इस तरह बुद्ध की शरण में आया अंगुलिमाल

अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता और उनकी माला बनाकर पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही लोगों के प्राण सूख जाते थे। 

संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जाएं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है जो किसी के आगे नहीं झुकता।

बुद्ध ने लोगों की बात सुनी, पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगा। जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।

बुद्ध ने उससे कहा, "क्यों भाई, सामने के पेड़' से चार पत्ते तोड़ लाओगे?" अंगुलिमाल के लिए यह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।

"बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लेकर आए हो, वहीं इन्हें लगा आओ।" अंगुलिमाल बोला, "यह कैसे हो सकता है?" बुद्ध ने कहा, "भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?" इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और उस दिन से अपना धंधा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया।

पर्दाफाश से साभार 

इस तरह एक गुलाम को मिला भगवान की मूर्ति बनाने का इनाम

बात यूनान की है। वहां एक बार बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की बहुत ही सुंदर मूर्ति थी। अपोलो को यूनानी अपना भगवान मानते हैं। वहां राजा और रानी प्रदर्शनी देखने आए। उन्हें वह मूर्ति बड़ी अच्छी लगी। राजा ने पूछा, "यह किसने बनाई है?"

सब चुप। किसी को यह पता नहीं था कि इस मूर्ति को बनाने वाला कौन है। थोड़ी देर में ही सिपाही एक लड़की को पकड़ लाए। उन्होंने राजा से कहा, "इसे पता है कि यह मूर्ति किसने बनाई है, पर बताती नहीं।"

राजा ने उससे बार-बार पूछा, लेकिन उसने बताया नहीं। तब राजा ने गुस्से में कहा, "इसे जेल में डाल दो।" यह सुनते ही एक नौजवान सामने आया। राजा के पैरों में गिरकर बोला, "आप मेरी बहन को छोड़ दीजिए। कसूर इसका नहीं, मेरा है। मुझे दंड दीजिए। यह मूर्ति मैंने बनाई है।"


राजा ने पूछा, "तुम कौन हो?" उसने कहा, "मैं गुलाम हूं।" उसके इतना कहते ही लोग उत्तेजित हो उठे। एक गुलाम की इतनी हिमाकत कि भगवान की मूर्ति बनाए! वे उसे मारने दौड़े।


राजा बड़ा कलाप्रेमी था। उसने लोगों को रोका और बोला, "तुम लोग शांत हो जाओ। देखते नहीं, मूर्ति क्या कह रही है? वह कहती है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं।"


राजा ने बड़े आदर से कलाकार को इनाम देकर विदा किया।

पर्दाफाश से साभार 

जब फकीर को मिला अल्लाह का घर

एक फकीर था। वह भीख मांगर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।

एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, "आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।"

फकीर ने पूछा, "भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?"


उस आदमी ने कहा, "अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि वह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।" फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा, "यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?"


इतना सुनकर फकीर ने कहा, "अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गए, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!" फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अंतिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।

राम की धरती को भूली भाजपा की दूसरी पीढ़ी!


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की ताजपोशी कराकर आम चुनाव से पहले पूरे देश में हिंदुत्व की लहर पैदा करना चाहते हैं, लेकिन लगता है भारतीय जनता पार्टी की दूसरी पीढ़ी के नेताओं ने फिलहाल राम की जन्मभूमि अयोध्या को ज्यादा तूल न देने और राम मंदिर मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने का मन बना लिया है। 

भाजपा की दूसरी पंक्ति के प्रमुख नेताओं, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने विवादों से बचने के लिए अयोध्या से दूरी बना ली है और शायद यही वजह है कि ये तीनों नेता महंत नृत्यगोपाल दास की ओर से न्यौता मिलने के बाद भी अयोध्या नहीं पहुंचे हैं। 

अयोध्या में मणिरामदास की छावनी में चल रहे अमृत महोत्सव में रामजन्म भूमि न्यास के कार्यकारी अध्यक्ष महंत नृत्यगोपाल दास की महंती के 50 वर्ष पूरे होने पर कई नामी-गिरामी संतों को न्यौता भेजा गया है। 

मोदी, शिवराज सिंह और राजनाथ को भी नृत्यगोपाल दास की तरफ से निमंत्रण दिया गया है। नरेंद्र मोदी ने जहां व्यस्तता का हवाला देकर कार्यक्रम में शामिल होने से पहले ही इंकार कर दिया है, वहीं शिवराज भी अभी तक इस कार्यक्रम में शिरकत करने नहीं पुहंचे हैं। सूत्रों के मुताबिक, शिवराज के भी इस कार्यक्रम में आने की उम्मीद कम ही है। वहीं, राजनाथ के आने का भी कोई कार्यक्रम अभी तक नहीं बन पाया है।

18 जून से शुरू अमृत महोत्सव 22 जून तक चलेगा। इस प्रतिष्ठित कार्यक्रम में अब तक योगगुरुबाबा रामदेव, विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के अध्यक्ष अशोक सिंघल, प्रवीण तोगड़िया सरीखे लोग शामिल हो चुके हैं, वहीं अगले दो दिनों में योगी आदित्यनाथ के अलावा दक्षिण के कई संत इस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले हैं। विहिप के सूत्र बताते हैं कि कार्यक्रम के बहाने ही नरेंद्र मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन इनमें से एक भी नेता अभी तक अयोध्या नहीं पहुंचा है। ऐसा लगता है कि अटल-आडवाणी युग की समाप्ति के बाद भाजपा की दूसरी पीढ़ी के नेताओं में अयोध्या आने या राम मंदिर मुद्दे को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया है।

विहिप के एक नेता ने कहा, "ऐसा लगता है कि मोदी यहां आकर किसी विवाद को हवा नहीं देना चाहते।" उधर, विहिप ने ऐलान किया है कि संसद के मानसून सत्र में कानून के माध्यम से राम मंदिर निर्माण की बाधा दूर नहीं हुई तो मंदिर निर्माण को लेकर पूरे देश में बड़ा और निर्णायक आंदोलन खड़ा किया जाएगा।इस बीच विहिप के उत्तर प्रदेश मीडिया प्रभारी शरद शर्मा ने कहा कि महंत नृत्यगोपाल दास की तरफ से मोदी, शिवराज और राजनाथ को यहां आने का न्यौता दिया गया है। इसके अलावा दक्षिण के कई संत भी इस कार्यक्रम का हिस्सा बन रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि इस वर्ष 25 अगस्त से 13 सितंबर तक संत-धर्माचार्य अयोध्या की 84 कोसी परिक्रमा करेंगे। इसके तहत 84 कोस में आने वाले पांच जिलों- फैजाबाद, बाराबंकी, गोंडा, बस्ती और अकबरपुर की परिक्रमा की जाएगी। इसके बाद 25 सितंबर से 16 अक्टूबर तक पांच कोस की परिक्रमा होगी, जिसमें समस्त रामभक्त राम मंदिर निर्माण का संकल्प लेंगे। इस कार्यक्रम में पूरे देश के रामभक्त एकत्र होंगे।

पर्दाफाश से साभार 


छुट्टियों में बच्चे अब नहीं जाते मामा के घर

बच्चों की गर्मियों की छुट्टियां हो गई हैं। इसी के साथ स्कूल बंद होने से बच्चों को पढ़ाई की 'टेंशन' से भी मुक्ति मिल गई है। बदलते वक्त के साथ अब ऐसे बहुत ही कम लोग हैं जो गर्मियों की छुट्टियों में अपने मामा के यहां सैर सपाटा करने या घूमने जाते हैं। अब तो प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में भी उन्हें किताबों में सिर खपाना पड़ रहा है।

अब वे दिन गए जब गर्मियों की छुट्टियां होने की कल्पना मात्र से ही बच्चे चहक उठते थे। छुट्टियां शुरू होने से पहले ही बच्चे घूमने-फिरने व मौज मस्ती की योजना बनाने में मशगूल रहते थे।अधिकांशत: बच्चे छुट्टियों में मामा के घर जाना अधिक पसंद करते थे। गांव-देहात की बात करें तो मामा के गांव से निकलने वाली नदी या तालाब में घंटों तैरने का मौका मिलता था।

फिर आम के बगीचे में धमा चौकड़ी मचती थी।दिन भर की भागदौड़ व खेलकूद के बाद रात में नानी से परी कथाएं तथा धार्मिक कहानियां सुनना बच्चों को पसंद होता था।गर्मियों की छुट्टियों में सगे-संबंधियों के यहां जाने की एक प्रकार से परंपरा सी थी। छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने से बच्चों के रिश्ते नातों व उनकी अहमियत को करीब से जानने समझने का मौका मिलता है। अब वक्त बदल गया है। आज के हाईटेक युग में बच्चों की मानसिकता व कार्यशैली पर व्यस्तता का बुरा असर पड़ा है।

प्रतिस्पर्धा के इस युग में गर्मियों की छुट्टियों में बच्चों में कोई उत्साह नहीं देखा जाता है। स्थिति यह है कि वार्षिक परीक्षा समाप्त होते ही उन्हें अगली कक्षा की पुस्तकें लाकर थमा दी जाती हैं।दो-दो तीन-तीन ट्यूशन लगा दिए जाते हैं सो अलग। कइयों को तो जबरन कोचिंग सेंटर भेजा जाता है। कई मामले तो ऐसे भी देखे गए जिसमें बच्चोंकी इच्छा गर्मियों की छुट्टियों में बाहर घूमने-फिरने की रहती है,लेकिन अभिभावकों के डर से वे अपनी इच्छा जाहिर नहीं कर पाते हैं। बच्चों के दिमाग पर प्रतिस्पर्धा का भूत इस कदर सवार रहता है कि कहीं जाने पर भी 8-10 दिनों में ही वापस आ जाते हैं। शहरी बच्चों की स्थिति तो यह है कि यदि वहां कंप्यूटर,वीडियो गेम या फिर अन्य सुविधाएं नहीं हैं तो वे बोरियत महसूस करने लगते हैं।

शहरी क्षेत्र के बच्चों में समर कैंप ज्वाइन करने का नया चलन शुरू हो गया है।शहर में जगह-जगह स्थापित समर कैम्पों में बच्चों के मनोरंजन के कई साधन उपलब्ध रहते हैं यहां उन्हें मनोरंजन के साथ कई कलाएं सिखाई जाती हैं कई लड़कियां गर्मियों के इस मौसम में पाककला,सिलाई,बुनाई,कढ़ाई,मेहंदी,चित्रकला, ब्यूटीपार्लर आदि का कोर्स कर लेती हैं तो कई संगीत की बारीकियों के अलावा गायन सीखती हैं। इस बदलावने रिश्तों की अहमियत कम कर दी है।रिश्ते अब अंकल-आंटी तक सिमट गए हैं। छुट्टियों में सगे संबंधियों के यहां जाने से वे रिश्तों को काफी करीब से जानते वसमझते थे। इसी के साथ उनमें रिश्तों के अनुरूप सम्मान देने व उनका आदर करने का भाव भी पैदा होता था।लेकिन अब समय बदल गया है।

धर्मनगरी की सैर

धर्मनगरी के नाम से विख्यात विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक वाराणसी हमेशा से पर्यटकों का पसंदीदा स्थल रहा है। यहां गंगा नदी के घाट, मंदिर और प्राचीन संस्कृति हर पर्यटक का मन मोह लेती है। गर्मी की छुट्टियां बिताने की योजना बना रहे लोगों के लिए वाराणसी की सैर करना आनंददायक अनुभव होगा।

वाराणसी को बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है। यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में स्थित है। वाराणसी की संस्कृति का गंगा नदी एवं इसके धार्मिक महत्व से अटूट रिश्ता है। यह शहर सैकड़ों वर्षो से भारत का, विशेषकर उत्तर भारत का सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र रहा है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में हुए।

धर्मनगरी में कई दर्शनीय और पौराणिक स्थल हैं जो देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी तरफ आकृष्ट करते हैं। इनमें से प्रमुख हैं काशी विश्वनाथ मंदिर, जिसे भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिग में से माना जाता है। इसके अलावा अन्नपूर्णा मंदिर, साक्षी गणेश मंदिर, विशालाक्षी मंदिर, संकट मोचन मंदिर और लोलार्क कुंड व दुर्गा कुंड का भक्तिमय माहौल पर्यटकों को बहुत भाता है।

वाराणसी का जिक्र बिना इसके घाटों के अधूरा है। यहां गंगा नदी पर लगभग 84 घाट हैं। ये घाट लगभग चार मील लंबे तट पर बने हुए हैं। इन 84 घाटों में पांच घाट बहुत ही पवित्र माने जाते हैं। इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थी' कहा जाता है। ये हैं अस्सी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकर्णिका घाट। अस्सी घाट सबसे दक्षिण में स्थित है, जबकि आदिकेशव घाट सबसे उत्तर में स्थित है।

दशाश्वमेध घाट पर हर रोज सुबह और शाम को होने वाली गंगा आरती का दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। सैकड़ों की संख्या में रोज साधु-संत, पुजारी और स्थानीय लोग और पर्टयक गंगा आरती में हिस्सा लेते हैं। वाराणसी बौद्ध धर्म के पवित्रतम स्थलों में से एक है। वाराणसी से करीब 10 किलोमीटर दूर सारनाथ है, जहां भगवान गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन दिया था। इसमें उन्होंने बौद्ध धर्म के मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन किया था। वाराणसी हिंदुओं एवं बौद्धों के अलावा जैन धर्म के अवलंबियों के लिए भी पवित्र तीर्थ है। इसे 23वें र्तीथकर पाश्र्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है।

वाराणसी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय स्थित है, जो देश के प्रसिद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में शामिल हैं। यहां पर करीब छह पांच सितारा होटल और दर्जनों धर्मशालाएं हैं, जहां पर्यटक वाराणसी प्रवास के दौरान ठहरते हैं। वाराणसी लगभग देश के सभी प्रमुख शहरों से रेल और हवाई यातायात से जुड़ा है। 

पर्दाफाश से साभार

जब बापू ने खुद एक लड़के के लिए बनाई रजाई

जाड़े के दिनों में एक दिन गांधीजी आश्रम की गोशाला में पहुंचे। वहां गायों को सहलाया ओर बछड़ों को थपथपाया। तभी उनकी निगाह वहां पर खड़े एक गरीब लड़के पर गई। वह उसके पास पहुंचे और बोले, "तू रात को यहीं सोता है?"

लड़के ने जवाब दिया, "हां बापू।" "रात को ओढ़ता क्या है?" बापू ने पूछा।

लड़के ने अपनी फटी चादर उन्हें दिखा दी। बापू उसी समय अपनी कुटिया में लौट आए। बा से दो पुरानी साड़ियां मांगी, कुछ पुराने अखबार तथा थोड़ी सी रुई मंगवाई। रूई को अपने हाथों से धुना। साड़ियों की खोली बनाई, अखबार के कागज और रूई भरकर एक रजाई तैयार कर दी। गोशाला से उस लड़के को बुलाया और उसे उसको देकर बोले, "इसे ओढ़कर देखना कि रात में फिर ठंड लगती है या नहीं?"

दूसरे दिन सुबह बापू जब गोशाला पहुंचे तो लड़का दौड़ता हुआ आया और कहने लगा, "बापू, कल रात मुझे बड़ी मीठी नींद आई।"

बापू के चेहरे पर मुस्कराहट खेलने लगी। वह बोले, "सच! तब तो मैं भी ऐसी ही रजाई ओढ़ूंगा।"

पर्दाफाश से साभार

खरीददारी में माताएं सबसे अच्छी सलाहकार

एक सर्वेक्षण में पता चला है कि महिलाओं को खरीददारी करते समय सबसे अच्छी सलाह उनकी मां ही दे सकती है। पश्चिमी लंदन के अक्सब्रिज स्थित एक खरीददारी केन्द्र 'चाइम' ने यह सर्वेक्षण कराया था।

महिलाओं ने पाया कि खरीददारी करते समय जब बात यह पूछने की आती है कि वास्तव में उन पर यह पोशाक कैसी लग रही है, तब उस समय उनकी माताएं ही उन्हें सबसे अच्छी सलाह देती हैं। इस अध्ययन में पाया गया कि खरीददारी करते समय महिलाओं को उनके प्रेमी या पति से बेहतर उनकी माताएं अच्छी सलाह देती हैं।

करीब 2000 महिलाओं में से 70 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि खरीददारी के दौरान उनके प्रेमी या पति से बेहतर सलाह उनकी माताएं देती हैं, जबकि 56 प्रतिशत महिलाओं का मत है कि उनके साथी उन्हें बेहतर सलाह देते हैं। 

पर्दाफाश 

एक दृष्टिहीन ने 'अंधेरी दुनिया' को दिए थे ज्ञानचक्षु

नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि का निर्माण करने के लिए लुई ब्रेल जगत प्रसिद्ध हैं। फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल ज्ञान के चक्षु बन गए। ब्रेल लिपि के निर्माण से नेत्रहीनों की पढ़ने की कठिनाई को मिटाने वाले लुई स्वयं भी नेत्रहीन थे। लुई ने अपनी सारी सीमाओं को ताक पर रखकर जिंदगी की मांग को सर आखों पर बिठाया और वह कर दिखाया जिससे आज अनगिनत आंख वालों को भी मानवता के माने समझने की रोशनी मिल रही है। लुई ब्रेल का जन्म चार जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से गांव कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था।

एक दिन काठी के लिए लकड़ी को काटने में इस्तेमाल किया जाने वाला चाकू अचानक उछलकर इस नन्हे बालक की आंख में जा लगी और बालक की आंख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जड़ी-बूटी लगाकर उसकी आंख पर पट्टी कर दी गई। बालक लुई की आंख के ठीक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद इस बालक को दूसरी आंख से भी कम दिखलाई देने लगी। उसके पिता साइमन की साधनहीनता के चलते बालक की आंख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका।

पिता ने चमड़े का उद्योग लगाया था, जिसमें उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी दूसरी आंख की रोशनी भी एक दुर्घटना में गंवा दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में हुई, जहां एक लोहे का सूजा लुई की आंख में घुस गया। यह बालक मगर कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से जूझने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। लुई ने हार नहीं मानी। पादरी बैलेंटाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस 10 वर्षीय बालक को 'रायल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड्स' में दाखिला मिल गया। वर्ष 1821 में बालक लुई को पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत्त कैप्टन चार्ल्स बार्बर ने सेना के लिए ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों को पढ़ सकते थे। कैप्टन बार्बर का उद्देश्य युद्ध के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था।

इधर, बालक लुई का मष्तिष्क भी उसी तरह टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्टिहीन व्यक्तियों के लिए पढ़ने की संभावना ढूंढ़ रहा था। उसने पादरी बैलेंटाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टन बार्बर से मुलाकात चाहता है। पादरी ने लुई की कैप्टन से मुलाकात की व्यवस्था कराई। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टन के द्वारा सुझाई गई कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किए। कैप्टन उस दृष्टिहीन बालक का आत्मविश्वास देखकर दंग रह गए। अंतत: पादरी बैलेंटाइन के इस शिष्य के द्वारा बताए गए संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।

लुई ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किए और अंतत: 1829 में छह बिंदुओं पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुए। लुई ब्रेल के आत्मविश्वास की अभी और परीक्षा बाकी थी, इसलिए उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशास्त्रियों ने मान्यता नहीं दी, बल्कि उसका माखौल उड़ाया गया। लुई ने सरकार से प्रार्थना की कि उसके द्वारा ईजाद की हुई लिपि को दृष्टिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता दी जाए। लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी बात नजरअंदाज कर दी गई। अपने प्रयासों को सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए संघर्षरत लुई 43 वर्ष की अवस्था में जीवन की लड़ाई हार गए। उनका देहांत 6 जनवरी 1952 को हुआ।

उनके द्वारा अविष्कृत ब्रेल लिपि उनकी मृत्यु के बाद दृष्ठिहीनों के बीच लगातार लोकप्रिय होती गई। लुई की मृत्यु के बाद शिक्षा शास्त्रियों ने उनके किए कार्य की गंभीरता को समझा और अपने दकियानूसी विचारों से बाहर निकालकर इस लिपि को मान्यता देने की सिफारिश की। लुई की मृत्यु के पूरे सौ साल बाद फ्रांस में 20 जून, 1952 का दिन उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस प्रकार एक राष्ट्र के द्वारा अपनी ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित किया गया। लुई द्वारा ईजाद लिपि अकेले फ्रांस के लिए न होकर संपूर्ण विश्व की दृष्टिहीन मानव जाति के लिए वरदान साबित हुई। 

पर्दाफाश से साभार

फैशन में है खूबसूरत दांतो का चलन

किशोर हों या वयस्क, किसी भी उम्र के लोग अब से पहले दंत चिकित्सकों के पास जाने से कतराते थे। दांतों में दर्द या जबड़ों की समस्या ही लोगों को दंत चिकित्सक के पास जाने को मजबूर करती थी। लेकिन अब चलन बदल गया है। लोग अपने दांतों की खूबसूरती को लेकर सजग हो चुके हैं और स्वस्थ, चमकदार मुस्कुराहट के लिए नियमित रूप से दंत चिकित्सक के पास जाते हैं।

'स्माइल स्टूडियो' में स्माइल डिजाइनर का काम करने वाली एकता चड्ढा ने कहा, "खूबसूरत और स्वस्थ दांतों की चाहत रखने वालों की संख्या पहले से बढ़ी है।" सेवेन हिल्स हॉस्पीटल में प्रोस्थोडोनटिस्ट एवं इंप्लेंटोलोजिस्ट शिखा गिरी कहती हैं, "आमतौर पर कलाकार या मशहूर हस्तियां ही अपने दांतों को खूबसूरत बनाने के लिए चिकित्सा पद्धितियां अपनाया करते थे। लेकिन अब यह चलन फैशन और सिनेमा जगत तक ही सीमित नहीं रह गया है।"

गिरी ने बताया, "हमारे यहां हर तरह के लोग आते हैं, जो अपने दांतों को खूबसूरत बनाना चाहते हैं। व्यवसायी, एयर होस्टेस, वकील, डॉक्टर और यहां तक कि गृहणियां और किशोर उम्र के लड़के-लड़कियां भी हमारे यहां आते हैं।" दांतों की कॉस्मेटिक सर्जरी की कीमत 1,000 रुपये से शुरू होती है और 150,000 रुपये से ऊपर भी जा सकती है। ज्यादातर लोग सफेद और चमकदार दांतों के लिए क्लिनिक आते हैं।

गिरी ने कहा, "दांतों की ब्लीचिंग के लिए हर बार 8,800 रुपये का खर्च आता है। कितने समय पर ब्लीचिंग करानी चाहिए यह इस पर निर्भर करता है कि आप चाय, काफी कितनी ज्यादा पीते हैं। सामान्य तौर पर एक से ढाई साल में दांतों की ब्लीचिंग कराने की आवश्यकता पड़ती है।"

दांतों को खूबसूरत बनाने का चलन महानगरों के अलावा मध्यम और छोटे शहरों में भी बढ़ा है। मैसूर के कोलंबिया एशिया हॉस्पिटल के परामर्शदाता सहित कुमार शेट्टी कहते हैं कि दातों के उपचार के लिए आने वाली ज्यादातर महिलाएं होती हैं, लेकिन पुरुष भी इस तरफ रुचि लेने लगे हैं।

क्या बाढ़ खतरे की ओर बढ़ रहा उत्तर प्रदेश?

उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में पिछले कुछ दिनों से लगातार हो रही बारिश और नदियों के जलस्तर में वृद्धि को देखते हुए लगता है कि राज्य भीषण बाढ़ संकट का सामना कर सकता है।

राज्य के करीब 32 जिलों में बाढ़ का खतरा है। पिछले साल मानसून के दौरान 398 लोगों की जान गई थी। कुछ अधिकारियों का कहना है कि पिछले साल की स्थिति से कुछ नहीं सीखा गया।

आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, बाढ़ राहत और रोकथाम से संबंधित कार्य पूरा करने के लिए 15 जून की तिथि निर्धारित किए जाने के बावजूद राज्य सरकार ने नदियों के बांधों को मजबूत बनाने के लिए मंजूर 725 करोड़ रुपये की राशि में से बहुत कम राशि खर्च की।

एक अधिकारी ने बताया कि सिंचाई विभाग ने अब तक केवल 29.35 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। उन्होंने बताया कि पश्चिमी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में नदियों के बांध टूट गए हैं।

एक अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा कि मानसून की पहली ही बारिश के बाद स्थिति गंभीर है। केवल ईश्वर ही जानता है कि यदि बारिश तेज हुई तो आगे क्या स्थिति होगी।

उन्होंने बताया कि सिंचाई विभाग को अग्रिम भुगतान के तौर पर 183.57 करोड़ रुपये दिए गए थे, जिनमें से करीब 150 करोड़ रुपये का अब तक इस्तेमाल नहीं किया गया।

सिंचाई विभाग की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि श्रीनगर तथा बलिया सहित कई इलाकों में मरम्मत के कार्य या तो जल्दबाजी में किए गए या नहीं किए गए। इससे हजारों लोगों की जान खतरे में पड़ सकती है।

सिंचाई विभाग के एक अन्य अधिकारी ने कहा कि यदि पिछले कुछ दिनों की बारिश से यह स्थिति है तो आगे क्या होगा, इसे लेकर मैं डरा हुआ हूं।

हर साल सिद्धार्थनगर, श्रावस्ती, गोरखपुर, महराजगंज, सहारनपुर, बांदा तथा हमीरपुर जिले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। इस मौसम के दौरान गंगा, यमुना, बेतवा, घाघरा तथा सरयू नदी में पानी का स्तर अक्सर ऊंचा हो जाता है।

खतरे को भांपते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने धीमी गति से मरम्मत कार्यो के लिए अधिकारियों को फटकार लगाई है। साथ ही दवाओं का स्टॉक रखने और खतरे वाले स्थानों पर प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी के कर्मचारियों की तैनाती करने के निर्देश दिए गए हैं।  राज्य सरकार ने मंगलवार को मुख्य सचिव के नेतृत्व में बाढ़ प्रबंधन समूह का गठन किया है। 

पर्दाफाश से साभार

लखनऊ की शान और पहचान खतरे में

60 फिट ऊंचा रूमी दरवाजा जो कि लखनऊ का हस्ताक्षर भवन है आज इस दरवाजे में एक दरार पड़ जाने के कारण इसका अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है। यह दरवाजा अपनी सुरूचिपूर्ण बनावट के लिए हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरे विष्व में मषहूर है। इसमें सन्देह नहीं कि लखनऊ की नाजुक मिट्टी में ढला हुआ ये सुविख्यात दरवाजा अपने प्रभावशाली स्थापत्य और मजबूती के कारण बड़ी बड़ी ऐतिहासिक इमारतों से टक्कर लेता है। नवाब आसफुद्दौला ने सन् 1784 ई. में रूमी दरवाजा और इमामबाड़ा बनवाना षुरू किया था। यह इमारतें सन् 1791 में बनकर तैयार हुईं। सच बात यह है कि जब रूमी दरवाजा बन रहा था उस वक्त अवध में अकाल पड़ा हुआ था इसलिए भूखों को रोटी देने की गरज से आसफुद्दौला ने इन इमारतों की विस्त्रत योजना बनायी थी। सवाल ये नहीं था कि नवाब अपनी प्रजा को भोजन दान नहीं कर सकते थे कारण इस बात का था कि तब का आदमी भीख मांगकर या बिना मेहनत के रोटी खाना हराम समझता था। अच्छे अच्छो ने हाथ लगाकर रूमी दरवाजे को जमीन पर खड़ा किया था उस दौर में करीब 22 हजार लोगों ने इस योजना के अन्र्तगत काम किया था। अवध वास्तु कला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किष गेटवे भी कहा जाता है। कहा जाता है कि लखनऊ का यह प्रसिद्ध षाही द्वार ‘कान्सटिनपोल‘ के एक प्राचीन दुर्ग द्वार की नकल पर बनवाया गया था। यही कारण है कि 19 वीं सदी में लोग इसे कुस्तुनतुनिया कहकर पुकारा करते थे। आज इसी दरवाजे के ऊपरी हिस्से में एक दरार पड़ गयी है। जिसका कारण दरवाजे से गुजरने वाले बड़े साधन या फिर दरवाजे के नीचे बिछी पाइप लाइन हो सकती है। इस दरार के पड़ने से शाही दरवाजे का अस्तित्व खतरे की तरफ जा रहा है। देश- विदेश से आने वाले हजारों दर्षक इस दरवाजे को देखने के लिए आते हैं उन पर इस दरवाजे में पड़ी दरार का क्या प्रभाव पड़ेगा।

गाय नहीं घोड़े की प्रजाति है नील गाय

जंगल में रहने वाली नील गाय के बारे में आपने जरूर सुना होगा। आपको यह भी पता होगा कि शेर और बाघों का यह अच्‍छा आहार है। लेकिन क्‍या आपको पता है नील गाय, गाय नहीं बल्कि घोड़े की प्रजाति की होती है। जीहां वैज्ञानिकों के मुताबिक नील गाय उसी श्रेणी के जानवरों में गिनी जाती है, जिसमें गधे व घोड़े और चित्‍तीदार घोड़े गिने जाते हैं। नील गाय 'गाय' की नहीं यह घोड़े की श्रेणी में आती है। जन्तु विज्ञान ने इसे घोड़े के पेरिसोडेक्टाइला गण में रखा है। इस गण के सदस्यों के पाद लम्बे होते हैं। यह शाकाहारी और तेज दौड़ने वाले स्तनधारी होते हैं। इनके पाद पर खुरदार विशम अंगुलियां होती हैं। जब ये चलते हैं तो इनकी एक ही उंगली भूमि से स्पर्श करती है। इनके दांत पूर्णतया विकसित होते हैं। नील गाय के केनाइन दांत अल्प विकसित होते हैं, जबकि बैल या गाय आदि के पूर्ण विकसित होते हैं। नील गाय गाय और बैल की भांति जुगाली नहीं करती है। यह एक दिवाचर प्राणी है जो दिन और रात दोनों समय भोजन की तलाष में रहती है। उत्तर प्रदेश में इस समय नील गायों की संख्‍या लगभग 1 लाख 75 हजार के करीब है। नील गाय संरक्षित पशु के अंतर्गत आती है। नील गायों के शिकार का प्रतिबंध है इसको मारना कानूनन अपराध है। मारने वाला अपराधी की श्रेणी में आता है। लेकिन वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 शासन के द्वारा राजपत्रित अधिकारी, जिलाधिकारी, एसडीएम, तहसीलदार की आज्ञा से नील गाय को मारा जा सकता है।