केदारनाथ में पूजा-अर्चना करने जाना चाहते हैं संत

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में फंसे लोगों को सुरक्षित वापसी के लिए सुरक्षा बलों के संघर्ष के बीच साधु-संतों ने केदारनाथ जा कर पूजा-अर्चना करने की इच्छा जताई है। द्वारका के शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने पारंपरिक पूजा अर्चना के लिए उत्तराखंड सरकार से आपदा का शिकार हुए तीर्थ क्षेत्र में जाने देने की अनुमति मांगी है।


यहां कनखल में साधुओं की बैठक के बाद सरस्वती ने मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से उन्हें केदारनाथ जाने देने की अनुमति मांगी है। उन्होंने केदारनाथ महादेव की उखीमठ में अर्चना शुरू किए जाने का विरोध जताया। उखीमठ सर्दियों में शिव का स्थान होता है। एक साधु ने कहा, "गर्मियों में भगवान शिव को किसी दूसरे स्थान पर ले जाने का कोई प्रावधान नहीं है।" बादल फटने के बाद तीर्थ क्षेत्र में मलबा और गाद भर जाने से कपाट बंद कर दिए गए। सोमवार को केदारनाथ से प्रतिमा पूजा अर्चना के लिए उखीमठ लाई गई। 


नवंबर महीने में सर्दियां शुरू हो जाने के बाद भगवान शिव की पवित्र प्रतिमा केदारनाथ से उखीमठ लाई जाती है जहां उनकी इस अवधि में पूजा अर्चना की जाती है। मई के पहले सप्ताह में प्रतिमा फिर से केदारनाथ में स्थापित कर दी जाती है। यही समय होता है जब मंदिर के कपाट तीर्थयात्रियों के लिए खोल दिए जाते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से हजारों लाखों की तादाद में श्रद्धालु तीर्थयात्रा के लिए यहां पहुंचते हैं।


हिंदू चंद्र पंचांग के मुताबिक हर वर्ष कार्तिक मास के पहले दिन तीर्थ का कपाट बंद कर दिया जाता है और वैशाख में कपाट खोला जाता है। बंद रहने के दौरान तीर्थस्थल बर्फ से ढंका होता है और भगवान की पूजा उखीमठ में होती है। इस वर्ष केदारनाथ यात्रा 14 मई से शुरू हुई थी।

देसी 'आम' हुए 'खास'

छत्तीसगढ़ में मौसम ने देसी आम को खास बना दिया है। फसल कमजोर पड़ने से अचारी आम भी आम लोगों के पहुंच से दूर हो गए हैं। शुरुआती दौर में बौर देखकर प्रदेश के ज्यादातर जिलों में रिकार्ड उत्पादन की संभावना जताई जा रही थी, पर बार-बार बदलते मौसम ने आम की फसल को पूरी तरह से खराब कर डाला है। इस कारण इस वर्ष भी लोगों को आम का स्वाद लेना महंगा पड़ रहा है। प्रदेश के ज्यादातर इलाकों में वसंत के आगमन के साथ ही उन्नत नस्ल के आम के पेड़ों पर लगे बौर से किसानों के चेहरे पर रौनक आ गई थी। वहीं देसी प्रजाति के आम के पेड़ों में भी बौर आने शुरू हो गए थे। उम्मीद की जाने लगी थी कि इस साल आम की फसल काफी अच्छी होगी, मगर मौसम ने पानी फेर दिया।

गौरतलब है कि पिछले चार साल से खराब मौसम के कारण छत्तीसगढ़ में आम की फसल कम हुई है। हवा-पानी के कारण भी समय-समय पर बौर झड़ गए, जिससे आम के रसीले खट्ठे-मीठे स्वाद से ज्यादातर लोग वंचित रह गए थे। इस वर्ष पेड़ों में बौर लगने के बाद बारिश नहीं होने के कारण बौर भी खराब हो गए थे। प्रदेश के जशपुर जिले में बड़ी संख्या में किसान आम की खेती करते हैं। देसी के साथ-साथ उन्नत प्रजाति के आम के बागान भी यहां बड़ी संख्या में लगाए गए हैं, जिसे इस वर्ष मौसम ने खराब कर दिया। इससे किसानों को लाखों रुपये का नुकसान होगा।

जिले में 4020 हेक्टेयर में आम के पौधे लगे हुए हैं, जिनसे 15678 किसान फसल लेते हैं। इस वर्ष आखरी समय में मौसम की बेरुखी से आम का फसल खराब हो गया है, जिससे 50 से 60 प्रतिशत उत्पादन में गिरावट आ गई। इसी तरह की स्थिति कुछ और जिलों में भी देखने को मिली हैं। महासमुंद, धमतरी, दुर्ग, बेमेतरा और कवर्धा में भी आम का उत्पादन लेनेवाले किसान हताश और निराश हैं।

प्रदेश के आम विक्रेताओं का कहना है कि पिछले वर्ष की अपेक्षा इस वर्ष फसल अच्छी होने की संभावना थी और प्रदेश में खासकर जशपुर जिले के आम उत्पादक आम के पेड़ पर पर्याप्त बौर होने से संतुष्ट नजर आ रहे थे। फल झड़ जाने जाने के कारण आम के उत्पादक निराश नजर आ रहे हैं। 

कृषक सुनील पाटले ने बताया कि हाईब्रिड पेड़ के बौर पहले ही झड़ गए थे। यहां देसी के अलावा चौसा, लंगड़ा, दशहरी, फजलीह, बाम्बेग्रीन जैसी उन्नत प्रजातियों के आम का भी अच्छा उत्पादन होता है। देसी आम स्थानीय बाजार में खप जाते हैं। वहीं उन्नत प्रजाति के आम को रायपुर, बिलासपुर, झारसुगुड़ा, खरसिया सहित जगह अन्य जगहों में निर्यात किया जाता है। 

कृषकों के बागानों के साथ-साथ उद्यानिकी विभाग के बागानों में आम की फसल चौपट होने से जिले सहित अन्य राज्यों के लोगों को रसीले आमों का स्वाद नहीं मिल पाएगा। इस संबंध में उद्यान अधीक्षक सियाराम सिंह यादव कहते हैं कि इस वर्ष बेहतर मौसम के बाद भी आम की फसल 50 प्रतिशत कम हुई है। यही वजह है कि लोकल आम भी ज्यादा कीमतों पर बिक रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में, खासकर जशपुर क्षेत्र में जून-जुलाई में आम के फल की तोड़ाई होती है, जिससे यहां के किसानों को अच्छा भाव मिल जाता था। हाईब्रीड आम जहां चांपा, बिलासपुर, रायपुर, झारखंड ओडिशा के क्षेत्रों में जाते थे, वहीं आचार के लिए देसी आम की भी खूब मांग रहती है। इस समय जिस अनुपात में फल निकल रहा है वह पर्याप्त नहीं है। जिसके कारण दाम बढ़ गए हैं। जहां हाईब्रीड आम 40 से 80 रुपये किलो बिक रहे हैं, वहीं देसी आम 20 से 25 रुपये किलो बिक रहे हैं जो अन्य वर्षो की तुलना में काफी अधिक हैं।

pardaphash se saabhar

उत्तराखंड त्रासदी: दोस्त के शव के साथ गुजारे 7 दिन

चारधाम की यात्रा पर उत्तराखंड गए मध्य प्रदेश के राजगढ़ जिले के बुजुर्ग पूरन सिंह उन चंद सौभाग्यशाली लोगों में से हैं, जो जीवित घर वापस लौट आए हैं। लेकिन पूरन सिंह की आंखें नम हैं। वह उस खौफनाक मंजर को भूला नहीं पा रहे हैं, जब उनके बचपन के दोस्त दरियाव सिंह उनसे हमेशा के लिए जुदा हो गए। 

पूरन सिंह ने फिर भी अपने दोस्त का साथ और हाथ नहीं छोड़ा। उन्होंने दरियाव सिंह के शव के साथ पहाड़ों पर सात दिन गुजारे। पूरन सिंह जैसे कई और लोग भी हैं, जिन्होंने उत्तराखंड की इस आपदा में अपनों को खो दिया है। 

राजगढ़ के सारंगपुर के पूरन व दरियाव (65 वर्ष) बचपन से दोस्त थे और दोनों ने एकसाथ केदारनाथ के दर्शन करने की योजना बनाई थी। जिस समय प्रकृति का यह कहर इलाके पर बरसा, दोनों गौरीकुंड क्षेत्र में थे। तेज हवाओं के साथ बारिश हुई। पहाड़ ढहने लगे। 

पूरन बताते हैं कि उन्होंने किसी तरह पहाड़ पर शरण ली। वे तो किसी तरह बच गए, मगर उनका बचपन का दोस्त ठंड, भूख व प्यास के चलते साथ छोड़ गया। वे विषम हालात में पहाड़ पर अपने दोस्त दरियाव सिंह के शव के साथ पड़े रहे। उसके बाद सेना की मदद से उन्हें व दरियाव के शव को हरिद्वार लाया गया। 

पूरन सिंह को इस बात का अफसोस है कि वह पूण्य कमाने केदारनाथ गए थे, मगर घर लौटे दोस्त का शव लेकर। यह अकेले पूरन की कहानी नहीं है, बाल्कि मध्य प्रदेश के कई परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने अपनों को खोया है। जबलपुर के जे. पी. जाट और उनकी पत्नी की आंखों से आंसू थम नहीं रहे हैं। दोनों ने अपनी बेटी को जो खो दिया है। वे बताते हैं कि बेटी, दामाद व नाती के साथ वे उत्तराखंड गए थे। बाढ़ में उनकी बेटी बह गई तो दामाद उसकी खोज में लगा है। वे तो अपने साथ नाती को लेकर लौट आए हैं। 

राज्य सरकार ने आपदा में फंसे लोगों को घर तक लौटाने के लिए बोईंग विमान का इंतजाम किया है। सोमवार को इस विमान से 331 यात्री भोपाल व इंदौर पहुंचे हैं। इन सभी को सड़क मार्ग से उनके घरों तक भेजा गया है। उत्तराखंड से यात्रा कर सकुशल लौटे यात्री बाढ़ व पहाड़ ढहने की घटना को याद कर सिहर जाते हैं, वे सवाल भी कर रहे हैं कि आखिर भगवान के दरबार में ऐसा क्यों हुआ।

पर्दाफाश से साभार 

फलने से पहले ही बर्बाद हुए किन्नौर के सेब


पिछले सप्ताह मौसम के कहर का हिमाचल प्रदेश के सेब पर भी काफी बुरा असर पड़ा। इस प्राकृतिक आपदा में लगभग आधे किन्नौरी सेब नष्ट हो गए। किन्नौर के लोकप्रिय लाल और स्वर्णिम सेब अपनी मिठास, रंग, रस और टिकाऊपन के लिए विख्यात हैं।

बागवानी मंत्री विद्या स्टोक्स ने मंगलवार को कहा, "पूरे किन्नौर में हुई बर्बादी चौंकाने वाली है। सूचना के मुताबिक कुछ क्षेत्रों में पूरा बागीचा ही समाप्त हो गया है।"स्टोक्स ने कहा कि बागवानी विशेषज्ञ जिला मुख्यालय रेकांग पियो पहुंच चुके हैं। वे जल्द ही वास्तविक नुकसान का अनुमान लगाने के लिए प्रभावित क्षेत्रों में पहुंच जाएंगे।

वे उत्पादकों को क्षतिग्रस्त बागीचे के पुनरुद्धार में भी मदद करेंगे। स्टोक्स खुद भी सेब उत्पादक हैं। उन्होंने कहा कि 50 से 60 फीसदी तक सेब की फसल को नुकसान पहुंचा है। किन्नौर में सेब का उत्पादन 10 हजार फुट से अधिक ऊंचाई पर होता है। जिले में प्रमुख सेब क्षेत्र सांग्ला और पूह प्रखंड में हैं, जो सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक किन्नौर में साधारण तौर पर 20 किलो वाली लगभग 20 लाख पेटियों का उत्पादन होता है, जो राज्य की कुल उपज का छह से सात फीसदी है। रेकांग पीयो के बागवानी विकास अधिकारी जगत नेगी ने कहा, "राज्य के अन्य हिस्सों की तरह हमें इस मौसम में किन्नौर से भी 25 से 30 लाख पेटियों के उत्पादन की उम्मीद थी। लेकिन अब यह 15 लाख पेटियों से अधिक नहीं होगा।"

उन्होंने कहा कि 16 से 18 जून तक हुई भारी बारिश से सांग्ला घाटी में अचानक बाढ़ आ गई और वहां भूस्खलन के कारण समूचा बागीचा नष्ट हो गया। नेगी ने कहा कि अधिक ऊंचाइयों पर भी बेमौसम भारी बर्फबारी के कारण सेब के पेड़ नष्ट हो गए। पूह में बेमौसम बर्फबारी और मूसलाधार बारिश के कारण फसल को नुकसान पहुंचा। इसी तरह सेब के कई अन्य क्षेत्र भी प्रभावित हुए। अधिकारियों ने कहा कि बारिश से प्रभावित हुए क्षेत्रों के दौरे पर पहुंचे मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह बर्बादी को देखकर स्तब्ध रह गए। लाहौल-स्पीति के सेब के फसल हालांकि इस प्राकृतिक विनाश से लगभग बचे रहे गए हैं।

पर्दाफाश 

..यहाँ के लखपति मांगते हैं भीख

अभी तक आपने यही सुना होगा की भिखारी ही भीख मांगते है लेकिन एक ऐसी खबर सुनकर आप हैरान हो जायेंगे| खबर है मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की जहाँ भिखारी नहीं बल्कि करोड़पति भीख मांगते नज़र आते हैं| यह सुनकर आपको आश्चर्य जरुर हुआ होगा लेकिन यह सच है| 

दरअसल, बैतूल जिले में एक गाँव है रानाडोंगरी| इस गाँव की खास बात यह है कि इनके पास सारीसुख सुविधाएं होने की बावजूद यह लोग भीख मांगते हैं| बताया जाता है कि वसदेवा जाति के लोगों में भीख मांगने का पुश्तैनी रिवाज है। घर का मुखिया अपनी वंश परंपरा को निभाने के लिए भिखारी बनता है। 

इस जाति के लोगों का यह मानना है कि इनका मानना है कि अगर ये भीख नहीं मांगेंगे तो इनके पूर्वज और देवता नाराज हो जाएंगे। महिलाएं घर में बच्चों और जानवरों की देखभाल करती हैं और पुरूष दीपावली के बाद भगवान की पूजा करके भीख मांगने के लिए घर से निकल पड़ते हैं और बरसात आते- आते पुनः घर वापस लौट आते हैं| 

उसके बाद ये लोग 'हरदूलाल बाबा' की पूजा करते हैं। इस बाबा का मंदिर गांव के मध्य में है। चैत्र के महीने में आखिरी मंगलवार के दिन गांव की सभी महिलाएं हाथ में कटोरा लेकर पांच घरों से भीख मांगकर अनाज इकट्ठा करती हैं। इसके बाद हरदूलाल बाबा के मंदिर के पास भीख में प्राप्त अनाज से भोजन बनाती हैं और बाबा को भोग लगाती हैं। पूजा के बाद सभी लोग इसी प्रसाद को ग्रहण करते हैं। इस दिन किसी के घर भोजन नहीं बनता है।

.यहाँ लॉटरी के लिए देवी-देवताओं की नहीं 'लट्ठ' की होती है पूजा!

नॉम पेन (कम्बोडिया)| मनचाही मुराद पाने के लिए लोग देवी- देवताओं की पूजा करते हैं लेकिन कंबोडिया के पुरसात प्रांत में लोग लॉटरी लगने के लिए किसी देवी- देवताओं की पूजा नहीं लट्ठ की पूजा करते हैं यह सुनकर आपको हैरानी जरुर हुई होगी लेकिन यह सच है| 

प्राप्त जानकारी के अनुसार, पुरसात प्रांत के प्रे यींग गांव में लॉटरी लगने और मनचाही मुरादें पूरी करने के लिए लोग 13 मीटर लंबे एक लट्ठ की पूजा करने के साथ-साथ यहां प्रसाद भी चढ़ाते हैं। 

इस चमत्कारी लट्ठ के बारे में गाँव के मुखिया कहते हैं कि यह लट्ठ एक माह तालाब से मिटटी निकालने के दौरान मिला| मुखिया यह भी बताते हैं कि कुछ लोगों ने चमत्कारी लट्ठ को हुआ तो उनकी लॉटरी लग गई| 

अब यहाँ लोग अपनी मनचाही मुराद पाने के लिए किसी देवी- देवता की नहीं बल्कि इस लट्ठ की पूजा करते है| इतना ही नहीं कुछ अन्धविश्वासी लोग तो इसके ऊपर टेलकम पाउडर छिड़क देते हैं उनका मानना है कि टेलकम पाउडर छिड़कने से लट्ठ पर भाग्यशाली नंबर उभरकर आ जायेगा| कुछ लोग अपनी बीमारी को दूर करने के लिए उस तालाब का पानी पीते हैं और उसका कीचड़ शरीर में लगाते हैं जिस तालाब से यह लट्ठ मिला था|

...यहाँ दो रूपों में पूजे जाते हैं हनुमान

कुंभ नगरी के नाम से पूरी दुनिया में विख्यात इलाहाबाद संगम के किनारे रामभक्त हनुमान का एक अनूठा मन्दिर है जहाँ बजरंग बली की लेटी हुई प्रतिमा की पूजा की जाती हैं| इसके पीछे हनुमान हनुमान के पुनर्जन्म की कथा जुड़ी हुई है| पौराणिक कथाओं के मुताबिक, लंका विजय के बाद भगवान् राम जब संगम स्नान कर भारद्वाज ऋषि से आशीर्वाद लेने प्रयाग आए तो उनके सबसे प्रिय भक्त हनुमान इसी जगह पर शारीरिक कष्ट से पीड़ित होकर मूर्छित हो गए| पवन पुत्र को मरणासन्न अवस्था में देख सीता जी ने उन्हें अपनी सुहाग के प्रतीक सिन्दूर से नई जिंदगी दी और हमेशा स्वस्थ और निरोग रहने का आशीर्वाद प्रदान किया| बजरंग बली को मिले इस नए जीवन को अमर बनाने के लिए 700 साल पहले कन्नौज के तत्कालिन राजा ने यहाँ यह मन्दिर स्थापित किया था| यहाँ स्थापित हनुमान की अनूठी प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल होने का दर्जा भी हासिल है और बजरंगबली यहाँ 2 रूपों मे पूजे जाते हैं|

आपको बता दें कि बजरंग बली की यहाँ दो रूपों में पूजा होती है| सुबह शिव रूप में उन्हे जल चढाया जाता है तो शाम को आकर्षक श्रृंगारकर भव्य आरती की जाती है| शक्ति के प्रतीक और शहर की सीमा पर होने की वजह से मन्दिर में लगी इस प्रतिमा को प्रयाग का कोतवाल भी कहा जाता है| यूँ तो यहाँ हर दिन देश के कोने- कोने से भक्त आते हैं लेकिन हमेशा निरोग रहने व अन्य कामनाओं को लेकर यहाँ भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं| 

इसके अलावा एक अन्य पौरानिंक कथा के अनुसार, एक बार एक व्यापारी हनुमान जी की भव्य मूर्ति लेकर जलमार्ग से चला आ रहा था। वह हनुमान जी का परम भक्त था। जब वह अपनी नाव लिए प्रयाग के समीप पहुँचा तो उसकी नाव धीरे-धीरे भारी होने लगी तथा संगम के नजदीक पहुँच कर यमुना जी के जल में डूब गई। कालान्तर में कुछ समय बाद जब यमुना जी के जल की धारा ने कुछ राह बदली। तो वह मूर्ति दिखाई पड़ी। उस समय मुसलमान शासक अकबर का शासन चल रहा था। उसने हिन्दुओं का दिल जीतने तथा अन्दर से इस इच्छा से कि यदि वास्तव में हनुमान जी इतने प्रभावशाली हैं तो वह मेरी रक्षा करेगें। 

यह सोचकर उनकी स्थापना अपने किले के समीप ही करवा दी। किन्तु यह निराधार ही लगता है। क्योंकि पुराणों की रचना वेदव्यास ने की थी। जिनका काल द्वापर युग में आता है। इसके विपरीत अकबर का शासन चौदहवीं शताब्दी में आता है। अकबर के शासन के बहुत पहले पुराणों की रचना हो चुकी थी। अतः यह कथा अवश्य ही कपोल कल्पित, मनगढ़न्त या एक समुदाय विशेष के तुष्टिकरण का मायावी जाल ही हो सकता है।

जो सबसे ज्यादा तार्किक, प्रामाणिक एवं प्रासंगिक कथा इसके विषय में जनश्रुतियों के आधार पर प्राप्त होती है, वह यह है कि रामावतार में अर्थात त्रेतायुग में जब हनुमानजी अपने गुरु सूर्यदेव से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी करके विदा होते समय गुरुदक्षिणा की बात चली। भगवान सूर्य ने हनुमान जी से कहा कि जब समय आएगा तो वे दक्षिणा माँग लेंगे। हनुमान जी मान गए। किन्तु फिर भी तत्काल में हनुमान जी के बहुत जोर देने पर भगवान सूर्य ने कहा कि मेरे वंश में अवतरित अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम अपने भाई लक्ष्मण एवं पत्नी सीता के साथ प्रारब्ध के भोग के कारण वनवास को प्राप्त हुए हैं। वन में उन्हें कोई कठिनाई न हो या कोई राक्षस उनको कष्ट न पहुँचाएँ इसका ध्यान रखना। 

सूर्यदेव की बात सुनकर हनुमान जी अयोध्या की तरफ प्रस्थान हो गए। भगवान सोचे कि यदि हनुमान ही सब राक्षसों का संहार कर डालेंगे तो मेरे अवतार का उद्देश्य समाप्त हो जाएगा। अतः उन्होंने माया को प्रेरित किया कि हनुमान को घोर निद्रा में डाल दो। भगवान का आदेश प्राप्त कर माया उधर चली जिस तरफ से हनुमान जी आ रहे थे। इधर हनुमान जी जब चलते हुए गंगा के तट पर पहुँचे तब तक भगवान सूर्य अस्त हो गए। हनुमान जी ने माता गंगा को प्रणाम किया। तथा रात में नदी नहीं लाँघते, यह सोचकर गंगा के तट पर ही रात व्यतीत करने का निर्णय लिया।

...यहाँ शनिदेव का होता है दुग्धाभिषेक

शनि एक ऐसा नाम है जिसे पढ़ते-सुनते ही लोगों के मन में भय उत्पन्न हो जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शनि की कुद्रष्टि जिस पर पड़ जाए वह रातो-रात राजा से भिखारी हो जाता है और वहीं शनि की कृपा से भिखारी भी राजा के समान सुख प्राप्त करता है। यदि किसी व्यक्ति ने कोई बुरा कर्म किया है तो वह शनि के प्रकोप से नहीं बच सकता है।

अभी तक आपने यही सुना होगा कि शनिदेव पर तेल या काला तिल ही चढ़ाया जाता है लेकिन मध्य प्रदेश के इंदौर में शनिदेव पर तेल नहीं बल्कि दूध चढ़ाया जाता है| यह सुनकर आपको अचम्भा जरुर लगा होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है| इंदौर के जूना में एक शनिदेव का ऐसा मंदिर है जहाँ शनि को तेल नहीं बल्कि उनका दुग्धाभिषेक किया जाता है| इतना ही नहीं यहां शनि देव को सुंदर वस्त्रों एवं मालाओं से भी सजाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है।

स्थानीय लोगों का मानना है कि यह मंदिर 700 वर्ष पुराना है। इस मंदिर में शनि देव की प्रतिमा के विषय में कथा है कि, शनि देव ने एक अंधे व्यक्ति को सपने में आकर अपनी प्रतिमा के विषय में बताया। जब वह व्यक्ति शनि देव द्वारा बताये गये स्थान पर पहुंचा तब उसकी आंखों की रोशनी लौट आयी और गांव वालों की मदद से प्रतिमा को मंदिर में लाया गया।

वही स्थानीय लोग शनिदेव का दूसरा चमत्कार यह बताते हैं कि प्रतिमा मंदिर में स्थापित करने के कुछ दिनों बाद शनि जयंती के दिन यह प्रतिमा अपने स्थान से हटकर दूसरे स्थान पर पहुंच गयी। वर्तमान में यह प्रतिमा उसी स्थान पर है। जहां पहले शनि की प्रतिमा स्थापित की गयी थी उस स्थान पर अब राम जी की प्रतिमा स्थापित है।

यहाँ के एक व्यक्ति ने बताया है कि इस मंदिर में प्रत्येक शनिवार, अमवस्या, ग्रहण और शनि जयंती के दिन बड़ी संख्या में लोग शनि देव के दर्शनों के लिए आते हैं। शनि जयंती के अवसर पर यहां एक हफ्ते का मेला लगता है और लोग शनि देव की पूजा अर्चना करके शनि दोष से मुक्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।

...यहाँ मां बनने के बाद होती है शादी

अगर आपसे कोई यह कहे कि मैंने एक ऐसी शादी देखी है जिसमें बच्चे को जन्म देने के बाद ही किसी लड़की की शादी होती है यह सुनकर आपको हैरानी जरुर होगी लेकिन यह सौ फीसदी सच है| यह खबर किसी गैर देश की नहीं है बल्कि अपने ही देश की है|

पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी क्षेत्र में टोटोपाड़ा कस्बे में एक जनजाति रहती है 'टोटो' है। इस आदिम जनजाति की परंपरा और रहन सहन सब कुछ आनोखा है। यहां शादी का नियम बहुत ही अलग है। यहां विवाह से पहले लड़की का मां बनना अनिवार्य है।


इस जनजाति में लड़के को जो लड़की पसंद आती है उसे लड़का रात में लेकर चुपचाप भाग जाता है। इसके बाद लड़की एक साल तक उस लड़के के साथ उसके घर में रहती है। इस बीच लड़की मां बन जाती है तो उसे विवाह योग्य मान लिया जाता है फिर लड़का और लड़की के परिवार वाले मिलकार दोनों की शादी करवा देते हैं। 

इतना ही नहीं अगर कोई लड़का या लड़की शादी तोड़ना चाहे तो वह बहुत कठिन है| अगर कोई लड़का अथवा लड़की शादी तोड़ना चाहे तो उसे विशेष पूजा का आयोजन करना पड़ता है जो शादी से भी अधिक खर्चीला होता है। इसमें सूअर की बलि दी जाती है।

..यहाँ सूत बांधने से उतरता है ज्वर

एक ऐसा चमत्कारिक शिला जिसके चारों तरफ कच्चा धागा बांधकर यदि मन्नत माँगी जाए तो पुराना सा पुराना ज्वर ठीक हो जाता है| यह सुनकर आपको बड़ा अजीबो- गरीब लगा होगा| आप सोच रहे होंगे कि यदि ऐसा हो जाता तो डाक्टरों और हकीमों की क्या जरुरत| लेकिन यह सच है यह शिला ऊधमपुर जिले के टिकरी इलाके के दरयाबड में स्थित है| मान्यता है कि यह शिला एक दुल्हन की डोली है, जिसने अपने पति द्वारा एक ग्वाले से मजाक में लगाई शर्त को पूरा करने के लिए अपने प्राण त्यागकर डोली व दहेज सहित शिला रूप ले लिया था।


किंवदंती के मुताबिक, एक बारात इस इलाके से गुजर रही थी। दुल्हन को तेज प्यास लगने पर उसने पानी मांगा। पानी की बावली दूर पहाडी के नीचे थी। थके हुए दूल्हे व बारातियों में वहां से पानी लाने की हिम्मत न थी। इसी दौरान दूल्हे की नजर वहां बकरियां चरा रहे एक ग्वाले पर पडी, जो चोरी-छुपे दुल्हन को देख रहा था। उसने ग्वाले को बेवकूफ बनाकर पानी मंगवाने के लिए उसे अपने पास बुलाया और कहा कि यदि वह एक ही सांस में नीचे से पानी लेकर ऊपर आयेगा तो दुल्हन उसकी हो जाएगी।


सीधा-साधा ग्वाला उसकी बातों में आ गया। दूल्हे ने पानी लाने के लिए ग्वाले को दहेज के सामान में से एक गडवा निकाल कर दिया। तय शर्त के मुताबिक ग्वाला एक ही सांस में पानी लेकर ऊपर तो पहुंच गया, लेकिन पानी का गडवा दूल्हे को सौंपते ही उसके प्राण निकल गए।


दुल्हन को पानी पिलाने के बाद जब बारात चलने लगी, तो पति ने सारी बात अपनी पत्‍‌नी को बताई। जिसके मुताबिक अब वह ग्वाले की पत्‍‌नी बन चुकी है। इसके बाद दुल्हन ने अपने प्राण त्याग दिए। उसके सती होते ही दुल्हन, ग्वाला व डोली शिला में तबदील हो गए। साथ ही दुल्हन का सारा दहेज भी पत्थर में बदल गया। इस घटना के बाद से ही इस शिला का नाम लाडा लाडी दा टक्क नाम पड़ा| इस पत्थर के चहरों तरफ सफ़ेद सूत बांधा नज़र आता है| खार ठीक होने के लिए मांगी गई मन्नत की निशानी है।


ग्रामीणों के मुताबिक, यहाँ सती हुई दुल्हन का वास माना जाता है| ग्रामीणों का कहना है कि यहाँ हर मन्नत पूरी हो जाती है लेकिन ज्वर के मामले में यह जगह सबकी आजमाई हुई है| बताते हैं कि जिस व्यक्ति का लम्बे समय तक बुखार नहीं टूटता है वह कच्चा धागा अपने सिर से लेकर पैरों तक नाप लेता है उसके बाद उस सिले के चारों तरफ लपेटकर मन्नत मांगता है| धागा बंधने के अगले दो दिन में बुखार जड़ से ख़त्म हो जाता है|

...यहाँ जन्म पर मातम व मौत पर मनाते हैं जश्न

आमतौर पर यही सुनते आ रहे है कि जब किसी के यहाँ बच्चे के जन्म होता है तो लोग ख़ुशी से झूम उठते हैं वहीँ, यदि किसी की मौत हो जाती है तो लोग मातम मनाते हैं| लेकिन राजस्थान में एक ऐसी जनजाति है जो ठीक इसके विपरीत करती है| दरअसल इस जनजाति में जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो लोग मातम मनाते हैं और जब कोई व्यक्ति मरता है तो लोग उत्सव मनाते हैं| यह सुनकर आपको हैरानी जरुर हो रही होगी लेकिन यह सच है|


प्राप्त जानकारी के अनुसार, यहाँ सतिया समुदाय के लोग सड़कों पर तम्बू बना कर रहते हैं| इस समुदाय के ज्यादातर लोग निरक्षर है और पुरुष शराब की अपनी लत के लिए कुख्यात हैं। वहीँ इस समुदाय की ज्यादातर महिलाएं देह व्यापार में लिप्त है| इस जनजाति की सबसे अनूठी बात यह है कि यदि यहाँ किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो लोग उसका अंतिम संस्कार बड़ी धूमधाम से मनाते है वहीँ, जब किसी बच्चे का जन्म होता है तो लोग मातम मनाते हैं|


समुदाय का एक सदस्य झनक्या बताता है कि हमारे यहाँ जब किसी व्यक्ति की मौत हो जाती है तो हम इस मौके पर नए कपड़े पहनते हैं और हम लोग एक दूसरे का मुंह मीठा कराते हैं व नाच गाना करते हैं वहीँ, दूसरा सदस्य बताता है कि मौत उनके लिए एक महान पल होता है क्योंकि इससे आत्मा शरीर की कैद से आजाद हो जाती है।

तब हाथ में तलवार लेकर चलते थे हरकारे

आजकल हमें डाकघर में बहुत कम चीजें रोमांचक लगती हैं, लेकिन तकरीबन सौ साल पहले कभी डाक एक जगह से दूसरी जगह ले जाना जोखिम भरा काम हुआ करता था और हरकारे को हाथ में तलवार या भाला साथ लेकर चलना पड़ता था। उस समय डाक लाने, ले जाने के लिए रेल और हवाई सेवा उपलब्ध नहीं थी।

भारत में पहली जन डाक सेवा 1774 ई. में वारेन हेस्टिंग्स ने आरंभ की थी। राजा-महाराजाओं की अपनी निजी डाक व्यवस्था हुआ करती थी। उनका शासन स्पष्टत: संचार से बेहतरीन साधनों के कारण प्रभावशाली था जिसमें डाक को हाथों हाथ हरकारे या घुड़सवार द्वारा आगे भेजा जाता था। जब इब्नबतूता ने चौदहवीं शताब्दी के मध्य में भारत की यात्रा की तो उसने मोहम्मद बिन तुगलक की देश भर में हरकारों की संगठित प्रणाली देखी।

इब्नबूतता ने लिखा, "हर मील की दूरी पर हरकारा होता है और हर तीन मील के बाद आबादी वाला गांव होता है जिसके बाहर तीन पहरेदारों की सुरक्षा में बक्से होते थे, जहां से हरकारे कमर कसकर चलने के लिए तैयार रहते थे। प्रत्येक हरकारे के पास करीब दो क्यूबिक लंबा चाबुक होता है और उसके सिर पर छोटी-घंटियां होती हैं।"

"जब भी कोई हरकारा शहर से निकलता है तो उसके एक हाथ में चाबुक होता है जिसे वह लगातार फटकारता रहता है। इस प्रकार वह सबसे नजदीकी करकारे के पास पहुंचता है। जब वह वहां पहुंचता है तो अपना चाबुक फटकारता है जिसे सुनकर दूसरा हरकारा बाहर आता है और उससे डाक लेकर अगले हरकारे की ओर भागता है। इसी कारण सुल्तान अपनी डाक इतने कम समय में प्राप्त कर लेते हैं।"

नि:संदेह यह प्रणाली सम्राट की सुविधा के लिए बनाई गई थी और इसे बाद में परवर्ती मुगल बादशाहों द्वारा कुछ परिवर्तन के साथ जारी रखा गया। भिजवाने के लिए अपनी निजी डाक प्रणाली स्थापित की थी, लेकिन वारेन हेस्टिंग्स के प्रशासन के दौरान महाडाकपाल की नियुक्ति की गई। अब आम लोग भी अपने पत्रों पर फीस देकर सेवा का लाभ उठा सकते थे।

तब पत्रों को चमड़े के थैलों में डालकर हरकारों की कमर पर लादा जाता था, जिन्हें आठ मील के पड़ाव पर बदला जाता था। रात के समय हरकारों के साथ मशालवाले भी होते थे। जंगली इलाकों में जंगली जानवरों को दूर भगाने के लिए डुग्गी और ढोलक बजाने वालों को साथ रखा जाता था।

जिन स्थानों में बाघों का खतरा होता था, वहां हरकारों को तीर-कमानों से लैस किया जाता था, लेकिन उनका इस्तेमाल बहुत कम किया जाता था और हरकारा अक्सर मनुष्यभक्षी बाघ का शिकार हो जाया करता था। हजारीबाग जिले में (जिससे गुजरकर डाक कोलकाता से इलाहाबाद भेजी जाती थी।) ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यभक्षी बाघ भारी संख्या में पाए जाते थे।

आदिवासियों को खास तौर से हरकारा बनाया जाता था जिनमें से अधिकांश स्वभाव से जीववादी थे। वे जंगली जानवरों या भटकते हुए अपराधियों का सामना करने के लिए तैयार थे लेकिन पेड़-पौधों में छुपी बैठी किसी बुरी आत्मा से बचने के लिए वे मीलों चलने के लिए तैयार थे।

डाक की डकैती आम बात थी। 1808 ई. में कानपुर और फतेहगढ़ के बीच औसतन सप्ताह में एक बार डाक लूटी जाती थी। हरकारे को रास्ते में मिलने वाले डाकू को भी पछाड़ना होता था। हरकारे को महीने में बारह रुपये का वेतन मिलता था जो उन दिनों भी बहुत अधिक नहीं होता था। अत: उसके साहस और ईमानदारी के गुण प्रशंसनीय थे। हरकारा कभी भी डाक को लेकर चंपत नहीं होता था यद्यपि इसमें अक्सर मूल्यवान सामान और पंजीकृत वस्तुएं हुआ करती थीं। 

1822 ई. में घुड़सवारों का स्थान हरकारों ने ले लिया, क्योंकि वे सस्ते पड़ते थे। घुड़सवार रखने से घोड़ों और आदमियों दोनों को खिलाना पड़ता था। हैरानी की बात यह है कि घोड़ों को कोलकाता से मेरठ जाने में बारह दिन लगते थे जबकि हरकारा वहां दस दिन में ही पहुंच जाया करता था क्योंकि वह रास्ते को कम-से-कम पड़ावों पर रुककर पार करता था। नि:संदेह हरकारे अब भी इस्तेमाल किए जाते हैं, क्योंकि डाकगाड़ी को केवल मुख्य राजमार्गो पर ही ले जाया जा सकता है।

1904 ई. में तिब्बत में यंगहजबेंड के अभियान के बाद अंग्रेजों ने सिक्किम से होते हुए भारत और ल्हासा के बीच डाक प्रणाली स्थापित कर दी। यहां भारत-तिब्बती सीमावर्ती जनजातियों के हरकारे होते थे जो बर्फीले मार्गो और तेज नदियों जिन्हें केवल याक की खाल की डोंगी पर चढ़कर या रस्सियों से बने कठिन रास्तों से ही पार किया जा सकता था। हिमालयी भालुओं, बर्फीले क्षेत्र के भेड़ियों और संभवत: खतरनाक हिम मानव के रोमांचक अनुभवों से गुजरते हुए ये हरकारे डाक पहुंचाते थे।

लेकिन अब भी देश के दूरदराज के क्षेत्रों में, अलग-थलग पड़े पर्वतीय क्षेत्रों में, जहां रास्ते नहीं बने हैं वहां डाक पैदल ही भेजी जाती है ओर डाकिया अक्सर प्रतिदिन पांच से छह मील चलता है। सच है कि वह अब भागता नहीं है और कभी-कभार किसी गांव में अपने मित्र के पास हुक्का गुड़गुड़ाने के लिए रुक जाता है, लेकिन वह डाक प्रणाली के उन शुरुआती प्रवर्तकों भारत के हरकारों की याद दिलाता है।

पर्दाफाश से साभार 

नाम बदलने से मतलब सिद्ध नहीं होता

पुरानी बात है। किसी बालक के मां-बाप ने उसका नाम पापक (पापी) रख दिया। बालक बड़ा हुआ तो उसे यह नाम बहुत बुरा लगने लगा। उसने अपने आचार्य से प्रार्थना की, "भन्ते, मेरा नाम बदल दें। यह नाम बड़ा अप्रिय है, क्योंकि अशुभ और अमांगलिक है। 

आचार्य ने उसे समझाया कि नाम तो केवल प्रज्ञप्ति के लिए, व्यवहार-जगत में पुकारने के लिए होता है। नाम बदलने से कोई मतलब सिद्ध नहीं होगा। कोई पापक नाम रखकर भी सत्कर्मो से धार्मिक बन सकता है और धार्मिक नाम रहे तो भी दुष्कर्मो से कोई पापी बन सकता है। मुख्य बात तो कर्म की है। नाम बदलने से क्या होगा?

पर वह नहीं माना। आग्रह करता ही रहा। तब आचार्य ने कहा कि अर्थ-सिद्ध तो कर्म के सुधारने से होगा, परंतु यदि तू नाम भी सुधारना चाहता है तो जा, गांव भर के लोगों को देख और जिसका नाम तुझे मांगलिक लगे, वह मुझे बता, तेरा नाम वैसा ही बदल दिया जायगा।

पापक सुंदर नामवालों की खोज में निकल पड़ा। घर से बाहर निकलते ही उसे शवयात्रा के दर्शन हुए। पूछा कि कौन है यह? उत्तर मिला, "धनपाली।" पापक सोचने लगा नाम धनपाली और पैसे-पैसे को मोहताज!

और आगे बढ़ा तो एक आदमी को लोगों से रास्ता पूछते पाया। नाम पूछा तो पता चला-पंथक। पापक फिर सोच में पड़ गया-अरे, पंथक भी पंथ पूछते हैं? पंथ भूलते हैं?

पापक वापस लौट आया। अब नाम के प्रति उसका आकर्षक या विकर्षण दूर हो चुका था। बात समझ में आ गई थी। क्या पड़ा है नाम में? जीवक भी मरते हैं, अ-जीवक भी; धनपाली भी दरिद्र होती है, अधनपाली भी; पंथक राह भूलते हैं, अपंथक भी; जन्म का अंधा नाम नयनसुख; जन्म का दुखिया, नाम सदासुख! सचमुच नाम की थोथी महत्ता निर्थक ही है। रहे नाम पापक, मेरा क्या बिगड़ता है? मैं अपना कर्म सुधारूंगा। कर्म ही प्रमुख है, कर्म ही प्रधान है।

पर्दाफाश से साभार