करीब चार फुट ऊंची प्रतिमा है और जैसे भगवान शिव के मंदिर के सामने नंदी होते हैं, वैसे ही कालभैरव के सामने श्वान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भक्तगण काल भैरव को चढ़ावे में शराब भी चढ़ाते हैं। प्रतिमा के शराब पीना का जादू देखना हो यह एक मात्र ऐसी जगह है जहां ऐसा कारनामा हर रोज़ देखने को मिलता है|कई लोगों ने इस बात की छानबीन भी कराई, पर हाथ कुछ न लगा।

बौद्ध स्तूप- उज्जैन के निकट सांची स्थित है| प्राचीन काल में यह बौद्ध कला और धर्म का बड़ा केंद्र रहा होगा। सम्राट अशोक ने यहां पहाड़ी पर कई स्तूप बनवाए। अशोक के बाद उनके पुत्र महेंद्र ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जगह-जगह बुद्ध की मूर्ति और स्तूप बनवाए। उन्होंने संपूर्ण भारत में चौरासी हजार स्तूप बनवाए। इनमें आठ सांची में हैं। यहां स्तूपों के पत्थरों पर बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और धर्मोपदेश के दृश्य को गढ़ा गया है।

उज्जैन जाने के वैसे तो अनेकों तरीके उपलब्ध हैं लेकिन इंदौर से उज्जैन जाना सबसे आसन तरीका है|यहां से उज्जैन केवल 55 किलोमीटर की दूरी पर है। इसके लिए आप बस, ट्रेन या विमान किसी का भी प्रयोग कर मात्र 45 मिनट में पहुंच सकते हैं| तो चलिए फिर महादेव जी की शरण में और कर लीजिए अपनी सभी संकट दूर|

पिंडदान के लिए सर्वोत्तम स्थान है गया

वैदिक परम्परा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी पर तथा पितृपक्ष में उनका विधिवत श्राद्ध करे।

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने के अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। इस वर्ष 12 सितम्बर से पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा है।

मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग है। वैसे तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है परंतु बिहार के गया में पिंडदान का खास महत्व है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है।

गया के पंडे राजकिशोर कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान सबसे अच्छा माना जाता है। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारम्भ होती है। पौराणिक मान्यताओं और किंवदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंशजों में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। यह वरदान मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्रकृति के नियमों के विपरीत होने लगा। लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे।

इससे बचने के लिए यज्ञ करने को देवताओं ने गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बनी। परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी के तर्पण की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को पिंड देने के लिए गया आते हैं।

विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलाकृति को पिंड कहते हैं।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है।

पंडों के मुताबिक शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं।

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं।

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सवरेपरि है।

कंचनजंघा का स्वर्ग- सिक्किम

गंगटोक : यदि महानगरों की भाग दौड़ से दिल भर गया है तो एक बार सिक्किम घूम लें |यकीं मानिये वहां जाकर वापस लौटने के बाद भी आप अपने तो सिक्किम के सहर में बंधा महसूस करेंगे | हमारे देश के सबसे छोटे राज्यों में शुमार सिक्किम हिमालय के पूर्वी छोर पर स्थित है।
हिमालय से करीब होने के कारण यहाँ वर्ष भर मौसम बहुत ही खूबसूरत होता है| सिक्किम के निवासी कंचनजंघा पर्वत को देवता की तरह पूजते हैं।सिक्किम का स्थानीय नाम डेनजोंग है जिसका अर्थ होता है चावल की घाटी।चावल यहां की मुख्य फसल है। लेकिन सिक्किम सबसे ज्यादा जिस चीज के लिये जाना जाता है,वह हैं यहां के ऑर्किड जिनकी राज्य में 450 से ज्यादा किस्में होती हैं। डेंड्रोबियम फैमिली का नोबल ऑर्किड यहां का राजकीय फूल है ये दुनियां का सबसे सुन्दर ऑर्किड माना जाता हैं । इसके अलावा दस हजार फुट की ऊंचाई पर मिलने वाले रोडोडेंड्रोन की लगभग 36 किस्में पायी जाती हैं|

सिक्किम में 224 मीटर से लेकर 8590 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थल हैं। बर्फ से ढकी पर्वतों की चोटियां हैं घने जंगल हैं।तो दूसरी ओर धान के हरे-हरे खेत हैं पर्वतों पर उछलती-कूदती अटखेलियाँ करती नदियां भी है।यही वो वजह है जिसके कारण सिक्किम में फल-फूलों, वन्य-प्राणियों आदि की जैव-विविधता देखने को मिलती है|

विश्व में दूसरे किसी भी स्थान पर एक साथ इतनी तरह के जीव-जन्तु देखने को नहीं मिलते।आप यकीन नहीं मानेंगे सिक्किम में पांच सौ से ज्यादा पंछी देखने को मिलतें हैं जिनमें दस फुट के विशालकाय डैने वाले दाढी गिद्ध से लेकर फुदकी,600 से ज्यादा किस्म की तितलियां हैं जिनमें से कई लुप्तप्राय हैं,शामिल हैं। यहाँ के जंगलों में बार्किंग डीयर, रेड पांडा, नीली भेड[भराल], तिब्बती जंगली खच्चर [कयांग] और हिमालयन काला भालू भी आसानी से देखने को मिल जाता है। सिक्किम में सुकून शांति खोजने वालों के लिये शान्ति है और रोमांच का मजा लेने वालों के लिए कदम कदम पर बेशुमार चुनौतियां।


तिस्ता नदी की बेलौस धारा में लाइफ जैकेट पहनकर छोटी सी डोंगी को खेने का अनुभव सोच कर ही सिहरन पैदा कर देता है। तीस्ता और रांगित, दोनों ही नदियां राफ्टिंग के लिये आदर्श हैं। तीस्ता में राफ्टिंग माखा से की जा सकती है, धार में आप सिरवानी व मामरिंग होते हुए रांगपो तक पहुँच सकते हैं।दूसरी ओर रांगित नदी में सिकिप से राफ्टिंग की शुरूआत करके जोरथांग व माजितार के रास्ते मेल्लि तक जाया जा सकता है|

एक खास बात सिक्किम की तीन तरफ की सीमाएं तीन देशों से लगी होने से कई इलाके ऐसे हैं जहां जाने के लिये परमिट की जरुरत होती है।सिक्किम ने तिब्बत के बाद बौद्ध धर्म की सबसे विशाल थाती समेट कर रखी है। रूमटेक जैसे मठ दुनियाभर में विख्यात हैं। अब बताते है आप को कुछ और सिक्किम 1975 में जनमत के द्वारा स्वाधीन भारत में शामिल हुआ। सिक्किम का ज्ञात इतिहास 17वीं सदी के बाद मिलता है जब 1642 ईस्वीं में प्रथम चोग्याल राजा का राज्याभिषेक किया गया। चोग्याल तिब्बती शब्द है, जिसका अर्थ है ‘जो धर्मानुसार शासन चलाये’।

बौद्ध गुरु पदमसम्भव की 135 फुट ऊंची विशाल प्रतिमा यहाँ है पदमसम्भव को सिक्किम का संरक्षक संत भी माना जाता है।दलाई लामा ने 22 अक्टूबर 1997 को इस प्रतिमा का उद्घाटन किया था। करीब साढे चार करोड की लागत से बनी इस प्रतिमा को फरवरी 2004 में लोगों के लिये खोल दिया गया।

सिक्किम के ज्यादातर इलाके में मौसम वर्ष भर रूमानी रहता है| गंगटोक और सिक्किम के अन्य शहरों में सभी तरह के होटल हैं।यहाँ द रॉयल प्लाजा पांच सितारा होटल है। यहां से पर्यटक मनोहारी धान के खेत, बेगवती नदी, ढलवें वन क्षेत्र और कंचनजंघा रेंज की हिम आच्छादित चोटियों का दीदार कर सकते हैं। यहां आपको आधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ पारम्परिक सिक्किमी संस्कृति की महक भी बखूबी मिलेगी। ट्रैकिंग के शौकीनों के लिये भी तमाम सुविधायें हैं।

सिक्किम का अपना कोई हवाई अड्डा नहीं है| नजदीकी एयरपोर्ट पश्चिम बंगाल का बागडोगरा है जो की गंगटोक से 124 किलोमीटर दूर है। लेकिन निराशा की कोई बात नहीं है क्योंकि बागडोगरा से गंगटोक तक के लिये हेलीकॉप्टर सेवा उपलब्ध है।यहाँ से हेलीकॉप्टर दिन में पांच बार उडता है। पांच सवारियों की क्षमता वाला हेलीकॉप्टर गंगटोक पहुंचने में सिर्फ आधा घण्टा लेता है, इसका किराया लगभग डेढ हजार रुपये है। सिक्किम रेल मार्ग से सीधा नहीं जुड़ा है। निकट के रेलवे स्टेशन सिलीगुडी 114 ,न्यू जलपाईगुडी 125 किलोमीटर हैं ये दिल्ली, कोलकाता व गुवाहाटी से दैनिक ट्रेनों से जुडे हैं।

दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ शबरिमला

शबरिमला : शबरिमला मंदिर दक्षिण भारत के प्रमुख मन्दिरों में से है।भगवान अय्यप्पन के दर्शनार्थ दिसम्बर से जनवरी में भक्त यहां आते हैं। केरल का ये मंदिर कई मामले में देश के दूसरे मंदिरों से काफी अलग है जहाँ एक ओर रजस्वला महिलाओं का प्रवेश मन है वहीँ दूसरी ओर ये मंदिर हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की शानदार मिसाल है।

तिरुअनंतपुरम से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम घाट से सह्यपर्वत शृंखलाओं के घने जंगलों के बीच, समुद्र तल से लगभग 1000 मीटर की ऊंचाई पर शबरिमला मन्दिर है। ‘मला’ मलयालम में पहाड को कहा जाता हैं। उत्तर दिशा से आने वाले यात्री एर्णाकुलम से होकर कोट्टायम या चेंगन्नूर रेलवे स्टेशन से उतरकर वहां से पम्पा आते हैं। पम्पा से पैदल चार-पांच किलोमीटर वन मार्ग से पहाडियां चढकर शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के दर्शन को जाया जाता है।

दूसरे किसी भी मंदिर की अपेक्षा शबरिमला मन्दिर में रस्म-रिवाज बिल्कुल ही अलग होते हैं।खास बात ये है की यहां जाति, धर्म, वर्ण या भाषा के आधार पर किसी भी भक्त पर कोई रोक नहीं है। यहां कोई भी भक्त अय्यप्पा मुद्रा में अर्थात तुलसी या रुद्राक्ष की माला पहनकर, व्रत रखकर, सिर पर इरुमुटि अर्थात दो गठरियां धारण कर मन्दिर में प्रवेश कर सकता है। माला धारण करने पर भक्त ‘स्वामी’ कहा जाता है और यहां भक्त व भगवान का भेद मिट जाता है। भक्त भी आपस में ‘स्वामी’ कहकर ही सम्बोधित करते हैं। शबरिमला मन्दिर का संदेश ‘तत्वमसि’ है। ‘तत’ माने ‘वह’, जिसका मतलब ईश्वर है और ‘त्वं’ माने ‘तू’ जिसका मतलब जीव से है। ‘असि’ दोनों के मेल या दोनों के अभेद को व्यक्त करता है। ‘तत्वमसि’ से तात्पर्य है कि वह तू ही है। जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं, दोनों अभेद हैं। यही शबरिमला मन्दिर का संदेश है।

पहले शबरिमला जाने वाले भक्त समूह में तीन से चार दिनों में पैदल यात्रा करके ही मन्दिर पहुंच पाते थे। रास्ते में भोजन पकाते थे ,अवश्यक बर्तन, चावल अपनी इरुमुटि में बांध लेते थे। रस्म-रिवाज के साथ, अपने ही घर पर या मन्दिर में, गुरुस्वामी के नेतृत्व में इरुमुटि बांधकर ‘स्वामिये अय्यपो’, ‘स्वामी शरणं’ के शरण मंत्रों का जोर-जोर से उच्चार करते भक्त शबरिमला के लिये चलते हैं।

श्री अय्यप्पन कथा

क्षीर सागर मंथन के बाद मोहिनी वेषधारी विष्णु पर मोहित शिव के दांपत्य से जन्मे शिशु ‘शास्ता’ का उल्लेख कंपरामायण के बालकांड, महाभागवत के अष्टम स्कंध और स्कंधपुराण के असुर कांड में मिलता है। श्री अय्यप्पन को धर्म की रक्षा करने वाले इसी धर्मशास्ता का अवतार माना जाता है। अय्यप्पन के संबंध में केरल में प्रचलित कथा यही है कि संतानहीन पंतलम राजा को शिकार के दौरान, पम्पा नदी के किनारे एक दिव्य, तेजस्वी, कंठ में मणिधारी शिशु मिला जिसे उन्होंने पाला-पोसा, मणिधारी वही शिशु मणिकंठन या अय्यप्पन कहलाये जो पंतलम राजा द्वारा निर्मित शबरिमला मन्दिर में अय्यप्पन के रूप में विराजते हैं।

अय्यप्पन मंदिर

शबरिमला में अय्यप्पन की मुख्य मूर्ति के अलावा, मालिकापुरत्त अम्मा, श्री गणेश, नागराजा जैसे उपदेवता भी प्रतिष्ठित हैं। मालिकापुरत्त अम्मा के बारे में लोकुक्ति है कि देवताओं और मनुष्यों को त्रस्त करने वाली महिषी का अय्यप्पन ने वध करके उसे मोक्ष दिया। मोक्ष प्राप्ति पर महिषी ने अपने पूर्व जन्म का रूप (पूर्व जन्म में वह लीला नामक युवती थी) धारण किया और मणिकंठन से विवाह का अनुरोध किया। नित्य ब्रह्मचारी मणिकंठन विवाह नहीं कर सकता था। परन्तु उन्होंने प्रस्ताव रखा कि जिस वर्ष कोई कन्नि (कन्या) अय्यप्पन (पहली बार दर्शन के लिये आने वाला अय्यप्पन) नहीं आयेगा, उस समय वे उनसे शादी करेंगे। साल दर साल वह प्रतीक्षा करती रहती है, मालिकापुरत्त अम्मा की कामना अधूरी ही रह जाती है। अय्यप्पन के मन्दिर में ही अय्यप्पन के मित्र मुसलमान फकीर वावर के लिये भी स्थान दिया गया है।

एरुमेलि

पारम्परिक मार्ग एरुमेलि है| इस से होकर शबरिमला पहुंचना ज़रा कठिन है लेकिन दुर्गम, चढाइयों और ढलानों पर चलना रोमांच पैदा करता है। एरुमेलि में अय्यप्पन के घनिष्ठ मित्र वावर के नाम पर एक मस्जिद भी है।भक्त इस मस्जिद में प्रार्थना करते है तथा दान करके ही अय्यप्पा दर्शन के लिये आगे चलते हैं। वावर मस्जिद हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक है।परम्परागत मार्ग से जाने वाले भक्तों को 18 दुर्गम पहाडों को पैदल ही पार करना पडता है। यहां जंगली जानवरों के आतंक का खतरा भी है।

शबरिमला मन्दिर

मन्दिर परिसर में भक्त 18 सीढियां चढकर प्रांगण में प्रवेश करते हैं। 18 सीढियां अष्टदश सोपान माने जाते हैं, अष्टदश सोपान पंचभूतों, अष्टरागों, त्रिगुणों और विद्या व अविद्या के प्रतीक हैं।पूजा के लिये मण्डल 16 नवम्बर से 27 दिसम्बर तक द्वार खुला रहता है।मन्दिर में मण्डल पूजा के लिये आने वालों को 41 दिन तक कडे नियमों में रहना होता है| मांसाहारी वस्तुओं के प्रयोग,भोग-विलास से दूर रहना होता है। मकरविलक्क (मकरज्योति) के लिये मंदिर दिसम्बर 30 से जनवरी 20 तक खुला रहता है। (मकरज्योति दर्शन 14 जनवरी को होता है) मार्च की 12 तारीख को ध्वजारोहण के साथ 10 दिनों का महोत्सव आरंभ होता है जो की अवभृथ स्नान (मूर्ति को नदी या सागर में स्नान कराना) के साथ 21 को समाप्त होता है। विषु पूजा के लिये अप्रैल महीने में 10 से 18 तक मन्दिर खुला रहता है।

भगवान अय्यप्पन को घी का अभिषेक प्रिय है मंदिर में ‘अरावणा’ (चावल, गुड और घी से तैयार खीर) ही मुख्य प्रसाद माना है। अय्यप्पन ब्रह्मचारी हैं, यही कारण है की 10 और 60 वर्ष के बीच की आयु की औरतों के लिये मन्दिर में प्रवेश मना है।

आप को जान कर अचरज होगा मक्का-मदीना के बाद शबरिमला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा तीर्थ माना जाता है|

मरुस्थल में हरे नखलिस्तान सरीखा माउंट आबू

माउंट आबू : राजस्थान जिसे बाकि देश भर के लोग हमारे देश का रेगिस्तान मानते हैं | लेकिन ऐसा नहीं है यहाँ भी सुन्दर झीलें और प्रकृति के वरदान से भरपूर नजारे, हरी-भरी वादियों से सजी-धजी पहाडियां और वन्य जीवों से भरपूर अभ्यारण्य भी हैं। क्या सोच रहें हैं कि हम कुछ गलत बता रहे हैं ,बिलकुल नहीं हम जो भी बता रहें हैं वो 100 प्रतिशत सही हैं राजस्थान में भी है "हिल स्टेशन|"


‘माउण्ट आबू’ राजस्थान का इकलौता हिल स्टेशन है, यही नहीं पड़ोसी प्रान्त गुजरात के लिये भी हिल स्टेशन की कमी को महसूस नहीं होने देता। राजस्थान के दक्षिणी इलाके में गुजरात की सीमा से सटा यह हिल स्टेशन समुद्र से चार हजार फीट की ऊंचाई पर बसा है। माउण्ट आबू कभी राजा-महाराजो का ‘समर रिसॉर्ट’ हुआ करता था।

अरावली पर्वत के दक्षिणी किनारे पर ये हिल स्टेशन अपने ठण्डे मौसम और वानस्पतिक सम्पदा की वजह से देशभर के पर्यटकों का पसंदीदा सैरगाह है ,मरुस्थल में हरे नखलिस्तान का आभास देता है। है। माउंट आबू तक पहुंचने का रास्ता खासा सुन्दर है। माउंट आबू न केवल सैलानियों का स्वर्ग है बल्कि ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी की अनूठी और बेजोड स्थापत्य कला के श्रेष्ठतम नमूने दिलवाडा के मन्दिरों में देखे जा सकते हैं। मन्दिरों के कारण ये जैनियों का प्रमुख तीर्थ भी है। जगत विख्यात प्रजापति ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय साधना केन्द्र भी यहीं है। इस से लगी गुजरात सीमा पर अम्बाजी का प्रसिद्ध मन्दिर है।

झीलों के नगर उदयपुर से लगभग 185 किलोमीटर दूर हरी-भरी पहाडियों के मध्य स्थित इस पर्वतीय स्थल के ठण्डे और सुहाने मौसम से आकर्षित होकर पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं। 1219 मीटर ऊंची पहाडी पर स्थित यहां की प्रसिद्ध नक्की झील 800 मीटर लम्बी और चार सौ मीटर चौडी है।मान्यता के अनुसार इस झील को देवताओं ने अपने नाखूनों से खोदा था। माउंट आबू का नाम यहां स्थित प्राचीन मन्दिर अर्बूदा देवी के नाम पर ही पडा है। 450 सीढियों वाले इस मन्दिर में स्थापित अर्बूदा देवी को आबू की रक्षक देवी कहा जाता है।

मान्यता के अनुसार ‘आबू’- ‘हिमालय पुत्र’ के प्रतीक रूप में जाना जाता है जिसकी उत्पत्ति अर्बद से हुई थी, इसने भगवान शिव के पवित्र बैल नन्दी को बलिष्ठ सांप के चंगुल से बचाया था। वशिष्ठ ऋषि उन प्रमुख संतों में से एक थे जिन्होंने पृथ्वी को दैत्यों से बचाने के लिये पवित्र मन्त्रों से यज्ञ करते हुए अग्नि से चार अग्निकुल राजपूत वंशों परमार, परिहार, सोलंकी और चौहान का सृजन किया था। कहा जाता है यह यज्ञ उन्होंने आबू की पहाडी के नीचे स्थित प्राकृतिक झरने के पास किया था। ये झरना गाय के सिर की आकृति वाली पहाडी से निकलता है, इसे गौमुख भी कहते हैं।अरावली पर्वत श्रंखलाओं की सबसे ऊंची चोटी गुरु शिखर पर्वत भी माउंट आबू में ही है जिसकी ऊंचाई 1722 मीटर है।

पर्यटन स्थल

नक्की झील: माउंट आबू में 3937 फुट की ऊंचाई पर स्थित नक्की झील करीब ढाई किलोमीटर के दायरे में पसरी है, इसमें बोटिंग करने का लुत्फ अलग ही है। हरीभरी वादियां, खजूर के वृक्षों की कतारें, पहाडियों से घिरी झील और झील के बीच आइलैंड, कुल मिलाकर देखें तो सारा दृश्य फ़िल्मी लगता है।

सनसेट प्वाइंट: यहां से आप देखिये सूर्यास्त का खूबसूरत नजारा, ढलते सूर्य की सुनहरी रंगत कुछ पलों के लिये पर्वत श्रंखलाओं को स्वर्ण मुकुट पहना देती है। हजारों लोग प्रतिदिन शाम ढलते इस मनोहारी दृश्य का आनन्द लेते हैं। देख कर ऐसा महसूस होता है कि मानों सूर्य आसमान से नीचे गिर रहा है।

हनीमून प्वाइंट: सनसेट प्वाइंट से दो किलोमीटर दूर नवयुगल के लिये यहां हनीमून प्वाइंट बना हुआ है। शाम के वक्त यहां नवयुगलों का जमावड़ा होता है। इसे आंद्रा प्वाइंट के नाम से भी जाना जाता है। हनीमून प्वाइंट से नज़र आने वाले हरेभरे मैदान और घाटियों के दृश्य लोगों को अपने पाश में ले लेते हैं। घाटी के जादुई दृश्य देखकर लोग यहां से हिलना भी पसन्द नहीं करते।

टॉड रॉक: नक्की झील से कुछ दूरी पर ही स्थित टॉड रॉक चट्टान है जिसकी आकृति मेंढक की है |

दिलवाडा जैन मन्दिर: 11वीं से 13वीं सदी के बीच बने संगेमरमर के नक्काशीदार जैन मन्दिर स्थापत्य कला के बेहतरीन नमूने हैं। विमल वासाही और लूणवासाही मन्दिर सबसे पुराने मंदिर हैं।इनकी वास्तुकला की अदभुत कारीगरी देखने लायक है।

गुरू-शिखर: यह अरावली पर्वत की सबसे ऊंची चोटी है। गुरू शिखर समुद्र तल से लगभग 1722 मीटर ऊंचा है। शिखर के नीचे और आसपास का नजारा देखना सैलानियों को एक अलग ही जहां में पहुंचा देता है।

अचलगढ: दिलवाडा से करीब आठ किलोमीटर दूर स्थित इस प्राचीन स्थल में आबू के अधिष्ठाता देव अचलेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसमें शिव के पैर के अंगूठे का चिन्ह है, जिसकी पूजा होती है। मन्दिर के सामने पीतल के विशाल नन्दी है। नन्दी से कुछ आगे विशाल त्रिशूल है।

गोमुख : बाजार से करीब ढाई किलोमीटर दूर हनुमान जी का मन्दिर है। इस मन्दिर से करीब 700 सीढियां नीचे उतरने पर वशिष्ठ आश्रम है। यहां पर पत्थर के बने गोमुख से सदा जल बहता है, इस स्थान को गोमुख कहते हैं।

वन्यजीव अभयारण्य: राज्य सरकार ने 228 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य 1960 में घोषित किया गया था। अभयारण्य में वानस्पतिक विविधता, वन्य जीव, स्थानीय व प्रवासी पक्षी आसानी से देखे जा सकते हैं |

राजभवन: माउंट आबू राज्यपाल का ग्रीष्मकालीन मुख्यालय है। गर्मियां शुरू होने के बाद कुछ समय के लिये ये राज्यपाल का ग्रीष्मकालीन कैम्प बन जाता है

कब-कहां-कैसे जाया जाये

यहां पूरे सालभर आया जा सकता है। सर्दियों में ठण्ड आसपास के बाकी मैदानी इलाकों से काफी ज्यादा रहती है। कडाके की सर्दी पडी तो नक्की झील का पानी जम जाता है। सर्दियों के अलावा जायें तो मोटे सूती कपडे में काम चल सकता है। शाम व रात तो पूरे सालभर ठण्डक देगी।

वायु मार्ग : निकटतम हवाई अड्डा उदयपुर है जोकि 185 किलोमीटर दूर है। अहमदाबाद हवाई अड्डा 235 किलोमीटर की दूरी पर है, जोधपुर हवाई अड्डा 267 किलोमीटर दूर है।

रेल मार्ग: रेलवे स्टेशन आबू रोड है जोकि 28 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रेलवे स्टेशन दिल्ली-अहमदाबाद लाइन पर है जहां सभी प्रमुख रेलगाडियां रुकती हैं।

सडक मार्ग: देश प्रमुख शहरों से सडक मार्ग द्वारा माउंट आबू पहुंचा जा सकता है। उदयपुर 185 किलोमीटर की दूरी पर है और उदयपुर से ईसवाल, गोगुंदा, जसवंतगढ, पिंडवाडा होते हुए माउंट आबू जाते है। अहमदाबाद से वाया पालनपुर 222 किलोमीटर और वाया अम्बाजी 250 किलोमीटर। जोधपुर से माउंट आबू 267 किलोमीटर, अजमेर 360 किलोमीटर, जयपुर 490 किलोमीटर, दिल्ली 752 किलोमीटर, आगरा 732 किलोमीटर और मुम्बई 751 किलोमीटर है।

मनमोहक वादियों और शांत वातावरण के लिए आइये केरल

केरल| शहर की भाग-दौड से दूर अगर आप किसी शांत एवं भक्तिमय जगह पर जाना चाहते है तो केरल से बेहतर कोई जगह नहीं है| डोसा, सांबर, कडाला कढी, स्वीट डिश में पायसम, उबला हुआ मीठा केला और आस-पास का पारंपरिक माहौल आपको केरल की संस्कृति से रू-ब-रू कराएगी| केरल के एर्नाकुलम पुर्तगाली शैली के खूबसूरत घर, नारियल के पेड और हिप्पी संस्कृति की झलक लिए इस स्थान को फोर्ट कोच्चि भी कहते हैं| फोर्ट कोच्चि के अलावा यहां से करीब 25 किलोमीटर दूर वायपिन आयलैंड जरूर जाएं। यहां चेरई बीच है। ये बीच काफी साफ-सुथरा और तैराकी के लिए माकूल है।

केरल में भाषाई समस्या आडे नहीं आती क्योंकि यहां लोगों को अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान है और साथ ही स्थानीय लोग काम-चलाऊ हिंदी भी बोल लेते हैं। फोर्ट के अलावा केरल का सबसे खूबसूरत नजारा मुन्नार में ही देखने को मिलता है। दूर-दूर तक फैले चाय के बागान और लुभावना मौसम वाला यह खूबसूरत हिल स्टेशन मुन्नार केरल के इडुक्की जिले में स्थित है। इसे एशिया में जापान के टोक्यो के बाद सबसे अच्छे पर्यटन केंद्र का दर्जा भी मिला है।अगर आप प्रकृति प्रेमी हैं और पहाडों के हसीं मौसम का जमकर लुत्फ उठाना चाहते हैं तो कम-से-कम 4-5 दिन मुन्नार में जरूर ठहरें।मन्नार में अनगिनत किस्म के रंग-बिरंगे फूल और एक ख़ास तरह का फल 'पैशन फ्रूट' मिलता है| मुन्नार की एक और खासियत है- वो है यहां उगने वाला नीलकुरुंजी नाम का एक खूबसूरत फूल। लेकिन इसे देखने के लिए आपको भी मेरी तरह वर्ष 2018 तक इंतजार करना होगा क्योंकि ये फूल 12 साल में सिर्फ एक ही बार खिलता है।

मुन्नार शहर से दो किलोमीटर की दूरी पर है टाटा टी म्यूजियम। यहां आप चाय-पत्ती तैयार होने की पूरी प्रक्रिया देख सकते हैं। इतना ही नहीं, अपनी आंखों के सामने तैयार की गई चाय की चुस्कियां भी ले सकते हैं। 250 किलोमीटर दूरी पर मौजूद है शहर कोल्लम। यहां अष्टमुडी में आप बैकवॉटर्स का असल लुत्फ उठा सकते हैं| यहां की केरल टूरिज्म की नौका यात्रा बहुत मशहूर है। पानी की संकरी सडक पर गुजरते हुए हम मुनरो गांव की तरफ बढ रहे थे। जहां नारियल के पेडों के झुरमुट का दृश्य बहार खूबसूरत लगता है| यहं पर आप ताडी बनाते हुए भी देख सकते हैं जो नारियल के फूल से तैयार किया जाता है|

इसके पास में है 144 फुट ऊंचा थंगासेरी लाइट-हाउस। यह एशिया का दूसरा सबसे ऊंचा लाइट हाउस है| स्थानीय भाषा में थंगासेरी का मतलब है- सोने का गांव। यहां आने का सबसे अच्छा मौका तो तब है जब पारंपरिक त्योहार विशू मनाया जा रहा हो। इस मौके पर पूरे 10 दिन तक कई तरह के सांस्कृतिक आयोजन होते हैं। खासकर सजे-संवरे हाथियों की झांकी और पारंपरिक कथकली नृत्य इसका मुख्य आकर्षण है। कोल्लम में ही मौजूद है कृष्ण आश्रम मंदिर। कहा जाता है कि यह मंदिर 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है इसलिए इसे देखना बिल्कुल न भूले|

तो अपने दिल दिमाग को तरोताजा करना चाहते है तो आइये केरल और लीजिए मज़ा यहां की हसीन वादियों और मनमोहक मौसम का| एक बार आने के बाद आप यहां दोबारा जरूर आना चाहेंगे|

ई अक्षर वाले जब तक जीते खुशी से जीते

किसी लड़के या लडकी के नामकरण से व्यक्ति के व्यक्तित्व पर क्या असर पड़ता है। आपको पता है कि किसी व्यक्ति के जीवन में अक्षरों का क्या प्रभाव पड़ता है| आज आपको "ई" अक्षर वाले व्यक्तियों के बारे में बताते हैं |

यदि किसी लड़की या लड़के का नाम अंग्रेजी के E अक्षर से शुऱू होता है तो वह व्यक्ति बहुत बोलने वाला होता है लेकिन अपने ज्यादा बोलने के कारण ये हमेशा खतरों में पड़ जाते हैं| ये लोग बड़े ही दिल फेंक होते है। ये काफी मजाकिया स्वभाव के भी होते हैं| ई अक्षर वाले व्यक्ति सेक्स के प्रति ये काफी आकर्षित होते है। इसलिए इनकी लिस्ट में लड़के-लड़कियों की पूरी जमात होती है। इन्हें एक से ज्यादा बार मुहब्बत भी हो सकती है लेकिन हां ये जो रिश्ता निभाते है उसके प्रति ईमानदार होते है मतलब ये कि भले ही ये चार लोगं से मोहब्बत करे लेकिन अगर ये किसी से शादी करते है तो अपने हमसफर के प्रति ईमानदार होते है।


इस नाम के व्यक्ति जिंदगी को आसानी से जीते है। इनके पास शिक्षा, व्यवसाय, रूतबा और पैसा उतना ही होता है जितने की इन्हें चाहत होती है। ये हमेशा खुश रहने वाले होते है। इसलिए इन्हें लोग काफी पसंद भी करते हैं। । ये..जब तक जीना है खुशी से जीना है ...का फंडा मानकर चलते है इसलिए हमेशा सुखी रहते हैं।

बुधवार को जन्में बहुमुखी प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धिवाले होते हैं

बुधवार को जन्मे व्यक्ति दोहरे चरित्र, बहुमुखी प्रतिभा, तीक्ष्ण बुद्धिवाले होते हैं| इस दिन जन्म लेने वाले व्यक्ति किसी की भी आलोचना करने में माहिर होते है तथा अपनी वाक्पटुता के द्वारा दूसरे व्यक्ति की बोलती बन्द कर देते हैं| ये व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पा सकते है लेकिन अपने दोहरे चरित्र के कारण किसी भी क्षेत्र में बहुत दिनों तक टिक नहीं पाते है। इन व्यक्तियों पर बुध ग्रह का विशेष प्रभाव रहता है|

बुधवार को जन्में व्यक्तियों का स्वाभाव :-

इस दिन जन्में व्यक्ति अपने कार्य से सन्तुष्ट नहीं रहते है, इसलिए कभी- कभी आप स्वयं के द्वारा किये गये कार्यो की आलोचना करने लगते है। ये व्यक्ति अपने मित्रों को बहुत प्रेम तथा आदर करते है तथा अपनी क्षमता से ज्यादा उनकी मदद करने का प्रयास करते हैं। इनका भाग्य पक्ष मजबूत होने के कारण, ये सब प्रकार की विपत्तियों से जल्दी निकल आते है। इन व्यक्तियों का सम्पर्क उंचे तबके के लोगों से रहेगा जिसके कारण ये अच्छा धन कमाने में कामयाब होंगे। इस दिन जन्में व्यक्तियों के जीवन में 15 वें, 24 वें, 33वें वर्ष विशेष परिवर्तनकारी हो सकते है।

बुधवार को जन्म लेने वाली स्त्रियों का स्वभाव-

बुधवार के दिन जन्म लेने वाली स्त्रियां, सुन्दर, गुणवती, तेजतर्रार व तीखे नैन-नक्स वाली होती है। इनका कद छोटा होता है लेकिन ये स्त्रियाँ तीक्ष्ण बुद्धि वाली होती है| इन स्त्रियों को पति शालीन व समझदार मिलता है, इनका वैवाहिक जीवन सुखमय कहा जा सकता है। सन्तान की ओर से इनका मन प्रसन्न रहेगा।


स्वास्थ्य- आपको त्वचा सम्बन्धी रोग, आँख के रोग, हाथों में पक्षाघात तथा स्नायु सम्बन्धी रोग, बोलने में दोष, नींद में कमी आदि रोग हो सकते है।

शुभ दिन- रविवार, बुधवार व सोमवार का दिन आपके लिये बेहद अच्छे होंगे|

शुभ माह - जनवरी, मार्च, जुलाई, अगस्त आपके लिये बेहद अनुकूल रहेंगे तथा सितम्बर और दिसम्बर आपके लिए प्रतिकूल रहेंगे|

शुभ रत्न- आपके लिये पन्ना या चाइनीज मरगज, सुलेमानी रत्न चांदी या सोनें की अंगूठी में कनिष्ठका अंगुली में बुधवार के दिन शुद्ध करके धारण करें।

व्रत और मन्त्र- इस दिन जन्में व्यक्तियों की प्रधान देवी लक्ष्मी जी है। बुधवार का उपवास आपके लिये उचित रहेगा। आप निम्न मन्त्र- ऊँ श्रीं श्रीं कमले कमलाये प्रसीद-प्रसीद श्री ऊँ महालक्ष्मै नमः मंत्र का 108 बार प्रतिदिन जाप करें।