17 अक्टूबर, गरीबी उन्मूलन दिवस पर विशेष- कई बुराइयों की जड़ है गरीबी..

नई दिल्ली| आज 19वां अन्तरराष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस मनाया जायेगा| आपको बता दें कि गरीबी हर समाज के लिए एक ऐसा अभिशाप बन चुकी है जो लोगों को उनकी जरूरतों से दूर करते हुए उनके सपनों को कुचल देती है। विश्व आज जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है उनमें गरीबी की समस्या प्रमुख है। अपराध, अशिक्षा, कुपोषण सहित अन्य सामाजिक बुराइयों का सम्बंध गरीबी से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से है।

गरीबी किसी खास भौगोलिक सीमा तक सीमित नहीं है बल्कि पूरी दुनिया इसकी गिरफ्त में है। इससे छुटकारा पाने के लिए देश पिछले कई दशकों से कार्यक्रम चला रहे हैं लेकिन इस दिशा में एकजुट होकर प्रयास करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने आधिकारिक रूप से वर्ष 1992 में गरीबी उन्मूलन के लिए अंतर्राष्ट्रीय दिवस 17 अक्टूबर को मनाने की घोषणा की।

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों पर यदि गौर करें तो करीब सात करोड़ की आबादी वाली दुनिया में लगभग 92 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पेट भर भोजन नसीब नहीं होता। विश्व के दो तिहाई गरीब केवल सात देशों बांग्लादेश, चीन, कांगो, इथोपिया, भारत, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में रहते हैं। विकासशील देशों में 50 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं कुपोषण की शिकार हैं और प्रत्येक पांच सेकेंड में एक बच्चे की मृत्यु भूख से जुड़ी बीमारियों से होती है।

गरीबी के ये आंकड़े विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को मुंह चिढ़ाते हैं। ऐसा भी नहीं है कि सरकारें हाथ पर हाथ धरे बैठी हैं और वे इसके उन्मूलन के लिए गम्भीरता से प्रयास नहीं कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) का भी मानना है कि जबतक विकास समावेशी नहीं होगा तबतक दुनिया से गरीबी पूरी तरह खत्म नहीं हो पाएगी।

भारत में गरीबी के आंकड़ों पर नजर डालें तो यहां स्थिति और विकट है। विश्व बैंक के मुताबिक 41.6 फीसदी भारतीय अंतर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे हैं। गरीबी को लेकर हाल ही में दी गई तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में 37 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं।

इसी समिति की रिपोर्ट के आधार पर योजना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामे में कहा कि शहरों में 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये प्रतिदिन खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से नीचे का नहीं समझा जाना चाहिए। गरीबी रेखा की इस नई परिभाषा पर हो-हल्ला मचने पर योजना आयोग ने हालांकि बाद में स्वयं को इससे अलग कर लिया।

देश से गरीबी का दंश दूर करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अपने मंत्रालयों के जरिए गरीबी उन्मूलन से सम्बंधित कई कार्यक्रमों को चला रही हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण गरीबों को नियंत्रित मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध कराना है क्योंकि गरीब अपनी आय का करीब 80 फीसदी हिस्सा भोजन पर खर्च कर देता है। सरकार जवाहर रोजगार योजना, इंदिरा आवास योजना, सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना, सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम, भूमि सुधार, काम के बदले आनाज और मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के जरिए गरीबों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए प्रयास कर रही है।

ऐसा माना जाता है कि सरकार योजनाओं के लिए जितनी राशि जारी करती है यदि वह रकम सही मायनों में खर्च हो तो नतीजे चौंकाने वाले होंगे लेकिन व्यवस्था में फैला भ्रष्टाचार वांछित परिणामों को हासिल करने में सबसे बड़ी बाधा बनकर उपस्थित होता है।

दशकों से चल रहे गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों ने समाज की आर्थिक स्थिति पर असर डाला है। आज जिस मध्यम वर्ग की बात की जाती है उसकी आजादी के समय उपस्थिति गौण थी। भारत प्रत्येक वर्ष अपने मध्यम वर्ग में छह से सात करोड़ों लोगों को जोड़ रहा है।

गरीबी कई समस्याओं की जड़ है। गरीबी की वजह से यदि किसी समाज के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते तो वह पूरा समाज अशिक्षित होगा और अशिक्षा के कितने दुष्परिणाम हैं वे किसी से छिपे नहीं हैं। यही नहीं गरीबी अक्सर अपराध करने पर मजबूर करती है। इस अभिशाप को दूर किए बगैर विश्व एक सभ्य समाज कहलाने का हकदार नहीं बन सकता।

सुहावने सपनों सा रांची

एक ऐसे शहर जहाँ आप को आत्मिक शांति तो मिलती साथ ही इस के आसपास का मनोहारी वातावरण आप को अपने पाश में ले लेता है और आप सब कुछ भूल जाते है | पौराणिक, ऐतिहासिक सभ्यता, हरे-भरे जंगल, लहरदार नदियां, पहाड़, जलप्रपात, झील, घाटियां तालाब, झरने, ऊंची-ऊंची इमारतें, बड़े उद्योग, प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के लिए मशहूर रांची बिहार की ग्रीष्मकालीन राजधानी थी। वर्तमान में रांची झारखंड की राजधानी है

दशम जलप्रपात
रांची से 40 किमी दूर रांची-टाटा मार्ग में यह तैमारा घाटी के निकट कांची नदी में निर्मित प्रपात हैं। यहां 144 फीट के प्रपात का निर्माण होता हैं। आप के लिए एक चेतावनी भी है यदि आप को उचाई से दर लगता है तो इस के पास मत जाये |

सीता फॉल
सीता फॉल झारखंड का एक जाना-माना जलप्रपात हैं। यह जलप्रपात रांची से 44 किमी की दूरी पर स्थित हैं। जल प्रपात यहां 280 फीट की ऊंचाई से गिरता है, जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं।

रांची हिलपहाड़ी मंदिर
शहर के रातू रोड से दक्षिण में स्थित पहाड़ी को भौगोलिक शब्दावली में रांची हिल और धार्मिक दृष्टि से पहाड़ी मंदिर कहा जाता हैं। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 21,400 फीट तथा आधार से शीर्ष तक 61 मीटर हैं। इस मंदिर में प्रतिदिन प्रात: संध्या विधिवत आरती-पूजा होती हैं। यहां से सम्पूर्ण रांची का दृश्य दिखाई देता हैं।

हुंडरू प्रताप
रांची से 32 किलोमीटर दूर स्वर्णरेखा नदी पर यह जलप्रपात उस स्थान पर बनता हैं जहां रांची पठार स्कार्प (खड़ी ढाल) का निम्न करता हैं। यह 320 फीट ऊंचा हैं। कभी यहां हुंडरू नामक कोई अंग्रेज प्रशासक रहता था जिसके नाम पर इस प्रपात का नाम हुंडरू हो गया हैं। यहां सिकीदरी जलविद्युत स्टेशन भी हैं जिसकी क्षमता 120 मेगावाट विद्युत उत्पादन की हैं।
जगन्नाथपुर मंदिर
जगन्नाथ जी का यह एकमात्र मंदिर हैं जिसकी स्थापना 1691 ई. में ठाकुर ऐनी शाह के द्वारा की गई थी। यह स्थान रांची नगर में ही दक्षिण की ओर स्थित हैं। पुरी मंदिर की तर्ज पर यहां भी 100 फीट ऊंचे मंदिर का निर्माण किया गया हैं। इस मुख्य मंदिर से आधे किमी की दूरी पर मौसीबाड़ी का निर्माण किया गया हैं। रथयात्रा के समय यहां विशाल मेला लगता हैं।

जोन्हा जलप्रपात
रांची-मूरी मार्ग से दक्षिण में स्थित यह प्रपात भी रांची पठार की भ्रंश रेखा पर निर्मित हैं। यह रांची से 40 किमी दूर जोन्हा नामक गांव के पास स्थित हैं। यहां गौतमबुध्द की एक प्रतिमा स्थापित की गई हैं जिसके चलते इसे गौतम धारा भी कहा जाता हैं। इसकी ऊंचाई 150 फीट हैं यह राढू नदी में स्थित हैं। पास में ही सीताधारी नामक एक छोटा प्रपात भी हैं।
हिरणी जलप्रपात
रांची से 70 किमी दूर रांची-चाईबासा मार्ग पर अवस्थित हैं। कल कल की आवाज के साथ 120 फीट ऊंचाई से गिरता यह जलप्रपात अनुपम सौंदर्य प्रर्दशित करता हैं।
अंगराबाड़ी
इसे आम्रेश्वर धाम भी कहा जाता हैं। यहां आम के पेड़ की धड़ से शिवलिंग का निकलना बताया जाता हैं। शिव के अतिरिक्त, गणेश, हनुमान एवं राम-सीता की मूर्तियां भी यहां स्थापित की गई हैं। एक दुर्गा मंदिर का निर्माण हो रहा हैं जो काफी भव्य हैं। इसके गुंबद की ऊंचाई 198 फीट हैं।
टैगोर हिल
रांची के मोरहाबादी नामक स्थान में स्थित इस पहाड़ी को मोरहाबादी पहाड़ी भी कहा जाता हैं। शहर के उत्तर में स्थित इस पहाड़ी को गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई योतिंद्रनाथ ठाकुर ने अपने विश्रामस्थल के रूप में विकसित करने के लिए इस पहाड़ी के साथ पंद्रह एकड़ अस्सी डिसमिल जमीन हरिहर सिंह जमींदार से 23 अक्टूबर 1908 में ली थी। अंग्रेज प्रशासक लेफ्टिनेंट कर्नल ओसले ने सन् 1842 में यहां एड रेस्टहाऊस बनवाया था। ठाकुर परिवार ने इससे मरम्मत करवाई तथा सीढ़ियों का निर्माण करवाया। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई 2128 फीट हैं।
रॉक गार्डन
अलबर्ट एक्का चौक से 4 किमी की दूरी पर रॉक गार्डन स्थित हैं। इसे देखकर जयपुर के रॉक गार्डन का एहसास होता हैं। पर्यटकों के मनोरंजन हेतु यहां अनेक व्यवस्था हैं। चट्टानों की कई काल्पनिक मूर्तिया यहां की शोभा बढ़ाती हैं। यह कांके डैम के ठीक बगल में स्थित हैं जिसके कारण यहां का दृश्य काफी मनोरम हैं।
पंचघाघ
खूंटी से 14 किमी दूर स्थित यह एक ऐसा प्रपात हैं जिसमे पांच धाराएं स्पष्ट दिखाई देती हैं। लोककथा के अनुसार प्रचलित हैं कि कभी पांच बहने किसी एक ही व्यक्ति से प्रेम करने लगी थी। असफल प्रेम के कारण ये यहीं नदी में कूद गई और पांच धाराओं में बदलकर प्रवाहित हो रही हैं।
देवड़ी मंदिर
झारखंड में रांची जिला अर्न्तगत सिल्ली, सोनाहातु, बुंडू, तमाड़ और अड़की प्रखंड क्षेत्र को पंचपरगना क्षेत्र भी कहा जाता हैं। इस क्षेत्र में कांची और कारकरी नदी के तटीय भागों में अनेक पौराणिक मंदिर हैं। कहा जाता हैं कि पालवंश काल में अर्थात् 770-850 ई. के मध्य यहां अनेक मंदिर बनवाए गए थे। तमाड़ से 3 किमी दूर देवड़ी गांव में स्थित मंदिर के कारण ही गांव का नाम देवड़ी हो गया हैं। यहां 16 भुजी देवी की मूर्ती हैं। देवी की मूर्ती के ऊपर शिव की मूर्ती हैं, अगल-बगल में सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिक, गणेश की मूर्तियां हैं।
सूर्य मंदिर
रांची से 35 किमी दूर रांची-टाटा में बुंडू के निकट इस मंदिर कि स्थापना की गई हैं। यह सूर्य के रथ की आकृति कि बनाई गई हैं। इस मंदिर की खूबसूरती के संबंध में स्थानीय साहित्यकारों ने इसे पत्थर पर लिखी कविता कहा हैं।
नक्षत्र वन
हाल के वर्षों में विकसित किए गए नक्षत्र वन बीचों-बीच स्थित धनवंतरी की प्रतिमा लोगों के आकर्षण का मुख्य केंद्र हैं। अक्सर लोग यहां लगे औषधीय पौधे व उनके बारे में जानकारी देते बोर्ड को पढ़ते मिल जाएंगे। ग्रह-नक्षत्रों के बारे में वैज्ञानिक तरीके से जानकारी देता यहां का पर्यावरण बच्चों व बड़ों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उन्हें विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराता हैं। यहां पर बहुत सारे दुर्लभ जड़ी-बूटियों के पौधे हैं।

शिव खोड़ी जहाँ ज़र्रे-ज़र्रे में बसते है शिव

शिव पूजन भारतीय हिन्दू समाज का अभिन्य अंग है शिव को ही सत्य और सुंदर मन जाता है हिन्दुओ का मानना है की जो कुछ भी होता है उस में शिव की ही संतुति होती है यही कारण है की पिछले 5000 वर्षो से शिव ही हिन्दुओ के आराध्य है ये हम नहीं कहते ये तो देखने को मिलता है हिंदुस्तान के ज़र्रे-ज़र्रे में | लोक कहानियो में कहा गया है कि स्यालकोट जो वर्तमान में पाकिस्तान में है। यहाँ के राजा सालवाहन ने शिव खोड़ी में शिवलिंग के दर्शन किए थे और इस क्षेत्र में कई मंदिर भी निर्माण करवाए थे, जो बाद में सालवाहन मंदिर के नाम से प्रसिध्द हुए। अति प्राचीन मंदिरों के कई अवशेष अब भी इस क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं।

शिव खोड़ी शिवालिक पर्वत शृंखला में एक प्राकृतिक गुफा है, जिसमें प्रकृति-निमत शिव-लिंग विद्यमान है। इस गुफा में दो कक्ष हैं। बाहरी कक्ष कुछ बड़ा है, लेकिन भीतरी कक्ष छोटा है। बाहर वाले कक्ष से भीतरी कक्ष में जाने का रास्ता कुछ तंग और कम ऊंचाई वाला है जहां से झुक कर गुजरना पड़ता है। आगे चलकर यह रास्ता दो हिस्सों में बंट जाता है, जिसमें से एक के विषय में ऐसा विश्वास है कि यह कश्मीर जाता है। यह रास्ता अब बंद कर दिया गया है। दूसरा मार्ग गुफा की ओर जाता है, जहां स्वयंभू शिव की मूत है। गुफा की छत पर सर्पाकृति चित्रकला है, जहां से दूध युक्त जल शिवलिंग पर टपकता रहता है।

यह स्थान रियासी-राजोरी सड़कमार्ग पर है, जो पौनी गांव से दस मील की दूरी पर स्थित है। शिवालिक पर्वत शृंखलाओं में अनेक गुफाएं हैं। ये गुफाएं प्राकृतिक हैं। कई गुफाओं के भीतर अनेक देवी-देवताओं के नाम की प्रतिमाएं अथवा पिंडियां हैं। उनमें कई प्रतिमाएं अथवा पिंडियां प्राकृतिक भी हैं। देव पिंडियों से संबंधित होने के कारण ये गुफाएं भी पवित्र मानी जाती हैं। डुग्गर प्रांत की पवित्र गुफाओं में शिव खोड़ी का नाम अत्यंत प्रसिध्द है। यह गुफा तहसील रियासी के अंतर्गत पौनी भारख क्षेत्र के रणसू स्थान के नजदीक स्थित है। जम्मू से रणसू नामक स्थान लगभग एक सौ किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यहां पहुंचने के लिए जम्मू से बस मिल जाती है। यहां के लोग कटरा, रियासी, अखनूर, कालाकोट से भी बस द्वारा रणसू पहुंचते रहते हैं। रणसू से शिव खोड़ी छह किलोमीटर दूरी पर है। यह एक छोटा-सा पर्वतीय आंचलिक गांव है। इस गांव की आबादी तीन सौ के करीब है। यहां कई जलकुंड भी हैं। यहां यात्री जलकुंडों में स्नान के बाद देव स्थान की ओर आगे बढ़ते हैं। देव स्थान तक सड़क बनाने की परियोजना चल रही है।

यात्री सड़क को छोड़ कर आगे पर्वतीय पगडंडी की ओर बढ़ते हैं। पर्वतीय यात्रा अत्यधिक हृदयाकर्षक होती है। यहां का मार्ग समृध्द प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। सहजगति से बहते जलस्रोत, छायादार वृक्ष, बहुरंगी पक्षी समूह पर्यटक यात्रियों का मन बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। चार किलोमीटर टेढ़ी-मेढ़ी पर्वतीय पगडंडी पर चलते हुए यात्री गुफा के बाहरी भाग में पहुंचते हैं। गुफा का बाह्य भाग बड़ा ही विस्तृत है। इस भाग में हजारों यात्री एक साथ खड़े हो सकते हैं। बाह्य भाग के बाद गुफा का भीतरी भाग आरंभ होता है। यह बड़ा ही संकीर्ण है। यात्री सरक-सरक कर आगे बढ़ते जाते हैं। कई स्थानों पर घुटनों के बल भी चलना पड़ता है। गुफा के भीतर भी गुफाएं हैं, इसलिए पथ प्रदर्शक के बिना गुफा के भीतर प्रवेश करना उचित नहीं है। गुफा के भीतर दिन के समय भी अंधकार रहता है। अत: यात्री अपने साथ टॉर्च या मोमबत्ती जलाकर ले जाते हैं। गुफा के भीतर एक स्थान पर सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ती हैं, तदुपरांत थोड़ी सी चढ़ाई के बाद शिवलिंग के दर्शन होते हैं। शिवलिंग गुफा की प्राचीर के साथ ही बना है।

यह प्राकृतिक लिंग है। इसकी ऊंचाई लगभग एक मीटर है। शिवलिंग के आसपास गुफा की छत से पानी टपकता रहता है। यह पानी दुधिया रंग का है। उस दुधिया पानी के जम जाने से गुफा के भीतर तथा बाहर सर्पाकार कई छोटी-मोटी रेखाएं बनी हुई हैं, जो बड़ी ही विलक्षण किंतु बेहद आकर्षक लगती हैं। गुफा की छत पर एक स्थान पर गाय के स्तन जैसे बने हैं, जिनसे दुधिया पानी टपक कर शिवलिंग पर गिरता है।

शिवलिंग के आगे एक और भी गुफा है। यह गुफा बड़ी लंबी है। इसके मार्ग में कई अवरोधक हैं। लोक श्रुति है कि यह गुफा अमरनाथ स्वामी तक जाती है। शिव खोड़ी तीर्थ स्थल पर महाशिवरात्रि के दिन बहुत बड़ा मेला आयोजित होता है जिसमें हजारों की संख्या में लोग दूर-दूर से यहां आकर अपनी श्रध्दा प्रकट करते हैं और आयोजित इस मेले में शामिल होते हैं। शिव खोड़ी की यात्रा बारह महीने चलती है।

कैलास मानसरोवर, जहाँ बसते है भोले नाथ

तिब्बत में प्राचीन काल से कैलास मानसरोवर हिन्दुओं का ऐसा सर्वोच्च धर्म स्थल है। जहां की यात्रा करना प्रत्येक श्रद्धालु की सबसे बडी इच्छा होती है। किसी भी धर्मस्थल की प्राचीनता वहां बिना नागा लम्बे समय से होने वाली पूजा और गर्भगृह में प्रतिष्ठित भगवान की मूर्ति की भव्यता ही उसे सिद्ध स्थान बनाती है।

यह यात्रा हर वर्ष इन्ही दिनों प्रारम्भ होकर सितम्बर तक चलती है। पुराणों के अनुसार यहां शिवजी का स्थायी निवास होने के कारण इस स्थन को 12 ज्येतिर्लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। अंतर्राष्ट्रीय नेपाल. तिब्बत चीन से लगे उत्तराखण्ड के सीमावर्ती जिले पिथौरागढ के धारचूला से कैलास मानसरोवर की तरफ जाने वाले दुर्गम पर्वतीय स्थानों पर सडकें न होने और 75 किलोमीटर पैदल मार्ग के अत्यधिक खतरनाक होने के कारण हिमालय के मध्य तीर्थों में सबसे कठिनतम भगवान शिव के इस पवित्र धाम की यह रोमांचकारी यात्रा भारत और चीन के विदेश मंत्रालयों द्वारा आयोजित की जाती है। कैलास की यात्रा पर केवल भारत ही नहीं अन्य देशों के श्रद्धालु भी जाते हैं

भक्तगण वहां ड्रोल्मापास तथा मानसरोवर तट पर खुले आसमान के नीचे ही शिवशक्ति का पूजन.भजन करते हैं। यहां कहीं कहीं बौद्धमठ भी दिखते हैं जिनमें बौद्ध भिक्षु साधनारत रहते हैं। पुराणों के अनुसार विश्व में सर्वाधिक समुद्रतल से 17 हजार फुट की उंचाई पर स्थित 120 किलोमीटर की परिधि तथा 3 सौ फुट गहरे मीठे पानी की मानसरोवर झील की उत्पत्ति भगीरथ की तपस्या से भगवान शिव के प्रसन्न होने पर हुई थी। ऐसी अद्भुत प्राकृतिक झील इतनी ऊंचाई पर किसी भी देश में नहीं है। पुराणों के अनुसार शंकर भगवान द्वारा प्रकट किये गये जल के वेग से जो झील बनी. कालांतर में उसी का नाम मानसरोवर हुआ। पुराणों के अनुसार इस पवित्र झील की एक परिक्रमा से एक जन्म तथा दस परिक्रमा से हजार जन्मों के पापों का नाश और 108 बार परिक्रमा करने से प्राणी भवबंधन से मुक्त हो कर ईश्वर में समाहित हो जाता है। शिव पुराण के अनुसार कुबेर ने इसी स्थान पर कठिन तपस्या की थी. जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कैलास पार्वत को अपना स्थायी निवास तथा कुबेर को अपना सखा बनने का वरदान दिया था।

शास्त्रों में इसी स्थान को पृथ्वी का स्वर्ग और कुबेर की अलकापुरी की संज्ञा दी गई है। पुराणों में मानसरोवर और क्षीर सागर माने जाने वाले कैलास में ही सृष्टिपालक श्री विष्णु का भी निवास है। कैलास मानसरोवर सभी धर्मावालंबियों के लिए आकर्षण का केंद्र है। गुर्लामांधाता पर्वत की घाटियों से होते हुए 84 किलोमीटर परिधि तथा 150 फुट गहरे राक्षसताल के यहीं दर्शन होते हैं1 पुराणों के अनुसार राक्षसों के राजा रावण ने यहीं बैठ कर भगवान को प्रसन्न किया था। मानसरोवर से 45 किलोमीटर दूर तारचेन कैलास परिक्रमा का आधार शिविर है। यहीं से कैलास परिक्रमा आरंभ होती है। कैलास परिक्रमा मार्ग 15500 से 19500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। तारचेन से यात्री यमद्वार पहुंचते हैं। घोडे और याक पर चढकर ब्रह्मपुत्र नदी को पार करके कठिन रास्ते से होते हुये यात्री डेरापुफ पहुंचते है। जहां ठीक सामने कैलास के दर्शन होते हैं|

डेरापुफ में रात्रि विश्राम के बाद श्रद्धालु सबसे कठिन और दिल दहला देने वाली साढे 19 हजार पुट खडी की ऊंचाई पर स्थित ड्रोल्मा की तरफ बढते हैं। ड्रोल्मा में ही शिव और पार्वती की पूजा-अर्चना करके धर्म पताका फहराई जाती है। श्रद्धालु शिव और गौरी के पूजन के पश्चात ड्रोल्मा से नीचे बर्फ से सदा ढकी रहने वाली ल्हादू घाटी स्थित 18400 पुट की ऊंचाई पर बनी पन्ने के रंग जैसी हरी आभा वाली झील,गौरीकुंड के दर्शन भी करते है। साढे सात किलोमीटर परिधि तथा 80 पुट गहराई वाली इसी झील में माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रुप में पाने कलिए घोर तपस्या की थी।
श्रद्धालु दिल्ली से उत्तराखंड के काठगोदाम होते हुए आधार शिविर धारचूला पहुंचने के बाद पहले पडाव पांग्ला से पैदल यह यात्रा प्रारंभ करते है। धारचूला और नाभीढांग होते हुए कुल 75 किलोमीटर दुर्गम पर्वतीय क्षेत्रों को पैदल पार करके विभिन्न यात्री दल लिपुपास से चीन शासित तिब्बत में प्रवेश करते हैं। प्रत्येक यात्री दल कैलास यात्रा के एक माह बाद वापस दिल्ली पहुंचता है।
श्रद्धालुओं को कैलास मानसरोवर में 12 दिन बिताने का मौका मिलता है। गुंजी के बाद भारत के साढे 16 हजार फुट की उंचाई पर स्थित लिपुपास से चीन सरकार इस यात्रा को अपने हाथ में ले लेती है। इस मार्ग पर आई टी बी पी भी श्रद्धालुओं को सहयोग देती है। चीन सीमा क्षेत्र में एशिया की सबसे उच्च धार्मिक कैलास मानसरोवर तक जाने वाले श्रद्धालुओं को विदेश मंत्रालय से अनुमति और चीन से वीजा लेना पडता है।

कैलास-मानसरोवर यात्रा मार्ग

हल्द्वानी--→ कौसानी---→ बागेश्वर---→ धारचूला---→ तवाघाट---→ पांगू---→ सिरखा---→ गाला---→ माल्पा---→ बुधि---→ गुंजी---→कालापानी---→ लिपू लेख दर्रा---→ तकलाकोट---→ जैदी---→ बरखा मैदान---→ तारचेन---→ डेराफुक---→श्रीकैलास

धार्मिक पर्यटन करना हो तो झारखंड जाये

झारखंड कुछ प्रमुख तीर्थस्थानों का केंद्र है जिनका ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व है। इन्हीं में से एक स्थान है देवघर। यह स्थान संथाल परगना के अंतर्गत आता है। माना जाता है कि भगवान शिव को श्रीलंका ले जाने के दौरान उनकी स्थापना यहां हुई थी। प्रतिवर्ष श्रावण मास में श्रध्दालु 100 किमी. लंबी पैदल यात्रा करके सुल्तानगंज से पवित्र जल लाते हैं जिससे बाबा बैद्यनाथ का अभिषेक किया जाता है। देवघर की यह यात्रा बासुकीनाथ के दर्शन के साथ सम्पन्न होती है। बैद्यनाथ धाम के अलावा भी यहां कई मंदिर और पर्वत हैं जहां दर्शन कर अपनी इच्छापूर्ति की कामना की जा सकती है। देवघर हिन्दुओं का तीर्थ-स्थल है। इस शहर को बाबाधाम के नाम से भी जाना जाता है | शैव पुराण में देवघर को बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक माना गया है।

देवघर में भगवान शिव का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर स्थित है। सावन में यहां लाखों शिव भक्तों की भीड़ उमड़ती है जो देश के विभिन्न हिस्सों सहित विदेशों से भी यहां आते हैं। इन भक्तों को कांवरिया कहा जाता है। ये शिव भक्त बिहार में सुल्तानगंज से गंगा नदी से गंगाजल लेकर 105 किलोमीटर की दूरी पैदल तय कर देवघर में भगवान शिव को जल अर्पित करते हैं।


बैद्यनाथ मंदिर में स्थापित लिंग भगवान शिव के बारह योतिर्लिगों में से एक है। पुराणों में भी इसका वर्णन मिलता है। माना जाता है कि रावण चाहता था कि उसकी राजधानी पर शिव का आशीर्वाद बना रहे। इसलिए वह कैलाश पर्वत गया और शिव की अराधना की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने रावण को अपना योतिर्लिंग दिया। लेकिन इसके साथ उन्होंने एक शर्त रखी कि रावण अपनी यात्रा बीच में रोक नहीं सकता और इस लिंग को कहीं भी नीचे नहीं रखना होगा। यदि लिंग लंका से पहले कहीं भी नीचे रखा गया तो वह सदा के लिए वहीं स्थापित हो जाएगा। देवगण अपने शत्रु को मिले इस वरदान से घबरा गए और एक योजना के तहत इंद्र ब्राह्मण बनकर आया। इंद्र ने ऐसा बहाना बनाया कि रावण ने यह लिंग उसे सौंप दिया। ब्राह्मण रूपी इंद्र ने यह लिंग देवघर में रख दिया। रावण की लाख कोशिशों के बाद भी यह हिला नहीं। रावण अपनी गलती को सुधारने के लिए रोज यहां आता था और गंगाजल से शिवजी का अभिषेक करता था।

लेकिन ऐतिहासिक रूप से इस मंदिर की स्थापना 1596 की मानी जाती है जब बैजू नाम के व्यक्ति ने खोए हुए लिंग को ढूंढा था। तब इस इस मंदिर का नाम बैद्यनाथ पड़ गया। कई लोग इसे कामना लिंग भी मानते हैं।

सावन के महीने में यहां मेला लगता है। इस मेले में हर रोज कावंड़ियों की भीड़ लगती है। सवा महीने तक चलने वाले इस मेले में अब हर रोज कावंड़ियों की भीड़ लाख की संख्या पार कर जाती है। इस अर्थ में यह किसी महाकुंभ से कम नहीं है। इस अर्थ में यह किसी महाकुंभ से कम नहीं है। झारखंड के देवघर में लगने वाले इस मेले का सीधा सरोकार बिहार के सुलतानगंज से है। यहीं गंगा नदी से जल लेने के बाद 'बोल बम' के जयकारे के साथ कांवड़िये नंगे पांव देवघर की यात्रा आरंभ करते हैं।

बैद्यनाथ की यात्रा श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) शुरु होती है। सबसे पहले तीर्थयात्री सुल्तानगढ़ में एकत्र होते हैं जहां वे अपने-अपने पात्रों में पवित्र जल भरते हैं। इसके बाद वे बैद्यनाथ और बासुकीनाथ की ओर बढ़ते हैं। पवित्र जल लेकर जाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वह पात्र जिसमें जल है, वह कहीं भी भूमि से न सटे।


बासुकीनाथ अपने शिव मंदिर के लिए जाना जाता है। बैद्यनाथ मंदिर की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक बासुकीनाथ में दर्शन नहीं किए जाते। यह मंदिर देवघर से 42 किमी. दूर जरमुंडी गांव के पास स्थित है। यहां पर स्थानीय कला के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। इसके इतिहास का संबंध नोनीहाट के घाटवाल से जोड़ा जाता है। बासुकीनाथ मंदिर परिसर में कई अन्य छोटे-छोटे मंदिर भी हैं।

बाबा बैद्यनाथ मंदिर परिसर के पश्चिम में देवघर के मुख्य बाजार में तीन और मंदिर भी हैं। इन्हें बैजू मंदिर के नाम से जाना जाता है। इन मंदिरों का निर्माण बाबा बैद्यनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी के वंशजों ने करवाया था। प्रत्येक मंदिर में भगवान शिव का लिंग स्थापित है।
आसपास दर्शनीय स्थल

देवघर से 16 किमी. दूर दुमका रोड पर एक खूबसूरत पर्वत त्रिकूट स्थित है। इस पहाड़ पर बहुत सारी गुफाएं और झरनें हैं। बैद्यनाथ से बासुकीनाथ मंदिर की ओर जाने वाले श्रध्दालु मंदिरों से सजे इस पर्वत पर रुकना पसंद करते हैं।

देवघर के बाहरी हिस्से में स्थित यह मंदिर अपने वास्तुशिल्प की खूबसूरती के लिए जाना जाता है। इस मंदिर का निर्माण बालानंद ब्रह्मचारी के एक अनुयायी ने किया था जो शहर से 8 किमी. दूर तपोवन में तपस्या करते थे। तपोवन भी मंदिरों और गुफाओं से सजा एक आकर्षक स्थल है।

इस पर्वत की महत्ता यहां बने मंदिरों के झुंड के कारण है जो विभिन्न भगवानों को समर्पित हैं। पहाड़ की चोटी पर कुंड भी है जहां लोग पिकनिक मनाने आते हैं।
किसी महाकुंभ से कम नहीं
सुलतानगंज से देवघर की दूरी 98 किलोमीटर है। इसमें सुइया पहाड़ जैसे दुर्गम रास्ते भी शामिल हैं, जहां से नंगे पांव गुजरने पर नुकीले पत्थर पांव में चुभते हैं मगर मतवाले शिवभक्तों को इसकी परवाह कहां रहती है। धर्मशास्त्रों में शिव के जिस अलमस्त व्यक्तित्व का वर्णन है, कमोबेश उनके भक्त कांवड़ियों में भी श्रावणी मेले में यह नजर आता है। वैसे हठयोगी शिवभक्तों की भी कमी नहीं है। जो इतनी लंबी दूरी तक दंड प्रणाम करते हुए पहुंचते है।

अल्लाह के दूत की नगरी : मदीना

पैगंबर मुहम्मद द्वारा बुरी धार्मिक परंपराओं और रीति-रिवाजों का विरोध करने पर तत्कालीन शासकों द्वारा उनको मक्का छोडने पर मजबूर किया गया, तब पैगंबर द्वारा इसी मदीना शहर को अपना ठिकाना बनाया गया। यहीं पर उन्होंने अल्लाह के पवित्र संदेशों को प्रथम बार लोगों तक पहुंचाया। मदीना का पूरा नाम \'मदीना रसूल अल्लाह\' है। जिसका अर्थ होता हैअल्लाह के दूत की नगरी। इसका छोटा रूप \'अल मदीना\' है जिसका अर्थ है नगर। मुस्लिम अनुयायी पैगंबर मुहम्मद के साथ हमेशा \'सल्ला अल्लाहु अलाही वा सल्लम\' जोड़ते हैं। इसलिए इन सभी शब्दों को जोड़कर यह स्थान \'मदीनात रसूल अल्लाह सल्ला अल्लाहु अलाही वा सल्लम\' के नाम से भी जाना जाता है। इसका सार यही है कि यह शांति और सुरक्षा की नगरी है।

इस्लाम धर्म के धर्मावलंबियों में मक्का के बाद मदीना दूसरा महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। इस्लाम धर्म के अनुसार यह मुसलमानों की प्रथम राजधानी है। इसी नगर में देवदूत जिब्राइल उतरे थे। यह वह नगर है, जहां अल्लाह के दूत पैगंबर हजरत मुहम्मद ने आश्रय लेकर धर्म और समाज में पैदा हुए दोषों और अन्याय के विरोध में अल्लाह के पवित्र उपदेशों को फैलाया। इस प्रकार यहीं से जिहाद या धर्मयुध्द की शुरुआत हुई। मुसलमानों की आस्था यहां से इसलिए भी जुड़ी है कि यहीं पर पैगंबर ने अपने जीवन का अंतिम समय गुजारा और यहीं पर उनका निधन हुआ। यहां पैगंबर की समाधि भी है।

मदीना नगर ईस्वी सन् 622 में मुहम्मद हजरत के इस्लाम धर्म के प्रचार का प्रमुख स्थान रहा। पैगंबर द्वारा मक्का में चलाए गए धार्मिक और सामाजिक बुराइयों के विरोध के बाद शासकों द्वारा उनको प्रताड़ित करने से मक्का छोडने के बाद उनके अनुयायियों द्वारा मुहम्मद पैगंबर को \'यथरीब\' जो मदीने का पुराना नाम है, में मुखिया बनकर रहने को आमंत्रित किया गया। उन दिनों में मदीना भी अलग गुटों और धर्म में बंटा हुआ था। जिनके बीच आए दिन धार्मिक परंपराओं को लेकर झगड़े और कलह होते थे तब मुहम्मद हजरत ने इस स्थान को अपना घर बनाया और अल्लाह के पवित्र संदेशों और शिक्षाओं को यहां के लोगों तक पहुंचाया। जिससे सभी धर्म और गुटों के लोग आपस में समझौता कर हजरत मुहम्मद और उनके अनुयायियों द्वारा बताए गए इस्लाम धर्म का पालन करने को राजी हो गए।

उस वक्त मदीना में यहूदी बड़ी संख्या में रहते थे। पैगंबर मुहम्मद के लिए यहूदियों को इस बात के लिए तैयार करना कठिन था कि इस्लाम धर्म ही यहूदी धर्म का वास्तविक रूप है। फिर भी उन्होंने सभी का समर्थन प्राप्त कर मक्का की ओर चढ़ाई की और अंत में इस्लाम धर्म और उसमें विश्वास करने वालों की जीत हुई। इसी स्थान से पैगंबर ने मानवता और धर्म पालन के लिए सदैव जगत को एक हो जाने की प्रेरणा दी। उन्होंने मानवीय मूल्यों और आचरण की पवित्रता का महत्व बताया। उन्होंने संदेश दिया कि हर व्यक्ति को जीवन में ईश्वर के प्रति पूरा समर्पण रखकर बुराई से बचना चाहिए और अच्छाई को ही अपनाना चाहिए। पवित्र नगरी मदीना में पैगंबर मुहम्मद की \'अल-नबवी\' के नाम से प्रसिध्द मस्जिद स्थित है।

मस्जिद का निर्माण पैगंबर के घर के पास ही किया गया है, जहां उनको दफनाया गया था। इस्लाम धर्म की प्रथम मस्जिद जो \'मस्जिद अल कूबा\' के नाम से पूरे विश्व में प्रसिध्द है, यहीं स्थित है। इस्लाम धर्म के पहले चार खलीफा ने इस्लामी साम्राय का तेजी से विस्तार किया। बाद के समय में इस्लाम धर्म के प्रमुख केंद्र के रूप में यरूशलेम, दमिश्क शामिल हुए। चौथे खलीफा अली खलीफा की मृत्यु के बाद मदीना से हटकर दमिश्क बना दी गई। समय बीतने के साथ ही मदीना धार्मिक महत्व के साथ ही राजनीतिक महत्व का प्रमुख स्थान हो गया। किंतु पैगंबर हजरत मुहम्मद की धर्म और ईश्वर के प्रति निष्ठा के लिए यह स्थान चिर काल तक याद किया जाएगा।

पूर्व-उत्तर का स्वर्ग गोलपाड़ा

अगर आप असम जा रहे है तो गोलपाड़ा की खूबसूरती का आनंद अवश्य लें। गोलपाडा प्रकृति प्रेमियों के लिए स्वर्ग कहा जाता है। इस जिले की स्थापना 1983 में की गई थी। पर्यटकों के लिए यहां पर बहुत कुछ है। यहां की ऐतिहासिक विरासतों और खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों को देखने के लिए पर्यटक खींचे चले आते हैं। यहां पंचरत्न, श्रीसुरया, तुर्केश्वरी और नालंगा पहाड़ियां हैं। पहाड़ियों के अलावा अनेक खूबसूरत नदियां भी हैं।

हूलूकुण्डा पहाड़ : यह गोलपाड़ा जिले में स्थित अत्यंत सुंदर पहाड़ी है। ब्रिटिश काल में यहां पर अनुमण्डलाधिकारी का दफ्तर था। इस पहाड़ से पूरे गोलपाड़ा का खूबसूरत और मनोहारी दृश्य देखा जा सकता है। यहां से विशेष रूप से ब्रह्मपुत्र नदी और नारायण सेतू का खूबसूरत दृश्य देखना, पर्यटकों को बहुत भाता है।

कुमरी बील : कुमरी बील गोलपाड़ा की उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित अत्यंत खूबसूरत प्राकृतिक झील है। यह गोलपाड़ा से 11 किमी दूर है। इस झील के पास ही नारायण सेतू और पगलाटेक मन्दिर भी है। झील से नारायण सेतू 1 किमी और पगलाटेक मन्दिर 5 किमी दूर है। पगलाटेक मन्दिर ऐतिहासिक विरासत है। यह बहुत खूबसूरत है। पर्यटक यहां पर वाटर स्पोर्ट्स का आनंद भी ले सकते हैं।

श्री श्रीसुरया पहाड़ : गोलपाड़ा से श्रीसुरया पहाड़ 16 किमी दूर है। गोलपाड़ा से इस पहाड़ तक जाने के रास्ते में मोरनोई और सैनिक स्कूल भी आते हैं। इस पहाड़ पर पर्यटक अनेक देवी-देवताओं की सुन्दर प्रतिमाएं देख सकते हैं। इन प्रतिमाओं में दुर्गा, गणेश, सूरज, चन्द्रमा और बुध्द की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। माघ-बिहू में पूर्णिमा के दिन यहां पर तीन दिन तक मेले का आयोजन भी किया जाता है।

देखधोवा : देखधोवा श्रीसुरया पहाड़ से 4 किमी दूर है। इसको पहाड़ सिंह के नाम से भी जाना जाता है। इसके पास ही ब्रह्मपुत्र नदी भी बहती है। ब्रह्मपुत्र देखने के बाद कई खूबसूरत पर्यटक स्थलों तक आसानी से पहुंचते हैं। पास ही रायखासिनी पहाड़, नंदेश्वर देवालय और सैनिक स्कूल स्थित है।

बाराड़ा चिबनांग : मेघालय में स्थित बाराड़ा चिबनांग बहुत ही खूबसूरत स्थान है। यह गोलपाड़ा के बिल्कुल पास स्थित है। पिकनिक मनाने के लिए यह बेहद उम्दा और खूबसूरत स्थान माना जाता है।

श्रीसत्यान्य गौडिया मठ : श्रीमंत मठ के पास ही एक मठ है श्रीसत्यान्य गौडिया। यह तिलपाड़ा में ही है। इसका उद्धाटन श्री श्रीमद्भक्ति देईता माधव गोस्वामी महाराज ने किया था। श्रीमंत शंकर मठ : यह मठ मध्यकालीन वैष्णव संत श्रीमंत शंकर देव को समर्पित है। इसका निर्माण 11 फरवरी 1979 को पूरा हुआ था। मठ में शंकर देव की एक अस्थि भी रखी हुई है। इसको पूटा अस्थि के नाम से जाना जाता है। श्री शंकर देव का मठ गोलपाड़ा शहर के हृदय तिलपाड़ा में स्थित है।

सात संसार, इक मुनस्यारी

मुनस्यारी मैं कुदरत अपने आँचल में तमाम खूबसूरत नजारों के साथ अमूल्य पेड़-पौधे व तमाम जड़ी-बूटीओं को छुपाए हुए है, उत्तराखंड के जिले पिथौरागढ़ के एक हिस्से मुनस्यारी पर कुदरत खास मेहरबान है. इसकी इन्हीं खूबिओं की वजह से स्थानीय लोग मुनस्यारी के लिए ' सात संसार, इक मुनस्यारी' की कहावत का प्रयोग करते हैं. मुनस्यारी एक विस्तृत क्षेत्र है, जहाँ शंखधुरा, नानासैण, जेती, जल्थ, सुरंगी, शर्मेली व गोड़ीपार जैसे छोटे-छोटे गाँव हैं और इन्हीं गांवो के ठीक नीचे कल-कल करती गौरी गंगा नदी बहती है.

लोगों का मानना है कि इस नदी में गंधक का पानी है। यही वजह है कि इसके पानी में औषधीय गुण बताए जाते हैं और माना जाता है कि इसमें नहाने से त्वचा संबंधी तकलीफें दूर होती हैं।
यहां से हिमालय की सफेद ऊंची चोटियां बेहद साफ नजर आती हैं। साफ व सुहावने मौसम में यहां के खूबसूरत प्राकृतिक नजारों को देख पर्यटक पलक तक झपकना भूल जाते हैं। वैसे, मुनस्यारी उगते व डूबते सूरज के मोहक नजारों के लिए भी मशहूर है।
मुनस्यारी आने पर पर्यटक खलिया टॉप पर ना जाएं, यह तो नामुमकिन है। हालांकि यहां पहुंचने के लिए एकदम सीधी चढ़ाई चढ़ने की हिम्मत भी जुटानी होती है। वैसे, यहां पहुंचने के बाद पंचौली चोटियों को एकदम साफ देखा जा सकता है। ऐसा लगता है कि मानो ये चोटियां नहीं, बल्कि पांच चिमनियां हों। कहा जाता है कि स्वर्ग की ओर बढ़ने से पहले पांडवों ने आखिरी बार पंचौली में ही खाना बनाया था।
इनमें दिलचस्पी रखने वालों के लिए भी यह जगह बेहतरीन है। यहां आमतौर पर दिखाई देने वाले पक्षी विस्लिंग थ्रस, वेगटेल, हॉक कूकू, फॉल्कोन और सपर्ेंट ईगल वगैरह हैं। तो मुनस्यारी के जंगल शेर, चीते, कस्तूरी मृग और पर्वतीय भालू का घर कहे जाते हैं।
एक ओर जहां क्षेत्र की 'गौरी घाटी' ट्रेकिंग के लिए स्वर्ग कही जाती है, वहीं गौरी गंगा में रॉफ्टिंग के रोमांच को करीब से महसूस किया जा सकता है। इसके अलावा सर्दियों में यहां खलिया टॉप और बेतुलीधार पर पहुंच कर भी प्रकृति का भरपूर आनंद लिया जा सकता है। मुनस्यारी से मिलम, नामीक, रालम ग्लेशियर वगैरह काफी नजदीक हैं। इसके पास जोहार घाटी है, जो किसी समय तिब्बत के साथ व्यापार करने का रूट हुआ करता था। ध्यान रखें कि आज इस रूट पर आगे बढ़ने के लिए आपको पूर्व अनुमति लेनी होती है। अगर आप किसी व्यावसायिक ट्रैक समूह के साथ हैं, तो उनके पास पहले से ही अनुमति रहती है।
मुनस्यारी से 5 किमी पर कालामुनि डांडा में एक प्रसिध्द मां दुर्गा मंदिर है, जिसमें लोगों की गहरी श्रध्दा है। पर्यटक भी इस मंदिर में जरूर जाते हैं। नवरात्रों में यहां के उल्का देवी मंदिर में एक बहुत बड़ा मेला लगता है, जिसे मिलकुटिया का मेला कहा जाता है। यहां दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं। नौ दिन तक यहां सिर्फ ढोल, वाद्य यंत्र व नगाड़ों की भक्तिमय गूंज सुनाई देती है। दिल्ली से मुनस्यारी करीब 590 किमी दूर हैं, वहीं काठगोदाम से इसकी दूरी 314 किमी रह जाती है, जो यहां पहुंचने के लिए करीबी रेलवे स्टेशन भी है। यहां से आगे के लिए आपको बस व टैक्सी असानी से मिल जाती हैं। पिथौरागढ़ के नैनी सैनी में एक छोटा सा हवाई अड्डा है|

देवता का घर लोयांग

चीन में यह प्रचलित है कि यदि आप चीन के उत्थान और पतन की दास्तान से रूबरू होना चाहते हैं तो एक बार लोयांग शहर का रुख अवश्य कीजिए। चीन के हनान प्रांत के पश्चिमी हिस्से और पीली नदी के दक्षिणी तट पर बसे इस शहर की स्थापना ईसापूर्व 12 वीं सदी में हुई थी और यह चीन की आठ बड़ी प्रचीन राजधानियों में से एक है।
चीनी इतिहास का यह इकलौता ऐसा शहर है जिसे देवता की राजधानी के नाम से अभिहित किया गया है। लोयांग 13 राजवंशों की राजधानी रहा है यानी इस शहर को 1500 साल तक राजधानी होने का गौरव मिला है। लोयांग चीनी सभ्यता के अहम जन्मस्थानों में से एक रहा है। यहीं पर माओवाद और कंफ्यूशियसवाद का जन्म हुआ।

यह शहर चीन के शीर्ष पर्यटनस्थलों में से है जहां के चप्पे-चप्पे पर सांस्कृतिक धरोहरें बिखरी पड़ी हैं। गौरतलब है कि चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा द्वारा चीन के आकर्षक शहरों को चुनने के लिए लिए चल रही ऑनलाइन प्रतियोगिता में लोयांग भी शामिल है। इस प्रतियोगिता में अपनी पसंद के सबसे आकर्षक चीनी शहरों के लिए दुनिया भर के नेटिजन सीआरआई द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता में ऑनलाइन मतदान में हिस्सा ले रहे हैं।

यहां मौजूद प्राचीन राजधानी के अवशेष, मंदिर, गुफाएं, मकबरे इसकी सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध बनाते हैं। लुंगमन गुफा यहां मौजूद धरोहरों में सबसे खास है। इस गुफा स्थल को पहले 'यी नदी का द्वार' कहा जाता था। बाद में इसे लुगमन या ड्रैगन द्वार कहा जाने लगा।

इन बौद्ध गुफाओं पर कारीगरों ने उस समय काम करना शुरू किया जब उत्तरी वेइ के सम्राट ने दातोंग की जगह लोयांग को अपनी राजधानी बनाया। यहां मौजूद कारीगरी दातोंग की कारीगरी का ही विस्तार है। लुंगमेन में काम सात राजवंशों के कार्यकाल तक चला। यहां 1300 से ज्यादा गुफाएं, 40 छोटे पगोड़ा और करीब 100,000 बौद्ध प्रतिमाएं हैं जिनका ऊंचाई एक इंच से लेकर 57 फुट तक है। इन्हें चीन में बौद्ध संस्कृति की उत्कृष्ट धरोहर माना जाता है।

पईमा मंदिर चीन का प्रथम सरकारी बौद्ध मठ है जिसका निर्माण वहां बौद्ध धर्म की शुरुआत के बाद आधिकारिक तौर पर किया गया। इस शहर में रंग-बिरंगे पीयोनी या चंद्रपुष्प खिलते हैं और इसे पुष्प का साम्राज्य भी कहा जाता है। यह पुष्प शांति और समृद्धि के प्रतीक हैं। हर साल जब 15 अप्रैल से आठ मई तक चंद्रपुष्पों के पुष्पित-पल्लिवत होने का मौसम चरम पर होता है तो शहर में चंद्रपुष्प मेले का आयोजन होता है। विश्वप्रसिद्ध रेशम मार्ग यहीं से होकर गुजरता था।

दुनिया का सबसे सुन्दर कस्बा लाचुंग

मैदानी इलाको में रहने वालो को हमेशा गिरती बर्फ में रोमांस नज़र आता है। सिक्किम का लाचुंग ऐसी ही जगह है, यहाँ जब बर्फ गिरती है तो उसका नजारा मन मोहक होता है। युमथांग घाटी के इलाके की प्राकृतिक खूबसूरती मजे को और बढ़ा देती है।
सिक्किम की खूबसूरती के चर्चे तो पूरे विश्व में हैं। लेकिन आज हम बता रहे हैं उस जगह के बारे में जिसे सिक्किम में सबसे खूबसूरत कस्बा के रूप में जाना जाता है। इस कस्बा का नाम है लाचुंग। इसे यह नाम दिया था ब्रिटिश घुमक्कड जोसेफ डॉल्टन हुकर ने 1855 में प्रकाशित हुए द हिमालयन जर्नल में।
लाचुंग उत्तर सिक्किम में चीन की सीमा के काफी नजदीक है। लाचुंग समंदर से 9600 फुट की ऊंचाई पर लाचेन व लाचुंग नदियों के संगम पर स्थित है। यही नदियां ही आगे जाकर तीस्ता नदी में मिल जाती हैं। इतनी अधिक ऊंचाई पर ठण्ड तो साल भर होती है। बर्फ गिरते ही यहां की खूबसूरती को नया मुकाम मिल जाता है| लाचुंग को युमथांग घाटी के लिये बेस के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

पर्यटन स्थल

पहाडी की चोटी पर लाचुंग मोनेस्ट्री है।यहां ध्यान लगाने बैठें तो आप खुद को ही भूल जायेंगे।12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित न्यिंगमापा बौद्धों की इस मोनेस्ट्री की स्थापना 1806 में हुई थी। इसके सिवा लाचुंग में हथकरघा केन्द्र भी है जहां स्थानीय हस्तशिल्प का जायजा लिया जा सकता है। इस के पास ही शिंगबा रोडोडेंड्रन अभयारण्य है। सात-आठ हजार फुट से अधिक की ऊंचाई वाले हिमालयी पेडों को रंग देने वाले बुरांश के पेडों को यहां बेहद नजदीक से महसूस किया जा सकता है। यहां रोडोडेंड्रन की लगभग 25 तरह की किस्में हैं।
कंचनजंघा नेशनल पार्क भी इसी इलाके में आता है।युमथांग जीरो पॉइण्ट 15700 फुट से ऊपर है। उस ऊंचाई पर खडे होकर, जहां हवा भी थोडी झीनी हो जाती है, आगे का नजारा देखना एक दुर्लभ अवसर है।

कब-कहां-कैसे जाया जाये

लाचुंग जाने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मई तक का है। अप्रैल-मई में यह घाटी फूलों से लकदक दिखाई देगी तो जनवरी-फरवरी में बर्फ से आच्छादित मिलेगा। हर मौसम की अलग खूबसूरती है यहाँ । लाचुंग गंगटोक से 117 किलोमीटर दूर है। गंगटोक से यह रास्ता जीप से पांच घण्टे में तय किया जा सकता है। लाचुंग से युमथांग घाटी 24 किलोमीटर आगे है, युमथांग तक जीपें जाती हैं। रस्ते में आप को फोदोंग, मंगन, सिंघिक व चुंगथांग जैसी स्थान भी मिलेंगे यहाँ के लिए जीपें गंगटोक से मिलती हैं।
जब से भारत-चीन के बीच सीमा व्यापार शुरू हुआ इस इलाके में सैलानियों की आवाजाही भी बढी है। 1950 में तिब्बत पर चीन के कब्जे से पहले भी लाचुंग सिक्किम व तिब्बत के बीच व्यापारिक चौकी का काम करता था। यह इलाका लम्बे समय तक आम लोगों के लिये बन्द रहा है। हालात सामान्य होने के साथ ही सैलानी यहां फिर से आने लगे हैं। लिहाजा यहां कई होटल भी बने हैं। लाचुंग में सस्ते व महंगे दोनों तरह के होटल है।

बर्फ की चादर में लिपटा रूमानी सोलंग

मनाली घाटी का सोलंग नाला ऐसा स्थल है जो सैलानियों, साहसिक पर्यटन के शौकीनों, को बार-बार यहां आने का न्योता देता दिखता है। साल के हर मौसम में सोलंग का अलग अलग रंग होता है। गर्मियों में यहाँ बिछी हरियाली मन को शांति देती है, सर्दियों में लगता है कि बर्फ के देश आ गए हों। सोलंग नाले के पास बसी है सोलंग घाटी। ये नाला ही ब्यास नदी का उद्गम स्त्रोत माना जाता है। नाले के ऊपर ब्यास कुंड स्थित है। गर्मियों में सोलंग में आकाश में उड़ने वाले साहसिक खेलों का आयोजन होता है, और सर्दियों में यहां की बर्फानी ढलानों पर फिसलता रोमांच देखने लायक है। सोलंग में कई राष्ट्रीय शीतकालीन खेल आयोजित हो चुके हैं। सोलंग की ढलानें स्कीइंग के लिए दुनिया की लाजवाब प्राकृतिक ढलानों में शुमार की जाती हैं।

सोलंग से प्रकृति का प्यार
मनाली से सोलंग की दूरी 3 किलोमीटर है। समुद्र तल से 2480 मीटर की उंचाई पर स्थित सोलंग में प्रकृति की छटा देखने लायक है। रई, तोच्च तथा खनोर के फरफराते पेड़ वातावरण में रूमानी संगीत घोलते प्रतीत होते हैं। इसकी पृष्ठभूमि में चांदी से चमकते पहाड़ हैं, जिनका सौंदर्य शाम की लालिमा में और भी निखर जाता है। मनाली से सोलंग आप टैक्सी, कार या दुपहिया वाहन द्वारा भी जा सकते है और सोलंग के रूमानी सौंदर्य को आत्मसात करके शाम को आप मनाली पहुंच सकते हैं। यहीं रुकना चाहें तो यहां रिजॉर्ट भी हैं। सर्दियों में यहां पर्वत श्रृंखलाएं बर्फ की सफेद चादर में लिपट जाती हैं तो यहां का द्रश्य ही बदल जाता है। जिधर नज़र दौड़ाएं, बर्फ ही बर्फ। जमीन पर बर्फ, दरख्तों पर बर्फ, नदी-नालों में तैरती बर्फ यही नहीं पहाड़ों से नागिन कि तरह लिपटी बर्फ अदभुत और शब्दों से परे होता है। सोलंग जब बर्फ से अपना श्रृंगार करता है तब इसका नैसर्गिक रूप देखते ही बनता है और इसी में बंध कर सैलानी यहां से वापस जाने का नाम नहीं लेते।

फूलों की मादक सुगंध

सोलंग में जब रंग-बिरंगे फूल खिलते हैं तब मादकता चारो ओर बिखर जाती है। प्रकृति अपने कितने रूप बदल सकती है, यह हमें सोलंग आकर पता चलता है। मस्त हवा के झोंके, पंछियों का कलरव और दूर झरने का कोलाहल माहोल को जादुई बना देता है। यहाँ आकर ही पता चलता है की प्रकृति ने हमें कितने रंगों ने नवाजा है |
तो फिर किस बात का है इंतजार सोलंग में इस बार मनाईये अपनी छुट्टी |

महाकाल की नगरी: उज्जैन

उज्जैन : हिन्दुओं में मोक्ष प्राप्ति का सबसे आसन साधन है तीर्थ स्थल का भ्रमण करना| भारत के मध्य प्रदेश में स्थित प्राचीन नगरी उज्जैन देश के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक हैं, जो महाकाल सदा शिव के आशीर्वाद की छत्र-छाया में है| विंध्यपर्वतमाला के समीप एवं क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित 'महाकाल की नगरी' के नाम से विख्यात इस नगरी में आकर आप शिव कि भक्ति में खो जाएंगे| कथा पुरानो में कहा गया है कि जब देवताओं और राक्षसों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तब उसमें से कई अमूल्य चीजें निकली थीं। इस अमृत को पाने के लिए देवताओं और राक्षसों में बारह दिनों तक भीषण संघर्ष हुआ| इस दौरान अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिरी| उन्ही अमृत बूंदों में से एक बूंद से शिप्रा नदी का निर्माण हुआ जिसके तट पर स्थित है पवित्र नगरी उज्जैन| इस पवित्र नगरी को ‘कालिदास नगरी’ भी कहा जाता है|

चारों तरफ महादेव के भव्य मंदिरों से घिरे इस नगर में महाकालेश्वर मंदिर, मंगलनाथ मंदिर, काल भैरव मंदिर जैसे कई प्राचीन मंदिर हैं| इसके अतिरिक्त बड़े गणेश मंदिर, हरसिध्दि देवी मंदिर, और भर्तृहरि की गुफा भी मौजूद है जहां जाकर आप अलोकिक शक्तियों को महसूस कर पाएंगे| भारत में कुम्भ का आयोजन प्रयास, नासिक, हरिध्दार और उज्जैन में किया जाता है। उज्जैन में आयोजित आस्था के इस पर्व को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है और ऐसा भी कहा जाता है कि सिंहस्थ कुम्भ में स्नान करने से मोक्ष कि प्राप्ति होती है|

आकर्षण केंद्र-
महाकाल मंदिर- उज्जैन का खास आकर्षण यहां का महाकाल मंदिर है। यहां का ज्योतिर्लिग पुराणों में वर्णित द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक है। इसकी आस्था दूर-दूर तक फैली हुई है। यह मंदिर आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व राणोजी सिंधिया के मुनीम रामचंद्र बाबा शेण बी ने बनवाया था, जिसके निर्माण में पुराने अवशेषों का उपयोग हुआ है| महाकालेश्वर का वर्तमान मंदिर तीन भागों में बंटा है। सबसे नीचे तलघर में महाकालेश्वर (मुख्य ज्योतिर्लिग), उसके ऊपर ओंकारेश्वर और सबसे ऊपर नाग चंदेश्वर मंदिर है। नाग चंदेश्वर मंदिर साल में सिर्फ एक बार खुलता है, नागपंचमी के अवसर पर। महाकालेश्वर की यह स्वयंभू मूर्ति विशाल और नागवेष्टित है। शिवजी के समक्ष नंदीगण की पाषाण प्रतिमा है। शिवजी की मूर्ति के गर्भगृह के द्वार का मुख दक्षिण की ओर है। तंत्र में दक्षिण मूर्ति की आराधना का विशेष महत्व है। पश्चिम की ओर गणेश और उत्तर की ओर पार्वती की मूर्ति है। शंकर जी का पूरा परिवार यहीं है।

द्वारकाधीश मंदिर- यहां के द्वारकाधीश मंदिर में श्रीकृष्ण की चांदी की भव्य प्रतिमा रखी हुई है। मंदिर का परिसर और वातावरण इतना सुन्दर है कि यहां दर्शनार्थियों की हमेशा भीड़ लगी रहती है| मंदिर के दरवाजे भी चांदी के हैं।

हरसिद्धि देवी मंदिर- हरसिद्धि देवी सम्राट विक्रमादित्य की परम आराध्य थीं। कहा जाता है कि सम्राट विक्रमादित्य ने हरसिद्धि को ग्यारह बार अपना मस्तक काटकर चढ़ाया और हर बार फिर मस्तक जुड़ गया। इस मंदिर में चार द्वार हैं, दक्षिण में एक बावड़ी है। इसी मंदिर में अन्नपूर्णा देवी की मूर्ति भी है। मंदिर के बीच एक गुफा भी मौजूद है जहां साधक साधना करते हैं। मंदिर के समक्ष दो ऊंचे विशाल दीप स्तंभ हैं, जिन पर 726 दीपों के स्थान बनाए हुए हैं। नवरात्रि के समय यहां दीप जलाए जाते हैं, जिनका भव्य दृश्य इस मंदिर को आलोकित करता है।
अमृतजल शिप्रा- यह पवित्र नदी हरसिद्धि देवी और श्रीराम मंदिर के पीछे पूर्वी छोर पर बहती है। इसका गुणगान महाकवि कालिदास और बाणभट्ट ने अपने काव्य में किया है, पर आज की शिप्रा दयनीय हालत में है। भक्तगण इसकी स्वच्छता का बहुत कम ध्यान रखते हैं। शिप्रा तट पर विशाल घाट, कई मंदिर और छतरियां बनी हुई हैं| दूर-दूर तक अनेकों घाट बने हुए हैं जिनमें रामघाट, नृसिंह घाट, छत्री घाट, सिद्धनाथ घाट, गंगा घाट और मंगलनाथ घाट प्रसिद्ध हैं।

चिंतामणि मंदिर- नगर के बाहर छह किलोमीटर की दूरी पर चिंतामणि गणेशजी का मंदिर है। यह मंदिर हमेशा ही दर्शनार्थियों से भरा रहता है। इच्छापूर्ण और चिंताहरण गणेश जी के इस मंदिर में चैत्र मास में एक विशाल मेला लगता है। इस अवसर पर यहां विशेष पूजा होती है। विवाह का पहला निमंत्रण चिंतामणि को देने की प्रथा यहां काफी लंबे समय से चली आ रही है। चिंतामणि से और आगे भर्तृहरि की गुफा है। कहते हैं गुफा से चारों धाम जाने के लिए मार्ग है, जो अब बंद कर दिया गया है।

काल भैरव मंदिर- यह मंदिर तकरीबन चार सौ वर्ष पुराना होगा। इसे राजा भद्रसेन ने बनवाया था। मंदिर में कालभैरव की करीब चार फुट ऊंची प्रतिमा है और जैसे भगवान शिव के मंदिर के सामने नंदी होते हैं, वैसे ही कालभैरव के सामने श्वान की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भक्तगण काल भैरव को चढ़ावे में शराब भी चढ़ाते हैं। प्रतिमा के शराब पीना का जादू देखना हो यह एक मात्र ऐसी जगह है जहां ऐसा कारनामा हर रोज़ देखने को मिलता है|कई लोगों ने इस बात की छानबीन भी कराई, पर हाथ कुछ न लगा।

बौद्ध स्तूप- उज्जैन के निकट सांची स्थित है| प्राचीन काल में यह बौद्ध कला और धर्म का बड़ा केंद्र रहा होगा। सम्राट अशोक ने यहां पहाड़ी पर कई स्तूप बनवाए। अशोक के बाद उनके पुत्र महेंद्र ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जगह-जगह बुद्ध की मूर्ति और स्तूप बनवाए। उन्होंने संपूर्ण भारत में चौरासी हजार स्तूप बनवाए। इनमें आठ सांची में हैं। यहां स्तूपों के पत्थरों पर बुद्ध के जन्म, ज्ञान प्राप्ति और धर्मोपदेश के दृश्य को गढ़ा गया है।

उज्जैन जाने के वैसे तो अनेकों तरीके उपलब्ध हैं लेकिन इंदौर से उज्जैन जाना सबसे आसन तरीका है|यहां से उज्जैन केवल 55 किलोमीटर की दूरी पर है। इसके लिए आप बस, ट्रेन या विमान किसी का भी प्रयोग कर मात्र 45 मिनट में पहुंच सकते हैं| तो चलिए फिर महादेव जी की शरण में और कर लीजिए अपनी सभी संकट दूर|

पिंडदान के लिए सर्वोत्तम स्थान है गया

वैदिक परम्परा और हिंदू मान्यताओं के अनुसार पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवित माता-पिता की सेवा करे और उनके मरणोपरांत उनकी बरसी पर तथा पितृपक्ष में उनका विधिवत श्राद्ध करे।

आश्विन कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से आश्विन महीने के अमावस्या तक को पितृपक्ष या महालया पक्ष कहा गया है। इस वर्ष 12 सितम्बर से पितृपक्ष प्रारम्भ हो रहा है।

मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का सहज और सरल मार्ग है। वैसे तो देश के कई स्थानों में पिंडदान किया जाता है परंतु बिहार के गया में पिंडदान का खास महत्व है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।

गया को विष्णु का नगर माना गया है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। विष्णु पुराण और वायु पुराण में भी इसकी चर्चा की गई है। विष्णु पुराण के मुताबिक गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं। माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे 'पितृ तीर्थ' भी कहा जाता है।

गया के पंडे राजकिशोर कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान सबसे अच्छा माना जाता है। पिंडदान की प्रक्रिया पुनपुन नदी के किनारे से प्रारम्भ होती है। पौराणिक मान्यताओं और किंवदंतियों के अनुसार भस्मासुर के वंशजों में गयासुर नामक राक्षस ने कठिन तपस्या कर ब्रह्मा जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाए और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाएं। यह वरदान मिलने के बाद स्वर्ग की जनसंख्या बढ़ने लगी और सब कुछ प्रकृति के नियमों के विपरीत होने लगा। लोग बिना भय के पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से पाप मुक्त होने लगे।

इससे बचने के लिए यज्ञ करने को देवताओं ने गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की। गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिए दे दिया। जब गयासुर लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस जगह आगे चलकर गया बनी। परंतु गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर उसने देवताओं से वरदान मांगा कि यह स्थान लोगों को तारने वाला बना रहे। जो भी लोग यहां पर किसी के तर्पण की इच्छा से पिंडदान करें, उन्हें मुक्ति मिले। यही कारण है कि आज भी लोग अपने पितरों को पिंड देने के लिए गया आते हैं।

विद्वानों के मुताबिक किसी वस्तु के गोलाकर रूप को पिंड कहा जाता है। प्रतीकात्मक रूप में शरीर को भी पिंड कहा जाता है। पिंडदान के समय मृतक की आत्मा को अर्पित करने के लिए जौ या चावल के आटे को गूंथकर बनाई गई गोलाकृति को पिंड कहते हैं।

श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय के दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है।

पंडों के मुताबिक शास्त्रों में पितरों का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है। पितरों की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानी सहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरु और आचार्य भी पितरों की श्रेणी में आते हैं।

कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थी जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही हैं। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है। इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख हैं।

उल्लेखनीय है कि देश में श्राद्ध के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सवरेपरि है।