नीड़ का निर्माण.......

बया पक्षी अथवा वीवर बर्ड यानि कि प्लोसियस फिलीपीनस कम से कम तकरीबन चिडिय़ा के आकार का तथा अधिक से अधिक 15 सैंटीमीटर तक के आकार का आकर्षक पक्षी है| यह पक्षी पंजाब, उत्तर प्रदेश व देश के अन्य भागों तथा विश्व के सभी देशों में पाया जाता है। बया पक्षी साधारणतया दिसबर से मार्च महीने तक 20 से 30 पक्षियों के झुंड में कालोनी बना कर प्रज्नन करते हैं। इनका ब्रीडिंग सीजन आम तौर पर मानसून के दौरान से ही शुरू हो जाता है क्योंकि बरसात के मौसम में विशेष प्रकार की ऊंची घास गिन्नी ग्रास बहुतात में होती है।

प्रजननकाल में नर इसके साथ लंबी संगीतमय ची-ई की सुखद ध्वनि भी जोड लेता है। बोलते ये साथ मिलकर है और घोंसला बुनते समय अथवा घोंसलों से चिपके हुए साथ में तेजी से पर फडफ़डाते जाते हैं ताकि उस हिस्से में अगर कोई मादा आई हो तो उनकी ओर आकर्षित हो। इस बया और अन्य बयों की घोंसलें बनाने की रीतियां अनोखी हैं। नर एक ही स्थान पर एक के बाद एक करके कई घोंसलें बनाते है और मादा जब वे अधूरे होते है तभी उन्हे ले लेती हैं। इसके बाद ही नर के लगभग एक साथ ही इतनी मादाएं तथा इतने ही परिवार भी होते हैं। लौकीनुमा घोंसला हवा में लटकता झूलता रहता है उसमें प्रवेश की एक लंबी नली सी होती है यह पुआल अथवा मोटे पत्तों वाली घास से खपच्चियां चीर चीर कर घना बुना होता है। वे बबूल या ऐसे ही अन्य पेडों तथा ताड क़े डंठलों से प्राय: पानी के ऊपर एक साथ लटकते होते हैं। तूंबी के अंदर अंडो के स्थान के पास गीली मिट्टी का पलस्तर भी किया होता है पर इसका प्रायोजन क्या है समझ मे नहीं आता। अंडे 2 से 4 तक बिल्कुल सफेद होते हैं।

बयों की काफी आम और लगभग बराबर ही पाई जाने वाली दो अन्य प्रजातियां भी है एक पट्टीदार बया और दूसरा है काले कंठ वाला बया। नरों के प्रजननकालीन परों के कारण इनकी पहचान कर लेना बडा आसान है। पट्टीदार बया की छाती भूरी सी होती है उसपर चटक काली लकीरें पडी होती हैं और खोपडी चमकती पीली होती है। काले कंठ वाले बया की खोपडी सुनहली ग़ला सफेद तथा निचला भाग भी सफेद होता है पर बीच में छाती पर एक चौडी पट्टी पडी होती है। ये दोनो पानी या दलदली भूमि में उगी घास या नरकुल के बीच, बिन बिन कर अपने घोंसले बनाते है।

इतिहास हो जाएगी ब्रितानी काल की आगरा की ट्रेन

ब्रिटिश हुकूमत काल की एक और बचीखुची निशानी इतिहास के किताबों में समाने जा रही है। धौलपुर से आगरा के टनटपुर तक 65 किलोमीटर लंबी संकरी रेल लाइन (नैरोगेज) पर चलने वाली ट्रेन के दिन गिनती के बचे हैं। शताब्दी पुरानी इसी रेल मार्ग से दिल्ली में भारतीय सत्ता की शक्ति के प्रतीक राष्ट्रपति भवन और संसद भवन के निर्माण में धौलपुर के मशहूर पत्थर ढोए गए थे। अब यह रेल मार्ग आधुनिक और उन्नत युग के रेल मार्ग से जुड़ने जा रहा है।

उत्तर मध्य रेलवे ने इस रेल लाइन के गेज परिवर्तन की योजना बनाई है और इस वर्ष के रेल बजट में धौलपुर और सीर मथुरा के बीच काम शुरू करने के लिए 212 करोड़ रुपये जारी किए गए हैं। ढाई फीट चौड़ी रेल लाइन की जगह ब्रॉड गेज लाइन बिछाई जाएगी।

चूंकि ट्रेन अब इतिहास बनने जा रहा है, इसलिए इलाके के लोग वीतराग से भरे हैं। क्षेत्र के एक वरिष्ठ पत्रकार राजीव सक्सेना ने कहा कि वे धीमी गति की ट्रेन की कमी महसूस करेंगे। सक्सेना ने कहा, "धीमी गति का यह अपूर्व अनुभव अब खत्म हो जाएगा।" श्री मथुरा राजघराने के राव नरेंद्र सिंह ने कहा, "एक आलसी की तरह इसकी चाल धीमी होती है। आप इससे उतरकर फिर वापस चढ़ सकते हैं और इसकी छत पर सफर करने का अलग ही मजा है।"

उन्होंने बताया, "1950 के आखिर में धौलपुर जाने के लिए हम इस ट्रेन को श्री मथुरा में पकड़ते थे। श्री मथुरा ही बाद में सीर मथुरा हो गया।" राव नरेंद्र सिंह ने बताया, "ब्रिटिश अपनी राजधानी कोलकाता से दिल्ली लाना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने इस इलाके में रेल का जाल बिछाया ताकि दिल्ली में सरकारी भवन बनाने के लिए धौलपुर के पत्थर ढोए जा सकें।"

पर्दाफाश

मानवता का संदेश देता है माह-ए-रमजान

इस्लाम धर्म में अच्छा इन्सान बनने के लिए पहले मुसलमान बनना आवश्यक है और मुसलमान बनने के लिए बुनियादी पांच कर्तव्यों को अमल में लाना का अति आवश्यक है| यदि इन पाँचों में से किसी एक को व्यक्ति नहीं मानता है तो वह सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता है| क्या हैं यह पांच कर्तव्य (फराईज)-

ईमान यानी कलिमा तय्यब, जिसमें अल्लाह के परम पूज्य होने का इकरार, उसके एक होने का यकीन और मोहम्मद साहब के आखिरी नबी (दूत) होने का यकीन करना शामिल है। इसके अलावा बाकी चार हैं -नमाज़, रोज़ा, हज और ज़कात। इस्लाम के ये पांचों फराईज़ इन्सान को इन्सान से प्रेम, सहानुभूति, सहायता तथा हमदर्दी की प्रेरणा देते हैं। यदि कोई व्यक्ति मुसलमान होकर इस सब पर अमल न करे, तो वह अपने मजहब के लिए झूठा है।

खुद को खुदा की राह में समर्पित कर देने का प्रतीक पाक महीना माह-ए-रमजान न सिर्फ रहमतों और बरकतों की बारिश का महीना है, बल्कि समूची मानव जाति को प्रेम भाईचारे और इंसानियत का संदेश भी देता है। इस पाक महीने में अल्लाह अपने बंदों पर रहमतों का खजाना लुटाते हैं। इस बार माह-ए-रमजान 11 जुलाई दिन गुरूवार से शुरू हो रहा है| 

आपको बता दें कि माह- ए- रमजान इस्लामी महीने में नौवां महीना होता है| यह महीना इस्लाम के सबसे पाक महीनों मैं शुमार किया जाता है। इस्लाम के सभी अनुयाइयों को इस महीने में रोजा, नमा, फितरा आदि करने की सलाह है। रमजान माह को तीन हिस्सों में बाँट दिया गया है| यह सभी हिस्से दस- दस दिन के होते हैं| 

कुरान के दूसरे पारे के आयत नंबर 183 में रोजा रखना हर मुसलमान के लिए जरूरी बताया गया है। रोज़े को अरबी में सोम कहते हैं, जिसका मतलब है रुकना। रोज़ा यानी तमाम बुराइयों से रुकना या परहेज़ करना। ज़बान से गलत या बुरा नहीं बोलना, आंख से गलत नहीं देखना, कान से गलत नहीं सुनना, हाथ-पैर तथा शरीर के अन्य हिस्सों से कोई नाजायज़ अमल नहीं करना। रोज़े की हालत में किसी व्यक्ति के लिए यह आज्ञा नहीं है कि वह अपनी पत्नी को भी इस नीयत से देखे कि उसके मन में कामवासना जगे। गैर औरत के बारे में तो ऐसा सोचना ही हराम है।

रोजा रखने वाले नियम कानून के मुताबिक, सूर्योदय से पूर्व उठकर ‘सहरी’ खाते हैं। सहर का अर्थ है भोर। अत: इस आहार का नाम सहरी है, जिसमें भोजन व तरल पदार्थ लिए जाते हैं। इसके बाद सूर्यास्त तक अन्न-जल पूरी तरह त्याग दिया जाता है, साथ ही आत्म-नियंत्रण के दूसरे नियम पालन करते हुए रोजेदार पांच वक्त की नमाज व कुरान पढ़ते हैं। शाम को सूर्यास्त के समय इफ्तार किया जाता है। रात के खाने के बाद तरावीह (अतिरिक्त नमाज) पढ़ी जाती है। लेकिन इसका प्रावधान अहले सुन्नत में है, शिया समुदाय में नहीं। 

इबादत के साथ-साथ इस महीने मुसलमान जकात के रूप में अपनी आय का कुछ भाग गरीबों पर खर्च करते हैं। गरीबों को खाना खिलाते हैं, दान करते हैं और गरीबों से लेकर अपने अधीन काम करने वालों को नये कपड़े उपहार में देते हैं। इस महीने मुसलमान जिस तरह पूरे समर्पण से अल्लाह की इबादत करते हैं, उसी तरह दिल खोलकर पैसा भी खर्च करते हैं। यह व्यवस्था इसीलिए है ताकि समाज का निम्न वर्ग खाने व कपड़ों से वंचित न रह जाये। एक बच्चा जब वयस्क हो जाता है तो रोजा रखना उसके लिए अनिवार्य धार्मिक कर्त्तव्य हो जाता है। बच्चा जब पहला रोजा रखता है, तो इसे रोजा कुशाई कहते हैं| मां-बाप अपनी हैसियत के मुताबिक इस अवसर पर रिश्तेदारों व दोस्तों की दावत करते हैं व अन्य अनुष्ठानों की तरह बच्चे को उपहार दिये जातें हैं।

शर्मनाक! पड़ोसी की घोड़ी को बनाया हवस का शिकार

दक्षिणी कैरोलिना में मानवता को शर्मसार कर देने वाला मामला प्रकाश में आया है| यहाँ एक युवक ने अपने पड़ोसी की घोड़ी को अपनी गन्दी हवस का शिकार बना डाला| मिली जानकारी के मुताबिक, सिरिलो कैस्टिलो पर अपने पड़ोसी की घोड़ी के साथ संबंध बनाने का आरोप लगा है। इससे पहले भी वह घोड़ी से संबंध बना चुका था। इस आरोप में उसे जेल भी हुई थी लेकिन फिर भी वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया| 

यह कोई पहला मामला नहीं है इससे पहले भी कुछ इसी तरह के मामले प्रकाश में आ चुके हैं| इससे पहले फरवरी माह में कुछ इसी तरह का मामला लन्दन में देखने को मिला था| यहाँ एक युवक को घोड़ी के साथ सेक्‍स सम्बन्ध बनाते गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तार युवक अमेरिका का रहने वाला था और पुलिस ने उसे सार्वजनिक रूप से अश्‍लीलता बरतने और आपराधिक अतिचार के आरोप में जेल भेज दिया। 

ख़बरों के मुताबिक व्हाट्रोन काउंटी टेक्सास के एंड्र्यू मेंडोजा ने अपनी गलती मान ली। 29 वर्षीय आरोपी ने हालांकि यह भी कहा कि वह 'अश्व पुरुष' पैदा करने का प्रयास कर रहा था। युवक ने पुलिस को बताया है "मैं अपने घर पर अपनी गर्लफ्रेंड के कॉल का इंतजार कर रहा था। मैंने खुद से कहा कि यदि वह मुझे कॉल नहीं करेगी तो मैं पड़ोसी की घोड़ी के पास चला जाऊंगा। मैं घोड़ी से एक बच्चा पैदा करने का प्रयास कर रहा था। मैंने सोचा कि इससे अश्व पुरुष पैदा होगा।" 

साल 2011 में दक्षिणी कैरोलिना के रोडेल वेरीन पर भी पड़ोसी की घोड़ी के साथ सेक्‍स करने का आरोप लग चुका है। और उस शख्स ने भी 2007 में उसी घोड़ी के साथ पहले भी संबंध बनाए थे। घोड़ी का नाम नादिया है। पड़ोसी ने अस्तबल में कैमरा लगा रखा था ताकि कैस्टिलो की हरकतों को रिकॉर्ड कर पुलिस को दिया जाए। दरअसल साल 2012 जनवरी में भी उसने ऐसी ही हरकत की थी, जिसके बाद उसे तीन महीने जेल में बिताने पड़े थे। जानकारी अनुसार कैस्टिलो की इस तरह की दुबारा हरकत पर उसकी सारी रिकॉडिग पड़ोसी ने पुलिस को दे दी।

अब 'पिंजरे में पलेंगी मछलियां'

अब 'पिंजरे में पलेंगी मछलियां'। जी हां, यह सुनने में थोड़ा सा अजीब लगता है पर यह सच है। मछली पालन की इस आधुनिक तकनीक को केज (पिंजरा) कल्चर कहा जाता है। कोरिया जिले के मुख्यालय बैकुण्ठपुर स्थित झुमका जलाशय में मछली उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से केज कल्चर की स्थापना की गयी है। केज कल्चर में पिंजरानुमा संरचना में मछली पालन का कार्य किया जाता है। इसमें पिंजरे के अंदर लगे जाल के कारण जहां मछली बीज को बड़ी मछलियां व अन्य परभक्षी नहीं खा पाते, वहीं मछलियों को पूरक आहार व अन्य दवाइयां आदि देने में आसानी होती है और उनकी मात्रा भी काफी कम लगती है।

मछली भोजन में प्रोटीन का बहुत अच्छा स्त्रोत मानी जाती है। इस कारण दिनों दिन मछलियों की मांग भी काफी बढ़ती जा रही है। जिले के हाट बाजारों में बाहर से मछलियों को लाकर बेचा जाता है। जिससे यहां के मछली पालक किसानों को मुनाफा काफी कम होता है। बाहर से लाई जाने वाली मछलियां काफी पुरानी रहती है। जो सेहत के लिए भी नुकसानदायक होती है। 

इसे देखते हुए जिला प्रशासन द्वारा एकीकृत कार्ययोजना के तहत मछली पालन विभाग के माध्यम से 33 लाख 52 हजार रुपये की लागत से झुमका जलाशय में प्रदर्शन इकाई के रूप में एक केज स्थापित किया गया है। यहां 6 गुना 4 मीटर के आठ पिंजरे बनाए गए हैं। इन पिंजरों में 24 हजार मछली बीज का संचयन मत्स्य विभाग द्वारा किया गया है।

मछली पालन विभाग की देखरेख में झुमका जलाशय स्थित मछुआ सहकारी समिति के सदस्यों द्वारा इसका संचालन किया जाएगा। मछुआ समिति के माध्यम से मछलियों को पूरक आहार और दवाइयां आदि दी जाएगी। यहां दस माह में 240 क्विंटल मछली का उत्पादन हो सकेगा। बाजार में 8 हजार रुपये प्रति क्विंटल की दर से मछली बेची जाती है। 

इस तरह कुल 19 लाख 20 हजार रुपये की आमदनी यहां के मछुआरों को इस अवधि में प्राप्त हो सकेगी। इसमें मछलियों के पूरक आहार आदि पर हुए व्यय करीब 9 लाख रुपये को कम कर दिया जाए तो दस लाख रुपये मछुआरों को शुद्ध मुनाफा होगा। यह मुनाफा जलाशय के अन्य हिस्सों से उत्पादित मछली से अतिरिक्त होगा। स्थानीय स्तर पर बड़ी मात्रा में ताजी मछलियों की उपलब्धता होने से उपभोक्ताओं को भी कम कीमत में अच्छी मछलियां मिल सकेगी।

झुमका जलाशय में स्थापित केज कल्चर में नील क्रांति मंथन कक्ष के नाम से एक कमरा बनाया गया है जिसमें क्षेत्र के मछुआरों व विभागीय कर्मचारियों को समय-समय पर मछली पालन की आधुनिक तकनीकों के बारे में प्रशिक्षण भी मुहैया कराया जा सकेगा। इसमें एक भंडार कक्ष भी बनाया गया है। जहां मछलियों के पूरक आहार, दवाएं व उत्पादित मछलियों को रखा जाएगा।

पर्दाफाश 

जहां पेड़ दिलाते हैं चोरी का सामान!

भले ही विकास के लाख दावे किए जाएं, किंतु आज भी बिहार के बांका जिले में कई गांव ऐसे हैं जहां के लोग चोरों को पकड़ने के लिए पुलिस की मदद कम लेते हैं और पेड़ों से फरियाद ज्यादा लगाते हैं। यह सुनकर अचंभा जरूर लग रहा हो, परंतु बिहार के बांका जिले के ग्रामीण क्षेत्रों में बसे करीब 70 प्रतिशत लोग आज भी चोरों को पकड़ने या चोरी गया सामान वापस पाने के लिए यह अनोखा तरीका अपनाते हैं। इस इलाके में चोरी होने के बाद लोग पुलिस के पास न जाकर चिह्न्ति पेड़ों के पास चोर को दंड दिलाने पहुंचते हैं।

एक ईंट को साफ कर उसमें सिंदूर लगाकर उसे पेड़ की टहनी में लटका दिया जाता है। इसके बाद यह सूचना सार्वजनिक कर दी जाती है। मान्यता है कि चोरी का सामान वापस नहीं करने या नहीं मिलने पर जिस दिन पेड़ की डाली में बंधी ईंट अपने आप पेड़ से गिर जाएगी, उस दिन उस चोर को बहुत बड़ी क्षति का सामना करना पड़ेगा।

ग्रामीणों का मानना है कि सूचना सार्वजनिक होते ही उनका सामान किसी न किसी बहाने चोर उन्हें वापस कर देते हैं। बांका जिले में ऐसे कई पेड़ मिल जाएंगे जिनमें ईंट लटकी रहती हैं। इनमें महत्वपूर्ण हैं बांका-भागलपुर सड़क के किनारे बांका जिला मुख्यालय से करीब चार किलोमीटर दूर शंकरपुर गांव तथा जिला मुख्यालय से करीब 20 किलोमीटर दूर अमरपुर प्रखंड के हरनिया स्थान पर चिह्न्ति एक खास पेड़, जिसमें सैकड़ों ईंट लटकी रहती हैं।

शंकरपुर गांव निवासी निरंजन किशोर ने बताया कि ये खास पेड़ पीपल, खजूर, पाकड़, गूलर सहित कुछ खास जातियों के होते हैं, जो जिले के करीब पांच दर्जन से ज्यादा गांवों के देवी स्थानों के सामने स्थित हैं। किशोर ने बताया कि यह परंपरा बहुत प्राचीन है जो काफी फलदायी भी है। वे कहते हैं कि चोरी गया सामान वापस मिल जाने के बाद कई मंदिरों में लोग देवी को खुश करने के लिए बलि देते हैं। इसके बाद पूजा-पाठ किया जाता है और फिर सामान मिल जाने की सूचना सार्वजनिक कर दी जाती है। 

एक अन्य ग्रामीण संजीव कुमार कहते हैं कि यह अंधविश्वास हो सकता है, परंतु पुलिस भी चोरों को नहीं पकड़ती है, ऐसा करने से उम्मीद तो होती है कि उनका चोरी गया सामान देर-सबेर अवश्य मिल जाएगा। 

इस संदर्भ में पूछे जाने पर जिले के एक पुलिस अधिकारी ने कहा कि यह अंधविश्वास है, जो यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरा जैसी बन गई है। उन्होंने कहा कि जिन चोरी की घटनाओं की प्राथमिकी थानों में दर्ज होती है उसका निपटारा किया जाता है। जो मामले थाने में आते ही नहीं, उसमें पुलिस क्या कर सकती है।

पर्दाफाश से साभार 

पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं की तरफ ज्यादा आकर्षित होते हैं बन्दर

अगर आपसे कोई यह कहे कि बन्दर भी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का कहना ज्यादा मानते हैं तो शायद आपको सुनकर विश्वास नहीं होगा आप यही कहेंगे कि बंदरों का महिलाओं से क्या लेना देना लेकिन यह सच है| दक्षिणी अफ्रीका में बंदरों की एक विशेष प्रजाति वेर्वेट पाई जाती है जो पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अगर किसी कार्य के लिए प्रेरित करें तो वह बेहतर ढंग से समझ जाते हैं|

प्राप्त जानकारी के अनुसार, स्विट्जरलैंड में नयूचाटेल विश्वविद्यालय की बायोलॉजिस्ट एरिका वैन डे वाल और उसकी टीम ने दक्षिण अफ्रीका लोस्कोप बांध नेचर रिजर्व में जंगली वेर्वेट बंदरों की एक टीम बनायी जिसमें तीन बंदरों को पुरुष प्रशिक्षक डिब्बा खोलना सिखा रहा था, जबकि दूसरे समूह को महिला प्रशिक्षक डिब्बा खोलना सिखा रही थी। इन डिब्बों को लेकर बंदरों से 25 प्रयोग करवाये। उन्हें एक पुरुष और एक महिला प्रशिक्षक ने ट्रेनिंग दी। प्रयोग से यह बात सामने आयी कि बंदर महिला प्रशिक्षक के निर्देशों को पुरुष प्रशिक्षक की अपेक्षा ज्यादा अच्छी तरह समझ रहे थे।

स्वस्थ नर की तरफ आकर्षित होती हैं.............

मनुष्यों के साथ-साथ मछलियों की कुछ प्रजाति में भी तंदरुस्ती को सम्पन्नता, अच्छे स्वास्थ्य और सुरक्षा की निशानी माना जाता है। एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि मादा मॉसक्विटोफिश (मच्छर का लार्वा खाने वाली मछली) शारीरिक रूप से स्वस्थ नर की तरफ आकर्षित होती हैं। 

अध्ययन दल के नेतृत्वकर्ता एवं 'आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी' (एएनयू) के शोधार्थी एंड्रयू कॉन ने कहा, "शरीर के आकार में समान लेकिन विकास में विभिन्न नर मादाओं को समान ढंग से आकर्षित नहीं करते।"

वैज्ञानिक पत्रिका 'बायोलॉजी लेटर्स' के अनुसार आस्ट्रेलिया में मॉसक्विटोफिश मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए लाई गई थी। विश्वविद्यालय के बयान के अनुसार कॉन के नेतृत्व में अध्ययन दल ने इस तथ्य पर ध्यान दिया कि कैसे विकास वयस्कों के समागम को प्रभावित करता है।

कॉन ने कहा, "हमने मादा के सामने एक दिन जन्मे दो सगे भाइयों को विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। एक नर की वृद्धि सामान्य वातावरण में हुई थी और दूसरा कुपोषित था।" उन्होंने कहा, "मजेदार बात यह हुई कि मादा ने उन दोनों के मध्य के अंतर को बता दिया और जिसकी वृद्धि सामान्य ढंग से हुई थी उसे पसंद किया।"

कॉन ने कहा, "यदि नर लगातार कुपोषण का सामना करते हैं तो उन्हें बीमारियों का खतरा हो सकता है। इससे मादाएं भी प्रभावित हो सकती हैं।"

गाड़ियों से ज्यादा शोर मचाती हैं गौरैया


अब तक तो यही माना जाता था कि शहरों में सबसे ज्यादा शोर वाहनों की वजह से होता है लेकिन हाल में आई एक रिपोर्ट के अनुसार इनसे ज्यादा शोर शहरी क्षेत्र में रहने वाले गौरैया मचाती हैं। 


वर्जीनिया के जॉर्ज मेशन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेविड लुथर का मानना है कि ये गौरैया अपने पूवर्जो से ज्यादा शोर मचाती हैं। उन्होंने इसकी पुष्टि के लिए 1960 के दौरान उनके पूर्वजों किए जाने वाले कलरव की विशेष ध्वनि की रिकॉर्डिग से उनके आवाज की तुलना की, जो वर्ष 2005 में सैन फ्रांसिस्को में रिकॉर्ड की गई थी। 


डेविड लुथर ने अपने शोध के दौरान पाया कि गौरैया अपने पूर्वजों से ज्यादा तेज आवाजें निकालती हैं और उनके पूर्वजों द्वारा किए जाने वाले कलरव का अब कोई अस्तित्व नहीं रहा है। वर्ष 1960 के दौरान उजले मत्थे वाले गौरैये तीन क्षेत्रीय ध्वनियों के कलरव किया करते थे। तीस साल बाद उनकी संख्या घटकर दो हो गई और अब सिर्फ एक ही ध्वनि के कलरव शेष रह गए हैं, जो सैन फ्रांसिस्को के क्षेत्रीय कलरव के रूप में रह गई हैं।


शोधकर्ताओं का मानना है कि यह आखिरी कलरव काफी ऊंची ध्वनि के साथ किया जाता है, जिसे सीखना काफी आसान होता है। इस वजह से यह वातावरण में आसानी से सुनी जा सकती है। लुथर ने इस बारे में कहा कि अन्य शोध में जहां शहरों और देश के चिड़ियों के कलरव के बीच के अंतर को दिखाया गया है, वहीं उनके शोध में एक क्षेत्र विशेष के कलरव को स्थान दिया गया है। 


इससे पहले भी चिड़ियों के कलरव पर कई शोध प्रकाशित हो चुके हैं। जिनमें अलग-अलग तथ्य सामने आए हैं। एक शोध में यह पाया गया है कि बर्लिन के बुलबुल, जंगलों में रहने वाले बुलबुल से 14 डेसीबल ज्यादा तेजी से आवाज निकालते हैं। शहरों में रहने वाली इन चिड़ियों की आवाज, कार और अन्य वाहनों की अपेक्षा ज्यादा शोर मचाती हैं।

गम भुलाने के लिए मक्खियां भी लेती हैं नशे का सहारा

अगर आपका मानना है कि दिल टूटने का गम सिर्फ इंसानों को ही होता है तो आप गलत हैं| किसी से ठुकराए जाने का गम जितना इंसानों को होता है उतना ही मक्खियों को भी होता है और ख़ास बात तो है ये है की इंसानों की ही तरह मक्खियां भी गम भूलने के लिए शराब का सहारा लेती हैं|


हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि यौनसुख से वंचित नर मक्खियां अपने गम को दूर करने के लिए नशे वाले भोजन में अपना ठिकाना ढूंढती हैं| इस बात से उत्साहित वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जानकारी नशे की समस्या को बेहतर ढंग से समझने और उसका नया संभावित इलाज खोजने में मदद करेगी|


वैज्ञानिकों के अनुसार, ठुकराई मक्खियों में नशे की प्रवृत्ति दिमाग के एक रसायन न्यूरोपेपटाइड के स्तर के घटने के कारण होती है| जब मक्खियां खाने या सहवास जैसे क्रियाएं करती हैं तो एनपीएफ के स्तर में बढोत्तरी होती हैं लेकिन यह शराब लेने जैसे बाहरी वजहों से बढ़ सकता है जो यह कीट सड़े फलों में पाते हैं| अब इससे ये तो कहा जा सकता है कि चाहे इंसान हो या मक्खी ठुकराए जाने का गम हर किसी को होता है|

नीले अम्बर में विचरण करता था यह शख्स

अगर आप से कोई यह कहे कि मैंने आज एक इन्सान हवा में उड़ते हुए देखा है तो शायद आप उस पर टूट भी पड़े लेकिन एक ऐसा शख्स जिसने यह कर दिखाया| आपको यकीन नहीं होगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है|


मिली जानकारी के मुताबिक एक शख्स ने नीले अम्बर में चिड़ियों की तरह उड़ने का सपना देखा था| कहते है कि दिल में अगर जज्बा हो तो इंसान क्या नही कर सकता ! अपने जज्बे के दम पर ही एक शख्स ने सबसे पहले आकाश में उड़ान भरी थी और वो शख्स था अब्बास कासिम इब्न फिर्नास|


हाँ मै कोई कहानी नही सुना रहा हूँ बल्कि एक सच्ची घटना बता रहा हूँ | 810 ईसवीं में अरब के एक देश में फिरनास का जन्म हुआ था |


इतिहासकार फिलिप हिती की किताब अरब के इतिहास के अनुसार, आकाश में उड़ान भरने के इतिहास में पहला वैज्ञानिक प्रयास अब्बास कासिम इब्न फिरनास ने ही किया था| इस किताब में यह भी कहा गया है कि विमान के अविष्कारक विल्बर राईट और ओर्विल्ले राईट कहे जाते है, लेकिन इन दोनों से पहले ही उसने आकाश में उड़ने का प्रयास किया था | उसने यह प्रयास एक ग्लाईडर को लेकर किया था|


कहा जाता है कि फिरनास द्वारा किया गया वह प्रयास सफल रहा था | 875 ईसवीं में फिरनास 65 साल का था तब उसने यह कारनामा किया था | सबसे पहले उसने एक ग्लाईडर बनाया तत्पश्चात उसने एक पहाड़ से छलांग लगा दी | आकाश में उड़ने का उसका यह प्रयास लगभग सफल था| उसको आकाश से नीचे उतरने का कारनामा कई लोगो ने देखा| जब वह धरती पर नीचे उतर रहा था परन्तु वह ठीक ढंग से उतर नही पाया और इससे वह घायल हो गया |


आज इस इंसान कि की गयी पहली कोशिश के कारण ही हम आकाश में उड़ पाते है और इनके सम्मान में चाँद पर पाए जाने वाले एक बड़े गड्ढे का नाम इब्न फिरनास क्रेटर रखा गया है |

जंगली कबूतर नहीं भूलते किसी की शक्ल को

एक अध्यन के मुताबिक ये सामने आया है कि जंगली, अप्रशिक्षित कबूतर लोगों का चेहरा कभी नहीं भूलते और न ही उन्हें किसी तरह से मूर्ख बनाया जा सकता है। वे नए क्षेत्रों में भी बिना किसी चूक के तेजी से उड़ान भरते हैं। प्रशिक्षित नहीं होने के बावजूद वे लोगों को पहचानने में किसी तरह की चूक नहीं करते।

शोध के मुताबिक पेरिस के एक पार्क में लगभग समान कद-काठी और सामान्य रंगत वाली दो शोधकर्ताओं को प्रयोगशाला का अलग-अलग रंग का कोट पहनाकर कबूतरों को दाना डाला। उनमें से एक ने कबूतरों पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए उन्हें दाना चुगने दिया, जबकि दूसरी ने शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाते हुए उन्हें खदेड़ दिया।

इस प्रयोग को कई बार दोहराया गया। इससे जो परिणाम सामने आया, उसके मुताबिक कबूतरों ने उन्हें खदड़ने वाले व्यक्ति की लगातार उपेक्षा की, भले उन्होंने एक बार ही ऐसा किया हो। प्रयोशाला का कोट बदलकर भी उन्हें नहीं भरमाया जा सका। यूनीवर्सिटी ऑफ पेरिस में हुए शोध के अनुसार, दोनों शोधकर्ताओं के महिला और समान उम्र, कद-काठी तथा रंगत की होने के बावजूद कबूतरों ने उन्हें उनके चेहरे से पहचाना

चमड़ी देखकर जान सकते हैं नर जिराफ की उम्र


आपको पता है सभी तृणभक्षियों में जिराफ सबसे अधिक विलक्षण एवं आकर्षक और संसार के सबसे ऊँचे जीव जिराफ के बारे में आपके लिए एक रोचक जानकारी है| जानकारी यह है कि अब आप नर जिराफ की चमड़ी देखकर उसकी उम्र के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं| 

शोधकर्ताओं का कहना है कि उनके शरीर के धब्बों को देखकर उनकी उम्र का पता लगाया जा सकता है। जापान के क्योतो विश्वविद्यालय के 'वाइल्ड लाइफ सेंटर' और प्राइमेट रिसर्च इंस्टीट्यूट के दल ने 33 वर्ष तक जाम्बिया में नर जिराफ का अध्ययन किया है।

अपने अध्ययन से प्राप्त आकड़ों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जिराफ की उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उसके शरीर के धब्बों का रंग गाढ़ा होता जाता है। सूत्रों के मुताबिक, शोध में यह कहा गया है कि जिराफ की सभी प्रजातियों के साथ यह बात लागू होती है।